विषय प्रवेश (Introduction) –
योग-दर्शन के प्रणेता पतंजलि माने जाते हैं । इन्हीं के नाम पर इस दर्शन को पातंजल-दर्शन भी कहा जाता है। योग के मतानुसार मोक्ष की प्राप्ति ही जीवन का चरम लक्ष्य है । मोक्ष की प्राप्ति के लिये विवेक ज्ञान को ही पर्याप्त नहीं माना गया है, बल्कि योगाभ्यास पर भी बल दिया गया है। योगाभ्यास पर जोर देना इस दर्शन की निजी विशिष्टता है। इस प्रकार योग-दर्शन में व्यावहारिक पक्ष अत्यधिक प्रधान है।
योग-दर्शन सांख्य दर्शन की तरह द्वैतवादी है। साँख्य के तत्त्वशास्त्र को वह पूर्णतः मानता है। उसमें यह सिर्फ ईश्वर को जोड़ देता है। इसलिये योग को ’सेश्वर साँख्य’ तथा साँख्य को ’निरीश्वर साँख्य’ कहा जाता है।
योग-दर्शन के ज्ञान का आधार पतंजलि द्वारा लिखित ’योग सूत्र’ को ही कहा जा सकता है। योगसूत्र में योग के स्वरूप, लक्षण और उद्देश्य की पूर्ण चर्चा की गई है। योग-सूत्र पर व्यास ने एक भाष्य लिखा है जिसे ’योग-भाष्य’ कहा जाता है। यह भाष्य योग-दर्शन का प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। वाचस्पति मित्र ने भी योग-सूत्र पर टीका लिखी है जो ’तत्त्व वैशारदी’ कही जाती है ।
साँख्य और योग-दर्शन में अत्यन्त ही निकटता का सम्बन्ध है जिसके कारण दोनों दर्शनों को समान तंत्र (Allied System) कहा जाता है। दोनों दर्शनों के अनुसार जीवन का मूल उद्देश्य भोक्षानुभूति प्राप्त करना है। साँख्य की तरह योग भी संसार को तीन प्रकार के दुःखों – आध्यात्मिक दुःख, आधिभौतिक दुःख और आधिदैविक दुःख से परिपूर्ण मानता है। मोक्ष का अर्थ इन तीन प्रकार के दुःखों से छुटकारा पाना है। बन्धन का कारण अविवेक है। इसलिये मोक्ष को अपनाने के लिये तत्वज्ञान को आवश्यक माना गया है। वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप को जानकर ही मानव मुक्त हो सकता है। साँख्य के मतानुसार मोक्ष की प्राप्ति विवेक ज्ञान से ही सम्भव है। परन्तु योगदर्शन विवेक-ज्ञान की प्राप्ति के लिये योगाभ्यास को आवश्यक मानता है। इस प्रकार योग-दर्शन में सैद्धान्तिक ज्ञान के अतिरिक्त व्यावहारिक पक्ष पर भी जोर दिया गया है। साँख्य और योग-दर्शन को समान तंत्र कहे जाने का कारण यह है कि योग और साँख्य दोनों के तत्त्व-शास्त्र एक हैं। योग-दर्शन साँख्य के तत्त्व-विचार को अपनाता है। साँख्य के अनुसार तत्त्वों की संख्या पच्चीस है। साँख्य के पच्चीस तत्त्वों-दस बाह्य इन्द्रियाँ, तीन आन्तरिक इन्द्रियाँ, पंच-तन्मात्रा, पंच महाभूत, प्रकृति और पुरुष- को योग भी मानता है । योग इन तत्त्वों में एक तत्त्व ईश्वर को जोड़ देता है जो योग-दर्शन का छब्बीसवा तत्त्व है । अतः योग के मतानुसार तत्त्वों की संख्या छब्बीस है। योग इन तत्त्वों की व्याख्या सांख्य से अलग होकर नहीं करता है, बल्कि साँख्य के तत्त्व-विचार को ज्यों-का-त्यों सिर्फ ईश्वर को जोड़कर मान लेता है। इस प्रकार योग-दर्शन तत्त्व-विचार के मामले में सांख्य-दर्शन पर आधारित है।
