window.location = "http://www.yoururl.com"; Qualified Monism of Ramanuja | रामानुज का विशिष्टद्वैत दर्शन

Qualified Monism of Ramanuja | रामानुज का विशिष्टद्वैत दर्शन

 


विषय-प्रवेश (Introduction)-

शंकर के अद्वैत वेदान्त के बाद रामानुज का विशिष्टाद्वैत दर्शन भी वेदान्त-दर्शन का एक अंग है। शंकर की तरह रामानुज भी एक टीकाकार थे। उन्होंने शंकर के अद्वैत दर्शन का निषेध कर विशिष्टाद्वैत को प्रस्थापित किया है। रामानुज ने ब्रह्म को परम सत्य माना है। यद्यपि ब्रह्म एक है फिर भी उसके तीन अंग है- ईश्वर, जड़ जगत् और आत्मा। इसीलिये रामानुज के दर्शन को विशिष्टाद्वैत दर्शन (Qualitied Monism) कहा जाता है। यह दर्शन विशिष्ट रूप में अद्वैत है। रामानुज का जन्म 1027 ई० में दक्षिण मद्रास के निकट पेरम्बूटूर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम केशव था। रामानुज के जन्म के कुछ ही दिन बाद इनके पिता का देहान्त हो गया। जब रामानुज के मन में वेदान्त पढ़ने की तीव्र इच्छा हुई तब इन्होंने ’यादव प्रकाश’ से वेदान्त पढ़ना प्रारम्भ किया। यादव प्रकाश यामुनाचार्य के शिष्य थे। इसलिये रामानुज को यामुनाचार्य के शिष्य का शिष्य कहा गया है परन्तु अपने गुरु से इन्हें सिद्धान्तों को लेकर मतभेद हो गया। श्री यामुनाचार्य रामानुज के गुणों से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्होंने रामानुज को भक्ति प्रसार के लिये श्रीरङ्गम बुलवाया परन्तु रामानुज के वहाँ पहुँचने के कुछ ही दिनों बाद यामुनाचार्य का देहावासन हो गया। यामुनाचार्य की अन्तिम इच्छा के अनुकूल रामानुज ने ब्रह्म-सूत्र’ पर भाष्य लिखा। चूंकि रामानुज के हृदय में भक्ति की अविरलधारा प्रवाहित होती थी, इसीलिये उन्होंने ’ब्रह्म-सूत्र’ की भक्ति परक व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने गीता पर भाष्य लिखते समय भक्ति रस की प्रबलता को प्रस्थापित करने का प्रयास किया। इनका निधन 1137 ई० में हुआ। इनके प्रसिद्ध ग्रन्थों में वेदान्त-सार, वेदान्त-दीप, श्रीभाष्य, वेदान्त-संग्रह, गीता पर भाष्य की गणना की जाती है। वेदान्त-सार ब्रह्मसूत्र पर टीका है।

ब्रह्म और ईश्वर सम्बन्धी विचार (Ramanuja’s Conception of Absolute or God)

शंकर के दर्शन में ईश्वर की जो व्याख्या हई है कछ उसी प्रकार की बात रामानुज के ब्रह्म के सिलसिले में कही गई है। रामानुज के अनुसार ब्रह्म परम सत्य है। ब्रह्म का विश्लेषण करने से ब्रह्म में तीन चीज ईश्वर, जीव आत्मा (चित्) और अचित्। यद्यपि तीनों को सत्य माना गया है फिर भी तीनो में अधिक सत्य ईश्वर को माना गया है। जीवात्मा (चित्) और अचित् ईश्वर पर परतंत्र हैं। ईश्वर द्रव्य है और चित् और अचित् उसके (attributes) गुण है। जो द्रव्य और गुण में सम्बन्ध रहता है वही सम्बन्ध ईश्वर और चित् व अचित् में रहता है। ईश्वर चित् और अचित् का संचालक है। ब्रह्म इस प्रकार एक समष्टि का नाम है और जिसके विभिन्न अंग विशेषण के रूप में स्थित रहते हैं। ब्रह्म व्यक्तित्वपूर्ण है। रामानुज ने ब्रहा और ईश्वर में भेद नहीं किया है। ब्रह्म ही ईश्वर है। ब्रह्म में आत्मा और अनात्मा का भेद है इसलिये ब्रह्म को व्यक्ति विशेष माना जाता है। वह जीवों को उनके शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार सुख-दुख प्रदान करता है। इस प्रकार ब्रह्म कर्म-फलदाता है। ब्रह्म ईश्वर होने के कारण सगुण है। ब्रह्म का यह विचार शंकर के ब्रह्म से भित्र है। शंकर ने ब्रह्म को निर्गुण और निराकार माना है। रामानुज ने ब्रह्म को जिसे उपनिषद् में निर्गुण कहा गया है की ओर संकेत करते हुए कहा है कि ब्रह्म को निर्गुण कहने का यह अर्थ नहीं है कि वह गुणों से शून्य है बल्कि यह है कि वह दुर्गुणों से परे है। ब्रह्म भेद से रहित नहीं है। शंकर-दर्शन की व्याख्या करते समय बतलाया गया है कि वेदान्त-दर्शन में तीन प्रकार का भेद माना गया है सजातीय भेद, विजातीय भेद और स्वगत भेद। रामानुज ब्रह्म के अन्दर स्वगत भेद मानते है क्योंकि उसके दो अंशों चित् और अचित् में भेद है। शंकर का ब्रह्म इसके विपरीत सभी प्रकार के भेदों से शून्य है। रामानुज के अनुसार शरीर का परिवर्तन होता है परन्तु आत्मा अपरिवर्तनशील है। चित् और अचित् का परिवर्तन होता है परन्तु ईश्वर परिवर्तन से परे है। ईश्वर सभी परिवर्तन का संचालन करता है।

