Introduction (विषय प्रवेश)
सम्राट अकबर को न केवल मुगल काल का बल्कि भारत के सभी मुस्लिम शासकों में सर्वश्रेष्ठ शासक माना जाता है। इतिहास में उसे युग पुरुष की संज्ञा दी जाती है। जिस समय अकबर दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा, हिन्दुस्तान में मुस्लिम शासन की स्िापना हुये लगभग 350 साल बीत चुके थे परन्तु किसी भी शासक ने जनता को जीतने का प्रयास नही किया था। जिस कारण अब भी भारत में मुस्लिम शासकों को विदेशी शासक के रुप में जाना जाता था तथा उनके शासन में स्थिरता नही थी। अकबर पहला मुस्लिम शासक था जिसने यह स्वीकार किया कि राजा अपनी समस्ता प्रजा का चाहे वह किसी भी जाति अथवा धर्म का हो, पिता समान होता था। उसने जाति और धर्म के भेदभाव मिटाकर ‘‘भारत भारतीयों के लिए‘‘ है की नीति अपनाई जिसके परिणामस्वरुप भारत में मुस्लिम शासन के स्वरुप में आधारभूत परिवर्तन हुआ तथा देश की विभिन्न क्षेत्रों में अभूतपूर्व उन्नति हुई, शान्ति व्यवस्था कायम हुई और अकबर के प्रयासों से एक मिली जुली संस्कृति विकसित हुई। उसकी नीतियों विशेष रुप से उसकी धार्मिक नीति के परिणामस्वरुप हिन्दुस्तान की बहुसंख्यक हिन्दू जनता उसके पक्ष में होने लगी। वास्वत में अकबर ने जिस प्रकार धार्मिक उदारता की नीति अपनाई उसके परिणामस्वरुप न केवल उसके शासन को स्थायित्व मिला अपितु भविष्य में मुगल शासकों के लिए आधार भी तैयार हुआ।
अकबर की उदार और सहिष्णु धार्मिक नीति के सम्बन्ध में उसके दरबारी इतिहासकार अबुल फजल ने अपनी पुस्तक ‘‘आइन-ए-अकबरी‘‘ में लिखा है कि – सम्राट स्वभावतः सहिष्णुता और उदारता से ओत-प्रोत था। अकबर के एक अन्य समकालीन इतिहासकार अब्दुल कादिर बदायूॅनी ने, जो अकबर की उदार धार्मिक नीतियों से काफी नाराज था, अपनी पुस्तक ‘मुन्तखब-एत-तवारीख‘ में अकबर की उदार धार्मिक नीतियों की कटु आलोचना की है। साथ ही साथ अकबर के विभिन्न कार्यो की भी इसी कारण से आलोचना की है परन्तु सम्राट अकबर ने विरोधों की परवाह न करते हुए अपनी उदार नीतियों पर बढना जारी रखा जिसके परिणामस्वरुप उसके शासनकाल में युगान्तकारी परिवर्तन हुये।
प्रारंभिक जीवनकाल
अकबर का जन्म अमरकोट (सिन्ध) में राजा वीरसाल के महल में 15 अक्तूबर, 1542 ई० को हुआ था। उसके माता-पिता हुमायूं और हमीदाबानू बेगम ने यहां के राजपूत राजा के यहाँ आकर गरण ली थी। अक्तूबर 1542 ई० के दूसरे सप्ताह में हुमायूॅ जब एक सैनिक अभियान पर निकल रहा था तो रास्ते में ही उसके पुत्रजन्म का समाचार मिला। उस समय हुमायूं की दशा अत्यन्त दयनीय थी और अपने साथी-सहयोगियों को इस शुभ अवसर पर यथोचित पुरस्कार आदि बांटने