विषय-प्रवेश :
जनवरी 1915 ई0 में 46 वर्ष की आयु में जब महात्मा गॉंधी भारत वापस लौटे तो उन्होने पूरे एक वर्ष तक देश का विभिन्न भागों का भ्रमण करते हुये भारतीयों को भारतीय सेना में शामिल होकर प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की मदद करने की अपील की जिसके कारण उन्हे ‘‘सेना में भरती करनेवाला सार्जेण्ट‘‘ भी कहा जाता था। प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजों के समर्थन के कारण ही ब्रिटिश सरकार ने 1915 ई0 में गॉंधीजी को ‘कैसर-ए-हिन्द‘ की उपाधि प्रदान की। साबरमती नदी के किनारे अवस्थित साबरमती आश्रम में वे संघर्ष की नई विधि के साथ प्रयोग का अभ्यास करते रहे और 1917-18 के दौर में उन्होने तीन संघर्षों -चम्पारण, अहमदाबाद और खेड़ा आन्दोलन का नेतृत्व किया। ये तीनों संघर्ष स्थानीय आर्थिक मॉगां से जोडकर लडे गये। इनमें से चम्पारण और खेड़ा आन्दोलन किसानों का आन्दोलन था और अहमदाबाद आन्दोलन आद्यौगिक मजदूरों से सम्बद्ध था।
चम्पारण सत्याग्रह, 1917 -
1917 ई0 में गॉंधीजी के नेतृत्व में भारत में किया गया पहला सत्याग्रह ‘चम्पारण सत्याग्रह‘ के नाम से जाना जाता है। चम्पारण आन्दोलन मूल तौर पर नील की खेती करने वाले किसानों के शोषण के खिलाफ था। बिहार के चम्पारण जिले के किसानों से अंग्रेज बागान मालिकों ने 19वीं शताब्दी के आरंभ में ही एक अनुबंध करा लिया था जिसके अन्तर्गत किसानों को अपनी जमीन के 3/20वें हिस्से पर नील की खेती करना अनिवार्य था। इसे इतिहास में ‘‘तिनकठिया पद्धति‘‘ कहा जाता था।
वस्तुतः 19वीं शताब्दी के अन्त तक आते-आते जर्मनी में रासायनिक रंगों अर्थात डाई की खोज और उसके प्रचलन से नील के बाजार में गिरावट आने लगी थी। इससे चम्पारण के गोरे बागान मालिक अपने कारखाने बन्द करने लगे। किसान भी मजबूरन नील की खेती से छुटकारा पाना चाहते थे लेकिन गोरे बागान मालिकों ने किसानों की इसी मजदूरी का फायदा उठाना चाहा। किसानों को अनुबन्ध से मुक्त करने के लिए लगान व अन्य गैरकानूनी अब्बाबों की दर मनमाने ढंग से बढ़ा दी गई। शोषण से तंग आकर किसानों ने नील की खेती करने और गैरकानूनी व अतिरिक्त कर देने से इनकार कर दिया। 1908 तक आते-आते इस शोषण के खिलाफ विरोध मुखर होने लगा परन्तु बागान मालिकों का लूट का यह कारोबार चलता रहा।
दक्षिण अफ्रीका में गॉंधीजी के संघर्ष की कहानी सुनकर चम्पारण के अनेक किसानों ने अपने स्थानीय नेता राजकुमार शुक्ल से गॉंधीजी को बुलाने और आन्दोलन का नेतृत्व सौंपने का आग्रह किया। परिणामस्वरूप राजकुमार शुक्ल के निमंत्रण पर महात्मा गॉंधी चम्पारण आने और आन्दोलन का नेतृत्व करने को तैयार हो गये। 10 अप्रैल 1917 को गॉंधीजी पहली बार पटना पहुॅचे जहॉ राजेन्द्र प्रसाद ने उनका स्वागत किया और पॉंच दिन बाद 15 अप्रैल 1917 को वे मुजफ्फरपुर से चम्पारण के जिला मुख्यालय मातिहारी पहुॅचे। गॉंधीजी और उनके सहयोगी जैसे ही चम्पारण पहुॅचे, मुजफ्फरपुर के कमिश्नर मोरशेड और चम्पारण के जिलाधिकारी ने उन्हे चम्पारण छोड़ने का आदेश दिया लेकिन उन्होने आदेश का उल्लंघन किया और इसके लिए वे किसी भी दण्ड को भुगतने के लिए तैयार हो गये। किसी अनुचित आदेश की अवज्ञा और शान्तिपूर्ण तरीके से प्रतिरोध, वास्तव में एक नई चीज थी। चूॅकि ब्रिटिश भारत सरकार अभी तक गॉंधीजी को विद्रोही नही मानती थी इसलिए उसने स्थानीय प्रशासन को अपना आदेश वापस लेने तथा गॉंधीजी को चम्पारण के गॉंवों में जाने की छूट देने के निर्देश दिये।