रामानुज ने ब्रह्म को स्रष्टा, पालनकर्ता और संहारकर्ता कहा है। वह विश्व का निर्माण करता है। वह अपने अन्दर निहित अचित् से विश्व का निर्माण करता है। जिस प्रकार मकड़ा अपने सामग्री से जाल बुन लेता है उसी प्रकार ईश्वर स्वयं ही सृष्टि कर लेता है। रामानुज सत्कार्यवाद को मानते है। सत्कार्यवाद के दो भेदों में रामानुज परिणामवाद को मानते है। विश्व ब्रह्म का रूपान्तरित रूप है। जिस प्रकार दही दूध का रूपान्तरित रूप है उसी प्रकार विश्व ब्रह्म का रूपान्तरित रूप है। समस्त विश्व ब्रह्म में अन्तर्भूत है। सृष्टि का अर्थ अव्यक्त विश्व को प्रकाशित करना कहा जाता है। चूँकि यह विश्व ब्रह्म का परिणाम है इसलिये जगत् उतना ही सत्य है जितना ब्रह्म सत्य है।

ब्रह्म उपासना का विषय है। वह भक्तों के प्रति दयावान रहता है। ब्रह्म अनेक प्रकार के गुणों से युक्त है। वह ज्ञान, ऐश्वर्य, बल शक्ति तथा तेज इत्यादि गुणों से युक्त है। साधक को ईश्वर अथवा ब्रह्म की कृपा से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। रामानुज के दर्शन में ब्रह्म और ईश्वर में भेद नहीं किया गया है। ब्रह्म वस्तुतः ईश्वर है। ब्रह्म के स्वरूप की व्याख्या ईश्वर के स्वरूप की व्याख्या है परन्तु शंकर ने ब्रह्म को सत्य माना है जबकि ईश्वर असत्य है। इस प्रकार शंकर के दर्शन में ब्रह्म और ईश्वर के बीच विभेदक रेखा खींची गयी है। रामानुज का ब्रह्म सगुण ईश्वर होने के कारण अधिक लोकप्रिय होने का दावा कर सका।

रामानुज के मतानुसार ईश्वर एक है परन्तु वह अपने को भिन्न-भिन्न रूपों में व्यक्त करता है। भक्तों की मुक्ति एवं सहायता को ध्यान में रखकर ईश्वर अपने को पाँच रूपों से प्रकाशित करता है –

(1) अन्तर्यामी- यह ब्रहा या ईश्वर का प्रथम रूप है। वह सभी जीवों के अन्तःकरण में प्रवेश करके उनकी सभी प्रवृत्तियों को गति प्रदान करता है।

(2) नारायण या वासुदेव- यह ब्रह्म का दूसरा रूप है। इसी रूप को देवतागण बैकुण्ठ से देखते है।

(3) व्यूह- जब ईश्वर स्रष्टा, संरक्षक तथा संहारक के रूप में प्रकट होता है तब ईश्वर का रूप व्यूह कहा जाता है।

(4) अवतार- जब ईश्वर इस पृथ्वी पर मनुष्य या पशु के रूप में प्रकट होता है तो वह ’अवतार’ या विभव’ कहा जाता है।

(5) अर्चावतार- कभी-कभी ईश्वर भक्तों की दया के वशीभूत मूर्तियों में प्रकट होता है। यह अवतार का एक विशिष्ट रूप होने के कारण अर्चावतार कहा जाता है।

ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी प्रमाणों की असफलता (Failure of Theistic Proofs)-

