अंग्रेजों के आगमन के प्रारंभिक चरण से ही उनकी धार्मिक और आर्थिक नीतियों के कारण भारतीय जनमानस में असन्तोष की चिंगारी पनप रही थी। 1808 तक आते-आते दक्षिण भारत के त्रावनकोर में यह चिंगारी विस्फोटक बन गई और त्रावनकोर का स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हो गया। यहॉं एक उद्धरण की हम चर्चा कर रहे है जो भारतीय जनमानस में असन्तोष को रेखाकित करता है -
ये शब्द त्रावनकोर में ब्रिटिश-विरोधी विद्रोह के नेता दीवान वेलू थम्पी ने अपनी प्रसिद्ध कुण्डारा घोषणा (1809) में कहे थे। इस घोषणा में आगे उन्होंने बताया कि किस तरह कम्पनी त्रावनकोर के सामने नयी-नयी माँगें पेश करती और उन्हें हासिल करने के लिए सेना भेजती रही है। घोषणा के अंत में उन्होंने कहा :
अंग्रेज जो कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं, अगर उसका मुकाबला अभी नहीं किया जाता है तो हमारे देशवासियों को इतने कष्ट सहने होंगे जिन्हें मनुष्य बर्दाश्त नहीं कर सकता। अगर उन्हें हमारे देश को हथियाने के लिए धूर्तता के पराम्परागत उपायों के व्यवहार की आज्ञा दे दी जाती है, तो वे राजमहल समेत हर स्थान पर पहरा बैठा देंगे और अपने कब्जे में कर लेंगे। वे हमारे राजा के प्रति परम्परागत सम्मान तथा मंदिरों और ब्राह्मणों के घरों की परम्परागत प्रथाएँ बंद कर देंगे। वे नमक समेत हर वस्तु पर अपनी इजारेदारी कायम कर लेंगे, जमीन के हर टुकड़े और हर घर की जगह नापेंगे और बहुत ही ज्यादा भूमिकर, नारियल-कर आदि लगा देंगे। जरा से अपराध के लिए भी बर्बर दण्ड देंगे; मंदिरों पर ईसाइयों का क्रास और झंडा गाड़ देंगे। ब्राह्मणियों का सतीत्व नष्ट करेंगे और ऐसी सारी प्रथाएँ चला देंगे जो हमारे धर्म की विरोधी हैं। ताकि हमारे देश का ऐसा दुर्भाग्य न हो, राज धर्म की रक्षा की जा सके, हमारे देश की परम्परागत जीवन-चर्या नष्ट होने से बचायी जा सके, हमें वह सब करना चाहिए जो मनुष्य के लिए संभव है और बाकी ईश्वर की इच्छा पर छोड़ देना चाहिए। इस तरह हम लोगों ने कम्पनी का मुकाबला करना आरंभ किया है।
त्रावनकोर के दीवान लू सम्पी के नेतृत्व में केरल की जनता ने क्यों विद्रोह का झण्डा खड़ा किया, उपरोक्त घोषणा इस पर काफी रोशनी डालती है। जब तक टीपू सुल्तान से लड़ना था, कम्पनी त्रावनकोर की स्वाधीनता छीनने में तेज कदम उठाने से बचती रही। लेकिन 1799 में टीपू की मृत्यु के बाद उसने तेज कदम उठाने शुरू किये। 1804 में त्रावनकोर राजा की नायर सेना ने भत्ता कम किये जाने के खिलाफ विद्रोह किया। उनका यह विद्रोह कम्पनी विरोधी बन गया, क्योंकि कम्पनी की दिन-पर-दिन बढ़ती माँगों की वजह से ही उनका भत्ता कम हुआ था। यह विद्रोही जल्दी ही दबा दिया गया। लेकिन उसका बहाना बनाकर अंग्रेजों ने जनवरी 1805 में त्रावनकोर पर नयी संधि लाद दी। इस राज्य के अन्य राज्यों के साथ संबंध करने के अधिकार कम्पनी ने छीन लिये और राज्य को अपने खर्च से इतनी बड़ी कम्पनी सेना रखने को बाध्य किया कि उसका भुगतान करना असंभव हो गया। कम्पनी ने बकाया पैसा कड़ाई से माँगना शुरू किया। काली मिर्च लेकर कम्पनी यह रकम वसूल कर सकती थी, लेकिन जिसका मकसद किसी भी बहाने राज्य को हड़पना था, वह यह व्यवस्था क्यों अपनाने लगी ?
