window.location = "http://www.yoururl.com"; Akbar and Consolidation of Mughal Empire | अकबर और मुग़ल साम्राज्य का सुदृढ़ीकरण

Akbar and Consolidation of Mughal Empire | अकबर और मुग़ल साम्राज्य का सुदृढ़ीकरण


अकबर की साम्राज्य्वादी नीति :

बैरम खॉ को सत्ता से अलग करने के बाद लगभग दो वर्ष तक की अवधि में अकबर ने भारत में साम्राज्य विस्तार और भारत विजय की महत्वाकांक्षी योजना तैयार की थी। अबुल फजल के अनुसार अकबर की विजय नीति का उद्देश्य स्थानीय शासकों के निरंकुश शासन से पीडित जनता को सुरक्षा प्रदान करना था। लेकिन अकबर की प्रारंभिक विजयों का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उसकी विजय लालसा के पीछे राज्य विस्तार की भावना, धन-दौलत और सत्ता प्राप्त करने की उत्कृष्ट अभिलाषा ही थी। अकबर कहा करता था कि -‘‘एक राजा को विजय के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए नही तो पडोसी शासके उसके विरुद्ध शस्त्र उठाने की चेष्टा करते है।‘‘ हॉ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि अपने शासनकाल के उतरार्द्ध में वह प्राचीन हिन्दू आदर्शो से प्रेरित होकर सम्पूर्ण देश को राजनीतिक दृष्टि से एकसूत्र में बॉधने की ओर प्रयत्नशील हुआ था। इस प्रकार अकबर ने एक सोची-समझी योजना के अन्तर्गत साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाई और इसके कार्यान्वयन में सफल हुआ।

मालवा विजय, 1561 ई0

सत्ता पर आधिकारिक रुप से नियंत्रण स्थापित करने के बाद अकबर ने सर्वप्रथम मालवा विजय के लिए प्रस्थान किया। यहॉ का शासक बाजबहादुर था और वह संगीत का अत्यन्त प्रेमी थी। उसके दरबार में हमेशा नृत्य और गायन की महफिल लगी रहती थी और इन्ही में से एक उसकी प्रेयसी रुपमती भी थी जो अपने सौन्दर्य और कवित्व प्रतिभा के लिए प्रसिद्ध थी। प्रान्त का शासन उचित देखभाल के अभाव में कमजोर पड चुका था। माहम अनगा का बेटा आधम खॉ के नेतृत्व में मुगल सेना ने मालवा की राजधानी सारंगपुर के लिए प्रस्थान किया और 29 मार्च 1561 ई0 को दोनो सेनाओं का आमना-सामना सारंगपुर से तीन मील दूरी पर हुआ। इस युद्ध में बाजबहादुर पराजित होकर मैदान से भाग खडा हुआ। बाजबहादुर की सम्पूर्ण सम्पति और उसकी प्रेयसी रुपमती भी आधम खॉ के नियंत्रण में हो गयी। आधम खॉ से अपने सतीत्व की रक्षा करने के लिए रुपमती ने विष खाकर अपनी जान दे दी। इसके बाद मालवा की जनता पर आधम खॉ और पीर मुहम्मद ने खुलकर अत्याचार किये जिसे सुनकर अकबर ने आधमखॉ को दण्ड देने के लिए मालवा की ओर प्रस्थान किया। लेकिन अन्ततः आधम खॉ के माफी मॉगने और माहम अनगा द्वारा अपने बेटे के लिए क्षमा मॉगने पर अकबर ने उसे क्षमा कर दिया और आधम खॉ को ही मालवा का गवर्नर बनाकर अकबर आगरा वापस लौट आया।
कुछ समय पश्चात पीर मुहम्मद को मालवा का मुगल गवर्नर बनाया गया। इसने भी आधम खॉ की ही तरह मालवा की जनता पर बडे अत्याचार किये। उधर बाज बहादुर ने अपनी शक्ति को संगठित कर पुनः मालवा प्राप्त करने के लिए पीर मुहम्मद पर आक्रमण कर दिया। इस बार पीर मुहम्मद पराजित हुआ और नदी में डुबने से उसकी मौत हो गयी। इस प्रकार बाजबहादुर ने अपना प्रान्त पुनः प्राप्त करने में सफलता अर्जित की किन्तु उसकी यह सफलता स्थायी सिद्ध नही हुई क्योंकि अबदुल्ला खॉ उजबेग के नेतृत्व में अकबर ने मुगल सेना भेजी और इस सेना ने बाजबहादुर को मालवा से निकाल बाहर करते हुए मालवा पर पुनः अधिकार कर लिया। अन्ततः बाजबहादुर ने अकबर के राज्यकाल के पन्द्रहवें वर्ष में उसकी अधीनता स्वीकार करने में ही भलाई समझी।

जयपुर के साथ सन्धि, 1562 ई0

जनवरी 1562 ई0 में अकबर ने पहली बार अजमेर में शेख मुईनुद्दीन चिश्ती के दरगाह की यात्रा की। इस दौरान रास्ते में आमेर के कछवाहा राजा भारमल से उसने मुलाकात की और विचार विमर्श के पश्चात राजा भारमल पहला राजपूत राजा बना जिसने अकबर की अधीनता को स्वीकार किया। राजा भारमल ने अपनी बेटी का विवाह सम्राट अकबर से करने की स्वीकृति प्रदान की और यह विवाह आगरा वापस जाते समय सॉभर नामक स्थान पर जनवरी माह के अन्त में सम्पन्न हुआ। राजा भारमल की पुत्री का नाम हरखाबाई था जिसे जोधाबाई के नाम से भी जाना जाता है और विवाहोपरान्त उसे मरियम उज्जमानी के नाम से जाना गया। कालान्तर में इसी राजपूत राजकुमारी से जहॉगीर का जन्म हुआ। अकबर ने राजा भारमल के दत्तक पुत्र भगवानदास तथा उसके पोते मानसिंह को अपने यहॉ उच्च पदों पर नियुक्त किया। इस विवाह द्वारा दिल्ली और जयपुर के राजघरानों में पारस्परिक मैत्री सम्बन्ध और भी अधिक दृढ हो गये।

गोंडवाना विजय, 1564 ई0

गोडवाना मध्यप्रदेश का एक शक्तिशाली और समृद्ध राज्य था। 1548 ई0 में अपने पति दलपतशाह की मृत्यु के बाद राज्य की वास्तविक बागडोर रानी दुर्गावती के हाथों में आ गई थी। रानी दुर्गावती महोबा की एक चन्देल राजकुमारी थी और अपने पुत्र वीर नारायण की संरक्षिका का कार्य सम्पादन कर रही थी। रानी दुर्गावती अत्यन्त बहादुर और योग्य शासिका थी। अपनी विजय नीति का अनुसरण करते हुए अकबर ने अकारण ही गोंडवाना पर आक्रमण करने की योजना बनाई और आसफ खॉ के नेतृत्व में लगभग 50 हजार सैनिकों की टुकडी भेज दी। प्रारंभ में रानी दुर्गावती ने अकबर से संधि करने का प्रयास किया परन्तु विफल होने पर उसने भी युद्ध की तैयारियॉ प्रारंभ कर दी। मुगलों का वीरता पूर्वक सामना करते हुए नरही नामक स्थान पर दो दिनों तक भीषण संघर्ष हुआ जिसमें वीर नारायण घायल हो गया और अपनी माता के कहने पर उसे युद्धक्षेत्र से हट जाना पडा। वीरता पूर्वक लडती हुई रानी दुर्गावती को युद्धक्षेत्र में दो तीर लगे जिससे वह घायल हो गयी। अपने आपकों शत्रु द्वारा पकडे जाने तथा अपमानित होने की आशंका से रानी दुर्गावती ने स्वयं छुरा घोंपकर अपनी हत्या कर ली। इसके बाद वीर नारायण ने बहादुरी से मुगल सेना का सामना किया और अन्त में पराजित होकर मार डाला गया। राजमहल की समस्त स्त्रियों ने जौहर देकर अपने सतीत्व की रक्षा की। इस प्रकार गोडवाना पर मुगलों का अधिकार हो गया और आसफ खॉ को लूट का बहुत सा सामान हाथ लगा।

