window.location = "http://www.yoururl.com"; Babur and Establishment of Mughal Dynasty | बाबर और मुग़ल वंश की स्थापना

Babur and Establishment of Mughal Dynasty | बाबर और मुग़ल वंश की स्थापना

Introduction (विषय- प्रवेश):

पंद्रहवीं सदी में मंगोल साम्राज्य के विघटन के बाद तैमूर ने ईरान और तूरान को फिर से एक शासन के अंतर्गत एकजुट करने में सफलता पायी। तैमूर का साम्राज्य वोल्गा नदी का निचली वादी से लेकर सिंधु नदी तक फैला था और इसमें एशिया माइनर (आज का तुर्की), ईरान, आक्सस-पार के क्षेत्र, अफ़गानिस्तान और पंजाब का एक भाग शामिल था। तैमूर 1405 में तैमूर के मरने के बाद उसका पोता शाहरुख मिर्जा (मृत्यु 1448) उसके साम्राज्य के एक भाग को बचाए रखने में सफल रहा। उसने कला और साहित्य को प्रोत्साहन दिया और उसके काल में समरकंद और हेरात पश्चिम एशिया के सास्कृतिक केंद्र बन गए। समरकंद के शासक की पूरी इस्लामी दुनिया में भारी इज्जत थी।
पद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में एक बडी सीमा तक साम्राज्य को बाँटने की तैमूरियों की परम्परा के कारण उनकी शक्ति तेज़ी से कम हुई। अब जन्म लेनेवाले विभिन्न रजवाड़े हमेशा आपस में लडते-झगड़ते रहते थे। इसके कारण दो नए तत्त्वों को सामने आने का अवसर मिला। उत्तर से उजबेक लोगों का एक तुर्क मंगोल-कबीला आक्सस-पार के क्षेत्र में घुस आया। उजबेक मुसलमान तो बन चुके थे, पर तैमूरी उन्हे हीन समझते थे क्योंकि वे उन्हें असंस्कृत और बर्बर मानते थे। इसके अतिरिक्त पन्द्रहवी सदी के मध्य में उस्मानी साम्राज्य का पुनरुत्थान हुआ और सोलहवीं सदी के मध्य में अपने शिखर पर जा पहुॅचा। पश्चिम में सफवी नाम का एक नया राजवंश ईरान पर वर्चस्व जमाने लगा। सफ़वी सुल्तान सूफियों के एक ऐसे सिलसिले के वंशज थे जो पैगंबर को अपना पूर्वज ठहराता था। उन्होंने मुसलमानों के शिया फिरके का समर्थन किया और उन लोगों को उत्पीडित किया जो शिया रीति-रिवाज़ अपनाने को तैयार न थे। दूसरी ओर उजबेग सुन्नी थे। इस तरह इन दोनों तत्त्वों के राजनीतिक टकराव के कारण सोलहवीं सदी में एशिया में तीन शक्तिशाली साम्राज्यो – उस्मानी, सफवी और उज़बेक-के टकराव की ज़मीन तैयार हो चुकी थी। भारत में गंगा घाटी के पुनःएकीकरण की दशाएँ तैयार हो रही थीं जिसके कारण शासन का एक नया चरण आरंभ हुआ। इसका आधार शर्की राज्य का पतन और लोदियों के अंतर्गत गंगा की ऊपरी वादी का पुनःएकीकरण होना था। लेकिन लोदियों को साथ ही साथ, अपनी ही राज्य-व्यवस्था के अंदर कबीलाई अलगाववाद का सामना करना पड़ा। अगर इस समस्या का समाधान निकल आता तो उत्तर भारत में एक नए साम्राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो जाता। तैमूरियों के उदय और बाबर के आगमन को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

बाबर –

बाबर का जन्म वर्तमान समय के उजबेकिस्तान में 1483 ई0 में हुआ था। उसके पिता का नाम उमर शेख मिर्जा और माता का नाम कुतलुगनिगार खानम था जो क्रमशः तैमूर और मंगोलों के वंश से ताल्लुक रखते थे। 1494 में 12 वर्ष की छोटी उम्र में ही, बाबर आक्सस-पार के एक छोटे-से राज्य फरगाना का राजा बना। उज़बेक खतरे की ओर से आँखें बंद करके तैमूरी शाहजादे एक दूसरे से लड़ने में व्यस्त थे। बाबर ने भी अपने चाचा से समरकंद को छीनने का प्रयास किया। उसने दो बार इस नगर को जीता पर दोनों अवसरों पर शीघ्र ही उसे खो बैठा। दूसरी बार बाबर को बाहर निकालने में सहायता देने के लिए उज़बेक सरदार शैबानी खान को बुलाया गया। शैबानी खान ने बाबर को हराकर समरकंद का जीत लिया और जल्द ही उसने इस क्षेत्र के बाकी तैमूरी राज्यों को भी रौंद डाला। इससे बाध्य होकर बाबर काबुल की ओर चला जिसे उसने 1504 में जीता। अगले 14 वर्षो तक उज़बेकों से अपना वतन फिर जीतने के लिए बाबर मौके का इंतजार करता रहा। इसी दौरान 1507 ई0 में उसने पादशाह अर्थात बादशाह की पदवी ग्रहण की। इससे पहले उसने अपनी पैतृक मिर्जा की उपाधि धारण की थी उसने इस कार्य में अपने चाचा अर्थात हेरात के शासक से मदद लेने का प्रयास किया, पर कोई लाभ नहीं हुआ। 1510 इ्र्र0 में बाबर ने ईरानी फौजों की मदद से समरकन्द को जीतने की एक और कोशिश की लेकिन इसी बीच उजबेकों ने एक बार पुनः समरकन्द पर अधिकार कर लिया और इस प्रकार बाबर को फिर काबुल आना पडा।