में असमर्थ था; फिर भी उसने एक तश्तरी मंगायी और उसमें कस्तूरी के टुकड़े कर उन्हें अपने साथियों में बांटते हुए कहा, “अपने पुत्र-जन्म के इस अवसर पर केवल यही भेंट इस समय मैं आप लोगों को दे सकता हूॅ, मैं आशा और कामना करता हूँ कि जिस तरह इस खेमे में इस कस्तूरी की सुगन्ध फैल रही है, उसी तरह मेरे पुत्र का यश-सौरभ किसी दिन संसार भर में फैलेगा।“
अकबर का बाल्यकाल बड़े ही संकटों में व्यतीत हुआ या । जैसा राजनुमारों के साथ आमतौर पर होता है, अकबर की भी बहुत-सी धाय माताएॅं और आयाएॅ थी। उनमें से कुछ उसे स्तन-पान कराती थी और कुछ उसको टहल करती थी। इन आयाओं में सर्वप्रमुख जीजी अनगा थी जिसके पति शम्सुद्दीन ने १५४०ई० में कनोज की लड़ाई में पराजित होकर भागते हुए हुमायूं को दबने से बचाया था और जिसे बाद में अतगा खां की उपाधि प्रदान की गयी थी। माहम अनगा बड़ी आया थी और उसका लड़का आदमखॉं बहुत बदनाम था।
अपने भाइयों के बैर-भाव के कारण हुमायूं को अनेक कष्ट उठाने पड़े थे और काबुल तो एक-दो बार नहीं, कई बार उसके हाथ से निकल गया। अपने पिता के संकटकाल में अकबर को भी भाग्य के सहारे जीवित रहना पड़ा था। नवम्बर 1547 ई0 में जब अकबर पांच वर्ष का था तो उसे पढ़ाने-लिखाने को व्यवस्था की गयी थी। एक को बदलकर दूसरा, इस प्रकार कई शिक्षक नियुक्त किये परन्तु वे सब उसे पढ़ाने में असमर्थ रहे क्योकि वह तो पढ़ने-लिखने की अपेक्षा खेल-कूद और ऊंट, घोडे, कुत्ते और कबूतर इत्यादि जानवरों के प्रेम में अधिक लिप्त रहता था। बचपन से ही उसकी स्मरण-शक्ति अत्यन्त तीव्र थी, किन्तु वर्णमाला के अक्षर सीखने के लिए वह तैयार नहीं था। लेकिन फिर भी घुड़सवारी, तलवार चलाने आदि अनेक शौर्यंपूर्ण कलाओ मे वह पूर्ण कुशल हो गया। नवम्बर 1551 ई० मे हिन्दाल को मृत्यु हो जाने पर गजनी की सूबेदारी अकबर को सौप दी गयी और हिन्दाल की लड़की के साथ ही उसकी सगाई भी कर दी गई।
हिन्दुस्तान-पुनर्विजय पर चल पड़ने के कुछ समय बाद ही हुमायूं ने मुनीमखाँ को अकबर का संरक्षक नियुक्त कर दिया। शेरशाह के भतीजे और दिल्ली-राजसिंहासन के एक उत्तराधिकारी सिकन्दर सूर के 22 जनवरी, 1555 ई० को सरहिन्द नामक स्थान पर पराजित हो जाने के पश्चात अकबर को हुमायूं का युवराज भी घोषित कर दिया गया। सरकारी लेखों में इस विजय का श्रेय अकबर को ही दिया गया है। हुमायूं द्वारा दिल्ली-विजय के कुछ सप्ताह बाद ही अकबर को लाहौर का गवर्नर बना दिया गया और सुप्रसिद्ध तुर्कमान सेनापति बैरामखां को मुनीमखां के स्थान पर उसका संरक्षक नियुक्त किया गया । इस समय अकबर की अवस्था तेरह वर्ष की थी।
राज्यारोहण (14 फरवरी, 1556 ई०).
