Inroduction (विषय प्रवेश) :
मध्यकालीन भारत के इतिहास में एक कुशल प्रशासक के रुप में शेरशाह का नाम विशेष रुप से उल्लेखनीय है। शेरशाह ने स्वयं कहा है कि –“अगर भाग्य ने मेरा साथ दिया और सौभाग्य मेरा मित्र रहा तो मैं मुगलों को सरलता से हिन्दुस्तान से बाहर निकाल दूंगा।“ शेरशाह ने अपने कहे गये शब्दों को अक्षरतः सत्य सिद्ध किया और उसने उत्तर भारत में सूरवंश नामक द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की। सूर राजवंश ने देश के प्राचीन शासन व्यवस्था को पुनर्जिवित किया है और साथ ही साथ उसने उपयोगी तथा आवश्यक सुधार भी किये जिनसे जनता को शान्ति, सुव्यवस्था और समृद्धि प्राप्त हुई। इस राजवंश के काल में अन्तिम बार एक अफगानी राजवंश दिल्ली के सिंहासन पर विराजमान हुआ और इसी केन्द्र स्थान से उसने उत्तर भारत पर शासन संचालन किया। शेरशाह भारतीय इतिहास के उन महान व्यक्तियों में से था जो केवल अपने परिश्रम, योग्यता और अपनी तलवार की शक्ति के आधार पर साधारण व्यक्ति के स्तर से उठकर राज्य के शीर्षपद तक पहुंचने में सफलता अर्जित की। शेरशाह न तो किसी राजवंश से, न किसी धनाढ्य परिवार से और न ही किसी ख्यातिप्राप्त धार्मिक अथवा सैनिक नेता से सम्बन्धित था। जो कुछ भी उसने प्राप्त किया वह केवल अपने स्वयं के पौरुष और पुरुषार्थ से प्राप्त किया। यही कारण है कि उसकी गणना महान व्यक्तियों में की जाती है।
प्रारंभिक सफलताएँ –
शेरशाह सूरी का बचपन का नाम फरीद था और उसके पिता हसन खान सहसराम के एक छोटे से जागीरदार थे। सोन नदी के किनारे सहसराम में फरीद ने अपनी तरुणावस्था के प्रारंभिक वर्ष व्यतीत किये थे। कालान्तर में जौनपुर के शिक्षण संस्थान में फरीद ने प्रवेश पा लिया और अपनी शिक्षा दीक्षा समाप्त कर पुनः सहसराम में आकर अपने पिता की जागीर का प्रबन्ध करने लगा। अपने पिता की मृत्यु के बाद वह उस जागीर का उत्तराधिकारी बना। इसके बाद उसने बिहार के स्वतंत्र शासक बहार खॉ लोहानी के यहाँ पद प्राप्त कर लिया। बहार खाँ उसकी सेवा से प्रसन्न था और एक दिन शिकार में एक शेर को बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के मार देने के पुरस्कारस्वरुप उसने फरीद को शेरखाँ की उपाधि से विभूषित किया। अपने शत्रुओं के षडयंत्रों के कारण न केवल उसे अपनी जागीर से हाथ धोना पडा अपितु उसे पुनः बिहार छोडना पड़ा और 1527 ई0 में वह बाबर के खेमे में सम्मिलित हो गया। उसकी निष्ठा से प्रभावित होकर बाबर ने उसकी पैतृक जागीर उसे पुनः दे दी। बिहार लौटकर वह जलाल खॉ का उपराज्यपाल बन गया। इस पद पर रहते हुए उसने अनेक क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की। इसी बीच चुनार के एक पूर्व गवर्नर ताजखॉ की विधवा पत्नी लाड मलिका से शादी कर लेने पर उसे चुनार दुर्ग प्राप्त हो गया जिससे उसकी सैनिक और आर्थिक स्थिती और भी मजबूत हो गयी। शीध्र ही लोहानी वंश के अफगान तथा जलाल खॉ उससे ईर्ष्या करने लगे और बंगाल के शासक के साथ मिलकर उसपर हमला किया। शेरशाह ने 1533 ई0 में सूरजगढ के मैदान में इस संयुक्त सेना को पराजित किया और इस प्रकार वह बिहार का निर्विरोध शासक बन गया। सूरजगढ के विजय से शेरशाह की विजय लालसा बढ गई और उसने बंगाल पर चढाई कर दी। इस संघर्ष में बंगाल का शासक पराजित हुआ और बंगाल के शासक ने अपने राज्य का कुछ भाग देकर सन्धि का प्रस्ताव किया। इससे शेरशाह की प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि हुई और अनेक अफगान सामन्त