लाला लाजपत राय (1865-1928) -
‘पंजाब केसरी‘ और ‘शेर-ए-पंजाब‘ के नाम से विख्यात लाला लाजपत राय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी सेनानियों में थे जिन्होंने व्यक्तिगत जीवन को क्षण भर महत्व न देते हुए राष्ट्र पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। वे एक महान राष्ट्रवादी और आधुनिक भारत के महान राजनेता थे। उनका सारा जीवन त्याग, बलिदान और निष्ठा से भरा हुआ था। राष्ट्रीय मुक्ति के सन्दर्भ में उनकी धारण बहुत विशुद्ध और व्यापक थी तथा समाज सुधार और राष्ट्रीय शिक्षा के प्रति उनका प्रेम अनुकरणीय था। वे उच्च कोटि के लेखक व विद्वान थे और उनकी पुस्तकें उनकी ज्ञान की विशालता और राष्ट्रीयता की उत्कृष्ट भावना को प्रदर्शित करती है। लाला लाजपत राय ने अपने देशप्रेम व साहस से अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में स्वर्णिम अध्याय लिखा।
लाला लाजपत राय का जन्म 28 जनवरी 1865 को पंजाब के फिरोजपुर जिले के दुधिके नामक गांव में हुआ था। पिता राधाकृष्ण पेशे से एक शिक्षक थे, जिन्होंने अपना दायित्व निभाते हुए बाल्यकाल में ही लाजपत को राष्ट्र भक्ति के संस्कार दिए। बचपन से ही मेधावी छात्र के रूप में जाने वाले लाजपत राय ने लाहौर के प्रसिद्ध सरकारी कॉलेज से 1885 ई0 में वकालत की परीक्षा पास की। प्रारंभिक जीवन में उन्होने हिसार से वकालत का कार्य प्रारंभ किया किन्तु अंग्रेजों की न्याय प्रणाली के अन्यायी स्वरूप के कारण जल्द ही उनका मन वकालत से उठ गया। युवा लाजपत ने बैंकिग की ओर रुख किया और पंजाब नेशनल बैंक की स्थापना की। युवावस्था में ही लाजपत राय का झुकाव आर्य समाज की ओर हो गया। स्वामी दयानंद से प्रेरणा लेकर लाला जी ने आर्य समाज को पंजाब में लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूनिका निभाई।
शिक्षा के क्षेत्र में आर्य समाज ने एक अभिनव प्रयोग किया। दयानंद एंग्लों वैदिक कॉलेज के नाम से भारतीय और अंग्रेजी शिक्षा का एक नया स्वरूप भारतीयों के समक्ष प्रस्तुत किया गया जिसमें आधुनिक और पंरपरागत शिक्षा का मिश्रण था। पंजाब में डी0ए0वी0 स्कूलों की सफलता में लाला लाजपत राय का अभूतपूर्व योगदान था। लाहौर में डी0ए0वी0 कॉलेज की भूमिका राष्ट्र जागरण की दृष्टि से उल्लेखनीय रही जिसके विकास में लाला जी ने अभूतपूर्व योगदान दिया। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस एक मात्र ऐसा दल था जिसमें समाज के सभी वर्गों के लोग सम्मिलित थे। लाला जी का जुड़ाव भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से हुआ और उन्होंने पंजाब की राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेते हुए अंग्रेजों का विरोध करना शुरू किया। लाला लाजपत राय ने देश की राजनीति में सक्रिय प्रवेश 1905 ई0 में किया जब बंग-भंग आन्दोलन जोरों पर था। उन्होने लार्ड कर्जन की कूटनीति और साम्राज्यवाद का डटकर सामना किया। 1905 ई0 में ही उन्हे गोपाल कृष्ण गोखले के साथ कांग्रेस के भारतीय दृष्टिकोण को ब्रिटिश शासन और जनता के सामने रखने के लिए इंग्लैण्ड भेजा गया। वहॉं से लौटने के बाद उन्होने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को बताया कि ब्रिटिश सरकार की भारतीय मामलों में कोई रूचि नही है। इसलिए भारतीयों को विदेशी सहायता पर निर्भर रहने के बजाय अपने बल पर अपनी जनशक्ति को संगठित कर स्वशासन और स्वराज्य का अधिकार प्राप्त करना चाहिए। लाला जी गरम विचारों का प्रतिनिधित्व करते थे ऐसे में उनका कांग्रेस के ऐसे लोगों से टकराव स्वभाविक था जो अंग्रेजों से ‘प्रार्थना’ करते थे और ‘सहयोग’ करते थे। लाला जी को कांग्रेस में बाल गंगाधर तिलक और विपिन चंद्र पाल का साथ मिला और ये तीनों विभूतियां भारतीय इतिहास में ‘लाल-बाल-पाल’ के नाम से विख्यात हुई।