27 जनवरी, 1556 ई० को दिल्ली में शेरमण्डल में स्थित अपने पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिर जाने से हुमायूं का स्वर्गवास हो गया। पिता की मृत्यु का दुखद संवाद अकबर को पंजाब के गुरुदासपुर के 15 मील पश्चिम में स्थित कलानौर नामक स्थान पर मिला । उसके संरक्षक बैरामखां ने बड़ी जल्दी ही ईंटों का सिंहासन-खड़ा करवाकर 10 फरवरी, 1556 ई० को उसे बादशाह घोषित कर दिया। चार दिनों पश्चात 14 फरवरी 1556 ई0 को उसका विधिवत राज्यारोहण किया गया।
राज्यारोहण के समय अकबर को एक कठिन स्थिती विरासत में मिली थी। वह पंजाब के कुछ भाग का नाममात्र का ही शासक था। हुमायूं की मृत्यु के बाद ही हेमू ने दिल्ली और आगरा पर अपना अधिकार कर लिया था और पंजाब में भी अकबर की सत्ता का दावेदार सिकन्दर सूर बन गया था। मुहम्मद आदिलशाह और इब्राहीम सूर भी हिन्दुस्तान पर अकबर के सत्ताधिकार के दावेदार बन रहे थे। शेष प्रान्त भी स्थानीय शासकों की अधीनता में पूर्ण स्वतन्त्र हो चुके थे। देश की आर्थिक स्थिति तो और भी खराब हो गयी थी। उपजाऊ जमीन बरबाद हो गयी थी, चारों ओर विनाशकारी अकाल फैला हुआ था। दिल्ली और आगरा के जिलों में तो अकाल ने बड़ा ही उग्र रूप धारण किया था। तीन सूर विरोधियों के अतिरिक्त अकबर का सबसे बड़ा शत्रु मुहम्मद आदिलशाह का हिन्दू प्रधानमन्त्री हेमू था। यह मुगलों को भारत से निकाल बाहर करने पर तुला हुआ था। नये शासक की अनिश्चित और संकटपूर्ण स्थिति होने के कारण फौज की वफादारी भी असंदिग्ध नहीं थी। यद्यपि अकबर की अवस्था तेरह वर्ष से कुछ ही अधिक होगी, तथापि वह एक बड़ा ही समझदार और असाधारण प्रतिभासम्पन्न बालक था। उसने साहस के साथ सम्पूर्ण स्थिति का सामना करने का निश्चय किया और इस कार्य में उसके संरक्षक बैरमखां ने उसकी पूरी-पूरी मदद की।
आदिलशाह ने, जिसने चुनार को अपनी राजधानी बनाया था, हेमू को मुगलों को हिन्दुस्तान से निकाल बाहर करने के लिए भेज दिया। हेमू रेवाड़ी का निवासी धूसर वैश्य कुलोत्पन्न व्यक्ति था किन्तु इसकी अनुपम योग्यता और चतुराई के कारण इस्लामशाह ने इसे तरक्की देकर अपने दरबार में एक गुप्त पद पर नियुक्त कर दिया था। आदिलशाह के राजा बनते ही हेमू को एक. और महत्त्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित कर दिया गया। इस प्रकार, उसे अब अपनी सैनिक तथा सामान्य शासन-प्रबन्ध सम्बन्धी असाधारण योग्यता को प्रकट करने का अवसर प्राप्त हो गया और सैन्य-संचालन की योग्यता भी उसकी यथेष्ट थी। अपने गुणों और स्वामिभक्ति के कारण ही उसे प्रधानमन्त्री का सम्मानित पद प्राप्त हुआ था। मुस्लिम शासनकाल में हेमू के अतिरिक्त दूसरा कोई हिन्दू दिल्ली के राजसिंहासन पर नहीं बैठ सका था। अपने मालिक के लिए उसने 24 लडाइयां लड़ी थीं और इन 24 में से 22 लड़ाइयों में विजय प्राप्त की थी। जब वह