भारत की विजय –

बाबर ने कहा है कि काबुल की विजय (1504) से लेकर पानीपत में अपनी जीत तक ’मैंने हिंदुस्तान को जीतने के बारे में सोचना कभी नहीं छोड़ा।’ पर उसे कभी यह काम हाथ में लेने का उपयुक्त अवसर नहीं मिला था क्योंकि कभी अपने बेगों की आशंकाओं और कभी मेरे भाइयों और मेरे बीच के मतभेद के कारण मेरा काम रुक जाता था।’ मध्य एशिया से पहले के असंख्य हमलावरों की तरह बाबर भी भारत की बेपनाह दौलत के कारण उसकी ओर आकर्षित हुआ था। भारत सोने-चाँदी और सुख-समृद्धि का देश था। बाबर का पूर्वज तैमूर भारत से अपने साथ न केवल भारी खज़ाना और अनेक कुशल दस्तकार ले गया था जिन्होंने उसे अपने एशिया साम्राज्य को मजबूत बनाने और उसकी राजधानी को सुंदर बनाने में सहयोग दिया था। उसने पंजाब के कुछ क्षेत्रों पर भी कब्जा कर लिया था जो तैमूर के उत्तराधिकारियों के अधीन कई पीढियों तक रहे। बाबर ने जब अफ़गानिस्तान को जीता तो उसे लगा कि वह इन क्षेत्रों का वाजिब हकदार है। पंजाब के परगनों की बाबर की लालसा का एक और कारण काबुल की मामूली आय थी। इतिहासकार अबुल फज़ल कहते हैं – ’उसका (बाबर का) शासन बदख्शॉ, कंदहार और काबल पर था जिनसे फ़ौज की ज़रूरतों के लिए पर्याप्त आय नही मिलती थी। वास्तव में कुछ सरहदी इलाकों में सेना और प्रशासन पर नियंत्रण का खर्च आमदनी से भी अधिक था।’ इन मामूली संसाधनों के बल पर बाबर अपने बेगों और रिश्तेदारों को पर्याप्त सुख-सुविधा नहीं दे सकता था। उसे काबुल पर उजबेक हमले की भी आशंका थी तथा वह भारत को शरण के लिए एक अच्छा स्थान और उज़बेकों के खिलाफ कार्रवाई करने का उपयुक्त आधार मानता था। सैनिक क्षेत्र में उसने उजबेगों से ‘तुलुगमा‘ का प्रयोग सीखा। तुलुगमा सेना का वह भाग होता था जो सेना के दाहिने और बाएॅ भाग के किनारे पर खडा रहता था और चक्कर काटकर शत्रु पर हमला करता था। ईरानियों से उसने बन्दूकों का प्रयोग सीखा। उस्ताद अली तथा मुस्तफा जैसा प्रमुख तोपची की सेवाए उसे प्राप्त थी।
उत्तर-पश्चिम भारत की राजनीतिक स्थिति भारत में बाबर के प्रवेश के लिए उपयुक्त थी। 1517 ई0 में सिकंदर लोदी की मृत्यु हो चुकी थी और इब्राहीम लोदी लोदी राजवंश का सुल्तान था। एक शक्तिशाली केंद्रीकृत साम्राज्य बनाने के लिए इब्राहीम के प्रयासों ने अफगान सरदारों को चौकन्ना कर दिया था और राजपूतों को भी। सबसे शक्तिशाली अफ़गान सरदार पंजाब का सूबेदार दौलत खान लोदी था जो लगभग एक स्वतंत्र शासक था। दौलत खान ने इब्राहीम लोदी के दरबार में सलाम बजाने के लिए अपने बेटे को भेजकर उससे सुलह करने का प्रयास किया।
1519 ई0 के प्रारंभ में उसने भारत में अपना पहला अभियान किया और इस प्रकार उसने कुल पॉच बार भारत पर हमला किया। 1518-19 में बाबर ने भीड़ा के मज़बूत किले को जीत लिया जिस पर दौलत खॉ लोदी की नजर थी। तत्पश्चात उसने दौलत खॉं और इबाहीम लोदी को पत्र और मौखिक संदेश भेजकर उन क्षेत्रों को देने की मांग की जो तुर्को के थे। पर दौलत खॉं ने बाबर के दूत को लाहौर में नजरबंद कर लिया। बाबर जब काबुल लौट गया तो दौलत खॉं ने भीडा पर कब्जा कर लिया और बाबर के तैनात कारिंदों को वहाँ से निकाल फेंका। अतः 1520-21 में बाबर ने फिर एक बार सिंधु नदी को पार किया तथा भीड़ा और सियालकोट पर कब्जा कर लिया जो हिंदुस्तान के दो द्वार थे। लाहौर भी उसकी झोली में आ गिरा। कंदहार से बगावत की खबर न आई होती तो वह और आगे बढ़ा होता। उसने कदम पीछे खींच लिए तथा डेढ़ साल की घेराबंदी के बाद कंदहार पर अधिकार कर लिया। इस तरह निश्चित होकर बाबर फिर एक बार भारत की ओर ध्यान देने की स्थिति में आ गया।
लगभग यही समय था जब दौलत खॉं लोदी का एक प्रतिनिधिमंडल बाबर से मिला, जिसका नेतृत्व उसका बेटा दिलावर खान कर रहा था। उन्होंने बाबर को भारत आने का निमंत्रण दिया और सुझाया कि वह इब्राहीम लोदी को अपदस्थ करें क्योंकि वह निरंकुश था और उसको अपने अमीरों का समर्थन प्राप्त नहीं था। लगता है कि इसी समय राणा सांगा का एक संदेशवाहक भी बाबर को भारत पर आक्रमण का निमंत्रण देने के लिए पहुँचा। इन प्रतिनिधिमंडलों ने बाबर को विश्वास दिला दिया कि स्वयं भारत न सही, पूरे पंजाब की विजय का अवसर आ चुका है। 1525 ई0 में बाबर जब पेशावर में था, उसे समाचार मिला कि दौलत खान लोदी ने फिर पाला बदल लिया है। उसने 30,000-40,000 की सेना जमा कर ला सियालकोट से बाबर के आदमियों को निकाल फेंका था। एक बार और दौलत खॉ लोदी और बाबर के बीच संघर्ष हुआ जिसमें दौलत खॉ ने समर्पण कर दिया और क्षमादान पाया। इस तरह सिंध पार करने के तीन सप्ताह के अंदर बाबर पंजाब का स्वामी बन बैठा।

