window.location = "http://www.yoururl.com"; Humayun and His times | हुमायूँ और उसका शासनकाल

Humayun and His times | हुमायूँ और उसका शासनकाल

Introduction (विषय प्रवेश) :

नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ का जन्म काबुल में 06 मार्च 1508 ई0 को बाबर की पत्नी माहिम बेगम के गर्भ से हुआ था। बाबर की मृत्यु के बाद 23 साल की अवस्था में 30 दिसम्बर 1530 ई0 को हुमायूँ मुगल साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना। उसे बाबर की छोडी हुई अनेक समस्याओं से जूझना पड़ा। प्रशासन में पुख्तगी अभी नही आयी थी, राज्य की वित्तीय स्थिती अभी डॉवाडोल थी और अफगान अभी अधीन नही हुए थे तथा भारत में मुगलों को निकाल बाहर करने की आशा पाले बैठे हुये थे। उसके सामने एक और समस्या सभी भाइयों में साम्राज्य को बॉटने की तैमूरी परम्परा की भी थी। हुमायूँ जब आगरा के राजसिंहासन पर बैठा तो काबुल और कंदहार साम्राज्य में शामिल थे पर हिंदूकुश पर्वतों से परे बदक्ख्शों पर नियंत्रण ढीला ही था। काबुल और कंदहार हुमायूँ के छोटे भाई कामरान की निगरानी में थे और उसका मानना था उसकी निगरानी में उनका रहना स्वाभाविक ही था। पर कामरान गरीबी के मारे हुए इन क्षेत्रों से संतुष्ट न था। इसलिए उसने लाहौर और मुलतान की ओर कूच किया और उन पर अधिकार कर लिया। हुमायूँ कहीं और व्यस्त था और वह एक गृहयुद्ध भी आरंभ करना नहीं चाहता था इसलिए उसके पास इसे मान लेने के अलावा विकल्प भी नहीं था। कामरान ने हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर ली और जब भी आवश्यकता हो, उसकी सहायता का वचन दिया। कामरान की कार्रवाई ने यह आशंका पैदा कर दी कि हुमायूँ के दूसरे भाई भी जब कभी अवसर पाएँगे, यही रास्ता अपनाएँगे। लेकिन कामरान को पंजाब और मुल्तान देने का तत्कालिक लाभ यह हुआ कि अपनी पश्चिमी सीमाओं की चिंता किए बगैर हुमायूँ पूर्वी भागों पर ध्यान देने के लिए मुक्त हो गया।

इन बातों के अलावा हुमायूँ को पूरब में अफ़गानों की तेजी से बढ़ती शक्ति और गुजरात के शासक बहादुरशाह की बढ़ती महत्त्वाकांक्षा का भी सामना करना पड़ा। आरंभ में हुमायूँ का विचार यह था कि अफ़गान खतरा इन दोनों से कहीं अधिक गंभीर है। राज्याभिषेक के पश्चात हुमायूँ बुन्देलखण्ड के कालिंजर दुर्ग को घेरने के लिए चल पड़ा लेकिन अन्ततः उसे सुलह-समझौता करना पड़ा क्योंकि महमूद लोदी के नेतृत्व में अफगान जौनपुर की ओर बढे चले आ रहे थे। 1532 में दोराहा नामक एक स्थान पर उसने महमूद लोदी की अफ़गान सेनाओं को हराया जिन्होंने बिहार को जीता था और पूर्वी उत्तर प्रदेश में जौनपुर को तहसनहस कर डाला था। इस सफलता के बाद 1532 ई0 में ही हुमायूँ ने चुनार पर घेरा डाला। यह शक्तिशाली किला आगरा और पूरब के बीच के सीलमार्ग और जलमार्ग को नियंत्रित करता था तथा पूर्वी भारत का द्वार कहलाता था। हाल ही में वह अफ़गान सरदार शेरखान के अधिकार में आया था जो अफ़गान सरदारों में सबसे अधिक शक्तिशाली बन चुका था।