उससे मिल गये। अफगान सरदारों के समर्थन से प्रोत्साहित होकर उसने 1537 ई0 में पुनः बंगाल पर चढाई कर दी। हुमायूँ इस समाचार को सुनकर शेरशाह का विरोध करने के लिए चुनार दुर्ग की घेरेबंदी कर दी। चुनार के दुर्ग में नियुक्त सैनिक टुकड़ियों की वीरता, साहस और धैर्य से वह विचलित हो गया। इस अवधि में शेरशाह ने बंगाल की राजधानी गौड पर अधिकार कर लिया। हुमायूँ इस समय बंगाल पर हमला करने के लिए गौड पहुंचा लेकिन शेरशाह ने हुमायूँ की सेना का सामना करने के स्थान पर मुगल आधिपत्य के अन्य क्षेत्रों पर अधिकार करना प्रारंभ कर दिया। अपने स्वभाव के अनुरुप हुमायूँ ने अपना समय आमोद-प्रमोद में व्यतीत किया लेकिन शेरशाह की गतिविधियों को सुनकर वह आगरा की ओर चल दिया। मार्ग में शेरशाह ने उसको रोक लिया और 1539 ई0 में चौसा के युद्ध में शेरशाह ने हुमायूँ को पराजित किया। मुगल सेना पूरी तरह से नष्ट-भ्रष्ट हो गयी और हुमायूँ किसी तरह जान बचाकर आगरा लौट सका।
चौसा के युद्ध में शेरशाह की विजय एक महान उपलब्धि थी। अब वह एक बडे भू-भाग का शासक बन बैठा। इसी समय उसने शेरशाह की उपाधि धारण की और अपने नाम का खुतबा पढवाया। अपने नाम के सिक्के प्रचलित किये। शेरशाह की बढती हुई शक्ति को रोकने के लिए हुमायूँ ने पुनः शेरशाह पर हमला किया और 1540 ई0 में कन्नौज के निकट विलग्राम के युद्ध में पुनः हुमायूँ की पराजय हुई। शेरशाह ने मुगलों का पीछा आगरा तक किया और इस प्रकार हुमायूँ को आगरा छोड सिन्ध की ओर भागना पड़ा। इस प्रकार लगभग 15 वर्षों तक हुमायूँ ने निर्वासित जीवन व्यतीत किया। कन्नौज की विजय के बाद शेरशाह ने सिन्धु नदी और झेलम नदी के मध्य रहने वाली जनजातियों को पराजित किया और एक विशाल भू-भाग का स्वामी बन बैठा। इस प्रकार शेरशाह हिन्दुस्तान का शासक बनने में सफल हुआ और भारत में उसने सूर साम्राज्य की स्थापना की।
सैनिक अभियान :
बंगाल की विजय, 1541 ई0 –
शेरशाह की अनुपस्थिती में बंगाल के सूबेदार खिज्र खाँ ने एक स्वतंत्र राजा की तरह व्यवहार करना प्रारंभ कर दिया। शेरशाह ने शीध्रता से खिज्र खॉ को दबाने के लिए बंगाल की ओर प्रस्थान किया और उसे बर्खास्त करते हुए उसे बन्दी बना लिया। ऐसे किसी भावी उपद्रव से बचने के लिए उसने फौजी गवर्नर की नियुक्ति को समाप्त करने का निश्चय किया और बंगाल में एक नये तरह का शासन प्रबन्ध किया गया और इस प्रान्त को कई सरकारों जिला में विभक्त कर दिया और प्रत्येक सरकार में एक शिकदार की नियुक्ति की गई। शिकदार एक सैनिक अधिकारी होता था और उसके पास शान्ति और सुव्यवस्था की स्थापना के लिए एक छोटा सा सैनिक दल भी होता था। शिकदारों की नियुक्ति केवल बादशाह करता था और वे केवल उसी के प्रति उत्तरदायी होते थे। इस व्यवस्था ने प्रान्तीय शासन के सैनिक स्वरुप को एकदम बदल दिया और पुरानी व्यवस्था के स्थान पर एक नवीन शासनतंत्र की स्थापना कर दी।
मालवा की विजय, 1542 ई०
बंगाल से निपटने के बाद शेरशाह ने 1542 ई0 में मालवा पर चढाई की। वहाँ का शासक मल्लू खाँ ने एक तो मुगलों के विरुद्ध अभियान में उसकी कोई मदद नही की थी और दूसरा वह स्वतंत्र राजा बन कर शेरशाह की बराबरी का दावा कर रहा था। ग्वालियर दुर्ग के गवर्नर ने सर्वप्रथम शेरशाह की अधीनता स्वीकार कर ली। इसके बाद वह सारंगपुर की ओर बढा जहाँ उज्जैन से चलकर मल्लू खॉ ने शेरशाह की अधीनता स्वीकार कर ली। इस प्रकार इन दोनों ने मालवा की राजधानी उज्जैन में प्रवेश किया। मालवा के एक बहुत बड़े भाग को शेरशाह ने अपने राज्य में मिला लिया और शुजात खाँ को वहाँ का गवर्नर नियुक्त किया। उज्जैन से आगरा लौटते समय शेरशाह रणथम्भौर होकर गुजरा और वहाँ के दुर्ग के अधिकारी को दुर्ग उसके हाथ में सौंप देने के लिए उसने सफलतापूर्वक राजी कर लिया।