पानीपत की लड़ाई ( 21 अप्रैल 1526 ई0)

दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी से बाबर का टकराव अपरिहार्य हो गया और दिल्ली की ओर कूच करके बाबर ने इसकी तैयारी की। बाबर से इब्राहीम लोदी का सामना पानीपत में हुआ; उसके पास एक लाख सैनिक और 1000 हाथी थे। बाबर ने 12,000 लोगों के साथ सिंधु नदी को पार किया था, लेकिन भारत में स्थित उसकी सेना के कारण और पंजाब में बाबर से हाथ मिलाने वाले हिंदुस्तानी कुलीनों और सैनिकों की बडी संख्या के कारण उसकी कतार बढ़ी। फिर भी बाबर की सेना संख्या में कम थी। बाबर ने अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिए सेना के एक भाग को तो पानीपत नगर में टिकाया, जहाँ बहुत से मकान थे और दूसरे भाग को पेड़ों की नालियों और टहनियों से भरी एक खाई के ज़रिए सुरक्षा प्रदान की। सामने की ओर उसने गाड़ियों की एक बड़ी संख्या को आपस में बाँध दिया और वे एक प्रतिरक्षक दीवार का काम करने लगीं। दो गाड़ियों के बीच वक्षभीतियाँ (ब्रेस्टवर्क्स) बनाई गई जिन पर सैनिक अपनी बंदूकें टिकाकर गोली चला सकते थे। बाबर ने यह तरीका उस्मानीयों (रूमी) से सीखा था। बाबर ने उस्ताद अली और मुस्तफ़ा नामक दो उस्मानी उस्ताद तोपचियों की सेवा भी ली। बारूद का इस्तेमाल भारत में धीरे-धीरे बढ़ रहा था। ऐसा लगता है कि भारत में बारूद का ज्ञान तो था पर उत्तर भारत में बाबर के आगमन के बाद ही तोपों में इसका आम इस्तेमाल शुरू हुआ।
बाबर की ठोस प्रतिरक्षा प्रणाली का ज्ञान इब्राहीम लोदी को नहीं था। लगता है उसे यह आशा थी कि बाबर गतिशील शैली में युद्ध लड़ेगा जो मध्य एशिया वालों के लिए आम थी कि वे तेजी से आगे बढ़ें या ज़रूरत पड़ी तो पीछे हट गए। सात या आठ दिनों की झडपों के बाद इब्राहीम लोदी की फौजें विनाशकारी युद्ध के लिए बाहर निकली। बाबर की शक्तिशाली स्थिति को देखकर वे हिचकिचाने लगी। अभी इब्राहीम लोदी अपनी सेना को पनर्गठित कर ही रहा था कि बाबर की सेना ने पार्श्व और पीछे से इब्राहीम की सेनाओं पर आक्रमण कर दिया। बाबर के तोपचियों ने सामने से अपनी तोपों का अच्छा उपयोग किया। लेकिन बाबर अपनी विजय का श्रेय एक बडी सीमा तक अपने तीरंदाजों को देता है। अजीब बात है कि वह इब्राहीम के हाथियों का कम ही जिक्र करता है। लगता है कि इब्र्राहीम लोदी को उनके उपयोग का अवसर ही नहीं मिला। इन शुरुआती धक्कों के बावजूद इब्राहीम की सेना बहादुरी से लड़ी। लड़ाई दो या तीन घंटों तक जारी रही। इब्राहीम लोदी अंत तक लड़ा और 5000-6000 सैनिक इर्द-गिर्द रहे। अनुमान है कि इस लड़ाई में उसके अलावा उसके 15,000 से अधिक सैनिक मारे गए।
पानीपत की लडाई को भारतीय इतिहास की निर्णायक लड़ाइयों में से एक माना है। इस लडाई ने लोदी सत्ता की कमर तोड़ दी तथा दिल्ली और आगरा तक का क्षेत्र बाबर के अधीन कर दिया और भारत में एक नये राजवंश मुगल वंश की स्थापना की। आगरा में इब्राहीम लोदी के जमा किए हुए खजाने ने बाबर की वित्तीय कठिनाइयों को कम किया। इसी अवसर पर हुमायूॅ ने अपने पिता को अन्य खजानों के साथ प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा भेंट किया। अब जौनपुर तक का समृद्ध क्षेत्र बाबर के सामने खाली पड़ा था। लेकिन बाबर को इस क्षेत्र पर अपनी पकड मजबूत करने से पहले दो सख्त लड़ाइयाँ लड़नी पड़ी- एक तो मेवाड के राणा सांगा के खिलाफ़ और दूसरी पूर्वी अफ़गानों के खिलाफ़। इस दृष्टि से देखे तो राजनीति के क्षेत्र में पानीपत की लड़ाई उतनी निर्णायक नहीं थी, जितनी उसका वास्तविक महत्त्व इस तथ्य में है कि उसने उत्तर भारत में वर्चस्व का एक नया चरण आरंभ किया।