आगरा पर आक्रमण करने के लिए बढ़ रहा था तो उन्हीं दिनों हुमायूं की मृत्यु हो गयी और ग्वालियर का गवर्नर हेमू से सामना किये बिना ही दिल्ली की ओर भाग गया। हेमू ने आगरा पर अधिकार कर लिया और यहां की सारी सम्पत्ति उसके कब्जे में आ गयी। यहाँ से वह दिल्ली की ओर बढ़ा और दिल्ली के गवर्नर तरदीबेगखाँ ने 7 अक्तूबर, 1556 ई० को तुगलकाबाद में हेमू का सामना किया। इस युद्ध में तरदीबेगखां पराजित हुआ सरहिन्द की ओर भाग गया।
इस प्रकार ग्वालियर से सतलज नदी तक का सम्पूर्ण क्षेत्र हेमू के अधिकार में आ गया। अब उसने स्वयं को एक स्वतन्त्र शासक बनाने तथा महाराज बनने के लिए विक्रमादित्य के नाम से दिल्ली के किले में अपना राज्यारोहण-संस्कार मनाया। इस प्रकार मध्यकालीन भारत में वही प्रथम और एकमात्र हिन्दू राजा हुआ, जिसने इस प्रकार दिल्ली के राजसिंहासन पर अपना अधिकार जमाया। 350 वर्षों के विदेशी शासन को देश से उखाड़ फेंकने और दिल्ली में स्वदेशी शासन को पुनः स्थापित करने के हेमू के साहसपूर्ण प्रयत्न की जितनी भी प्रशंसा की जाय थोड़ी है।
पानीपत का द्वितीय युद्ध (5 नवम्बर, 1556 ई०)
दिल्ली और आगरा के पतन के समाचार से मुगल सहम गये। उन्होंने अपने बादशाह को सलाह दी कि काबुल को चल दिया जाय, क्योंकि इनकी (मुगलों की) संख्या २०,००० से अधिक नहीं थी, जबकि दूसरी ओर हेमू की सेना में एक लाख सैनिक थे जो इस समय उत्साह से चूर थे। किन्तु वैरमखाँ ने दिल्ली को पुनः प्राप्त करने का निश्चय किया और अकबर ने हृदय से अपने संरक्षक के निश्चय से सहमति प्रकट की। इस प्रकार बैरम खॉ के संरक्षण में अकबर 13 अक्तूबर को हेमू से मोर्चा लेने के लिए जालन्धर से चल पड़ा। यह मानना पड़ेगा कि सेना में से निराशा और नाउम्मीदी की भावना निकालकर उसमें पुनः विश्वास और साहस का संचार करने में अकबर और बैरम खॉ सफल रहे और मुगल सेना दिल्ली की ओर बढ़ती गयी।
इस समय तक हेमू ने अपनी स्थिति दृढ़ कर ली थी और अब वह मुगल सेना को आगे बढ़ने से रोक देने के प्रयत्न में लग गया। एक-दो सप्ताह के अन्दर ही दोनों ओर की सेनाएँ 5 नवम्बर, 1556 ई० के दिन पानीपत की ऐतिहासिक रणभूमि पर आमने-सामने आ गयीं। अलीकुलीखां ने सेना के मध्य भाग का संचालन अपने हाथों में लिया और सिकन्दरखां उजबेग को सेना का दायां तथा अब्दुल्ला खां उजवेग को बायां भाग सौंपा गया। अकबर तथा बैरम खां मुख्य सेना के साथ पाँच मील पीछे थे। हेमू की सेना में 30000 राजपूत और अफगान घुड़सवार तथा 1500 हाथी थे किन्तु हेमू के पास कोई तोपखाना नहीं था। हेमू ने अपनी सेना के मध्य में स्थान. ग्रहण किया और दायें अंग की सेना शादीखाँ कक्कड़ की अधीनता में तथा बायाँ अंग अपने भानजे रमैया की अधीनता में रखा। युद्धक्षेत्र में गोला-बारूद न होने पर भी हेमू ने पहली मुठभेड़ में बड़ी वीरता के साथ शत्रु सेना के बायें और