रायसीन की विजय, 1543 ई0
तात्कालीन समय में मध्य भारत में रायसीन एक महत्वपूर्ण रियासत थी जिसका राजा पूरनमल था। पूरनमल ने चन्देरी पर विजय प्राप्त कर वहाँ के बहुत से सम्पन्न मुसलमान परिवारों को बेघर बनाकर छोड़ दिया था। शेरशाह को यह भी सूचना मिली थी कि पूरनमल ने प्राचीन सामन्ती मुस्लिम परिवारों को अपने अधीन कर रखा था और उनकी महिलाएं गुलाम बनाकर नर्तकियों का पेशा अपनाने के लिए मजबूर की गई थी। इस प्रकार इस कार्य हेतु दण्डित करने और वहाँ की समृद्धशाली रियासत पर कब्जा करने के लिए 1543 ई0 में शेरशाह ने मांडू होते हुए रायसीन का घेरा डाल दिया। घेरा बहुत दिनों तक पड़ा रहा और अन्ततः शेरशाह ने किले में रसद सामग्री की आपूर्ति पर रोक लगा दी। लेकिन फिर भी वहाँ के राजपूतों ने आत्मसमर्पण नही किया। शेरशाह ने कुरान पर हाथ रखकर राजा पूरनमल और उनके लोगों की सुरक्षा की कसम खाई तब जाकर पूरनमल ने आत्मसमर्पण किया। पहले वह वचन का पालन करता रहा परन्तु मुस्लिम विधवाओं की अपील और काजियों की सलाह पर अन्ततः उसने पूरनमल पर आक्रमण करने का निश्चय किया। जब सुबह पूरनमल ने देखा कि शेरशाह की सेना आक्रमण के लिए तैयार है तो उसने अपने स्त्रियों को अपने ही हाथों मार दिया और सभी राजपूतो ने भी यही किया ताकि वे रणक्षेत्र में निर्भिक होकर अफगान सैनिकों का सामना कर सके। जिस समय राजपूत अपने स्वजनों की हत्या में लगे थे उसी समय अफगान सैनिक उनपर टूट पडे। पूरनमल और उसकी सेना के एक एक सदस्य ने महान साहस और वीरता का परिचय दिया लेकिन शत्रु की सामने ये बहुत देर तक टिक नही सके और वे बुरी तरह पराजित हुए और उनका एक आदमी भी जीवित नही छोडा गया। पूरनमल के विरुद्ध शेरशाह का यह विश्वासघात उसके नाम पर एक बहुत बडा धब्बा माना जाता है।
मालदेव से युद्ध : राजस्थान पर अधिकार, 1544 ई0
मेवाड के राणा सांगा की मृत्यु के पश्चात मारवाड के राज्य ने जिसकी राजधानी जोधपुर थी, राजस्थान के स्वतंत्र राज्यों में प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया था। इसका राजा मालदेव राठौर था जो मध्य भारत का सबसे प्रमुख राजा था। मालदेव ने राजस्थान के अनेक क्षेत्रों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर अपने राज्य का अभूतपूर्व विस्तार किया था। उसके राज्य की सीमाएँ दिल्ली से मात्र 30 मील दूर झज्झर नामक स्थान तक आ गई थी जो अफगान बादशाह के लिए चिन्ता का कारण था। दूसरी तरफ हुमायूँ भी शेरशाह से बचकर मारवाड क्षेत्र में छुपा हुआ था और शेरशाह चाहता था कि मालदेव हुमायूँ को बंदी बनाकर उसके हाथों सौप दे। इस प्रकार परिस्थितियाँ ऐसी बन चुकी थी कि दोनों के बीच युद्ध अवश्यंभावी था। 1543 ई0 के अन्त में शेरशाह ने मारवाड विजय का निश्चय किया और लगभग अस्सी हजार सैनिकों को लेकर मालदेव पर चढाई कर दी। शत्रु के आगमन की सूचना पाकर मालदेव लगभग चालीस हजार की फौज लेकर अपनी राजधानी को बचाने और शत्रु से टक्कर लेने के लिए चल पडा। इस प्रकार दोनो की सेनाए जयतरण के समीप सुमेल नामक गाँव पर एक माह तक पडी रही और इस दौरान मालदेव ने शेरशाह के सैनिकों और घोडों की रसद सामग्री की आपूर्ति पूरी तरह बाधित कर दी। मालदेव के हाथों में फंसे हुए शेरशाह ने इस