योग-दर्शन साँख्य के प्रमाण-शास्त्र को भी ज्यों-का-त्यों मान लेता है। साँख्य के मतानुसार प्रमाण तीन है। यह प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द को ज्ञान का साधन मानता है। सांख्य का विकासवादी सिद्धान्त योग को भी मान्य है। योग विश्व के निर्माण की व्याख्या प्रकृति से करता है। प्रकति का ही रूपान्तर विश्व की विभिन्न वस्तुओं में होता है । अतः साँख्य प्रकृति परिणामवाद को मानता है । समस्त विश्व अचेतन प्रकृति का वास्तविक रूपान्तर है। जहाँ तक कार्य कारण सिद्धान्त का संबंध है, योग-दर्शन साँख्य पर आधारित है। साँख्य की तरह श्री सत्-कार्यवाद को अपनाता है। अतः साँख्य और योग को समान तन्त्र कहना संगत है।
सच पूछा जाय तो कहना पड़ेगा कि योग-दर्शन एक व्यावहारिक दर्शन है जबकि साँख्य एक सैद्धान्तिक दर्शन है। साँख्य के सैद्धान्तिक पक्ष का व्यावहारिक प्रयोग ही योग-दर्शन कहलाता है। अतः योग-दर्शन योगाभ्यास की पद्धति को बतलाकर साँख्य-दर्शन को सफल बनाता है।
साँख्य-दर्शन में ईश्वर की चर्चा नहीं हुई है। साँख्य ईश्वर के सम्बन्ध में पूर्णतः मौन है। इससे कुछ विद्वानों ने साँख्य को अनीश्वरवादी कहा है। परन्तु साँख्य का दर्शन इस विचार का पूर्ण रूप से खंडन नहीं करता है। साँख्य में कहा गया हैं ’ईश्वरासिद्धेः’ ईश्वर असिद्ध है । साँख्य में ’ईश्वराभावात्’ ईश्वर का अभाव है, नहीं कहा गया है । योग-दर्शन में ईश्वर के स्वरूप की पूर्ण रूप से चर्चा हुई है। ईश्वर को प्रस्थापित करने के लिये तर्कों का भी प्रयोग किया गया है। ईश्वर को योग-दर्शन में योग का विषय कहा गया है। चूँकि साँख्य और योग समान तन्त्र हैं, इसलिये योग की तरह साँख्य-दर्शन में भी ईश्वरवाद की चर्चा अवश्य हुई होगी।
योग-दर्शन में योग के स्वरूप, उद्देश्य और पद्धति की चर्चा हुई है। साँख्य की तरह योग भी मानता है कि बन्धन का कारण अविवेक है। पुरुष और प्रकृति की भिन्नता का ज्ञान नहीं रहना ही बन्धन है। बन्धन का नाश विवेक ज्ञान से सम्भव है। विवेक ज्ञान का अर्थ पुरुष और प्रकृति के भेद का ज्ञान कहा जा सकता है। जब आत्मा को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, जब आत्मा यह जान लेंती है कि मैं मन, बुद्धि अहंकार से भिन्न हैं, तब वह मुक्त हो जाती है। योग-दर्शन में इस आत्म-ज्ञान को अपनाने के लिये योगाभ्यास की व्याख्या हुई है ।
योग-दर्शन में योग का अर्थ है चित्तवृति का निरोध। मन, अहंकार और बुद्धि को चित्त कहा जाता हैं। ये अत्यन्त ही चंचल हैं अतः इनका निरोध परमावश्यक है।
चित्त-भूमियाँ –
योग-दर्शन चित्तभूमि, अर्थात् मानसिक अवस्था के भिन्न-भिन्न रूपों में विश्वास करता है। व्यास ने चित्त की पाँच अवस्थाओं, अर्थात् पाँच भूमियों का उल्लेख किया है । ये हैं-(1) क्षिप्त, (2) मूढ़, (3) विक्षिप्त, (4) एकाग्र, (5) निरुद्ध ।
क्षिप्त चित्त की वह अवस्था है जिसमें चित्त रजोगुण के प्रभाव में रहता है। इस अवस्था में चित्त अत्यधिक चंचल एवं सक्रिय रहता है। उसका ध्यान किसी एक वस्तु पर केन्द्रित नहीं हो पाता, अपितु वह एक वस्तु से दूसरी वस्तु की ओर दौड़ता है। यह अवस्था योग के अनुकूल नहीं है। इसका कारण यह है कि इस अवस्था में इन्द्रियों और मन पर संयम का अभाव रहता है। मूढ़ चित्त की वह अवस्था है जिसमें वह तमोगुण के प्रभाव में रहता है। इस अवस्था में निद्रा, आलस्य इत्यादि की प्रबलता रहती है। चित्त में निष्क्रियता का उदय होता है। इस अवस्था में भी चित्त योगाभ्यास के उपयुक्त नहीं है। विक्षिप्तावस्था चित्त की तीसरी अवस्था है। इस अवस्था में चित्त का ध्यान कुछ समय के लिए वस्तु पर जाता है परन्तु वह स्थिर नहीं हो