गॉंधीजी की यह प्रथम जीत थी और इस प्रकार वह अपने मिशन में लग गये। वह अपने सहयोगियों राजेन्द्र प्रसाद, ब्रज किशोर, डा0 अनुग्रह नारायण सिन्हा, महादेव देसाई, जे0बी0 कृपलानी, नरहरि पारिख और बिहार के अनेक बुद्धिजीवियों के साथ किसानों की हालत की विस्तृत जॉंच-पड़ताल की और उनके बयान दर्ज किये। इस पूरे कार्य में स्थानीय किसान नेता राजकुमार शुक्ल सदैव उनके साथ बने रहे। इसी बीच सरकार ने भी जून 1917 ई0 में जॉच आयोग का गठन कर दिया और गॉंधीजी को भी इसका सदस्य बनाया। इस जॉंच का परिणाम यह हुआ कि न केवल तिनकठिया पद्धति की समाप्ति हुई बल्कि बागान मालिकों ने अवैध वसूली का 25 प्रतिशत वापस करने के लिए तैयार भी हो गये। कुछ लोगों ने यह आलोचना भी की कि गॉंधीजी ने 100 प्रतिशत वापसी की मॉंग क्यों नहीं की। लेकिन गॉंधीजी की दृष्टि में 25 प्रतिशत रकम वापस करना भी बागान मालिकों के लिए बहुत बड़ी बेइज्जती थी। इस प्रकार लगभग एक दशक के अन्दर ही गोरे बागान मालिकों ने चम्पारण छोड़ दिया।
गॉंधीजी के चम्पारण सत्याग्रह का मनोवैज्ञानिक प्रभाव तिनकठिया पद्धति की समाप्ति से ज्यादा था। बेतिया के एस0डी0ओ0 ने 29 अप्रैल 1917 को अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि गांधी “प्रतिदिन अज्ञानी जनसमुदाय की कल्पना को आसन्न स्वर्णयुग के स्वप्न दिखाकर रूपांतरित कर रहे हैं।“ एक रैयत ने गांधीजी की तुलना रामचंद्र से की और जाँच समिति के समक्ष कहा कि “अब गांधीजी आ गये हैं तो काश्तकारों को राक्षस निलहों का कोई भय नहीं है।“
गॉंधीजी चम्पारण आंदोलन को उसके सीमित लक्ष्य से आगे नहीं ले गये और बाद में नवंबर, 1918 में ’चम्पारण कृषि कानून’ Champaran Agricultural Act) 1918 के पारित होने के साथ यह लक्ष्य पूरा हुआ। फिर भी, इस कानून ने न तो निलहों के दमन को पूरी तरह रोका, न यह किसान प्रतिरोध को ठंडा कर सका। स्थानीय किसान नेता गांधीजी का नाम लेकर समर्थन जुटाते रहे और उन्होंने इस क्षेत्र को भावी गांधीवादी आंदोलनों का एक ठोस आधार बना दिया। इस तरह चम्पारण राष्ट्रवाद की एक दंतकथा बन गया, यद्यपि प्रतिरोध करनेवाले किसानों के साथ स्थानीय कांग्रेस नेताओं की कोई विशेष सहानुभूति नहीं थी, खासकर तब जब वे देशी जमींदारों के विरुद्ध खड़े होते थे। कुछ भी हो, इस आन्दोलन से गॉंधीजी तथा उनकी अहिंसात्मक पद्धति का महत्व बढ़ा और वह एक वैश्विक नेता के रूप में उभरने लगे। चंपारण भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में एक रहस्योद्घाटन था। इसने सभी भौतिक शक्तियों से भी अधिक शक्तिशाली शक्ति के साथ शाही उत्पीड़न का मुकाबला करने की अब तक अनसुनी पद्धति को जन्म दिया। गांधीजी ने इसे ’सत्याग्रह’ कहा। यह राष्ट्रव्यापी ध्यान आकर्षित करने वाला पहला किसान आंदोलन था और कई मायनों में, इसने भारत की जनता को ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के खिलाफ मुक्ति संघर्ष में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। चम्पारण सत्याग्रह की सफल नेतृत्व के बाद रविन्द्र नाथ टैगोर ने पहली बार गॉंधीजी को ‘महात्मा‘ कहा। चंपारण के नतीजे ने राजनीतिक स्वतंत्रता की अवधारणा और दृष्टिकोण को फिर से परिभाषित किया, जिससे पूरे ब्रिटिश-भारतीय समीकरण में एक जीवंत मोड़ आ गया। इस पूरे आन्दोलन को लेकर पत्रकार पुष्यमित्र ने ‘चम्पारण 1917‘ के नाम से एक पुस्तक लिखी है जिसमें इस घटना का विस्तृत विवरण मिलता है।
