(Introduction)विषय- प्रवेश :
सैय्यकद वंश का संस्थाप खिज्र खॉ मलिक सुलेमान का पुत्र था जो फिरोज शाह के अमीर मलिक मर्दान दौलत का दत्तक पुत्र था। मलिक सुलेमान के पूर्वजों के बारे में निश्चित जानकारी उपलब्ध नही है। तुगलक शासकों के अधीन खिज्र खॉ एक सेनानायक के रुप में कार्य कर रहा था। तैमूर के आक्रमण के समय उसने उसकी सत्ता स्वीकार कर ली थी और तैमूर द्वारा उसे पंजाब का क्षेत्र प्राप्त हुआ था। 1414 ई0 में दिल्ली के विजय के पश्चात उसका अधिकार पंजाब और दिल्ली तक फेल गया था और यही सीमा उसके वंशजों के समय में भी रही।
सैय्यद वंश की सत्ता 37 वर्ष तक बनी रही लेकिन इस काल में न तो खिलजी काल की तरह साम्राज्य विस्तार के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई और न ही तुगलक काल की तरह व्यापक प्रशासनीक सुधार हुए। सल्तनत की सीमा भी दिल्ली से लगभग 200 मील के क्षेत्र तक ही सीमित रही। सैय्यद शासकों ने जो भी सैनिक अभियान किये वह या तो इस सीमित क्षेत्र में विद्रोह और उपद्रव के दमन के लिए किये थे या समीपवर्ती राज्यों के शासकों से युद्ध के लिए किये थे। परन्तु इनका कोई ठोस परिणाम नही निकला और राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में सैय्यद शासकों की कोई ऐसी उपलब्धि नही रही जिससे भारतीय इतिहास में उन्हे गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हो सके। 1451 ई0 में इस वंश के अन्तिम शासक अलाउद्दीन शास हाक उसके अफगान मन्त्री बहलोल लोदी द्वारा सŸा से हटाकर इस वंश का अन्त कर दिया गया।
सैय्यद वंश के शासकों का संक्षिप्त विवरण निम्न है –
खिज्र खॉ (1414-1421 ई0)-
खिज्रखाँ सैयद राजवंश का संस्थापक था। उसने अपने को पैगम्बर मुहम्मद का वंशज बताया था परन्तु इसका कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता। सम्भवतया, उसके पूर्वज अरब से मुल्तान में आकर बस गये थे। मुल्तान के सूबेदार मलिक मर्दान दौलत ने खिज्रखाँ के पिता मलिक सुलेमान को पुत्रवत् माना था। बाद में सुल्तान फीरोज ने अपने समय में खिज्रखाँ को मुल्तान का सूबेदार नियुक्त किया था परन्तु 1395 ई0 में मल्लू इकबाल के भाई सारंगखाँ ने उसे मुल्तान से भागने को बाध्य किया और वह मेवात चला गया। तैमूर के आक्रमण के अवसर पर वह उसके साथ हो गया और तैमूर ने भारत छोड़ने से पहले उसे मुल्तान, लाहौर और दिपालपुर की सूबेदारी प्रदान की। अन्त में 1414 ई0 में उसने दौलतखाँ लोदी से दिल्ली को छीन लिया और दिल्ली का पहला सैयद सुल्तान बना। परन्तु खिज्रखाँ ने ’सुल्तान’ की उपाधि ग्रहण नहीं की अपितु ‘रयत-ए-आला’ की उपाधि से ही सन्तुष्ट रहा। वह तैमूर के पुत्र शाहरुख को निरन्तर भेंट और राजस्व भेजता रहता था और इस प्रकार एक प्रकार से वह अपने को उसके अधीन मानता था यद्यपि व्यावहारिक दृष्टि से ऐसी कोई बात नहीं थी। उसने कई वर्षों तक ‘खुतबा‘ भी शाहरुख के नाम से ही पढ़वाया। उसने अपने सिक्कों पर तुगलक शासकों के ही नाम रहने दिये। सम्भवतया, इसका कारण सोने-चाँदी की कमी थी परन्तु उसका मूल उद्देश्य तुर्क एवं अफगान सरदारों को सन्तुष्ट रखना और अपनी प्रजा की सहानुभूति प्राप्त करना था।