पाता। इसका कारण यह है कि इस अवस्था में चित्त स्थिरता का आंशिक-अभाव रहता है। इस अवस्था में चित्त-वृत्तियों का कुछ निरोध होता है परन्तु फिर भी यह अवस्था योग में सहायक नहीं है। इस अवस्था में रजोगुण का कुछ अंश विद्यमान रहता है। यह अवस्था तमोगुण से शून्य है और यह अवस्था क्षिप्त और मूढ़ की मध्य अवस्था है । एकाग्र चित्त की वह अवस्था है जो सत्व गुण के प्रभाव में रहता है । सत्व गुण की प्रबलता के कारण इस अवस्था में ज्ञान का प्रकाश रहता है। चित्त अपने विषय पर देर तक ध्यान लगाता रहता है। यद्यपि इस अवस्था में सम्पूर्ण चित्तवृतियों का निरोध नहीं होता है, फिर भी यह अवस्था योग-अवस्था में पूर्णतः सहायक होती है। निरुद्धावस्था चित्त का पाँचवाँ रूप है। इसको सभी विषयों से हटाकर एक विषय पर ध्यानमग्न किया जाता है। इस अवस्था में चित्त की सम्पूर्ण वृत्तियों का निरोध हो जाता है। चित्त में स्थिरता का प्रादुर्भाव पूर्ण रूप से होता है। अगल-बगल के विषय चित्त को आकर्षित करने में असफल रहते हैं।
एकाग्र और निरुद्ध अवस्थाओं को योगाभ्यास के योग्य माना जाता है। क्षिप्त, मूढ़ और विक्षिप्त चित्त की साधारण अवस्थाएँ हैं जबकि एकाग्र और निरुद्ध चित्त की असाधारण अवस्थाएं हैं ।
योग के अष्टाङ्ग साधन (The Eightfold Path of Yoga)
योग-दर्शन साँख्य-दर्शन की तरह बन्धन का मूल कारण अविवेक (Non-discrimination) को मानता है। पुरुष और प्रकृति के पार्थक्य का ज्ञान नहीं रहने के कारण ही आत्मा बन्धन-ग्रस्त हो जाती है। इसीलिये मोक्ष को अपनाने के लिये तत्त्वज्ञान पर अधिक बल दिया गया है। योग के मतानुसार तत्त्व-ज्ञान की प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती है जब तक मनुष्य का चित्त विकारों से परिपूर्ण है। अतः योग-दर्शन में चित्त की स्थिरता को प्राप्त करने के लिये तथा चित्तवृत्ति का निरोध करने के लिये योगमार्ग की व्याख्या हुई है। योग का अर्थ योग-दर्शन में चित्तवृत्तियों का निरोध है। गीता में योग का अर्थ आत्मा का परमात्मा से मिलन माना गया है। परन्तु योग-दर्शन में योग का अर्थ है राजयोग। योगमार्ग की आठ सीढ़ियाँ हैं। इसलिये इसे योग के अष्टाँग साधन (The Eightfold Path of Yoga) भी कहा जाता है। योग के अष्टांग मार्ग इस प्रकार हैं-(1) यम, (2) नियम, (3) आसन, (4) प्राणायाम, (5) प्रत्याहार, (6) धारणा, (7) ध्यान, (8) समाधि। इन्हें ’योगांग’ भी कहा जाता है। अब हम एक-एक कर योग के इन अंगों की व्याख्या करेंगे –
(1) यम- यम योग का प्रथम अंग है। बाह्य और आभ्यन्तर इन्द्रियों के संयम की क्रिया का ‘यम‘ कहा जाता है। यम पाँच प्रकार के होते हैं-(1) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अस्तेय, (4) ब्रह्मचर्य, (5) अपरिग्रह।
अहिंसा का अर्थ है किसी समय किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करना। अहिंसा का अर्थ भी प्राणियों की हिंसा का परित्याग करना ही नहीं है, बल्कि इनके प्रति क्रूर व्यवहार का भी परित्याग करना है। योग-दर्शन में हिंसा को सभी बुराइयों का आधार माना गया है। यही कारण है कि इसमें अहिंसा के पालन पर अत्यधिक जोर दिया गया है।
सत्य का अर्थ है मिथ्या वचन का परित्याग। व्यक्ति को वैसे वचन का प्रयोग करना चाहिए जिससे सभी प्राणियों का हित हो। जिस वचन से किसी भी प्राणी का अहित हो उसका परित्याग परमावश्यक है। जैसा देखा सुना और अनुमान किया उसी प्रकार मन का नियन्त्रण करना चाहिये।
