बरेली का विद्रोह,
अंग्रेजों के वफादार सआदत अली खॉ ने जनवरी 1801 की संधि से रुहेलखण्ड कम्पनी को सौंप दिया। अवध में कम्पनी की सेना के खर्च के सिलसिले में जो कर्ज उस पर चढ़ गया था, उसी के बदले उसने अपने राज्य का एक महत्त्वपूर्ण प्रांत अंग्रेजों को दे दिया। वीर रुहेलों ने अपनी बरेली को अंग्रेजों के हाथ जाते बड़े दुःख और क्षोभ के साथ देखा। यह क्षोभ किसी भी वक्त फट पड़ने को तैयार था। 1816 का बरेली का विद्रोह इसी का परिणाम था।
विद्रोह का तात्कालीक कारण पुलिस टैक्स का लगाया जाना था। पहले बरेली के बाजार में पहरा देने के लिए चौकीदार थे। उन्हें एक रुपया महीना वेतन दिया जाता। इस खर्च को पूरा करने के लिए लोग अपनी मर्जी से चंदा देते थे। 1814 के रेगुलेशन 16 के जरिए यह व्यवस्था बदल दी गयी और चौकीदारों का वेतन 3 रुपया महीना कर दिया गया, लेकिन इसके खर्च को पूरा करने के लिए हर परिवार पर पुलिस टैक्स लगा दिया गया। इस जबरिया वसूली से लोगों ने स्वभावतः अनुमान लगाया कि यह तो अन्य टैक्सों के लगाये जाने की शुरुआत है। बनारस में गृहकर को लेकर हड़ताल हुई थी, बरेली में पुलिस टैक्स के चलते विद्रोह हो गया।
आरंभ में बरेली के आन्दोलन ने बनारस के आन्दोलन का ही अनुकरण किया। इतिहासकार मिल के अनुसार - ‘यहाँ भी व्यवसाय ठप्प हो गया, दुकानें बंद कर दी गयीं, और भीड़ टैक्स को रद्द करने का आवेदन करने के लिए मजिस्ट्रेट के दफ्तर के नजदीक इकट्ठा हो गयी...।’
सभाएँ होने लगीं, जिनमें इस टैक्स को हटाने की माँग की जाती; सारे शहर में पोस्टर लगाये गये, कितने ही गाने बन गये जो अंग्रेजों की लूट का चित्रण करते। सब वर्गों की जनता इस कर के खिलाफ उठ खड़ी हुई और उसका असंतोष बढ़ता गया।
इस कर को वसूल करने की जिम्मेदारी जिसे दी गयी, उसने एक का तीन वसूल करना शुरू किया। इस वसूली में हर तरह की सख्ती बरती जाती। उसके खिलाफ कहीं भी सुनवाई न थी। इसी बीच वहाँ मुफ्ती मुहम्मद एवाज आ पहुँचे। वे वयोवृद्ध थे और सारे रुहेलखण्ड में सम्मान की दृष्टि से देखे जाते थे। 27 मार्च 1816 को उन्होंने मजिस्ट्रेट के सामने कर रद्द करने का आवेदन दिया लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। इससे नाराजगी और सरगरमी बढने लगी। इस विक्षोभ ने उग्र रूप 16 अप्रैल 1816 को धारण कर लिया। उस दिन कर वसूल करने के सिलसिले में पुलिस ने एक औरत को घायल कर दिया था। इतिहासकार मिल ने इस घटना के बारे में लिखा है कि - इस अवसर पर खुद मजिस्ट्रेट डम्बलटन कर वसूल करवा रहा था। उसी के हुक्म से पुलिस ने एक व्यापारी की दुकान जबर्दस्ती खोली जिसने पुलिस कर न दिया था। ऐसा करने में एक औरत को चोट आ गयी।
