विषय-प्रवेश (Introduction)
आधुनिक भारत के इतिहास में लार्ड डलहौजी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 1812 ई0 में लार्ड डलहौजी का जन्म स्कॉटलैंड के किले में हुआ था, उनका वास्तविक नाम जेम्स एंड्रू ब्राउन रामसे था। लार्ड डलहौजी ने क्राइस्ट चर्च एंड हेरो और ऑक्सफ़ोर्ड से शिक्षा ली थी। 25 की उम्र में उन्हें ब्रिटिश पार्लियामेंट के लिए चुना गया था और कालान्तर में वह व्यू काउंसलर और बोर्ड ऑफ़ ट्रेड के प्रेजिडेंट भी बना। वह एक महान साम्राज्यवादी था तथा भारत में ब्रिटिश साम्राजय को बढ़ाने के लिए उसने यथाशक्ति कार्य किया। उसे यथार्थ रुप से ही इस देश में ब्रिठिश साम्राज्य का संस्थापक कहा जाता है। निःसन्देह वह भारत के सबसे बड़े गवर्नर जनरलों में से एक था। न ही महत्वाकांक्षा में और न ही परिश्रम में उसे किसी के द्वारा पराजित किया जा सकता है। उसके कार्य-काल में आठ वर्ष प्रत्येक क्षेत्र में महत्वपूर्ण घटनाओं से पूर्ण है।
वह सन् 1848 ई0 में भारत का वायसराय बन कर आया। वह शुरु से ही दृढ प्रतिज्ञ था कि प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन जितने बडे क्षेत्र पर सम्भव हो सके स्थापित किया जाए। इस बात का प्रत्यक्ष कारण उसनें देशी राजाओं के अयोग्य शासन को ठहराया। लेकिन इस बात का प्रत्यक्ष कारण भारत में ब्रिटिश माल का निर्यात बढाना था। स्वयॅ उसके शब्दों में --’’भारत में देशी राजाओ के अस्तित्व की समाप्ति बस कुछ ही समय की बात है।’’
इस बात का प्रकट कारण यह बताया कि देशी राजाओ के भ्रष्ट तथा अत्याचारी शासन की अपेक्षा ब्रिटिश शासन कहीं अधिक बेहतर है। मगर इस नीति का आधारभूत आधार भारतीय राज्यों में ब्रिटिश माल का निर्यात बढाना था। अन्य आक्रामक साम्राज्यवादियों की तरह लार्ड डलहौजी का भी यही मानना था कि भारत के सभी राज्यों में ब्रिटिश माल के निर्यात का मूल कारण इन राज्यों में उनके भारतीय शासको का कुशासन है। इसके अलावा उसने सोचा कि उनके भारतीय सहयोगियों की मदद से ब्रिटिश विजय को आसान बनाने का काम लिया जा चुका है अब उनसे पिण्ड़ छुडा लेना ही बेहतर है। इस प्रकार इन समस्त तथ्यों की पृष्ठभूमि में लार्ड डलहौजी ने अपने हडप नीति को क्रियान्वित किया जिसके लिए उसने चार साधनों का सहारा लिया।
हडप नीति के चार प्रमुख साधन --
- युद्धों के आधार पर -
- पदों एवं पेंशन की समाप्ति करके-
- कुशासन के आधार पर -
- उत्तराधिकार अपहरण का सिद्धान्त -
युद्ध द्वारा साम्राज्य विस्तार -
मुल्तान के तात्कालिक गवर्नर मूलराज ने, ’उत्तराधिकार दंड’ माँगे जाने पर त्यागपत्र दे दिया। परिस्थिति सॅंभालने के लिए लाहौर दरबार द्वारा खान सिंह के साथ दो अंग्रेज अधिकारी भेजे गए, जिनकी हत्या हो गई। तदंतर मूलराज ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह द्वितीय सिक्ख युद्ध का एक आधार बना। राजमाता रानी जिंदा को सिक्खों को उत्तेजित करने के संदेह पर शेखपुरा में बंदी बना लिया गया था। अब विद्रोह में सहयोग देने के अभियोग पर उसे पंजाब से निष्कासित कर दिया गया। इससे सिक्खों में तीव्र असंतोष फैलना अनिवार्य था। अंततः कैप्टन ऐबट की साजिशों के फलस्वरूप, महाराजा के भावी श्वसुर, वयोवृद्ध छतर सिंह अटारीवाला ने भी बगावत कर दी। शेर सिंह ने भी अपने विद्रोही पिता का साथ दिया। यही विद्रोह द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध में परिवर्तित हो गया। इस कड़ी में प्रथम लड़ाई 13 जनवरी 1849 को चिलियाँवाला में हुआ। इस युद्ध में अंग्रेजों की सर्वाधिक क्षति हुई। संघर्ष इतना तीव्र था कि दोनों पक्षों ने अपने विजयी होने का दावा किया। लेकिन शीध्र ही द्वितीय युद्ध 21 फरवरी 1849 ई0 को गुजरात में हुआ। इस युद्ध में सिक्ख पूर्णतया पराजित हुए तथा 12 मार्च 1849 ई0 को यह कहकर कि आज रणजीत सिंह मर गए, सिक्ख सिपाहियों ने आत्मसमर्पण कर दिया। लार्ड ड़लहौजी ने अन्ततः 29 मार्च 1949 ई0 को पंजाब का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में करने की घोषणा कर दी।