विकट स्थिती से निकलने के लिए एक चाल चली। मालदेव के साथी सरदारों के नाम एक जाली पत्र लिखवाकर मालदेव के खेमें में इस प्रकार गिरा दिया गया कि वह मालदेव तक पहुँच जाय। ऐसा हुआ भी और मालदेव ने इस पत्र को पढकर अपने साथी सरदारों द्वारा विश्वासघात किये जाने की आशंका में शेरशाह से युद्ध करने का विचार त्याग दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि साथी सरदारों ने अपनी विश्वसनीयता दिखाने के लिए वे अकेले ही अफगानों पर टूट पडे। लेकिन वे कहाँ तक लडते और इनका एक एक आदमी लडते हुए मारा गया। जबतक मालदेव को समझ आया तबतक बहुत देर हो चुकी थी और उसकी सेना तितर-बितर हो चुकी थी। मालदेव गुजरात की सीमा पर सिवाना चला गया और शेरशाह ने उसके प्रदेश को अपने अधिकार में कर लिया।
इस अभियान में शेरशाह राठौर राजपूतों की महान वीरता और उनके श्रेष्ठ पराक्रम के सामने काफी प्रभावित हुआ। उसे यह कहना पडा था कि – “एक मुट्ठी भर बाजरे के लिए वह करीब-करीब सारे हिन्दुस्तान का साम्राज्य ही खो बैठा था।“ बुन्देलखण्ड विजय, 1545 ई0 –
राजस्थान के सफल अभियान की समाप्ति के बाद शेरशाह ने कालिंजर की ओर प्रस्थान किया। वस्तुतः रीवॉ के राजा वीरभान जिसे शेरशाह ने अपने दरबार में बुलाया था, कालिंजर के राजा कीरतसिंह के यहाँ शरण प्राप्त किये हुये था। शेरशाह ने कालिंजर के राजा से प्रार्थना की थी कि राजा वीरभान को उसे सौंप दिया जाय किन्तु उसकी यह प्रार्थना ठुकरा दी गई। परिणामस्वरुप शेरशाह ने कालिंजर के विरुद्ध अभियान किया और 1544 ई0 में दुर्ग पर घेरा डाल दिया। यह घेरा लगभग एक वर्ष तक चलता रहा लेकिन दुर्ग पर अधिकार नही हो सका। अन्ततः शेरशाह ने दुर्ग को गोला-बारुद से उड़ाने का आदेश दिया। बारुद का जाल विछाने और गोलाबारी करने के लिए बुर्ज बनाने की आज्ञा दे दी गई। 22 मई 1545 ई0 को शेरशाह ने दुर्ग पर आक्रमण करने की आज्ञा दी और स्वयं बुर्ज पर चढ गया। बारुद के पतीले को जब फेंका गया तो इनमें से एक नगर-द्वार से टकराकर फटा और लौटकर गोला-बारुद की ढेरी पर गिरा जिससे भयंकर विस्फोट हुआ और शेरशाह बहुत बुरी तरह जल गया। यद्यपि आक्रमण सफल हुआ और कालिंजर दुर्ग अफगानों के अधिकार में आ गया लेकिन शेरशाह का देहावसान हो गया।
शेरशाह के उत्तराधिकारी :
शेरशाह का उत्तराधिकारी उसका दूसरा बेटा इस्लामशाह बना जिसने 1553 ई0 तक शासन किया। इस्लामशाह एक योग्य और कुशल शासक था पर उसकी अधिकांश उर्जा उसके भाइयों के विद्रोही तथा अफगानों के कबीलाई झगडों की भेंट चढ गई। इन्ही कारणों से तथा एक नये मुगल हमले के हमेशा मौजूद खतरे ने इस्लामशाह को अपना साम्राज्य विस्तार करने से रोका लेकिन मरने से पहले उसने अनेक प्रशासनीक सुधार किये जिनकों शेरशाह द्वारा स्थापित प्रशासन व्यवस्था के सन्दर्भ में समझा जा सकता है। कम ही आयु में उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों के बीच गृहयुद्ध छिड गया जिसके कारण हुमायूँ को अपना भारतीय साम्राज्य वापस पाने का अवसर मिल ही गया। 1555 ई0 में दो संगीन युद्धों में उसने अफगानों का हराकर दिल्ली और आगरा पर फिर से अधिकार कर लिया।
शेरशाह की शासन व्यवस्था :
शेरशाह एक योग्य प्रशासक था। वह अलाउद्दीन की नीतियों से बेहद प्रभावित था, विशेषकर सैनिक और राजस्व सुधार से। उसने अपने छोटे से कार्यकाल में ही अनेक सुधार किये। इसमें परम्परागत हिन्दू और मुस्लिम प्रशासन प्रणालियों से कई बाते ली गई थी, बाकी शेरशाह की मौलिक सूझबूझ थी। वह नये एवं पुराने भारत के बीच एक महत्वपूर्ण कडी सिद्ध हुआ। कीन के शब्दों में – “किसी सरकार ने यहाँ तक कि ब्रिटिश सरकार ने भी इस पठान जितनी बुद्धिमत्ता नही दिखाई।“