दायें पक्ष को तहस-तहस कर दिया। मुगल सेना बड़ी वीरता से लड़ी, किन्तु फिर भी उसकी हिम्मत टूटने लगी और हेमू की विजय निश्चित दिखायी देने लगी। इसी बीच में शत्रु का एक तीर हेमू की आँख में आकर लगा और वह बेहोश हो गया। उसकी सेना उसे मरा हुआ जानकर भयभीत हो गयी और छिन्न-भिन्न होकर चारों ओर भागने लगी। हेमू के हाथी का महावत अपने मालिक को किसी सुरक्षित स्थान में ले जाने का प्रयत्न कर रहा था कि मुगल सेना के एक अधिकारी शाहकुली महरम ने उसे पकड़ लिया और हेमू को पकडकर अकबर के पास ले आया। बैरामखां ने अकबर को सलाह दी कि इस काफिर को अपने ही हाथों कत्ल कर ’गाजी’ की उपाधि कारण कीजिए। मुहम्मद आरिफ कन्धारी ने लिखा है कि उसने (अकबर ने) बैरामखां की बात मान ली और हेमू की गर्दन पर तलवार का वार किया और बैरामखां ने उसकी गर्दन धड़ से अलग कर दी।
पानीपत की दूसरी लड़ाई के परिणाम बड़े ही महत्त्वपूर्ण रहे और मुगलों की जीत पक्की हो गयी। हेमू के पतन के पश्चात उसकी सेना छिन्न-भिन्न हो गयी और उसकी पत्नी तथा पिता दिल्ली से मेवात भाग गये। इस लड़ाई के राजनीतिक परिणाम और भी अधिक व्यापक सिद्ध हुए। हिन्दुस्तान की राजसत्ता पर अफगानों का अधिकार जताना सदैव के लिए समाप्त हो गया। विजेताओं ने 6 नवम्बर 1556 ई0 को दिल्ली में प्रवेश किया और आगरा पर भी मुगलों का बड़ी जल्दी अधिकार हो गया। हेमू के वृद्ध पिता को पकड़कर मुसलमान बनने को बाध्य किया गया और उसके ऐसा न करने पर उसे कत्ल कर दिया गया। सिकन्दर सूर को दबाने के लिए भी शीघ्र व्यवस्था की गयी और उसे मई 1557 ई० में आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य किया गया। दिल्ली सिंहासन का एक दूसरा सूर-प्रतिद्वन्द्वी मुहम्मद आदिल बंगाल के गवर्नर से मुंगेर नामक स्थान पर लड़ते हुए मारा गया और तीसरे सूर-प्रतिद्वन्द्वी इब्राहीम ने उड़ीसा में जाकर आश्रय ग्रहण किया। इस प्रकार पानीपत की विजय के पश्चात दो वर्ष के अन्दर ही सूर-वंश के प्रतिद्वन्द्वियों में से ऐसा एक व्यक्ति शेष न रहा जो हिन्दुस्तान की शासन-सत्ता पर अकबर के अधिकारों को चुनौती देता।
बैरम खॉ का संरक्षण काल (1556-60 ई0)
बैरम खॉ के हाथों में लगभग चार वर्षो तक साम्राज्य की बागडोर रही। संरक्षक के रूप में बैरामखां की सबसे बड़ी सफलता हेमू को पराजित करना और अकबर के प्रतिद्वन्द्वियों को नष्ट करना था। अब जिस प्रमुख समस्या को उसे हल करना था, वह थी पानीपत की लड़ाई के पश्चात अकबर के अधिकार में आये हुए प्रदेशों में शासन-व्यवस्था स्थापित करना। समय की आवश्यकता के अनुसार शान्ति-व्यवस्था के स्थापनार्थ तथा मालगुजारी. वसूल करने के लिए एक साधारण और कामचलाऊ सरकार स्थापित कर दी गयी। इस काल में उसने अमीरों पर पूरा नियंत्रण रखा और साम्राज्य का विस्तार काबुल से लेकर पूरब में जौनपुर और पश्चिम में अजमेर तक था। ग्वालियर भी अधिकार में आ गया और रणथम्भौर और मालवा को जीतने के लिए सेनाएॅ भेजी गई परन्तु इसमें कोई खास सफलता नही मिल सकी। इस दौरान बैरामखाँ ने अकबर की शिक्षा का प्रबन्ध किया और मीर अब्दुल लतीफ को उसका शिक्षक नियुक्त किया।