रामानुज के मतानुसार ईश्वर के अस्तित्व को प्रत्यक्ष एवं अनुमान के द्वारा नहीं प्रमाणित किया जा सकता। प्रत्यक्ष उस ज्ञान को कहा जाता है जिसमें इन्द्रियों के माध्यम से बाह्य वस्तुओं का सम्पर्क के द्वारा ज्ञान संभव होता है। ईश्वर वस्तु जगत् का कोई विषय नहीं है। इसलिये ईश्वर का ज्ञान प्रत्यक्ष से संभव नहीं है। ईश्वर का ज्ञान योगी-प्रत्यक्ष के द्वारा भी स्वीकार्य नहीं है क्योंकि यह मात्र स्मृति पर आधारित है। अनेक साधु-सन्तों ने अपने सम्बन्ध में कहा है कि उन्हें ईश्वर का ज्ञान असाधारण प्रत्यक्ष द्वारा हुआ है। उनका विवरण मात्र स्मृति पर केन्द्रित है तथा यह अपरीक्षनीय है। ऐसे ज्ञान को सत्य मानना भ्रामक है।

ईश्वर का ज्ञान तर्क के माध्यम से भी संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी प्रमाण अनेक त्रुटियों से ग्रस्त हैं। रामानुज ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी प्रमाणों की निरर्थकता की ओर संकेत करते हैं। कारण-मूलक युक्ति, विश्व-मूलक युक्ति तथा प्रयोजन-मूलक युक्ति जो ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने का दावा करते हैं, रामानुज को मान्य नहीं हैं। वह एक-एक कर इन युक्तियों की त्रुटियों की ओर संकेत करते हैं। यूँकि श्रुति में ईश्वर की चर्चा है, इसलिये ईश्वर का अस्तित्व है। रामानुज धर्मशास्त्रों के आधार पर ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं। यहाँ पर रामानुज का विचार शंकर के विचार से मिलता है। शंकर ने भी ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी प्रमाणों का खंडन कर ईश्वर के अस्तित्व का आधार श्रुतियों को ठहराया है। रामानुज का ईश्वर सम्बन्धी यह दृष्टिकोण कान्ट के दृष्टिकोण से साम्य रखता है। कान्ट ने भी ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी प्रमाणों की आलोचना करते हुए ईश्वर के प्रमाण का आधार आस्था को माना है। जिस प्रकार कान्ट आस्था को ईश्वर का आधार मानता है, उसी प्रकार शंकर और रामानुज श्रुति को ईश्वरीय अस्तित्व का आधार मानते है।

शंकर के ब्रह्म और रामानुज के ब्रह्म की तुलनात्मक व्याख्या (A Comparative Account of Sankera and Ramanuja’s Absolute)-

शंकर और रामानुज दोनों ने ब्रह्म को सत्य माना है । दोनों एक ब्रह्म को परम सत्य मानने के कारण एकवादी (Monist) है। शंकर के ब्रह्म को अद्वैत कहा जाता है। शंकर में निषेधात्मक दृष्टिकोण से ब्रह्म की व्याख्या की गई है जिसके फलस्वरूप शंकर के ब्रह्म को एक कहने के बजाय अद्वैत (Non-dualism) कहा जाता है। परन्तु रामानुज का ब्रह्म एक विशेष अर्थ में एकवाद का उदाहरण कहा जा सकता है। ब्रह्म के अन्दर तीन चीजें हैं- ईश्वर, चित् और अचित्। ईश्वर चित् और अचित् की आत्मा है जबकि चित् और अचित् ईश्वर का शरीर है। यद्यपि ब्रह्म तीन चीजों की समष्टि है फिर भी वह एक है इसलिये रामानुज के ब्रह्म को विशिष्टाद्वैत अर्थात विशिष्ट अर्थ में अद्वैत (Qualified Monism) कहा जाता है। अब हम एक-एक कर शंकर और रामानुज के ब्रह्म के बीच विभिन्नताओं का उल्लेख करेंगे।

पहला अन्तर- शंकर का ब्रह्म निर्गुण है जबकि रामानजका ब्रह्म सगुण है। शंकर का ब्रह्म निर्गुण, निराकार और निर्विशेष है परन्तु रामानुज ब्रह्म में शुद्धता, सुन्दरता, शुभ, धर्म, दया, इत्यादि गुणों को समाविष्ट मानते हैं। उपनिषद में ब्रह्म को गणरहित कहा गया है। रामानुज उपनिषद के इस कथन का तात्पर्य यह निकालते है कि ब्रह्म में गुणों का अभाव नहीं है बल्कि ब्रह्म में दुर्गुणों का अभाव है इसलिये उपनिषद् में दूसरे स्थल पर कहा गया है ’निर्गुणों गुणीं’।

दूसरा अन्तर- शंकर का ब्रह्म व्यक्तित्त्वहीन (Impersonal) है जबकि रामानुज का ब्रह्म व्यक्तित्त्वपूर्ण है। शंकर के ब्रह्म में आत्मा और अनात्मा के बीच भेद नहीं किया जा सकता है परन्तु रामानुज के ब्रह्म में आत्मा और अनात्मा के बीच भेद किया जाता है। इसका कारण यह है कि ब्रह्म के अन्दर ईश्वर, जीवात्मा और जड पदार्थ समाविष्ट हैं।