लाला जी के बढ़ते प्रभाव और सरकार विरोधी गतिविधियों के कारण उन्हें जल्द ही अंग्रेजों के कोप का भाजन बनना पड़ा। 1907 में लाला लाजपत राय ने सरदार अजीत सिंह के साथ मिलकर कोलोनाइजेशन बिल (Colonisation Bill) के विरूद्ध एक आन्दोलन का नेतृत्व किया जिसके कारण अंग्रेजों ने लाला जी को देश निकाला देकर 6 महीने के लिए माण्डले जेल भेज दिया। 18 नवम्बर 1907 ई0 को उन्हे जेल से रिहा कर दिया गया और वे छूटकर लाहौर पहुॅचे। उसी दौरान कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में बाल गंगाधर तिलक ने अध्यक्ष पद के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया लेकिन गोपाल कृष्ण गोखले के विरोध करने पर लाला लाजपत राय ने अपना नाम वापस ले लिया। धीरे-धीरे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में लाला जी का विरोध बढने लगा था लेकिन लाला जी कांग्रेस में मतभेद के आकांक्षी नही थे।
1914 ई0 में लाला लाजपत राय ने एक शैक्षणिक ट्रस्ट की स्थापना की और अपने गॉंव में ही राधाकृष्ण हाईस्कूल की नींव रखी। इसी वर्ष उन्हे किसी काम से इंग्लैण्ड जाना पडा लेकिन दुर्भाग्यवश इसी समय प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ जाने के कारण प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति तक बाहर रहकर ही स्वराज्य आन्दोलन की दिशा में अपना योगदान देते रहे। 1917 ई0 में लाजपत राय ने अमेरिका के न्यूयार्क शहर में ‘होमरूल लीग ऑफ अमेरिका‘ की स्थापना की और इसके द्वारा अमेरिका में अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय से भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के लिए नैतिक समर्थन मॉंगा। विदेश में रहते हुये उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में जनमत निर्माण का कार्य किया।
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद लाला लाजपत राय वापस हिन्दुस्तान लौट आये। इस दौरान पंजाब में मार्शल लॉ और रॉलेट एक्ट जैसे काले कानून, जिसके बारे में कहा जाता था कि ‘कोई अपील नहीं, कोई दलील नहीं, कोई वकील नहीं’ को लेकर संघर्ष चल रहा था। पंजाब की संघर्षशील माटी ने रालेट एक्ट का पूरा विरोध किया और लाला लाजपत राय इस विरोध आन्दोलन में कूद पडे। झुझंलाई ब्रिटिश सरकार ने एक दिन जलियांवाला बाग में निहत्थे भारतीयों का नरसंहार कर दिया। मरने वालों में बच्चों और महिलाओं की बड़ी संख्या थी। समस्त घटनाओं पर विचार-विमर्श करने के लिए 1920 ई0 में कलकत्ता में एक विशेष अधिवेशन का आयोजन किया गया जिसकी अध्यक्षता लाजपत राय ने की। अन्ततः 1920 में गॉधीजी द्वारा चलाये गये असहयोग आन्दोलन को लाजपत राय ने अपना समर्थन देते हुये इसका डटकर प्रचार-प्रसार किया। असहयोग आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के कारण लाजपत राय को अंग्रेज सरकार ने गिरफ्तार किया परन्तु बिगड़ते हालात के कारण अंग्रेजों ने उन्हे रिहा कर दिया। इसी बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने राष्ट्र संघ के संगठन अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संगठन में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए 31 अक्टूबर 1920 को अखिल भारतीय मजदूर संघ कांग्रेस (All India trade Union Congress) का गठन बम्बई में किया जिसके प्रथम अध्यक्ष लाला लाजपत राय को बनाया गया। लाला जी ने अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में श्रमिकों की मांगों और सुविधाओं के लिए निरन्तर प्रयास किया।
अपने विचारों की उग्रता और कांग्रेस के धीमे रवैये के कारण 1924 में लाला जी ने कांग्रेस छोड़ दी और अनततः स्वराज्य पार्टी में शामिल होकर केंद्रीय विधायिका के सदस्य चुने लिए गए। 1926 ई0 में लाला जी केंद्रीय विधायिका के उप नेता चुने गए जहां उन्होंने अपनी सक्रिय भूमिका निभाई। कालान्तर में स्वराज पार्टी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति से असन्तुष्ट होकर उन्होने स्वराज दल से अलग होकर पं0 मदन मोहन मालवीय के साथ हिन्दू महासभा का गठन किया। यद्यपि वे राष्ट्रवादी थे और राष्ट्रीय एकता के पक्षधर थे फिर भी हिन्दू हितों की उपेक्षा उन्हे कतई बर्दाश्त नहीं थी। वे पाश्चात्य संस्कृति की तुलना में भारतीय सभ्यता संस्कृति को श्रेष्ठ मानते थे और उसकी रक्षा के लिए कटिबद्ध रहते थे।