चित्तौड़ का घेरा, 1567-68 ई0

सितम्बर 1567 ई० में अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ को विजय करने का निश्चय कर लिया। मेवाड़ का राणा उदयसिंह मुगल सम्राट को एक ’म्लेच्छ विदेशी’ समझता था और आमेर के राजपूत राजा भारमल को, जिन्होंने अकबर बादशाह की केवल अधीनता ही स्वीकार नहीं कर ली थी बल्कि उसके साथ वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित किये थे, बडी अनादर की दृष्टि से देखता था। इसके अतिरिक्त राणा उदयसिंह ने मालवा के भूतपूर्व राजा बाजबहादुर को भी आश्रय दिया था। मेवाड़ दिल्ली से गुजरात जाने के मार्ग पर स्थित था और दिल्ली-अहमदाबाद के बीच का यातायात तब तक सुरक्षित नहीं रह सकता था जब तक चित्तौड़ पर बादशाह का अधिकार न हो जाय। किन्तु प्रस्तावित सैनिक-अभियान का सर्वप्रमुख कारण राजनीतिक ही था। मेवाड़ को, जो राजस्थान की प्रमुख रियासत थी और जिसके राजा को सम्पूर्ण भारतवर्ष के राजपूत राजे अपना सिरमौर मानते थे, अपने अधीन किये बिना अकबर उत्तरी भारतवर्ष पर अपनी सर्वोच्च सत्ता स्थापित नहीं कर सकता था। मेवाड़ का तत्कालीन शासक उदयसिंह, जिसकी इतिहासकार टॉड ने एक सुयोग्य पिता का अयोग्य पुत्र कहकर अवहेलना की है, परन्तु वास्वत में वह सैनिक गुण और विशेषताओं से एकदम शून्य नहीं था।
अकबर 23 अक्तूबर को चित्तौड दुर्ग के सम्मुख उपस्थित हुआ। दुर्ग पर घेरा डालने में एक महीना लगा और यह घेरा काफी समय तक पड़ा रहा। अन्त में अकबर ने बारूद की सुरंगें विछाने का निश्चय किया। संयोग से 23 फरवरी, 1568 ई० को अकबर ने दुर्ग की प्राचीरों पर खड़े हुए एक प्रमुख व्यक्ति पर, जो दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था तथा दीवारों में हुई दरारों की मरम्मत के लिए निर्देशन कर रहा, बन्दूक से निशाना मारा और उसे बुरी तरह घायल कर दिया। यह व्यक्ति और कोई नहीं जयमल ही था, जिसको राजपूत सरदार-सामन्तों ने दुर्ग की सुरक्षा का दायित्व सौंप रखा था। राजपूत सरदारों ने अकबर के दृढ़ निश्चय को जानकर घेरा डाले जाने के कुछ समय पश्चात राणा उदयसिंह को अरावली पहाड़ियों में सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। जयमल के बुरी तरह घायल हो जाने से सिसौदिया निराश हो चले और रात्रि में उनकी स्त्रियों ने जौहर- अग्नि प्रज्ज्वलित कर अपने को भस्म कर डाला। चिताओं से उठती हई अग्नि की लपटों को देखकर अकबर को विश्वास हो गया कि उसके निशाने से जयमल ही घायल हुआ है।
दूसरे दिन प्रातःकाल राजपूतों ने अपनी ओर से आक्रमण करने का निश्चय किया। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार आक्रमण का नेतृत्व करने के लिए बुरी तरह घायल होते हुए भी जयमल को ही घोड़े पर ले जाया गया। युद्धक्षेत्र में उसके चल बसने के उपरान्त सेना का नेतृत्व और संचालन का भार केलवा के नवयुवक सरदार फतेहसिंह पर आ पड़ा जिसे फत्ता के नाम से संबोधित किया जाता था। फत्ता ने केसरिया बाना पहन लिया और अपनी माँ और पत्नी को साथ लेकर आक्रमण का नेतृत्व करने लगा; किन्तु ये रण-बांकुरे राजपूत शत्रु-पक्ष की सैन्य संख्या के सम्मुख अधिक नहीं टिक सके और इनमें से प्रत्येक ने लड़ते-लड़ते अपनी मातृभूमि की रक्षार्थ अपने-अपने प्राणों की आहुति दे दी।
दूसरे दिन अकबर ने दुर्ग में प्रवेश किया और राजपूतों द्वारा इस कड़ाई से सामना करने से क्रोधित होकर उसने दुर्ग के अन्दर शेष व्यक्तियों के कत्लेआम की आज्ञा दे दी और, इस प्रकार लगभग तीस हजार राजपूत कत्ल किये गये। अकबर का यह अनावश्यक नृशंसतापूर्वक कृत्य उसके नेक नाम पर एक बड़ा धब्बा है। अपने इस अपराध का थोड़ा-बहुत प्रायश्चित उसने जयमल और फत्ता की अनुपम वीरता की स्मृति कायम रखते हुए आगरा के किले के दरवाजे पर हाथियों पर बैठे हुए इनकी प्रस्तर मूर्तियाँ स्थापित कराकर किया। 20 फरवरी को वह आसफखां को मेवाड़ का गवर्नर नियुक्त करने के पश्चात स्वयं आगरा लौट आया। मेवाड़ का अधिकांश भाग तो अभी राणा ही के अधिकार में था।

रणथम्भौर पर विजय, 1569 ई०

अपनी साम्राज्यवादी नीति के अन्तर्गत अप्रैल 1568 ई० में अकबर ने एक सेना रणथम्भौर को विजय करने के लिए भेज दी। रणथम्भौर का शासक राजा सुरजन राय मेवाड़ का अधीनस्थ था। किन्तु गन्तव्य स्थान तक पहुँचने के पूर्व ही सेना को वापस बुला लेना पड़ा क्योंकि मालवा पर विद्रोही मिर्जा ने आक्रमण कर दिया था। पुनः फरवरी 1569 ई० में रणथम्भौर के दुर्ग पर घेरा डाला गया और सुरंगें बिछा दी गयीं और बड़ी-बड़ी तोपें दुर्ग-द्वार के सामने स्थापित कर दी गयीं, जहाँ से भयंकर अग्निवर्षा होने लगी। यह घेरा लगभग डेढ़ महीने तक पड़ा रहा और दोनों ही पक्षों को धन-जन की अपार क्षति पहुंची। अन्ततः 18 मार्च, 1569 ई0 को दुर्ग पर मुगलों आधिपत्य हो गया।
रणथम्भौर का पतन किस प्रकार हुआ, इस सम्बन्धों में दो मत हैं । कर्नल टाड के अनुसार सुरजनराय ने ऐसा प्रबल प्रतिरोध किया कि अकबर को यह निश्चय करना पड़ा कि इस संघर्ष को और अधिक दिनों तक नहीं बढ़ाना चाहिए। इसलिए आमेर के भगवानदास सुरजनराय से भेंट करने गये और उनके साथ एक साथी के रूप में छद्मवेश धारण किये बादशाह अकबर भी था। राजपूतों ने अकबर को पहचान लियाअफलतः अकबर ने अपने आपको प्रकट कर दिया और सन्धि की बातचीत स्वयं करने लगा। यह वृतान्त इतिहासकार स्मिथ ने माना है। दूसरा मत इतिहासकार बदायूंनी का है जिसे वूल्जले हेग ने माना है। बदायूंनी के अनुसार सुरजनराय को जब यह बात स्पष्ट हो गयी कि जब चित्तौड़ जैसा सुदृढ़ दुर्ग मुगल आक्रमणों को अधिक समय तक बर्दाश्त नहीं कर सका तो यह असमान संघर्ष जारी रखने से भी कोई लाभ नहीं है इसलिए उसने अपने दोनों बेटों-दण्ड और भोज़ को अकबर की सेवा में भेज दिया। सुरजनराय चित्तौड़ के राणा का अधीनस्थ था, जिसकी राजधानी भी मुगलों के हाथ में चली गयी थी, इसलिए बदायूंनी का वृत्तान्त ही अधिक विश्वसनीय माना जा सकता है। सुरजनराय से सन्धि की उदार शर्ते नियत कर अकबर आगरा वापस लौट आया।

कालिंजर का पतन, 1569 ई०

चित्तौड़ और रणथम्भौर के दुर्गों के पतन द्वारा सम्राट अकबर की प्रतिष्ठा बहुत अधिक बढ़ गयी। उस समय उत्तरी भारतवर्ष में जो दूसरा अन्य दुर्ग अभेद्य समझा जाता था वह था कालिंजर का दुर्ग, जो वर्तमान उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित है। यह दुर्ग इस समय रीवा के राजा रामचन्द के अधिकार में था। अगस्त 1569 ई० में मजनूं खां काकशाह के नेतृत्व में मुगल सेना को उसके विरुद्ध रवाना कर दिया गया। रामचन्द, चित्तौड़ और रणथम्भौर के साथ जो कुछ हुआ था, उससे परिचित था; इसलिए उसने विशेष दृढ़ता से प्रतिरोध नहीं किया और शीघ्र ही आत्मसमर्पण कर दिया। राजा को इलाहाबाद के पास एक जागीर दे दी गयी और कालिंजर को मजनूं खां के अधिकार में रख दिया गया।

