पाइकों का विद्रोह -
जब दयाराम ने हाथरस में फिरंगियों के खिलाफ मोर्चा लगा रखा था और जब पूना में पेशवा अपने ब्रिटिश विरोधी मनोभाव प्रकट कर रहे थे ठीक उसी समय कटक में ऐसा भयंकर विद्रोह हुआ कि उसने कुछ समय के लिए कम्पनी के राज का नामोनिशान मिटा दिया। कलकत्ता तथा मद्रास के बीच जमीन के रास्ते सारा सम्बन्ध विच्छेद हो गया। यही हालत कलकत्ता और पूना के बीच संबंध की भी हुई। एक महीने तक यही हालत रही। भारत के इतिहास में इसे पाइक विद्रोह के नाम से जाना जाता है।
उड़ीसा के पाइक स्थानीय सेना के सिपाही थे। अपने सरदारों के नेतृत्व में उन्होंने मुगलों और मराठों के खिलाफ भयंकर युद्ध किये थे। मराठों के राज के समय उन्हें पुलिस का काम सौंपा गया था। अपनी सेवा के बदले उन्हें जमीन दी गयी थी जिसका कोई भी कर उन्हें न देना पड़ता था। अंग्रेजों ने कटक का प्रांत हथियाते ही इनकी नौकरियाँ समाप्त कर दीं। रुपए बटोरने के लोभ से उन्होंने इनकी जमीनें छीन लीं और उन पर भारी कर लगा कर नये जमींदारों के हाथ बेच दीं। कलकत्ते से कितने ही अंग्रेजपरस्त बंगाली जमींदारों ने आकर यहाँ जमीन हथियाई।
अंग्रेजों ने यहाँ के पुराने भूस्वामियों और प्रजा की हालत बदतर करने में कोर-कसर नही छोड़ा। जान-बूझ कर उनकी ताकत तोड़ने की गरज से भूमि-कर मनमाना बढ़ाया। कटक प्रांत से मराठा सिर्फ 10,15,000 रुपया सालाना वसूल करते थे। वह भी कभी वसूल किया जाता और कभी नहीं। अंग्रेजों ने आते ही उसे बढ़ा कर 11,80,000 रुपया कर दिया अर्थात 1,65,000 रुपया बढ़ा दिया। 1816-17 ई0 में उन्होंने इसे और भी बढ़ा कर 13,82,000 रुपया कर दिया। इस तरह भूमि कर बढ़ा कर उन्होंने जमींदारों को भी बेदखल किया। इस प्रकार जहाँ 1803 में 3,000 जमींदार थे, 1817-18 में 1,450 ही शेष रह गये।
नये जमींदारों ने आकर बड़ी बेरहमी से राजस्व वसूल करना और कम्पनी को सौंपना शुरू किया। उन्होंने सारे कटक प्रांत को तबाह कर दिया। पाइकों की जमीनों पर भी राजस्व बैठाया गया और बेरहमी से वसूल किया गया। जिंदा रहने के लिए पहले उन्होंने अपने घर का सामन बेचा, फिर बीवी-बच्चे बेचे और जब इतने पर भी गुजारा करना असंभव हो गया तो वे घर-द्वार छोड़ कर जंगल भाग गये। अनुमान लगाया गया है कि इस तरह 1816 में कम से कम 5-6 हजार घर सूने हो गये थे।
इसके अलावा नमक की कीमत बेतहाशा बढ़ायी गयी। अंग्रेजों के आने के समय नमक लगभग 14 आने मन मिलता था। अंग्रेजों के राज में वह 6 रुपये बिकने लगा। पाइकों को हटा कर थाना-पुलिस लायी गयी। इन सबसे कटकवासियों का असंतोष ज्वालामुखी की तरह अंदर ही अंदर धधकने लगा।
खुर्दा के राजा के साथ ब्रिटिश इस्ट इंडिया कम्पनी ने जो अन्याय किया, उसने इस असंतोष को और भी बढ़ा दिया। उड़ीसा में अन्य जमींदारों की तरह खुर्दा के राजा मुकुन्द देव भी एक जागीरदार था और पुरी के जगन्नाथ मंदिर के साथ उसका वंशगत सम्बन्ध था। ये जागीरदार अपने यहाँ पाइक रखते और शासक की माँग पर सेना समेत उसके पक्ष में लड़ने जाते। इसी सेवा के लिए उन्हें जागीर दी जाती थी। खुर्दा का जागीरदार बहुत ही जनप्रिय था। उसी के राज (1798-1805) में अंग्रेजों ने उड़ीसा पर अधिकार किया था। यह राजा मराठों को 15,000 रुपया वार्षिक देता था और वह भी हर साल नहीं। कम्पनी ने उड़ीसा को हथियाते ही इस राजा से एक लाख रुपया सालाना की माँग की। राजा यह रकम देने में असमर्थ था। उसे असंतोष इस बात का भी था कि कम्पनी