द्वितीय आंग्ल-बर्मा युद्ध 1852 ई0 में हुआ था। प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध का अंत याण्डबू की संधि से हुआ था परंतु यह संधि बर्मा के इतिहास में ज्यादा कारगर सिद्ध नहीं हुई और यह संधि समाप्त हो गई। इस संधि के समापन का कारण यह था कि संधि के पश्चात कुछ अंग्रेजी व्यापारी बर्मा के दक्षिणी तट पर बस गए और वहीं से अपने व्यापार का संचालन प्रारंभ किया। कुछ समय पश्चात इन व्यापारियों ने बर्मा सरकार के निर्देशों एवं नियमों का उल्लंघन करना प्रारंभ कर दिया। इस कारण बर्मा सरकार ने उन व्यापारियों को दंडित किया जिसके फलस्वरुप अंग्रेज व्यापारियों ने अंग्रेजी शासन से सन 1851 ई0 में सहायता मांगी। लॉर्ड ड़लहौजी ने इस अवसर का फायदा उठाकर सन 1852 ई0 में बर्मा के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस युद्ध में अंग्रेजों ने बर्मा को पराजित किया और पेंगू एवं रंगून पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। इस युद्ध के पश्चात बर्मा का समस्त दक्षिणी भाग अंग्रेजी सरकार के अधिकार में आ गया।
पदों और पेंशनों की समाप्ति
ब्रिटिश इस्ट इण्ड़िया कम्पनी जिन राज्यों को अपने शासन में सम्मिलित करती थी, वहाँ के शासकों को वह पेंशन देती थी। लॉर्ड डलहौजी ने इन पेंशनों को बन्द कर दिया। 1853 ई0 में जब कर्नाटक के नवाब की मृत्यु हो गई तो लार्ड़ डलहौजी ने मद्रास सरकार के सुझाव से सहमत होकर उसके उत्तराधिकारियों को मान्यता नहीं दी और उसके वंशजों का राजपद समाप्त कर दिया। पेशवा बाजीराव द्वितीय को 8 लाख रुपये वार्षिक पेंशन मिलती थी लेकिन 1853 ई0 में उनकी मृत्यु हो जाने पर यह पेंशन उसके दत्तक पुत्र नाना साहब को नहीं दी गई। 1855 ई0 में तन्जौर के राजा की मृत्यु हो गई। उसके पश्चात् उसकी सोलह विधवा रानियाँ और दो बेटियाँ रह गईं। डलहौजी ने उनकी उपाधि को समाप्त कर दिया। इसी प्रकार डलहौजी मुगल सम्राट् की उपाधि भी समाप्त करना चाहता था, किन्तु कम्पनी के संचालकों ने उसके इस सुझाव को स्वीकार नहीं किया। इस प्रकार लार्ड डलहौजी ने अनेक शासकों के उपाधियों तथा खिताबो को समाप्त कर उनका पेंशन बन्द कर दिया। उदाहरण के तौर पर सूरत के नबाब तथा बैलोर के शासक को लिया जा सकता है। डलहौजी ने इन शासकों को पेंशन देने से इनकार कर दिया और इनके राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।कुशासन के आधार पर साम्राज्य का विलय-
लार्ड डलहौजी की इस नीति का शिकार अवध का नवाब और हैदराबाद का निजाम हुआ। बरार क्षेत्र हैदराबाद के निजाम के नियन्त्रण में था और उसे बहुत सी धनराशी सहायक सेना के भरण-पोषण के लिए देनी थी। अन्ततः उसे इस धन के बदले में 1853 ई0 में बरार का प्रदेश देने के लिए बाध्य किया गया।दूसरी तरफ लार्ड़ ड़लहौजी अवध की रियासत को भी ब्रिटिश सामा्रज्य में मिलाने को तत्पर था। वस्तुतः कलकत्ता से पंजाब तक अंग्रेजों का साम्राज्य विस्तारित हो चुका था परन्तु अवध का विशाल भू-भाग और राज्य कलकत्ता और लाहौर के बीच आवागमन में बाधा उपस्थित करता था। इसी कारण अवध के क्षेत्र पर प्रत्यक्ष अधिकार करने के लिए आधार ढ़ूढ़ने की आवश्यकता महसूस हुई। उल्लेखनीय है कि प्लासी तथा बक्सर के युद्ध के समय से ही अवध के नबाब ब्रिटिश सहयोगी रहे थे और वे वर्षो से अंग्रेजो के आज्ञाकारी रहे थे। चूॅकि अवध के नवाव के अनेक उत्तराधिकारी थे अतः उसपर गोंद निषेध की प्रथा को लागू नही किया जा सकता था। इसके लिए किसी अन्य बहाने की आवश्यकता थी। अन्ततोगत्वा डलहौजी के मस्तिष्क में अवध की जनता की दशा को सुधारने का ख्याल आया। इस प्रकार अवध के नवाव वाजिद अली शाह पर अपने राज्य में गलत ढंग से शासन करने तथा उसमें सुधार लाने से इनकार करने का आरोप लगाया गया और अन्ततः सन् 1856 ई0 में अवध की रियासत को भी कुशासन के आधार पर ब्रिटिश साम्राज्य में विलिन कर लिया गया।
1847 ई0 में वाजिद अली शाह अवध का नया नवाब बना। उसे आरंभ से ही अंग्रेज अधिकारियों ने प्रशासन की तरफ ध्यान देने की चेतावनी देना शुरू कर दिया था। परंतु नवाब ने अपना प्रशासनिक उत्तरदायित्व अपने अधिकारियों पर छोड़ दिया और स्वयं आमोद-प्रमोद तथा विलासिता में डूबता गया। वस्तुतः वाजिद अली शाह यह समझता रहा कि जब तक वह कंपनी सरकार के प्रति निष्ठावान बना रहेगा, उसे किसी प्रकार के संकट का सामना नहीं करना पड़ेगा। उसे गवर्नर-जनरल डलहौजी की योजना की भनक अंतिम समय तक भी नहीं मिल पाई थी।