मारवाड़ पर आधिपत्य, 1570 ई०

नबम्बर 1570 ई० में अकबर ने नागौर की यात्रा की, जहां जोधपुर और बीकानेर के शासकों की ओर से उसकी अधीनता स्वीकार कर ली गयी। मालदेव का बेटा तथा जोधपुर का तत्कालीन राजा चन्द्रसेन अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ। बीकानेर के राय कल्याणमल और उसके बेटे रायसिंह ने भी सम्राट से भेंट की। जैसलमेर के रावल हरराय ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। अकबर ने बीकानेर के राजघराने की लड़की से विवाह किया तथा एक दूसरा विवाह जैसलमेर के हरराय की लड़की से भी किया। इस प्रकार 1570 ई० के अन्त में मेवाड़ तथा उसके अधीनस्थ राज्य डंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़ को छोड़कर सम्पूर्ण राजस्थान ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली।

गुजरात विजय, 1571-72 ई0

मुगल सम्राट अकबर ने अब अपना ध्यान गुजरात विजय पर लगाया। गुजरात एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र था जहां से तुर्की, सीरिया, फारस, ट्रान्स-ऑक्सियाना तथा यूरोप के अन्य देशों से व्यापार होता या और इसीलिए यह बहुत सम्पन्न और समृद्धिशाली था। इसके अतिरिक्त गुजरात मक्का के रास्ते में भी पड़ता था और अकबर हज-यात्रियों को सुरक्षित मार्ग प्रदान करने के कारण इसे अपने राज्य के अन्तर्गत करना चाहता था। इस समय प्रान्त की दशा अत्यधिक खराब थी। मुजफ्फरखाँ तृतीय, जो एक शक्तिहीन शासक था, उसके अमीर और सरदार सत्ता प्राप्ति के लिए आपस में भयंकर संघर्ष कर रहे थे। अकबर के विद्रोही सम्बन्धियों, मिर्जा इत्यादि ने आकर यहां शरण ली थी और इसी समृद्धिशाली प्रान्त में बस गये थे। इन्हीं कारणों से अकबर के लिए गुजरात विजय करना नितान्त आवश्यक हो गया।
सौभाग्य से उन्हीं दिनों वहाँ एक गृह-युद्ध छिड़ गया और इतमादखाँ के नेतृत्व में एक दल ने अकबर से हस्तक्षेप करने की प्रार्थना की। इस सुअवसर से लाभ उठाने के उद्देश्य से अकबर ने अभियान की तैयारी आरम्भ कर दी और खानकलाँ की अध्यक्षता में दस हजार अश्वारोही सैनिक के साथ सितम्बर 1572 ई० में स्वयं भी वहाँ के लिए चल दिया। मुगल सेना ने बिना किसी विशेष प्रतिरोध के नवम्बर में अहमदाबाद पर अधिकार कर लिया। मुजफ्फरखां तृतीय एक अनाज के खेत में छिपा हुआ पकड़ा गया और बन्दी बना लिया गया। बादशाह ने खान आजम (मिर्जा अजीज कोका) को गुजरात का गवर्नर नियुक्त किया।
अहमदनगर से अकबर कम्वे के लिए चल पड़ा. जहां उसने तुर्की, सीरिया, फारस, टांसऑक्सियाना और पुर्तगाल के व्यापारियों से भेंट की। यहाँ से वह सूरत लौट आया और दिसम्बर 1572 ई० में सरनाल की लड़ाई में इब्राहीम मिर्जा को पराजित किया। इसके पश्चात सूरत पर घेरा डाला गया और यह भी फरवरी 1573 ई० में उसके अधिकार में आ गया। इस सफलता प्राप्ति के पश्चात वह आगरा लौट आया लेकिन इसके तुरन्त बाद मुहम्मद हसन मिर्जा के साथ असन्तुष्ट अमीरों से सांठगांठ करके गुजरात के गवर्नर खान आजम को अहमदाबाद में घेर लिया। खान आजम इन विद्रोहियों का सामना करने में असमर्थ था, इसलिए समाचार पाकर अकबर 23 अगस्त, 1573 ई० को फतेहपुर सीकरी से चल पड़ा और
विद्रोहियों ने बादशाह के सहसा आगमन को देखकर स्तम्भित रह गये। इस प्रकार एक भीषण संघर्ष में उसने विद्रोहियों को पराजित कर दिया और मुहम्मद हुसैन मिर्जा को बन्दी बना लिया। इस महान सफलता के उपरान्त सम्राट 5 अक्तूबर, 1573 ई० को फतेहपुरसीकरी वापस आ गया। गुजरात विजय के उपलक्ष में ही अकबर ने फतेहपुर सिकरी में बुलन्द दरवाजा का निर्माण कार्य प्रारंभ करवाया। गुजरात विजय के द्वारा अकबर के साम्राज्य की पश्चिमी सीमा समुद्र तक फैल गयी जिससे पुर्तगालियों के साथ उसका सम्बन्ध स्थापित हुआ और उन्होंने उसके साथ शान्ति-सन्धि की।

बिहार और बंगाल की विजय, 174-1576 ई०

बंगाल और उडीसा के तात्कालीन शासक दाऊद ने अपनी स्वाधीनता पुनः घोषित कर दी और जमानिया पर (उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में) जो उस समय मुगल-साम्राज्य का पूरबी रक्षक-स्थल था, आक्रमण करके अकबर को नाराज कर दिया। 1574 ई० में अकबर ने इस उद्दण्ड युवक के ऊपर चढ़ाई कर दी और उसे बिहार से बाहर निकाल दिया और इस प्रान्त को भी अपने साम्राज्य में मिला लिया। दाऊद बंगाल से उड़ीसा की ओर भाग गया। अकबर बंगाल-अभियान का नेतृत्व मुनीमखां को देकर फतेहपुरसीकरी लौट आया। मुनीमखां ने दाऊद को 3 मार्च, 1575 ई० के दिन स्वर्णरेखा नदी के पूर्बी तट के समीप तुकरोई नामक स्थान पर पराजित किया और टांडा को अपना केन्द्र बनाया। किन्तु उसने इसमें लाभ नहीं उठाया जिसके परिणामस्वरूप बंगाल का कुछ भाग स्थानीय सुल्तान के हाथ में रह गया। अक्तूबर में दाऊद ने पुनः बंगाल को प्राप्त करने का प्रयत्न किया। फलतः उसके ऊपर एक नया आक्रमण किया गया और जुलाई 1576 ई० में राजमहल के निकट एक लड़ाई में वह अन्तिम रूप से हार गया और मारा गया। बंगाल अब मुगल साम्राज्य के अन्तर्गत मिला लिया गया।