चुनार की घेराबंदी को जब चार माह हो चुके तो शेरखान ने हुमायूँ को मना लिया कि किला उसी के हाथों में रहने दिया जाए। बदले में उसने मुगलों का वफादार रहने का वादा किया और जमानत के तौर पर अपने बेटे को हुमायूँ के पास भेजा। हुमायूँ ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया क्योंकि उसे आगरा-वापसी की चिंता थी। गुजरात में बहादुरशाह की शक्ति की तीव्र वृद्धि ने तथा आगरा से लगे क्षेत्रों में उसकी सरगर्मियों ने हुमायूँ को चिंतित कर दिया था। वह किसी अमीर की कमान में चुनार का घेरा जारी रखने को तैयार न था क्योंकि इसका मतलब अपनी सेना को बाँटना होता। बहादुरशाह जो लगभग हुमायूँ की ही उम्र का था, एक योग्य और महत्त्वाकांक्षी शासक था।
1526 ई0 में गद्दी पर बैठने के बाद उसने पहले मालवा को जीता और फिर उसने राजस्थान का रुख करके चित्तौड़ पर घेरा डालकर राजपूतों के प्रतिरोध को छिन्न-भिन्न कर दिया। कुछ मान्यताओं के अनुसार इसी समय चित्तौड के विक्रमादित्य की माता और राणा साँगा की विधवा रानी कर्णावती ने हुमायूँ को राखी भेजकर उसकी मदद माँगी और हुमायूँ ने शूरवीरों की तरह उसका प्रत्युत्तर दिया। प्रारंभ में वह सेना लेकर चला भी लेकिन बाद में कुछ सोचकर उसने वापस लौटने का निश्चय किया। उधर मुगल हस्तक्षेप के डर से बहादुरशाह ने राणा से एक संधि कर ली जिसके अनुसार नकदी और वस्तु रूप में भारी हर्जाना लेकर किला राणा के पास रहने दिया। अगले डेढ़ साल के दौरान हुमायूँ ने दिल्ली में एक नया शहर बसाने में अपना समय लगाया; इसे उसने ’दीनपनाह’ नाम दिया। इस काल में उसने शानदार भोजों और समारोहों का आयोजन किया। हुमायूँ पर आरोप लगाया गया है कि पूरब में शेरखान जब बराबर अपनी शक्ति बढ़ा रहा था, तब उसने इन कार्यकलापों में अपना कीमती समय बर्बाद किया। दीनपनाह बसाने का उद्देश्य दोस्तों और दुश्मनों पर एक समान रोब डालना था। इसका मकसद यह भी था कि अगर आगरा पर बहादुरशाह का खतरा मँडराए तो यह दूसरी राजधानी का काम कर सके। बहादुरशाह इस बीच अजमेर को जीत चुका था और उसने पूर्वी राजस्थान को रौंद डाला था।