अवध के संबंध में कोई कार्यवाही करने के पूर्व डलहौजी ने उसके विरुद्ध लिखित साक्ष्य एकत्र करने का निश्चय किया ताकि वह अपने कार्य का औचित्य सिद्ध कर सके। इसके लिए अवध में नियुक्त अंग्रेज रेजीडेन्टों को विस्तृत रिपोर्ट भेजने को कहा गया। अंग्रेज अधिकारियों ने भी ऐसी ही रिपोर्ट तैयार की, जिससे गवर्नर-जनरल प्रसन्न हो सके और वह अपनी सरकार के उच्चाधिकारियों के सामने बतौर साक्ष्य के उन रिपोर्टों को प्रस्तुत कर सके।1848 ई0 में कर्नल स्लीमैन को अवध में अंग्रेज रेजीडेन्ट नियुक्त किया गया। उसने अपनी रिपोर्ट में बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर अवध के कुशासन का विवरण दिया। स्लीमैन की रिपोर्ट के अनुसार अवध में चारों तरफ अव्यवस्था फैली हुई थी जिसे उसने अराजकता की संज्ञा दी। कुशासन का सारा दोष नवाब वाजीद अली शाह के सिर पर डाला गया। स्लीमैन के शब्दों में वह कभी दरबार में उपस्थित ही नहीं होता था। उसने रिपोर्ट में सुझाव दिया कि शासन-व्यवस्था में सुधार लाने के लिए कठोर कार्यवाही की आवश्यकता है। फिर भी, कर्नल स्लीमैन अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाये जाने के पक्ष में नहीं था। उसका मानना था कि इस प्रकार की कार्यवाही से ब्रिटिश प्रतिष्ठा को गहरा आघात लग सकता है। स्लीमैन की इस दलील से डलहौजी को अपनी योजना को थोड़े दिनों के लिए स्थगित करनी पड़ी। किन्तु उसने चालाकी से काम किया। न तो स्लीमैन की रिपोर्ट पर किसी प्रकार की कार्यवाही की और न ही वाजिद अली शाह को कुशासन के बारे में कोई चेतावनी ही दी गई लेकिन इसका अर्थ यह भी नही था कि लार्ड़ ड़लहौजी ने अपनी योजना में कोई परिवर्तन कर लिया था।
1854 ई0 में उसने एक अन्य अंग्रेज अधिकारी जनरल आउट्रम को अवध में नया रेजीडेन्ट नियुक्त किया। जनरल आउट्रम ने अपनी नियुक्ति के कुछ महीने बाद ही 1855 ई0 में अवध की शासन-व्यवस्था के बारे में एक विस्तृत रिपोर्ट भेजी जिसमें नवाब एवं उसके शासकीय अधिकारियों पर गंभीर आरोप लगाये गये तथा अवध के कुशासन को अतिशयोक्ति के साथ प्रस्तुत किया गया। डलहौजी ने इस रिपोर्ट के तथ्यों को तोङ-मरोङकर संचालक-मंडल के सम्मुख प्रस्तुत किया और उसे अवध में कार्यवाही करने की अनुमति मिल गई।लार्ड़ ड़लहौजी अन्तःकरण से अवध को हङपना चाहता था, किन्तु प्रगट में वह ऐसा प्रदर्शित करना नहीं चाहता था। अतः सर्वप्रथम यह निर्णय लिया गया कि 1801 ई0 की संधि को भंग कर दिया जाय। इस संधि में नवाब ने उचित ढंग से शासन करने का आश्वासन दिया था परंतु विगत 50 वर्षों से इस शर्त का पालन नहीं किया जा रहा था। अतः इस संधि को भंग कर वाजीद अली शाह के साथ एक नयी संधि करने का निश्चय किया गया। नयी संधि के अनुसार अवध के नवाब से माँग की गई कि वह प्रशासन का सारा कार्य कम्पनी को सौंप दे। उसे केवल औपचारिक अधिकार दिये गये। वास्तव में ड़लहौजी यह दिखाना चाहता था कि वह अवध को हङपना नहीं चाहता केवल वहाँ का प्रशासन-कार्य अंग्रेजों के अधीन लाना चाहता है ताकि लोगों को स्वच्छ प्रशासन मिल सके और यह कंपनी का दायित्व भी है।
नई संधि की शर्तो के अनुसार वाजिद अली शाह नाममात्र का नवाब बने रहने को तैयार नहीं था फिर भी, उसने निष्क्रिय विरोध के अलावा कोई कदम नहीं उठाया और ड़लहौजी से मिलने कलकत्ता चला गया। परंतु डलहौजी ने इसी बीच एक सेना अवध भेजी और अवध पर अधिकार कर लिया। 13 फरवरी 1856 ई0 को एक घोषणा जारी करके अवध के राज्य को ब्रिटिश राज्य में शामिल कर लिया गया। डलहौजी का मुख्य तर्क यह था कि सर्वोपरि सत्ता की हैसियत से कंपनी अवध में व्याप्त कुशासन को एक मूकदर्शक की भाँति सहन नहीं कर सकती । इस प्रकार अवध के राज्य का कुशासन के नाम पर अंग्रेजी राज्य में विलय हो गया।गोद-निषेध नीति/व्यपगत का सिद्धान्त/उत्तराधिकार अपहरण का सिद्धान्त :
