मुगलकालीन शासकों में अकबर ने सभी क्षेत्रों में इस प्रकार की नीति अपनाई जिससे न केवल मुगल वंश की नींव को सुदृढता प्रदान हो सके बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष का विकास हो सके। उसके शासनकाल में जहॉ एक तरफ उदार धार्मिक नीति के परिणामस्वरुप जनता के सभी वर्गो का सहयोग मिला वही राजनीतिक दृष्टि से उसने पहली बार स्पष्ट राजपूत नीति अपनाते हुए राजपूतों से सदियों पुराना चल रहे संघर्ष को समाप्त करके उनकी शक्ति तथा बुद्धि का सदुपयोग किया। यह अकबर की महान सफलता थी। इसी प्रकार उसकी दक्षिण नीति भी उसके राजनीतिक कार्यो में विशेष महत्व रखती है। सांस्कृतिक दृष्टि से इस काल में अपार उन्नति हुई जिसका सारा श्रेय निश्चित रुप से स्वयं सम्राट अकबर को जाता है। यहॉ तक कि चित्रकला को अपनाने में जो इस्लामी कट्टर रुढिवादिता बाधा बनती थी, उसे अकबर ने नकार दिया और उसे धार्मिक करार दिया। इसी प्रकार उसके शासनकाल में स्थापत्यकला का विकास हुआ तथा अनेक पुस्तक लिखि व अनुवादित की गई। इस प्रकार अकबर ने जो नीति अपनाई और जो कार्य किये उसके परिणामस्वरुप उसे बहुसंख्यक जनता का भरपूर सहयोग मिला। निश्चित रुप से उसकी सफलता का सारा श्रेय उसकी उदार और सहिष्णु धार्मिक नीति को जाता है।
अकबर के सिंहासन पर बैठते ही मुगलों की धार्मिक नीति में एक नए युग का आगमन होता है। वह बहुत ही उदार तथा व्यापक दृष्टिकोण वाला शासक था। व्यक्तिगत रुप से वह अपने धर्म का पक्का अनुयायी था परन्तु उसमें धार्मिक संकीर्णता बिल्कुल भी नही थी। अकबर ने इस बात को भलि-भॉति समझ लिया कि बहुसंख्यक हिन्दूओं की सद्भावना और सहयोग के बिना साम्राज्य में स्थायित्व, शान्ति और स्थिरता कायम नही रह सकती। अकबर ने जिस धार्मिक नीति का अनुसरण किया उसे कुल मिलाकर ‘सुलह-ए-कुल‘ की नीति कहा जाता है।
अकबर की धार्मिक नीति को प्रभावित करने वाले तत्व –
- अकबर की धार्मिक उदारता और सुलह-ए-कुल की नीति को निर्मित करने में अनेक तथ्यों और परिस्थितीयों ने योगदान दिया –
- अकबर के पिता हुमायूॅ ने धार्मिक असहिष्णुता का कोई माहौल नही बनाया था।
- अकबर का जन्म एक हिन्दू राजपूत के घर हुआ और वहॉ जन्म से ही उसका पालन-पोषण एक मिला-जुला माहौल में हुआ।
- अकबर की माता हमीदा बानो बेगम तथा उसके संरक्षक बैरम खॉ शिया थे। अकबर का प्रमुख शिक्षक अब्दुल लतीफ धार्मिक दृष्टि से बहुत ही उदार व्यक्ति था। इस प्रकार अकबर को अपने माता-पिता और गुरु से उदारता की सीख मिली।
- भारत और युरोप में 16वीं शताब्दी धर्मसुधार और सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन का युग था।
- अकबर की स्वाभाविक उदारता, जिज्ञासु प्रवृति और मानवीयता ने भी उसकी धार्मिक नीति को अवश्य प्रभावित किया।
धार्मिक नीति के विकास के चरण-
अकबर की धार्मिक नीति के निर्माण में योग देने वाले उक्त तथ्यों एवं परिस्थितियों के अलावा अपने शासन के समय-समय के अनुभवों के साथ भी अकबर की धार्मिक नीति का विकास होता रहा। मुख्य रुप से अकबर की धार्मिक नीति के विकास को हम दो चरणों में विभक्त कर सकते है –
