window.location = "http://www.yoururl.com"; Lody Dynasty, 1451-1526 | लोदी राजवंश

Lody Dynasty, 1451-1526 | लोदी राजवंश

Introduction (विषय-प्रवेश) :

सल्तनत काल में दिल्ली के सिंहासन पर राज्य करने वाले राजवंशों में लोदी-वंश अन्तिम राजवंश था। बहलोल लोदी ने इस वंश की स्थापना की, सिकन्दर लोदी ने उसकी शक्ति और प्रतिष्ठा में वृद्धि की तथा इब्राहीम लोदी के शासनकाल में बाबर ने भारत पर आक्रमण किया और दिल्ली के लोदी-सुल्तानों की सत्ता को समाप्त करके मुगल-वंश की नींव डाली।
लोदी वंश के आरंभिक इतिहास के बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है फिर भी इतना निश्चित रुप से कहा जा सकता है कि तथाकथित गुलाम वंश के शासक नासिरुद्दीन महमूद के शासनकाल में अफगानों की दिल्ली सल्तनत की सेना में नियुक्तियॉ मिलने लगी थी। मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में इनकी स्थिती और भी सुदृढ हुई क्योंकि यह सामन्तों के रुप में पदासीन हुए। फिरोजशाह के शासनकाल में इन्हे प्रान्तीय गवर्नरों के रुप में नियुक्त किया गया। कालान्तर में इनकी स्थिती और भी मजबूत हुई और जब 1451 ई0 में बहलोल लोदी ने सत्ता पर अधिकार कर लिया जो उनका कोई विरोध नही हुआ। अफगान केवल दिल्ली में ही अपनी सत्ता स्थापित करने में सफल नही रहे थे बल्कि तैमूर के आक्रमण के बाद उदित होने वाले अनेक क्षेत्रीय राज्यों में भी अधिकांशतः अफगान शासकों की ही सत्ता बनी हुई थी और 1526 ई0 में बाबर के आक्रमण तक अफगानों का ही प्रभुत्व उत्तर भारत की राजनीति में बना रहा।
लोदी-वंश के 75 वर्ष के शासन की मुख्य विशेषता कटु संघर्ष है। लोदी-वंश के शासकों के लिए यह संघर्ष त्रिमुखी था। सर्वप्रथम उन्हें जौनपुर, मालवा, गुजरात और मेवाड़ के शक्तिशाली पड़ोसी राज्यों से अपने अस्तित्व की सुरक्षा और शक्ति के विस्तार के लिए संघर्ष करना पड़ा। सम्भवतया, इनमें से प्रत्येक राज्य दिल्ली-राज्य की तुलना में अधिक समृद्धशाली और शक्तिशाली था। उनकी मुख्य कमी दिल्ली का उनके हाथों में न होना था जिससे वे दिल्ली का सुल्तान होने का दावा कर पाते और उससे सम्बन्धित प्रतिष्ठा तथा प्रभाव का लाभ प्राप्त कर पाते। इस कारण उनमें से प्रत्येक अपने राज्य और प्रभाव का विस्तार करने के लिए उत्सुक था और प्रत्येक का लक्ष्य दिल्ली को प्राप्त करना था। लोदी-शासकों का दूसरा संघर्ष उन जमींदारों और अमीरों से था जो दुर्बल सुल्तानों के समय में प्रायः अर्द्ध-स्वतन्त्र हो गये थे और जो केवल तलवार की शक्ति पर ही दिल्ली के सुल्तान की आज्ञा का पालन करने और उसे राजस्व देने के लिए बाध्य किये जा सकते थे। फीरोज तुगलक के पश्चात् दिल्ली के सुल्तानों की दुर्बलता ने उस युग में ऐसी विकेन्द्रीकरण की शक्ति को जन्म दे दिया था जिसमें केन्द्रीय सत्ता का न भय था और न सम्मान तथा जो एक शक्तिशाली राज्य के संगठन के पूर्ण विरोध में थी। सैयद-शासक इस प्रवृत्ति को समाप्त करने और दिल्ली के सुल्तानों की प्रतिष्ठा तथा शक्ति को स्थापित करने में असफल रहे थे। इस कारण, लोदी-सुल्तानों को पुनः एक बड़े और केन्द्रीय राज्य के लिए प्रयत्न आरम्भ करना पड़ा और इस विकेन्द्रीकरण तथा स्वतन्त्रता की प्रवृत्ति के समर्थक अमीरों से संघर्ष करना पड़ा। परन्तु लोदी-सुल्तानों का तीसरा और मुख्य संघर्ष अपने अफगान सरदारों से हुआ। वे अफगान सरदार, जो उनकी शक्ति का मूल आधार थे, उनके साम्राज्य के संगठन और एक केन्द्रीय राज्य का स्थापना के मुख्य शत्रु थे। अफगानों की स्वतन्त्रता, समानता और शौर्य की प्रवृत्ति उनका मुख्य गुण थी परन्तु उनकी वही प्रवृत्ति लोदी सुल्तानों के द्वारा एक केन्द्रीय राज्य की स्थापना हतु किये जाने वाले प्रयत्नों के लिए सबसे अधिक घातक थी। अफगानों की स्वतन्त्र कबीलों की प्रवृत्ति उनके सुल्तानों की प्रतिष्ठा और शक्ति को सर्वोपरि स्थापित करने की नीति तथा राजनीतिक एकता की आवश्यकता के विरोध में थी। इस कारण लोदी-सुल्तानों की मुख्य समस्या अफगान सरदारों को अपने नियन्त्रण में रखने की थी और सम्भवतः यही उनके पतन के लिए उत्तरदायी हुई। अफगान सरदार एक शक्तिशाली केन्द्रीय राज्य की स्थापना की आवश्यकता को समझने और उसकी स्थापना में असफल हुए और इसी कारण मुगल शासक बाबर को भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने का अवसर मिला।

बहलोल लोदी (1451-1489)