अस्तेय तीसरा यम है। दूसरे के धन का अपहरण करने की प्रवृत्ति का त्याग ही ’अस्तेय’ है। दूसरे की सम्पत्ति पर अनुचित रुप से अधिकार जमाना ’स्तेय’ कहा जाता है। इसलिये इस मनोवृत्ति का परित्याग ही अस्तेय का दूसरा नाम है।
ब्रह्मचर्य चौथा यम है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है विषय-वासना की ओर झुकाने वाली प्रवृत्ति का परित्याग। ब्रह्मचर्य के द्वारा ऐसी इन्द्रियों के संयम का आदेश दिया जाता है जो कामेच्छा से सम्बन्धित है।
अपरिग्रह पाँचवाँ यम है। लोभवश अनावश्यक वस्तु के ग्रहण का त्याग ही अपरिग्रह कहा जाता है। उपरोक्त पाँच यमों के पालन में वर्ण, व्यवसाय, देशकाल के कारण किसी प्रकार का अपवाद नहीं होना चाहिए। योग-दर्शन में मन को सबल बनाने के लिए ये पाँच प्रकार के यम का पालन आवश्यक समझा गया है। इनके पालन से मानव बुरी प्रवृत्तियों को वश में करने में सफल होता है जिसके फलस्वरुप वह योग-मार्ग में आगे बढ़ता है।
(2) नियम- ’नियम’ योग का दूसरा अंग है। नियम का अर्थ है सदाचार को प्रश्रय देना। नियम भी पांच माने गए हैं –
(क) शौच (Purity) -शौच के अन्दर बाह्य और आन्तरिक शुद्धि समाविष्ट है । स्नान, पवित्र भोजन, स्वच्छता के द्वारा बाह्य शुद्धि तथा मैत्री, करुणा, सहानुभूति, प्रसन्नता, कृतज्ञता के द्वारा आन्तरिक अर्थात् मानसिक शुद्धि को अपनाना चाहिये।
(ख) सन्तोष (Contentment)– उचित प्रयास से जो कुछ भी प्राप्त हो उसी से संतुष्ट रहना संतोष कहा जाता है। शरीर-यात्रा के लिये जो नितान्त आवश्यक है उससे भिन्न अलग चीज की इच्छा न करना संतोष है।
(ग) तपस् (Penance)– सर्दी-गर्मी सहने की शक्ति, लगातार बैठे रहना और खड़ा रहना, शारीरिक कठिनाइयों को झेलना, ’तपस्’ कहा जाता है।
(घ) स्वाध्याय (Study)– स्वाध्याय का अर्थ है शास्त्रों का अध्ययन करना तथा ज्ञानी पुरुष के कथनों का अनुशीलन करना।
(ङ) ईश्वर प्रणिधान (Contemplation of God)– ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखना परमावश्यक है। योग-दर्शन में ईश्वर के ध्यान को योग का सर्वश्रेष्ठ विषय माना जाता है।
यम और नियम में अन्तर यह है कि यम निषेधात्मक सद्गुण है जबकि नियम भावात्मक सद्गुण है।
(3) आसन- आसन तीसरा योगाँग है। आसन का अर्थ है शरीर को विशेष मुद्रा में रखना। आसन की अवस्था में शरीर का हिलना और मन की चंचलता इत्यादि का अभाव हो जाता है, तन-मन दोनों को स्थिर रखना पड़ता है। शरीर को कष्ट से बचाने के लिये आसन को अपनाने का निर्देश दिया गया है। ध्यान की अवस्था में यदि शरीर को कष्ट की अनुभूति विद्यमान रहे तो ध्यान में बाधा पहुँच सकती है। इसीलिये आसन पर जोर दिया गया है। आसन विभिन्न प्रकार के होते हैं। आसन की शिक्षा साधक को एक योग्य गुरु के द्वारा ग्रहण करनी चाहिए। आसन के द्वारा शरीर स्वस्थ हो जाता है तथा साधक को अपने शरीर पर अधिकार हो जाता है। योगासन शरीर को सबल तथा निरोग बनाने के लिये आवश्यक है।