इस बीच अकबर वयस्क हो रहा था और वह राज्य के मामलों को बहुत दिनों तक किसी दूसरे व्यक्ति के हाथों में नही छोड सकता था। शीध्र ही अकबर ने एक फरमान जारी कर बैरम खॉ को उसके पद से हटा दिया और अकबर ने उसे मक्का की तीर्थयात्रा पर जाने को कहा, जिसका मतलब उन दिनों निर्वासन समझा जाता था। इस सम्बन्ध में इतिहासकारों का मानना है कि बैरामखां यद्यपि एक बड़ा ही स्वामिभक्त और सफल शासक तथा संरक्षक था तथापि वह मुगल दरबारियों में लोकप्रिय नहीं बन सका। वह शिया मतावलम्बी था जबकि बादशाह और उसके पारिवारिक-जन सुन्नी थे। दूसरे, यद्यपि वह साम्राज्य के प्रति निष्ठावान था तथापि उसके निर्णय बड़े ही निरंकुश और उसका स्वभाव क्रोधी तथा ईर्ष्यालु था। तीसरे, अकबर जैसे-जैसे आयु प्राप्त करता गया और राजकाज में दिलचस्पी लेने लगा, यह स्वाभाविक था कि इससे संरक्षक का प्रभाव कम होने लगे। इससे बैरामखां थोड़ा-सा अधैर्यशाली हो गया और स्थिति को संभालने में उसने समझदारी से काम नहीं लिया। उसके शत्रु उसके दुर्गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रकट करने तथा उसके अभिप्रायों को तोड़-मरोड़कर बादशाह के सामने रखने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। चौथे, अकबर अब वयस्क होता जा रहा था। संरक्षण के बन्धन तोड़कर स्वयं अपनी सत्ता जताने के लिए वह उत्सुक था। पाँचवें, बादशाह के निकट परिचारक तथा परिचारिकाएँ जैसे उसकी धाय-मां माहम अनगा और उसका बेटा आधमखां तथा दामाद शिहाबुद्दीन अपने संरक्षक बादशाह के बढ़ते हुए साम्राज्य की समृद्धि में अपना भी लाभ देखने तथा कुछ शक्ति प्राप्त करने के लिए उत्सुक थे और इस दिशा में बैरामखां को अपने मार्ग की रुकावट समझकर बादशाह अकबर और उसकी मां के कान भरते रहते थे। इन कारणों से बैरामखां और अकबर के मध्य कुछ तनाव पैदा हुआ जो बाद में कुछ घटनाओं के कारण पारस्परिक सम्बन्धों के टूटने में परिवर्तित हो गया। अपने मित्रों की सलाह के बावजूद बैरामखां ने मुगल राजपरिवार के प्रति जीवनपर्यन्त की अपनी स्वामिभक्ति तथा सेवा पर धब्बा डालना उचित नहीं समझा और कुछ सोच-विचार के पश्चात बादशाह की आज्ञा का पालन करते हुए अपने पद की मुहर बादशाह के पास भेज दी और वह राजस्थान से होकर पाटन (अन्हिलवाड़ा) की ओर चल पड़ा, जहाँ पर अफगानों के एक दल ने उस पर हमला बोल दिया और मुबारकखाँ नाम के एक व्यक्ति ने उसका कत्ल कर दिया। अकबर ने बैरम खॉ के परिवार के सदस्यों को अपने दरबार में बुलाया और उनका स्वागत किया। उसने बैरमखाँ की विधवा सलीमा बेगम से विवाह कर लिया और उसके बच्चे अब्दुर्रहीम का अपने संरक्षण में पालन-पोषण किया। यही बालक आगे जाकर ऊंचे पद पर पहुंचा और १५८४ ई० में अपने पिता के समान ही इसने खानखाना की उपाधि प्राप्त की।