बहलोल लोदी ने दिल्ली में लोदी-राजवंश की स्थापना की। वह अफगानों की एक महत्वपूर्ण शाखा ’शाहूखेल’ से सम्बन्धित था। लोदी वंश के व्यक्ति सर्वप्रथम भारत में लमगान और मुल्तान के निकट बसे थे। बहलोल ने सुल्तान मुहम्मदशाह को प्रसन्न करके अमीर का पद प्राप्त किया था। अपने चाचा इस्लामखाँ की मृत्यु के उपरान्त उसे सरहिन्द की सूबेदारी भी प्राप्त हो गयी। उसने आसपास के क्षेत्रों को जीतकर अपनी शक्ति में वृद्धि की और सुल्तान मुहम्मदशाह से भी अधिक शक्तिशाली हो गया। मुहम्मदशाह ने मालवा के शासक महमूद खलजी के आक्रमण के अवसर पर बहलोल से सहायता माँगी और और उसकी सहायता से प्रसन्न होकर उसे ’खानेजहाँ’ की उपाधि दी। उसके पश्चात् बहलोल ने दो बार दिल्ली को जीतने का प्रयत्न किया परन्तु दोनों ही बार वह असफल रहा। जब सुल्तान अलाउद्दीन आलमशाह अपने वजीर हमीदखाँ से झगड़कर बदायूँ चला गया तब हमीदखाँ ने बहलोल को दिल्ली बुलाया। हमीदखाँ का विचार था कि बहलोल उसका समर्थक और अनुयायी बना रहेगा। परन्तु बहलोल इसके लिए तत्पर न था। जो कार्य वह शक्ति से न कर सका था, वह अब स्वतः ही पूरा हो गया था। एक दावत के अवसर पर अफगान सैनिक किले में प्रवेश कर गये और बहलोल के चचेरे भाई कुतुबखाँ ने हमीदखाँ को जंजीरों से बाँध दिया तथा कहा कि “राज्य की भलाई इसी में है कि आप कुछ दिन विश्राम करें।” इस प्रकार वजीर हमीदखाँ को कैद कर लिया गया और बाद में उसका वध कर दिया गया। बहलोल ने सुल्तान अलाउद्दीन आलमशाह को बदायूँ से दिल्ली आने का निमन्त्रण भेजा जिसे उसने अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार बहलोल को दिल्ली का सिंहासन बिना किसी संघर्ष के प्राप्त हो गया और 19 अप्रैल, 1451 ई0 को वह ’बहलोलशाह गाजी’ के नाम से दिल्ली के सिंहासन पर बैठा और उसने अपने नाम से खुतबा पढ़वाया।
बहलोल लोदी गंभीर परिस्थितीयों में दिल्ली सल्तनत का शासक बना था। जौनपुर के शासकों के साथ संघर्ष जारी था और उसके अधीनस्थ शासक स्वतंत्र सत्ता ग्रहण करने के लिए प्रयास कर रहे थे। राजपूत शासक भी मेंवाड के नेतृत्व में संगठित होकर उत्तर भारत में अपनी सत्ता की पुनर्स्थापना के लिए प्रयास कर रहे थे। बहलोल ने अपने प्रमुख शत्रुओं जौनपुर के शर्की शासकों को पराजित किया। 20 वर्ष के लम्बे संघर्ष के बाद उसने जौनपुर के शासका हुसैन शाह शर्की को पराजित करने में सफलता पाई और उसे बिहार के क्षेत्र की ओर पलायन करने के लिए बाध्य कर दिया। अपने बडे बेटे बारबक शाह को उसने जौनपुर का शासक नियुक्त किया। जौनपुर की विजय बहलोल लोदी की सबसे महत्वपूर्ण विजय थी क्योंकि जौनपुर का राज्य उसके राज्य से ज्यादा समृद्ध और शक्तिशाली था। निश्चित रुप से इस विजय से उसके सम्मान में वृद्धि हुई। 1468-69 ई0 में बहलोल ने मुल्तान पर चढाई करके उस क्षेत्र को अपने नियंत्रण में कर लिया। कहा जाता है कि इसी समय उसने बडी संख्या में रोह के अफगानों को सल्तनत की सेना में भर्ती करने की नीति अपनाई। इसके फलस्वरुप बहुत बडी संख्या में अफगान आकर भारत में बसने लगे।
बहलोल लोदी ने मध्य भारत में भी सैनिक अभियान किये। उसने 1486-87 ई0 में ग्वालियर के शासक को पराजित करके नजराना देने पर बाध्य किया और धौलपुर के राजा से भी नजराना वसूला। ग्वालियर के शासक ने तो उसे 80 लाख टंका नजराना दिया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार उसने मेवाड पर भी चढाई की लेकिन इस अभियान के सम्बन्ध में विशेष जानकारी नही मिलती। मालवा पर भी बहलोल ने आक्रमण किया परन्तु यहॉ भी उसे सफलता नही मिली। ग्वालियर से ही वापस आते समय बहलोल लोदी बीमार पडा और जुलाई 1489 ई0 के मध्य में उसकी मृत्यु हो गयी।
बहलोल लोदी के शासनकाल का वास्तविक महत्व यह है कि इस काल में दिल्ली सल्तनत की पुनर्स्थापना का कार्य प्रारंभ हुआ। तैमूर के आक्रमण के पश्चात सल्तनत की शक्ति, प्रतिष्ठा और उसके क्षेत्रों का नुकसान हुआ था। सैयद शासक इस स्थिती को सुधारने में असमर्थ रहे थे। मगर बहलोल लोदी ने अपने प्रयासों से सल्तनत के क्षेत्रों को विस्तृत किया और उत्तर भारत की राजनीति में उसे महत्वपूर्ण स्थान उपलब्ध कराया।
वास्तव में बहलोल लोदी एक बेहतर सैनिक, परिश्रमी शासक, कूटनीतिज्ञ और परिस्थितियों को समझने वाला था। वह अपनी शक्ति की सीमाओं को समझता था। इससे भी अधिक व्यवहारिकता का परिचय उसने अपने अफगान सरदारों के प्रति व्यवहार करते हुए दिया। उसके समय में उसके अफगान सरदारों ने उसके लिए एक राज्य को स्थापित करने और उसकी प्रतिष्ठा को बनाये रखने में पूर्ण सहयोग दिया। इसी में बहलोल लोदी की मुख्य सफलता थी। एक शासक की दृष्टि से उसे न्यायप्रिय और उदार शासक माना गया है। उसके शासनकाल में चलाया गया ‘बहलोल‘ सिक्का प्रमुख था जो अकबर से पहले तक उत्तर भारत में विनिमय का मुख्य साधन बना रहा।

सिकंदर लोदी (1489- 1517)