(4) प्राणायाम- प्राणायाम योग का चौधा अंग है। श्वास-प्रक्रिया को नियन्त्रित करके उसमें एक क्रम लाना प्राणायाम कहा जाता है। जब तक व्यक्ति की सांस चलती रहती है तब तक उसका मन चंचल रहता है। श्वास-वायु के स्थगित होने से चित्त में स्थिरता का उदय होता है। प्राणायाम शरीर और मन को दृढ़ता प्रदान करता है। इस प्रकार प्राणायाम समाधि में पूर्णतः सहायक होता है। प्राणायाम के तीन भेद हैं- (1) पूरक, (2) कुम्भक, (3) रेचक। पूरक प्राणायाम का वह अंग है जिसमें गहरी सांस ली जाती है। कुम्भक में श्वास को भीतर रोका जाता है। रेचक में श्वास को बाहर निकाला जाता है। प्राणायाम का अभ्यास किसी गुरु के निर्देशानुसार ही किया जा सकता है। श्वास के व्यायाम से हृदय सबल होता है।
(5) प्रत्याहार- यह योग का पाँचवाँ अंग है । प्रत्याहार का अर्थ है इन्द्रियों के बाह्य विषयों से हटाना तथा उन्हें मन के वश में रखना। इन्द्रियाँ स्वभावतः अपने विषयों की ओर दौड़ती हैं। योगाभ्यास के लिये ध्यान को एक ओर लगाना होता है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से संसर्ग नहीं हो। प्रत्याहार के द्वारा इन्द्रियाँ अपने विषयों के पीछे से न चलकर मन के अधीन हो जाती हैं। प्रत्याहार को अपनाना अत्यन्त कठिन है। अनवरत अभ्यास, दृढ़ संकल्प और इन्द्रिय-निग्रह के द्वारा ही प्रत्याहार को अपनाया जा सकता है।
(6) धारणा- धारणा का अर्थ है “चित्त को अभीष्ट विषय पर जमाना“। धारणा आन्तरिक अनुशासन की पहली सीढ़ी है। धारणा में चित्त किसी एक वस्तु पर केन्द्रित हो जाता है। इस योगांग में चित्त को अन्य वस्तुओं से हटाकर एक वस्तु पर केन्द्रीभूत कर देना पड़ता है और वह वस्तु बाह्य या आन्तरिक दोनों हो सकती है। वह वस्तु का कोई अंश अथवा सूर्य, चन्द्रमा या किसी देवता की प्रतिमा में से कोई भी रह सकती है। इस अवस्था की प्राप्ति के बाद साधक ध्यान के योग्य हो जाता है।
(7) ध्यान- ध्यान सातवाँ योगांग है। ध्यान का अर्थ है अभीष्ट विषय का निरन्तर अनुशीलन। ध्यान की वस्तु का ज्ञान अविच्छिन्न रुप से होता है जिसके फलस्वरुप विषय का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है। पहले विषयों के अंशों का ज्ञान होता है फिर सम्पूर्ण विषय की रुपरेखा विदित होती है।
(8) समाधि- समाधि अन्तिम योगांग है। इस अवस्था में ध्येय वस्तु की ही चेतना रहती है। इस अवस्था में मन अपने ध्येय विषय में पूर्णतः लीन हो जाता है जिसके फलस्वरुप उसे अपना कुछ भी ज्ञान नहीं रहता। ध्यान की अवस्था में वस्तु को ध्यान-क्रिया और आत्मा की चेतना रहती है परन्तु समाधि में यह चेतना लुप्त हो जाती है। इस अवस्था को प्राप्त हो जाने से ’चित्तवृत्ति का निरोध‘ हो जाता है। समाधि को योग-दर्शन में साधन के रूप में चित्रित किया गया है। समाधि की महत्ता इसलिये है कि उससे चित्तवृत्ति का निरोध होता है।
धारणा, ध्यान और समाधि का साक्षात सम्बन्ध योग से है। पहले पाँच अर्थात यम. नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का योग से साक्षात् सम्बन्ध नहीं है। ये पाँच योगाँग तो एक प्रकार से ध्यान और समाधि के लिये तैयारी मात्र हैं। पहले पाँच योगाँग के बहिरंग साधन (External Organs) और अन्तिम तीन को अन्तरंग साधन (Internal Organs) कहा जाता है। अष्टांग योग के पालन से चित्त का विकार नष्ट हो जाता है। आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को पहचान पाती है, क्योंकि तत्व ज्ञान की वृद्धि होती है। आत्मा को प्रकृति, देह, मन, इन्द्रियों से भिन्न होने का ज्ञान प्राप्त हो जाता है और इस प्रकार भी मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
