window.location = "http://www.yoururl.com"; Rawlatt Satyagraha and Jallianwala Bagh Massacre | रॉलेट सत्याग्रह और जालियाँवाला बाग़ हत्याकांड

Rawlatt Satyagraha and Jallianwala Bagh Massacre | रॉलेट सत्याग्रह और जालियाँवाला बाग़ हत्याकांड

 


रौलट सत्याग्रह -

1919 ई0 के आरम्भ तक अखिल भारतीय राजनीति में गॉंधीजी का हस्तक्षेप अपेक्षाकृत कम रहा और वे अंग्रेजों की नीयत पर भरोसा भी करते रहे। लेकिन अनुभव और लोकप्रियता ने गॉंधीजी को अदम्य साहसी बना दिया और इसी साहस और विश्वास के कारण उन्होने फरवरी 1919 में प्रस्तावित रौलट ऐक्ट के खिलाफ देशव्यापी आन्दोलन का आह्वान किया।

प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर भारतीयों को अंग्रेजों से अनेक आशाएॅं थी लेकिन उनकी सारी आशाओं पर पानी फिर गया जब अंग्रेजों ने उन्हे स्वशासन का अधिकार नही दिया। इससे भारतीयों में निराशा बढने लगी और असन्तोष का बडे तीव्र रूप से प्रादुर्भाव हुआ। गरीबी, बीमारी, नौकरशाही के दमन-चक्र, सिपाहियों की भर्ती में सरकार द्वारा प्रयुक्त कठोरता के कारण भारतीय जनता में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध पनप रहे असन्तोष ने उग्रवादी क्रान्तिकारी गतिविधियों को तेज कर दिया। युद्ध काल में क्रान्तिकारियों के दमन के लिए भारत सुरक्षा अधिनियम पारित किया गया था और इसकी अवधि युद्धकाल तक ही थी। लेकिन युद्ध के बाद भी जिस तरह से भारतीयों में असन्तोष और क्रान्तिकारियों का प्रभाव बढ रहा था, उसे दबाने के लिए सरकार को कुछ सख्त कानून की आवश्यकता थी। सरकार को डर सताने लगा कि यदि क्रान्तिकारियों की शक्ति को समय रहते न कुचला गया तो वे भारत में अंग्रेजी राज के लिए घातक साबित हो सकते है। वास्तव में अंग्रेज क्रान्तिकारी गतिविधियों को दबाने के नाम पर भारतीयों के मौलिक अधिकारों का हनन करना चाहते थे। इसके अतिरिक्त सरकार रूस की ओर से भी सशंकित थी। अतः 1917 में ही न्यायाधीश सर सिडनी रॉलेट (Sir Sydney Rawlatt) की अध्यक्षता में ब्रिटिश सरकार ने एक सेडीसन समिति का निर्माण किया जिसका उद्देश्य इस बात की जॉंच करना था कि भारत में किस प्रकार और किस सीमा तक क्रान्तिकारी आन्दोलन फैला हुआ है और किन उपायों द्वारा उनका अन्त किया जाना संभव है। दूसरे शब्दों में इस समिति के गठन का उद्देश्य क्रान्तिकारी घटनाओं और आन्दोलनकारियों को कुचलने के लिए एक प्रभावी योजना का निर्माण करना था। रॉलेट समिति ने अप्रैल 1918 ई0 में अपनी रिपोर्ट सरकार के सम्मुख प्रस्तुत किया जिसकी सिफारिश और संस्तुति पर अंग्रेजी सरकार ने केन्द्रीय विधानमण्डल में फरवरी 1919 में दो विधेयक प्रस्तुत किये जिन्हे रॉलेट बिल (Rowlatt Bill)  कहते है। इस प्रस्ताव के आते ही इसके विरूद्ध सारे देश में विरोध होने लगे। सी0 वाई0 चिन्तामणि के शब्दों में इन दोनों विधेयकों का विरोध परिषद के गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों, निर्वाचित सदस्यों और मनोनीत सदस्यों सबने समान रूप से किया। देशव्यापी असन्तोष और परिषद के सभी भारतीय सदस्यों के विरोध के वावजूद 17 मार्च 1919 को इनमें से एक विधेयक पारित कर दिया गया और कानून का रूप दे दिया गया। इसे ही भारतीय इतिहास में रॉलेट अधिनियम (Rowlatt Act)    कहा जाता है।