खेड़ा सत्याग्रह, 1918 -
गुजरात के खेड़ा जिले में गॉंधीजी ने अपने दूसरे किसान सत्याग्रह की शुरूआत की जहॉं उनके हस्तक्षेप को अधिक सफलता मिली। 11 मार्च, 1918 को गुजरात (तत्कालीन बॉम्बे प्रांत) के खेड़ा जिले में शुरू किया गया यह आंदोलन शुरू में किसानों ने स्वयं एक स्थानीय नेता मोहनलाल पंड्या की मदद से शुरू किया था। इसमें मुख्य रूप से खेड़ा का किसान-पाटीदार समुदाय शामिल था, जिसमें बाद में गांधीजी का नेतृत्व शामिल हुआ। उनकी मांग फसल की विफलता, कीमतों में वृद्धि और कर की दर में सरकार की असंवेदनशील वृद्धि की पृष्ठभूमि में राजस्व का भुगतान न करना था।
1917-18 ई0 में खेड़ा जिले के किसानों की फसलें नष्ट हो गयी तो खेड़ा के कुनबी-पाटीदार किसानों ने सरकार से लगान में छूट की मॉंग की। यद्यपि भूमिकर नियमों में यह स्पष्ट कहा गया था कि यदि फसल 25 प्रतिशत नष्ट हो जाय तो भूमिकर में पूर्णतया छूट मिलेगी, किन्तु सरकार किसानों को कोई छूट देने को तैयार नहीं थी। अन्ततः गॉंधीजी ने इस मामले में हस्तक्षेप किया और ‘सर्वेण्ट्स ऑफ इण्डिया सोसायटी‘ के सदस्यों, विट्ठलभाई पटेल और गॉंधीजी ने पूरी जॉंच-पड़ताल के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि किसानों की मॉंग जायज है और राजस्व संहिता के तहत पूरा लगान माफ किया जाना चाहिए।
गॉंधीजी ने पर्याप्त सोच विचार के बाद ‘गुजरात सभा‘ नामक संस्था के माध्यम से खेड़ा आन्दोलन की बागडोर सॅंभाली। गॉंधीजी उस समय ‘गुजरात सभा‘ नामक संस्था के अध्यक्ष थे। अपील और याचिकाओं का जब कोई असर नहीं हुआ तो गॉंधीजी ने 22 मार्च 1918 को नाडियाड में एक आम सभा में किसानों से लगान न चुकाने की सलाह दी जबतक कि लगान में छूट नही मिलती। जो किसान लगान देने की स्थिति में थे उन्हे भी लगान देने से रोक दिया गया। इनका तर्क था कि यदि अमीर किसान लगान दे देंगे तो इससे गरीब किसानों पर दबाव बढ़ेगा। गॉंधीजी ने किसानों को सम्बोधित करते हुये कहा कि सरकार के दमनकारी आदेश के खिलाफ जुझारू संघर्ष करो और सरकार को बता दो कि वह नागरिकों की राय के बिना हुकुमत नही चला सकती। खेडा जिले के युवा वकील बल्लभभाई पटेल, इन्दुलाल यागनिक तथा अन्य अनेक युवाओं ने गॉंधीजी के साथ गॉंवों का दौरा शुरू किया। गॉधीजी की अपील पर बड़ी संख्या में किसान सत्याग्रह में भाग लेने लगे और जेल जाने लगे। सरकार लगान न देनेवाले किसानों की सम्पत्ति कुर्क कर रही थी, उनके मवेशियों तक को उठा ले जा रही थी। गॉधीजी का कहना था कि जब सरकार लगान माफ कर देगी तो जो किसान लगान देने की स्थिति में है वह पूरा लगान दे सकते है। किसानों की स्थिति बदतर होती जा रही थी परन्तु किसानों ने अपना संघर्ष जारी रखा। इस बीच गॉंधीजी को पता चला कि सरकार ने अधिकारियों को गुप्त निर्देश दिया है कि लगान उन्ही से वसूला जाय, जो देने की स्थिति में है। इस प्रकार गॉंधीजी का मकसद पूरा हो गया और जून 1918 तक यह संघर्ष वापस ले लिया गया। फिर भी सरकार ने संभवतः 39 प्रतिशत कर वसूल ही लिया था और 559 गॉंवों में से केवल 70 गॉवों पर ही इसका प्रभाव पड़ा था।