एक शासक के रुप में उसने स्वयं को एक योग्य राजनीतिज्ञ और प्रशासक सिद्ध किया। कई पहलुओं से उसने अकबर के लिए भूमिका तैयार की। उसका प्रशासन केन्द्रीय राज्य के सिद्धान्त पर आधारित था। संस्कृति, धर्म, भाषा आदि सभी क्षेत्रों में उसने उदार राजनीतिज्ञता का परिचय दिया। अकबर की भॉति उसका भी ध्यान लोगों के दिलों दिमाग को जीतने की ओर था। उसके रुप में एकात्मक भारत का पुराना सपना फिर साकार हुआ। अपने लगभग पाँच वर्षों के कार्यकाल में वह इसके लिए अथक परिश्रम करता रहा।
शेरशाह का हिन्दूओं से वर्ताव आमतौर पर सहिष्णु तथा न्यायपूर्ण था। उसने राज्य के महत्वपूर्ण पदों पर हिन्दुओं को नियुक्त किया। डा0 कानूनगों के अनुसार – हिन्दुओं के प्रति उसका व्यवहार तुच्छतापूर्ण सहनशीलता का नही अपितु आदरपूर्ण मतभेद का था जिसे राज्य में उचित सर्वमान्यता मिली।“ यद्यपि वह धार्मिक प्रवृति का मुसलमान था लेकिन वह रुढिवादी धर्मान्ध नही था। यद्यपि उसने जजिया कर तो समाप्त नही किया लेकिन किसी भी विजय अथवा शान्ति के प्रयास में हिन्दूओं का अमानुषिक नरसंहार नही किया। उसकी सेना में अनेक हिन्दू सेनाध्यक्ष भी थे और राज्य के उच्च पदों पर भी हिन्दुओं की नियुक्तियाँ की गई थी।
शेरशाह की प्रशासनिक व्यवस्था के अनुसार समस्त राज्य को 47 सरकारों में विभक्त कर दिया गया और इन सरकारों का पुनः परगनों में उपविभाजन किया गया था। प्रत्येक सरकार में एक अमीन, एक शिकदार, एक कोषाधिकारी अर्थात फोतदार और दो कारकून अर्थात लेखक जिनमें एक हिन्दू होता था, राज्य की समस्त घटनाओं का विवरण लिखने के लिए होते थे। प्रत्येक सरकार का सर्वोच्च अधिकारी ’शिकदार-ए-शिकदारन’ कहलाता था। परगनों में अमीनों के कार्य का निरीक्षण करने के लिए मुन्सिफ-ए-मुन्सिफान होता था। इसके अतिरिक्त एक कानूनगो भी होता था जो परगनों के लगान सम्बन्धी मामलों की पूरी-पूरी जानकारी रखता था। अमीन का काम भूमि की पैमाइश करवाना और लगान बन्दोबस्त का प्रबन्ध करना होता था। शिकदार एक सैनिक अधिकारी होता था। अपने क्षेत्राधिकार में अनावश्यक स्थानीय प्रभाव को रोकने के लिए अधिकारियों का हर दो या तीन वर्ष बाद स्थानांतरण कर दिया जाता था। वह प्रशासन के प्रत्येक विभाग का निरीक्षण स्वयं करता था। राज्य में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने की ओर उसने विशेष ध्यान दिया।
शेरशाह ने अपनी सेना का प्रबन्ध बडी कुशलता से किया। उसने एक स्थायी सेना रखी थी जिसके वेतन का भुगतान कुछ तो जागीर से होती थी और कुछ शाही खजाने से नगद रुपया देकर । रंगरुटों की भर्ती वह स्वयं करता था। अलाउद्दीन की ही भॉति उसने भी घोडों पर दाग लगाने की नीति अपनाई। उसकी सेना में अधिकतर घुडसवार थे। उसका तोपखाना भी बहुत बड़ा था। शेरशाह ने अपनी सेना को कई भागों में विभाजित कर दिया था और प्रत्येक भाग एक अनुभवी योग्य सेनापति के सुपुर्द था।
शेरशाह ने मुद्रा व्यवस्था के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन किया। उसने चॉदी के नये सिक्के निकलवाये जो ‘रुपया’ कहलाते थे। उसने ताम्बे के ’दाम’ भी प्रचलित किये। चॉदी के रूपये और ताम्बे के दाम के आधे, चौथाई, आठवे और सोलहवें भाग के सिक्के भी निकलवाये थे। चॉदी का रुपया 180 ग्रेन का था। इतिहासकार वी0ए0 स्मिथ के अनुसार – ‘‘यह रुपया वर्तमान ब्रिटिश मुद्रा प्रणाली का आधार है।‘‘ रुपये और दाम में 1 और 64 का अनुपात था। सिक्कों के उपर शेरशाह का नाम, उसकी पदवी, टकसाल का नाम अरबी लिपि में अंकित रहता था।
