window.location = "http://www.yoururl.com"; Bheel Revolt 1818 | भील विद्रोह

Bheel Revolt 1818 | भील विद्रोह

 


भील विद्रोह -

उत्तर में विंध्याचल से लेकर दक्षिण-पच्छिम में सहाद्रि या पच्छिमी घाट तक का अंचल भीलों का पुराना निवास स्थान रहा है और खानदेश में तो उनका प्रबल बहुमत रहा है। मैदानी हिस्से में वे खेती करते और शांतिपूर्ण जीवन बिताते रहे है। वे स्वयं अपनी जमीनों के स्वामी थे। पहाड़ों के भील अपनी जीवन रक्षा के लिए आसपास के धनी जमींदारों को लूट भी लिया करते थे।

सामन्त-सरदारों ने भीलों को हर तरह सताया था। अरब सूदखोरों ने उनको तबाह कर दिया था। बाजीराव द्वितीय के पेशवा बनने के बाद जसवंत राव होल्कर ने विद्रोह किया, तो मराठा सेना ने आकर भीलों की बस्तियाँ उजाड़ दीं। दो साल तक जमीन जोती-बोयी न जा सकी, परिणामतः भयंकर अकाल पड़ा। फिर पेशवा के अफसरों के कुशासन ने उन्हें खूब लूटा-खसोटा। 1816 ई0 में पिण्डारियों ने पूर्वी पहाड़ियों के मुसलमान भीलों की मदद से इन भीलों पर ऐसे जुल्म ढ़ाये कि उनके सामने मराठों और अरबों के जुल्म फीके पड़ गये। इन अत्याचारों से बचने के लिए भीलों ने भाग कर पहाड़ियों में शरण ली। सामन्त सरदारों के अत्याचारों ने उनमें विद्रोह की भावना भर दी। इस हालत में खानदेश का प्रान्त अंग्रेजों के हाथ आया। इन नये शासकों के खिलाफ भीलों का विद्रोह करना इसलिए स्वाभाविक था। ग्राहम ने लिखा है कि - भूतपूर्व देशी सरदारों की बराबर वादाखिलाफी से क्रुद्ध और अपने परिवारों तथा नाते-रिश्तेदारों के कत्लेआम से बर्बर बन जाने वाले भील आमतौर पर विदेशियों की नयी सरकार को संदेह की दृष्टि से देखते थे और व्यवस्था तथा नियंत्रण के बंधन में बँधने को पहले से कहीं कम इच्छुक थे।’

ग्राहम किसी भी साम्राज्यवादी की तरह अंग्रेजों की गुलामी को व्यवस्था तथा नियंत्रण का ’बंधन’ बताते हैं, परन्तु वह इस सच्चाई को स्वीकार करते हैं कि सामन्त शासकों ने उनके साथ बार-बार दगाबाजी की, अपने वादे कभी पूरे न किये, उल्टे उनके परिवार के सब लोगों को मौत के घाट उतारा, इसलिए शासक वर्ग का विश्वास वे नही करते थे। ग्राहम यह भी स्वीकार करते हैं कि भील अंग्रेज शासकों को और भी संदेह की नजर से देखते थे तथा उनकी गुलामी स्वीकार करने को कतई तैयार न थे।

इन असंतुष्ट भीलों ने उत्तर में सतपुड़ा की पहाड़ियों को और दक्षिण में सतमाला तथा अजन्ता की पहाड़ियों को अपना अड्डा बनाया था। उन्होंने अपने विभिन्न गुट बनाये, अपने नेता चुने और अपने दुश्मनों से बदला लेने के लिए विभिन्न दिशाओं में चल पड़े। सहाद्रि के भीलों ने भी शांतिपूर्ण जीवन छोड़कर शस्त्र उठाये और आसपास के दुश्मनों के लिए आंतक बन गये।