खिजखाँ का दिल्ली पर अधिकार हो जाने से पंजाब, मुल्तान और सिन्ध दिल्ली-सल्तनत में सम्मिलित हो गये थे परन्तु इनके अतिरिक्त दिल्ली-साम्राज्य दोआब और मेवात के कुछ प्रदेशों तक ही सीमित रह गया था। खिज्रखाँ ने इन सीमाओं को विस्तृत करने का कोई प्रयत्न नहीं किया बल्कि उसने इक्ताओं (सूबों) का ’शिकों’ (जिलों की भाँति) में बाँटकर स्थानीय वफादारियों को बढ़ने का अवसर प्रदान किया। खिज्रखाँ का मुख्य कार्य दिल्ली के निकट के उपजाऊ क्षेत्र को अपने अधीन करने और प्रत्येक वर्ष सैनिक बल द्वारा अपने जागीरदारों से राजस्व वसूल करने तक ही सीमित रहा। खिज्रखाँ ने तुर्की अमीरों को सन्तुष्ट करने की नीति अपनायी और उन्हें उनकी जागीरों से वंचित नहीं किया परन्तु वे सन्तुष्ट नहीं हुए और उस सुविधा का उपयोग उन्होंने निरन्तर विरोध और विद्रोह करने के लिए किया। खिज्रखाँ के सम्पूर्ण समय में यह स्थिति रही कि प्रत्येक वर्ष उसे या उसके सरदारों को राजस्व वसूल करने के लिए सैनिक-अभियानों पर जाना पड़ता था। विभिन्न जागीरदार या तो विरोध करने की स्थिति में न होने के कारण राजस्व दे दिया करते थे अथवा अपने किले में बन्द हो जाते थे और पराजित होने के पश्चात् ही राजस्व देते थे। इस कार्य में उसके मन्त्री ताज-उल-मुल्क ने उसकी बड़ी सहायता की। परन्तु खिज्रखाँ उस विद्रोही प्रवृत्ति और उन विद्रोही जागीरदारों को स्थायी रूप से समाप्त करने में असफल हुआ और जीवनपर्यन्त इन प्रकार के सैनिक-अभियानों में लगा रहा। उसने कटेहर, इटावा, खोर, जलेसर, ग्वालियर, बयाना, मेवात, बदायूँ आदि स्थानों पर आक्रमण किये। दूरस्थ स्थानों में से केवल नागौर ऐसा था जहाँ के शासक की सहायता के लिए वह गया। एक विद्रोही ने अपने को सारंगखाँ बताया और पंजाब में उपद्रव किया परन्तु उसे परास्त कर दिया गया। पंजाब में खोक्खरों ने भी उसे परेशान किया। मेवात और बदायूँ पर भी आक्रमण करने पड़े यद्यपि उनमें उसे आशातीत सफलता न मिली। उसके समय में गुजरात, मालवा और जौनपुर के शासक दिल्ली को प्राप्त करने के इच्छुक रहे परन्तु उन्होंने कोई बड़ा आक्रमण नहीं किया।
अपने अन्तिम समय में वह मेवात पर आक्रमण करने के लिए गया और उसने कोटला के किले को बर्बाद कर दिया। उसके पश्चात् उसने ग्वालियर के कुछ क्षेत्रों को लूटा और फिर इटावा गया जहाँ के नवीन राजा ने उसके आधिपत्य को स्वीकार कर लिया। वहाँ से वापस आते हुए वह बीमार हो गया और 20 मई, 1421 ई0 को दिल्ली पहुँचकर उसकी मृत्यु हो गयी।
