बाल गंगाधर तिलक (1856-1920)
भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास में उग्र राष्ट्रीयता के जन्मदाता तथा निर्भयता से राष्ट्र की वेदना को प्रकट करने वाले सर्वप्रथम व्यक्ति बाल गंगाधर तिलक थे। उन्होने उदारवादियों के वैधानिक आन्दोलन को एक राष्ट्रीय आन्दोलन तथा जन-आन्दोलन के रूप में परिवर्तित कर दिया। उनकी निःस्वार्थ देशभक्ति, अदम्य साहस, स्वतत्रंत और सबल राष्ट्रीय प्रवृति और सबसे उपर अपने देश और देशवासियों की एकनिष्ठ सेवा के कारण उन्हे स्वतंत्र भारत के निर्माताओं में बहुत उच्च स्थान प्राप्त है। डा0 रमेश चन्द्र मजूमदार लिखते है कि - ‘‘अपने देशप्रेम और अथक प्रयत्नों के परिणामस्वरूप बाल गंगाधर तिलक ‘लोकमान्य‘ कहलाने लगे। वह जहॉं कहीं भी जाते थे उनका राष्ट्रीय सम्मान और स्वागत किया जाता था।‘‘
सार्वजनिक जीवन -
लोकमान्य तिलक का जन्म 1856 ई0 में एक ऐसे महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण परिवार में हुआ था जिनका सम्बन्ध इतिहास के गौरवशाली पेशवाओं से था। बचपन से ही तिलक मेघावी छात्र और प्रखर व्यक्तित्व के धनी थे। सन् 1879 ई0 में उन्होंने एल0 एल0 बी0 की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। कॉलेज के दिनों से ही वे सार्वजनिक कार्यों की ओर उन्मुख हो गये थे। चूँकि गणित के प्रतिभावान छात्र होने के नाते उनसे पूछा गया कि वे गणित में एम0एससी0 के बजाए एल0एल0बी0 क्यों कर रहे हैं ? तो उन्होंने उत्तर दिया था- “मैं अपना जीवन देश के जन-जागरण में लगाना चाहता हूँ और मेरा मानना है कि इस कार्य के लिए साहित्य अथवा किसी अन्य विज्ञान या गणित की उपाधि की अपेक्षा कानून का ज्ञान अधिक उपयोगी होगा। मैं एक ऐसे जीवन की कल्पना नहीं कर सकता जिसमें मुझे ब्रिटिश शासकों से संघर्ष न करना पड़े।’‘ प्रारम्भिक दिनों के राष्ट्रीय मंच में उन्होंने जो धूम मचायी उससे लोग स्नेह एवं सम्मान से अविभूत होकर उन्हें लोकमान्य, जनता के प्रिय नायक तथा सर्व सम्मानित कहकर पुकारते थे। उन दिनों लोकमान्य तिलक का राजनीतिक मन्त्र “स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और उसे मैं लेकर ही रहूँगा” अधिकांश सजग भारतीयों के होठों पर था। तिलक ऐसे पहले नेता थे जिन्होंने राजनीतिक आन्दोलन को शक्तिशाली बनाने के लिए धार्मिक जोश का प्रयोग किया। वे काँग्रेस के उग्र राष्ट्रवादी नेता थे जिन्होंने अपनी अनवरत साधना और महान बलिदान के द्वारा भारतीय स्वाधीनता के भव्य महल में नींव डालने की भूमिका अदा की थी। वे प्रत्येक पहलू में यथार्थ और आदर्श से घिरे हुए थे। ‘गीता‘ दर्शन पर उनकी टिप्पणी और ‘आर्कटिक होम इन द वेदाज’ नामक वह ग्रन्थ जिसमें हिन्दुओं के आदिग्रन्थ वेदों में वर्णित आर्यों का जन्म स्थान आर्कटिक प्रदेश में सिद्ध किया गया है, उनके विस्तृत अध्ययन और अनुसन्धान में गहरी रुचि के प्रमाण है।