तीसरा अन्तर- शंकर का ब्रह्म सभी प्रकार के भेदों से शून्य है। ब्रह्म के अन्दर सजातीय भेद नहीं है क्योंकि ब्रह्म के समान कोई दूसरा नहीं है। ब्रह्म में विजातीय भेद भी नहीं है क्योंकि ब्रह्म के असमान कोई नहीं है। ब्रह्म में स्वगत भेद भी नहीं है क्योंकि ब्रह्म निरवयव है। रामानुज के ब्रह्म में इसके विपरीत स्वगत भेद हैं। ब्रह्म के अन्दर तीन चीजें हैं- ईश्वर, चित् और अचित्। ब्रह्म और अचित् में भेद रहने के कारण ब्रह्म के बीच स्वगत भेद हैं।

चौथा अन्तर- शंकर के दर्शन में ब्रह्म और ईश्वर के बीच भेद किया गया है। ब्रह्म सत्य है जबकि ईश्वर असत्य है। ईश्वर का शंकर के दर्शन में व्यावहारिक सत्यता है जबकि ब्रह्म की पारमार्थिक सत्ता है। ईश्वर माया से प्रभावित होते हैं जबकि ब्रह्म माया से प्रभावित नहीं होता है। ईश्वर विश्व का स्रष्टा, पालनकर्ता, एवं संहारकर्ता है परन्तु ब्रह्म इन कार्यों से शून्य है। परन्तु जब हम रामानुज के दर्शन में आते हैं तो पाते हैं कि ईश्वर और ब्रह्म का प्रयोग यहाँ एक ही सत्ता की व्याख्या के लिये हुआ है। ईश्वर और ब्रह्म वस्तुतः समान दीख पड़ते हैं। रामानुज के ब्रह्म को ईश्वर कहना प्रमाणसंगत है।

पाँचवाँ अन्तर- शंकर के दर्शन में ईश्वर को ब्रह्म का विवर्त माना गया है परन्तु रामानुज के दर्शन में ईश्वर को ब्रह्म के रूप में पूर्णतः सत्य माना गया है।

छठा अन्तर- शंकर का ब्रह्म आदर्श (abstract) है परन्तु रामानुज का ब्रह्म यथार्थ (concrete) है। भारतीय दर्शन की रूप-रेखा सातवां अन्तर-शंकर के दर्शन में जो ब्रह्म का ज्ञान पाता है वह स्वतःब्रह्म हो जाता है परन्तु रामाज के मतानुसार मोक्ष की अवस्था में व्यक्ति ब्रह्म के सादृश्य होता है वह स्वयं ब्रह्म नहीं हो सकता।

जीवात्मा (Individual Self)

रामानुज के दर्शन में जीवात्मा ब्रह्म का अंग है। ब्रह्म में निहित चित् ही जीवात्मा है। जीवात्मा शरीर ’मन’ इन्द्रियों से भिन्न है। जीवात्मा ईश्वर पर आश्रित है। ईश्वर जीवात्मा का संचालक है। जीवात्मा संसार के भिन्न-भिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है इसलिये वह ज्ञाता है। वह संसार के भिन्न-भिन्न कर्मों में भाग लेता है। इसलिये वह कर्ता है। रामानुज के जीव का विचार सांख्य के जीव विचार से भिन्न है। सांख्य ने आत्मा को अकर्ता कहा है। जीव अपने कर्म का फल भोगता है। वह अपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार सुख और दुःख को प्राप्त करता है। जीव को कर्म करने में पूरी स्वतन्तता है। ईश्वर जीव के कर्मों का मूल्यांकन करता है। जीव का जन्म अविद्या के कारण है। अविद्या के कारण जीव अपने को ईश्वर से भित्र समझने लगता है। ज्ञान और आनन्द जीव का स्वाभाविक गुण है। जीवों का भेद उनके शरीर के भेद के कारण है। प्रत्येक शरीर में अलग-अलग जीव व्याप्त है।

रामानुज के अनुसार जीवात्मा चेतन द्रव्य है। चैतन्य आत्मा का गुण या धर्म है और आत्मा चेतना से उसी प्रकार सम्बन्धित है जिस प्रकार विशेष्य विशेषण से।

ईश्वर और जीव में भेद है। अंग और समष्टि में जो भेद होता है वही भेद ईश्वर और जीव में है। ईश्वर शासक है जबकि जीव शासित है। ईश्वर स्वतंत्र है जबकि जीव ईश्वर पर आश्रित है। ईश्वर पूर्ण और अनन्त है जबकि जीव अपूर्ण तथा अणु है। जीव ईश्वर का विशेषण है। जीव ईश्वर का शरीर है; जबकि वह शरीर की आत्मा है। इन विभित्रताओं के बावजूद समता यह है कि जीव और ईश्वर दोनों स्वयं प्रकाश, नित्य और कर्ता हैं।