रॉलेट अधिनियम द्वारा ब्रिटिश सरकार को जनता की स्वतंत्रता का अपहरण करके संदिग्ध व्यक्तियों को बन्दीगृहों में डालने का अधिकार प्राप्त हो गया। ब्रिटिश सरकार किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाये और बिना दण्ड दिये जेल में बन्द कर सके। आरोपी को अदालत में प्रत्यक्ष उपस्थित करने अर्थात बंदी प्रत्यक्षीकरण का जो कानून ब्रिटेन में नागरिक स्वाधीनताओं की बुनियाद था, उसे भी निलंबित करने का अधिकार सरकार ने रॉलेट कानून से प्राप्त कर लिया। इस प्रकार इससे इण्डियन एविडेन्स ऐक्ट ;प्दकपंद म्अपकमदबम ।बजद्ध  की उस धारा को समाप्त कर दिया गया जिसके अनुसार पुलिस अधिकारी के सामने दी गयी गवाही, सफाई की गवाही नही मानी जा सकती थी। कुल मिलाकर सरकार को पर्याप्त दमनकारी अधिकार मिल गया और भारतीयों की स्वतंत्रता निरर्थक एवं महत्वहीन हो गयी। इसी कारण रॉलेट ऐक्ट को ‘काला अधिनियम‘ अथवा ‘आतंकवादी और अपराध अधिनियम‘ की संज्ञा दी गयी। इस कानून को ‘बिना वकील बिना दलील‘ का कानून अथवा ‘काला कानून‘ भी कहा गया है। अंग्रेजी हुकूमत के इस कानून को भारतीय जनता अपने लिए अपमानजनक समझती थी। यह कानून ऐसे समय पर आया जब भारतीय जनता सांवैधानिक सुधारों का इंतजार कर रही थी।

रॉलेट ऐक्ट के विरोध में पूरे देश में आन्दोलन प्रारंभ हो गया और धरने-प्रदर्शन होने लगा। भारतीय राजनीतिक जनमत के सभी स्तरों पर रॉलेट ऐक्ट के प्रति गहरा असन्तोष था लेकिन सांवैधानिक प्रतिरोध का जब कोई असर नही हुआ तो गॉंधीजी ने सत्याग्रह करने का सुझाव दिया। इस प्रकार गॉंधीजी ने 24 फरवरी 1919 को एक ‘सत्याग्रह सभा‘ का गठन किया। इस सभा के स्वयंसेवकों ने रॉलेट कानून का पालन न करने, निषिद्ध वस्तुओं की सार्वजनिक रूप से बिक्री करके अपने आप को गिरफ्तार करवाने और जेल जाने की शपथ ली। स्वयंसेवकों ने देशव्यापी हडताल, उपवास और प्रार्थना सभाएॅं आयोजित करने का फैसला लिया और प्रचार कार्य प्रारंभ हो गया। वस्तुतः संघर्ष का यह एक नया रूप था और इस सत्याग्रह ने भारतीयों में एक नया उमंग और उत्साह भर दिया। गॉंधीजी ने राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं को गॉवों में जाने का आग्रह किया ताकि राष्ट्रवाद को किसानों, दस्तकारों और शहरी गरीबों की ओर मोडा जा सके। खादी इस रूपान्तरण का प्रतीक थी जो जल्दी ही सभी राष्ट्रवादियों की पहचान बन गई।