लाला लाजपत राय ने 1921 ई0 में पुरूषोत्तम दास टंडन के साथ मिलकर लोक सेवक मण्डल की स्थापना की। वे समाचार पत्रों को राष्ट्रीय भावना की जागृति के लिए मूल अस्त्र या साधन के रूप में मानते थे। उन्होने स्वयं ‘वन्दे मातरम्‘, ‘उर्दु दैनिक‘ एवं ‘पीपुल‘ नामक अंग्रेजी समाचार-पत्र निकालना शुरू किया था। मैत्सिनी और गैरीवाल्डी पर लिखी उनके द्वारा जीवनियॉ राष्ट्रभक्ति को प्रोत्साहित करने में महत्वपूर्ण रही। उनकी उत्कृष्ट सेवाओं के कारण 1925 ई0 में उन्हे कलकत्ता में हिन्दू महासभा का अध्यक्ष चुना गया। लाला जी समाजसेवी, शिक्षाविद होने के साथ-साथ लेखक भी थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी उपनिवेशवाद के विरुद्ध भारत की जनता की आवाज को उन्होंने अपनी कई कृतियों में स्थान दिया। उनके द्वारा लिखित कृतियों में ‘ईवोल्यूशन ऑफ़ जापान’, ‘भगवद् गीता का संदेश’, ‘भारत में राष्ट्रीय शिक्षा की समस्या’, ‘भारत का राजनीतिक भविष्य’, ‘डिप्रेस्ड क्लासेज’ आदि शामिल है। उनके द्वारा लिखी गई पुस्तके, जिनमें यंग इण्डिया (Young India) द स्टोरी ऑफ माइ डिपोर्टेशन (The Story of my Deportation) आर्य समाज (Arya Samaj) द युनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका : ए हिन्दू इम्प्रेशन (The United States of America: A Hindu Impression) अनहैप्पी इण्डिया (Unhappy India) इंग्लैण्ड डेब्ट टू इण्डिया (England Debt to India) आदि प्रमुख है, उनके ज्ञान की विशालता और राष्ट्रीयता की उत्कृष्ट भावना को प्रदर्शित करती है।
लाला लाजपत राय की स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता के कारण समाज में विशेषकर क्रांतिकारियों के मन में बड़ा सम्मान था। वास्तव में वह इन क्रांतिकारियों की भावना के प्रमुख वाहक थे। 1928 में भारतीयों की इच्छाओं और भावनाओं को जानने-समझने का प्रयास करने के लिए अंग्रेजी साम्राज्य ने साईमन कमीशन को भारत भेजा। चूॅकि साइमन कमीशन के सदस्यों में कोई भी भारतीय शामिल नहीं था अतः लाला लाजपत राय के सक्रिय नेतृत्व में लाहौर की जनता ने साइमन कमीशन का विरोध किया। जहॉ भी साइमन कमीशन गया, वहां जनता ने ‘साईमन कमीशन गो बैक’ या ‘साईमन कमीशन वापिस जाओ’ के नारे लगाए। लाहौर में 30 अक्टूबर 1928 को ऐसे ही शान्तिपूर्ण प्रदर्शन और जुलूस का नेतृत्व लाला लाजपत राय ने किया। इस प्रदर्शन के दौरान पुलिस अधिकारी साण्डर्स ने अचानक पुलिस को लाठीचार्ज करने का आदेश दिया। इस लाठी चार्ज के दौरान पुलिस के लाठियों से लाला लाजपत राय बुरी तरह चोटिल हुये। इस समय इन्होंने कहा था - “मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी।“ इस प्राणघातक चोट के कारण अन्ततः 17 नवम्बर 1928 को उनकी मृत्यु हो गई। इसकी प्रतिक्रिया पूरे देश में हुई। जन आक्रोश भड़क उठा और क्रांतिकारियों ने लाला जी की हत्या का बदला लेने की कसम खाई। जल्द ही क्रांतिकारियों ने लाला जी की हत्या का बदला अंग्रेजी पुलिस अधिकारी सांडर्स का वध कर ले लिया।
इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में लाला लाजपत राय का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है क्योंकि उन्होंने समाज के हर क्षेत्र में विधायी दृष्टि से कार्य किया। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में लाला लाजपत राय का योगदान और उनका बलिदान भारत की स्वतंत्रता और न्याय व समानता के आदर्शों की खोज में पीढ़ियों को सदैव प्रेरित करता रहेगा।