समाधि के भेद –
योग-दर्शन में समाधि दो प्रकार की मानी गयी है । (1) सम्प्रज्ञात समाथि, (2) असम्प्रज्ञात समाधि। सम्प्रज्ञात समाधि उस समाधि को कहते हैं जिसमें ध्येय विश्व का स्पष्ट ज्ञान रहता हो। सम्प्रज्ञात समाधि को सबीज समाधि भी कहा जाता है। इसका कारण यह है कि इस समाधि में चित एक वस्तु पर केन्द्रित रहता है जिसके साथ उसकी तादात्म्यता रहती है। चूँकि समाधि के ध्येय विषय की निरन्तर भिन्नता रहती है इसलिये इस भिन्नता के आधार पर चार प्रकार की सम्प्रजात समाधि की व्याख्या हुई है –
(1) सवितर्क समाधि– यह समाधि का वह रूप है जिसमें स्थूल विषय पर ध्यान लगाया जाता है। इस समाधि का उदाहरण मूर्ति पर ध्यान जमाना कहा जा सकता है।
(2) सविचार समाधि- यह समाधि का वह रूप है जिसमें सूक्ष्म विषय पर ध्यान लगाया जाता है। कभी-कभी तन्मात्रा भी ध्यान का विषय होती है ।
(3) सानन्द समाधि- इस समाधि में ध्यान का विषय इन्द्रियॉं रहती हैं। हमारी इन्द्रियॉं ग्यारह है – पांच ज्ञानेन्द्रियॉ, पाँच कर्मेन्द्रियॉं और मन । इन्हीं पर ध्यान लगाया जाता है। इन्द्रियों की अनुभूति आनन्ददायक होने के कारण इस समाधि को सानन्द समाधि कहा जाता है ।
(4) सस्मित समाधि- समाधि की इस अवस्था में ध्यान का विषय अहंकार है। अहंकार को ‘अस्मिता‘ कहा जाता है।
समाधि का दूसरा रूप असम्प्रज्ञात कहा जाता है। असम्प्रज्ञात समाधि में ध्यान का विषय ही लुप्त हो जाता है। इस अवस्था में आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को पहचान लेती है। इस अवस्था की प्राप्ति के साथ-ही-साथ सभी प्रकार की चित्तवृतियों का निरोध हो जाता है। आत्मा का सम्पर्क विभित्र विषयों से छूट जाता है। इस समाधि में ध्यान की चेतना का पूर्णतः अभाव रहता है। इसीलिये इस सम्माधि का निर्बीज समाधि कहा जाता है और यही आत्मा के मोक्ष की अवस्था है।
यौगिक शक्तियाँ-
योग-दर्शन में योगाभ्यास के फलस्वरूप योगियों में असाधारण एवं अनुपम शक्तियों के विकास की चर्चा हुई है। योगी अणु के समान छोटा या अदृश्य बन सकता है। वह रूई से भी हल्का होकर उड सकता है। यह पहाड़ के समान बड़ा बन सकता है। योगी जो कुछ भी चाहे मंगा सकता है। यह सभी जीवों को वशीभूत कर सकता है। वह सभी भौतिक पदार्थ पर अधिकार जमा सकता है। वह नाना प्रकार के मायावी खेल रच सकता है। योगी अन्य शरीर में प्रवेश कर सकता है। परन्तु योग दर्शन में योग का प्रयोग इन ऐश्वयों के लोभ में पड़कर करने का निषेध हआ है। योगी का अन्तिम लक्ष्य आत्म दर्शन ही होना चाहिए। मोक्ष की प्राप्ति के लिए ही योगाभ्यास आवश्यक है।
ईश्वर का स्वरूप (The Nature of God) –
योग-दर्शन सांख्य के तत्त्व-शास्त्र को अपनाकर उसमें ईश्वर का विचार जोड़ देता है। योग-दर्शन को सेश्वर-सांख्य कहा जाता है और सांख्य-दर्शन को निरीश्वर-सांख्य कहा जाता है। योग दर्शन ईश्वर की सत्ता को मानकर ईश्वरवादी दर्शन कहलाने का दावा करता है।
योग-दर्शन में मूलतः ईश्वर का व्यावहारिक महत्त्व है। योग-दर्शन का मुख्य उद्देश्य चित्तवृत्तियों का निरोध है जिसकी प्राप्ति ’ईश्वर प्रणिधान’ से ही सम्भव मानी गई है। ईश्वर-प्रणिधान का अर्थ है ईश्वर की भक्ति। यही कारण है कि योग-दर्शन में ईश्वर को ध्यान का सर्वश्रेष्ठ विषय माना गया है।