जिस मुख्य औजार के द्धारा लार्ड डलहौजी ने अपनी कब्जा करने या साम्राज्य विस्तार की नीति को कार्यान्वित किया उसे उत्तराधिकार अपहरण का सिद्धान्त कहते है। इसे ब्यपगत का सिद्धान्त या Doctrine of lapse की संज्ञा प्रदान की जाती है। इस सिद्धान्त के अनुसार जब भी किसी संरक्षित राज्य का शासक वंशकमोत्पन्न उत्तराधिकारी के बिना मर जाता तो उसका साम्राज्य देश की युगों पुरानी अवहेलना करके उसके दत्तक पुत्र को नही दिया जा सकता था यद्यपि पहले से ही गोंद लेने की प्रथा के सम्बन्ध में अंग्रेज अधिकारियो द्धारा स्पष्ट स्वीकृति न होने पर साम्राज्यको ब्रिटिश नियंत्रण क्षेत्र में कर लिया जाता था। इस सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए डलहौजी ने अनेक राज्यों को ब्रिटिश कब्जे में कर लिया। इस सिद्धान्त का पालन करते हुए 1848 में सतारा, 1849 में जैतपुर तथा सम्बलपुर, 1850 में बघाट, 1852 में उदयपुर, 1853 में झॉसी तथा 1854 में नागपुर और 1855 ई0 में करौली आदि को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया।
इस नीति की सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि जिन शासकों का कोई उत्तराधिकारी नहीं होता था वे पुत्र को गोद नहीं ले सकते थे। इस नीति को लागू करने के लिए ब्रिटिश ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी ने सभी भारतीय राज्यों/रियासतों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया-
पहली श्रेणी (अधीनस्थ राज्य)- इस श्रेणी में वे राज्य थे जोकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार के सहयोग से अस्तित्व में आए, और ये राज्य पूर्णतः कंपनी पर ही आश्रित थे। इन राज्यों के शासकों को निःसंतान होने पर अपने उत्तराधिकारी को गोद लेने का अधिकार नहीं था और शासक की मृत्यु के बाद राज्य सीधे ब्रिटिश इस्ट इण्डिया कंपनी के अधीन हो जाएगा। जैसे- झाँसी, जैतपुर, संभलपुर।
द्वितीय श्रेणी (आश्रित राज्य)- इस श्रेणी में वे राज्य थे जोकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार के सहयोग से अस्तित्व में आए थे परन्तु ये कंपनी के अधीन नहीं थे, केवल बाह्य सुरक्षा हेतु कंपनी पर आश्रित थे। पहली श्रेणी से इतर इन्हे उत्तराधिकारी को गोद लेने की छूट थी परन्तु पहले ब्रिटिश सरकार से इजाजत लेनी आवश्यक थी। जैसे- अवध, ग्वालियर, नागपुर।
तृतीय श्रेणी (स्वतंत्र राज्य)- इस श्रेणी के राज्य को अपने उत्तराधिकारी को गोद लेने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। जैसे- जयपुर, उदयपुर, सतारा।
अधीग्रहीत किये गये देशी राज्य/रियासत :
सतारा -
सतारा गोद निषेध प्रथा के तहत ब्रिटिश साम्राज्य में विलय किया गया पहला राज्य था। सतारा के शासक राजा अप्पा साहब के कोई पुत्र नही था। अपनी मृत्यु से कुछ दिन पूर्व उन्होने कम्पनी की अनुमती के बिना एक दत्तक पुत्र बना लिया था और ब्रिटिश सरकार से पत्र के द्वारा अपने गोद लिए पुत्र की मान्यता के लिए आग्रह किया था परन्तु डलहौजी ने इस आग्रह को अस्वीकार करते हुए इसे आश्रित राज्य धोषित करके 1848 ई0 में सतारा के अन्तिम शासक की मृत्यु के बाद उसका विलय कर लिया। निदेशकों ने इसका समर्थन करते हुए कहा कि- ‘‘हम पूर्णतया सहमत है कि भारतीय सामान्य कानून तथा प्रथा के अनुसार सतारा जैसे अधीनस्थ राज्यों को कम्पनी की स्वीकृति के बिना दत्तक पुत्र लेने का अधिकार नही है।‘‘
सम्भलपुर-
उड़ीसा में सम्भलपुर राज्य के तात्कालिक शासक महाराजा नारायण सिंह थे। इन्हें अपना कोई पुत्र नही था और न ही वे किसी को अपना दत्तक पुत्र बना सके। इसलिए उनकी विधवा रानी ने शासन प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया किन्तु डलहौजी ने सिंहासन पर रानी के अधिकार को अस्वीकृत कर दिया। 1849 ई0 में संभलपुर और बुन्देलखण्ड़ में स्थित जैतपुर राज्य को भी ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया।
बघाट और उदयपुर-
1850 ई0 में हिमाचल प्रदेश में स्थित बघाट राज्य को और 1852 ई0 में उदयपुर राज्य के शासकों के निःसन्तान होने के कारण उनके राज्य ब्रिटिश साम्राज्य के अंग बना लिये गये।
झॉंसी-