जहाँ तक जीव और ईश्वर के सम्बन्ध का प्रश्न है, यह कहना प्रासंगिक जान पड़ता है कि रामानुज ईश्वर और जीव के बीच भेद, अभेद या भेदाभेद सम्बन्ध को नहीं स्वीकार करते हैं। रामानुज ने इन तीनों सम्बन्धों का निषेध किया है। शुद्ध भेद या शुद्ध अभेद कल्पना मात्र हैं क्योंकि भेद और अभेद साथ-साथ विद्यमान रहते हैं, जिन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता है। रामानुज ने विशिष्टाद्वैत के समर्थक होने के नाते भेदाभेद का खंडन किया है। विशिष्टाद्वैत के अनुसार भेद और अभेद अपृथक् हैं, जिन्हें अलग करना कल्पना मात्र है। यहाँ भेद गौण है और अभेद मुख्य है। रामानुज के अनुसार जीव और ईश्वर में अपृथक् सिद्धि नामक सम्बन्ध निहित है। जीव ईश्वर पर सर्वदा आश्रित है। जीवात्मा रामानुज के मतानुसार तीन प्रकार के होते हैं- (1) बद्ध जीव, (2) मुक्त जीव, (3) नित्य जीव। ऐसे जीव जिनका सांसारिक जीवन अभी समाप्त नहीं हुआ है बद्धजीव कहा जाता है। ये जीव मोक्ष के लिये प्रयत्नशील रहते हैं। ऐसे जीव जो सब लोकों में अपनी इच्छानुसार विवरण करते हैं मुक्त जीव कहलाते हैं। नित्य जीव वे हैं जो संसार में कभी नहीं आते हैं। इनका ज्ञान कभी क्षीण नहीं होता है।

जगत्-विचार:

रामानुज के दर्शन में जगत् को सत्य माना गया है। रामानुज परिणामवाद जो सत्कार्यवाद का एक रूप है, में विश्वास करते हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार कारण का पूर्णतः रूपान्तर कार्य के रूप में होता है। जगत् ईश्वर की शक्ति प्रकृति का परिणाम है। ईश्वर जो विद्या का कारण है स्वयं कार्य के रूप में परिणत हो जाता है। जिस प्रकार कारण सत्य है उसी प्रकार कार्य भी सत्य है। जिस प्रकार ईश्वर सत्य है उसी प्रकार जगत् भी सत्य है। रामानुज का यह विचार शंकर के विचार का विरोधी है। शंकर विश्व को ब्रह्म का विवर्त मानते हैं। यही कारण है कि शंकर के दर्शन में जगत् को मिथ्या, प्रपंच माना गया है।

सृष्टि के पूर्व जगत् प्रकृति के रूप में ब्रह्म के अन्दर रहता है। सत्व, रज और तमस् प्रकृति के गुण है। जीव भी सृष्टि के पूर्व शरीर से रहित ब्रह्म के अन्दर रहते हैं। चित्, अचित् और ईश्वर ब्रह्म के तीन तत्त्व हैं। इसीलिये जगत् को सत्य माना जाता है। जगत् का ज्ञान प्रत्यक्ष और अनुमान के द्वारा होता है। जगत् की विभिन्न वस्तुओं का जो ज्ञान होता है उनका खंडन सम्भव नहीं है। जगत् के सत्य होने का यह अर्थ नहीं है कि जगत् की वस्तुएं नित्य हैं। जगत् सत्य है यद्यपि कि जगत् की वस्तुएँ अनित्य हैं।

जहाँ तक जगत् की उत्पत्ति का सम्बन्ध है रामानुज सृष्टिवाद में विश्वास करते हैं। उनके मतानुसार जगत् ईश्वर की सृष्टि है। ईश्वर अपनी इच्छा से नाना रूपात्मक जगत् निर्माण करते हैं। ईश्वर में चित् और अचित् दोनों सन्निहित हैं। चित् और अचित् दोनों ईश्वर की तरह सत्य हैं। अचित् प्रकृति तत्त्व है और इससे सभी भौतिक वस्तुएँ उत्पत्र होती हैं। सांख्य की तरह रामानुज प्रकृति को शाश्वत मानते हैं। परन्तु सांख्य के विपरीत वे प्रकृति को परतन्त्र मानते हैं। प्रकृति ईश्वर के अधीन है। जिस प्रकार शरीर आत्मा के द्वारा संचालित होता है उसी प्रकार प्रकृति ईश्वर के द्वारा संचालित होती है।

रामानुज के अनुसार प्रलय की अवस्था में प्रकृति सूक्ष्म अविभक्त रूप में रहती है। इसी से ईश्वर जीवात्माओं के पूर्व कर्मानुसार संसार की रचना करते हैं। ईश्वर की इच्छा से सूक्ष्म प्रकृति का विभाजन अग्नि, जल और वायु के तत्त्वों में होता है। समय के विकास के साथ उक्त तीनों तत्त्व परस्पर सम्मिलित हो जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि स्थूल विषयों की उत्पत्ति होती है जो भौतिक संसार के रूप में दिखता है। रामानुज के मत में ईश्वर जगत् का उपादान और निमित्त कारण है। वह जगत् का उपादान कारण इसलिये है कि वह अपने अंश प्रकृति को जगत् के रूप में परिणत करता है। ईश्वर जगत् का निमित्त कारण इसलिये है कि वह संकल्प मात्र से अनायास जगत् का निर्माण करता है।