बहादुरशाह हुमायूँ के लिए कहीं बड़ा खतरा था। उसने अपने दरबार को उन सबका शरणस्थल बना दिया जो मुगलों से डरते या नफ़रत करते थे। उसने फिर चित्तौड़ का घेरा डाला और साथ ही इब्राहीम लोदी के चचेरे भाई तातार खान को हथियारों और सैनिकों की मदद दी। तय हुआ कि उत्तर और पूरब में ध्यान बंटाया जाए और तातार खान 40,000 की सेना के साथ आगरा पर आक्रमण करे। लेकिन हुमायूँ ने तातार खान की चुनौती को आसानी से मात दे दी। मुगलों के सामने आने पर अफ़गान सैनिक बिखर गए। तातार खान हारा और मार डाला गया। बहादुरशाह के खतरे को हमेशा के लिए मिटाने के वास्ते हुमायूँ ने अब मालवा पर हमला किया। इसके बाद के संघर्ष में हुमायूँ ने अच्छे-खासे सैन्य कौशल और उल्लेखनीय निजी शौर्य का परिचय दिया। बहादुरशाह मुगलों का सामना करने का साहस न कर सका। उसने चित्तौड़ को छोड़ दिया जिस पर वह अधिकार कर चुका था और मंदसौर के पास स्वयं को एक खेमे में किलाबंद कर लिया। लेकिन हुमायूँ की रणनीति ने उसे अपने सारे साज-सामान को छोडकर मांडू जाने पर मजबूर कर दिया। हुमायूँ सरगर्मी से उसका पीछा करता रहा। बहादुरशाह भागता रहा और हुमायूँ पीछा करता रहा। इस तरह मालवा और गुजरात जैसे समृद्ध प्रान्त तथा गुजरात के शासकों द्वारा मांडू और चम्पानेर में जमा किये गये भारी खजाने भी हुमायूँ के हाथ में आ गये। गुजरात और मालवा जितनी जल्छी हाथ आये थे उतनी ही जल्द निकल भी गए। गुजरात को जीतने के बार हुमायूँ ने अपने छोटे भाई अस्करी के नियंत्रण में दे दिया और वह मांडू चला गया। वहॉ वह बेहतरीन जलवायु का आनन्द लेने लगा।

एक प्रमुख समस्या गुजराती शासन की जनता के गहरे लगाव की थी। अस्करी अनुभवहीन था और मुगल अमीर आपस में बटे हुए थे। जनता के विद्रोहो की एक श्रृंखला ने अस्करी के हाथ पाँव फुला दिए। उसने चंपानेर का सहारा चाहा पर उसे किलादार से कोई सहायता नहीं मिली इसलिए अस्करी ने आगरा लौटने का फैसला किया। इससे तल्काल यह डर पैदा हो गया कि यह ’हुमायूँ को आगरा से बेदखल करने का प्रयास कर सकता है। कोई जोखिम न मोल लेकर हुमायूँ ने मालवा को छोड़ दिया और उसने अस्करी को राजस्थान में जा पकडा। दोनों भाइयों में सुलह हुई और वे वापस आगरा लौटे पर इस बीच गुजरात और मालवा दोनों हाथ से निकल गए थे। गुजरात की मुहिम पूरी तरह असफल नहीं रही। इस मुहिम के कारण मुगलों का इलाका तो नहीं बढ़ा, पर मुगलों के लिए बहादुरशाह का खतरा हमेशा के लिए मिट गया। हुमायूँ अब इस हाल में आ गया कि शेर खान और अफगानों के खिलाफ पूरी शक्ति लगा सके। कुछ ही समय बाद अपना एक जहाज पर पुर्तगालियों से हुई मुठभेड़ में बहादुरशाह डूब मरा। इसके साथ गुजरात की ओर से बचा हुआ खतरा भी समाप्त हो गया।

शेर खान से टकराव –

हुमायूँ के मालवा अभियान (फरवरी 1535 फरवरी 1537 तक) शेरखान ने अपनी स्थिति और मजबूत बना ली थी। उसने अपने को बिहार का निर्विवाद स्वामी भी बना लिया। यूँ तो वह मुगलों से वफादारी जतलाता रहा, पर भारत से मुगलों को निकालने की योजनाएँ भी बनाता रहा। बहादुरशाह के दिये संसाधनों के बल पर उसने एक बड़ी और कार्यकुशल सेना तैयार कर ली थी। इसी सेना की बदौलत उसने बंगाल के सुल्तान को हराने और उसे हर्जाना देने के लिए विवश किया था। एक नई सेना तैयार करके हुमायूँ ने शेरखान के खिलाफ़ कूच किया और साल के अंतिम भाग में चुनार को घेर लिया। हुमायूँ का विचार था कि ऐसे शक्तिशाली गढ़ को, जो उसकी संचार व्यवस्था को भंग कर सकता हो, पीछे छोड़ देना खतरनाक होगा लेकिन अफ़गान किले की जमकर रक्षा कर रहे थे। उस्ताद तोपची रूमी खान की बेहतरीन कोशिशों के बावजूद उस पर अधिकार पाने में हुमायूँ को छह माह लग गए। इस बीच शेरखान ने धोखे से रोहतास के मजबूत किले पर अधिकार कर लिया जहाँ वह अपने परिवार को सुरक्षित छोड़ सकता था। फिर उसने दूसरी बार बंगाल पर आक्रमण किया और उसकी राजधानी गौड़ पर अधिकार कर लिया।