1817 में खानदेश में भीलों का विद्रोह हुआ। अंग्रेजों ने इस विद्रोह के पीछे पेशवा के मंत्री त्रियंबक का हाथ बताया। त्रियंबक थाना के किले से निकल भागे थे। भीलों के अंचल को उन्होंने अपने लिए सुरक्षित समझा। उनकी प्रेरणा से भीलों ने विद्रोह किया और अंग्रेजों के राज में लूटपाट जारी कर दी। बम्बई प्रेसीडेन्सी के लाट एलफिंस्टन ने बाजीराव द्वितीय पर दबाव डाला और माँग की कि वे त्रियंबक को गिरफ्तार कर अंग्रेजों के हाथ सौंप दें। बाजीराव ने कहा कि त्रियंबक कभी भी विद्रोहियों के साथ नहीं रहे और एलफिंस्टन का अनुरोध पूरा करने से इन्कार कर दिया। उनके उत्तर में एलफिंस्टन ने लिखा कि - बहुत से लोगों ने त्रियंबक को देखा है और उनके दो भतीजे गोड़ा जी दंगल तथा महीपा दंगल अब खानदेश के विद्रोहियों के नेता हैं। एलफिंस्टन ने यह भी लिखा कि विद्रोहियों की संख्या लगभग आठ हजार है।

बम्बई प्रेसीडेन्सी के लाट का यह पत्र प्रमाण है कि खुद बाजीराव पेशवा द्वितीय की हमदर्दी त्रियंबक के साथ थी। दरअस्ल वे खुद अंग्रेजों को मार भगाने की योजना गुप्त तरीके से बना रहे थे।

1818 में खानदेश के अंग्रेजों के हाथ आते ही भील उनसे भिड़ गये। अंग्रेजों ने उनके दमन के लिए सक्रिय कदम उठाये। कैप्टेन ब्रिग्स ने उनके कई नेताओं को पकड़ लिया। भीलों की गतिविधि और रसद की सप्लाई रोकने के लिए अंग्रेजों ने पहाड़ियों के दरों पर सेना बैठाई। सैनिक कार्रवाई के साथ-साथ एलफिंस्टन ने भीलों को कितनी ही रियायतें देने की घोषणा की। एलान किया गया कि जो भील अंग्रेजों की पुलिस में भर्ती होकर पहले की तरह पहरेदारी का काम करेंगे उन्हें बड़ी उदारता के साथ पेन्शन और भत्ता दिया जायगा। एलफिंस्टन का विचार था कि अगर भीलों के सरदारों को अंग्रेजों के पक्ष में लाया जा सका तो इस विद्रोह को शान्त और भीलों को अपने कब्जे में करना कम्पनी सरकार के लिए आसान होगा। वह भील सरदारों के जरिए भीलों पर कम्पनी का शासन लादने की नीति अपनाने का पक्षपाती था। इसी उद्देश्य से उसने भीलों की मिलिशिया कायम करने की योजना बनायी। इसका कुछ फल भी अंग्रेजों को मिला। कुछ भील सरदार अंग्रेजों के प्रति नरम पड़ गये और अंग्रेजों के कट्टर दुश्मन नादिर सिंह को उल्टा-सीधा समझा-बुझा कर दुश्मनों के हाथ गिरफ्तार करा दिया।

लेकिन आम भील अंग्रेजों के खिलाफ बने रहे। 1819 में उन्होंने चारों तरफ विद्रोह आरंभ किया। उनके नेताओं ने पहाड़ी अंचल की विभिन्न चौकियों पर कब्जा किया और अपने दस्ते चारों तरफ भेज कर अंग्रेज शासकों की नाक में दम कर दिया। कम्पनी सरकार ने फौज की कई टुकड़ियाँ उनका दमन करने भेजी। उन्होंने कुछ चौकियों पर कब्जा किया, लेकिन विद्रोह का दमन न किया जा सका। पुराने नेताओं के अभाव में नये नेता पैदा हो जाते और उन चौकियों की रक्षा करते। इस तरह युद्ध पहाड़ियों और जंगलों में जारी रहा। कुल मिलाकर भील अजेय बने रहे।