बहलोल ने अपनी मृत्यु से पहले अपने तीसरे पुत्र निजामखाँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। जो व्यवस्था उसने स्थापित की थी, उसके कारण उसके अफगान सरदारों ने राजवंश से पृथक किसी अन्य सरदार को सुल्तान बनाने का विचार नहीं किया। यद्यपि कुछ सरदारों ने निजामखाँ का विरोध किया क्योंकि निजामखाँ की माँ जैबन्द एक हिन्दू सुनार की पुत्री थी। परन्तु शक्तिशाली सरदारों के सहयोग से 17 जुलाई, 1489 ई0 को निजामखाँ ’सुल्तान सिकन्दरशाह’ के नाम से सिंहासन पर बैठा।
सिकन्दरशाह ने यह सिद्ध कर दिया कि वह अपने पिता के पुत्रों में योग्यतम था। उसने उन विरोधी सरदारों को जो उसे सुल्तान बनाने के पक्ष में न थे और उन दावेदारों को, जो सिंहासन प्राप्त करने के लिए उत्सुक थे, समाप्त किया। उसने अफगान सरदारों के प्रभाव और शक्ति को दबाकर सुल्तान की प्रतिष्ठा को स्थापित किया। उसने बारबकशाह के दिल्ली से स्वतन्त्र होने के प्रयलों को असफल किया और इन सभी कार्यों को सफलतापूर्वक करने के साथ-साथ उसके साम्राज्य का भी विस्तार किया। बहलोल ने साम्राज्य-विस्तार के कार्य को आरम्भ किया था। सिकन्दर ने उस कार्य को आगे बढ़ाया। बहलोल ने विद्रोही सरदारों को दबाकर रखा था और अपने अफगान सरदारों से सुल्तान के अधिकारों के सम्बन्ध में समझौता कर लिया था। सिकन्दर ने विद्रोही सरदारों की शक्ति को नष्ट कर दिया और अन्य सरदारों को सुल्तान की सत्ता को मानने के लिए बाध्य किया। इस प्रकार राज्य-विस्तार तथा सुल्तान की शक्ति और प्रतिष्ठा की स्थापना की दृष्टि से सिकन्दरशाह अपने पिता से आगे बढ़ गया और लोदी-वंश के शासकों में श्रेष्ठ शासक कहलाने का अधिकारी बना।

सैनिक अभियान –

सिकन्दर लोदी ने अपने मुख्य प्रतिद्वन्दी बारबक शाह और आजम हुमायूॅं को पराजित करने के बावजूद उदारता की नीति अपनाते हुए उनके क्षेत्र वापस लौटा दिये। परन्तु जौनपुर में वहॉ के विस्थापित शासक हुसैन शाह शर्की और उसके समर्थकों द्वारा विद्रोह और उपद्रव भडकाए जा रहे थे जिनपर नियंत्रण पाने में बारबक शाह असमर्थ था। अतः 1492 ई0 में उसे पदच्युत करके जौनपुर का प्रत्यक्ष शासन ग्रहण कर लिया। उसने हुसैन शाह के विरुद्ध भी सैनिक कार्यवाई की और बंगाल के सुल्तान पर भी चढाई की क्योंकि वह हुसैन शाह की सहायता कर रहा था। 1495 ई0 में बंगाल के सुल्तान अलाउद्दीन हुसैन शाह ने सिकन्दर के साथ सन्धि कर ली। दोनो पक्षों ने एक दूसरे पर आक्रमण न करने और एक दूसरे के विरोधियों की सहायता न करने का आश्वासन दिया। इसके अतिरिक्त बिहार के अनेक क्षेत्रों पर सिकन्दर लोदी की संप्रभुता भी स्वीकार की गयी। इस तरह सल्तनत की सीमा लगभग मुॅगेर तक विस्तृत हो गयी।
सिकन्दर लोदी ने मध्य भारत में भी सैनिक अभियान किये। उसने ग्वालियर के राजा मानसिंह से नजराना प्राप्त किया, धौलपुर के शासक विनायकदेव को 1504 ई0 में पराजित किया। इसी वर्ष उसने मंद्रेल पर अधिकार कर लिया। 1507 ई0 में उसने अवन्तपुर और नरवर पर भी अधिकार कर लिया। सिकन्दर लोदी ने राजपूतों की समस्या पर भी ध्यान दिया। 1503 ई0 में उसने आगरा नगर का निर्माण किया और 1506 ई0 में अपनी राजधानी वहॉ स्थानांतरित कर दी ताकि दोआब पर नियंत्रण रखा जा सके और राजपूतों द्वारा दिल्ली की ओर बढने के प्रयास को विफल बनाया जा सके। अपने इस सैनिक अभियान से सिकन्दर ने दिल्ली सल्तनत को पुनः उत्तरी भारत के राजनीतिक जीवन का केन्द्र बिन्दु बना दिया। तैमूर के आक्रमण के पश्चात सल्तनत के क्षेत्रों में अधिकतम वृद्धि सिकन्दर के समय में ही संभव हुई।

एक प्रशासक के रुप में महत्वपूर्ण कार्य –

एक प्रशासक के रुप में सिकन्दर लोदी ने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। उसने सामन्तों पर कठोर अनुशासन लागू किया। उनकी जागीरों के प्रशासन और आमदनी पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। गुप्तचर विभाग का पुनर्गठन करके और सेना की कार्यकुशलता में वृद्धि करके उसने शासक की शक्ति को बढाया। उसने लगान व्यवस्था में सुधार किया। भूमि की माप के लिए सिकन्दरी गज का प्रयोग प्रारंभ हुआ जो लगभग 30 इंच का होता था। उसे प्रतिदिन वस्तुओं के मूल्य की सूचना दी जाती थी जिससे वह जान सके कि जनसाधारण का जीवन किस प्रकार का था। उसने आन्तरिक व्यापारिक करों को समाप्त कर दिया। उसके राज्य में शान्ति और व्यवस्था बनी रही जिसके कारण कृषि और व्यापार की उन्नति हुई। उसने लगान सम्बन्धी ऑंकडे एकत्रित कराये जिसके आधार पर लगान की वसूली का काम आसान हो गया। उसने न्याय विभाग की कार्यकुशलता को सुधारा। वह अत्यधिक परिश्रमी, उदार, न्यायप्रिय और अपनी प्रजा की भलाई चाहने वाला सुल्तान था। वह प्रातःकाल से लेकर मध्य-रात्रि तक कार्य करता था। वह न्याय में पूर्णतः निष्पक्ष रहता था और न्यायालय में उसके प्रतिनिधि रहते थे जो यह देखते थे कि सभी व्यक्तियों को न्याय प्राप्त होता था। सामान्य रुप से उसके शासनकाल में शान्ति, सुव्यवस्था और आर्थिक सम्पन्नता बनी रही।
सिकन्दर लोदी ने सामाजिक जीवन के अनेक दोषों को दूर किया। उसने जनकल्याण के लिए अनेक प्रशंसनीय सुधार लागू किये। निर्धनों को आर्थिक अनुदान, निःशुल्क भोजन का वितरण आदि उसके द्वारा किये गये जो कल्याणकारी उपायों में महत्वपूर्ण स्थान रखते है। उसने विद्या और कला को प्रोत्साहन दिया। सुप्रसिद्ध सन्त कबीर उसके ही समकालीन थे। वह स्वयं एक अच्छा कवि था और ‘गुलरुखी‘ के नाम से कविताएॅ लिखा करता था।