झॉसी का राजा पेशवा के अधीन होता था। 1835 ई0 में झॉसी के राजा की मृत्यु हो गयी परन्तु कम्पनी ने राजा के चचामह को उसका उत्तराधिकारी स्वीकार कर लिया। इनकी मृत्यु के बाद गंगाराव वहॉ के राजा बने। गंगाराव की अपनी संतान की मृत्यु हो गयी थी इसलिए इन्होने एक पुत्र को गोद लिया था जिसका नाम दामोदर राव था। ब्रिटिश इस्ट इण्ड़िया कम्पनी ने इसकी स्वीकृति भी दे दी थी। नवम्बर 1853 ई0 में गंगाराव की मृत्यु के उपरान्त ड़लहौजी ने 20 फरवरी 1853 ई0 को यह निर्णय लिया कि झॉसी का दत्तक पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी नही हो सकता है। इन परिस्थितियों में झॉंसी की रानी लक्ष्मीबाई, जिनका मूल नाम मनुबाई था, ने लार्ड़ ड़लहौजी को 1817 ई0 की सन्धि की याद दिलाई किन्तु ड़लहौजी पर इसका कोई प्रभाव नही पड़ा और उसने एक घोषणा द्वारा झॉंसी को कम्पनी के राज्य में मिला लिया।
नागपुर-
इस मराठा राज्य का क्षेत्रफल 80000 वर्गफीट था। 1853 ई0 मे नागपुर के राजा रघुजी का बिना दत्तक पुत्र लिए ही स्वर्गवास हो गया लेकिन जब रानी ने पुत्र गोद लेने का प्रस्ताव किया तो कम्पनी ने इसे अस्वीकार कर दिया और नागपुर को ब्रिटिश सामा्रज्य में विलिन कर लिया। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह था कि राजा की निजी सम्पति भी कम्पनी ने यह कह कर ले लिया कि यह तो राज्य की आय से ही खरीदी गयी थी।
गोद-निषेध प्रथा की आलोचनात्मक समीक्षा -
वास्तव में जब से कम्पनी ने भारत में राज्य विस्तार करना प्रारम्भ किया था तबसे बार-बार भारतीयों के अधिकारों तथा विशेषाधिकारों की ही नही वरन् उनके जातीय कानून तथा धार्मिक व सामाजिक प्रथाओं, रीति-रिवाजों आदि की रक्षा करने और उनका सम्मान करने का आश्वासन दिया था। 1825 ई0 में कम्पनी ने यह स्वीकार किया था कि वे सभी हिन्दू मान्यताओं को मान्यता देंगे। परन्तु एकाएक इस नीति द्वारा कम्पनी अपनी बातों से मुकर गई और इस दमनकारी नीति को लागू कर दिया। हिन्दुओं में पुत्र गोंद लेने की प्रथा बहुत प्राचीन थी और वह बडी धूमधाम तथा धार्मिक कर्मकाण्ड के अनुसार मनाई जाती थी। लार्ड डलहौजी ने एक मृतप्राय रिवाज को पुनर्जिवित कर दिया और उसका प्रयोग साम्राज्यवादी उद्देश्यों के लिए किया। यह भी ध्यान देने की बात है कि जिस समय इस नीति को लागू किया गया उस समय भारत की सर्वोच्च शक्ति मुगल शासक थे। अतः इस प्रकार की कोई भी राष्ट्रव्यापी नीति लागू करने का अधिकार भी उन्ही को था, न कि किसी विदेशी कम्पनी को। सतारा राज्य का अधिग्रहण तो इस नीति में दिये गये नियमों के अनुरुप भी गलत था क्योंकि सतारा तो एक स्वतंत्र राज्य की श्रेणी में था। आश्रित रियासतो और संरक्षित रियासतों का भेद एक काल्पनिक और बाल की खाल उतारने वाली बात थी। झगडे वाले मामलों में कोर्ट आफ डायरेक्टर का निर्णय ही अंतिम होता था। इस प्रकार लार्ड डलहौजी ने प्रायः परम्पराओें को तोडा और बहुत से अवसरों पर साम्राज्यवादी भावना को ही पथ प्रदर्शक माना। ली वार्नर जैसे व्यक्ति ने भी यह स्वीकार किया है कि सतारा और नागपुर के मामलों में वह साम्राज्यवादी भावनाओं से प्रेरित हुआ था क्योंकि ये दोनो रियासतें बाम्बे -मद्रास तथा मद्रास -कलकत्ता के बीच संचार व्यवस्था में रूकावट डालती थी।
जिन विद्वानों ने डलहौजी की हड़प नीति को उचित माना है, उनका मत है कि हड़प नीति से संपूर्ण भारत में राजनीतिक व प्रशासकीय एकता स्थापित हुई जिससे भारत की प्रगति का मार्ग प्रशस्त हुआ। इन्हीं विद्वानों का अगला मत है कि हड़प नीति द्वारा प्रजा की उपेक्षा करने वाले विलासी शासक अलग कर दिये गये और इन राज्यों के ब्रिटिश कंपनी के संरक्षण में आ जाने से वहां की दुर्दशा में सुधार हुआ और जनता की स्थिति सुधरने लगी। ब्रिटिश साम्राज्य में भारतीय राज्यों के विलय से वहां का प्रशासन अधिक व्यवस्थित हो गया।
यहॉ इस बात को साफ समझने की जरुरत है कि देशी रियासतों कों बनाये रखने अथवा उन्हे ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लेने का प्रश्न उस समय कोई प्रासंगिक नही था। देशी रियासत ब्रिटिश साम्राज्य के उतने ही अभिन्न अंग थे जितने कम्पनी द्धारा सीधे प्रभावित इलाके। यदि इनमें से कुछ राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया तो ऐसा सिर्फ कम्पनी की सुविधा के लिए किया गया। इस परिवर्तन के साथ देशी रियासतों की जनता के हितों का कोई सम्बन्ध नही था।