कम्पनी सरकार ने दूसरा दाँव फेंका। उसने एलान किया कि जो भील हथियार रख देंगे, उन्हें माफ कर दिया जायगा, लेकिन भीलों ने उस पर कोई ध्यान न दिया। अब अंग्रेजों ने अपना दमन चक्र तेज किया। उन्होंने उनके नेताओं को पकड़ कर फाँसी पर लटकाना शुरू किया। सतमाला पहाड़ी के भील सरदार चीत नायक उनके हाथ में पड़ गये और अंग्रेजों ने उन्हें फाँसी दे दी। लेकिन यह दमन चक्र भी कारगर न हुआ। अंग्रेजों के विरुद्ध साधारण जनता की भावना इतनी प्रबल थी कि कम्पनी द्वारा नियुक्त गाँवों के चौकीदार भी विद्रोही भीलों की मदद करते थे।

1820 ई0 में भील सरदार दशरथ ने अंग्रेजों के खिलाफ पुरजोर हमला शुरू किया। कम्पनी सरकार के अंचलों में घुस-घुस कर उन्होंने मार-काट, लूट-पाट आरंभ कर दी। मशहूर पिण्डारी सरदार शेख दुल्ला ने उनका साथ दिया। इस सम्मिलित शक्ति का मुकाबला करने का फैसला अंग्रेजों ने तुरन्त किया और मेजर मोरिन को इसकी हिदायत दी। इसने एक-एक कर प्रायः एक सौ मील लम्बी पट्टी की चौकियों पर कब्जा कर लिया और क्रमशः दक्षिण के भील सरदारों को आत्मसमर्पण करने को बाध्य किया।

1822 ई0 में मशहूर नेता हिरिया के नेतृत्व में भीलों ने अंग्रेज शासकों को चुनौती दी। उनके हमले रोके न जा सके। सब जगह अराजकता जैसी फैल गयी। लगता था कि कहीं भी कम्पनी का राज नहीं रह गया। अंग्रेज शासकों के अन्दर भी आतंक सा फैल गया। भीलों के दल चारों तरफ कम्पनी राज पर हमला करते, लूट-पाट मचाते। अंग्रेज शासन के स्तंभ मामलातदारों की पिंडली भय से काँपने लगी।

1823 ई0 में कर्नल राविन्सन सेना लेकर अप्रैल में विद्रोहियों का मुकाबला करने आया। उसने विद्रोहियों को तितर-बितर करने और उनकी बस्तियों को उजाड़ने में कुछ सफलता पायी। इसके बाद दो वर्ष तक अंग्रेज भीलों का कत्ल करते और उनकी बस्तियों में आग लगाते रहे। सैकड़ों भीलों को पकड़ कर उसी वक्त मार दिया गया और हजारों को कड़ी सजाएँ दी गयी।

1824 ई0 में हालत और भी बिगड़ी। त्रियंबक के भतीजे गोड़ा जी दंगलिया ने सतारा के राजा के नाम पर बागलाना के भीलों का विद्रोह के लिए और मराठा साम्राज्य की फिर से स्थापना में मदद के लिए आह्वान किया। बहादुर भील इस आह्वान को सुनकर अंग्रेजी राज ख़त्म करने के लिए आगे बढ़े। कितनी ही जगह उन्होंने कम्पनी सेना को हराया और मुरलीहर के पहाड़ी किले पर कब्जा कर लिया। उनका दमन करने को कम्पनी की बड़ी सेना आयी। उसे आधुनिक अस्त्रों-शस्त्रों से सज्जित देख भील किले से हट गये और पहाड़ियों में जाकर अपना मोर्चा लगाया। हैदराबाद और दक्षिण से नयी सेनाओं ने आकर हालत सँभाली।

कुछ इतिहासकारों ने ऐसी ही घटना 1825 ई0 में बतायी है। उनके अनुसार शिवराम नामक सोनार ने सतारा के राजा के नाम पर बागलान के भीलों की बगावत करायी। करीब सौ भीलों ने उन्तापुर पर हमला कर उसे लूट लिया और मुरलीहर पर कब्जा कर लिया। लेफ्टिनेन्ट आउटराम ने आकर किले को विद्रोहियों के हाथ से छीन लिया। बाद में अंग्रेज शिवराम और दूसरे विद्रोहियों का दमन करने में सफल हुए।