अहमदाबाद आन्दोलन, 1918 -
अहमदाबाद सत्याग्रह को अहमदाबाद मिल मजदूर हड़ताल के नाम से भी जाना जाता है। 1918 का अहमदाबाद कपड़ा मिल श्रमिक सत्याग्रह भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मजदूर वर्ग के आंदोलन को आकार देने में एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह 1918 के फरवरी-मार्च में अहमदाबाद में हुआ था, जिसका नेतृत्व मुख्य रूप से कपड़ा मिल श्रमिकों ने किया था, जो खराब कामकाजी परिस्थितियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। इस आंदोलन को तब गति मिली जब महात्मा गांधी इसमें शामिल हुए और श्रमिकों के पक्ष में बातचीत की। इस सत्याग्रह ने परिणाम सुरक्षित करने के साधन के रूप में भारतीय जनता के सामने “भूख हड़ताल“ की शुरुआत की।
20वीं सदी की शुरुआत में कपड़ा मिलों सहित ब्रिटिश भारत के औद्योगिक प्रतिष्ठानों में काम करने की खराब स्थितियाँ और श्रमिकों का शोषण देखा गया। बंदरगाह, रेल और ब्रिटिश उद्यम तक पहुंच के कारण गुजरात में अहमदाबाद एक प्रमुख कपड़ा उत्पादन केंद्र के रूप में उभरा था। इसकी कपड़ा मिलों का स्वामित्व अंबालाल साराभाई जैसे भारतीय उद्योगपतियों के साथ-साथ ब्रिटिश मिल मालिकों के पास था। हालाँकि, मिल श्रमिकों को बेहद कठोर कामकाजी माहौल का सामना करना पड़ता था। अहमदाबाद में कपड़ा मिल श्रमिकों, जिनमें ज्यादातर गरीब किसान और ग्रामीण क्षेत्रों के प्रवासी थे, को बहुत कम मजदूरी दी जाती थी। साप्ताहिक 70 घंटे से अधिक काम के लिए उनका औसत वेतन लगभग 5 रुपये प्रति माह था। दमनकारी परिस्थितियों में कार्य दिवस 12-15 घंटों के बीच बढ़ गया। कठिन कार्यभार में महिलाओं और बच्चों से जबरन श्रम भी शामिल था। 1918 तक अहमदाबाद में कपड़ा मिल मजदूर, मिल मालिकों के बढ़ते मुनाफे के बीच अपनी दयनीय स्थिति पर गुस्से से उबल रहे थे।
मिल-मालिकों और मिल-मजदूरों के बीच आद्यौगिक विवाद का तात्कालीक कारण ‘प्लेग बोनस‘ की समाप्ति थी, जो प्लेग से हो रही आधिकारिक मौतों के भय से मजदूरों को शहर छाड़ने से रोकने के लिए 1917 से दिया जाता था। मजदूर प्लेग बोनस के बदले मजदूरी में 50 प्रतिशत वृद्धि की मॉंग कर रहे थे और मिल-मालिक 20 प्रतिशत से अधिक वृद्धि करने को तैयार नही थे। सामाजिक कार्यकर्ता अनसूया साराभाई तथा उनके भाई व अहमदाबाद मिल-मालिक सभा के अध्यक्ष अंबालाल साराभाई ने गॉंधीजी को मध्यस्थता करके विवाद को हल करने के लिए फरवरी 1918 ई0 में आमंत्रित किया। गांधीजी ने 22 फरवरी 1918 को एक बैठक बुलाई, जहां मॉगों को अंतिम रूप दिया गया। पहले गॉंधीजी ने मिल-मालिकों और मजदूरों को इस सारे मामले को एक ट्रिव्यूनल को सौंप देने पर राजी किया किन्तु बाद में मिल-मालिक अपने वादे से मुकर गये और हड़ताल पर पूरी पाबन्दी की मॉंग की। उत्पादन लागत, मुनाफा और मिल-मजदूरों के जीवन निर्वाह खर्च का गहराई से अध्ययन करने के बाद गॉंधीजी ने मजदूरों को राजी किया कि वे अपनी मजदूरी में बढ़ोतरी की मॉंग को 50 प्रतिशत से घटाकर 35 प्रतिशत कर दे। किन्तु स्थिति