सत्याग्रह सभा के स्वयंसेवकों में ज्यादातर होम रूल लीग के युवा सदस्य थे, जो अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ संघर्ष करने के लिए बेताब थे। देशव्यापी हड़ताल, उपवास और प्रार्थना सभाओं के लिए पहले 30 मार्च 1919 की तिथि निर्धारित की गई परन्तु बाद में इसे 6 अप्रैल कर दिया गया। रॉलेट सत्याग्रह के आयोजन में जमुनादास द्वारकादास, शंकरलाल बैंकर और बी0जी0 हर्नीमन जैसेेेेेेेेे बम्बई शहर के होमरूल कार्यकताओं ने अधिकांश धन और जन का इंतजाम किया। इस आन्दोलन में हिन्दुओं और मुसलमानों ने समान रूप से भाग लिया और उनमें अपार एकता देखने को मिली। आन्दोलन ने जो रूख अख्तियार किया वह अप्रत्याशित था। तारीख को लेकर कुछ गलतफहमी के कारण दिल्ली में 30 मार्च को हडताल आयोजित की गई जिसके दौरान काफी हिंसा भडकी। पुलिस ने गोलियॉं चलाई और 8 व्यक्ति घायल हुये। इस प्रकार की हिंसा में 5 युरोपीय नागरिकों की भी मृत्यु हुई। स्थिति को शान्त करने के लिए गॉंधीजी दिल्ली जा रहे थे जबकि रास्ते में ही 9 अप्रैल 1919 ई0 को गिरफ्तार कर उन्हे बम्बई भेज दिया गया। गॉंधीजी की गिरफ्तारी से जनता का रोष उमड़ पड़ा। सारे देश में हड़तालें हुई और लोगों ने उपवास किये। बम्बई पहुॅचकर गॉंधीजी ने देखा कि बम्बई और उनका अपना प्रदेश गुजरात आक्रोश की ज्वाला में जल रहा है। उन्होने वही रहकर जनता को शान्त कराने का निश्चय किया। लेकिन दूसरी तरफ पंजाब में स्थिति विस्फोटक होने लगी।

कांग्रेस की पंजाब जॉंच-समिति की रिर्पोटों से पता चलता है कि सरकार की भड़कानेवाली और दमनकारी पाशविक गतिविधियों, जैसे भारी संख्या में सैनिकों की जबरन भर्ती, करों एवं युद्ध-ऋणों का बोझ और मूल्यों में अत्यधिक वृद्धि, गॉंधीजी की गिरफ्तारी की अपफाहें और विश्वयुद्ध के बाद की आर्थिक शिकायतों के कारण पंजाब में एक स्वतंः स्फूर्त विद्रोह हुआ। उधर ब्रिटिश सरकार ने दमन चक्र प्रारंभ कर दिया था और बडी कठोरता और निर्ममता से आन्दोलन को दबाया जाने लगा। सरकारी दमन और अत्याचार से जुझने वाले पंजाब में प्रतिरोध का यह मौका हिंसात्मक गतिविधियों के लिए एक अवसर साबित हुआ। जनता काफी उग्र हो चली थी औैर अमृतसर और लाहौर में तो स्थिति पर नियंत्रण पाना मुश्किल हो गया। सरकार चिन्तित हो गयी। गॉंधीजी ने पंजाब में जाकर लोगों को समझाने-बुझाने का प्रयास करना चाहते थे पर सरकार ने उन्हे पंजाब में घुसने ही नही दिया। कांग्रेसी नेताओं के पंजाब में प्रवेश पर भी रोक लगा दिया गया। 9 अप्रैल 1919 को अमृतसर के स्थानीय नेताओं- डा0 सैफुद्दीन किचलू  और डा0 सत्यपाल के नेतृत्व में रामनवमी के जुलूस में मुसलमानों ने बडी संख्या में भाग लिया और उसी शाम इन दोनों स्थानीय नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। अपने नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में अमृतसर में 10 अप्रैल को लगभग तीस हजार प्रदर्शनकारियों का एक जुलूस निकला। टाउनहाल के पास शान्तिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाये जाने की प्रतिक्रिया में ब्रिटिश शासन के प्रतीकों- पोस्ट आफिस, सरकारी कार्यालय आदि पर हमले हुये और टेलीग्राम तार काट दिये गये। इसी क्रम में पुलिस ने आन्दोलनकारियों पर गोली चलाई जिसमें 20 लोग मारे गये। प्रशासन ने सेना को बुला लिया और नगर का प्रशासन जनरल डायर के हाथों में सौंप दिया गया। जनरल डायर ने अमृतसर में जनसभाएॅं आयोजित करने पर प्रतिबंध लगा दिया।

जालियॉवाला बाग हत्याकाण्ड, 1919 (Jallianwala Bagh massacre)

यदि किसी घटना ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर सबसे अधिक प्रभाव डाला था तो वह घटना जालियॉंवाला बाग हत्याकांड ही था। आजादी की लड़ाई में भारतीयों के जान न्योछावर करने के एक से बढ़कर एक उदाहरण है लेकिन जालियॉवाला बाग की घटन कई मामलों में अलहदा है। घटना का विवरण सुनकर आज भी हम सभी के रोंगटे खडे हो जाते है। यह एक अंग्रेज जनरल के क्रूरता की हद पार कर जाने की दास्तां हैं तो भारतीयों में आजादी की छअपटाहट का भी अफसाना है। 