धार्मिक नीति –

धार्मिक दृष्टि से सिकन्दर लोदी असहिष्णु सिद्ध हुआ। तत्कालीन इतिहासकारों ने भी उसकी नीति को धर्मान्धता की नीति बताया है। निजामुद्दीन अहमद ने लिखा-“इस्लाम में उसकी (सिकन्दर की) धर्मान्धता इतनी अधिक थी कि वह इस क्षेत्र में अतिशय की सीमा को पार कर गया था।” अपनी इस धार्मिक कट्टरता का परिचय उसने अपने शाहजादा-काल में भी दिया था जबकि उसने थानेश्वर के पवित्र कुण्ड को नष्ट करने का निश्चय किया था। सुल्तान बनने के पश्चात् उसने हिन्दू-मन्दिरों को नष्ट करने, मूर्तियों को खण्डित करने और उनके स्थानों पर मस्जिदें बनाने की नीति अपनायी। उसने मथुरा, मन्दैल, नरवर, चन्देरी आदि स्थानों पर मन्दिरों और मूर्तियों को नष्ट किया। नगरकोट के ज्वालामुखी मन्दिर को उसने खण्डित किया और मथुरा में उसने हिन्दुओं को मुसलमान बनने के लिए प्रोत्साहन दिया। उसने बोधन नामक एक हिन्दू को इसलिए मृत्यु-दण्ड दिया क्योंकि वह इस्लाम और हिन्दू दोनों ही धर्मों को सत्य बताता था। सिकन्दरशाह के पक्ष में यह कहा गया है कि उसने मुसलमानों में प्रचलित कुप्रथाओं को भी रोकने का प्रयत्न किया था। उसने मुहर्रम में ’ताजिये’ निकालना बन्द कर दिया था और मस्जिदों को सरकारी संस्थाओं का रूप प्रदान करके उसे शिक्षा का केन्द्र बनाने का प्रयत्न किया और मुसलमान स्त्रियों को ’पीरों’ और सन्तों की मजारों पर जाने से रोक दिया था। क्रोध में उसने शर्की-शासकों द्वारा बनवायी गयी जौनपुर की सुन्दर मस्जिद को भी तोड़ने के आदेश दे दिये थे यद्यपि उलेमाओं के कहने से उसने अपना आदेश वापस ले लिया था। आधुनिक इतिहासकारों में से डॉ0 के0 एस0 लाल ने भी उसके पक्ष में एक शक्तिशाली तर्क दिया है। उन्होंने लिखा है : “15वीं सदी के अन्त और 16वीं सदी के आरम्भ तक भारत का धार्मिक वातावरण बदल चुका था। हिन्दू और मुसलमान धर्म एक-दूसरे के निकट आ चुके थे। भक्ति-आन्दोलन आरम्भ हो चुका था जो ईश्वर की समानता पर बल दे रहा था और धार्मिक सहिष्णुता का विचार फैल रहा था। ऐसी स्थिति में सिकन्दरशाह के धार्मिक कट्टरता के कुछ कार्य बहुत बुरे माने गये अन्यथा उसका व्यवहार अन्य मुसलमान शासकों की तुलना में अधिक धर्मान्धता का न था।“ वह पुनः लिखते हैं : “14वीं सदी में सिकन्दर लोदी का कार्य आश्चर्यजनक न माना जाता परन्तु 15वीं सदी में उसकी धर्मान्धता बहुत दोषपूर्ण मानी गयी।“ परन्तु सिकन्दर लोदी के पक्ष में दिये गये तर्कों के पश्चात् भी अधिकांशतया माना जाता है कि घर्मान्ध था और मुख्यतया उसने हिन्दुओं के प्रति अधिक कठोरता की नीति अपनाई। के0 एस0 लाल के तर्क को स्वीकार करते हुए भी यह कहना अनुपयुक्त नहीं है कि सिकन्दर शाह ने धर्मान्धता के कार्य किये थे। ये कार्य अपने युग की प्रवृत्ति होने के कारण प्रिय भी समझे गये। ऐसी स्थिति में अपने युग की सहिष्णुता के वातावरण में धार्मिक कट्टरता का परिचय देना एक बडी भूल ही नही एक दुराग्रह भी था। इस कारण सिकन्दर शाह लोदी को धर्मान्धता के दोष से मुक्त नही किया जा सकता है।
उपर्युक्त विवरणों से स्पष्ट है कि लोदी वंश के सुल्तानों में सिकन्दर शाह लोदी सर्वश्रेष्ठ शासक था। सिकन्दर शाह की मुख्य सफलता अफगान शासकों को अपने नियंत्रण में रखने की थी। वह अपने समय में अफगानों की कबाइली प्रकृति पर अंकुश लगाने में सफल हुआ था और इस दृष्टि से सुल्तान की प्रतिष्ठा को स्थापित करने में अपने पिता बहलोल लोदी से अधिक सफल हुआ। अपने शासन के अन्तिम दिनों में उसे गले की बीमारी हो गयी और 21 नवम्बर 1517 ई0 को उसकी मृत्यु हो गयी।

इब्राहिम लोदी (1517-1526)

