पानीपत के प्रथम युद्ध में इब्राहीम लोदी की हार के साथ ही दिल्ली सल्तनत का भी पतन हो गया। दिल्ली सल्तनत का पतन दो चरणों में सम्पन्न हुआ और इन दोनों चरणों में कुछ कारणों का योगदान समान रुप से था जबकि कुछ का विशिष्ट महत्व एक चरण में था। सर्वप्रथम दिल्ली सल्तनत की राजनीतिक व्यवस्था में ही इसके पतन के कारण नीहित थे। उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम इस काल में विकसित नही हुआ अतः महत्वाकांक्षी और शक्तिशाली अमीर और सरदारों द्वारा बराबर राजगद्दी हथियाने का प्रयास होता रहा। कुल मिलाकर पॉच वंशों का शासन इस काल में हम देखते है। इनके दो दुष्परिणाम प्रकट हुए। राजवंशों के शीघ्र परिवर्तन से किसी वंश के प्रति पूर्ण स्वामिभक्ति का विचार विकसित नहीं हो पाया। द्वितीय, वंशों के बराबर परिवर्तन से राजनैतिक अस्थिरता बनी रही जिस कारण महान शासकों की नीतियाँ भी स्थायी रूप से लागू नहीं हो सकी और उनका प्रभाव सीमित रहा। इस कारण सल्तनत राज्य भीतर से ही दुर्बत और अव्यवस्थित बना रहा। संक्षेप में दिल्ली सल्तनत के पतन के लिए निम्न कारण उत्तरदायी माने जा सकते है –
प्रशासनिक अव्यवस्था – सल्तनत काल में प्रशासनिक व्यवस्था के विकास में भी हम वैसी प्रगति नहीं पाते हैं जो मुगत काल में संभव हुई। इल्तुतमिश ने प्रशासनिक व्यवस्या की रूपरेखा प्रस्तुत की किन्तु उसके वंशज इसका पूर्ण विकास नहीं कर पाये। अलाउद्दीन के प्रशासनिक प्रबंध उसके साय ही समाप्त हो गए। मुहम्मद बिन तुगतक के प्रयोग वस्तुतः असफल रहे और फिरोज के सुधारों ने शासनतंत्र को कमजोर ही बनाया। इसी प्रकार सिकन्दर लोदी के सुधार भी कोई स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ सके। यह सर्वविदित है कि सल्तनत एक केन्द्रीय राज्य था और राज्य का अस्तित्व केन्द्रीय प्रशासन की कार्यकुशलता से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ था। इल्तुतमिश एवं अलाउद्दीन जैसे सफल प्रशासकों के काल में सल्तनत सुव्यवस्थित रही, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उत्पन्न अव्यवस्था के कारण राज्य की शक्ति का क्रमानुगत रूप से पतन होता गया। जब प्रशासन तंत्र ही अव्यवस्थित हो गया तो राज्य का अधिक दिनों तक बना रहना कठिन हो गया।
आन्तरिक प्रतिरोध एवं विद्रोह – दिल्ली सल्तनत में आन्तरिक अव्यवस्था के दो अन्य महत्वपूर्ण कारण थे; एक, राजपूतों का प्रतिरोध और दूसरा, सामन्तों अर्थात अमीर और सरदारों का विद्रोह। सल्तनत की स्थापना के पूर्व उत्तरी भारत के शासक वर्ग के रूप में राजपूतों की सत्ता बनी रही थी। तुर्कों ने उन्हें पराजित करके एक छोटे से क्षेत्र में सिमट जाने को बाध्य कर दिया था किन्तु राजपूत शक्ति का पूर्ण विनाश तुर्क शासक नहीं कर पाये थे। दूसरी ओर राजपूतों ने भी तुकों की सत्ता को स्वीकार नहीं किया था और उनके द्वारा बराबर विद्रोह जारी थे। इन चिद्रोहों के दमन में सल्तनत की सैनिक शक्ति का ह्रास होता रहा और राज्य कमजोर हुआ। दूसरी ओर सल्तनत कात में सामन्त वर्ग को पूर्णतः अनुशासित और नियंत्रित करने के प्रयास बहुत सफल नहीं सिद्ध हुए। बलबन और अलाउद्दीन के अतिरिक्त अन्य शासक सामन्तों को अनुशासित करने में प्रायः असफत रहे। सामन्त अपनी महत्वाकांक्षा के कारण बराबर विद्रोह का कारण बने रहे और इनके दमन के प्रयास में भी सैनिक शक्ति का ह्रास होता रहा।