खिज्रखाँ बुद्धिमान, उदार और न्यायप्रिय शासक था और उसका व्यक्तिगत चरित्र अच्छा था। इसी कारण वह अपनी प्रजा का प्रेम प्राप्त कर सका। फरिश्ता लिखता है : “उसके शासन में जनता प्रसन्न और सन्तुष्ट थी और इस कारण युवा और वृद्ध, दास और स्वतन्त्र, सभी ने उसकी मृत्यु पर काले वस्त्र पहनकर दुख प्रकट किया।” परन्तु वह बहुत सफल शासक नहीं हुआ। तुगलक-वंश के पतन और तैमूर के आक्रमण के पश्चात् दिल्ली-सल्तनत की जो दुर्बल स्थिति हो गयी थी, वह उसे सुधार न सका और उसका राज्य भारत के विभिन्न राज्यों की तुलना में श्रेष्ठ न बन सका।
मुबारकशाह (1421-1434 ई0) –
खिज्रखाँ ने अपने पुत्र मुबारकखाँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और वह मुबारकशाह के नाम से सिंहासन पर बैठा। उसने ’शाह’ की उपाधि धारण की, अपने नाम से खुतबा पढ़वाया और अपने नाम के सिक्के चलवाये। इस प्रकार उसने विदेशी स्वामित्व को स्वीकार नहीं किया। मुबारक को तीन मुख्य शत्रुओं से ख़तरा था। उत्तर-पश्चिम में खोक्खर नेता, दक्षिण में मालवा का शासक और पूर्व में जौनपुर का शासक उसके मुख्य प्रतिद्वन्दी थे। उपमें से प्रत्येक दिल्ली को प्राप्त करने की लालसा करते थे परन्तु मुबारक अपने सीमाओं की सुरक्षा करने में समर्थ रहा यद्यपि वह राज्य विस्तार न कर सका। झेलम चिनाब नदी की घाटियों में खोक्खर जाति बहुत पहले से प्रभावपूर्ण थी। उस अवसर पर उसके नेता जसरथ ने सैयद-वंश को नष्ट करने का प्रयत्न किया। जसरथ ने कश्मीर के राजा से सहायता प्राप्त की और काबुल के सूबेदार से भी सहायता लेने का प्रयत्न किया। उसने निरन्ता सरहिन्द, जालन्धर, लाहौर आदि विभिन्न स्थानों पर आक्रमण किये परन्तु उसे सफलता नहीं मिली। मुबारक ने जसरथ को दबाने हेतु अफगान सरदार बहलोल को नियुक्त किया परन्तु जसरथ ने उससे समझौता कर लिया। उसकी योजना बहलोल को साथ लेकर दिल्ली पर अधिकार करने की थी परन्तु वह इस उद्देश्य में सफल न हो सका। मालवा के शासक हुसंगशाह ने ग्वालियर को जीतने का प्रयत्न किया परन्तु वह असफल हुआ और ग्वालियर का शासक मुबारक की अधीनता को स्वीकार करता रहा यद्यपि उससे राजस्व वसूल करने के लिए मुबारक को उस पर कई बार आक्रमण करने पड़े। जौनपुर के शासक इब्राहीम से मुबारक का झगड़ा मुख्यतया बयाना, कालपी और मेवात के आधिपत्य के प्रश्न पर था। इब्राहीम निरन्तर इनको अपने आधिपत्य में लेने का प्रयत्न करता रहा परन्तु सफल न हुआ। मार्च 1428 ई0 में मुबारक और इब्राहीम में बयाना के निकट एक बड़ा युद्ध हुआ परन्तु यह युद्ध निर्णयात्मक न हुआ। फिर भी इब्राहीम वापस चला गया और बयाना मुबारक के अधिकार में रहा। परन्तु मुबारक का वध हो जाने पर मालवा के शासक हुसंगशाह ने कालपी पर अपना अधिकार करने में सफलता प्राप्त की।