सिकन्दर लोदी की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र इब्राहीम लोदी दिल्ली का सुल्तान बना। इब्राहीम लोदी-वंश का अन्तिम शासक साबित हुआ। उसका समय अपने भाई जलाल खाँ के संघर्ष से आरम्भ हुआ, ग्वालियर की विजय उसके समय की एकमात्र और यशस्वी विजय रही और मेवाड़ से संघर्ष उसके अपमान और उसकी दुर्बलता का कारण बना परन्तु उसके समय की मुख्य विशेषता उसका अपने अफगान सरदारों से संघर्ष था। सम्भवतया, बाबर का भारत पर आक्रमण लोदी-वंश के पतन का मुख्य कारण था क्योंकि इब्राहीम लोदी का बाबर से युद्ध में जीतना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य था। परन्तु इब्राहीम का अपने अफगान सरदारों से संघर्ष भी लोदी-वंश के पतन का एक महत्वपूर्ण कारण था जिसने बाबर के आक्रमण से पहले ही अफगानों की सैनिक-शक्ति को दुर्बल कर दिया था।
सुल्तान बनने के अवसर पर इब्राहीम ने सरदारों की सलाह से अपने भाई जलाल खॉं को जौनपुर का शासक स्वीकार कर लिया था लेकिन शीध्र ही इब्राहीम लोदी और दिल्ली के सरदार साम्राज्य विभाजन के विरोधी हो गये और सुरक्षा दृष्टि से उसने जलाल खॉ के समर्थकों को कारागार में डाल दिया। जलालखाँ ने दिल्ली आने से इंकार कर दिया और उसने स्वयं को कालपी में ’जलालुद्दीन’ के नाम से सुल्तान घोषित कर दिया। इब्राहीम ने बड़ी शान-शौकत से दिसम्बर 1517 ई. में पुनः अपना राज्याभिषेक किया। इसके बाद दोनों भाइयों में संघर्ष चलता रहा और बाद में इब्राहीम ने उसे जहर देकर मरवा दिया। इस प्रकार इब्राहीम ने अपने भाई को समाप्त करके राज्य-विभाजन को बचा लिया परन्तु इस संघर्ष से अनेक सरदारों में यह भावना उत्पन्न हो गयी कि इब्राहीम पर विश्वास नहीं किया जा सकता।

विजय अभियान –

इसके पश्चात् इब्राहीम ने ग्वालियर को जीतने की योजना बनायी। ग्वालियर ने समय-समय पर दिल्ली के सुल्तानों का विरोध किया था और उसे जीतने के सिकन्दरशाह के प्रयत्न असफल हुए थे। इस कारण ग्वालियर इब्राहीम की प्रतिष्ठा में वृद्धि कर सकती थी। ग्वालियर के राजा द्वारा जलालखाँ को शरण देना इस अवसर पर उपयुक्त बहाना भी था। आजमखाँ हूमायुँ शेरवानी के नेतृत्व में एक बड़ी सेना ने ग्वालियर पर आक्रमण किया। उस समय तक ग्वालियर के राजा मानसिंह की मृत्यु हो गयी थी और उसका पुत्र विक्रमजीत वहाँ का राजा था। उसने साहसपूर्वक किले की सुरक्षा का प्रबन्ध किया परन्तु वह असफल हुआ और अन्त में उसने आत्मसमर्पण कर दिया। ग्वालियर पर इब्राहीम का अधिकार हो गया परन्तु इब्राहीम ने उदारता से विक्रमजीत को शमशाबाद की जागीर दे दी। ग्वालियर की विजय से प्रोत्साहित होकर इब्राहीम ने मेवाड़ को जीतने की योजना बुनायी। राजस्थान में मेवाड सबसे शक्तिशाली राज्य था और उसका शासक राणा संग्रामसिंह एक महान योद्धा था। दिल्ली-सल्तनत और मेवाड़ का झगड़ा मालवा के अधिकार को लेकर था। मालवा के प्रधानमन्त्री मेदिनीराय की शक्ति प्रबल हो गयी थी तथा मालवा के सुल्तान ने असहाय होकर गुजरात और दिल्ली के शासकों से सहायता मांगी परन्तु राणा संग्रामसिंह से सहायता प्राप्त करके मेदिनीराय ने गुजरात के शासक और सिकन्दरशाह के मालवा में हस्तक्षेप करने के प्रयत्नों को असफल कर दिया था। इस प्रकार राणा संग्रामसिंह धीरे-धीरे मालवा में राजपूत-प्रभाव को बढ़ाने का प्रयत्न कर रहा था जबकि दिल्ली के सुल्तान स्वयं मालवा को प्राप्त करने के लिए उत्सुक होने लगा था। अतः इब्राहीम लोदी ने मेवाड़ को विजय करके अपने राज्य और सम्मान में वृद्धि करने का प्रयत्न किया। इस प्रकार ग्वालियर के निकट घटोली नामक स्थान पर एक युद्ध 1517-18 ई0 के आसपास हुआ जिसमें पराजित होकर इब्राहीम को वापस लौटना पड़ा। राणा संग्रामसिंह ने अपना बायाँ हाथ खो दिया और उसकी एक टाँग घायल हो गयी परन्तु विजय उसी को प्राप्त हुई। उसके पश्चात् भी मेवाड़ और दिल्ली में विभिन्न युद्ध हुए परन्तु उनमें अधिकांशतया दिल्ली की सेना की ही पराजय हर्ड। इस प्रकार इब्राहीम के समय में दिल्ली और मेवाड़ में निरन्तर संघर्ष चलता रहा जिसमें लाभ राजपूतों को मिला और राणा ने बयाना तक अपने राज्य का विस्तार करने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार मेवाड़ से युद्ध करने में इब्राहीम को असफलता और अपमान मिला तथा उसकी सैनिक शक्ति दुर्बल हुई।