अपनी श्रेष्ठ न्याय व्यवस्था के कारण शेरशाह ने कुछ ही दिनों में अपनी प्रजा के दिलों में उँचा स्थान प्राप्त कर लिया था। उसका मानना था कि न्याय धार्मिक अनुष्ठानों में सबसे उत्तम है तथा काफिर और मुसलमान इसका एक समान अनुमोदन करते है। न्याय के मामले में वह उँच-नीच अथवा जातिगत भेदभाव नही करता था। न्याय के लिए विभिन्न स्थानों पर काजी नियुक्त किये गये थे, पर स्थानीय स्तर पर दीवानी और फौजदारी के मामले पहले की ही तरह ग्राम पंचायतों और जमींदारों द्वारा निपटाये जाते थे। उसकी न्याय व्यवस्था उच्च आदर्शों पर अवलम्बित थी। कानून और व्यवस्था बनाये रखने के लिए उसने पुलिस संगठन को नया स्वरुप दिया। गॉव के मुखिया को गॉव के अपराधों पर नियंत्रण रखने के लिए जिम्मेदार बनाया गया। चोर, डाकुओं और कृषकों का शोषण और दमन करने वाले को कठोर दण्ड दिया जाता था।
शेरशाह पहला शासक था जिसने राज्य के हित के लिए सार्वजनिक कल्याण पर विशेष बल दिया। व्यापार और वाणिज्य को प्रोत्साहित करने के लिए शेरशाह ने अनेक राजमार्गों का निमार्ण करवाया। डा0 कानूनगों के अनुसार – ये साम्राज्य की रक्तवाहिनी धमनियाँ थी जो सुषुप्त अंगों में नवीन शक्ति, चेतना और स्फूर्ति का संचार करती थी। शेरशाह द्वारा नीर्मित चार लम्बी दूरी की सडकें इस प्रकार थी दृ प्रथम, बंगाल के सोनारगॉव से आगरा, दिल्ली और लाहौर होते हुए सिन्धु नदी तक। आज इसे ही ग्राण्ड ट्रंक रोड के नाम से जाना जाता है। द्वितीय, आगरा से माण्डू तक। तृतीय, आगरा से जोधपुर और चित्तौड तक। चतुर्थ, लाहौर से मुल्तान तक। ये सडके व्यापार और वाणिज्य की प्रगति में काफी सहायक साबित हुई। इन सड़कों के दोनो ओर शेरशाह ने फलों के पेड लगवाये और स्वच्छ पेयजल के लिए कुएँ खुदवाये। सार्वजनिक हित का सबसे महत्वपूर्ण कार्य सरायों का निर्माण था। ये सराये पूर्ण तथा सुसज्जित थी एवं उनमें हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग रसोईये थे। लगभग हर दो कोस पर यात्रियों की सुविधाओं के लिए एक सराय का निर्माण कराया ।काफिलों के लिए शेरशाह ने कुल मिलाकर लगभग 1700 सरायों का निर्माण करवाया। ये सराये राजकीय डाक विभाग का भी काम करती थी और व्यापारिक केन्द्र भी थी।
भू-राजस्व व्यवस्था –
शेरशाह के शासनकाल में राज्य की आय के बहुत साधन थे जिनमें दो भागों में विभाजित किया जा सकता है – केन्द्रीय आय और स्थानीय आय । स्थानीय आय कई प्रकार के करों द्वारा प्राप्त होती थी जिन्हे ’अबवाब’ कहा जाता था। केन्द्रीय आय के स्रोत व्यापार, टकसाल, भेट, नमक, चुंगी, जजिया, खुम्स और जमीन पर लगाये जाने वाले कर थे। इन समस्त करों में भूमि पर लिया जाने वाला कर सबसे महत्वपूर्ण था और यह राज्य की आय का सबसे बडा साधन था।
राज्यारोहण के पश्चात शेरशाह ने उसी लगान व्यवस्था को भारत में लागू किया जिसे वह स्वयं सहसराम में लागू कर चुका था। एक समान पद्धति पर सम्पूर्ण जमीन की पैमाईश की जाती थी और प्रत्येक गाँव में खेती के योग्य भूमि का व्यौरा रखा जाता था। शेरशाह ने अपने विश्वासपात्र अधिकारी एवं घनिष्ठ मित्र अहमद खाँ से अपने साम्राज्य की भूमि का सर्वेक्षण करवाया था। पैदावार योग्य सभी भूमियों का तीन श्रेणियों में विभाजन कर दिया गया – अच्छी, साधारण और खराब । इन तीनों तरह की जमीनों पर होने वाली उपज का अनुमान कर लिया जाता था। इनकों जोडकर और तीन से भाग देकर प्रति बीघा जमीन की औसत पैदावार निकाल ली जाती थी। अब इस औसत पैदावार का एक तीहाई भाग भू-राजस्व निर्धारित कर दिया जाता था। सरकारी लगान नकद अथवा जिन्स दोनो रुपों में लिया जाता था लेकिन नकद लगान लेना ही अधिक पसन्द किया जाता था।