घायल औरत मजिस्ट्रेट के निवास-स्थान पर ले जायी गयी और इंसाफ की माँग की गयी लेकिन उसे अदालत में अपील करने को कह कर भगा दिया गया। इससे लोगों का गुस्सा बढ़ गया। वे बरेली की सड़कों में खासकर मुफ्ती के निवास स्थान के आसपास जमा हो गये। इसी बीच मजिस्ट्रेट कुछ घुड़सवारों और सिपाहियों के साथ मुफ्ती को पकड़ने आ पहुँचा। भीड़ ने उसका मुकाबला किया और कितने ही लोग मारे गये, जिनमें मुफ्ती के दो शिष्य भी थे। मुफ्ती को खुद भी कुछ चोट आयी, पर वे अंग्रेजों के चंगुल से बच कर निकल गये। वे शाहदरा पहुँचे और स्वतंत्रता का हरा झण्डा फहराया। मुफ्ती पर हमले को मुसलमानों ने अपने धर्म पर हमला माना और वे हथियार ले-ले कर पीलीभीत, शाहजहाँपुर, रामपुर आदि से शाहदरा आ पहुँचे। अनुमान लगाया गया है कि इन लोगों की संख्या दस-पंद्रह हजार रही होगी।
इसी बीच विद्रोही नेताओं और कम्पनी सरकार के बीच समझौते की भी बात चली, लेकिन अंत में यह वार्ता असफल रही। जनता का गुस्सा आखिरकार 21 अप्रैल 1816 को फट पड़ा। उसने कम्पनी के सैनिकों से खुल कर मोर्चा लेना शुरू कर दिया। मजिस्ट्रेट के पास जो सेना थी वह नाकाफी समझी गयी। इसलिए कैप्टेन कनिंघम और मेजर रिचार्ड के नेतृत्व में तेरहवीं पलटन की दूसरी बटालियन बरेली भेजी गयी। विद्रोहियों ने पहले कम्पनी की सेना को कई बार मार भगाया, लेकिन क्रमशः अंग्रेजों के पैर युद्ध क्षेत्र में जमने लगे। अंत में कनिंघम ने कबरिस्तान के पास विद्रोहियों की मोर्चेबंदी तोड़ दी और उनका पीछा करते हुए पुराने शहर में घुस गया। अंग्रेजों के बयान के अनुसार इस लड़ाई में तीन सौ से ज्यादा विद्रोही मारे गये। कम्पनी की सेना के सिर्फ 21 आदमी मारे गये तथा 62 आदमी घायल हुए।
इस तरह विद्रोह समाप्त हो गया। कितने ही लोगों को कड़ी सजा दी गयी और मुफ्ती को देश निकाला दे दिया गया। संगीनों के जोर से बरेलीवासियों को पुलिस कर देने को मजबूर किया गया।
हाथरस की चुनौती -
बरेली के विद्रोह के एक साल बाद ही अंग्रेजों को नवविजित आगरा प्रांत में एक और विद्रोह का दमन करना पड़ा। यह विद्रोह था अलीगढ़ के सिपाहियों, किसानों और जमींदारों का। इस विद्रोह का प्रधान केंद्र हाथरस था जिसका दुर्ग ’दूसरा भरतपुर का किला’ माना जाता था।
मराठों की पराजय के बाद अंग्रेजों ने आगरा प्रांत पर कब्जा किया, लेकिन इस प्रांत पर अपना पूर्ण अधिकार स्थापित करने में जितने विरोध का सामना उन्हें अलीगढ़ में करना पड़ा, उतना अन्यत्र नहीं। मराठा सेना के भंग होने से कितने ही सैनिक बेकार हो गये। उन्होंने छोटे-बड़े गिरोह बनाकर नये शासकों की नाक में दम कर दिया। इन सैनिकों तथा किसानों और जमींदारों का मोर्चा जगह-जगह देखा गया। किलों और जंगलों ने उनकी काफी मदद की। यहाँ से वे कम्पनी राज को चुनौती देते। अंग्रेजों ने इन्हें डकैत आदि भी कहा और उनके दमन का कदम 1806 में ही उठाया। कर्नल गार्डनर के नेतृत्व में 50 घुड़सवार इस काम के लिए भेजे गये लेकिन मुट्ठी भर सैनिक बहुत ही नाकाफी थे। अशांति चारों तरफ जारी रही, ब्रिटिश हुकूमत किसी को स्वीकार न थी।
अंग्रेजों के खिलाफ इस बगावत के लिए उत्तरदायी थे - अवा के ठाकुर हीरा सिंह। उनकी देखा-देखी अनेक जमींदारों ने अपनी कोठियों को किले में बदल दिया। 1814 में हालत इतनी बिगड़ गयी कि विद्रोहियों को दबाने के लिए सेना भेजी गयी।