मोक्ष-विचार-

रामानुज के मत में आत्मा का बन्धन पूर्व कर्मों का फल है। व्यक्ति अपने पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार शरीर ग्रहण करता है। अविद्या के कारण आत्मा अपने आपको संसार की विभिन्न वस्तुओं तथा शरीर के साथ अपनापन का सम्बन्ध स्थापित कर लेती है। इस प्रकार उसमें अहंकार (Egoism) की भावना उत्पन्न हो उठती है। इसका परिणाम यह होता है कि वह दुःख, पीड़ा, शोक आदि से प्रभावित होती है। रामानुज की दृष्टि में यही बन्धन है। कर्म और ज्ञान मोक्ष-प्राप्ति के दो साधन हैं- ऐसा रामानुज का विचार है। जहाँ तक कर्म मार्ग का सम्बन्ध है, उनका विचार है कि मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले व्यक्ति के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने वर्णाश्रम धर्म से सम्बन्धित सारे कर्तव्यों का पूरी तरह पालन करे।

प्रत्येक मुमुक्षु को वेद में वर्णन किये गये नित्य और नैमित्तिक कर्मों का पालन करना चाहिए। मुमुक्षु को सारे कर्म निष्काम की भावना से ही करने चाहिये। सकाम-कर्म आत्मा को बन्धन-ग्रस्त करते हैं। इसके विपरीत निष्काम-कर्म आत्मा को बन्धन की अवस्था में नहीं लाते बल्कि ये पूर्वजन्म के कर्मों के फल को निष्क्रिय बना देते हैं। जहाँ तक इन कर्मों की विधि का संबंध है रामानुज मीमांसा- दर्शन के अध्ययन का आदेश देते हैं परन्तु मीमांसा का अध्ययन ही पर्याप्त नहीं है। मीमांसा का अध्ययन कर लेने के बाद मुमुक्षु को वेदान्त का अध्ययन करना चाहिये क्योंकि वेदान्त का अध्ययन जगत् का ज्ञान प्रदान करता है। इसके फलस्वरूप वह आत्मा को शरीर से भिन्न समझने लगता है। धीरे-धीरे उसे पता चलता है कि मुक्ति केवल तर्क तथा अध्ययन मात्र से नहीं प्राप्त हो सकती। यदि ऐसा होता तो वेदान्त के अध्ययन मात्र से लोग मुक्त हो जाते। मोक्ष की प्राप्ति भक्ति के द्वारा ही सम्भव है। ईश्वर की दया आत्मा को मोक्ष-प्राप्ति में काफी महत्त्व रखती है। इसलिये रामानुज ने भक्ति (Devotion) को मोक्ष-प्राप्ति का एक महत्त्वपूर्ण साधन माना है। उन्होंने ज्ञान और कर्म पर मोक्ष प्राप्ति में इसलिये बल दिया है कि उनसे भक्ति का उदय होता है। सच पूछा जाय तो ईश्वर की भक्ति तथा ईश्वरोपासना ही मोक्ष के असली साधन हैं। ईश्वर के प्रति प्रेम भावना को रखना ही भक्ति है। इस प्रेम भावना को भक्ति, उपासना, ध्यान आदि नामों से विभूषित किया जाता है। गहरी भक्ति और शरणागति से प्रसन्न होकर ईश्वर जीव के संचित कर्मों और अविद्या का नाश कर देते हैं। इसका फल यह होता है कि जीव जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। दुःख-पीड़ा, शोक आदि का अन्त हो जाता है। जीव को परमात्मा से साक्षात्कार हो जाता है। इस प्रकार वह मुक्त हो जाता है।

मोक्ष की प्राप्ति रामानुज के अनुसार मृत्यु के उपरान्त ही सम्भव है। जब तक शरीर विद्यमान है जीव मुक्त नहीं हो सकता है। इस प्रकार रामानुज विदेह मुक्ति के समर्थक हो जाते हैं। उनका यह मत सांख्य, शंकर, बुद्ध जैसे दार्शनिकों के विचार से मेल नहीं रखता है जो विदेह मुक्ति के अतिरिक्त ’जीवन-मुक्ति’ में भी विश्वास करते हैं।