लार्ड डलहौजी ने हडप नीति के आधार पर देशी रियासतों के अपहरण का जो कुचक्र चलाया उससे यद्यपि ब्रिटिश साम्राज्य में काफी विस्तार हुआ लेकिन इसके दूरगामी परिणाम बहुत ही धातक सिद्ध हुए। डलहौजी के इन कृत्यों ने न केवल मराठे, झॉसी की रानी तथा अन्य देशी नरेशों को आतंकित कर दिया अपितु सभी स्थानीय देशी नरेश यह विश्वास करने लगे कि सभी राज्यों का अस्तित्च खतरे में है। इन कृत्यों का प्रभाव सर्वसाधारण जनता पर भी पडा। नई शासन व्यवस्था तथा तीव्र सामाजिक - आर्थिक परिवर्तन के समय वे इन देशी रियासतो के शासको को अपना धर्म सभ्यता तथा संस्कृति के संरक्षक के प्रतीक के रुप में देखती थी और योग्य व्यक्तियों को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर मिल जाता था। अब यह न केवल बन्द हो गया अपितु हजारो लोग बेकार भी हो गये। परिणामस्वरुप उनमे असन्तोष की भावना प्रबल होती गई और यही असन्तोष 1857 के विद्रोहं के रुप में प्रस्फुटित हो गया। इस प्रकार 1857 के विद्रोह के प्रस्फुटन में लार्ड डलहौजी की इस नीति की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि लार्ड डलहौजी ने हडप नीति के आधार पर भारतीय रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित करने का जो तरीका अपनाया वह न तो वैधानिक था, न न्यायपूर्ण और न ही उपयोगी। अतः उपयोगिता, नैतिकता और न्यायिक रूप से हड़प नीति को उचित नहीं माना जा सकता। चूंकि डलहौजी का मुख्य लक्ष्य भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का अधिकतम विस्तार करना था अतः इसके लिए उसने नैतिकता और न्याय का बहिष्कार करके निन्दनीय और घृणित साधनों का उपयोग किया इसलिए उसकी हड़प नीति को पूर्णतः स्वार्थपरख, साम्राज्यवादी, अनुचित एवं भारत-विरोधी कहा जा सकता है।
आधुनिकीकरण के कार्य-
आधुनिक भारत के इतिहास में लार्ड डलहौजी का नाम भारतीय राष्ट्रीयता के उदय एवं विकास के उत्प्रेरक के रुप में अधिक याद किया जाता है। वह प्रारंम्भ से ही दृढ प्रतिज्ञ था कि प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन जितने बडे क्षेत्र पर कायम हो सके, किया जाए। इसके अतिरिक्त वह भारत को एक संगठित शासन सूत्र में बॉधना चाहता था जिससे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की जडें मजबूत हो सके। इस उद्देश्य से उसने विभिन्न सुधारवादी कार्य किए। इन सुधारों को करते हुए उसने भारत में आधुनिकीकरण तथा अनेक नवीन कार्यो को भी प्रारम्भ किया जिसके आधार पर भारत में आधुनिकीकरण की नींव पडी और यही कारण है कि उसे ‘‘आधुनिक भारत का निर्माता‘‘ भी कहा जाता है। उसके इन सुधारोंवादी कार्यो की अनेक इतिहासकारों ने काफी प्रशंसा की है। इस सन्दर्भ में सर रिचर्ड टेम्पल ने लिखा है-- ''As an imperial administrater he had never
been surprised and seldom, equalled by
any of the illustrious men whom
लार्ड डलहौजी द्वारा किये गये नवीन तथा सुधारवादी कार्य--
प्रशासकीय सुधार-
लार्ड डलहौजी विकासशील अर्थव्यवस्था तथा सुदृढ़ प्रशासन पर आधारित एक नवीन भारत का निर्माण करना चाहता था। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए तथा तात्कालिन प्रशासनिक व्यवस्था में ब्याप्त दोषों को दूर करने के लिए उसने प्रशासन के क्षेत्र में अनेको सुधार किए।
- तात्कालिन समय तक बंगाल में प्रशासन का कार्य स्वयं गवर्नर जनरल ही करता था। चॅूकि गवर्नर जनरल सम्पूर्ण भारत के प्रशासन के लिए भी उत्तरदाई था। अतः गवर्नर जनरल के कार्यभार को कम करने तथा बंगाल की प्रशासनिक व्यवस्था को और अधिक सक्षम बनाने के लिए उसने लेफ्टिनेण्ट गवर्नर की नियुक्ति की।
- उसने कुछ क्षेत्रों में नन-रेग्यूलेशन पद्धति की स्थापना की। यह प्रणाली उन क्षेत्रों में लागू की गई जिसे अंग्रेज युद्धों अथवा अन्य नीतियों द्धारा अपने साम्राज्य में मिलाते जा रहे थे। उदाहरण के तौर पर पंजाब, बर्मा, अवध आदि।
- इन क्षेत्रों के लिए कमिश्नर नियुक्त किए जाते थे जिन्हे सैनिक, वैधानिक, कार्यकारी तथा न्यायिक आदि अधिकार प्राप्त थे। ये कमिश्नर अपने कार्यो के लिए सीधे गवर्नर जनरल के प्रति उत्तरदाई होते थे। न्यायिक क्षेत्र में तो इन्हे उच्च न्यायालय के न्यायाधिश के समान ही अधिकार प्राप्त थे।