मेवाड़ विजय के लिए प्रयत्न : हल्दीघाटी लड़ाई 18 जून, 1576

यद्यपि मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर फरवरी 1568 ई० में मुगलों का अधिकार हो गया था, तथापि राज्य का एक बड़ा भाग अभी तक राणा उदयसिंह के अधिकार में रह गया था। उसके पराक्रमी एवं प्रतापी पुत्र राणाप्रताप ने जिसका 3 मार्च, 1572 ई० को दिन गोगुण्डा नामक स्थान पर बड़ी निराशाजनक परिस्थितियों में राज्याभिषेक किया गया था, मुगलों का बड़ी दृढ़ता से सामना करने का निश्चय किया। सीमित साधन, अपने ही आदमियों के असन्तोष और अपने सगे भाई शक्तिसिंह की शत्रुता की परवाह न करते हुए उसने अकबर और उसकी विशाल मुगल सेना का सामना करने का निश्चय किया। अकबर भी इसी तरह मेवाड़ के शेष भाग को मुगल साम्राज्य में मिलाने का दृढ़ निश्चय था।
अप्रैल 1576 ई० में अकबर ने मानसिंह तथा आसफखां की अध्यक्षता में एक शक्तिशाली सेना मेवाड़ के शेष भाग पर आक्रमण करने के लिए भेजी। शीध्र ही मानसिंह के नेतृत्व में मुगल सेना ने अरावली पहाड़ की हल्दीघाटी नामक शाखा के बीच के मैदान में घेरा डाला। यहां शाही सेना पर राणा प्रताप ने आक्रमण किया, जो 18 जून, 1576 ई० को गोगुण्डा से चलकर आक्रमणकारी शत्रु के आगे बढ़ने से रोकने के लिए यहां आया हुआ था। दन्तकथा के अनुसार राणा की सेना में 20000 घुड़सवार थे और मानसिंह की सेना में 80000 परन्तु वास्तव में मेवाड़ी सेना में 3000 से अधिक घुड़सवार और कई सौ भील प्यादों से अधिक नहीं थे जबकि मानसिंह की सेना में 10000 घुड़सवार थे और इनमें 4000 कछवाहा राजपूत थे। 1000 अन्य जातियों के हिन्दू तथा शेष मध्य एशिया के तुर्क, उजबेग, कज्जाम, बारह के सैयद और फतेहपुरसीकरी के शेखजादे थे। हल्दीघाटी से आगे बढ़कर राणा ने मुगल सेना पर सीधा आक्रमण किया। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लडने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे -हकीम खाँ सूरी। राणा का आक्रमण ऐसा जबर्दस्त था कि मुगलों के आगे की सेना का अगला और बायें अंग का दस्ता दोनों के दोनों तितर-बितर हो गये और उनका दाहिना और बीच का दस्ता संकट में पड़ गये। अब कछवाहा तथा सिसोदिया योद्धाओं ने आगे बढ़कर निकट का युद्ध आरम्भ किया। मुसलमानों ने बिना सोचे-विचारे कि राजपूत उनके पक्ष के हैं या राणा प्रताप के, उन पर तीर तथा गोलियां बरसाना आरम्भ कर दिया। राजा रामसहाय तवर राणाप्रताप को बचाने के लिए उनके आगे चल रहा था। उसे जगन्नाथ कछवाहा ने मौत के घाट उतार दिया। अब शत्रु सेना ने राणा को चारों ओर से घेर लिया और यह प्रतीत होने लगा कि वह मारा जायगा। इस समय बीदा झाला ने राणाप्रताप के मुकुट को उसके माथे से उतार लिया और स्वयं को राणा घोषित कर दिया। शत्रओं ने उसे चारों ओर से घेर लिया और इस प्रकार राणा प्रताप बच गया। उस संकटपूर्ण समय में कुछ स्वामिभक्त सैनिको ने आगे बढ़कर राणा के घोड़े की बागडोर पकड़ ली और उसे पीछे सुरक्षित स्थान में ले गये। इस समय राणा के सैनिकों की हिम्मत टूट गयी और वे युद्धक्षेत्र से भाग निकले और उनमें से बहुत-से मारे गये। मानसिंह को हल्दीघाटी के युद्ध में सफलता प्राप्त हुई। दोनों ओर के बहुत-से सैनिक मारे गये और राणा की तो आधी सेना बिलकुल ही नष्ट हो गयी। शाही सेना इतनी थक गयी कि वह राणा का पीछा करने में असमर्थ थी। यही नहीं; उसे बड़ा डर था कि कहीं राणा रात में उन पर छापा न मारे। राणाप्रताप ने गोगुण्डा को खाली कर दिया और मानसिंह ने उसको अपने अधिकार में रखने का प्रबन्ध किया ।
अपने श्रेष्ठ प्रयत्नों के बावजूद राजा मानसिंह मेवाड़ के उस भाग पर अधिकार नहीं कर सके जो अभी राणा के अधीन था। यह मेवाड़ का उत्तर-पश्चिमी भाग था जिसमें कुम्भलगढ़ और देवसूरी के दुर्ग सम्मिलत थे। गोगुण्डा पर भी उसका अधिकार चिरकाल तक नहीं रह सका क्योंकि उसके पास एक तो रसद की कमी थी और दूसरी वहॉ की जनता उसके विरुद्ध थी। न तो मुगलों की धमकिया और न ही उसके अत्याचार राणा प्रताप को वश में कर सके। स्वाभिमानी सिसोदिया राणा प्रताप को यद्यपि कई अवसरों पर भूखों तक रहना पड़ा था तथापि अकबर की अधीनता उसने स्वीकार नहीं की, उसके साथ शादी-सम्बन्ध करने का विचार तो बहुत दूर की बात थी। मेवाड़ में असफल होने के कारण मानसिंह को अकबर की कृपादृष्टि से वंचित होना पड़ा और उसे वापस बुला लिया गया। मेरी दृष्टि में यह विचार गलत है कि अकबर ने अपने महान प्रतिद्वन्द्वी राणा के प्रबल पराक्रम के प्रति श्रद्धानत होकर ही शेष जीवन के लिए उसके साथ छेड़छाड़ बन्द कर दी बल्कि सत्य तो यह है कि अकबर ने राणा प्रताप को अपने अधीन करने के लिए अपने प्रयत्नों में कोई ढिलाई नहीं की लेकिन ये सारे प्रयत्न असफल रहे और राणाप्रताप अपने पूर्वजों के राज्य के अधिकांश भाग को पुनः प्राप्त करने में सफल हुआ।

अकबर और महाराणा प्रताप के सम्बन्ध :