लोकमान्य तिलक ने एक शिक्षा शास्त्री के रूप में पूना न्यू इंग्लिश स्कूल, दक्षिण शिक्षा समाज तथा फर्ग्युशन कॉलेज के व्यवस्थापक के रूप में ख्याति अर्जित की। अपने अथक परिश्रम से उन्होंने वस्तुतः महाराष्ट्र में एक शैक्षणिक क्रान्ति ही उत्पन्न कर दी। ओरियन्टल सोसायटी के लिए ज्योतिष शास्त्र के आधार पर वेदों की प्राचीनता सिद्ध करने वाले एक विद्वतापूर्ण निबन्ध के कारण देश-विदेश में उनकी ख्याति फैल गई। 1896 ई0 में अकाल में लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरुक बनाने की दिशा में उन्होंने महत्त्वपूर्ण कार्य किये। 1889 ई0 में काँग्रेस में अपने प्रवेश के बाद से ही एक राजनीतिक नेता के रूप में काँग्रेस के कार्यकलापों में तिलक ने उल्लेखनीय भूमिका अदा की। उदारवादियों की नीति से असन्तुष्ट तिलक ने अपनी शक्ति महाराष्ट्र के राष्ट्रीय आन्दोलन को सुसंगठित करने में लगाई और भारतीय नवयुवकों में यह भाव भरने की चेष्टा की कि देश अपनी स्वतन्त्रता किसी की दया के बल पर नहीं अपितु अपने सामर्थ्य के बल पर अर्जित करे। अपने दो समाचार पत्र- ‘केसरी‘ और ‘मराठा‘ तथा शिवाजी और गणेश उत्सवों द्वारा उन्होंने जनता में देशभक्ति की भावना फूँक दी तथा उसने अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रवृत्ति उत्पन्न की। 19 दिसम्बर 1893 ई0 के अपने प्रमुख समाचार पत्र ‘केसरी‘ में लोकमान्य तिलक ने अपनी मनोवृत्ति को उद्घाटित करते हुए लिखा था- भारत में अंग्रेजी नौकरशाही से अनुनय-विनय कर हम कुछ नहीं पा सकते। ऐसे प्रयत्न करना पत्थर पर सिर टकराने के समान है। महाराष्ट्र में अकाल और पूना में प्लेग के समय जनता के कष्टों के प्रति सरकार के उपेक्षापूर्ण रवैये से क्षुब्ध होकर दो नवयुवकों ने पूना के प्लेग कमिश्नर रैंड तथा एक अन्य अंग्रेज अधिकारी की हत्या कर दी। तिलक का इस हत्याकाण्ड से कोई सम्बन्ध नहीं था, किन्तु ब्रिटिश सरकार ने उन पर हिंसा और राजद्रोह भड़काने का आरोप लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया और 18 मास का कठोर कारावास का दण्ड दे दिया। तिलक की गिरफ्तारी ने न केवल महाराष्ट्र को वरन् सम्पूर्ण भारत को उग्र बना दिया और सरकार को यह अनुभव हो गया कि तिलक का जनता पर कितना प्रभाव है। तिलक की महानता इस बात में थी कि सरकार के प्रतिशोधपूर्ण और बर्बर रवैये के बावजूद उन्होंने कभी सार्वजनिक जीवन से मुख नहीं मोड़ा और न वे कभी निराशावाद से अभिभूत होकर बौद्धिक अन्तर्मुखी ही बने। प्राचीन युग के महान ऋषियों की भाँति उन्होंने सब कुछ आश्चर्यजनक अविचलता के साथ सहन किया।
1905 ई0 में बंग-भंग के समय लोकमान्य तिलक का राजनीतिक कार्यक्षेत्र महाराष्ट्र से बढ़कर सम्पूर्ण भारत हो गया। ‘केसरी‘ के माध्यम से उन्होंने स्वदेशी, बहिष्कार और स्वराज्य का सन्देश जन-जन तक पहुँचाया। लाल-बाल-पाल ने देश में वस्तुतः एक संगठित उग्र राष्ट्रवादी दल को राष्ट्रीय रंगमंच पर ला खड़ा किया। काँग्रेस के उदारवादी नेता तिलक के उम्र और यथार्थवादी विचारों से सहमत नहीं हो सके। फलस्वरूप काँग्रेस के नरम और गरम दल में मतभेद की खाई चौड़ी होती गई और अन्ततः 1907 ई0 में ’सूरत की फूट’ के रूप में सामने आई। इसके बाद 1915 ई0 तक अपने अलग अस्तित्व के साथ काँग्रेस उग्र राष्ट्रवादी स्वरूप में काम करती रही। 1908 ई0 में तिलक को राजद्रोह के मिथ्या आरोप में पुनः गिरफ्तार करके 6 वर्ष के कारावास का दण्ड देकर माण्डले जेल में भेज दिया जहाँ अपने दो विख्यात ग्रन्थों- ‘गीता रहस्य‘, और ’दि आर्कटिक होम इन द वेदाज’ की रचना की। ये दोनों ही ग्रन्थ लोकमान्य तिलक के विशाल ज्ञान, ऐतिहासिक शोध और विचारों की उत्कृष्टता के परिचायक बन गये।