बैरम खाँ के पतन के बाद 1560 से 1562 ई0 के मध्य राज परिवार के महिला सदस्यों का ही शासन पर अप्रत्यक्ष नियन्त्रण हो गया इसीलिए इसे पर्दा शासन कहा जाता है। इस शासन में अकबर की धाय माँ माहम अनगा और उसका पुत्र आधम खाँ, जीजी अनगा, शिहाबुद्दीन अहमद आदि लोगों का प्रभुत्व था। जब आधम खाँ ने अकबर के प्रधानमंत्री शम्सुद्दीन आतग खाँ की हत्या कर दी तब अकबर ने आधम खाँ को अपने महल से नीचे फेंक दिया और इस तरह पर्दा शासन का अन्त हो गया।
प्रारम्भिक सुधार
युद्धबन्दियों को गुलाम बनाना बन्द (1562 ई०)
बीस वर्ष की अवस्था प्राप्त करने के पश्चात ही अकबर ने अपनी विशाल हृदयता का परिचय देना आरम्भ किया। यह वह गुण था जिससे उससे पूर्व भारत के मुसलमान शासक वंचित थे और ऐसे गुणों के कारण उसकी गणना भारतवर्ष में सर्वश्रेष्ठ मुसलमान शासक के रूप में की जाती है। 1562 ई० के आरम्भ में ही उसने आज्ञा जारी करके युद्धबन्दियों को गुलाम बनाने की प्रथा पर रोक लगा दी। मध्यकाल में यह प्रथा थी कि जो सैनिक युद्ध में पकड़े जाते थे, उन्हें गुलाम बनाकर रखा जाता था और उनको इस्लाम धर्म में बलात दीक्षित किया जाता था। बादशाह की इस आज्ञा के द्वारा न केवल यह अमानवीय प्रथा ही दूर हई, साथ ही इतने बड़े पैमाने पर होने वाले धर्म परिवर्तन से भी हिन्दू धर्म की रक्षा हुई।
तीर्थ-यात्रा कर का उन्मूलन (1563 ई०)-
अकबर की उदार नीति का दूसरा दृष्टान्त तब सामने आया जब 1563 ई0 में एक फरमान द्वारा सम्पूर्ण साम्राज्य में तीर्थ-यात्रा के लिए लगने वाले कर को समाप्त करने की घोषणा की गई। उस वर्ष जब अकबर मथुरा में ठहरा हुआ था तब उसको बताया गया कि उसकी सरकार उन यात्रियों पर कर लगाती है जो हिन्दू तीर्थ स्थानों की यात्रा करते है। उसने अनुभव किया कि ईश्वर की अराधना के लिए जाने वाले लोगों से कर वसूल करना तो ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध है, भले ही उनकी विधि गलत और भ्रमपूर्ण ही क्यों न हो।
जजिया कर की समाप्ति (1564 ई०)-
1564 ई के आरंभ में ही एक अन्य फरमान द्वारा अकबर ने मुगल साम्राज्य में गैर-मुसलमानों से वसूल किया जाने वाला धार्मिक कर, जजिया बन्द कर दिया। वास्तव में जजिया कर को लोग बडी घृणा की दृष्टि से देखते थे और यह हिन्दूओं के उपर तो भारस्वरुप था। अकबर अपनी प्रजा के विभिन्न सम्प्रदायों के साथ किसी भी तरह का भेदभाव बरतना नही चाहता था इसलिए अपने राजकोष की हानि को सहन करते हुए भी इस कर को बन्द कर दिया। इस सुधार द्वारा अकबर को सम्पूर्ण देश के विशाल बहुमत की सहानुभूति और शुभ कामना प्राप्त हो गयी।
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