अमृतसर की उत्तेजित जनता को कुचलने के लिए नगर को सेना के हवाले सौंप दिया गया था। 12 अप्रैल को शहर में सार्वजनिक सभा करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया जिसकी पूरी जानकारी जनता को नही करायी गयी। 13 अपै्रल को पंजाब की सबसे लोकप्रिय बैशाखी का त्योहार था। अपने स्थानीय नेताओं को रिहा कराने और आगे की रणनीति बनाने के उद्देश्य से अमृतसर के जालियॉंवाला बाग में एक सभा आयोजित की गई जिसमें कुछ नेता भाषण देने वाले थे। यह बाग अमृतसर के स्वर्णमन्दिर के पास और शहर के बीच में अवस्थित है और उस समय चारों ओर दीवारों से घिरा हुआ था। इसमें आने जाने के लिए केवल एक संकरी गली थी। बाग में एक कुॅआ भी था। हजारों की संख्या में स्त्री, पुरूष और बच्चे सभा में एकत्रित हुये थे। इनमें तो बहुत सारे लोग ऐसे भी थे जो अपने परिवार के साथ बैशाखी मेला का आनन्द लेने और सिर्फ घूमने के लिए आये थे। जनरल डायर को लगा कि यह सभा उसके आदेश की अवहेलना करके आयोजित की गई है। जब सभा शान्तिपूर्ण चल रहा था तो जनरल डायर ने 200 देशी और 50 गोरे सिपाहियों को साथ लेकर बाग के एकमात्र दरवाजे को रोक लिया और बिना कोई चेतावनी दिये अपने सैनिकों को राइफलों और मशीनगनों से अन्दर जमा भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दिया। सेना ने गोली चलाना तभी बन्द किया जब कारतूस समाप्त हो गये। आतंकग्रस्त भीड तीतर-बितर होने लगी और सभी जान बचाने के लिए भागने लगे। लगभग 10 मिनट तक निहत्थी भीड़ पर गोलियों की बौछार होती रही। जनरल डायर तो एक हथियार लैस गाड़ भी गोली चलाने के लिए ले गया था, लेकिन तंग दरवाजे के कारण यह गाड़ी बाग में नही जा सकी। सभास्थल के चारों ओर ऊूंची-ऊूंची दीवारें थी जहॉं से तुरन्त भागना संभव भी नही था। भागने का कोई रास्ता नही होने के कारण कुछ लोग जान बचाने के लिए मैदान में मौजूद एकमात्र कुएॅं में कूद गये और देखते ही देखते वह कुॅआ भी लाशों से पट गया। बाग में लगी पट्टिका पर लिखा है कि 120 शव तो सिर्फ कुएॅ से ही मिले। आज इस कुएॅं को ‘शहीदी कुऑं‘ के नाम से जाना जाता है। शहर में कर्फ्यू लगे होने के कारण घायलों को इलाज के लिए कही नही ले जाया सका और लोगों ने तड़प-तड़प कर वहीं दम तोड़ दिया। सरकारी ऑंकडों के मुताबिक लगभग दस हजार की निहत्थी भीड पर 1650 राउण्ड गोलियॉं चलाई गई जिसमें 379 लोग मारे गये और लगभग दो हजार लोग घायल हुये। गैर-सरकारी अनुमानों के अनुसार मरनेवालों की संख्या लगभग 1500 थी। भारतीय इतिहास में यह घटना ‘जालियॉंवाला बाग हत्याकांड‘ के नाम से जानी जाती है। इस जनसभा की मुखबिरी हंसराज नामक भारतीय ने की थी और उसके सहयोग से इस हत्याकांड की साजिश रची गयी थी।

हण्टर कमीशन के समक्ष बयान देते हुये श्री गिरधारी लाल ने बताया था कि - ‘‘ मैने  सैकडों व्यक्तियों को वही मरे हुये देखा। सबसे खराब बात यह थी कि गोली उस दरवाजे की तरफ चलायी जा रही थी, जिससे होकर लोग भाग रहे थे। बहुत से लोग भागते हुये भीड़ में पैरो तले कुचले गये और मारे गये। कुछ की ऑंखों पर गोलियॉं लगी थी, मेरा यह अनुमान है कि उस समय वहॉं एक हजार से ज्यादा मृतक और आहत व्यक्ति थे।‘‘