इस तरह शेरखान ने हुमायूँ को पूरी तरह छकाया। हुमायूँ को यह महसूस कर लेना चाहिए था कि और भी सावधानी से तैयारी किए बिना वह शेरखान को फौजी चुनौती नहीं दे सकता। पर हुमायूँ अपने सामने मौजूद राजनीतिक और सैन्य स्थिति को समझने में असमर्थ रहा। गौड़ पर विजय के बाद शेरखान ने हुमायूँ के पास प्रस्ताव भेजा कि अगर बंगाल को उसके अधिकार में रहने दिया जाए तो वह बिहार को हुमायूँ को सौंप देगा और सालाना दस लाख दीनार का खिराज देगा। पर हुमायूँ बंगाल को शेरखान के लिए छोड़ने को तैयार न था। बंगाल सोने की धरती था क्योंकि वह वस्तुओं के उत्पादन में समृद्ध था और विदेशी व्यापार का केंद्र था। इसके अलावा बंगाल के सुल्तान ने, जो घायल होकर हुमायूँ के लश्कर मे पहुँच चुका था, यह बतलाया कि शेरखान का प्रतिरोध अभी भी जारी था। इन सभी कारणों से हुमायूँ ने शेरखान का प्रस्ताव ठुकरा दिया और बंगाल में मुहिम चलाने का फैसला किया। जल्द ही बंगाल का शासक अपने ज़ख्मों के कारण चल बसा। इस तरह हुमायूँ को बंगाल की मुहिम अकेले चलानी पड़ी। बंगाल में हुमायूँ का अभियान उस विनाश की प्रस्तावना था जो लगभग साल भर बाद उसकी सेना पर चौसा में टूटा। शेरखान बंगाल छोड़कर दक्षिण बिहार में था। उसने बिना किसी विरोध के हुमायूँ को बंगाल में घुसने दिया जिससे कि वह उसकी संचार व्यवस्था भंग करके उसे बंगाल की चूहेदानी मे फँसा सके। गौड़ पहुचकर हुमायूँ ने कानून-व्यवस्था की स्थापना के लिए तुरंत कदम उठाए पर इससे उसकी कोई भी समस्या हल नहीं हुई। गुजरात की तरह यहाँ भी लोग स्थानीय शासकों से लगाव रखते थे तथा मुगलों को बाहरी समझते थे। आगरा के तख्त पर बैठने का प्रयास करके उसके छोटे भाई हिंदाल ने हुमायूँ की स्थिति को और भी बदतर बना दिया। उसके और शेरखान के कार्यकलापों के कारण हुमायूँ आगरा से बिल्कुल कट गया। उसे न तो वहाँ से कोई समाचार मिल रहा था, न ही रसद-कुमक।