- प्रारंभिक अवस्था में अकबर ने इस्लाम के सच्चे अनुयायी के रुप में आचरण किया। इस अवधि में वह नियमित नमाज पढता था, धार्मिक नेताओं के प्रति श्रद्धा भाव रखता था और इस्लामी नियमों का पालन करता था। उल्लेखनीय है कि इस अवधि में भी अकबर के अन्दर धार्मिक कट्टरता नही थी। इसी अवधि में अकबर को धर्म के क्षेत्र में कुछ अनुभव भी हुये और उसे एक तरह से धर्मगुरुओं के निजी आचरण व असहिष्णुता से विमुखता हुई।इस अवधि में उसने 1562 ई0 में आमेर के राजा भारमल की पुत्री से विवाह किया और यह विवाह दोनो पक्षों की राजी-खुशी से हुआ। यही से राजपूतों के प्रति मैत्री नीति का आरंभ हुआ। आगे चलकर उसने अन्य राजपूत राजकुमारियों से विवाह कर इस सम्बन्ध को और मजबूत किया। शासन के आरंभिक वर्ष में ही उसने हिन्दूओं से लिया जाने वाला धार्मिक कर जजिया को समाप्त कर लगभग 350 वर्षो से चले आ रहे इस धृणित कार्य का अन्त किया। सेना और प्रशासन में उच्च पदों पर हिन्दूओं की नियुक्ति कर उसने हिन्दूओं का दिल जीत लिया। राजा टोडरमल, बीरबल, मानसिंह, भगवानदास आदि इसके ज्वलन्त उदाहरण है। अपने साम्राज्य में अकबर ने सभी धर्मावलम्बियों को अपना धर्म, पूजा-पाठ और धर्मस्थल बनाने की पूरी स्वतंत्रता दी। उसने बलात धर्म परिवर्तन पर रोक लगा दिया और प्रमुख हिन्दू ग्रन्थों का अनुवाद फारसी में करवाया। उसने अपने दरबार में कई हिन्दू तथा पारसी त्योहारों को अपनाया। झरोखा दर्शन और तुलादान जैसी प्रथाएॅ दरबार में शुरु किया गया और होली, दिवाली, वसंतोत्सव, कृष्णजन्माष्टमी जैसे पर्व दरबार में मनाया जाने लगा। सत्य की खोज के प्रयास में उसने 1575 ई0 में फतेहपुर सीकरी में एक इबादतखाना की स्थापना की जिसमें प्रति वृहस्पतिवार को संध्या के समय नियमित रुप से धार्मिक विचार-विमर्श हुआ करता था। 1578 ई0 में उसने इबादतखाना के दरवाजे सभी के लिए खोल दिये और प्रोफसर राय चौधरी के शब्दों में ‘इबादतखाना‘ अब ‘सर्व धर्म संसद ‘बन गया। इन परिचर्चाओं ने भी उसके धार्मिक विचार को प्रभावित किया और उसने महसूस किया कि सत्य धार्मिक लोगों की तू-तू मै-मै से कही बाहर है। उसने स्वयं सूर्य की तरफ मुॅह करके बैठना, गाय मांस का सेवन करना बन्द कर दिया ये सारी बाते अकबर की सहिष्णुता और उसके समन्वित व्यक्तित्व की प्रतीक है।
- अकबर की धार्मिक नीति के विकास का दूसरा चरण यही से प्रारंभ होता है जो अत्यन्त महत्वपूर्ण था। इस काल में अकबर ने धर्म के विचारों को सुदृढ करने के लिए विभिन्न धर्मो के धर्मानुयायियों को आमंत्रित किया और विचार विमर्श किये। उसने अपने इबादतखाने का दरवाजा सभी धर्मो के लिए खोल दिये थे। तत्पश्चात 22 जून 1579 ई0 को फतेहपुर सीकरी की प्रमुख मस्जिद की वेदी पर चढकर उसने स्वयं कवि फैजी द्वारा रचित ‘खुतबा‘ पढा और खुतबा के अन्तिम शब्द थे – ‘अल्ला-हू-अकबर‘ अर्थात अल्ला ही सबसे बडा और महान है। सितम्बर 1579 में अकबर के कहने पर शेख मुबारक ने ‘मजहर‘ की घोषणा की जिसके अनुसार सारे देश में इस्लाम सम्बन्धी विवादों में अकबर को पंच-फैसले का अधिकार दिया गया। एक प्रकार से मजहर की घोषणा द्वारा राजनीतिक क्षेत्र के साथ-साथ धार्मिक जगत में भी वह सर्वश्रेष्ठ बन गया। यहॉ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि इस प्रपत्र द्वारा अकबर को इस्लामी कानून की व्याख्या का अधिकार मिला था, कानून बनाने का नही।इस प्रपत्र द्वारा अकबर को यह अधिकार प्राप्त हो गया कि वह मुस्लिम धर्माधिकारियों के विरोधी मतों में से किसी एक को स्वीकार करे तथा मतभेद विहिन मामलों पर किसी भी नीति को निर्धारित करे, वशर्ते की वह कुरानविहित हो। इस प्रकार अकबर ने स्वयं वह अधिकार प्राप्त कर लिया जो अबतक उलेमाओं के माने जाते थे। जैसा कि इस सन्दर्भ में इतिहासकार वी0 ए0 स्मिथ और सर वूल्जले हेग ने कहा है कि – ‘‘अकबर पोप भी बन गया और राजा भी।‘‘धार्मिक नीति के विकास के द्वितीय चरण में अकबर ने अपनी धार्मिक जिज्ञासाओं को शान्त करने के लिए विभिन्न धर्मो के धर्मानुयायियों को बुलाकर उनसे विचार विमर्श किये। सबसे पहले उसने सुन्नी धर्मगुरुओं को बुलाया तत्पश्चात शिया धर्मगुरुओं को बुलवाया, फिर बौद्ध, जैन, पारसी व अन्य धर्मो के धर्मगुरुओं को आमंत्रित कर उनसे विचार-विमर्श किया।सुन्नी मत के मुल्ला अब्दुल्ला और प्रमुख सदर शेख अब्दुल नबी ने इस विचार विमर्श में भाग लिया लेकिन वे दूसरे की नीतियों के खिलाफ हमला भी कर डाला। गिलान के श्रेष्ठ विद्वान हकीम अब्दुल फतेह और मुल्ला मुहम्मद याजदी ने शिया मत का प्रतिनिधित्व करते हुए अकबर को काफी प्रभावित भी किया। सूफी संन्त शेख फैजी और मिर्जा सुलेमान ने अकबर को सूफी सिद्धान्तो विशेषकर ‘ईश्वर से साक्षात्कार करना‘ से परिचित कराया। विभिन्न धर्मो के तुलनात्मक अध्ययन के लिए अकबर ने गोवा से पुर्तगाली मिशनरियों को बुलाया। पहला ईसाई मिशनरी 1580 ई0 में, दूसरा ईसाई मिशनरी 1591 ई0 में और तीसरा ईसाई मिशनरी 1595 ई0 में अकबर से मिला और अपने धर्म के सिद्धान्तों से सम्राट को अवगत कराया। ईसाई धर्म की अपेक्षा जैन धर्म ने अकबर को अधिक प्रभावित किया। 1582 ई0 में गुजरात के महान जैन आचार्य हीरविजय सूरी मुगल दरबार में आये और दो वर्ष तक वह राज दरबार में रहे। अकबर ने इन्हे ‘जगतगुरु‘ की उपाधि प्रदान की और अबुल फजल ने इन्हे उन 21 विद्वानों की सूची में शामिल किया जिसके बारे में कहा जाता था कि वे ‘दोनो लोको का रहस्य जानते है।‘‘ 1591 ई0 में अकबर ने जैनाचार्य जिनचन्द्र सूरी की विद्वता और साधु स्वभाव की महिमा सुनकर अपने राजदरबार में आमंत्रित किया। अकबर ने प्रसन्न होकर इन्हे ‘युग-प्रधान‘ की उपाधि प्रदान की और उन्हे 200 बीघा जमीन प्रदान किया गया। अकबर को पारसी धर्म जैन धर्म से अधिक पसन्द आया। 