विदेशी आक्रमण – विदेशी आक्रमणों ने भी सल्तनत के लिए समस्याएँ उत्पन्न की। सल्तनत के आरम्भिक काल से ही उत्तर-पश्चिम सीमान्त में मंगोल आक्रमणों की समस्या बराबर बनी रही और इस कारण भी सल्तनत की सेना का प्रभाव घटा। सुल्तानों की शक्ति का मुख्य आधार उनकी सेना थी और सेना पर अत्यधिक बोझ पड़ने से राज्य का अस्तित्त्व प्रभावित होना स्वाभाविक था। तुगलक काल से सैन्य शक्ति का पतन तीव्र गति से आरम्भ हुआ और कुछ ही समय पश्चात् तैमूर के आक्रमण ने सल्तनत की सैनिक कमजोरी को प्रदर्शित कर दिया। तैमूर जबतक भारत में रहा, तुगलक वंश की सत्ता नाममात्र के लिए रह गई और स्वयं तुगलक शासक अपनी राजधानी छोड़कर भाग निकला। सुल्तान की कमजोरी ने प्रांतपतियों को स्वतन्त्र होने की प्रेरणा दी और गुजरात, मालवा, खानदेश एवं जौनपुर जैसे राज्य स्थापित हुए। इसी प्रकार दूसरे चरण में भी 1526 ई० में बाबर के आक्रमण ने ही सल्तनत के पतन की प्रक्रिया को पूरी किया। अतः विदेशी आक्रमण के विनाशकारी प्रभाव स्वतः स्पष्ट है।
विघटनकारी तत्वों का योगदान – सल्तनत के पतन में विघटनकारी तत्वों का योगदान भी महत्त्वपूर्ण रहा। आरम्भिक काल से सल्तनत का पूर्वी प्रान्त अर्थात् बंगाल स्वतंत्र होने के लिए संघर्ष करता रहा। आगे चलकर यही समस्या दक्षिणी प्रान्तों में भी आरम्भ हुई। सल्तनत की राजधानी अर्थात् दिल्ली से इन प्रान्तों की दूरी अधिक थी। आवागमन एवं संचार की सुविधाएँ विकसित नहीं थी। भौगोलिक बाधाएँ, दूरस्थित प्रान्तों पर नियन्त्रण में अवरोध प्रस्तुत कर रही थीं। ऐसी स्थिति में केन्द्रीय प्रशासन की थोड़ी-सी कमजोरी अथवा केन्द्रीय प्रशासन के विरुद्ध थोडा भी असंतोष विद्रोह के लिए प्रेरक हो सकता था और इन विद्रोहों ने सल्तनत के पतन में निश्चित योगदान दिया।
विशिष्ट कारण – कुछ विशिष्ट कारणों का वर्णन भी अनिवार्य है। इस संदर्भ में तीन शासकों की नीतियों का परीक्षण आवश्यक हो जाता है। मुहम्मद बिन-तुगतक का शासन काल सल्तनत के इतिहास में एक विभाजन रेखा के समान है जब सल्तनत चरमोत्कर्ष पर पहुँचकर पतन की ओर अग्रसर हो गई। इस समय तक सल्तनत का क्षेत्रीय विस्तार पूरा हो चुका था। दूर स्थित प्रान्तों पर नियंत्रण की समस्या जटिल हो चुकी थी। राज्य में आर्थिक संकट उत्पन्न हो चुका था और मुहम्मद बिन तुगलक द्वारा किए गए प्रशासनिक प्रयोगों की असफलता ने सुल्तान के प्रति असंतोष को बहुत अधिक बढ़ा दिया था। इन सब कारणों से सल्तनत में समस्याएँ और विद्रोह आरम्भ हो चुके थे जिनकी परिणति बंगाल, विजयनगर और बहमनी राज्य के स्वतंत्र होने में देखी जा सकती है। इसके बाद फिरोज तुगलक ने अपने शासनकाल में समस्याओं पर नियंत्रण प्राप्त करने के स्थान पर उन्हें स्थगित करने का प्रयास किया। उसने तुष्टिकरण की नीति अपनाई जिसका उद्देश्य सामन्त, उलेमा, सैनिक एवं अन्य प्रमुख वर्गों को संतुष्ट रखना था, किन्तु सामन्तों को प्रदत सुविधाएँ केन्द्रीय प्रशासन की कमजोरी का कारण बनीं। उलेमा की इच्छानुसार अपनाई गयी धार्मिक कट्टरता की नीति सुल्तान की कमजोरी का साक्ष्य बन गयी एवं सैनिकों को दिए गये विशेषाधिकार सैन्य संगठन को दुर्बल बनाने का कारण सिद्ध हुये। फलस्वरूप सल्तनत के पतन का पहला चरण पूरा हुआ। दूसरे चरण में इब्राहिम लोदी की