अफगानों के प्रति नीति –

इब्राहीम के शासनकाल की मुख्य घटना सुल्तान और उसके अफगान सरदारों का संघर्ष था। इसके लिए एक तरफ सुल्तान इब्राहीम का निरंकुश राजतन्त्र की स्थापना का प्रयास और उसकी सन्देही प्रकृति तथा दूसरी तरफ अफगान सरदारों की स्वतन्त्रता और समानता की भावना एवं अपनी सुरक्षा के लिए सुल्तान की तरफ से आशंकित होना था। इब्राहीम ने स्वेच्छाचारी तुर्की सुल्तानों के समान व्यवहार करना आरम्भ किया। उसका विश्वास था कि सुल्तान का कोई सम्बन्धी नहीं होता और राज्य के सरदार उसके सेवक मात्र होते हैं। उसने दरबार के अमीरों को अपने सम्मुख हाथ बाँधकर खड़े होने की आज्ञा दी। सुल्तान सिकन्दर लोदी ने सरदारों को अपने नियन्त्रण में रखने में सफलता प्राप्त की थी। उसका मुख्य कारण यह रहा था कि उसने उन्हें कभी भी अपमानित नहीं किया था, उनकी व्यक्तिगत भावनाओं का सम्मान किया था और उनकी शक्ति को नष्ट करने के स्थान पर उसको अपने हित की पूर्ति में लगाया था। इब्राहीम ने अपने अफगान सरदारों को नष्ट करके अपने निरंकुश शासन की व्यवस्था का प्रयल किया। यह अफगान सरदारों की प्रकृति और सुरक्षा के विरुद्ध था जिसके कारण इब्राहीम का सम्पूर्ण समय अफगान सरदारों के विद्रोह को दबाने में व्यतीत हुआ।
जलालखाँ के विद्रोह के अवसर पर सुल्तान और उसके अफगान सरदारों में सन्देह के कारण उपस्थित हो गये थे। इब्राहीम ने आरम्भ में हुए साम्राज्य के विभाजन को ठुकरा दिया था। सुल्तान भी अपने सरदारों के प्रति शंकित रहने लगा। उसने अपने वजीर मियॉं भुआ को भी कारागार में डाल दिया। मियाँ मुआ सिकन्दर लोदी का वजीर रहा था और बड़ी वफादारी एवं योग्यता से लोदी सुल्तानों की सेवा कर रहा था। उसका अपराध सिर्फ यह था कि वह वृद्ध हो गया था और अधिक परिश्रम से राज्य की सेवा करने समर्थ नही था। इब्राहीम ने उस जैसे प्रतिष्ठित सरदार को कारागार में बन्द करके ठीक नहीं किया और उससे भी बड़ी भूल यह की कि उसी के पुत्र को अपना वजीर बना लिया। अपने भाइयों के प्रति बाहीम का व्यवहार क्रूरता का रहा। जलालखाँ को जहर देकर मरवा दिया गया और सम्भवतया, महमूद के अतिरिक्त उसके सभी भाई कारागार में मर गये। इसके अतिरिक्त इब्राहीम ने पुराने सरदारों के स्थान पर अपने प्रति वफादार नये और छोटे सरदारों को बड़े-बड़े पद प्रदान करना आरम्भ कर दिया था। उसके इन कार्यों ने अनेक सरदारों को असन्तुष्ट कर दिया और इसके परिणामस्वरुप दिल्ली सल्तनत के अनेक क्षेत्रों में विद्रोह होने लगे। विद्रोहियों ने सुल्तान द्वारा भेजी गयी एक सेना पर धोखे से आक्रमण करके उसे परास्त कर दिया। इब्राहिम ने एक बडी सेना भेजी परिणामस्वरूप भयंकर युद्ध हुआ। नियामतउल्ला ने लिखा है : हिन्दुस्तान में इतना अधिक रक्तरंजित युद्ध वर्षों से नहीं लड़ा गया था- लाशों के ढेरों से स्थल भर गया और मैदान में रक्त की नदियाँ बहने लगीं। पारस्परिक प्रतिस्पर्धा के कारण भाई ने भाई और पिता ने पुत्र से युद्ध किया। उन्होंने तीर-कमान भालों को त्याग कर छुरा, चाकू और तलवार से युद्ध किया।” अन्ततः इस युद्ध में इब्राहीम की विजय हुई और इस्लामखाँ मारा गया। सईदखाँ जैसे अनेक सरदार कैद कर लिये गये। इब्राहीम ने सरदारों की शक्ति को नष्ट करने में सफलता प्राप्त की परन्तु इस युद्ध में सेना के सर्वाधिक साहसी शूरवीर मारे गये और अफगानों की शक्ति दुर्बल हो गयी। इब्राहीम के एक हठ ने अपने शक्ति-स्तम्भों की जड़ों को खोखला कर दिया।