- डलहौजी ने प्रशासन को सुचारु रुप प्रदान करने के लिए अलग-अलग विभागों की स्थापना की। प्रशासनीक दृष्टिकोण से लार्ड डलहौजी का यह कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण था।
सैनिक सुधार-
सैनिक क्षेत्र में लार्ड डलहौजी ने निम्नलिखित सुधार किये-
- ड़लहौजी की विस्तृत विजयों ने कम्पनी के साम्राज्य में अद्धितीय वृद्धि कर दी थी। उसने यह अनुभव किया कि यदि रुस ने अफगानिस्तान के रास्ते भारत पर आक्रमण कर दिया तो जबतब कम्पनी की सेनाएॅ कलकत्ता से उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रान्त की ओर बढेगी तबतक तो आधे से अधिक भारत पर रुस का कब्जा हो चुका हो गया। इस कारण लार्ड डलहौजी ने सेना का स्थायी केन्द्र कलकत्ता की जगह शिमला बनाया।
- इस दृष्टि से ड़लहौजी ने कम्पनी के तोपखाने को कलकत्ता से मेरठ स्थानांतरित कर दिया।
- उसने महसूस किया कि कम्पनी की सेना में अंग्रेजों की अपेक्षा भारतीयों का बहुमत में होना ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा के लिए घातक है अतः शीघ्र ही उसने सेना में भारतीयों की संख्या को कम करना प्रारम्भ किया।
- उसने अंग्रेज सैनिकों की तीन नवीन रेजीडेण्ट तैयार की तथा पंजाब मे उसने पूर्णतया अंग्रेजों के नेतृत्व में एक नवीन सेना का गठन किया।
- उसने गोरखा को भी कम्पनी की सेना में भर्ती करना प्रारम्भ किया।
- डलहौजी ने सेना की अनेक छोटी-छोटी टुकडियॉ भी बनाई तथा उन्हे संवेदनशील जगह पर नियुक्त किया। ऐसा इसलिए किया गया ताकि उन स्थानों पर विद्रोह होने की स्थिती में मुख्य सेना के आने तक ये टुकडियांॅ उस विद्रोह को रोकने का प्रयास करें। वास्तव में लार्ड डलहौजी का यह कार्य दूरदर्शिता से परिपूर्ण था।
रेलवे तथा डाकतार विभाग की स्थापना--
लार्ड ड़लहौजी ने ब्रिटिश शासन की सुरक्षा के लिए आवागमन तथा संचार के साधनों में वृद्धि करने तथा ब्रिटिश शासित क्षेत्रों को अत्याधुनिक संचार माध्यमों से जोडने का प्रयास किया। डलहौजी के प्रयत्नो के परिणामस्वरुप सर्वप्रथम 16 अप्रैल 1853 ई0 को बम्बई से थाने के बीच पहली रेल-गाडी चली। शीध्र ही सम्पूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य को रेलवे लाइनों के सूत्र में बॉधकर एक कर दिया गया। लार्ड डलहौजी ने रेलवे निमार्ण के लिए एक विस्तृत रुपरेखा ’रेलवे पत्र ’ के रुप में दी।
आधुनिक काल की डाक व्यवस्था का आधार भी डलहौजी के शासन काल में निश्चित किया गया। 1850 ई0 में डलहौजी ने डायरेक्टर जनरल ऑफ पोस्ट ऑफिस के पद का सृजन किया। इसके अलावा पत्रों पर टिकट लगाने तथा विभिन्न स्थानों से पत्र भेजे जाने के लिए एक समान शुल्क वसूल करने का भी प्राविधान किया गया। डलहौजी ने पहली बार तार विभाग की स्थापना की तथा पहली लाईन कलकत्ता से पेशावर के लिए बिछाई गई। तत्पश्चात कलकत्ता को भारत के प्रमुख शहरों से तार द्धारा जोड दिया गया।
यद्यपि ये सभी कार्य ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा तथा सुदृढता के लिए किए गए थे लेकिन इससे भारतीयों को भी बहुत लाभ हुआ। रेलवे आदि की स्थापना आदि से न केवल भारतीयों के लिए आवागमन की सुविधा मिली वरन् भारतीयों को अपने विचारों का आदान-प्रदान करने का अवसर भी मिला जिससे भारत में राष्ट्रवादी भावनाएॅ प्रबल हुई तथा भविष्य में रेलों तथा संचार माध्यमों ने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
शैक्षणिक सुधार --
लार्ड डलहौजी ने शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी सुधार किये। सन् 1854 ई0 में चार्ल्स वुड ने शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार को अपने सुझाव भेजे जिसकी नियुक्ति डलहौजी ने की थी। चार्ल्स वुड ने अपने घोषणा पत्र में निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किये --
- सभी प्रान्तों में लन्दन विश्वविद्यालय के समान ही विश्वविद्यालय स्थापित किये जाए।
- प्रत्येक प्रान्त में शिक्षा विभाग की स्थापना की जाय।
- शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना की जाय।
- शिक्षा का स्वरुप धर्मनिरपेक्ष रखा जाय।
- शिक्षा का निजीकरण करने के उद्देश्य से विभिन्न संस्थानों को प्रेरित अथवा प्रोत्साहित किया जाय।