भारतीय इतिहास में राजपूताने का प्रारम्भ से ही गौरवपूर्ण स्थान रहा है और इस राज्य के इतिहास में वीरता, त्याग, बलिदान तथा स्वतन्त्रता प्रेम का एक अद्भुत समन्वय दिखायी देता है। मध्यकाल में यहां के शासकों तथा जनता के द्वारा अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिए मुसलमान शासकों के विरुद्ध किये गये संघर्ष इतिहास में अद्वितीय माने जाते हैं। यहां के रणबाकुरों ने देश, जाति तथा स्वाधीनता की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने में कभी संकोच नहीं किया। उनके इस त्याग पर संपूर्ण भारत को गर्व रहा है। वीर रस रूचिरा इस भूमि में राजपूतों के छोटे-बड़े अनेक राज्य रहे, जिन्होंने भारतीय इतिहास के अनेक उज्जवल अध्यायों की रचना की। इन्हीं राज्यों में मेवाड़ का अपना एक विशिष्ट स्थान रहा है, जिसमें इतिहास के गौरव वप्पारावल, खुमाण प्रथम, महाराणा हम्मीर, महाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा तथा भारतीय इतिहास के गुंजायमान चरित्र चरितनायक वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप जैसे इतिहास निर्माता महान् वीरों ने जन्म लिया। इसी वीर भूमि पर जन्म लेने वाले मेवाड़ मुकुटमणि महाराणा प्रताप का नाम लेते ही अनायास ही देशप्रेम, त्याग, बलिदान, संघर्ष आदि गुणों के प्रतीक तथा भारतवासियों के लिए श्रद्धा तथा अभिमान का विषय बन चुके मुगल साम्राज्य की सत्ता को चुनौती देने वाले वीरता के ओज से परिपूर्ण एक अप्रतिम वीर योद्धा का बिम्ब हमारे मस्तिष्क में मूर्त रूप धारण कर नाच उठता है और उनके द्वारा विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी स्वतंत्रता हेतु किये गये संघर्ष की शौर्यगाथा मनोमस्तिष्क में गुंजायमान हो उठती है। मेवाड़ नरेश होते हुए भी उनके जीवन का अधिकांश भाग वनों और पर्वतों में इधर-उधर भटकते तथा मुगलों से सतत संघर्ष करते हुए व्यतीत हुआ। अपनी अदम्य इच्छा शक्ति और अपूर्व रण कौशल से अन्ततः वे मेवाड़ को स्वाधीन कराने में समर्थ हुए। भौतिक सुख-लाभों की उपेक्षा करते हुए मातृभूमि की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए उनके द्वारा किये गये अनवरत संघर्ष इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है। सदैव अपने एवं अपने परिवार से उपर प्रजा को मान देने वाले महाराणा प्रताप एक ऐसे राजपूत शासक थे जिसकी वीरता को अकबर भी नमन, सलाम करता था। एक ऐसा राजपूत सम्राट जिसने जंगलों में रहना पसन्द किया लेकिन कभी मुगलों की दासता स्वीकार नही की और अपनी भूमि, धर्म और स्वाधीनता के लिए सब कुछ न्यौछावर कर दिया। महाराणा प्रताप युद्ध कौशल में तो निपुण थे ही, वे एक भावुक एवं धर्म परायण मनुष्य भी थे। उनके इन्ही गुणों के कारण भारत सरकार के द्वारा महराणा प्रताप के नाम से डाक टिकट जारी किया गया परन्तु सम्पूर्ण विश्व सहित भारत के इतिहासकारों के द्वारा उन्हें इतिहास में समुचित सम्मान नहीं दिया गया और आज भी वे इतिहास में उचित स्थान प्राप्ति हेतु संघर्षरत्त नजर आते हैं।
महाराण प्रताप का जन्म 9 मई 1540 ई0 को राजस्थान के कुंभलगढ दुर्ग में हुआ था। उनके पिता का नाम राणा उदय सिंह और माता का नाम जीवत कंवर था। महाराणा प्रताप को बचपन से ही सभी ‘कीका‘ नाम से सम्बोधित करते थे। राणा उदयसिंह के देहान्त के बाद राजपूत सरदारों ने मिलकर 01 मार्च 1576 ई0 को महाराणा प्रताप को मेवाड की राजगद्दी पर बैठाया। हालांकि उदयसिंह ने अपने छोटे पुत्र जगमल सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था जबकि राणा प्रताप ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण स्वाभाविक उत्तराधिकारी थे।
राजपूत सरदारों के इस वर्ताव से नाराज होकर जगमल सिंह अकबर के पास चला गया और बादशाह अकबर ने उन्हे एक जागीर प्रदान कर उन्हे अपने पक्ष में कर लिया। कालान्तर में उसे सिरोही राज्य का आधा भाग भी प्रदान कर दिया गया जिसके कारण सिरोही के राजा से जगमल सिंह की दुश्मनी उत्पन्न हो गयी और अन्त में 1583 ई0 के आसपास युद्ध में जगमल सिंह का देहान्त हो गया।
जिस समय महाराणा प्रताप ने मेवाड की राजगद्दी सॅंभाली, उस समय राजपूताना साम्राज्य बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा था। मुगल सम्राट अकबर के सैन्य अभियान से घबडाकर अनेक राजपूत नरेशों ने अपने सिर झुका लिए थे और मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। कई ऐसे राजपूत शासक भी थे जिन्होने अपने कुल और वंश की मर्यादा का सम्मान भुलाकर मुगल वंश के लोगों से वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित कर लिये थे। परन्तु कुछ स्वाभिमानी राजवंशों के साथ ही महाराणा प्रताप भी अपने पूर्वजों की रक्षा हेतु सदैव अटल थे इसलिए मुगल सम्राट अकबर की ऑखों में वे सदैव खटका करते थे।
मेवाड को जीतने के लिए अकबर ने कई प्रयास किये। अकबर चाहता था कि महाराणा प्रताप अन्य राजपूत शासकों की तरह ही उसकी अधीनता स्वीकार कर ले लेकिन महाराणा प्रताप ने अकबर की अधीनता को स्वीकार नही किया। महाराणा प्रताप के शासनकाल का सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुगल सम्राट अकबर बिना युद्ध के प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था इसलिए अकबर ने राणाप्रताप को समझाने के लिए चार राजदूत नियुक्त किए जिसमें सर्वप्रथम सितम्बर 1572 ई0 में जलाल खाँ राणाप्रताप के खेमे में गया, इसी क्रम में मानसिंह 1573 ई0 में, भगवानदास सितम्बर, 1573 ई0 में तथा राजा टोडरमल दिसम्बर 1573 ई0 राणाप्रताप को समझाने के लिए पहुँचे, लेकिन राणा प्रताप ने चारों को निराश किया, इस तरह राणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया जिसके परिणामस्वरूप हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ।
महाराणा प्रताप ने कई वर्षो तक मुगल सेना के साथ संघर्ष किया और मेवाड की धरती को मुगलों के आतंक से बचाने के लिए उन्होने अदुभूत वीरता और शौर्य का परिचय दिया। राणाप्रताप की वीरता ऐसी थी कि उनके शत्रु भी उनके युद्ध कौशल के कायल थे और उदारता ऐसी कि दूसरों की पकडी गई मुगल बेगमों को सम्मानपूर्वक उनके पास वापस भेज दिया था। इस योद्धा ने साधन सीमित होने पर भी दुश्मन के सामने सर नही झुकाया और जंगल में निर्वासित जीवन व्यतीत कर कंद-‘मूल खाकर शत्रु सेनाओं से संघर्ष करते रहे। माना जाता है कि इस योद्धा की मृत्यु पर अकबर की ऑखें भी भर गई थी और उसने कहा था कि – ‘‘योद्धा हो तो ऐसा।‘‘
अपनी विशाल मुगल सेना, बेमिसाल बारुदखाने, युद्ध की नवीन पद्धतियों के जानकारों से युक्त सलाहकारों, गुप्तचरों की लम्बी फेरहिस्त और कूटनीति के उपरान्त भी जब अकबर समस्त प्रयासों के बाद भी महाराणा प्रताप को झुकाने में असफल रहा तो उसने मानसिंह को विशाल सेना के साथ मध्यस्थता के लिए भेजा। मानसिंह महाराणाप्रताप को समझाने हेतु उदयपुर पहुॅचे और उन्होने महाराणा प्रताप को अकबर की अधीनता स्वीकार करने की सलाह दी, लेकिन राणा प्रताप ने दृढतापूर्वक अपनी स्वाधीनता बनाए रखने की घोषणा की और युद्ध में मुगलों का सामना करने को तैयार हो गये। मानसिंह के उदयपुर से खाली हाथ आ जाने को बादशाह अकबर ने करारी हार के रुप में लिया तथा अपनी विशाल मुगल सेना मानसिंह और आसफखॉ के नेतृत्व में मेवाड पर हमला करने के लिए भेज दिया। आखिरकार 1576 ई0, बुद्धवार के दिन प्रातःकाल में विश्वप्रसिद्ध हल्दीघाटी के मैदान में राणाप्रताप और मुगल सेना के बीच भयंकर युद्ध छिड गया। युद्ध का विवरण यहॉ देने की आवश्यकता नही है क्योंकि इसका उल्लेख उपर किया जा चुका है।
इस युद्ध में मुगलों की विशाल सेना टिड्डी दल की तरह मेवाड पर टूट पडी लेकिन राणाप्रताप ने अभूतपूर्व वीरता और साहस का परिचय देते हुए मुगल सेना के दात खट्टे कर दिये और अकबर के हजारों सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। विकट परिस्थितीयों में झाला सरदारों के एक वीर पुरुष ने उनका मुकुट और छत्र अपने सिर पर धारण कर राणाप्रताप की जान बचाने में सफल रहा और उन्हे अरावली की पहाडियों में सुरक्षित भेज दिया गया। युद्ध से लौटते समय घायल चेतक ने राणा प्रताप को लेकर 20 फीट चौडा बरसाती नाला एक छलांग में पर कर लिया लेकिन नाला पार करते ही वह बुरी तरह से घायल हो गया। समीप स्थित एक इमली के पेड के पास जाकर वह गिर पडा तथा यही ं पर उसका प्राणांत हो गया। अपने प्रिय घोडे चेतक की मृत्यु से राणा प्रताप बहुत दुखी हुये। राणाप्रताप ने महादेव जी के मन्दिर के पास ही उसे समाधि दी। इसी जगह चेतक का स्मारक बना है जो हमे आज भी प्रेरणा दे रहा है।
टकराव के उनके एक प्रयास की विफलता के बाद राणाप्रताप ने छापामार रणनीति का सहारा लिया। एक आधार के रूप में अपनी पहाड़ियों का उपयोग करते हुए राणाप्रताप ने बड़े पैमाने पर मुगल सैनिकों को वहाँ से हटाना शुरू कर दिया। वह इस बात पर अड़े थे कि मेवाड़ की मुगल सेना को कभी शान्ति नहीं मिलनी चाहिए। हल्दीघाटी के युद्ध के बाद भी अकबर ने तीन बार हमले किए और राणाप्रताप को पहाड़ों से खोज निकालने की असफल कोशिश की। इस दौरान राणाप्रताप को भामाशाह से सहानुभूति के रूप में वित्तीय सहायता मिली। राणप्रताप के लिए यह एक कठिन समय था और बाद में राणाप्रताप ने अपने स्थान को मेवाड़ के दक्षिण-पूर्वी भाग चावण्ड में स्थानान्तरित कर दिया।