बहुत से विद्रोहियों को माफ किया गया और उन्हें शान्ति के साथ खेती करने की इजाजत दी गयी। भीलों की सेना बनायी गयी, जमीन का बन्दोबस्त किया गया और भीलों को काफी तकाबी देने की व्यवस्था की गयी। लेकिन फिर भी जल्दी शान्ति स्थापित न हो सकी। गाँव के पटेल तक विद्रोही भीलों की मदद करते देखे गये। पेंडिया, बुन्दी, सुतवा आदि भील सरदार अंग्रेज शासकों के खिलाफ लड़ते रहे। लेफ्टिनेन्ट आउट्रम, कैप्टेन ओवान्स और कैप्टेन रिगबीह ने साम, दाम, भय, भेद आदि से विद्रोह को शान्त करने में पूरी ताकत लगायी। इन सब में आउटराम ने भीलों को अंग्रेजों के पक्ष में मिलाने में सबसे ज्यादा काम किया। वह भीलों को मित्र बनाता, उनकी बस्तियों में अकेले जाकर हफ्तों रहता और विश्वास दिलाता कि कम्पनी सरकार सचमुच भीलों को मित्र बनाना चाहती है, तकाबी आदि से उनकी मदद करना चाहती है, भीलों को सेना में भरती कर उनकी मदद से वह भारत में राज करना चाहती है और जो कुछ वादा करती है, वह अवश्य पूरा करेगी।’

इसका परिणाम भी अंग्रेज शासकों के लिए अच्छा हुआ। कितने ही भील सेना में भरती ही गये, कितने ही खेती कर शान्तिपूर्ण जीवन बिताने लगे। नये शासकों ने उन्हें जमीन, बैल, बीज आदि की मदद दी। 1826 ई0 में दांग सरदारों और लोहारा के भीलों ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा लगाया। फौज काफी खून-खराबा के बाद उनका दमन कर सकी। यहाँ देशमुखों को भी विद्रोही भीलों की मदद करते देखा गया। 1827 ई0 में आउट्रम द्वारा स्थापित ’भील सेना’ ने मोर्चा लेना शुरू किया। काँटे से काँटा निकालने की अंग्रेजों की नीति काफी सफल रही। कितने ही विद्रोही भीलों की इस भील सेना ने हत्या की।

1826 ई0 में हालत सुधरी मालूम होती थी। कलक्टर ने रिपोर्ट भेजी कि पिछले 6 महीनों में सर्वत्र शान्ति रही। बीस साल के दौरान सिर्फ इन 6 महीनों में ही इस अंचल में शान्ति देखी है। लेकिन इसके बाद कई साल तक विद्रोह की आग जलती रही। 

1831 ई0 में धार राज्य के भीलों ने विद्रोह किया। उनके विद्रोह का कारण धार सरकार की उनकी जमीन छीनने और उनसे अनाप-सनाप कर वसूल करने की नीति थी। विद्रोही भीलों के नेता उचेत सिंह ने धार की गद्दी का भी दावा किया। उन्होंने अपने को सुप्रसिद्ध मुरारी राव पवार का पुत्र घोषित किया। मुरारी राव ने अपनी भील सेना लेकर राज्य पर अधिकार के लिए धार के राजा के साथ युद्ध किया था। भीलों ने उचेत सिंह को अपना नेता माना और विद्रोह में उनका साथ दिया। धार के राजा ने विद्रोह शान्त करने के लिए आउट्रम की मदद माँगी। आउट्रम ने आकर अपना पहले का रास्ता अपनाया और धैर्य के साथ उन्हें अपना मित्र बनाया।

अवश्य ही भीलों के विद्रोहों का अंत यहीं नहीं हो जाता। 1846 ई0 में मालवा के भीलों ने विद्रोह किया। खानदेश के भीलों ने 1852 में मोर्चा लगाया। फिर उन्होंने 1857 ई0 में भागोजी तथा काजर सिंह ने नेतृत्व में अंग्रेज साम्राजियों से लोहा लिया। अवश्य ही ये बुरी तरह दबा दिये गये।


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