इब्राहीम लोदी की असफलता के कारण –

इब्राहीम लोदी की व्यक्तिगत जिम्मेदारी – इब्राहीम लोदी का व्यक्तिगत चरित्र तथा उसकी नीतियॉ पानीपत के युद्ध में इब्राहीम लोदी की पराजय का प्रमुख कारण था। उसने अपने दादा बहलोल लोदी की बुद्धिमत्तापूर्ण नीति का परित्याग करके जिस प्रकार अफगान सरदारों और अमीरों पर कठोर नियंत्रण लगाने की चेष्टा की, उससे स्वतंत्रताप्रेमी अफगार सरदार उसके विरोधी हो गये और उसे पदच्युत करने का षडयंत्र करने लगे। ऐसी स्थिती में इब्राहीम लोदी को अफगान अमीरों तथा सरदारों को समझ लेना चाहिए था परन्तु उसने अत्यन्त महत्वपूर्ण मौके पर जबकि उसके सहयोग में थोडी कमी भी सुल्तान पद के लिए घातक हो सकती थी, इब्राहीम लोदी उनको लगातार अपने साथ बनाये रखने में अक्षम सिद्ध हुआ। अमीर केवल आधेमन से युद्ध के मैदान में गए और वे चाहते थे कि इस युद्ध में इब्राहीम लोदी की पराजय हो जाय। ऐसी स्थिती में उसकी पराजय निश्चित थी।
सैनिक कारण – सैनिक दृष्टि से इब्राहिम लोदी की सेना की संख्या बहुत अधिक थी औैर बाबर के पास उसकी सेना की एक चौथाई तक ही सेना थी परन्तु दोनों ही सेना में मुख्य अन्तर यह था कि बाबर के सैनिक पूर्णतः अनुशासित और प्रशिक्षित थे, दूसरी तरफ इब्राहिम लोदी की सेना एक भीड के रुप में थी। इब्राहिम लोदी ने अपने युद्ध के मौके पर किराये पर उन्हे भर्ती किया था। ऐसी स्थिती में किराये के सैनिकों का इब्राहिम लोदी के प्रति कोई समर्पण भाव नही था। वे सिर्फ युद्ध कर रहे थे, विजय उनका एकमात्र लक्ष नही था। वही बाबर के सैनिक विजय के लिए कटिबद्ध होकर अपनी स्वामी के प्रति पूर्ण स्वामीभक्ति के साथ युद्ध कर रहे थे। इब्राहिम की फौज में कई विभिन्न ईकाईयॉ और उनके प्रमुख अलग-अलग थे और उनमें आदेश की एकरुपता विल्कुल नही थी। लेकिन इसका मतलब यह भी नही है कि उसके सैनिक व्यक्तिगत तौर पर बहादुर नही थे। बाबर के शब्दों में- ‘‘वे मरना तो जानते थे मगर लडना नही।‘‘
बाबर की व्यूह रचना – बाबर का सैन्य संगठन तथा व्यूह रचना पानीपत के मैदान में उसकी जीत को सुनिश्चित करने वाली थी। उसकी तुलना में इब्राहिम की व्यूह रचना महज एक नौटंकी थी। बाबर के पास तोपखाना था। यह एक ऐसा शक्तिशाली अस्त्र था जिसके बारे में भारत के लोग कम ही जानते थे। उसकी मार से इब्राहिम के सैनिक भौचक्के रह गये और मूली-गाजर की तरह कट मरे। बाबर की गोलियों का जबाब तीरों से मिला जो कि कोई मायने नही रखता था। शस्त्रास्त्रों के बारे में बाबर बहुत भारी पडता था। दुश्मन के घिसे-पिटे हथियारों पर उसने आसानी से जीत हासिल कर ली। घुडसवार सेना तथा तोपखाने के संयोग ने उसे अजेय बना दिया।