1573 ई0 में सूरत में उसने महान पारसी पुरोहित नवसारी के दस्तूरजी मेहरजी से भेंट की थी और 1578 ई0 में सम्राट ने इन्हे दरबार में निमंत्रित किया। पारसी धर्म से प्रभावित होकर ही सूर्य उपासना का प्रारंभ और राजमहल में पवित्र अग्नि प्रज्जवलित की गई और अबुल फजल की देखरेख में यह बराबर जलती रही।अकबर को जिस धर्म ने सबसे अधिक प्रभावित किया वह हिन्दू धर्म था। हिन्दू धर्म सिद्धान्तों और नियमों का परिचय प्राप्त करने के लिए अकबर ने प्रसिद्ध विद्वान देवी और पुरुषोत्तम को आमंत्रित किया। इन विद्वानों के साथ विचार-विमर्श के बाद अकबर हिन्दू धर्म से बहुत प्रभावित हुआ। पुनर्जन्म और कर्मवाद का सिद्धान्त, तिलक लगाना, सगे सम्बन्धियों की मृत्यु पर मुण्डन कराना और अन्य संस्कारों को अकबर ने प्रभावित होकर अपना भी लिया।इस प्रकार सभी धर्मो की समीक्षा और विभिन्न धर्मगुरुओं के साथ विचारोपरान्त वह इस निष्कर्ष पर पहुॅचा कि सभी अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ कहते है परन्तु तर्क को आधार बनाकर कोई भी ज्यादा देर तक बहस नही कर सकता है। उनके बातों के केवल विश्वास और अंधविश्वास ही है। वह इस निष्कर्ष पर पहुॅचा कि सभी धर्म में कुछ न कुछ अच्छाईयॉ है और यदि उनमें से बाहरी अंधविश्वास और आडम्बर हटा दिये जाय तो सबका मूल एक हो जाता है। अतः अकबर ने सभी धर्मो की अच्छाईयों को मिलाकर जीवन के कुछ सिद्धान्त निश्चित किये जो इतिहास में ‘दीन-ए-इलाही‘‘ के नाम से जाने जाते है।
दीन-ए-इलाही, 1582 ई0 –
अकबर के शासनकाल की सबसे चर्चित घटना 1582 ई0 में ‘दीन-ए-इलाही‘ की स्थापना है। इसे ‘तौहिद-ए-इलाही‘ के नाम से भी जाना जाता है। कुछ इतिहासकार इसे धर्म के रुप में स्वीकार करते है जबकि कुछ इतिहासकार इसे धर्म के रुप में स्वीकार नही करते है। वस्तुतः यह कोई नया धर्म नही था बल्कि यह एक सामाजिक-धार्मिक भातृ सम्प्रदाय था जिसका मुख्य उद्देश्य विभिन्न धर्मो और लोगों को एक दूसरे के करीब लाना था। निम्न कारणों से इसे धर्म के रुप में स्वीकार नही किया जा सकता है –
- इसके लिए कोई प्रचार-प्रसार की कोई व्यवस्था नही की गई थी।
- इसका कोई सर्वमान्य और निश्चित ग्रन्थ भी नही था जिसमें इसके सिद्धान्तों का वर्णन किया गया हो।
- इसके अनुयायियों की संख्या बहुत कम थी। प्रतिष्ठित व्यक्तियों की संख्या 20 से भी कम और साधारण सदस्यों की संख्या हजार से भी कम थी।
- इसको मानने के लिए किसी को बाध्य नही किया गया।
- इसका कोई मदिर या उपासना स्थल और कोई पुरोहित-पुजारी नही था।
सम्राट अकबर ने इस संघ को केवल इस उद्देश्य से स्थापित किया था कि लोगों के सामने सदाचार, सदाचरण, संयम तथा सहिष्णुता का आदर्श स्थापित हो और उन्हे इसका अनुकरण करने की प्रेरणा मिल सके। स्वयं सम्राट अकबर इसका प्रमुख गुरु बना और अबुल फजल को इसका प्रधान पुरोहित बनाया गया। दीन-ए-इलाही को मानने वाले में एकमात्र हिन्दू बीरबल थे। अकबर की मृत्यु के साथ ही इसका अस्तित्व समाप्त हो गया।