मुबारक को काबुल के नायब-सूबेदार शेख अली के आक्रमणों का भी मुकाबला करना पड़ा। शेख अली ने सरसुती, अमरोहा और तबरहिन्द के विद्रोही सूबेदार पुलाद की सहायता को और जसरथ (खोक्खर) के उपद्रवों से भी लाभ उठाना चाहा। उसने जालन्धर, फीरोजपुर, लाहौर और मुल्तान के विभिन्न क्षेत्रों को लूटने में सफलता पायी परन्तु बड़े युद्धों में वह परास्त हुआ और मुबारक की सीमाओं के अन्तर्गत किसी भी प्रदेश को अपने आधिपत्य में न कर सका। मुबारक को भी राजस्व वसूल करने के लिए अपने जागीरदारों और सरदारों के विरुद्ध मुख्यतया बदायूँ, इटावा, कटेंहर, ग्वालियर आदि पर आक्रमण करने पडे। इससे स्पष्ट होता है कि विद्रोही सरदारों और सामन्तों को स्थायी रूप से दबाने में वह भी असफल रहा।
19 फरवरी, 1434 ई. को उसके वजीर सरवर-उल-मुल्क ने धोखे से मुबारकशाह का वध करा दिया जबकि वह कालपी जाते हुए अपने नवीन नगर मुवारकाबाद के निरीक्षण के लिए वहाँ रुका था। वजीर सरवर-उल-मुल्क पहले मलिक सरुप नाम का हिन्दू था और बाद में मुसलमान बना था। खिज्र खॉं ने उसे दिल्ली का कोतवाल नियुक्त किया था परन्तु 1422 ई0 में वह वजीर बनने में सफल हो गया। मुबारक उसके दम्भी व्यवहार से असन्तुष्ट था और वह उसकी कार्यक्षमता में भी विश्वास न कर सका था। इस कारण उसने उससे राजस्व के अधिकार छीनकर नायब सेनापति कमाल-उल-मुल्क का दे दिये थे। इससे सरवर उल-मुल्क असन्तुष्ट हो गया था। अन्त में, वह कुछ हिन्दुओं की सहायता से मुवारकशाह का वध कराने में सफल हो गया।
सैय्यद सुल्तानों में मुबारकशाह योग्यतम शासक सिद्ध हुआ। वह अपने राज्य का विस्तार न कर सका परन्तु शाह की उपाधि धारण करके उसने अपने आप को स्वतन्त्र घोषित किया और अपने नाम के सिक्के चलाये। उसकी मुख्य सफलता अपने राज्य की खोक्खरों एवं काबुल के शासकों के आक्रमणों से रक्षा करना तथा जौनपुर और मालवा के शक्तिशाली शासकों के प्रभाव एवं अधिकार-क्षेत्र को बढ़ने से रोकना था। उसका प्रायः 13 वर्ष का शासनकाल अपने राज्य के विदेशी शत्रुओं और आन्तरिक विद्रोहियों से निरन्तर संघर्ष का समय था और वह इस संघर्ष में सफल हुआ। उसने इक्तादारों (सूबेदारों) का स्थानान्तरण करके सुल्तान की प्रतिष्ठा को भी स्थापित करने का प्रयत्न किया जिससे यह सिद्ध हो सके कि उनकी जागीर या उनका ’इक्ता’ पैतृक सम्पत्ति नहीं बल्कि सुल्तान द्वारा प्रदत्त अधिकार है। परन्तु इससे जागीरदार और इक्तादार असन्तष्ट हुए क्योंकि फीरोज के उत्तराधिकारियों के समय में सुल्तानों की दुर्बलता का लाभ उठाकर वे अपनी जागीरों एवं इक्ताओं को पैतृक सम्पत्ति मानने लगे थे। मुबारक की मुख्य असफलता योग्य एवं वफादार असैनिक अधिकारियों और दरबार के अमीरों को चुनने की रही जिसके कारण उसकी हत्या का षड्यन्त्र सफल हुआ। अन्य दृष्टिकोण से उसके प्रयल सराहनीय रहे। मुबारक ने यमुना नदी के तट पर एक नवीन नगर मुबारकाबाद बसाया और उसमें एक अच्छी मस्जिद बनवायी। उसने तत्कालीन विद्वान याहिया बिन अहमद सरहिन्दी को संरक्षण प्रदान किया जिसने उसके समय के इतिहास ’तारीख-ए- मुबारकशाही’ को लिखा। इस प्रकार मुबारकशाह सैयद-शासकों में योग्यतम शासक सिद्ध हुआ।