सन् 1914 ई0 में कारावास से मुक्त होने पर तिलक पुनः राष्ट्रीय संगठन के कार्य में समर्पित हो गये। 1916 ई0 से सन् 1920 ई0 तक उन्होंने होमरूल लीग का प्रचार करके देश के स्वाधीनता संघर्ष को आगे बढ़ाया। एनी बेसेन्ट के प्रयत्नों से तिलक पुनः काँग्रेस में शामिल हो गए और अन्त तक इसी में रहे। 1918 ई0 में वे सर्वसम्मति से काँग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। लेकिन शिरोल केस के सिलसिले में इंग्लैण्ड में चले जाने से वे इस गौरवशाली पद को स्वीकार न कर सके। सितम्बर 1920 के कांग्रेस के कलकत्ता के विशेष अधिवेशन में जब लोग तिलक के सभापति चुने जाने की आशा कर रहे थे तभी अचानक 21 जुलाई 1920 को मुम्बई में आकस्मिक बीमारी से स्वाधीनता संग्राम के इस विकट योद्धा का स्वर्गवास हो गया। पर इस समय तक तिलक सचमुच काँग्रेस का रूपान्तर कर चुके थे और उसे सुदृढ़ नौकरशाही विरोधी मोर्चे में परिवर्तित कर चुके थे।
लोकमान्य तिलक का राजनीतिक दर्शन
सच्चे अर्थों में बाल गंगाधर तिलक भारतीय उग्र राष्ट्रवाद के जनक थे, जिन्होंने भारतीय राजनीति को एक नई दिशा प्रदान करके काँग्रेस को एक जन-आन्दोलन में परिणित किया। तिलक ने जनता और नेताओं के सामने एक रचनात्मक कार्य विकसित किया और स्वतन्त्र भारत की भूमिका की ओर इन चिरस्मरणीय शब्दों में संकेत किया कि- “एशिया तथा संसार की शान्ति के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि भारत को आत्मशासन प्रदान करके पूर्व में स्वतन्त्रता का गढ़ बना दिया जाए।’ तिलक उग्र राष्ट्रवादी थे लेकिन उन्होंने हिंसा और रक्तपात को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया।
लोकमान्य तिलक के राजनीतिक चिन्तन के आधार
बान गंगाधर तिलक ने राजनीतिक दर्शन के क्षेत्र में एक यथार्थवादी और व्यावहारिक चरित्र की भूमिका का निर्वाह किया। उदारवादियों की निष्क्रिय नीति की प्रतिक्रिया के रूप में तिलक ने सम्पूर्ण देश को मूर्त और गतिशील विचार देकर अद्भुत जन-जागरण पैदा किया। यद्यपि तिलक के विचार और दृष्टिकोण में हमें व्यावहारिक यथार्थवाद के तत्त्व देखने को मिलते हैं। लेकिन वे मैकियावेली और हॉब्स की भाँति के यथार्थवादी नहीं थे अथवा उन्होंने प्लेटो, अरस्तु या सिसरो की भाँति सर्वोत्तम राज्य के लक्षणों और सम्भावना का विवेचन नहीं किया। जीवन में उनका मुख्य उद्देश्य भारत की राजनीतिक दासता से मुक्ति था और इसी दिशा में एक व्यावहारिक राजनीतिक नेता के रूप में उनके कार्यकलाप रहे, उनकी चिन्तन-धारा बही। तिलक के राजनीतिक चिन्तन ने हमें भारतीय दर्शन को कुछ प्रमुख धारणाओं तथा आधुनिक यूरोप के राष्ट्रवादी और लोकतांत्रिक विचारों का समन्वय देखने को मिलता है। तिलक की आध्यात्मिक धारणाओं ने उनके राजनीतिक चिन्तन को विशेष रूप से प्रभावित किया। तिलक एक वेदान्तवादी थे और वेदान्त के अद्वैतवादी सिद्धान्त के आधार पर ही उन्होंने प्राकृतिक अधिकारों की राजनीतिक धारणा का निर्माण किया।