दिवेर -छापली का युद्ध, 1585 ई0 –

राजस्थान के इतिहास 1582 में दिवेर का युद्ध एक महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है, क्योंकि इस युद्ध से राणा प्रताप के खोये हुए राज्यों की पुनः प्राप्ती हुई, इसके पश्चात राणा प्रताप व मुगलो के बीच एक लम्बा संघर्ष युद्ध के रुप में घटित हुआ, जिसके कारण कर्नल जेम्स टॉड ने इस युद्ध को “मेवाड़ का मैराथन“ कहा है।
मेवाड़ के उत्तरी छोर पर स्थित दिवेर का नाका अन्य नाकों से विलक्षण था। इसकी स्थिति मदारिया और कुंभलगढ़ की पर्वत श्रेणी के बीच है। प्राचीन काल में इस पहाड़ी क्षेत्र में गुर्जर प्रतिहारों का आधिपत्य था। मध्यकालीन युग में देवड़ा जाति के राजपूत यहां प्रभावशाली हो गये, जिनकी बस्तियां आसपास के उपजाऊ भागों में बस गई और वे उदयपुर के निकट भीतरी गिर्वा तक प्रसारित हो गई। चीकली के पहाड़ी भागों में आज भी देवड़ा राजपूत बड़ी संख्या में बसे हुए हैं। देवड़ाओं के पश्चात यहां रावत शाखा के राजपूत बस गये। इन विभिन्न समुदायों के दिवेर में बसने के कई कारण थे। प्रथम तो दिवेर का एक सामरिक महत्व रहा है। जो समुदाय शौर्य के लिए प्रसिद्ध रहे हैं, वे उत्तरोत्तर अपने पराक्रम के कारण यहां बसते रहे और एक-दूसरे पर प्रभाव स्थापित करते रहे। दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह रहा कि इसकी स्थिति ऐसे मार्गों पर है, जहां से मारवाड़, मालवा, गुजरात, अजमेर के आदान-प्रदान की सुविधा रही है। ये मार्ग तंग घाटियों वाले उबड़-खाबड़ मार्ग के रूप में आज भी देखे जा सकते हैं। इनके साथ सदियों से आवागमन होने से घोड़ों की टापों के चिन्ह पत्थरों पर अद्यावधि विद्यमान है। मार्गों में पानी की भी कमी नहीं है, जिसके लिये जगह-जगह झरनों के बांध के अवशेष दृष्टिगोचर होते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से स्थान-स्थान पर चौकियों के ध्वंसाशेष भी दिखाई देते हैं। जब अकबर ने कुंभलगढ़, देवगढ़, मदारिया आदि स्थानों पर कब्जा कर लिया तो वहां की चौकियों से संबंध बनाए रखने के लिए दिवेर का चयन एक रक्षा स्थल के रूप में किया गया। यहां बड़ी संख्या में घुड़सवारों और हाथियों का दल रखा गया। इंतर चौकियों के लिए रसद भिजवाने का भी यह सुगम स्थान था।
जब महाराणा प्रताप छप्पन के पहाड़ी स्थानों में बस्तियां बसाने और मेवाड़ के समतल भागों में खेतों को उजाड़ने में व्यस्त थे तब अकबर दिवेर के मार्ग से उत्तरी सैनिक चौकियों का पोषण भेजने की व्यवस्था में संलग्न रहा। राणाप्रताप की नीतियॉ छप्पन की चौकियों को हटाने तथा मध्यभागीय मेवाड़ की चौकियों को निर्बल बनाने में अवश्य सफल हो गया परंतु दिवेर का केंद्र अब भी मुगलों के लिए सुदृढ़ था।
इस पृष्ठभूमि में दिवेर का महाराणा प्रताप व मुगलों का संघर्ष जुड़ा हुआ था। इस युद्ध की तैयारी के लिए राणाप्रताप ने अपनी शक्ति सुदृढ़ करने की नई योजना तैयार की। वैसे छप्पन का क्षेत्र मुगलों से युक्त हो चला था और मध्य मेवाड़ में रसद के अभाव में मुगल चौकियां निष्प्राण हो गई थी अब केवल उत्तरी मेवाड़ में मुगल चौकियां व दिवेर के संबंध में कदम उठाने की आवश्यकता थी।
इस संबंध में महाराणा प्रताप ने गुजरात और मालवा की ओर अपने अभियान भेजना आरंभ किया और साथ ही आसपास के मुगल अधिकार क्षेत्र में छापे मारना शुरू कर दिया। इसी क्रम में भामाशाह ने, जो मेवाड़ के प्रधान और सैनिक व्यवस्था के अग्रणी थे, मालवे पर चढ़ाई कर दी और वहां से लगभग ढाई लाख रुपए और 20 हजार अशर्फियां दंड में लेकर एक बड़ी धनराशि इकट्ठी की। इस रकम को लाकर उन्होंने महाराणा को चूलिया ग्राम में समर्पित कर दी। इसी दौरान जब शाहबाज खां निराश होकर लौट गया था, तो महाराणा प्रताप ने कुंभलगढ़ और मदारिया के मुगल थानों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इन दोनों स्थानों पर महाराणा का अधिकार होना दिवेर पर कब्जा करने की योजना का संकेत था। अतएव इस दिशा में सफलता प्राप्त करने के लिए नई सेना का संगठन किया गया। जगह-जगह रसद और हथियार इकट्ठे किए गए। सैनिकों को धन और सुविधाएं उपलब्ध कराई गई। सिरोही, ईडर, जालोर के सहयोगियों का उत्साह परिवर्धित कराया गया। ये सभी प्रबंध गुप्त रीति से होते रहे। मुगलों को यह भ्रम हो गया कि राणाप्रताप मेवाड़ छोड़कर अन्यत्र जा रहे हैं। ऐसे भ्रम के वातावरण से बची हुई मुगल चौकियों के सैनिक लापरवाह से हो गये। जब सब प्रकार की तैयारी हो गई तो महाराणा प्रताप, राजकुमार अमरसिंह, भामाशाह, चुंडावत, शक्तावत, सोलंकी, पडिहार, रावत शाखा के राजपूत और अन्य राजपूत सरदार दिवेर की ओर दल-बल के साथ चल पड़े। दिवेर जाने के अन्य मार्गों व घाटियों में भीलों की टोलियां बिठा दी गई, जिससे मेवाड़ में अन्यत्र बची हुई सैनिक चौकियों का दिवेर से कोई संबंध स्थापित न हो सके।
अचानक महाराणा की फौज दिवेर पहुंची तो मुगल दल में भगदड़ मच गई। मुगल सैनिक घाटी छोड़कर मैदानी भाग की तलाश में उत्तर के दर्रे से भागने लगे। महाराणा ने अपने दल के साथ भागती सेना का पीछा किया। घाटी का मार्ग इतना कंटीला तथा ऊबड़-खाबड़ था कि मैदानी युद्ध में अभ्यस्त मुगल सैनिक आतंकित हो गए। अन्ततोगत्वा घाटी के दूसरे छोर पर जहां कुछ चौड़ाई थी और नदी का स्त्रोत भी था, वहां महाराणा प्रताप ने उन्हें जा दबोचा। दिवेर थाने के मुगल अधिकारी सुल्तानखां को राजकुमार अमरसिंह ने जा घेरा और उस पर भाले का ऐसा वार किया कि वह सुल्तानखां को चीरता हुआ घोड़े के शरीर को पार कर गया। घोड़े और सवार के प्राण पखेरू उड़ गए। महाराणा ने भी इसी तरह बहलोलखां और उसके घोड़े का काम तमाम कर दिया। एक राजपूत सरदार ने अपनी तलवार से हाथी का पिछला पांव काट दिया। इस प्रकार दिवेर के इस युद्ध में विजयश्री महाराणा प्रताप के हाथ लगी।
महाराणा प्रताप की यह विजय इतनी कारगर सिद्ध हुई कि इससे मुगल थाने, जो सक्रिय या निष्क्रिय अवस्था में मेवाड़ में थे जिनकी संख्या 36 बतलाई जाती है, यहां से उठ गए। शाही सेना जो यत्र-तत्र कैदियों की तरह पडी हुई थी, लड़ती, भिड़ती, भूखे मरते उलटे पांव मुगल इलाकों की तरफ भाग खड़ी हुई। यहां तक कि 1585 ई0 के आगे अकबर भी उत्तर – पश्चिम की समस्या के कारण मेवाड़ के प्रति उदासीन हो गया, जिससे महाराणा को अब चावंड में नवीन राजधानी बनाकर लोकहित में जुटने का अच्छा अवसर मिला। दिवेर की विजय महाराणा के जीवन का एक उज्ज्वल कीर्तिमान है। जहां हल्दीघाटी का युद्ध नैतिक विजय और परीक्षण का युद्ध था, वहां दिवेर-छापली का युद्ध एक निर्णायक युद्ध बना। इसी विजय के फलस्वरूप संपूर्ण मेवाड़ पर महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया। एक अर्थ में हल्दीघाटी का युद्ध में राजपूतो ने रक्त का बदला दिवेर में चुकाया। दिवेर की विजय ने यह प्रमाणित कर दिया कि महाराणा का शौर्य, संकल्प और वंश गौरव अकाट्य और अमिट है, इस युद्ध ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि महाराणा प्रतसव के त्याग और बलिदान की भावना के नैतिक बल ने सत्तावादी नीति को परास्त किया। कर्नल टॉड ने जहां हल्दीघाटी को ’थर्मोपाली’ कहा है वहां के युद्ध को ’मेरोथान’ की संज्ञा दी है। जिस प्रकार एथेन्स जैसी छोटी इकाई ने फारस की बलवती शक्ति को ’मेरोथन’ में पराजित किया था, उसी प्रकार मेवाड़ जैसे छोटे राज्य ने मुगल राज्य के वृहत सैन्यबल को दिवेर में परास्त किया। महाराणा की दिवेर विजय की दास्तान सर्वदा हमारे देश की प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी।
1579 से 1585 तक पूर्वी उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और गुजरात के मुग़ल अधिकृत प्रदेशों में विद्रोह होने लगे थे अतः अकबर उस विद्रोह को दबाने में उल्झा रहा और मेवाड़ पर से मुगलो का दबाव कम हो गया। दूसरी तरफ महाराणा प्रताप भी एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे इस बात का लाभ उठाकर महाराणा ने 1585 ई0 में मेवाड़ मुक्ति प्रयत्नों को और भी तेज कर दिया। महाराणा प्रताप की सेना ने मुगल चौकियों पर आक्रमण शुरू कर दिए और तुरन्त ही उदयपूर समेत 36 महत्वपूर्ण स्थान पर फिर से महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया।
महाराणा प्रताप ने जिस समय सिंहासन ग्रहण किया, उस समय जितने मेवाड़ की भूमि पर उनका अधिकार था, पूर्ण रूप से उतने ही भूमि भाग पर अब उनकी सत्ता फिर से स्थापित हो गई थी। बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका और इस तरह महाराणा प्रताप समय की लम्बी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करने में सफल रहे और ये समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ। मेवाड़ पर लगा हुआ अकबर ग्रहण का अन्त 1585 ई. में हुआ। उसके बाद महाराणा प्रताप उनके राज्य की सुख-सुविधा में जुट गए, परन्तु दुर्भाग्य से उसके ग्यारह वर्ष के बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावण्ड में उनकी मृत्यु हो गई। जनवरी 1597 ई० में राणाप्रताप की मृत्यु हो जाने से अकबर को मेवाड़ पर अपना आधिपत्य स्थापित करने का अवसर प्राप्त हुआ किन्तु उस समय दूसरे स्थानों पर व्यस्त होने के कारण वह इस सुअवसर से लाभ नहीं उठा सका। यद्यपि उसने कई बार राणाप्रताप के उत्तराधिकारी अमरसिंह के विरुद्ध सेनाएं भेजीं, किन्तु वह न तो मेवाड़ को जीत सका और न अपने राज्य में मिला सका।