यद्यपि योग-दर्शन में ईश्वर का व्यावहारिक महत्त्व है फिर भी इससे यह निष्कर्ष निकालना कि योग-दर्शन में ईश्वर के सैद्धान्तिक पक्ष की अवहेलना की गई है, सर्वथा अनुचित होगा। इसका कारण यह है कि योग-दर्शन में ईश्वर के स्वरुप की व्याख्या सैद्धान्तिक दृष्टि से की गयी है तथा ईश्वर को प्रमाणित करने के लिए तर्कों का प्रयोग हुआ है।
पतञ्जलि ने स्वयं ईश्वर को एक विशेष प्रकार का पुरुष कहा है जो दुःख कर्म विपाक से अछूता रहता है। ईश्वर स्वभावतः पूर्ण और अनंत है। उसकी शक्ति सीमित नहीं है। ईश्वर नित्य है और यह अनादि और अनन्त है। वह सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ है। वह त्रिगुणातीत है। ईश्वर जीवों से भिन्न है। जीव में अविद्या, राग, द्वेष आदि का निवास है; परन्तु ईश्वर इन सबों से रहित है। जीव कर्म-नियम के अधीन है जबकि ईश्वर कर्म-नियम से स्वतंत है। ईश्वर मुक्तात्मा से भी भिन्न है। मुक्तात्मा पहले बंधन में रहते हैं, फिर बाद में चलकर मुक्त हो जाते हैं। इसके विपरीत ईश्वर नित्य मुक्त है।
ईश्वर एक है और यदि ईश्वर को अनेक माना जाय तब दो ही सम्भावनायें हो सकती हैं। पहली सम्भावना यह हो सकती है कि अनेक ईश्वर एक दूसरे को सीमित करते हैं जिसके फलस्वरुप ईश्वर का विचार खंडित हो जाता ह। यदि ईश्वर को अनेक माना जाय तो दूसरी सम्भावना यह हो सकती है कि जो ईश्वर एक से अधिक हैं वे अनावश्यक होंगे जिसके फलस्वरुप अनीश्वरवाद का प्रादुर्भाव होगा। अतः योग को एकेश्वरवादी दर्शन कहा जाता है।
योग-दर्शन में ईश्वर को विश्व का सृष्टि-कर्ता, पालनकर्ता और संहार-कर्ता नहीं माना गया है। विश्व की सृष्टि प्रकृति के विकास के फलस्वरुप ही हुई है। यद्यपि ईश्वर विश्व का स्रष्टा नहीं है, फिर भी वह विश्व को सृष्टि में सहायक होता है। विश्व की सृष्टि पुरुष और प्रकृति के संयोजन से ही आरम्भ होती है। पुरुष और प्रकृति दोनों एक दूसरे से भिन्न एवं विरुद्ध-कोटि के हैं। दोनों को संयुक्त कराने के लिये ही योग-दर्शन में ईश्वर की मीमांसा हुई है। अतः ईश्वर विश्व का निमित्त कारण है जबकि प्रकृति विश्व का उपादान कारण है। इस बात को विज्ञानभिक्षु और वाचस्पति मिश्र ने प्रामाणिकता दी है।
योग-दर्शन में ईश्वर को दयालु, अन्तर्यामी, वेदों का प्रणेता, धर्म, ज्ञान और ऐश्वर्य का स्वामी माना गया है। ईश्वर को ऋषियों का गुरु माना गया है। योग-मार्ग में जो रुकावटें आती हैं उन्हे ईश्वर दूर करता है। जो ईश्वर की भक्ति करते है उन्हे ईश्वर सहायता प्रदान करता है। ‘ओऽम‘ ईश्वर का प्रतीक है।
ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण (Proofs of the existence of God) –
योग-दर्शन में ईश्वर को सिद्ध करने के लिये निम्नलिखित तर्कों का प्रयोग हुआ है –
(1) वेद एक प्रामाणिक ग्रन्थ है। वेद में जो कुछ भी कहा गया है वह पूर्णतः सत्य है। वेद में ईश्वर का वर्णन है। वेद के अतिरिक्त उपनिषद् और अन्य शास्त्रों में भी ईश्वर के अस्तित्व को माना गया है। इससे प्रमाणित होता है कि ईश्वर की सत्ता है। इस प्रकार शब्द-प्रमाण से ईश्वर का अस्तित्व प्रमाणित किया गया है।