वेदान्त दर्शन ने ही लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को स्वतन्त्रता की सर्वोच्चता की ललक जगाई। लोकमान्य तिलक ने स्वतन्त्रता को व्यक्ति का अति आवश्यक अधिकार माना और स्पष्ट शब्दों में घोषणा की कि स्वतन्त्रता के अभाव में नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन सम्भव नहीं है। तिलक का कहना था कि विदेशी साम्राज्यवाद का कोई भी स्वरूप स्वतन्त्रता के लिए घातक है क्योंकि वह राष्ट्र की आत्मा को विनष्ट कर सकता है। अपने एक भाषण में तिलक ने स्वतन्त्रता को स्वशासन आन्दोलन (होमरूल आन्दोलन) की आत्मा बताया। तिलक ने इस सम्बन्ध में कहा- ‘‘स्वतन्त्रता व्यक्तिगत आत्मा का जीवन है जिसे वेदान्त ने ईश्वर से भिन्न नहीं अपितु उसका समरूप माना है। तिलक के राजदर्शन में आधारभूत दर्शन का अस्तित्व एवं आधुनिक पाश्चात्य राष्ट्रवादी एवं लोकतांत्रिक विचारधारा का प्रभाव दृष्टिगत होता है। लोकमान्य तिलक की राष्ट्रीयता जॉन स्टुअर्ट मिल के समानान्तर थी। सन् 1919-1920 में उन्होंने विल्सन की आत्मनिर्णय की धारणा को स्वीकार करते हुए भारत में इसके व्यावहारिक प्रयोग की माँग की थी। तिलक के राष्ट्रवाद का दर्शन आत्मा की सर्वोच्चता के वेदान्तिक आदर्श और मैजिनी, बर्क, मिल, विल्सन की धारणाओं का समन्वय था। इन सबके समन्वय को तिलक ने ’स्वराज्य’ शब्द द्वारा अभिव्यक्त किया। तिलक का चिन्तन आध्यात्मिक पृष्ठभूमि पर आधारित था, अतः यही कारण था कि उन्होंने स्वराज्य की नैतिक और आध्यात्मिक व्याख्या प्रस्तुत की। तिलक ने स्वराज्य को अधिकार और धर्म के रूप में स्वीकारा। राजनीतिक रूप में उन्होंने स्वराज्य का अर्थ स्वशासन (होमरूल) बताया; किन्तु नैतिक सन्दर्भ में इसका अर्थ आत्मनियन्त्रण की पूर्णता माना जो कि सबसे बड़ा स्वधर्म है। स्वराज्य का आध्यात्मिक महत्त्व बताते हुए तिलक ने कहा कि आशय स्वरूप इसका अर्थ आत्मिक स्वतन्त्रता है। इसी तरह वास्तविक रूप से तिलक ने राजनीतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार की स्वतन्त्रता की कामना की।
लोकमान्य तिलक का राष्ट्रवाद और पुनरुत्थानवाद
लोकमान्य तिलक की राष्ट्रीयता पुनरुत्थानवादी एवं पुनर्निर्माणवादी थी। उन्होंने वेदों और गीता से आध्यात्मिक शक्ति तथा राष्ट्रीय उत्साह ग्रहण करने के लिए भारतीयों को प्रेरित किया। भारत के अतीत की महानताओं के आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद की स्थापना पर जोर दिया। उन्होंने इसी भावना को प्रदर्शित करते हुए 13 दिसम्बर 1919 को अपने एक प्रमुख राष्ट्रवादी समाचार पत्र मराठा में लिखा था, “सच्चा राष्ट्रवादी पुरानी नींव पर ही निर्माण करना चाहता है। जो सुधार पुरातन के प्रति घोर असम्मान की भावना पर आधारित है उसे सच्चा राष्ट्रवादी रचनात्मक कार्य