चौसा का युद्ध, 1539 ई0 –

गौड़ मे तीन-चार माह रहने के बाद एक छोटा-सा दस्ता छोड़कर हुमायूँ आगरा चला। अमीरों में असंतोष की सुगबुगाहट, बरसात का मौसम और अफ़गानों के बराबर परेशान करने वाले हमलों के बावजूद हुमायूँ बिना किसी गंभीर हानि के अपनी सेना को बक्सर के पास चौसा तक ले जाने में सफल रहा। यह एक बड़ी उपलब्धि थी जिसके लिए हुमायूँ श्रेय का अधिकारी है। इस बीच हिंदाल की बगावत को कुचलने के लिए कामरान लाहौर से आगरा पहुँच चुका था। निष्ठाहीन न होकर भी कामरान ने हुमायूँ को युद्ध सामग्री भेजने का कोई प्रयास नहीं किया। यदि वह युद्ध सामग्री भेज देता तो सैन्य-संतुलन मुगलों के पक्ष में हो सकता था। इन आघातों के बावजूद हुमायूँ को अभी भी शेरखान के मुकाबले सफलता का विश्वास था। वह भूल गया था कि अब उसका सामना ऐसी अफ़गान सेना से था जो सालभर पहले वाली सेना से बहुत भिन्न थी। इस सेना ने अफ़गानों में अब तक पैदा हुए सबसे कुशल सिपहसालार के नेतृत्व में युद्ध का काफ़ी अनुभव और आत्मविश्वास प्राप्त कर लिया था। शेरखान के शांति प्रस्ताव के चकमे में आकर हुमायूँ कर्मनाशा नदी पार करके उसके पूर्वी तट पर आ गया जहाँ डेरा डाले अफ़गान सवारों को उस पर हमला करने का पूरा-पूरा अवसर मिल गया। हुमायूँ ने कच्ची राजनीतिक समझ का ही नहीं, बल्कि कच्ची सिपहसालारी का भी परिचय दिया। उसने युद्धक्षेत्र का गलत चुनाव किया और खुद को ऐसी स्थिति में डाल लिया कि उसे संभलने का मौका ही नहीं मिला। लगभग तीन महीने तक दोनों ओर की सेनाएँ चौसा नामक स्थान पर एक दूसरे के सामने खडी रही पर किसी ओर से हमला नही किया गया। शेरखान तो जानबूझकर देर कर रहा था कि उसके अनुसार बरसात का मौसम आ जाने से मुगल सेना मुसीबत में पड सकती थी। जब वर्षा आरम्भ हो गयी तो शेरखान ने अपने हाथ दिखाने शुरु किये। मुगल शिविर कर्मनासा और गंगा नदी के बीच एक निचले स्थान पर था। वह स्थान बाढ के पानी से जल्दी ही भर गया और मुगलों का सारा प्रबन्ध अस्त-व्यस्त हो गया। शेरशाह ने यहाँ हुमायूँ को एक बार फिर चकमा दिया और उसकी सेना दूसरी ओर जाने लगी। यह देखकर हुमायूँ के सैनिक बे-खबर हो गये लेकिन 26 जून 1539 ई0 के आधी रात के वक्त शेरखान के सैनिकों ने बेखबर सोती मुगलों की सेना पर अचानक हमला कर दिया। मुगल सैनिकों को संभलने तक का वक्त नही मिला और पूरी सेना लगभग नष्ट-भ्रष्ट हो गयी। युद्धभूमि से हुमायूँ मुश्किल से अपना जान बचाकर भागा और एक भिश्ती की सहायता से नदी को पार किया। शेरखान को भरपूर लूट का माल हाथ लगा। इस युद्ध में लगभग आठ हजार मुगल सैनिक और अनेक प्रमुख अमीर मारे गए।