नीतियों ने घातक परिणाम प्रस्तुत किये। सर्वप्रथम, इब्राहिम अपने सामन्तों को अप्रसन्न करने का दोषी था। द्वितीय. उसमें राज्य की समस्याओं को सुलझाने की क्षमता नहीं थी। तीसरे, उसकी अनुभवहीनता और उसका अहंकार उसे गलत निर्णय लेने पर बाध्य कर रहा था। साथ ही साथ उसपर एक ओर राजपूतों और दूसरी ओर गुजरात के शासक द्वारा आक्रमण की संभावना बनी हुई थी। जब ऐसी परिस्थितियों में इब्राहिम को बाबर के आक्रमण का सामना करना पड़ा तो वह असफल सिद्ध हुआ और इसके साथ ही सल्तनत का अस्तित्व भी समाप्त हो गया।
दिल्ली सल्तनत के पतन के परिणाम
दिल्ली सल्तनत के पतन के परिणाम राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन के क्षेत्रों में प्रस्तुत हुए। राजनीतिक जीवन के परिणाम मुख्यतः तीन थे। सर्वप्रथम, तैमूर के आक्रमण से भारत में राजनीतिक एकता का अंत हुआ और क्षेत्रीय राज्यों का पुनोद्धार हुआ, परन्तु बाबर के आक्रमण के बाद यह प्रक्रिया उलट गयी और पुनः एक केन्द्रीय सत्ता के उदय का क्रम आरंभ हुआ। द्वितीय, तैमूर के आक्रमण ने भारत में तुर्को की राजनैतिक सत्ता का अंत किया और अफगागों के राजनैतिक उत्कर्ष को संभव बनाया, जबकि बाबर के आक्रमण ने भारत में अफगान सत्ता को भीषण क्षति पहँचाई और मुगलों के राजनैतिक वर्चस्व की पृष्ठभूमि रची। तृतीय, राजतंत्र की स्थिति में भी परिवर्तन आये। तुर्क शासनकाल की निरंकुश राजतंत्रीय व्यवस्था, तैमूर के आगमन के साथ धराशायी हो गई। अफगानों के अधीन राजतंत्र का उदार रूप सामने आया जिसमें सामन्तों की सहमति से समान शासन करता था। इसकी सुस्पष्ट अभिव्यक्ति लोदी शासको विशेषकर बहलोल लोदी के आचरण में दिखाई पडती है। परन्तु बाबर के आक्रमण और मुगल राज्य की स्थापना के साथ ही फिर एक बार राजतंत्र की एक शक्तिशाली परम्परा स्थापित हुई और सामंतों के राजनैतिक प्रभावों पर अंकुश तगा।
दिल्ली सल्तनत के पतन का असर भारत के सामाजिक जीवन पर भी पडा और सामाजिक जीवन में भी परिवर्तन आए। तुर्क शासकों की तुलना में अफगान शासक वर्ग द्वारा ज्यादा बड़े पैमाने पर हिन्दू सामंतों को बड़े पद और राजनैतिक महत्व प्रदान करने की प्रक्रिया आरम्भ की गई। इसके प्रभाव निर्णायक सिद्ध हुए और इसी परम्परा को मुगल सम्राटों विशेषकर अकबर द्वारा प्रोत्साहन दिया गया जिससे एक समन्वित शासक वर्ग और उदार शासन पद्धति का विकास मध्यकालीन भारत में संभव हो सका। सांस्कृतिक क्षेत्र में संश्लेषण की प्रवृत्ति बढ़ी। कबीर एवं नानक जैसे भक्त संतों पर इस्लाम के उपदेशों के प्रभाव स्पष्ट देखे जा सकते हैं। इसी प्रकार सूफियों के कुछ प्रमुख सम्प्रदायों, जैसे चिश्ती, सत्तारी एवं कादिरी के संस्कारों और सिद्धान्तों में भारतीय प्रभाव मिलते हैं। मुस्तिम शासक वर्ग द्वारा भारतीय भाषाओं के विकास में योगदान मिलता है और एक संश्लेषित भाषा के रूप में उर्दू का विस्तार दकन के क्षेत्रों में भी होता है। स्थापत्य कला की संश्लेषित हिन्द-इस्लामी शैली भारत के सभी भागों में प्रसारित होती है और इसकी नयी क्षेत्रीय शैलियाँ विकसित होती हैं जो भारतीय प्रभावों को अधिक निर्णायक ढंग से आत्मसात करती हैं। सांस्कृतिक समन्वय की यही प्रक्रिया अकबरकालीन संश्लेषित दरबारी संस्कृति की आधारशिला बनी।
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मध्यकालीन भारत