नहीं समझता। हम अपनी संस्थाओं का अंग्रेजीकरण नहीं करना चाहते, राजनीतिक और सामाजिक सुधार के नाम पर हम उसका अराष्ट्रीयकरण नहीं करना चाहते। स्वराज्य की स्थापना के लिए तिलक ने आध्यात्मिक समन्वय तत्त्वों से परिपूर्ण राजनीति पर बल दिया। उन्होंने नवीनीकरण या सुधार के नाम पर अतीत को भूला देना राष्ट्रवाद के पतन का सूचक बताया। वे प्राचीन संस्कृति के प्रसार से एवं पुनर्जागरण से ही राष्ट्रीयता के उद्भव में विश्वास रखते थे।
बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रवाद को एक आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक धारणा बताया। उन्होंने स्पष्ट किया कि प्राचीन काल में आदिम जातियों के मन में अपने कबीले के प्रति जो भक्ति रहती थी उसी का आधुनिक नाम राष्ट्रवाद है। इस राष्ट्रवाद का सम्बन्ध तीव्र संवेगों और अनुभूतियों से होता है। पहले जो आत्मिक लगाव और प्रभाव एक क्षेत्र विशेष तक सीमित थे वे अब राष्ट्रवाद के अन्तर्गत सम्पूर्ण राष्ट्र में व्याप्त हो गए हैं। यही कारण है कि आज राष्ट्रवाद की भावना किसी क्षेत्र विशेष के प्रति नहीं वरन् सम्पूर्ण राष्ट्र के प्रति अनुभव की जाती है। जो राष्ट्रवाद राष्ट्रीय एकता पर आधारित होता है वही सच्चा और स्वस्थ राष्ट्रवाद है। तिलक की मान्यता थी कि विभिन्न विचारधाराओं, जाति-भेदों, अस्वस्थ मत-मतान्तरों आदि के कारण देश में राष्ट्रीयता की भावना उस तेजी से नहीं पनप सकती जिस तेजी से यह समान भाषा, समान धर्म और समान संस्कृति वाले देश में पनप सकती है। इसलिए उन्होंने भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक तत्त्वों पर बारम्बार बल दिया। ये तत्त्व प्राचीनकाल से ही भारत में विद्यमान थे पर अब आवश्यकता उन्हें फिर से जगाने और संगठित करने की है।
लोकमान्य तिलक ने राष्ट्रवाद के विकास में सार्वजनिक उत्सवों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। राष्ट्रीयता के आवेश को आध्यात्मिक रंग देने के लिए उन्होंने गणपति उत्सव को फिर से जाग्रत किया और साथ ही शिवाजी की उपासना के पंथ को प्रारम्भ किया। गणपति उत्सव द्वारा उन्होंने एक धार्मिक उत्सव को सामाजिक एवं राजनीतिक अर्थ दिया तथा शिवाजी उत्सव द्वारा राष्ट्रीय भावनाओं को उभारने एवं संगठित करने का काम किया। तिलक उत्सव को प्रतीक के रूप में स्वीकारते थे जिनसे राष्ट्रवाद पैदा होता है। उत्सवों के दोहरे महत्त्व को प्रदर्शित करते हुए वे कहते थे कि उत्सवों के माध्यम से एकता की भावना अभिव्यक्त होती है और दूसरी तरफ उत्सव में भाग लेने वाले लोगों के मन में श्रेष्ठतर कार्य करने की इच्छा जाग्रत होती है।