कन्नौज अथवा विलग्राम का युद्ध, 1540 ई0 –

बादशाह हुमायूं को यह मालूम था की शेरशाह की सेना उसकी सेना के मुकाबले ज्यादा ताकतवर एवं शक्तिशाली है और शेरशाह को इस लड़ाई में पराजित करना आसान नहीं है, इसी कारण उसने अपने भाइयों को इस युद्ध में मिलाने का प्रयास किया परंतु उसके भाई इस युद्ध में उसके साथ सम्मिलित ना हुए बल्कि वह हुमायूं की युद्ध की तैयारियों में अनेक तरह से रुकावटें डालने लगे। शेरशाह एक कुशल शासक था और उसको यह ज्ञात हो गया था कि हुमायूं के भाई कन्नौज के युद्ध में उसका साथ नहीं देने वाले हैं जिससे वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। जैसे ही शेरशाह को हुमायूँ के भाइयों के बारे में ज्ञात हुआ उसने अपनी सेना एवं अफगान साथियों के साथ हुमायूं पर आक्रमण करने का फैसला किया। हुमायूँ भी उसका सामना करने के लिए तैयार था। कन्नौज के युद्ध के लिए दोनों पक्षों की सेनाओं ने कन्नौज के पास ही गंगा के किनारे विलग्राम नामक स्थान पर अपना अपना पड़ाव डाला।
इतिहासकारों के मत के अनुसार दोनों सेनाओं की संख्या लगभग दो लाख थी, और दोनों सेनाएं लगभग एक महीने तक बिना युद्ध किए वहीं पर अपना पड़ाव डाले रही। शेरशाह को इस बात से कोई हानि नहीं थी परंतु हुमायूं की सेना के सिपाही धीरे-धीरे उसका साथ छोड़ कर चले जा रहे थे, इसी कारणवष हुमायूँ ने कन्नौज के युद्ध को प्रारंभ करना ही उचित समझा। युद्ध से दो दिन पूर्व 15 मई 1540 ई0 को भयंकर वर्षा के कारण मुगल शिविर में पानी भर गया। उचित अवसर देखकर शेरखान ने 17 मई 1540 ई0 को अपने सैनिकों को हमला करने की अनुमति प्रदान कर दी। अफगान सैनिकों ने इतनी तेज गति से हमला किया कि मुगलों को अपना तोप रणक्षेत्र तक लाना मुश्किल हो गया। इस युद्ध में अफगानी सेना ने हुमायूं के सेना को बड़ी आसानी से पराजित कर दिया इस प्रकार इस युद्ध में भी हुमायूँ की हार हुई। अफगान सेना ने भागती हुई मुगल सेना को नदी की ओर पीछा किया और कई सैनिकों को मार गिराया जिससे उसकी बड़ी क्षति हुई, बहुत से मुगल सैनिक नदी में डूब गए। स्वयं हुमायूँ को लाचार होकर युद्धक्षेत्र छोडकर आगरा की ओर भागना पड़ा। अफगान सेना के आगरा की ओर आने का समाचार सुनकर हुमायूँ को आगरा भी छोडना पड़ा और वह लाहौर की ओर चल पडा। लेकिन अपने भाईयों के विश्वासघात के कारण उसे सिन्ध की ओर पलायन करना पड़ा। कन्नौज के युद्ध के पश्चात ही हुमायूं को अपनी राजगद्दी छोड़कर भागना पड़ा और दिल्ली व आगरा का क्षेत्र शेरशाह सूरी के अधिकार में आ गया।