सरकार प्रत्येक किसान को पट्टा देती थी जिसमें किसान को जो लगान अदा करनी है उसका विवरण रहता था। प्रत्येक किसान को कबुलियतनामे पर हस्ताक्षर करने पडते थे जिसका आशय यह होता था कि वह निर्धारित लगान देना स्वीकार करता है। इन दोनो पत्रकों में किसान के अधिकार में जमीन का रकबा आदि दर्ज रहता था। हिन्दुस्तान में वर्तमान समय में लगान निश्चित करने की तीन प्रणालियाँ प्रचलित थी –
गल्ला बक्शी अथवा बटाई- इसका अभिप्राय पैदावार का किसान के साथ हिस्सा बॉट करने से था। वास्तव में यह परिपाटी सबसे प्राचीन है और भारत में सदियों से यह प्रचलित और लोकप्रिय है।
नश्क अथवा मुकताई अथवा कनकूत– इसका अभिप्राय जमीन की मोटे तौर पर पैदावार ऑकने से है। लगान निश्चित करने की यह प्रणाली किसान के लिए बड़ी अलाभकारी है।
नकदी अथवा जब्ती अथवा जमई- इसका आशय किसान और जमींदार अथवा सरकार के मध्य उस समझौते से है जिसके अनुसार तीन वर्ष या उससे अधिक समय तक प्रति बीघा प्रतिवर्ष के हिसाब से लगान निश्चित हो जाना है, चाहे खेत में कितनी ही पैदावार हो अथवा न हो।
इन तीनों प्रणालियों में नकदी को ही किसान ज्यादातर पसन्द करते थे। लगार के उपर सरकार किसान से जमीन का सर्वे करने वालों का मेहनताना भी वसूल करती थी। ये अतिरिक्त चार्ज सर्वे करने वालों की फीस के रुप में जरीवाना तथा कर एकत्र करने वालों की फीस के रुप में महासिलाना कहलाता था। यह कर प्रत्येक किसान को अदा किये हुए लगान पर ढाई से पाँच प्रतिशत तक देने पडते थे। इसके अतिरिक्त प्रत्येक किसान को सम्पूर्ण लगान पर ढाई प्रतिशत कर और देना पड़ता था जिसे हम बीमा फण्ड की तरह मान सकते है। यह कर अनाज के रुप में ही लिया जाता था। इस प्रकार जो खाद्य सामग्री एकत्रित होती थी उसे दुर्भिक्ष और अन्य प्राकृतिक प्रकोंपो के समय सस्ते भाव पर जनता को बेच दिये जाते थे। भू-राजस्व संग्रह करने के लिए अनेक अधिकारी व कर्मचारी जैसे अमीन, मुकद्दम, शिकदार, कानूनगों, पटवारी नियुक्त किये जाते थे। निश्चित समय पर, नियमित रुप से पूर्ण भुगतान पर विशेष बल दिया जाता था।
कृषकों की भलाई का शेरशाह ने पूरा-पूरा ख्याल रखा था। उसका मानना था कि किसानों का हित साधन करने से सरकार को सदैव लाभ पहुंचता है। भू-राजस्व निर्धारित करते समय अधिकारियों को उदार रहने के आदेश थे लेकिन भू-राजस्व कठोरता से वसूल किया जाता था। मालगुजारी विभाग में अपने कठोर नियंत्रण से शेरशाह ने भ्रष्टाचार को समाप्त करने में सफलता पाई थी। प्रत्येक तीन वर्ष पर राजस्व विभाग के कर्मचारियों की बदली कर दी जाती थी ताकि वे भ्रष्टाचार में लिप्त न हो सके और किसानों पर अपना प्रभाव न जमा सके। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जागीर प्रथा अभी भी प्रचलित थी और भू-मापन व्यवस्था अनेक विरोधों के उपरान्त भी समस्त राज्य में मुल्तान को छोडकर एक ही थी।