बाल गंगाधर तिलक मुसलमानों के विद्रोही या कट्टर हिन्दू राष्ट्रवादी नहीं थे, लेकिन हिन्दुओं के अतीत के गौरव को वे नष्ट होने देना नहीं चाहते थे। वास्तविक रूप में तिलक एक महान् राष्ट्रवादी विचारक और देशभक्त थे जिन्होंने कभी भी भेदभाव, जातिगत या क्षेत्रीयता को सर्वोपरि नहीं समझा। वे एक यर्थाथवादी राजनीतिज्ञ थे जो अन्याय के प्रति कठोर एवं विद्रोही थे। स्वयं मोहम्मद अली जिन्ना ने उन्हें एक उत्कृष्ट राष्ट्रवादी कहते हुए कहा कि - “तिलक एक महान आध्यात्मिक एवं राजनीतिक समन्वय को एक साथ रखकर राष्ट्रवाद को जागृत करने वाले पहले देशभक्त थे।” 1916 ई0 का लखनऊ समझौता सिर्फ लोकमान्य तिलक के विवेकपूर्ण रवैये का ही परिणाम था। तिलक ने ही मुसलमानों के खिलाफत आन्दोलन में सहयोग का प्रस्ताव किया था। सभी तथ्यों का एक ही निष्कर्ष प्रतिपादित होता है कि तिलक व्यक्तिगत जीवन में हिन्दू प्रिय होते हुए भी और आंशिक रूप से पुनरुत्थानवादी होने पर भी तिलक को मुसलमानों या ईसाइयों से कोई द्वेष भाव नहीं था तथा एक राजनीतिक नेता की हैसियत से राष्ट्रीय मुक्ति के लिए उन्होंने सार्वजनिक नीति स्वीकार की थी।
लोकमान्य तिलक ने राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में आर्थिक कारकों को भी पर्याप्त रूप से महत्त्व दिया और स्पष्ट किया कि अंग्रेजों की शोषण नीति के कारण भारत अनवरत गरीब राष्ट्र होता जा रहा है। लोकमान्य तिलक ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया कि जब तक देश की राजनीतिक शक्ति विदेशी हुकूमत के साथ है तब तक देशी उद्योग-धन्धों को संरक्षण मिलना असम्भव है, लेकिन जनता स्वयं पहल करके संरक्षण की भावना को जागृत कर प्रोत्साहन दे सकती है। अखिल भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के इलाहाबाद समारोह में 1907 ई0 में लोकमान्य तिलक ने कहा था- “हम विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करके अपने ढंग का संरक्षणार्थ आयात कर लगा सकते हैं। लोकमान्य तिलक तत्कालीन शिक्षा पद्धति को अव्यावहारिक और आर्थिक पतन का मूल कारण मानते थे।
तिलक का राजनीतिक उग्र राष्ट्रवाद -
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का राष्ट्रवाद बड़ा उग्र और तेजस्वी था और राजनीतिक क्षेत्रों में उन्हें उग्रवादी राजनीति तथा राष्ट्रवाद का अग्रदूत माना जाता है। लोकमान्य तिलक ने ब्रिटिश सरकार की साम्राज्यवादी निरंकुश नौकरशाही नीति को कभी सहन नहीं किया। 1905 ई0 के बंगाल विभाजन के दौरान लार्ड कर्जन की निरंकुश नीति की अपने राष्ट्रवादी समाचार पत्र ’केसरी’ में तीखी आलोचनात्मक टिप्पणी लिखी। वे निवेदन, आवेदन या याचनाओं के आधार पर अपना अधिकार न लेकर अपनी माँगों को दबावकारी उग्र साधनों से अंग्रेजी शासकों को मजबूर कर उनसे माँगें मनवाने के पक्षधर थे। निवेदन एवं याचनाओं के बजाए महाराष्ट्र, पंजाब संगठित होकर ब्रिटिश सरकार की तानाशाही नीतियों पर उग्रवाद का वज्र बनकर टूट बंगाल पड़ा था। इन सबके बावजूद ब्रिटिश सरकार ने दमनकारी नीति अपनाई पर उग्रवादी विचारधारा के नेताओं के उत्साह और जोश में कोई अन्तर दृष्टिगोचर नहीं हुआ। कट्टर एवं तीव्र राष्ट्रीयता के प्रति तिलक कभी नहीं झुके और इसी के फलस्वरूप भारतीय उदारवादियों से भी उनकी निभ नहीं पाई और इसका परिणाम 1907 ई0 में सूरत फूट के रूप में सामने आया।