पानीपत का प्रथम युद्ध –

इस युद्ध के पश्चात इब्राहीम और अधिक उद्दण्ड हो गया जिससे सरदारों में इब्राहीम के प्रति शंका और अविश्वास और बढ गया। जो सरदार सुल्तान इब्राहीम की वफादारी से सेवा कर रहे थे, वे भी उसके प्रति शंकाल हो गये। शीघ्र ही बहादुरखाँ नें बिहार में स्वयं को स्वतन्त्र शासक घोषित करके ’सुल्तान मुहम्मद’ की उपाधि धारण की और अनेक असंतुष्ट सरदारों के सहयोग से बिहार से लेकर सम्भल तक के सम्पूर्ण क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। उसने कई बार इब्राहीम द्वारा भेजी गयी सेनाओं के परास्त करने में सफलता प्राप्त की। इब्राहीम ने पंजाब के सूबेदार दौलतखों लोदी को अपनी सहायता के लिए आगरा बुलाया परन्तु शंकावश उसने अपने पुत्र दिलावरखाँ को आगरा भेज दिया। उसने दिलावरखाँ को आतंकित करने का प्रयत्न किया जिसके कारण उसके पिता दौलतखाँ लोदी ने सुल्तान इब्राहीम की सहायता के लिए जाने के स्थान पर काबुल के शासक बाबर को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया।
उसी समय जबकि इब्राहीम की शक्ति को तोड़ने के लिए दौलतखाँ लोदी ने बाबर को निमन्त्रण दिया, इब्राहीम के चाचा आलमखाँ लोदी ने, जो सिकन्दरशाह के विरुद्ध विद्रोह करने के बाद से गुजरात के शासक की शरण में था, बाबर से सहायता मांगी और काबुल गया। बाबर ने, जो पहले से ही भारत पर आक्रमण करने के लिए इच्छुक था, इसे एक सुअवसर समझा और 1524 ई0 में उसने लाहौर तक आक्रमण किया तथा इब्राहीम की एक सेना को परास्त करने में सफलता पायी। परन्तु लाहौर में अपने सरदारों की नियुक्ति करके बाबर भारत से वापस चला गया। पुनः नवम्बर 1525 ई0 में बाबर अपने भारत-विजय के अभियान पर काबुल से चला और पंजाब को जीतन में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई। दौलतखाँ, उसका पुत्र दिलावरखाँ और आलमखाँ उससे मिल गये। इस प्रकार 21 अप्रैल, 1526 ई0 को बाबर और इब्राहीम की सेना के बीच पानीपत के मैदान में संघर्ष हुआ और भारतीय इतिहास में यह पानीपत के प्रथम युद्ध के नाम से विख्यात हुआ। बाबर के योग्य सेनापतित्व, श्रेष्ठ युद्ध नीति और तोपखाने के कारण इब्राहीम की पराजय हुई और वह युद्ध-स्थल में मारा गया। इब्राहीम लोदी की मृत्यु से लोदी-वंश ही समाप्त नहीं हुआ वरन् दिल्ली-सल्तनत का इतिहास भी समाप्त हो गया।
इब्राहीम की सबसे बड़ी दुर्बलता उसका हठी स्वभाव था। उसने अपने अफगान सरदारों की शक्ति को तोड़ने का निश्चय किया और अन्त तक उसके लिए कटिबद्ध रहा। वह यह नहीं समझ सका कि उसके अफगान सरदार सुल्तान की शक्ति और सम्मान के साथ धीरे-धीरे समझौता तो कर सकते थे परन्तु अपनी स्वतन्त्र प्रकृति और आत्मसम्मान के कारण तुरन्त समझौता करने के लिए तत्पर न थे। सुल्तान को अमीरों में से ही एक अमीर मानने वाले अफगान सरदार सुल्तान सिकन्दरशाह की कुशल नीति के कारण दब गये थे और सुल्तान का सम्मान करना सीख रहे थे परन्तु इब्राहीम ने अपनी शंका, कठोरता और हठ से उनके सम्मान और प्रकृति को खुली चुनौती दे दी और वह समय-समय पर मिले समझौते के अवसरों को खोता गया जिसके कारण सुल्तान और उसके अफगान सरदारों में प्रत्यक्ष टक्कर हो गयी। निस्सन्देह, बाबर की योग्यता, रणनीति और तोपखाना पानीपत के युद्ध में अफगानों के एक होने पर भी उसकी सफलता के लिए पर्याप्त थे परन्तु पंजाब से लेकर बिहार तक के शक्तिशाली और समद्धशाली सुल्तान इब्राहीम को परास्त करना बाबर के लिए सरल न होता परन्तु ऐसा न हो सका। इब्राहीम अपने सरदारों से लड़कर अपनी शक्ति के आधार को खो चुका था तथा उसका राज्य संकुचित हो गया था और इस कारण उसकी युद्धक्षमता दुर्बल हो गयी थी। ऐसी स्थिति में पानीपत का युद्ध दो असमान शत्रुओं का युद्ध था जिसमें इब्राहीम की पराजय निश्चित थी।

लोदियों का राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्त –

अफगानों का राजत्व-सिद्धान्त (ज्ीमवतल वि ज्ञपदहेपच) तुर्कों के राजत्व-सिद्धान्त से भिन्न था। तुर्की-सुल्तान निरंकुश और स्वेच्छाचारी होने का दावा करते थे। उनके सरदार उनके कर्मचारी, सलाहकार, समर्थक और अनुयायी थे परन्तु उनमें से कोई भी सुल्तान के साथ समानता या राज्य के शासन में साझेदारी का दावा नहीं कर सकता था। सुल्तान इल्तुतमिश से लेकर सैयद वंश के शासकों ने इस श्रेष्ठता का दावा किया था और बलबन और अलाउद्दीन जैसे शासकों ने अपने में देवत्व के अंश का दावा किया था। इसके विपरित अफगान सरदार सुल्तान को अपने में से ही एक बडा सरदार मानते थे। वे सुल्तान में देवत्व का अंश मानने के लिए तैयार नही थे। वे शक्ति, प्रभाव और राज्य में अपना अंश समझते थे। इस प्रकार अफगानों का राजत्व सिद्धान्त सरदारो की समानता पर आधारित था और ऐसी स्थिती में उसकी शासन व्यवस्था राजतंत्रीय न होकर कुलीनतंत्रीय थी।
अफगान लोदियों के राजत्व सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएॅ निम्न थी –