दीवान और राजा ने मजबूरी जाहिर की, कहा कि इतनी बड़ी कम्पनी सेना का खर्च देना उनके लिए संभव नहीं। उन्होंने कम्पनी से त्रावनकोर में अपनी सेना कम कर देने का अनुरोध किया। लेकिन कम्पनी के बदनाम रेजीडेंट कर्नल मैकाले ने उल्टे राजा को आदेश दिया कि वे अपनी कर्नाटक सेना तोड़ दें। ऐसा कर अंग्रेज राजा और पूरे राज्य को अपनी मुट्ठी में कर लेना चाहते थे। उधर उन्होंने गुपचुप बंगाल और मद्रास से सेना मँगा भेजी।
1801 में बेलू थंपी त्रावनकोर के दीवान नियुक्त किये गये थे। उन्होंने कम्पनी की चाल समझ ली थी और उसका मुकाबला करने की तैयारी की थी। उन्होंने कोचीन के दीवान पलीयाथ अच्चन से मित्रता की थी और उन्हें भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने को तैयार किया था। अंग्रेजों के मतानुसार उन्होंने फ्रांसीसियों से भी संबंध स्थापित किया था और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में उन्हें शामिल करने की कोशिश की थी। जनवरी 1808 में एक फ्रांसीसी सेना मालाबार के समुद्र तट पर उतरने वाली थी। इतिहासकार थार्नटन का कहना है कि बेलू थंपी ने अमरीकियों से भी लिखा-पढ़ी की थी। इसलिए अंग्रेज वेलू थंपी को अपना खास दुश्मन और त्रावनकोर का टीपू सुल्तान समझते थे। स्वभावतः 1808 में अंग्रेज रेजीडेंट कर्नल मैकाले ने त्रावनकोर के राजा से माँग की कि बेलू थंपी को दीवान पद से बर्खास्त कर दिया जाय।
बेलू थंपी ने दीवान के पद से हट जाना स्वीकार किया। 28 दिसंबर, 1808 की रात को अलेप्पी से कालीकट जाने की उनकी तैयारी भी हो गयी। जब कर्नल मैकाले इस काँटे के हट जाने की खुशी मना रहा था, वेलू थंपी ने उसी रात को उसके निवास स्थान पर धावा बोल दिया। मैकाले ने भाग जाने का पहले ही से इंतजाम कर रखा था। एक अंग्रेज जलपान ऐसी स्थिति के लिए उसने तैयार रखा था। इस पर चढ़ कर वह भाग निकला। दुश्मन के भाग जाने पर वेलू थंपी क्वीलन चले गये और वहाँ बड़ी सेना इकट्ठा की। इसी वक्त उन्होंने उपरोक्त घोषणा निकाली थी। उनकी इस घोषणा का असर बिजली की तरह हुआ। सारा त्रावनकोर-कोचीन हथियार लेकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने को तैयार हो गया। त्रावनकोर स्टेट मैनुएल के लेखक ने इस संबंध में लिखा -
वेलू थंपी ने अपनी बात इतनी जोरदार भाषा में कही कि सारा देश उन लोगों के प्रति समझौताहीन शत्रुता की भावना से उबल पड़ा जिन्हें देश का शत्रु बताया गया था।... सारा देश एक आदमी की तरह अपने सब संभव साधनों को लेकर युद्ध के लिए तैयार हो गया। हजार-हजार हथियारबंद आदमी वेलू थंपी के झण्डे के नीचे आ इकट्ठा हुए। त्रावनकोर सेना में 30 हजार से ज्यादा आदमी और 18 तोपें थीं। 15 जनवरी, 1909 को वेलू थंपी ने अपनी सेना लेंकर क्वीलन पर चढ़ाई की, कर्नल चामर्स, कर्नल पिक्टन और मेजर हैमिल्टन ने इसका मुकाबला किया। उनके पास एक यूरोपीय रेजीमेंट और तीन देशी बटालियनें थीं। थंपी की सेना आगे बढ़ी, अंग्रेजों की छावनी पर चढ़ गयी। पाँच घण्टे तक घमासान युद्ध चलता रहा, लेकिन अंग्रेजों की मोर्चाबंदी तोड़ी न जा सकी। अपने सात सौ सैनिकों और 15 तोपों को खोकर थंपी की सेना को पीछे हटना पड़ा ।