लोकमान्य तिलक संगठन, शक्ति और आत्मनिर्भरता में विश्वास रखते थे। उन्होंने भारतीय जनता का आह्वान किया था कि वे कष्ट और त्याग सहन करें एवं राजनीतिक आन्दोलन के उग्र साधनों से ब्रिटिश सरकार को स्वराज्य, स्वशासन देने के लिए बाध्य कर है। 2 जनवरी 1906 ई0 को कलकत्ता में अपने भाषण के दौरान लोकमान्य तिलक ने घोषणा की थी कि - “प्रार्थनाओं और विरोध के दिन बीत गए हैं। हमारी प्रार्थनाओं को शासक कदापि नहीं सुनेंगे क्योंकि उनके पीछे दृढ़ संकल्प का अभाव है। शासन में परिवर्तन होगा इस उम्मीद को छोड़ दीजिए। प्रार्थना, प्रतिरोध से कोई कार्य होने वाला नहीं है। स्वदेशी हमारी अन्तिम पुकार है और इसी के सहारे हम आगे बढ़ेंगे चाहे शासक कितनी ही अनसुनी कर दे।
उग्र राष्ट्रवादी विचारधारा के होने के बावजूद भी तिलक ने हिंसा और क्रान्ति को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया। अपने सिद्धान्तों के प्रति दृढ़ रहते हुए उन्होंने भारतीयों को विश्वास दिलाया कि यदि सभी भारतीयजन संगठित होकर स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा को पूरे जोश से राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए काम में ले तो कोई कारण नही है कि हमें स्वराज्य न मिल सके।
स्वदेशी और बहिष्कार -
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने स्वदेशी और बहिष्कार को स्वाधीनता संग्राम के दो हथियारों के रूप में काम में लिया। लोकमान्य तिलक ने स्वदेशी के संदेश को पूरे भारत में प्रचारित-प्रसारित किया और उसकी व्यापकता और सफलता की सम्भावनाओं को जन-जन के हृदय में समाहित कर दिया। यद्यपि स्वदेशी का आरम्भ उदारवादियों ने अपने आर्थिक आन्दोलन के रूप में प्रारम्भ किया, लेकिन आगे चलकर लोकमान्य तिलक और अन्य उग्रवादियों के लिए यह एक राजनीतिक हथियार बन गया। पश्चिम भारत में उनके नेतृत्व में बहिष्कार किया गया और पूना में उनके नेतृत्व में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई। उन्होंने स्वदेशी वस्तु प्रचारिणी सभा के मुख्यांग के रूप में सहकारी भंडार खोले। तिलक ने केसरी में लिखा था- “हमारा राष्ट्र एक वृक्ष की तरह है, जिसका मूल तना स्वराज्य है और स्वदेशी तथा बहिष्कार उसकी शाखाएँ हैं।” वास्तविक रूप में स्वदेशी ने ही स्वराज्य का रास्ता दिखाया था। जो स्वदेशी आन्दोलन पहले केवल आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित था उसे लोकमान्य तिलक एवं अन्य उग्र राष्ट्रवादियों के प्रयासों ने स्वदेशी में आत्मनिर्भरता एवं स्वावलम्बन जैसे तत्त्वों को समावेशित कर लिया।
लोकमान्य तिलक ने स्वदेशी का व्यापक अर्थ लेते हुए इसका प्रयोग शिक्षा, विचारों और जीवन पद्धति के रूप में किया। उन्होंने स्वदेशी के अर्थ को स्पष्ट करते हुए बताया कि भारतीय जनमानस से विदेशी विचारों को धीरे-धीरे मिटा देना ही स्वदेशी है। तिलक ने भारतीयों को स्वदेशी बनाने और उनके मनोमस्तिष्क में स्वाधीनता का भाव जाग्रत करने के लिए अथक परिश्रम किया। अपने समाचार पत्रों एवं लेखों के माध्यम से उन्होंने भारतीय लोगों में अपूर्व उत्साह और संकल्प युक्त वातावरण पैदा किया था।