राजनीतिक दूरदर्शिता की कमी –

पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोदी की पराजय मात्र एक सैनिक पराजय ही नही बल्कि राजनैतिक हार भी थी। इब्राहिम लोदी में राजनीतिक दूरदर्शिता का पूरी तरह से अभाव था। बहुतेरे अमीर सरदार को उसने अपने व्यवहार से अपना शत्रु बना लिया था। इसके विपरित बाबर ने अपने सरदारों को उनकी गुणवत्ता के अनुसार विश्वासपूर्वक जिम्मेदारियॉ सौंप रखी थी जिससे वे अधिक उत्साह से लड सके और जीत हासिल करने में सफल रहे।
इस प्रकार पानीपत का प्रथम युद्ध एक निर्णायक युद्ध था। सैनिक दृष्टिकोण से बाबर ने लिखा है कि – भारत की इस सरजमीं पर कई हमलावरों ने बडी फौजों के साथ हमला किया लेकिन किसी ने एक अकेली लडाई द्वारा समस्त उत्तरी भारत को नही जीता है। लेकिन पानीपत की अकेली लडाई ने मुझे हिन्दुस्तान का मालिक बना दिया। पानीपत का प्रथम युद्ध वास्तव में एक नवीन युग का प्रारंभ था। यदि बाबर न होता तो संभव था कि जिसे हम मुगल वंश कहते है वह भी न होता।
पानीपत की विजय के बाद बाबर के सामने अनेक कठिनाइयाँ आई। उसके सैनिक भारत में एक लंबी मुहिम के लिए तैयार न थे। गर्मी का मौसम षुरू होने के साथ उनकी चिंताएं बढ़ गईं। वे अपने घरों से दूर, एक अजनबी और दुश्मन के क्षेत्र में थे। बाबर कहता है कि भारत के लोगों ने ’उल्लेखनीय शत्रुता’ का प्रदर्शन किया और मुगल सेनाओं के पास आने पर वे गाँव छोड़कर भाग जाते थे। ज़ाहिर है कि तैमूर ने नगरों और गाँवों को जिस तरह लूटा और तबाह किया था, उसकी यादें अभी भी उनके दिमाग में बनी हुई थीं।
बाबर जानता था कि केवल भारतीय संसाधनों के बल पर ही चलकर वह एक मज़बूत साम्राज्य बना सकेगा और अपने सैनिकों को संतुष्ट कर सकेगा। अपनी आत्मकथा ‘‘तुजुक-ए-बाबरी‘‘ में वह लिखता है – ’नहीं, हमारे लिए काबुल की गरीबी फिर नहीं।’ इस तरह उसने एक पक्का रुख अपनाया, भारत में अपने ठहरने के इरादे का ऐलान किया और अपने अनेक सैनिकों को, जो काबुल वापस जाना चाहते थे, इसकी इजाजत दे दी। इससे माहौल फौरन साफ़ हो गया पर इससे राणा साँगा की दुश्मनी भी मोल लेनी पड़ी, जिसने बाबर के साथ निबटारे की तैयारियां शुरू कर दी।