मुहम्मदशाह (1434-1443 ई0) –
मुबारकशाह के पश्चात् उसके भाई का पुत्र मुहम्मद-बिन फरीदखाँ मुहम्मदशाह के नाम से गद्दी पर बैठा। वह अयोग्य और विलासी सिद्ध हुआ। उसने अपनी अयोग्यता से सैयद-वंश के पतन का मार्ग प्रशस्त किया। आरम्भ के छः माह तक वजीर सरवर-उल-मुल्क का शासन पर पूर्ण प्रभाव रहा। उसने अपने साथी सरदारों और मुबारक के वध में भाग लेने वाले हिन्दू-सामन्तों को प्रतिष्ठित पद प्रदान किये। परन्तु नायब-सेनापति कमाल-उल-मुल्क सैयद-वंश के प्रति वफादार रहा और उसने वजीर को समाप्त करने के लिए सरदारों का एक पृथक गुट बना लिया। वह चालाकी से अपनी भावनाओं को छिपाये रहा। वजीर ने उसे बयाना के विद्रोह को दबाने के लिए भेजा। सेना की शक्ति प्राप्त करके कमाल-उल-मुल्क ने अपनी योजना को सभी के सम्मुख रख दिया और अपनी सेना को लेकर दिल्ली वापस आ गया। वजीर ने इस षड्यन्त्र को देखकर सुल्तान का वध करने का प्रयत्न किया परन्तु सुल्तान स्वयं इस षड्यन्त्र में सम्मिलित था अतः सावधान था। जब वजीर उसे कत्ल करने गया तब सुल्तान के अंगरक्षकों ने वजीर और उसके सहयोगियों का वध कर दिया।
मुहम्मदशाह वजीर के प्रभाव से मुक्त हो गया परन्तु स्वयं भी शासन की देखभाल न कर सका। नवीन वजीर कमाल-उल-मुल्क भी अधिक योग्य न था। इसके परिणामस्वरूप विद्रोहियों और बाह्य आक्रमणकारियों को अवसर मिला। मालवा के शासक महमूद ने दिल्ली पर आक्रमण किया। मुहम्मदशाह ने अपनी सहायता के लिए मुल्तान के सूबेदार बहलोल को बुलाया। दिल्ली से दस मील दूर तलपत नामक स्थान पर युद्ध हुआ परन्तु निर्णय न हो सका। मुहम्मदशाह ने महमूद के पास सन्धि का प्रस्ताव भेजा और महमूद अपनी राजधानी पर गुजरात के शासक द्वारा आक्रमण का समाचार पाकर वापस जाने को तैयार हो गया। वापस जाते हए महमूद पर बहलोल ने आक्रमण किया तथा उसके कुछ सामान को लूटने और सैनिकों को बन्दी बनाने में सफलता प्राप्त की।
मुहम्मदशाह ने बहलोल का सम्मान किया, उसे अपना पुत्र कहकर पुकारा और उसे ’खान-ए-खाना’ की उपाधि से विभूषित किया। पंजाब के अधिकांश भाग पर बहलोल का स्वामित्व भी स्वीकार कर लिया गया। इससे लालायित होकर बहलोल ने स्वयं 1443 ई0 में दिल्ली पर आक्रमण किया परन्तु वह विफल रहा। परन्तु इससे यह स्पष्ट हो गया कि सैयद शासकों द्वारा उत्तर-पश्चिम और पंजाब की सुरक्षा के लिए नियुक्त किये गये अफगान व लोदी सरदार शक्तिशाली और महत्त्वाकांक्षी बन गये थे तथा उनका नेता बहलोल लोदी दिल्ली को जीतकर स्वयं सुल्तान बनने के लिए उत्सुक हो गया था।