मोक्ष का अर्थ आत्मा का परमात्मा से तदाकार हो जाना नहीं है। मुक्त आत्मा ब्रह्म के सदृश हो जाती है और वह अपनी पृथकता छोड़कर ब्रह्म में लीन नहीं हो जाती है। रामानुज के मत में मोक्ष ब्रह्म से साम्य प्राप्त करने की अवस्था है। उनका विचार शंकर के विचार का विरोधी है। शंकर के अनुसार मोक्ष का अर्थ आत्मा और ब्रह्म का एकीकरण है। मोक्ष की अवस्था में आत्मा और ब्रह्म के बीच अभेद हो जाता है। रामानुज को शंकर का मत मान्य नहीं है। उनका कहना है कि आत्मा जो सीमित है कैसे असीमित ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित कर सकती है? मुक्त आत्मा ईश्वर जैसी हो जाती है। वह सभी दोषों और अपूर्णताओं से मुक्त होकर ईश्वर से साक्षात्कार ग्रहण करती है। वह ईश्वर जैसा बनकर अनन्त चेतना तथा अनन्त आनन्द का भागी बनती है।

रामानुज में भक्ति भावना इतनी प्रबल है कि वह मुक्त आत्मा को ब्रह्म में विलीन नहीं मानते हैं। भक्त के लिये सबसे बड़ा आनन्द है ईश्वर की अनन्त महिमा का अनवरत ध्यान जिसके लिये उसका अपना अस्तित्व आवश्यक है।

रामानुज के अनुसार मोक्ष के लिये ईश्वर की कृपा अत्यावश्यक है। बिना ईश्वर की दया से मोक्ष असंभव है परन्तु शंकर मोक्ष को जीवात्मा के निजी प्रयत्नों का फल मानते है।

रामानुज का मोक्ष-विचार न्याय-वैशेषिक के मोक्ष-विचार से भिन्न है। न्याय-वैशेषिक के अनुसार मोक्ष की अवस्था में आत्मा का चैतन्य समाप्त हो जाता है, क्योंकि वह आत्मा का आगन्तुक गुण (Accidental property) है। रामानुज के मत में मोक्ष-प्राप्ति पर भी आत्मा में चेतना रहती है, क्योंकि वह आत्मा का आवश्यक गुण है।

भक्ति का स्वरुप (Nature of Devotion)-

रामानुज के अनुसार भक्ति ईश्वर के प्रति मात्र प्रेम विषयक संवेग एवं श्रद्धा का भाव नहीं है जो ज्ञान शून्य है, अपितु यह एक विशेष प्रकार का ज्ञान है जो मानवीय मन को ईश्वर के प्रति अत्यधिक आसक्ति का भाव निर्मित करता है। इसीलिये उन्होंने भक्ति को ध्यान और उपासना के तुल्य माना है। रामानुज के दर्शन में भक्ति, ज्ञान, उपासना पयार्यवाची शब्द माने गये हैं। इस प्रकार रामानुज ने भवित में बौद्धिक पक्ष की महत्ता पर बल दिया है। श्री भाष्य में रामानुज ने कहा है ईश्वर के स्वरूप के सम्बन्ध में प्रेमपूर्ण चिन्तन करना भक्ति है। यहाँ रामानुज ने कहा है कि ध्यान जो भक्ति से तादात्म्यता रखता है, उपासना और वेदना से अभिन्न है। अपने मन को ईश्वर में पूर्णतः केन्द्रित करना उपासना कहा जाता है। ईश्वर के स्वभाव का प्रेमपूर्ण स्मरण करना तथा ईश्वर का ध्यान करना भवित है। इस प्रकार भक्ति भाव मिश्रित ज्ञान है।

उपरोक्त विवेचन से यह प्रमाणित होता है कि रामानुज ने ज्ञान और भक्ति के बीच निकटता का सम्बन्ध माना है। रामानुज के अनुसार ज्ञान को भक्ति का कारण मानना युक्तियुक्त है। ज्ञान ही भक्ति का आधार है। ज्ञान के फलस्वरूप भक्ति का उदय होता है तथा भक्ति को जीवन मिलता है। दूसरे शब्दों में भक्ति ज्ञान के फलस्वरूप विद्यमान रहती है। कुछ विद्वानों के अनुसार रामानुज के दर्शन में भक्ति – ज्ञान की पराकाष्ठा है और ज्ञान का चरम उत्कर्ष भक्ति है।

मन में भक्ति का संचार तभी होता है जब साधक ईश्वर के स्वरूप के सम्बन्ध में निरन्तर मनन, चिन्तन एवं विचार करता है। इस प्रकार भक्ति, ज्ञान, प्रगाढ़ प्रेम एवं अविचल श्रद्धा के द्वारा निर्मित होती है। भक्ति की मूल परमसत्ता जो सम्पूर्ण जगत् का स्वामी तथा संरक्षक है के प्रति पूर्ण आत्म समर्पण के भाव में निहित है। एक साधक को ईश्वर के गुणों का निरन्तर स्मरण करते रहना आवश्यक माना गया है। एक मनुष्य के हृदय में प्रेम का उदय तभी होता है जब वह अपने प्रेम के विषय के गुणों के सम्बन्ध में जानकारी रखता हो। इस प्रकार ज्ञान उपासक के मन में भक्ति के संचार के लिये परम आवश्यक है। इस प्रकार ज्ञान, जैसा ऊपर कहा गया है भक्ति के लिये पृष्ठभूमि का काम करता है।