खानवा की लड़ाई (17 मार्च 1527 ई0)-

वर्तमान समय तक मेवाड का शासक राणा सांगा का प्रभाव धीरे-धीरे आगरा के पडोस की एक छोटी नदी पीलिया खार तक बढ चुका था। सिन्धु-गंगा वादी में बाबर के साम्राज्य की स्थापना राणा सांगा के लिए एक चुनौती थी इसलिए राणा सांगा ने बाबर को निकाल बाहर करने या कम से कम पंजाब तक सीमित कर देने की तैयारी शुरू कर दी।
बाबर ने राणा सांगा पर समझौता तोडने का आरोप लगाया और कहा कि उसे सांगा ने भारत बुलाया था और इब्राहीम लोदी के विरुद्ध उसका साथ देने का वादा किया था, पर जब वह दिल्ली और आगरा जीतना चाहता था तो राणा सांगा ने कोई कोशिश नही की। वस्तुतः राणा सांगा को आशा रही होगी कि तैमूर की तरह बाबर भी दिल्ली को लूटने और लोदियों को कमजोर करने के बाद वापस चला जाएगा। बाबर के भारत में ठहरने के फेसले ने स्थिती को पूरी तरह बदलकर रख दिया।
इब्राहीम लोदी के छोटे भाई महमूद लोदी समेत अनेक अफ़गानों ने राणा साँगा का साथ इस आषा से दिया कि यदि राणा साँगा जीत जाता है तो उन्हें दिल्ली का तख्त वापस मिल जाएगा। मेवात के शासक हसन खान मेवाती ने भी साँगा के साथ अपना भाग्य नत्थी कर दिया। लगभग सभी प्रमुख राजपूत शासकों ने राणा साँगा के लिए अपने दस्ते भेजे। राणा साँगा की प्रतिष्ठा तथा बयाना जैसी कुछ बाहरी मुगल चौकियों के खिलाफ़ उसकी आरंभिक सफलता ने बाबर के सैनिकों को हतोत्साहित कर दिया। उन्हें तैयार करने के लिए बाबर ने साँगा विरोधी जंग को एक जिहाद करार दे दिया। युद्ध से ठीक पहले उसने शराब की तमाम बोतलों और घड़ों को यह दिखाने के लिए तोड़ दिया कि वह कितना पक्का मुसलमान था। उसने अपनी पूरी सल्तनत में शराब की खरीद-बिक्री पर रोक लगा दी तथा मुसलमानों पर सीमा शुल्क समाप्त कर दिया। इसी समय उसने तमगा नामक एक व्यापारिक कर समाप्त करने की घोषणा की। सावधानी से एक स्थान चुनकर बाबर ने आगरा से कोई 40 किलोमीटर दूर खानवा को अपना ठिकाना बनाया। यहाँ भी उसने पानीपत की तरह बाहरी प्रतिरक्षा के रूप में अनेक गाड़ियों को आपस में बाँधा और दोहरी सुरक्षा के लिए सामने खाई खुदवा दी। प्रतिरक्षा में बंदूकचियों के गोली चलाने और पहियादार तिपाइयों के पीछे-पीछे बढ़ने के लिए स्थान खाली छोड़े गए थे।
खानवा की लड़ाई बहुत भयानक रही। बाबर के अनुसार साँगा की फौज दो लाख से ऊपर थी। इनमें 10,000 अफ़गान सवार थे तथा हसन खान मेवाती ने भी इतनी ही सेना भेजी थी। हमेषा की तरह इन आंकड़ों में भी अतिशयोक्ति संभव है हालाँकि बाबरी सेना की संख्या निश्चित ही कम थी। राणा साँगा ने बाबर के दाएं बाजू पर भयानक हमले किए और उसे लगभग काट ही डाला। परन्तु मुगल तापों ने राणा की सेना का भारी संहार किया और धीरे-धीरे साँगा की सेना पीछे धकेल दी गई। इसी समय बाबर ने अपने केंद्र-भाग के सैनिकों को, जो अपने तिपहियों के पीछे पनाह लिए हुए थे, आक्रमण का आदेश दिया। जंजीर में बँधी गाडियों के पीछे से तोपखाना भी बाहर आ गया। पानीपत की ही तरह बाबर के पार्श्व दस्तों ने, जो बगल और पीछे से हमले करते थे, अपना खेल दिखाया। राणा साँगा की फौज घिर गईं और भयंकर मार-काट के बाद पराजित हो गईं। इस तरह खानवा का युद्ध पानीपत के युद्ध की ही लगभग नकल थी। स्पष्ट है कि इब्राहीम लोदी की पराजय से राणा साँगा ने कुछ नहीं सीखा था और न बाबर की रणनीति का अध्ययन किया था। जैसा कि बाबर ने अपने संस्मरण में लिखा है कि – कुछ हिन्दुस्तानी तलवारबाज भले ही हों, पर अधिकांश तो सैन्य तौर-तरीकों, स्थितीयों और रणनीतियों से अनजान और अकुशल हैं।’ राणा साँगा बच निकला और वह बाबर से फिर टकराना चाहता था पर उसके अपने ही कुलीनों ने उसे जहर दे दिया जो ऐसे किसी भी कदम को खतरनाक और आत्मघाती समझते थे। इस तरह राजस्थान के सबसे शूरवीर योद्धा की मृत्यु हो गई। राणा साँगा की आगरा तक फेले एकीकृत राजस्थान के सपने को गहरा धक्का लगा।
भारतवर्ष के इतिहास में खानवा का युद्ध जो लगभग 20 घण्टे तक चला अत्यन्त स्मरणीय युद्धों में से एक था। शायद ही ऐसा कोई युद्ध हुआ हो जिसका निर्णय अन्त समय तक तुला में लटका रहा। फिर भी सैनिक दृष्टि से यह युद्ध निर्णायक सिद्ध हुआ। खानवा की लड़ाई ने दिल्ली-आगरा क्षेत्र में बाबर की स्थिति को सुरक्षित कर दिया। आगरा के पूरब में ग्वालियर, धौलपुर आदि किलों की एक श्रृंखला को जीतकर बाबर ने अपनी स्थिति को और मजबूत बनाया।

चन्देरी का युद्ध (29 जनवरी 1528 ई0) –

खानवा युद्ध में राजपूतों को हराने के बाद बाबर कि नजर अब चंदेरी पर थी। खानवा युद्ध के पश्चात्त् राजपूतों की शक्ति पूरी तरह नष्ट नहीं हुई थी, इसलिए बाबर ने चंदेरी का युद्ध पेश राजपूतों के खिलाफ लड़ा। उसने चंदेरी के तत्कालीन राजपूत राजा मोदिनी राय से वहाँ का महत्वपूर्ण क़िला माँगा परन्तु राजा मोदिनी राय चंदेरी का क़िला देने के लिए राजी ना हुआ। तब बाबर ने क़िला युद्ध से जीतने की चेतावनी दी। चंदेरी का क़िला आसपास की पहाड़ियों से घिरा हुआ था। यह क़िला बाबर के लिए काफ़ी महत्व का था। बाबर की सेना में हाथी, तोपें और भारी हथियार थे, जिन्हें लेकर उन पहाड़ियों के पार जाना दुष्कर था और पहाड़ियों से नीचे उतरते ही चंदेरी के राजा की फौज का सामना हो जाता, इसलिए मोदिनी राय आश्वस्त व निश्चिन्त था। कहा जाता है की बाबर अपने निश्चय पर दृढ़ था और उसने एक ही रात में अपनी सेना से पहाड़ी को काट डालने का अविश्वसनीय कार्य कर डाला। उसकी सेना ने एक ही रात में एक पहाड़ी को ऊपर से नीचे तक काटकर एक ऐसी दरार बना डाली, जिससे होकर उसकी पूरी सेना और साजो-सामान ठीक क़िले के सामने पहुँच गये।
सुबह राजा अपने क़िले के सामने पूरी सेना को देखकर भौचक्का रह गया। परन्तु राजपूत राजा ने बिना घबराए अपने कुछ सौ सिपाहियों के साथ मुग़लों की विशाल सेना का सामना करने का निर्णय लिया। पराजय सन्निकट देखकर क़िले में सुरक्षित राजपूत स्त्रियों ने आक्रमणकारी सेना से अपमानित होने की बजाये स्वयं को ख़त्म करने का निर्णय लिया। एक विशाल चिता का निर्माण किया गया और सभी स्त्रियों ने सुहागनों का श्रृंगार धारण करके स्वयं को उस चिता के हवाले कर दिया। जब बाबर और उसकी सेना क़िले के अन्दर पहुँची तो उसके हाथ कुछ ना आया। राजपूतों का शौर्य और राजपूत स्त्रियों के जौहर के इस अविश्वसनीय कृत्य से वह इतना बौखलाया कि उसने खुद के लिए इतने महत्त्वपूर्ण क़िले का संपूर्ण विध्वंस करवा दिया तथा कभी उसका उपयोग नहीं किया। युद्ध में राजपूत सेना और मोदिनी राय की हार हुई और राजा मेदिनी राय ने बाबर से संधि कर उसकी अधीनता को स्वीकार कर लिया।