स्वदेशी की तरह ही बहिष्कार भी स्वराज्य को प्राप्त करने का एक अस्त्र था। बहिष्कार का मूल उद्देश्य था कि ब्रिटिश सरकार के आर्थिक हितों पर दबाव डालकर उसे माँगे मनवाने के लिए विवश कर दिया जाए। उन्होंने भारतीय जनता के समक्ष स्वीकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं पर जोर डाला और स्पष्ट किया कि इससे स्वदेशी वस्तुओं के उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा और इसके दूसरी तरफ ब्रिटिश सरकार भारतीयों की माँगें मानने के लिए विवश होगी। वास्तविक रूप में बहिष्कार आन्दोलन पूर्णतः सफल रहा। इसका जीता जागता प्रमाण अंग्रेजी के समाचारपत्र इंग्लिश मैन के मुखपत्र के लिखा वह लेख है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि- “बहुत सी प्रमुख मारवाड़ी फर्मों का व्यवसाय नष्ट हो गया है और यूरोपीय वस्तुओं का आयात करने वाली बड़ी-बड़ी कम्पनियों को या तो अपनी शाखाएँ बन्द कर देनी पड़ी हैं या थोड़े से व्यवसाय से ही सन्तुष्ट होना पड़ रहा है। गोदामों में माल जमा होता रहा है। वास्तविक बात यह है कि अब समय आ गया है जब व्यापार को कितनी हानि हुई है यह स्पष्ट कर दिया जाए। बहिष्कार करने वालों को प्रोत्साहित करने का कोई प्रश्न ही नहीं, क्योंकि उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि ब्रिटिश जनता और भारत सरकार को इस तथ्य के प्रति जागरुक कर दिया जाए कि बहिष्कार के रूप में ब्रिटिश राज के शत्रुओं के हाथ एक ऐसा हथियार आ गया है जो इस देश में ब्रिटिश हितों को गहरी चोट पहुँचाने में कारगर है बहिष्कार के प्रति ढिलाई या सहमति की गई तो यह किसी सशस्त्र क्रान्ति से भी अधिक खतरनाक साबित होगा जब भारत के साथ स्थापित ब्रिटेन का सम्बन्ध निश्चय ही टूट जायेगा।
मूल्यांकन -
वास्तव में भारत के किसी भी व्यक्ति ने इतने अधिक कष्ट नही सहे, किसी ने कष्टों और कुर्बानियों को इतने शान्त भाव से ग्रहण नही किया जितना बाल गंगाधर तिलक ने। तिलक अपने जीवन की अन्तिम सॉंस तक भारतीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहे। 1919 के पेरिस शान्ति सम्मेलन में उन्होने अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन तथा अन्य नेताओं को अपने पत्र में लिखा था कि - एशिया और संसार के दृष्टिकोण से यह बात नितान्त आवश्यक है कि भरत को स्वायत्तत शासन प्रदान करके पूर्व में उसे स्वतंत्रता का गढ़ बना दिया जाय।‘‘ वे अपने जीवन काल में यद्यपि भारतीय स्वतंत्रता के लक्ष्य को भले ही प्राप्त न कर सके लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इन्होने भारतीय स्वतंत्रता को कई वर्ष निकट अवश्य ला दिया।
अन्ततः लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के सन्दर्भ में अरविन्द घोष के शब्दों में यह कहा जा सकता है कि- ‘‘श्री बाल गंगाधर तिलक का नाम राष्ट्रनिर्माता के रूप में आधा दर्जन महानतम राजनीतिक पुरूषों, स्मरणीय व्यक्तियों और भारतीय इतिहास के इस संकटमय काल में राष्ट्र के प्रतिनिधि व्यक्तियों में होने के नाते सदा अमर रहेगा और उन्हे लोग तबतक कृतज्ञतापूर्वक स्मरण रखेंगे जबतक कि देश में अपने भूतकाल पर अभिमान और भविष्य के लिए आशा बनी रहेगी।