शेरशाह की भू-राजस्व व्यवस्था में तीन प्रमुख दोष थे। मध्यम अथवा औसत भूमि एवं खराब भूमि के कृषकों को, अच्छी भूमि के कृषकों की अपेक्षा अपने वास्तविक उत्पादन का बहुत बड़ा भाग भू-राजस्व के रुप में देना पड़ता था। पहले दो प्रकार की भूमि के कृषक अपनी भूमि की उत्पादकता में सुधार करके अपने स्तर में सुधार कर सकते थे लेकिन जबतक भूमि की उत्पादकता में सुधार नही होता उनको इस असमानता को सहन करना पडता था। मोरलैण्ड का मत है कि– ‘‘उत्पादित फसलों की मित्रता से असमानता का सामंजस्य हो जाता होगा।“
दूसरे, नकद भुगतान के लिए निश्चित सूचना, द्रुत गति से आकलन पद्धति एवं आनुपातिक निर्धारण की आवश्यकता होती है, जो लालफीताशाही सामान्य प्रशासनिक व्यवस्था में संभव नही थी। भू-राजस्व की गणना में विलम्ब से स्थानीय समाहर्ताओं की कार्यकुशलता पर प्रभाव पडता था और रैयतों को भी कष्ट होता था।
तीसरे, अपने पदों का दुरुपयोग करने के लिए राजस्व अधिकारियों के एक अथवा दो वर्ष बाद स्थानान्तरण की प्रथा का श्रीगणेश किया गया था। लेकिन भ्रष्टाचारी अधिकारी अपनी अल्पावधि में भी भ्रष्ट तरीको से पर्याप्त धन एकत्र कर लेते थे।
लेकिन इन आलोचनाओं के वावजूद कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि उस समय काश्तकारों को अधिक कष्ट नही था क्योंकि शेरशाह स्वयं उनकी भलाई और उन्नति का ध्यान रखता था तथा उन लोगों को कठोर दण्ड देता था जो किसी भी रूप में इन्हे तंग करते थे। उसने अपने भू-राजस्व व्यवस्था में बीच के मध्यस्थ वर्ग के प्रभाव को समाप्त करने में निश्चित रुप से सफलता पाई। वास्तव में उसने प्रत्येक किसान और सरकार के मध्य सीधा सम्बन्ध स्थापित करने की व्यवस्था की थी इसलिए उसकी मालगुजारी व्यवस्था को रैय्यतवाडी बन्दोबस्त व्यवस्था कहा जाता है।
मूल्यांकन –
उपरोक्त विवरणों से यह स्पष्ट है कि वह एक महान संगठनकर्ता था। उसका लक्ष्य विजय था, केवल युद्ध नही। उसकी मुख्य सफलताएँ अफगानों को एकत्रित करना, राजवंश से सम्बन्धित न होते हुए भी केवल अपने परिश्रम से राज्यपद को प्राप्त करना और उस राज्य का श्रेष्ठ शासन प्रबन्ध करना था। शेरशाह का दूसरा कार्य अपनी योग्यता से दिल्ली के राजसिंहासन को प्राप्त करना था। शेरशाह की तीसरी और महान सफलता एक शासन प्रबंधक के रुप में है। अथक परिश्रम, कर्तव्यपरायण, अनेक सुधार और न्यायप्रियता के कारण शेरशाह का नाम भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है। इसमें शक नही है कि शेरशाह एक उल्लेखनीय हस्ती था। अपने पॉच साल के संक्षिप्त शासनकाल में उसने प्रशासन की एक ठोस व्यवस्था स्थापित की। सासाराम में अपने जीवनकाल में ही उसने अपने लिए जो मकबरा बनवाया वह वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना माना जाता है।
सर वूल्जले हेग ने कहा है कि- वह भारत के मुस्लिम सम्राटों में सर्वश्रेष्ठ था। डा0 आशीर्वादी लाल श्रीवास्वत ने उसे अकबर के पश्चात स्थान प्रदान किया है। डा0 आर0पी0 त्रिपाठी लिखते है कि- शेरशाह के सबसे निकट आनेवाला व्यक्तित्व मराठा राज्य के महान व्यक्तित्व शिवाजी ही है। इस प्रकार शेरशाह का स्थान मध्ययुग के महान शासकों में है और अफगान शासकों में तो वह निःसन्देह सर्वश्रेष्ठ था।
सन्दर्भ :
- सतीश चंद्र : मध्यकालीन भारत, राजनीती समाज और संस्कृति, ओरिएंट ब्लैकस्वान प्राइवेट लिमिटेड,पृ0सं0- 214 से 221
- आशीर्वादी लाल श्रीवास्वत : मुगलकालीन भारत, शिवलाल अग्रवाल एण्ड कम्पनी, पृ0सं0-77, 79, 81
- अब्बास सरवानी : तारीख-ए-शेरशाही, पृ0सं0-35, 38
- एन0वी0 राय : द सक्सेसर आफ शेरशाह, पृ0सं0- 92-95
- आशीर्वादी लाल श्रीवास्वत : शेरशाह और उसके उत्तराधिकारी, पृ0सं0- 128-30
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