घाघरा का युद्ध (06 मई 1529 ई0)-

हालाँकि अफ़गानों को करारी हार का सामना करना पड़ा था, पर वे मुगल षासन से समझौता करने के लिए तैयार नहीं थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश अभी भी ऐसे अफगान सरदारों के वर्चस्व में था जिन्होंने बाबर की अधीनता तो स्वीकार की थी परन्तु उसे उखाड फेंकने के लिए वे हमेशा तैयार थे। अफ़गान सरदारों को बंगाल नुसरतशह संरक्षण दे रहा था जिसने अपनी एक बेटी इब्राहीम लोदी से ब्याही थी। इब्राहीम लोदी का भाई महमद लोदी, जो खानवा में बाबर के खिलाफ लड चुका था, बिहार जा पहुॅचा। अफगानों ने अपने नेता के रुप में उसका स्वागत किया और उसके अन्तर्गत शक्ति अर्जित करने में जुट गये। यह एक ऐसा खतरा था जिसकी बाबर उपेक्षा नहीं कर सकता था। अफगानों ने बनारस से आगे बढ़ते हुए चुनार का दुर्ग घेर लिया। इन घटनाओं की सूचना पाकर बाबर तेजी से बिहार की तरफ बढ़ा. उसके आने का समाचार सुनकर अफगान डर कर चुनार का घेरा छोड़कर भाग गए। बाबर ने महमूद लोदी को शरण नहीं देने का निर्देष दिया पर नुसरतषाह द्वारा उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया गया। फलतः, 6 मई, 1529 को घाघरा के निकट बाबर और अफगानों की संयुक्त सेना के मध्य मुठभेड़ हुई। अफगान इस युद्ध में बुरी तरह हार गए. महमूद लोदी ने भागकर बंगाल में शरण ली। नुसरतषाह ने बाबर से संधि कर ली और दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर आक्रमण नहीं करने और एक-दूसरे के षत्रुओं को षरण नहीं देने का वचन दिया। महमूद लोदी को बंगाल में ही एक जागीर दे दी गई। शेर खां के प्रयासों से बाबर ने बिहार के शासक जलालुद्दीन के राज्य के कुछ भागों को लेकर और उससे अपनी अधीनता स्वीकार करवा कर उसे प्रषासक के रूप में बना रहने दिया। इस प्रकार, घाघरा के युद्ध के बाद अफगानों की षक्ति पर थोड़े समय के लिए पूर्णतः अंकुश लग गया।
बाबर का यह अन्तिम युद्ध था क्योंकि इसके कुछ ही दिन पश्चात 26 दिसम्बर 1530 ई0 में उसकी मृत्यु हो गयी। मरने के बाद उसका शव आगरा के आरामबाग में रख दिया गया था और वहॉ से काबुल ले जाकर एक सुन्दर स्थान में, जिसे स्वयं बाबर ने अपने लिए ही चुना था, उसे दफना दिया गया।