- प्रत्येक प्रान्त में शिक्षा निदेशक नियुक्त किये जाय और प्रान्त में शिक्षा के विकास पर निगरानी रखने के लिए निरीक्षकों की नियुक्ति की जाए।
इस घोषणा पत्र के आधार पर प्रत्येक जिले में स्कूल तथा कॉलेज के साथ-साथ प्रत्येक प्रान्त में एक-एक विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। प्रत्येक प्रांत में शिक्षा इन्सपेक्टरों की भी नियुक्ति की गई। डलहौजी ने कलकत्ता में एक मेडिकल कॉलेज तथा रूड़की में एक इन्जीनियरिंग कॉलेज की स्थापना की। इन सब कार्यो को करने के पीछे डलहौजी का यह मानना था कि एक परम्परागत भारत को आधुनिक भारत में बदलकर वह ब्रिटेन की पकड़ को और अधिक मजबूत बना रहा है।
लोक निमार्ण विभाग --
लार्ड डलहौजी के प्रशासन काल से पूर्व भारत में सार्वजनिक निर्माण विभाग का कार्य सेना के द्धारा किये जाते थे। अतः यह स्वाभाविक था कि वे सैनिक कार्यो की ओर पहले ध्यान देते थे तत्पश्चात सार्वजनिक निर्माण कार्यो की ओर। डलहौजी ने इस कमी को महसूस किया और अलग से एक सार्वजनिक निर्माण विभाग की स्थापना की। सन् 1850 ई0 में सार्वजनिक निर्माण विभाग की स्थापना से भारत में सड़कों, नहरो, तथा पुलों के निर्माण की प्रगति में अभूतपूर्व उन्नति हुई। गंगा नहर का निर्माण इसी समय प्रारम्भ हुआ तथां अनेक पुल बनाये गये। इसी समय ग्राण्ड ट्रण्क रोड़ का पुनर्निमाण भी प्रारम्भ हुआ। इस प्रकार जनहितकारी कार्यो को करने में सरकार के उत्तरदाईत्व में वृद्धि हुई।
वाणिज्यिक सुधार --
लार्ड डलहौजी ने स्वतंत्र व्यापार की नीति का अनुसरण करते हुए अनेक स्थानों पर वसूल किये जाने वाले करों तथा चुंगियों को समाप्त कर दिया। भारत के सभी बन्दरगाह व्यापार के लिए खोल दिए गए। बन्दरगाहों के आकारों में भी वृद्धि की गई ताकि बड़े जहाज भी आसानी से आ जा सके। इस प्रकार माल और पूॅजी के यातायात में आने वाले सभी बाधाओं को हटा लिया गया। इसका भारतीय उद्योग-धन्धों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और भारतीय उद्योग-धन्धे नष्ट होने लगे। वस्तुतः यह कार्य ब्रिटेन की स्वतंत्र व्यापार की नीति और ब्रिटेन को अधिक मात्रा में सस्ते मूल्य पर कच्ची उपयोगी वस्तुएॅं प्रदान करने की सुविधा को देखकर किये गये थे।
मूल्यांकन --
उपर्युक्त सम्पूर्ण विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि लार्ड डलहौजी एक महान सुधारक था लेकिन उसके सुधारों का अध्ययन करते समय हमें यह याद रखना चाहिए कि उसने यह सुधार ब्रिटिश हितों को ध्यान में रखकर किये थे। उसके सुधारों का मुख्य उद्देश्य इन सुधारो द्धारा भारत में बढते हुए जन-आक्रोश को शान्त करना तथा भारत में अंग्रेजी राज्य को और अधिक सुदृढ बनाना था। फिर भी उनके इन सुधारों से भारतीयों को भी लाभ मिला और कई ऐसे नवीन कार्य प्रारम्भ हुए जिससे कालान्तर में भारत की प्रगति पर गंभीर प्रभाव पड़ा।
लार्ड डलहौजी ने अपने प्रशासन काल में अत्यधिक सुधार किये थे किन्तु यह उसका दुर्भाग्य था कि उसने यह सुधार इतने तीव्र गति से किए कि भारतीय जनता उन सुधारों के महत्व को ठीक से न समझ सकी। वह स्वयं कहा करता था कि - ’’हम भारत को एकराष्ट्र बना रहे है ’’ इस दृष्टि से निश्चित रुप से भारत का उसने काफी हद तक राजनीतिक एकीकरण कर दिया।
निःसन्देह ब्रिटिश क्राउन द्धारा भेजे गये सभी भारतीय गर्वनर जनरलों में लार्ड डलहौजी का नाम अविस्मरणीय है। डलहौजी एक साम्राज्य निर्माता ही नही अपितु एक योग्य प्रशासक भी था किन्तु हमें यह नही भूलना चाहिए कि उसने जिन व्यक्तियों पर शासन किया उनकी भावनाओं का उसने कोई ख्याल नही रखा। उसकी साम्राज्यवादी नीति तथा विशेष रुप से ’’हडप नीति जैसे कृत्यों ने भारतीय जनमानस को उद्धेलित कर दिया। धीरे-धीरे यह असन्तोष जोर पकड़ता गया और 1857 ई0 के विद्रोह के रुप में प्रस्फुटित हुआ। यद्यपि यहॉ यह उल्लेखनीय है कि 1857 के विद्रोह के अनेक कारण थे लेकिन लार्ड डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति भी निश्चित रुप से इस विद्रोह के लिए उत्तरदाई थी। उसके सुधार तथा आधुनिकीकरण के लिए किए गए कार्यो से जो कुछ भी भारतीयों को प्राप्त हुआ वह तो उसकी नीति का अप्रत्यक्ष परिणाम मात्र था।
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