तब बिगड़ गई जब अड़ियल मिल-मालिकों ने 22 फरवरी को मिलों में ताले लगाकर बुनकरों को बाहर कर दिया। इससे क्षुब्ध होकर मार्च 1918 में गॉंधीजी के नेतृत्व में अहमदाबाद में मिल-मजदूरों ने अहिंसक आम हडताल कर दी। अगली सुबह हजारों कपड़ा मजदूरों और उनके परिवारों ने योजना के अनुसार मिलों के बाहर शांतिपूर्वक धरना दिया। एक सप्ताह से अधिक समय तक गांधीजी के नेतृत्व में अनुशासित अहिंसा के साथ विशाल हड़ताल लगातार जारी रही।
इसी हड़ताल के दौरान गॉंधीजी ने 15 मार्च 1918 से सर्वप्रथम ‘भूख-हड़ताल‘ के हथियार का प्रयोग किया। गांधीजी की उपस्थिति ने कार्यकर्ताओं को ऊर्जावान बनाया और शांति मार्च, “एक टेक“ के नारे और पत्रक जैसी प्रभावी संचार रणनीतियों ने भी अनुशासित, अहिंसक जन कार्रवाई को संगठित करने में मदद की।
शुरुआत में अपनी जिद पर अड़े रहने के कुछ दिन बाद मिल मालिक धीरे-धीरे गांधी की मध्यस्थता के तहत बातचीत के लिए तैयार हो गए और वे सारे मामले को मध्यस्थता बोर्ड (Tribunal) में भेजने को राजी हो गये। इस प्रकार जिस मुद्दे को लेकर हडताल शुरू हुई थी, अब वह समाप्त हो चुका था अत‘ हड़ताल भी खत्म हो गई। ट्रिब्यूनल ने 35 प्रतिशत बोनस का फैसला सुनाया। हालांकि कई लोगों ने इसे अपर्याप्त माना। गॉंधीजी ने इस फैसले को अहिंसक दबाव की रणनीतिक जीत माना। अधिकारियों को उचित कामकाजी परिस्थितियों और श्रम कल्याण के सिद्धांतों को पहचानने के लिए भी मजबूर किया गया।
1918 की अहमदाबाद मिल हड़ताल एक छोटे स्तर का प्रयास होने के बावजूद भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अत्यधिक महत्व रखती है। यह आन्दोलन अहमदाबाद के मजदूरों को संगठित करने में काफी सफल रहा। इसकी सफलता ने फरवरी 1920 में टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन जैसे मजबूत ट्रेड यूनियनों के गठन और विकास को प्रेरित किया जो अहिंसा, आत्मनिर्भरता और नियोक्ता-कर्मचारी सद्भाव के गॉंधीवादी आदर्शों का पालन करते थे। जिस तरह चंपारण सत्याग्रह ने किसान वर्ग को शामिल किया, उसी तरह अहमदाबाद हड़ताल ने मजदूर वर्ग को राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल किया। गॉंधीजी द्वारा उपवास का प्रयोग भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के भविष्य के कार्यक्रम में संभावित उपयोग के साथ एक शक्तिशाली और यहां तक कि जबरदस्त हथियार साबित हुआ।
चम्पारण, अहमदाबाद और खेड़ा आन्दोलन ने संघर्ष के गॉंधीवादी तराकों को आजमाने का अवसर दिया था, साथ ही साथ गॉंधीजी को जनता के नजदीक आने और उनकी समस्याएॅं समझने का भी अवसर मिला था। स्थानीय लक्ष्यों को उठाकर गॉंधीजी ने राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता प्राप्त की, यद्यपि इन सभी आन्दोलनों में गॉंधीजी को नेतृत्व के लिए तब आमंत्रित किया गया जब स्थानीय पहल से जनता की अच्छी खासी लामबंदी पहले ही हो चुकी थी। फिर भी इन आन्दोलनों से गॉंधीजी को देश की जनता की ताकत और उसकी कमजोरियों का भी पता चला। उनकी रणनीति कारगर साबित हो सकती है, इसका अनुमान लगाने का भी मौका मिला। इन आन्दोलनों में गॉंधीजी को समाज के विभिन्न वर्गो, खासकर युवा पीढ़ी का भरपूर समर्थन मिला और जल्द ही वे भारतीय जनता के प्रतीक बन गये।