भारत में बाबर के आगमन का महत्व –

भारत में बाबर का आगमन अनेक दृष्टि यों से महत्त्वपूर्ण था। कुशाण साम्राज्य के पतन के बाद काबुल और कंदहार पहली बार उत्तर भारत पर आधारित एक साम्राज्य के अभिन्न अंग बने। ये क्षेत्र भारत पर आक्रमण के लिए हमेशा एक तैयारी के मैदान जैसा काम करते आए थे। इसलिए उन पर अधिकार जमाकर बाबर और उसके उत्तराधिकारियों ने लगभग 200 वर्शों तक भारत को बाहरी हमलों से सुरक्षित रखा। आर्थिक दृश्टि से भी, काबुल और कंदहार के नियंत्रण ने भारत के विदेश व्यापार को बल पहुँचाया क्योंकि ये दो नगर पूरब में चीन और पष्चिम में भूमध्यसागरीय बंदरगाहों तक जानेवाले काफ़िलों के प्रस्थानबिंदु होते थे। इस तरह एशिया पार के विषाल व्यापार में भारत की हिस्सेदारी बढ़ी।
मध्य और पष्चिमी एषिया की राजनीतिक स्थिति कुल मिलाकर षांति और स्थायित्व की स्थिति थी। उत्तर भारत में बाबर ने लोदियों और राणा साँगा के नेतृत्व वाले राजपूत महासंघ की शक्ति को चूर कर दिया था। इस तरह उसने इस क्षेत्र में मौजूद शक्ति-संतुलन को भंग कर दिया। बाबर ने भारत को युद्ध की नई षैली से परिचित कराया। भारत में बारुद का ज्ञान तो पहले भी था, पर बाबर ने दिखाया कि तोपखाना और सवार सेना का कुशल समन्वय क्या-क्या कर सकता है। उसकी जीतों के कारण भारत में बारुद और तोप तेजी से लोकप्रिय हुए। चूँकि तोपखाना रखना बहुत खर्चीला होता था इसलिए इसका इस्तेमाल सिर्फ वही षासक कर सकते थे जिनके पास पर्याप्त संसाधन हो। इस तरह छोटे रजवाड़ों का युग समाप्त हो गया।
अपनी नई सैन्य विधियों और अपने निजी आचरण के द्वारा बाबर ने फिरोज तुगलक की मौत के बाद से ही कम होती जा रही ताज की प्रतिश्ठा को पुनः बहाल किया। हालाँकि सिकंदर लोदी और इब्राहीम लोदी ने ताज की प्रतिश्ठा बहाल करने की कोषिष की थी, पर स्वतंत्रता और समानता के अफ़गान विचारों के कारण इसमें आंषिक सफलता ही मिली थी। बाबर की प्रतिश्ठा एषिया के दो सबसे मषहूर योद्धाओं, चंगेज़ और तैमूर के वंषज के रूप में थी। इसलिए उसका कोई भी अमीर न तो उसकी बराबरी का दावा कर सकता था और न उसके तख्त की कामना कर सकता था। उसकी स्थिति को चुनौती अगर मिलती भी तो किसी तैमूरी षासक या उसके वंषज से ही मिलती।
बाबर के निजी गुणों ने उसे उसके सैनिकों के बीच लोकप्रिय बनाया। वह हमेषा अपने सैनिकों के साथ मुसीबतें झेलने को तैयार रहता था। एक बार कड़कड़ाते जाड़े में बाबर काबुल लौट रहा था। बर्फ़ इतनी गहरी थी कि घोड़े उसमें फँस जाते और सैनिक दलों को बर्फ़ को कूटना पड़ता जिससे कि घोड़े गुजर सकें। बिना हिचक बाबर भी इस कमरतोड़ काम में जुट गया। बाबर को ऐसा करता देखकर उसके सैनिक भी इस काम में षामिल हो गए। बाबर शराब और अच्छी सोहबत का शौकीन था। खुद उसकी सोहबत खुशदिल होती थी। साथ ही वह कठोर अनुशासनवादी और सख्त काम लेने वाला भी था। वह अपने सैनिकों का बहुत ध्यान रखता था और जब तक संभव हो सके, उनके अनेक दोशों को वह नज़रअंदाज़ कर देता था।
बाबर रूढ़िवादी सुन्नी था पर वह धर्माध नहीं था और न ही वह इस्लाम के धर्माचार्यों से प्रेरित होता था। उसने साँगा से लड़ाई को जिहाद ठहराया और जीतने के बाद गाजी की उपाधि धारण की, पर इसके स्पश्ट रूप से राजनीतिक कारण थे। यद्यपि उसका काल यद्धों का काल था, पर मंदिरों के विध्वंस की कुछ मिसालें भी मिलती है। अयोध्या में उसने अपनी मस्जिद ऐसे स्थान पर निर्मित करवाई थी जिस श्री रामचन्द्र जी का जन्म स्थान मानकर लाखों हिन्दू पूजते थे। फ़ारसी और अरबी में बाबर का पूरा दखल था। उसे तुर्की भाशा के, जो उसकी मातृभाशा थी, दो सबसे मशहूर लेखकों में गिना जाता है। गद्य लेखन में उसका कोई सानी नहीं है तथा उसका सुप्रसिद्ध संस्मरण तुजुक-ए-बाबरी (बाबरनामा) विश्व साहित्य की अद्वितीय कृतियों में एक माना जाता है। उसकी दूसरी रचनाओं में एक मसनवी तथा एक सुप्रसिद्ध सूफ़ी ग्रंथ का तुर्की अनुवाद षामिल है। वह अपने समय के प्रसिद्ध कवियों और कलाकारों के संपर्क में था तथा अपनी तुजुक में उनकी कृतियों का वर्णन भी करता है। वह प्रकृति प्रेमी था और उसने खासे विस्तार के साथ भारत की वनस्पतियों और यहाँ के प्राणियों का वर्णन किया है। उसने बहते पानी से युक्त अनेक सुंदर बाग लगवाए और इस तरह उसने बागवानी की एक परंपरा कायम की। बाबर ने सडकों की माप के लिए ‘‘गज-ए-बाबरी‘‘ शुरु की और उसकी उदारता के कारण उसे कलन्दर के नाम से भी जाना जाता है।
बाबर ने राज्य की एक नई धारणा सामने रखी जो ताज की षक्ति और प्रतिश्ठा, धार्मिक और पंथिक कट्टरता के त्याग तथा संस्कृति और ललित कलाओं के प्रोत्साहन पर आधारित थी। इस तरह वह अपने उत्तराधिकारियों के लिए एक उदाहरण छोड़ गया और उनके लिए एक निश्चित दिशा निर्दिष्ट कर गया।

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