जालियॉंवाला बाग हत्याकांड से पूरा देश स्तब्ध रह गया। वहसी क्रूरता ने देश को मौन कर दिया। इस निर्मम हत्याकांड के बाद पूरे पंजाब में मार्शल ला लागू कर दिया गया और जनता पर जंगली किस्म के अत्याचार किये गये, जैसे - अंधाधुंध गिरफ्तारियॉ, यातनाएॅं, सार्वजनिक रूप से कोड़े लगाना, भारतीयों को रेंगकर चलने के लिए मजबूर करना आदि। इस प्रकार विशेषकर अमृतसर की जनता पर अमानुषिक अत्याचार किये गये। गॉंधीजी ने देखा कि पूरा माहौल हिंसा की चपेट में है तो 18 अप्रैल 1919 को उन्होने आन्दोलन वापस लेने की घोषणा कर दी। 

हण्टर समिति (Hunter Committee)   

सरकार के लाख प्रयत्न के बाद भी अमुतसर की घटनाओं पर अधिक दिनों तक पर्दा नही रह सका। देश के कोने-कोने से इसके विरोध में आवाजें उठने लगी। इसकी जॉंच की अनवरत मॉंग की जाने लगी। अपना विरोध व्यक्त करने के लिए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपना ‘सर‘ और ‘नाईटहुड‘ (Knighthood)   की उपाधि का परित्याग कर दिया। इसके अलावा, वायसराय की कार्यकारिणी के भारतीय सदस्य शंकरराम नागर ने कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया था। इस हत्याकांड की विश्वव्यापी निंदा हुई और जनता की जोरदार मॉंग पर सरकार को झुकना पड़ा। अन्ततः अत्यधिक दबाव में भारत सचिव एडविन माण्टेग्यू ने 1919 के अन्त में लार्ड हण्टर की अध्यक्षता में एक समिति बनाई जिसके सदस्य तीन अंग्रेज और दो भारतीय- चिमनलाल शीतलवाड और पंडित जगत नारायण थे।

जॉच समिति के सामने जनरल रेजीनॉल्ड डायर ने स्वीकार किया कि वह गोली चला कर लोगों को मार देने का निर्णय पहले से ही लेकर वहॉ गया था और वह उन लोगों पर चलाने के लिए दो तोपें भी ले गया था जो कि संकरे रास्ते से नही जा सकी थी। हण्टर समिति ने अपने जॉंच की रिपोर्ट पेश की लेकिन यह कहा जा सकता है कि यह जॉंच निष्पक्ष नही हुई। उसने अधिकारियों के नृशंस कार्यो पर पर्दा डालने का प्रयास किया। जॉच समिति की रिपोर्ट आने पर  1920 इ0 में जनरल डायर को पदावनत करके कर्नल बना दिया गया। ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स ने उसका निन्दा प्रस्ताव पारित किया परन्तु लार्ड सभा ने इस हत्याकांड की प्रशंसा करते हुये उसका प्रशस्ति प्रस्ताव पारित किया। कुल मिलाकर जनरल डायर के कार्य को उचित बताया गया लेकिन समिति ने इतना स्वीकार किया कि जनरल डायर ने अनुचित साधनों का प्रयोग किया था और अधिकारियों ने जनता पर पाशविक अत्याचार किया था।

जालियॉवाला बाग हत्याकांड की जॉंच के लिए कांग्रेस ने अपने स्तर पर भी एक जॉंच समिति का गठन किया। इस जॉच समिति के अध्यक्ष पण्डित मदन मोहन मालवीय और सदस्य महात्मा गॉंधी, चितरंजन दास, मोतीलाल नेहरू, तैयब और डाक्टर जयकर थे। इस समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में अधिकारियों के अमानुषिक कार्यो की घोर निन्दा की।