काबुल पर विजय, 1581 ई०

1580 ई० में बंगाल और बिहार के बहुत-से प्रमुख मुसलमान और सरकारी अधिकारी जो अकबर की धार्मिक उदारता तथा सहनशीलता की नीति के विरुद्ध थे और जिनको उसके प्रशासन, अर्थ तथा सेना सम्बन्धी सुधारों से बहुत हानि पहुंची, विद्रोही बन गये। वे उसे हटाकर उसके सौतेले भाई काबुल के मिर्जा मुहम्मद हकीम को सम्राट बनाने का षड्यन्त्र रचने लगे। ये लोग विभिन्न धर्मसम्प्रदायों को इस्लाम के साथ ही समान रूप से समझने की अकबर की नीति से असन्तुष्ट थे और यह मिथ्या धारण बना ली थी कि उनका धर्म अब खतरे में है। जौनपुर के काजी मुल्ला मुहम्मद याजदी ने एक ’फतवा’ जारी किया कि अकबर के प्रति राजद्रोह करना एक धार्मिक कर्तव्य है।
इसका परिणाम यह हुआ कि इसकी आग बंगाल में भी पहुॅची और असन्तुष्टों ने वहॉं के गवर्नर मुजपफरखॉं को घेर लिया और जो शाही सेना उसकी सहायता के लिए वहां पहुंची, उसे हरा दिया। अब यह विद्रोह दोनों प्रान्तों में सर्वत्र फैल गया। अकबर ने तुरन्त ही समझ लिया कि इस विद्रोह का मूल स्रोत काबुल में है और उसका सौतेला भाई ही उसके लिए खतरे का साधन बना हुआ है। इसी विचार से उसने काबुल पर आक्रमण करने के लिए सैनिक तैयारियां कर बिहार और बंगाल में और अधिक सेनाएँ विद्रोहियों को कुचलने के लिए भेज दी, जिससे ये लोग मिर्जा हकीम की सहायता के लिए काबुल न दौड़ पड़ें। अपने दरबार में उसने उन विश्वासघातियों के विरुद्ध सख्त कार्यवाही की जो मिर्जा हकीम से गुप्त पत्रव्यवहार कर रहे थे। उनमे से कुछ को उसने मौत की भी सजा सुनाई। 8 मार्च, 1581 ई० को अकबर के मच्छीवाड़ा पहुंचने से पूर्व ही मिर्जा हकीम काबुल की ओर प्रत्याक्रमण कर गया। अकबर शीघ्र ही सिन्धु नदी तक पहुंच गया और मानसिंह की अध्यक्षता में उसने एक फौज काबुल पर अधिकार करने के लिए भेज दी तथा स्वयं भी उसी के पीछे-पीछे चलता गया। अकबर ने 10 अगस्त को काबुल में प्रवेश किया और भयाक्रान्त मिर्जा हकीम ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर लिया। अकबर ने मिर्जा की बहन बस्तुन्निसा बेगम को काबुल का गवर्नर नियुक्त कर दिया और स्वयं फतेहपुरसीकरी लौट आया। अन्ततः जुलाई 1589 ई० में मिर्जा हकीम की मृत्यु के बाद काबुल मुगल-साम्राज्य में मिला लिया गया।

काश्मीर पर अधिकार, 1585 ई०

अपनी साम्राज्य विस्तारवादी नीति को आगे बढाते हुए अकबर ने काश्मीर पर सैन्य अभियान किया। कूटनीति द्वारा और इसके असफल होने पर आक्रमण द्वारा वह काश्मीर पर अधिकार करना चाहता था। काश्मीर सुल्तान को अधीन करने तथा काबुल को मुगल-साम्राज्य के अन्तर्गत एक प्रान्त के रूप में शामिल करने के लिए वह 1585 ई० के पतझड़ में फतेहपुरसीकरी से लाहौर चल पड़ा। दिसम्बर के महीने में उसने राजा बीरबल और हकीम अबुल फतेह को काश्मीर के कबिलाई लोगों को नियंत्रित करने के लिए भेजा किन्तु इन कबाइली लोगों के साथ युद्ध मे शाही सेना सफलता प्राप्त नहीं कर सकी और इसमें राजा बीरबल मारे भी गये। इससे अकबर को बहुत दुख पहुंचा। पुनः राजा टोडरमल के नेतृत्व में मुगल सेना कों इस पराजय का बदला लेने के लिए भेजा गया। इस बार मुगल सेना ने कबाइलियों को पराजित किया और उन्हें वश में कर लिया। यद्यपि, कबाइली लोग पूरी तरह से वश में तो नहीं किये जा सके किन्तु इन्होंने फिर उत्पात नहीं मचाया।
इसके बाद अकबर ने काश्मीर पर अधिकार करने का कार्य कासिमखां, राजा भगवानदास तथा अन्य सैन्य-संचालकों के सुपुर्द कर दिया। 1586 ई० के आरम्भ में शाही सेना ने श्रीनगर की ओर कूच किया किन्तु वर्षा तथा हिमपात के कारण आगे बढ़कर शत्रु से लड़ने का इनका साहस ही नहीं हुआ और सुल्तान यूसुफखां के साथ सन्धि-चर्चा चलाने के लिए मुगल सेनाध्यक्ष राजी हो गये। यूसुफखां ने अकबर को अपना सम्राट मान लिया और उसके नाम का खुतबा पढ़वाने तथा उसी के नाम के सिक्के ढलवाने के लिए तैयार हो गया। किन्तु अकबर ने यह सन्धि-शतें पसन्द नहीं की और जब सुल्तान यूसुफखाँ और उसका बेटा याकूबखाँ उसकी सेवा में उपस्थित हुए, तो उसने सुल्तान को गिरफ्तार कर लेने की आज्ञा दे दी। किन्तु याकूब बचकर श्रीनगर भाग गया और मुगलों से सामना करने की तैयारियां करने लगा। इस बार अकबर ने एक सेना काश्मीर भेजी, जिसने याकूबखाँ को आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य कर दिया। काश्मीर अब मुगल-साम्राज्य में मिला लिया गया और यह काबुल प्रान्त का सरकार (जिला) बन गया।

सिन्ध-विजय, 1591 ई०.