दीन-ए-इलाही के प्रमुख सिद्धान्त –
‘दीन-ए-इलाही’ पुस्तक के लेखक प्रोफेसर राय चौधरी के अनुसार इस सम्प्रदाय के सदस्यों के निम्न सिद्धान्तों का पालन करना अनिवार्य था –
- एकेश्वरवाद में विश्वास।
- श्रेष्ठ और अदुभूत कार्य करने की इच्छा रखना।
- आपस में अभिवादन के लिए ‘अल्ला-हू-अकबर‘ और ‘जल्ले-जलालेहू‘ शब्द का प्रयोग।
- सबके साथ अच्छा व्यवहार करना और उनकी इच्छा को अपनी इच्छा के उपर रखना।
- सबके साथ विनम्रता के साथ बात करना और मधुर भाषा का प्रयोग करना।
- अपने किये हुए कार्यो पर विचार और मनन करना तथा भक्ति और ज्ञान की अभिवृद्धि करना।
- जीवन में उदारता और दानशीलता का अनुशीलन करना।
- जहॉ तक संभव हो मांस का प्रयोग न करे।
- मृत्यु के बाद दिये जाने वाले श्राद्ध भोज को अपने जीवन काल में ही देना।
- अपने जन्म दिवस पर दान करना।
- सांसारिक इच्छाओं का परित्याग।
- कम आयु की लडकियों और वृद्ध स्त्री से विवाह का निषेध।
अकबर की धार्मिक नीति की समीक्षा –
उपरोक्त विवरणों से यह तो स्पष्ट है कि यह कोई नवीन धर्म नही था। इसके माध्यम से व्यक्तिगत जीवन की पवित्रता और जीवन व्यवहार के प्रति पवित्र दृष्टिकोण पर काफी जोर दिया गया था। एकेश्वरवाद और सुलह-ए-कुल सब के साथ शान्ति और मैत्री इसके मूल मंत्र थे। समकालीन इतिहासकारों में अब्दुल कादिर बदायूनी ने दीन-ए-इलाही और अकबर के धार्मिक विचारों की तीखी आलोचना की है। बार्तोली ने इसे अकबर की धूर्तता तथा स्मिथ ने इसे अकबर की मूर्खता का उदाहरण बताया है। परन्तु यदि इसकी निष्पक्ष विवेचना की जाय तो हम यह कह सकते है कि यह प्रयास अकबर की मूर्खता का नही अपितु उसके समन्वित व्यक्तित्व और आदर्शवाद का प्रतीक तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता का सफल प्रयास था।
दीन-ए-इलाही के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण प्रश्न उसकी सफलता या असफलता का नही है बल्कि महत्वपूर्ण बात यह है कि इस प्रयास के पीछे निहित विचार या भावना क्या था। उसने धार्मिक कट्टरता के बजाय प्रजा की सुख समृद्धि पर अधिक ध्यान दिया। अकबर की धार्मिक नीति की सफलता इसमें थी कि उसने हिन्दू और मुस्लिम जनता को नजदीक लाने में कामयाबी पाई। एक प्रकार से भारतीय जनता ने उसकी धार्मिक नीति को हृदय से स्वीकार किया, हॉ इस्लाम के एक वर्ग विशेष ने अकबर की आलोचना अवश्य की। परन्तु भारत की बहुसंख्यक हिन्दू जनता और पारसी, जैन आदि अकबर की इस नीति का समर्थन किया और वे सभी अकबर और मुगल साम्राज्य के प्रति वफादार हो गये। धार्मिक नीति के फलस्वरुप ही उसकी राजपूत नीति भी सफल हो सकी। मुगल साम्राज्य के विस्तार और स्थायित्व में अकबर की इस धार्मिक नीति ने बहुत सहयोग दिया और राज्य को कट्टर मुल्ला और उलेमाओं के प्रभाव व अत्याचार से मुक्त कर दिया। भारत में उसकी सफलता का मुख्य आधार अकबर की सफल उदार एवं सहिष्णु धार्मिक नीति को ही है।
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