अपने अन्तिम समय में मुहम्मदशाह न तो आन्तरिक विद्रोहों को दबा सका और न ही अपने राज्य की सीमाओं की सुरक्षा कर सका। जौनपुर के शासक ने पूर्व में उससे कुछ परगने छीन लिये, मुल्तान स्वतन्त्र हो गया, इक्तादारों ने राजस्व देना बन्द कर दिया और दिल्ली के बीस मील के दायरे में रहने वाले अमीर भी स्वतन्त्र प्रवृत्ति का परिचय देने लगे। इस प्रकार मुहम्मदशाह असफल शासक सिद्ध हुआ और उसके समय से सैयद-वंश का पतन आरम्भ हो गया। 1445 ई0 में उसकी मृत्यु हो गयी।
अलाउद्दीन आलमशाह (1445-1451 ई0) –
मुहम्मदशाह की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अलाउद्दीन ’अलाउद्दीन आलमशाह’ के नाम से सिंहासन पर बैठा। वह सैयद-शासकों में सबसे अधिक अयोग्य सिद्ध हुआ। वह आरामपसन्द और विलासी था और अपने प्रभुत्व को बढ़ाने में स्वयं को अयोग्य पाकर और अपने वजीर हमीदखाँ से झगड़ कर वह बदायूँ चला गया और वहीं रहने लगा। 1447 ई0 में बहलोल लोदी ने पुनः दिल्ली पर आक्रमण किया परन्तु वह पुनः असफल रहा। अन्त में हमीदखाँ ने बहलोल और नागौर के सूबेदार कियामखाँ को दिल्ली आमन्त्रित किया। उसका विचार था कि उनमें से जो भी दिल्ली में रहेगा, वह उसके हाथ में कठपुतली बन जायेगा। बहलोल, जो निकट था, पहले दिल्ली पहुँच गया और कियामखाँ वापस चला गया। बहलोल ने थोड़े समय पश्चात् हमीदखाँ को मरवा दिया और 1450 ई0 में उसने सम्पूर्ण शासन अपने हाथों में ले लिया। उसने अलाउद्दीन आलमशाह को दिल्ली आने का निमन्त्रण दिया परन्तु अलाउद्दीन ने अपनी दुर्बल स्थिति को देखकर बदायूॅ में ही रहना ठीक समझा। बहलोल ने भी अलाउद्दीन को बदायूँ से अपदस्थ करने का प्रयल नहीं किया और अलाउद्दीन अपनी मृत्यु तक (1476 ई0) बदायूँ पर शासन करता रहा। इसके पश्चात उसके दामाद और जौनपुर के शासक हुसैनशाह शर्की ने बदायू को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। डॉं0 के0 ए0 निजामी ने लिखा है – “इस प्रकार 37 वर्ष नगण्य शासन के पश्चात् सैयद-वंश समाप्त हो गया। मुल्तान के राज्य के रूप में उसका उत्थान हुआ और बदायूँ के राज्य के रूप में वह समाप्त हुआ। भारत के मध्ययुगीन इतिहास में राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक दृष्टि से उसका कोई महत्वपूर्ण योगदान नही रहा यद्यपि वह दिल्ली-साम्राज्य के विघटन और पुनर्निर्माण के रूप में एक अनिवार्य कडी था।“ इस प्रकार सैयद शासक न तो दिल्ली सल्तनत को सुरक्षित रख सके और न कोई प्रशासकीय व्यवस्था अथवा सिद्धान्त प्रदान कर सके और “बहलोल लोदी को वस्तुतः न केवल एक नवीन राज्य का निर्माण करना पडा अपितु एक नवीन राजत्व को भी जन्म देना पडा।
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