(2) ईश्वर को प्रमाणित करने के लिये अविच्छिन्नता का नियम (Law of Continuity) का सहारा लिया जाता है। साधारणतः परिमाण में बड़ी और छोटी मात्राओं का भेद किया जाता है। अणु परिमाण का सबसे छोटा अंश है और आकाश का परिमाण सबसे बड़ा होता है। जो नियम परिमाण के क्षेत्र में लागू होता है वही नियम ज्ञान के क्षेत्र में लागू होना चाहिए। ईश्वर के अन्दर ज्ञान की सबसे बड़ी मात्रा होनी चाहिये। इससे प्रमाणित होता है कि ईश्वर की सत्ता है।
(3) पुरुष और प्रकृति के संयोग से सृष्टि होती है और उनके वियोग से प्रलय होता है। पुरुष और प्रकृति एक दूसरे से भिन्न एवं विरुद्ध कोटि के तत्त्व हैं। अतः उनके संयोग और वियोग अपने-आप नहीं हो सकता। इसके लिये एक असीम बुद्धि वाले व्यक्ति की आवश्यकता है और वही ईश्वर है।
(4) ईश्वर का अस्तित्व इसलिये भी आवश्यक है कि वह योगाभ्यास में सहायक है। ईश्वर प्रणिधान समाधि का साधन है। यों तो ध्यान या समाधि का विषय कुछ भी हो सकता है किन्तु यदि उसका विषय ईश्वर है तो ध्यान के विचलित होने का भय नहीं रहता। ईश्वर की ओर एकाग्रता के फलस्वरुप योग का मार्ग सुगम हो जाता है। अतः ईश्वर का अस्तित्व आवश्यक है।
उपसंहार (Conclusion)-
योग-दर्शन की अनमोल देन योग के अष्टांग मार्ग को कहा जाता है। यों तो भारत का प्रत्येक दर्शन किसी-न-किसी रुप में समाधि की आवश्यकता पर बल देता है। परन्तु योग-दर्शन में समाधि को एक अनुशासन के रुप में चित्रित किया गया है। कुछ लोग योग का अर्थ जादू टोना समझकर योग-दर्शन के कटु आलोचक बन जाते हैं। योग-दर्शन में योगाभ्यास की व्याख्या मोक्ष को अपनाने के उद्देश्य से ही की है। योग का प्रयोग अनुपम और असाधारण शक्ति के रुप में करना वर्जित बतलाया गया है। योग के कारण योगी एक ही क्षण अनेक स्थानों को दिखा सकते हैं, नाना प्रकार का खेल रच सकते हैं, भिन्न-भिन्न शरीरों में प्रवेश कर सकते हैं। योग-दर्शन में इस बात पर जोर दिया गया है कि किसी भी व्यक्ति को इन शक्तियों को अपनाने के लिए योगाभ्यास नहीं करना चाहिये। ईश्वर को मानकर भी योग-दर्शन ने साँख्य की कठिनाईयों को अपने दर्शन में नहीं आने दिया है। ईश्वर के अभाव में साँख्य पुरुष और प्रकृति के सम्बन्ध की व्याख्या करने में हजार प्रयत्नों के बावजूद असफल रहता है। साँख्य सृष्टि के आरम्भ की व्याख्या करने में पूर्णतः असफल प्रतीत होता है। ईश्वर को न मानने के कारण उसकी अवस्था दयनीय प्रतीत होती है। परन्तु योग ईश्वर को मानकर प्रकृति की साम्यावस्था को भंग करने में पूर्णतः सफल हो पाता है। इस दृष्टि से योग दर्शन सांख्य दर्शन का अग्रगामी कहा जा सकता है। इस महता के बावजूद योग-दर्शन का ईश्वर विचार असंतोषजनक प्रतीत होता है। योग का ईश्वर कर्म-नियम का अध्यक्ष नहीं है। वह पुरुषों को दंड या पुरस्कार नहीं देता है। वह तो केवल समाधि योग का विषय है। योग का ईश्वर जीवन का लक्ष्य नहीं है। योग दर्शन में ईश्वर का स्थान गौण दिखता है। मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए योग की सार्थकता को आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी स्वीकार करता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची –
योग-सूत्र, 9. 28
योग-भाष्य, 1. 24
हरिहरानन्द आरण्य : पातंजल्य योग-दर्शन
बी0 एन0 दासगुप्ता : योगा एज फिलासफी एण्ड रिलिजन
मैक्समूलर : सिक्स सिस्टम ऑफ इण्डियन फिलासफी
रामनाथ शर्मा : भारतीय दर्शन के मूल तत्व
एस0 राधाकृष्णन : इण्डियन फिलासफी : खण्ड 1 व 2