हाथरस और मुरसान विद्रोहियों के मुख्य केंद्र थे। हाथरस के तालुकदार दयाराम थे। उनके किले की रक्षा आठ हजार सिपाही करते थे जिनमें साढ़े तीन हजार घुड़सवार थे। किले की बुर्ज पर तोपें लगी थीं।
कम्पनी ने पहले हाथरस और मुरसान के बारे में क्रमशः दयाराम और भगवन्त सिंह से समझौता किया। उन्हें बड़ा किसान मानकर ये तालुके उनके हाथ में रहने दिये गये लेकिन कुछ ही साल के बाद इलियट ने आकर कम्पनी की माँग बढ़ानी शुरू की। तीन साल के अंदर इस जिले की मालगुजारी 3,52,435 रुपया बढ़ा दी गयी। जो लोग यह राजस्व न दे पाते थे, उनकी जमीन नीलाम कर दी जाती थी। इस तरह कितने ही छोटे-छोटे भूस्वामी बेदखल हो गये।
दयाराम और भगवन्त सिंह का भी राजस्व बाकी था। वे अंग्रेजों के विरोधी थे और अंग्रेजों पर हमला करने वालों की मदद करते थे। इसलिए अंग्रेज अधिकारी मारजोरी बैंक्स ने कम्पनी के सामने सुझाव पेश किया कि दयाराम और भगवन्त सिंह के हाथ से उनके तालुके छीन लिये जायँ, उनके किले तोड़ दिये जायँ और अन्य सुविधाएँ छीन ली जायँ। कम्पनी ने दयाराम से माँग की कि वे अपनी वफादारी साबित करने के लिए अपनी सेना भंग कर दें और हाथरस का शक्तिशाली दुर्ग तोड़ दें। इसके उत्तर की भी विदेशी आक्रमणकारियों ने जरूरत नहीं समझी। उन्होंने तुरन्त एक डिवीजन सेना मेजर जनरल मार्शल के मातहत हाथरस पर आक्रमण करने के लिए भेज दी और चारों तरफ से सेना मँगायी। कानपुर, मथुरा और मेरठ की छावनियों से बड़े-बड़े तोपखाने मँगाये गये। तोपों का इतना बड़ा जमघट पहले भारत में एक जगह न देखा गया था।
12 फरवरी 1817 को कम्पनी सेना ने हाथरस पर हमला किया और 17 फरवरी से शहर और किले का घेरा आरंभ किया। दयाराम और उनके सिपाहियों ने बड़ी बहादुरी के साथ अंग्रेजों का मुकाबला किया। एक सप्ताह की भयंकर लड़ाई के बाद कम्पनी सेना हाथरस शहर में घुस गयी। इसके बाद उसने किले पर भयंकर गोलाबारी की। जल्दी से विजय प्राप्त करना ही कम्पनी सेना का लक्ष्य था। इसके लिए कुछ भी नुकसान सहने को कम्पनी तैयार थी। विसेन्ट स्मिथ ने इस पर लिखा कि - ‘‘गवर्नर जनरल ने, जो खुद अपने प्रधान सेनापति हैं, पहले ही अपने को संतुष्ट कर लिया था कि झूठी मितव्ययिता के विचार ने तोपखाने के व्यवहार को सीमित कर दिया था और इसी से भरतपुर तथा अन्य स्थानों में अफसलता मिली थी। उन्होंने इस गलती को न दोहराने का निश्चिय कर लिया था।“
हाथरस का किला जिस तरह अपनी रक्षा कर रहा था, उससे ब्रिटेन में भी हलचल मच गयी थी। आखिरकार अंग्रेज सेनापतियों ने भीषण गोलाबारी और सीधा आक्रमण करने का फैसला किया। 2 मार्च 1817 को दयाराम दुर्ग छोड़कर चले गये और उस पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। बहुत दिनों बाद वे फिर वापस आये और पेंशन लेकर बाकी जीवन बिताया।
हाथरस के किले के पतन का असर अलीगढ़ के बाकी विद्रोहियों पर पड़ा। मुरसान के राजा ने डर कर अपना किला तोड़ दिया और आत्मसमर्पण कर दिया। दूसरे विद्रोही भी दब गये। इस विद्रोह के नेता भी सामंत वर्ग के ही लोग थे, हालाँकि किसानों और सिपाहियों ने इसमें काफी हिस्सा लिया था। इस प्रकार हाथरस की चुनौती भी समाप्त हो गयी।