कुल मिलाकर पंजाब की घटनाओं की जॉंच-पड़ताल का कोई विशेष परिणाम नहीं निकला। केवल जनरल डायर को नौकरी से अलग कर दिया गया लेकिन पंजाब के गवर्नर तथा भारत के वायसराय के कार्यो की सराहना की गयी। ब्रिटेन के लार्ड सभा में जनरल डायन को माफ कर देने के लिए एक प्रस्ताव लाया गया, उसे ब्रिटिश साम्राज्य का शेर कहा गया और उसे ‘प्रतिष्ठा की तलवार तथा 2000 पौण्ड की भेंट दी गई जिससे भारतीयों के दिल पर गहरा आघात पड़ा तथा ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति रही-सही राजभक्ति जाती रही।      

जब जालियॉवाला बाग में यह हत्याकाण्ड हो रहा था, उस समय उधमसिंह वहीं मौजूद थे और उन्हे भी गोली लगी थी। वहीं उन्होने इस हत्याकांड का बदला लेने की प्रतिज्ञा की और उन्होने अपना नाम बदलकर ‘राम मोहम्मद सिंह आजाद‘ रख लिया था। अन्ततः 21 वर्ष बाद 13 मार्च 1940 को उन्होने लंदन के कैक्सटन हॉल में इस घटना के समय पंजाब के लेफ्टिनेण्ट गवर्नर माइकल ओ डायर को गोली से भून दिया। यहॉ सूच्य है कि जनरल डायर, जिसने जालियॉवाला बाग में निहत्थी भीड पर गोली चलाने का आदेश दिया था, उसकी मौत 1927 में ही हो गयी थी। इस दुस्साहसिक प्रयास के दण्डस्वरूप उधमसिंह को 31 जुलाई 1940 को फॉंसी पर चढा दिया गया। इस घटना ने तब  12 वर्ष की उम्र के भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। इसकी सूचना मिलते ही तब 12 मील पैदल चलकर जालियॉवाला बाग पहुॅच गये थे।

वस्तुतः जालियॉवाला बाग हत्याकाण्ड भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। जालियॉवाला बाग हत्याकांड भारतीय धरती पर निर्दोष भारतीयों की सबसे बर्बर और सोची समझा हत्या की साजिश थी। इस भयावह घटना के बाद भी आजादी के लिए लोगों का हौसला पस्त नही हुआ अपितु सच तो यह है कि इस घटना के बाद आजादी हासिल करने की चाहत लोगों में और जोर से उफान मारने लगी। हालॉंकि उन दिनों संचार और आपसी संवाद के वर्तमान साधनों की कल्पना भी नही की जा सकती थी, फिर भी यह खबर पूरे देश में आग की तरह फैल गई। आजादी की चाह न केवल पंजाब, बल्कि पूरे देश के बच्चे-बच्चे के सिर चढ़ कर बोलने लगी। उस दौर के हजारों भारतीयों ने जालियॉवाला बाग की मिट्टी को माथे से लगाकर देश को आजाद कराने का दृढ़ संकल्प लिया। इसके फलस्वरूप ही महात्मा गॉंधी ने असहयोग आन्दोलन प्रारंभ किया। इतिहासकार ए0पी0जे0 टेलर ने जलियांवाला बाग हत्याकांड की घटना के विषय में लिखा कि -“जलियांवाला बाग जनसंहार भारतीय इतिहास में एक ऐसा निर्णायक मोड़ था कि इसके बाद भारत के लोग ब्रिटिश शासन से अलग हो गए। 

इस प्रकार एक राजनीतिक अभियान के रूप में रॉलेट ऐक्ट विरोधी सत्याग्रह स्पष्ट रूप से असफल रहा क्योंकि वह अपने अकेले लक्ष्य को अर्थात रॉलेट ऐक्ट को निरस्त कराने के लक्ष्य को भी नहीं पा सका। उसमें हिंसा भी शामिल हो गयी, यद्यपि इसे अहिंसक होना चाहिए था। गॉंधीजी ने माना कि अहिंसा के अनुशासन के लिए अपर्याप्त रूप से प्रशिक्षित जनता को सत्याग्रह का हथियार थमाकर उन्होनें भारी गलती की है। फिर भी, यह आन्दोलन महत्वपूर्ण था क्योंकि यह पहला राष्ट्रव्यापी जन-आन्दोलन था और कुछ सीमित वर्गों की राजनीति से जनता की राजनीति में भारतीय राष्ट्रवादी राजनीति के रूपान्तरण के आरंभ का सूचक था।     


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