ने उसके हाथ वे परगने नहीं सौंपे जिन्हें मराठों ने इस राजा से पहले छीन लिया था। सितम्बर 1804 ई0 में कम्पनी सरकार ने राजा पर ब्रिटिश विरोधी षड्यंत्र का आरोप लगाया और 1805 ई0 में उसकी जागीर जप्त कर ली। उसे तीन साल कैद रखा गया। बाद में उसे पुरी के मंदिर का सुपरिंटेंडेंट बना दिया गया और नाम मात्र को भत्ता दिया जाने लगा। इसके बाद तेजी से राजस्व बढ़ाया जाने लगा और 1816 में 1,38,000 रुपया वार्षिक कर दिया गया। कहाँ 15,000 रुपया और कहाँ 1,38,000 रुपया ! पाइकों की जमीन पर जो भूमि कर लग गया इससे जागीरदार और पाइक दोनों ही उजड़ गये। खुर्दा के राजा के साथ किये गये व्यवहार से दूसरे जागीरदार भी समझ गये कि अंग्रेजी राज को समाप्त किये बगैर उनका कल्याण संभव नहीं।
ऐसे समय विद्रोह का नेतृत्व करने के लिए एक नेता की जरूरत थी। खुर्दा राजा के बख्शी जगबंधु विद्याधर महापात्र भवनवीर राय के रूप में उसे एक नेता भी मिल गया। उन्हें भी कई पुश्तों से किला रोरंग की जागीर मिली हुई थी। उड़ीसा पर कम्पनी का अधिकार होने के बाद भी अंग्रेजों ने इस जागीर का बंदोबस्त इन्हीं के साथ किया था। लेकिन 1814 में उनसे वह छीन ली गयी और एक कम्पनीपरस्त बंगाली बाबू के हाथ सौंप दी गयी। कम्पनी सरकार ने उनके आवेदन पत्रों पर कोई ध्यान न दिया। उल्टे उन्हें अदालत में मुकदमा लड़ कर अपना हक साबित करने को कहा। जगबंधु ने कम्पनी से न्याय पाने की आशा छोड़ दी। जागीर के हाथ से निकल जाने से उनकी आर्थिक हालत बहुत ही बिगड़ गयी।
मार्च 1817 ई0 में 400 खोंड़ गुमसुर से खुर्दा आ पहुँचे। अब सब असंतुष्ट तत्त्व ऐक्यबद्ध हो गये। पाइकों ने अपने प्रिय नेता जगबंधु के नेतृत्व में विद्रोह शुरू कर दिया। पहले उन्होंने अंग्रेजो के थाने और सरकारी इमारतों पर हमला किया। कम्पनी के एक सौ से ज्यादा आदमी उन्होंने खत्म कर दिये और 15,000 रुपया खजाने से उठा ले गये।
विद्रोहियों की इस सफलता से सारे कटक में विद्रोह की आग फैल गयी। सब जगह पाइक और किसान मिलकर कम्पनी सरकार के खिलाफ खड़े हो गये। विद्रोही जैसे-जैसे खुर्दा की तरफ बढ़ते गये वैसे-वैसे उनकी संख्या बढ़ती गयी। सारी सरकारी इमारतें जला कर ढहा दी गयी और खजाना लूट लिया गया। सरकारी अफसर जान बचा कर भाग खड़े हुए। इस प्रकार कुछ समय के लिए ब्रिटिश राज के सारे चिह्न मिट गये।
कटक से अंग्रेज अधिकारियों ने विद्रोहियों के दमन के लिए सेना भेजी। एक सेना सीधा खुर्दा गयी और दूसरी पिपली। मजिस्ट्रेट के नेतृत्व में 60 सिपाहियों की एक टुकड़ी पहली सेना से मिलने जा रही थी। विद्रोहियों ने 2 अप्रैल 1817 ई0 को खुर्दा से दो मील गंगपाड़ा में इसे घेर कर बहुत नुकसान पहुँचाया। कम्पनी के सिपाहियों को भागना पड़ा। 4 अप्रैल 1817 को वे वापस कटक आ गये। इस बीच खुर्दा के आसपास का सारा अंचल मुक्त हो गया था। पाइक खुर्दा के राजा को अपना राजा मानते थे और जगबंधु राजा के नाम पर हुक्म जारी करते थे। इस घटना पर तात्कालीक मजिस्ट्रेट ने रिपोर्ट में लिखा कि -
‘‘खुर्दा का सारा अंचल पूर्ण विद्रोह की हालत में है। विद्रोही खुर्दा के राजा से आवेदन करते हैं और जगबंधु राजा के नाम पर हुक्म जारी करते हैं। उनका पक्का इरादा पुरी की तरफ बढ़ने और विजय उल्लास के साथ उन्हें उनकी जागीर में फिर ले जाने का है।’‘