हुमायूँ का निर्वासित जीवन –

कन्नौज की लड़ाई ने शेरशाह और मुगलों के बीच मामले का फैसला कर दिया। अब हुमायूँ बिना राज्य का राजा था जबकि काबुल और कंदहार कामरान के हाथों में थे। 1541 से 1555 ई0 के मध्य अगले पन्द्रह बरसों तक वह अपना राज्य वापस पाने की अनेक योजनाएँ बनाता हुआ सिंध और आसपास के क्षेत्रों में भटकता रहा। लेकिन उसके उद्यम में सहायता देने के लिए न तो सिंध का शासक और न ही मारवाड़ का शक्तिशाली राजा मालदेव तैयार था। इससे भी बुरा यह हुआ कि उसके अपने भाई उसके खिलाफ़ हो गए और उसे मार डालने या कैद करने का प्रयास करने लगे। हुमायूँ ने धैर्य और साहस के साथ इन तमाम विपत्तियों का सामना किया। यही काल था जब हुमायूँ के चरित्र का बेहतरीन पहलू सामने आया। लगभग ढाई बरसों तक भटकते हुए हुमायूँ ने सिन्ध में अमरकोट के राणा वीरसाल के यहाँ शरण ली और राणा वीरसाल ने उसे धन और सैनिक देकर उसकी सहायता की। अन्ततः हुमायूँ ने 1545 ई0 में कंदहार और काबुल को फिर से जीतने में सफलता अर्जित की।
हुमायूँ के निर्वासन की अवधि में उसका प्रबल प्रतिद्वन्दी शेरशाह ने एक शक्तिशाली सूर साम्राज्य की स्थापना कर ली थी। 1545 ई0 में शेरशाह के देहान्त के बाद उसके उत्तराधिकारी लगातार कमजोर होते गये और इस स्थिती का लाभ पुन हुमायूँ ने उठाया। बैरम खाँ जैसे विश्वासपात्र की सहायता से हिन्दुस्तान पर पुनः अधिकार करने के लिए हुमायूं ने 1555 ई0 में लाहौर को भी अपने कब्जे में ले लिया। 15 मई 1555 ई0 में मुगलों एवं अफगानों के बीच मच्छीवाड़ा नामक स्थान पर युद्ध हुआ। इस युद्ध में अफगानों का नेतृत्व नसीब खाँ और तातार खाँ ने किया जिसमें अफगान पराजित हुए और पंजाब पर हुमायूं का अधिकार हो गया। भारतीय इतिहास में यह मच्छीवाडा के युद्ध के नाम से विख्यात है। अफगान शासक सिकन्दर सूर ने पंजाब को पुनः प्राप्त करने के इरादे से लगभग अस्सी हजार सिपाहियों के साथ दिल्ली से प्रस्थान किया। इस प्रकार 22 जून 1555 ई0 को सरहिन्द के युद्ध में एक बार फिर मुगलों एवं अफगानों के बीच भिडन्त हुई जिसमें अफगान बुरी तरह तरह पराजित हुए। सिकन्दर सूर उत्तर-पश्चिमी पंजाब की पहाडियों में छिप गया। इस युद्ध के बाद भारत का राजसिंहासन एक बार फिर पूरी तरह मुगलों के हाथ आ गया।

23 जुलाई 1555 को हुमायूं ने एक बार फिर लगभग पन्द्रह वर्षों बाद दिल्ली के तख्त पर ताजपोशी कराई। हालांकि वह मात्र छह महीने बाद ही उसकी मृत्यु हो गई। 24 जनवरी 1556 को संध्या के समय वह दिल्ली में ’दीनपनाह’ भवन स्थित पुस्तकालय की सीढियों से उतर रहा था, किन्तु दुर्भाग्यवश लड़खड़ाकर वह सीढियों से गिर गया और गंभीर रूप से घायल होने के कारण अन्ततः 27 जनवरी 1556 ई0 को उसकी मौत हो गई। इस प्रकार जैसा कि इतिहासकार लेनपूल ने लिखा है – “हुमायूँ गिरते-पडते इस जीवन से मुक्त हो गया, ठीक उसी तरह जिस तरह तमाम जिन्दगी भर वह गिरते-पडते चलता रहा था।“ हुमायूँ का जीवन रूमानियत भरा है। वह अमीर से कंगाल बना और फिर कंगाल से अमीर हुआ। 1555 ई0 में सूर साम्राज्य के विघटन के बाद वह दिल्ली को फिर से जीतने में सफल हुआ पर अपनी विजय का आनंद लेने के लिए वह बहुत दिनो तक जिंदा नहीं रहा। दीनपनाह किले के ही पास उसकी चहेती पत्नी ने उसका एक शानदार मकबरा बनवाया। यह इमारत उत्तर भारत में वास्तशैली के एक नए चरण की सूचक है, जिसकी सबसे उल्लेखनीय विशेषता संगमरमर की शानदार गुंबद है।

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