  1. उत्तराधिकार के विषय में अफगान पैतृक अधिकार अथवा उत्तराधिकारी को नामजद किये जाने के अधिकार को स्वीकार नही करते थे बल्कि योग्यता के आधार पर सरदारों के द्वारा सुल्तान को चुने जाने के अधिकार को मानते थे।
  2. प्रत्येक अफगान सरदार अपनी सेना का प्रधान होने का दावा करता था और अपनी सेना को सुल्तान की सेना का अविभाज्य अंग नही मानता था।
  3. सुल्तान के किसी भी अधिकार को वे विशेषाधिकार के रुप में मानने के लिए तत्पर न थे बल्कि स्वयं भी ऐसे सभी अधिकारों का उपभोग करना अपना अधिकार मानते थे।
    दिल्ली सल्तनत के इतिहास में लोदी वंश की स्थापना के साथ-साथ एक नये वंश और युग की शुरुआत होती है। पहली बार अब अफगान दिल्ली की गद्दी पर बैठे थे। अफगानों की मूल विशेषता यह होती है कि वे स्वतंत्रता प्रेमी होते है अर्थात वे ज्यादा नियंत्रण तथा अंकुश स्वीकार नही करते है। बहलोल लोदी जिन परिस्थितियों में दिल्ली की गद्दी पर बैठा उसे अपनी कमजोरियों और शक्ति का अन्दाजा था। इस दृष्टि से इतिहासकार आर्शीवादी लाल श्रीवास्तव उसे यथार्थवादी राजनीतिज्ञ की संज्ञा प्रदान करते है। इस परिपेक्ष्य में बहलोल लोदी ने अपने राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्त निर्धारित किये जो तुर्को के राजत्व से विल्कुल भिन्न था। उसने तुर्को के राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्त जिसके अन्तर्गत राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था, की जगह दरबारी अमीरों और सरदारों के साथ बराबरी का व्यवहार किया जिससे उनका विश्वास और समर्थन प्राप्त किया जा सके।
    बहलोल लोदी प्रथम अफगान शासक था जिसने दिल्ली में लोदी राजवंश की स्थापना की। जिस समय वह सिंहासनासीन हुआ उस समय उसके समक्ष अनेक कठिनाईयॉ थी। अतः उसने अफगानों का सहयोग प्राप्त करने के लिए अफगान सरदारों के साथ समानता का व्यवहार शुरु किया। बहलोल लोदी ने स्वयं को अमीरों का अमीर कहा। वह राजसिंहासन पर न बैठकर उसके सामने कालीन पर अन्य शासकों के साथ बैठता था जिससे व्यवहारिक रुप से उन्हे बराबरी का अहसास हो। उसने अपनी मातृभूमि से अनेक अफगान सरदारों को आमंत्रित किया और उन्हे सन्तुष्ट करने की नीति अपनाई। इसके लिए उसने सभी को जागीर प्रदान की तथा महत्वपूर्ण विषयों पर सबकी सलाह लेकर अर्थात सामूहिक निर्णय पर विश्वास करता था। इससे विरोध होने की संभावना नही रहती थी। बहलोल लोदी ने दरबार में सरदारों के लिए नियम पालन के क्षेत्र में उदारता सिखाई। इस प्रकार वह सरदारों व अमीरों के सहयोग से सफलतापूर्वक शासन करने में सफल रहा। अपनी क्षमताओं को पहचानते हुए उसने अनावश्यक रुप से साम्राज्य विस्तार की चेष्टा नही की परन्तु सरदारों और अमीरों को इतना छूट देने के वावजूद यदि कोई सरदार विरोध करता था तो उसका कठोरतापूर्वक दमन किया जाता था। सुल्तान ने राजा की निरंकुशता पूर्ण रुप से समाप्त कर दी थी और उसने सामन्तों को प्रसन्न करने की नीति को स्वीकार किया था। इस प्रकार उसने निरंकुश राजतंत्र त्यागकर वैघानिक गणतंत्र का मार्ग प्रशस्त किया।
    बहलोल लोदी के पश्चात सिकन्दर लोदी दिल्ली की गद्दी पर बैठा। वह अत्यन्त योग्य सुल्तान होते हुए भी धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त कट्टर नीति अपनाने वाला था। इसके कारण पर प्रकाश डालते हुए डा0 आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव लिखते है कि – चूकि सिकन्दर लोदी की उत्पत्ति हिन्दू मॉ से हुई थी इसलिए वह साबित करना चाहता था कि वह किसी भी दृष्टि से कम सच्चा मुसलमान नही है अर्थात उसे अपने चयन का औचित्य सिद्ध करना था।
    सिकन्दर लोदी ने बहलोल लोदी के राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्तों में परिवर्तन किया। उसने दरबारी अमीर तथा सरदारों पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया और बहलोल लोदी ने जहॉ सरदारों के प्रति बराबरी की नीति अपनाई वही सिकन्दर लोदी सुल्तान तथा शेष लोगों के बीच अन्तर स्पष्ट करना चाहता था। उसका मानना था कि सुल्तान की कोई बराबरी नही कर सकता है। यद्यपि उसके राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्त तुर्को के राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्त से मेल खाते थे फिर भी उसने तुर्को के राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्त को पूर्णतः नही अपनाया। बल्कि अपनी योग्यतानुसार उनका समावेश किया। सिकन्दर लोदी लोदी वंश के सुल्तानों में सर्वश्रेष्ठ सुल्तान के रुप में जाना जाता है। उसने अपनी योग्यता अपनी शासन नीति में प्रदर्शित की। एक शासक के रुप में उसकी सफलता का आधार पूर्णतः उसकी योग्यता थी क्योंकि अफगान सरदार और अमीर उसे बहलोल लोदी की भॉति समर्थन नही दे रहे थे। उलेमाओं के सन्दर्भ में सिकन्दर लोदी ने स्पष्ट रुप से कहा कि – उसे धर्माधिकारियों के अपेक्षा ज्यादा अच्छी तरह पता है कि राज्य के हित में क्या है और क्या नही। यद्यपि अफगान सरदार सिकन्दर लोदी की इस नीति से असन्तुष्ट थे फिर भी उसके दृढ निश्चय, बुद्धिमता और सैन्य कुशलता के आगे उसका कुछ न बिगाड सके।
    सिकन्दर लोदी के बाद इब्राहीम लोदी दिल्ली का सुल्तान बना जिसके सम्बन्ध में इतिहासकार डा0 आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव लिखते है कि – उसने अपनी पिता की बुद्धिमतापूर्ण राजत्व नीति में अविवेकपूर्ण ढंग से परिवर्तन किये। इब्राहीम लोदी लोदी वंश का सबसे कमजोर, असफल और जिद्दी शासक माना जाता है। उसने तुर्को के राजत्व सिद्धान्तों को पूर्णतः अपनाने का प्रयास किया जबकि वह जानता था कि अफगान सरदारों पर कठोर नियंत्रण लगाना संभव नही है। उसने इन सरदारों पर दरबार के कठोर नियंत्रण लागू करने का निर्णय लिया जो उसके पिता के शासनकाल में सुल्तान के साथ बराबरी का सम्मान पा चुके थे। ऐसी स्थिती में वे इब्राहीम लोदी के घोर विरोधी हो गये। इब्राहीम लोदी के अन्दर इतनी योग्यता भी नही थी कि वह अपना निर्णय दरबार के अमीरों पर थोप सके फिर भी उसने ऐसी कुचेष्टा की। परिणामस्वरुप इब्राहीम लोदी की नीतियॉ असफल होने लगी क्योंकि वह अपने सहयोगियों का विश्वास पाने में असफल रहा जिसकी मदद से उसे शासन चलाना था। स्थितीयॉ यहॉ तक पहुॅची कि इब्राहीम लोदी को पानीपत के निर्णायक युद्ध में अफगान अमीर और सरदारों का सहयोग न मिल पाना ही उसकी पराजय का मूल कारण बना।
    इतिहासकारों का मानना है कि इब्राहीम लोदी का राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्त लोदी वंश के पतन का एक प्रमुख कारण बन गया और वस्तुतः इब्राहीम लोदी की असफलता ने लोदी वंश के साथ-साथ दिल्ली सल्तनत को भी समाप्त कर दिया।
    संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि बहलोल लोदी ने राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्त को जिस प्रकार निर्वाहित किया तथा अपनी सूझबूझ से परिस्थितियों पर जिस प्रकार नियंत्रण कायम रखा उसके विपरित उसके उत्तराधिकारी इस महत्व को नही समझ सके और उन्हे अपने पतन के साथ-साथ दिल्ली सल्तनत के पतन के रुप में परिणाम भुगतना पडा।

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