रामानुज के अनुसार मात्र ज्ञान योग ही भक्ति के उदय के लिये पर्याप्त नहीं है। उन्होंने भक्ति के लिये ज्ञान योग के अतिरिक्त कर्म-योग की भूमिका पर भी बल दिया है। रामानुज के मतानुसार नित्य एवं नैमित्तिक कर्मों को निष्काम की भावना से कार्य करने के फलस्वरूप मानव के हृदय में भक्ति का संचार होता है। रामानुज निष्काम कर्म अर्थात् कर्म-योग की महिमा का उल्लेख आत्म-ज्ञान एवं आत्मप्राप्ति के लिये करते हैं। इस प्रकार यह प्रमाणित हो जाता है कि ज्ञान और कर्म भक्ति के विरोधी नहीं हैं अपितु वे भक्ति के तत्त्वों के रूप में प्रतिष्ठित हैं।

भक्ति के प्रकार (Forms of Devotion)

रामानुज के अनुसार भक्ति के दो प्रकार हैं -(1) साधन भक्ति अथवा उपाय भक्ति, (2) परा भक्ति और परम भक्ति ।

साधन भक्ति मुख्यतः ज्ञान के स्वरूप से सम्बधित है। जब मनुष्य आध्यात्मिक अनुभूति के लिये विकलता का अनुभव करता है तब वह आत्मावलोकन की दिशा में अग्रसर होता है। यह आत्मावलोकन की अवस्था ईश्वर के स्वरूप की जानकारी देने में सक्षम सिद्ध होती है। शम, दमादि से मन को शुद्ध करना आत्मावलोकन के लिये परम आवश्यक माना गया है। यहाँ पर यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि पांतजल योग के अष्टांग मार्ग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधिभक्ति का ही रूप है। रामानुज के दर्शन में अष्टांग योग की चरम उपलब्धि समाधि को ही स्वीकारा गया है। समाधि को साधन कहा गया है, साध्य नहीं। इसीलिये इस प्रकार की भक्ति को साधन भक्ति की संज्ञा से अभिहित किया गया है। यद्यपि यह भक्ति ज्ञानपरक है फिर भी इसे भक्ति की संज्ञा दी गई है। पराभक्ति भक्ति का दूसरा प्रकार है। इसे परम् भक्ति के रूप में भी मान्यता दी जा सकती है। यह साधन भक्ति का प्रतिफल है क्योंकि ज्योंहि साधन भक्ति से मन शुद्ध हो जाता है त्योंहि भक्त भगवान् का दर्शन प्राप्त कर लेता है। भगवान् का दर्शन भक्त को अल्पकाल के लिये ही हो पाता है। इस प्रकार की भक्ति में भक्त भगवान् को अपनी अन्तरात्मा के रुप में प्रत्यक्षीकरण करने लगता है। ऐसी स्थिति में भक्त के मन में अनन्य प्रेम का विकास होता है और वह निरन्तर ईश्वर के स्वरूप चिन्तन में निमग्न रहता है तथा संसार के किसी भी विषय के प्रति आकर्षण का भाव नहीं महसूस करता है।

मूल्यांकन –

संक्षेप में हम यह कह सकते है कि रामानुज का सिद्धान्त आस्तिक व्यक्तियों के लिए तुष्टी का साधन है। उन्होने भक्तिपरक वेदान्त को ठोस आधार प्रदान करके उसका विकास किया। उनके दर्शन के सिद्धान्तों का प्रभाव कालान्तर में अन्य वैष्णव वेदान्तियों पर पडा। भारतीय चिन्तन के इतिहास में विशिष्टाद्वैत का एक प्रमुख स्थान है। मौलिकता की दृष्टि से यह शंकर के अद्वैत मत की समकक्षता में रखा जा सकता है।

रामानुज के बाद के वेदान्तियों में मध्व या मध्वाचार्य 1197-1276 ई0 का नाम प्रसिद्ध है जिन्होने ब्रह्म का समीकरण विष्णु से स्थापित कर द्वैतवाद का प्रतिपादन किया। इसमें विष्णु तथा जीव-जगत् दोनो की सत्ता को स्वीकार करते हुए इन्हे परस्पर भिन्न माना गया है। मध्व के अनुसार ईश्वर सृष्टि का केवल निमित्त कारण ही है। वे मोक्ष के लिए भगवान विष्णु की कृपा को आवश्यक बताते है।

1 Comments

  1. शिक्षा का आदान-प्रदान जब सही हाथों में होता है
    तो विद्यार्थी का जीवन होता है खुशियों से भरपूर होता है।


    जैसे कि आपके हाथों में हैं गुरुजी। 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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