क्वीलन में असफल होकर थंपी ने कोचीन पर हमला किया और उस पर कब्जा करने की कोशिश की। उन्होंने अपने सैनिकों के एक-एक हजार के तीन जत्थे बनाये और एक के बाद एक को हमला करने भेजा। इन सैनिकों ने भयंकर युद्ध किया, पर कोचीन पर कब्जा न कर सके। तब उन्होंने कोचीन के बंदरगाह पर घेरा डाल दिया, ताकि दुश्मन को जरूरी सामान न मिल सके। अलेप्पी में अंग्रेज सैनिकों की एक टुकड़ी एकदम साफ कर दी गयी (जनवरी 1809)। इसी समय थंपी ने मालाबार के राजा समुद्री (जमोरिन) के पास पत्र लिखकर उन्हें विद्रोह में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया।
इस विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने पूरी ताकत लगायी। कर्नल कपेज, कर्नल सेंट लेगर, कर्नल वैलेस, लेफ्टिनेंट कर्नल गिब्स आदि बड़ी-बड़ी सेनाओं के साथ विद्रोह को दबाने के लिए विभिन्न स्थानों में भेजे गये। सीलोन से तीसरी काफरी रेजीमेंट मँगायी गयी। इस तरह विशाल सेना के बल पर कम्पनी हालत को सेंट लेगर 17 फरवरी, 1809 को त्रावनकोर में घुसने में समर्थ हुआ। क्वीलन में कर्नल काबू में ला सकी। चामर्स काफी दिनों से चारों तरफ से घिरा था। लेगर घेरे को तोड़ कर चामर्स से मिलने में समर्थ हुआ। दोनों ने मिलकर त्रिवेंद्रम पर चढ़ाई की। चारों तरफ से घिरा पाकर राजा ने आत्मसमर्पण कर दिया। अंग्रेजों ने अब मनमानी शर्तें उस पर लादीं। उसे अंग्रेजों के हुक्म से अपनी नायर सेना और कर्नाटक सेना भंग कर देना, अपनी रक्षा के लिए अंग्रेजी सेना अपने खर्च से रखना और अंग्रेजों का मनपसंद नया दीवान नियुक्त करना पड़ा। वेलू पंथी ने आत्मसमर्पण करने से इंकार किया। वे त्रिवेन्द्रम से निकल कर जंगल में चले गये। कम्पनी की सेना उनको जिन्दा न पकड़ सकी। जंगल के भगवती के मंदिर में उनका शव दुश्मन के हाथ लगा। कहा जाता है कि अन्य उपाय न देख उन्होंने खुद अपनी हत्या कर ली थी।
कम्पनी ने इस देशभक्त के शव के साथ क्या व्यवहार किया ? उसे त्रिवेंद्रम लाकर फाँसी देकर अंग्रेज साम्राजियों ने अपनी ’बहादुरी’ का परिचय दिया। कई दिन तक उनकी लाशों को टाँग कर रखा गया ताकि डर के मारे कोई भी उनके खिलाफ सर न उठाये। वे यह न समझते थे कि एक दिन सारे भारत की जनता अपनी आजादी के लिए उठ खड़ी होगी और अंग्रेज साम्राजियों को दुम दबा कर इस देश से भगाना पड़ेगा।
वेलू थंपी के भाई ने भी विद्रोह संगठित करने में पूरा हिस्सा लिया था। उन्हें उसी जंगल से पकड़ पर क्वीलन में फाँसी दी गयी।
वेलू थंपी के शव के साथ किया गया व्यवहार इतना नीच था कि स्वयं गवर्नर जनरल को इसे सभ्य सरकार के सिद्धांतों के विरुद्ध कहना पड़ा था। इसी प्रकार त्रिवेन्द्रम के राजा पर लादा गया बोझ इतना अनुचित था कि स्वयं इतिहासकार मिल को इसकी निदां करनी पड़ी।’
नये दीवान ने भी 1812 में कम्पनी के अन्याय के खिलाफ विद्रोह की चेष्टा की, लेकिन उसे दबा दिया गया। तब से अंग्रेज रेजीडेंट को ही कम्पनी ने दीवान पद भी सौंप दिया। इस तरह त्रावनकोर पर अंग्रेजों ने परोक्ष रूप से शासन करना आरंभ किया। सिर्फ बड़े विद्रोह के डर से वे त्रावनकोर को 1812 में राजा की मृत्यु बाद सीधे अंग्रेजी राज में मिलाने के लोभ को रोक सके।
वेलू थंपी और पलियाथ अच्चन सामंत वर्ग के प्रतिनिधि थे। उन्होंने त्रावनकोर-कोचीन की स्वतंत्रता के लिए आम जनता को गोलबंद किया था। खुद राजा भी उनका समर्थन करता था। त्रावनकोर की स्वतंत्रता के लिए इस संग्राम के महत्त्व के बारे में ई0 एम0 एस0 नम्बूदरीपाद लिखते हैं-
‘‘इस तरह अंग्रेजों के खिलाफ पहला राष्ट्रीय विद्रोह शुरू किया गया- वह विद्रोह जो सब आवश्यक बातों में देश के दूसरे हिस्से में बाद में हुए बहुत बड़े विद्रोह -1857 के प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम के समान था।‘‘