कम्पनी सेना की अन्य दो टुकड़ियों की हालत भी बदतर हुई। अपना सारा सामान छोड़कर उन्हें वापस भागना पड़ा। पिपली पर पाइकों का अधिकार हो गया। लेकिन शीध्र ही कम्पनी की 550 सैनिकों की एक टुकड़ी आगे बढ़ने और खुर्दा अंचल पर कब्जा करने में कामयाब हुई। अवश्य ही इस नुकसान की भरपाई विद्रोहियों ने उसी दिन 12 अप्रैल को ही पुरी के पास सुकल में विद्रोह करा कर और उसे तहस-नहस कर पूरा किया। उन्होंने चारों तरफ से पुरी को घेर लिया। अंग्रेजों की हालत बदतर हो गयी। पुरी मंदिर के पुजारी ने खुलेआम घोषणा की कि अंग्रेजों के राज का अंत हो गया है और पुराने राजाओं का राज आ गया है।
कम्पनी सेना दो पाटों के बीच में पड़ गयी। सामने हजारों विद्रोही थे और पीछे समुद्र। अंग्रेजी सेना को पुरी को भाग्य-भरोसे छोड़ कर भागना पड़ा। वह भाग कर 18 अप्रैल को कटक पहुँची।
इस पराजय का समाचार पाकर खुर्दा की कम्पनी की सेना का अफसर कैप्टेन ले फेवरे अपने सैनिकों को जबर्दस्ती दौड़ाता हुआ पुरी आ पहुँचा। यहाँ एक हजार विद्रोहियों ने उसका मुकाबला किया। तोपों की लगातार गोलाबारी और सैन्य-संचालन से उसने विद्रोहियों को हटा दिया और फिर पुरी पर कब्जा कर लिया। राजा भी उसके हाथ में पड़ गया।
मई के आरंभ में भी विद्रोहियों की ताकत बहुत जबर्दस्त थी। विद्रोह का दमन करना कम्पनी के लिए मुश्किल हो रहा था इसलिए उसने मार्शल ला की घोषणा की और जनरल मार्टिनडेल ने विद्रोह के दमन का भार सँभाला। कम्पनी ने एक तरफ फौजी कार्रवाई और दूसरी तरफ आश्वासन आदि का सहारा लिया। इसका नतीजा हुआ कि 1817 ई0 के अंत तक विद्रोह बहुत कुछ शांत हो गया। अवश्य ही कुछ-कुछ जगहों में विद्रोही 1818 में पूरे साल कम्पनी के खिलाफ लड़ते रहे।
सरकारी रिकार्ड बताते हैं कि जगबंधु को बागी घोषित कर दिया गया था और उनको पकड़वाने के लिए इनाम की घोषणा की गयी थी। जगबंधु और दूसरे विद्रोहियों को नयागढ़ के राजा ने आश्रय दिया था। यहाँ से उन्हें निकाल बाहर करने में कम्पनी को लोहे के चने चबाने पड़े।
विद्रोही दीनबंधु सांतरा और उनके दल ने हार स्वीकार करते हुये नवम्बर 1818 में अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। लेकिन जगबंधु अंग्रेजों से मोर्चा 1821 तक लेते रहे। इनाम के बावजूद कटक की जनता ने अपने प्यारे नेता के साथ गद्दारी नहीं की। 1825 में नयागढ़ के राजा ने जगबंधु को आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार कर लिया। उन्हें कटक में रहने की इजाजत दी गयी और सरकार की तरफ से 150 रुपया प्रतिमाह पेंशन मंजूर की गयी। इस विद्रोह की आंशिक सफलता स्वीकार करते हुए इतिहासकार ओ मैली ने लिखा - विद्रोह का प्रतिफल इस दृष्टि से अच्छा हुआ कि इससे गलतियों को सुधारने और बुराइयों को दूर करने की, जिनकी वजह से उड़ीसा की जनता खिलाफ हो गयी, जरूरत का विश्वास सरकार को दिलाने में बड़ा काम किया। विद्रोह के कारणों की जाँच के लिए नियुक्त किये गये आयोग ने रिपोर्ट दी कि दोष प्रशासन व्यवस्था का था और जनता की बहुत सी तथा वास्तविक शिकायतें थीं।
कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर बकाया राजस्व बंद कर दिया गया। बहुत सी जागीरों की बिक्री बंद कर दी गयी और राजस्व कम कर दिया गया। 1822 ई0 में सरकार की तरफ से घोषणा की गयी कि अच्छी तरह जाँच-पड़ताल के बाद जमीन के नये समझौते किये जायेंगे। अपनी गलतियों को सुधारने के लिए अंग्रेज शासकों को कितने ही उदार प्रशासकीय कदम उठाने पड़े। इस प्रकार कटक में हुये पाईक विद्रोह पर नियंत्रण स्थापित किया जा सका।