भारत के उत्तर पश्चिमी सीमा पर अवस्थित सिन्ध को अकबर अपना एक सैनिक अड्डा बनाना चाहता था जहाँ से कन्धार पर जो इस समय फारस के शाह अब्बास के अधिकार में था, सैनिक कार्यवाही कर सके। 1590 ई० में बादशाह ने अब्दुल रहीम खानखाना को मुल्तान का गवर्नर नियुक्त किया और यह आदेश दिया कि वह थट्टा के राज्य को तुर्कमान राजा मिर्जा जानी बेग से जीत ले। मिर्जा ने अपने प्रदेश की रक्षा के लिए दो बार युद्ध किया किन्तु दोनो बार उसे हार का सामना करना पडा और अपना सम्पूर्ण प्रदेश, जिसमें थट्टा-और सेहवान के दुर्ग भी शामिल थे, उसे त्याग देने के लिए बाध्य होना पड़ा। बाद में वह मुगल-साम्राज्य की नौकरी में आ गया और तीनहजारी मनसबदार बना दिया गया।

उड़ीसा को विजय, 1592 ई०

कुतुलूखाँ लोहानी ने अपने आपको उडीसा का स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया था। 1590 ई० में बिहार के गवर्नर राजा मानसिंह ने उड़ीसा पर चढ़ाई की लेकिन इससे पूर्व ही कुतुलू खॉ मर गया। उसके लड़के निसारखां ने मामूली-सा सामना करने के पश्चात हथियार डाल दिये। बाद में उसे उड़ीसा प्रान्त का ही गवर्नर नियुक्त कर दिया गया। किन्तु दो वर्ष बाद उसने सन्धि की शर्तो को अस्वीकार करते हुये पुरी और जगन्नाथ को जिन पर मुगल-साम्राज्य का अधिकार था, छीन लिये। राजा मान सिंह ने इस बार इसे पुनः पराजित किया और राज्य से निकाल बाहर किया। उड़ीसा का प्रान्त अब मुगल-साम्राज्य में मिला लिया गया और यह बंगाल के सूबे का एक भाग बन गया।

बलूचिस्तान और कान्धार की विजय, 1595 ई0

फरवरी 1595 ई० में मीर मासूम के नेतृत्व में मुगल सेना को बलूचिस्तान विजय करने के लिए भेजा गया। उत्तरी भारत में बलूचिस्तान ही एक ऐसा राज्य था, जिसने अभी तक मुगल सम्राट की अधीनता स्वीकार नहीं की थी। सुयोग्य सेनाध्यक्ष मीर मासूम ने क्वेटा के उत्तर-पूरब में सीबी के किले पर आक्रमण किया और पन्नी अफगानों को पराजित कर उन्हें बलूचिस्तान का सम्पूर्ण प्रदेश जिसमें मकरान भी सम्मिलित था, मुगल-साम्राज्य को सौंप देने के लिए बाध्य किया।
अप्रैल 1595 ई० में कन्धार के फारसी गवर्नर मुजफ्फरहुसैन मिर्जा ने कन्धार का सुदृढ़ दुर्ग शाह बेग को समर्पित कर दिया, जिसे अकवर ने इसी कार्य को सम्पादित करने के लिए वहाँ भेजा था। तत्पश्चात मुगल दरबार में मुजफ्फरहुसैन मिर्जा का खूब स्वागत किया गया और उसे 5000 का मनसब तथा सम्भल की जागीर प्रदान की गयी। कन्धार के मुगल-साम्राज्यान्तर्गत आ जाने से मेवाड़ के छोटे-से भाग को छोड़कर शेष सम्पूर्ण उत्तरी भारत अकबर के अधिकार में हो गया ।

अकबर की दक्षिण नीति : खानदेश और अहमदनगर की विजय, 1593-1601 ई0

सम्पूर्ण उत्तरी भारत को अपने अधिकार में करने से पूर्व ही अकबर ने दक्षिण के चारों मुस्लिम राज्यों को जो प्राचीन बहमनी राज्य के टूट जाने पर बन गये थे, जीत लेने का निश्चय किया। अगस्त 1591 ई० में उसने चार दूत-मण्डल खानदेश, अहमदनगर, बीजापुर और गोलकुण्डा चारों स्थानों पर उसे राजस्व अर्पित करने के लिए राजी करने और यहाँ के शासकों को बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए भेजे। खानदेश के राजा अलीखॉं ने तो मुगल सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली और राजस्व अदा करने के लिए भी वह राजी हो गया। किन्तु शेष तीनों राज्यों के शासकों ने अकबर के प्रस्ताव को बड़ी नम्रतापूर्वक टाल दिया। फलतः 1593 ई० में अकबर ने अब्दुर्रहीम खानखाना को अहमदनगर जीत लेने के लिए रवाना किया। उसके साथ अकबर का द्वितीय पुत्र मुराद भी भेज दिया गया था। खानखाना ने अहमदनगर पर घेरा डाल दिया, किन्तु इस दुर्ग की बड़ी ही सुन्दर सुरक्षा-व्यवस्था बीजापुर की रानी तथा अहमदनगर के तत्कालीन राजा मुजफ्फर की बुआ चाँदबीबी ने की थी। अपने ही यहाँ कुछ आपसी मतभेदों के कारण मुगल सेनाध्यक्षों ने घेरा उठाना ही उचित समझा और 1596 ई० में सुलह कर लिया जिसके अनुसार बुरहानुलमुल्क के पोते बहादुर को अकबर की अधीनता में अहमदनगर का सुल्तान मान लिया गया। नये शिशु-सुल्तान ने बरार मुगल-साम्राज्य को अर्पित कर दिया और सम्राट के पास बहुमूल्य उपहार भी आगरा भेजे।
परन्तु यह सन्धि अल्पकालीन सिद्ध हुई क्योंकि अहमदनगर की सरकार ने सन्धि की शर्ते तोड़ दी और बरार को पुनः हस्तगत करने का प्रयत्न किया। फलतः 1597 ई० में खानखाना को दुबारा इधर आना पड़ा, किन्तु खानखाना और मुराद में पुनः मतभेद हो जाने के कारण मुगल पक्ष कमजोर पड़ता दिखायी देने लगा। इसलिए अकबर ने इन दोनों के ही वापस बुला लेने और इनके स्थान पर अबुल फजल को भेजने का विचार किया। किन्तु बाद में वह स्वयं भी दक्षिण की ओर चल पड़ा। शीध्र ही अहमदनगर पर घेरा डाला गया और 1600 ई० में उस पर अधिकार कर लिया गया। शिशु-सुल्तान बहादुर निजामशाह को बन्दी बनाकर ग्वालियर भेज दिया गया किन्तु अहमदनगर के अमीरों ने एक अन्य कठपुतली को राजा घोषित कर दिया और वे मुगलों से मोर्चा लेते रहे।
अहमदनगर के पतन से पूर्व खानदेश के राजा मीरन बहादुरशाह ने मुगलों की सत्ता को चुनौती दी। अतः अकबर ने भी उस पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया। 1599ई० के आरम्भ में उसने खानदेश में प्रवेश किया और यहाँ की राजधानी बुरहानपुर पर अधिकार करने के उपरान्त असीरगढ़ के दुर्भेद्य दुर्ग पर जो गोलाबारूद और युद्ध-सामग्री से पूर्ण सम्पन्न था, घेरा डाल दिया। यह घेरा काफी अरसे तक पड़ा रहा और मुगलों ने आक्रमण में बड़ी कुशलता दिखायी, इससे भयभीत होकर मीरन बहादुर ने 21 दिसम्बर, 1600 ई० को अकबर के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इस प्रकार खानदेश भी मुगल साम्राज्य में मिला लिया गयां। वस्तुतः यह अकबर की अन्तिम विजय थी।

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