window.location = "http://www.yoururl.com"; Rise of Mysore in 18th Century: Tipu Sultan | 18वीं शताब्दी में मैसूर का उत्कर्ष : टीपू सुल्तान

Rise of Mysore in 18th Century: Tipu Sultan | 18वीं शताब्दी में मैसूर का उत्कर्ष : टीपू सुल्तान

 

विषय-प्रवेश (Introduction) :

भारत के इतिहास में टीपू सुल्तान को ‘शेर-ए-मैसूर‘ के नाम से भी जाना जाता है। 18वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में दूसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध के दौरान हैदरअली की मृत्यु और टीपू सुल्तान का राज्याभिषेक मैसूर की एक प्रमुख घटना है।  हैदरअली का पुत्र टीपू भारतीय इतिहास का एक अप्रतिम योद्धा था जिसने पिता की मृत्यु के बाद मैसूर की कमान को सॅंभाला। आज भले ही टीपू सुल्तान के नाम पर अनेक विवाद पैदा हो रहे है लेकिन भारतीय इतिहास में टीपू ही एकमात्र ऐसा सुल्तान है जो अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने की कोशिश में अंग्रेजों से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।

टीपू सुल्तान का जन्म 10 नवम्बर 1750 ई0 को कोलार जिले के देवनहाली नामक स्थान पर हुआ था। टीपू सुल्तान का नाम एक प्रसिद्ध सन्त टीपू मस्तान औलिया के नाम पर था जिसकी दरगाह पर टीपू की मॉं फकरुन्निसा पुत्र प्राप्ति की इच्छा से प्रार्थना करने के लिए गई थी। टीपू सुल्तान ने अच्छी शिक्षा प्राप्त की थी और बचपन से ही प्रशासन और युद्ध कला में निपुण होने के लिए प्रयत्न करता रहा था। वह अरबी, फारसी, कन्नड़ तथा उर्दू में बातचीत कर सकता था और घुड़सवारी, बन्दूक तथा तलवार चलाने में सिद्धहस्त था। बचपन से ही उसने अपने पिता हैदरअली के साथ विभिन्न अभियानों में भाग लिया था, इसलिए शासक बनते समय उसे युद्धों का अच्छा खासा अनुभव था। यद्यपि टीपू अपने पिता हैदरअली के समान वीर, साहसी, कुशल सेनानायक और महत्वाकांक्षी था लेकिन उसमें हैदरअली का राजनीतिक विवेक और कूटनीतिक चातुर्य का अभाव था। शासक बनते समय टीपू सुल्तान को अपने पिता हैदरअली से एक शक्तिशाली और विशाल राज्य मिला था जो उत्तर  में कृष्णा नदी से दक्षिण में दण्ड़िकल तक विस्तृत था। अपने पिता के देहान्त के बाद विपरित परिस्थितियों में टीपू सुल्तान ने मैसूर के सिंहासन को सुशोभित किया और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध जारी रखा।

तृतीय आंग्ल-मैसर युद्ध (1790-1792 ई0) 

लॉर्ड कार्नवालिस ने भारत आकर अनुभव किया कि मैसूर राज्य के साथ अंग्रेजों का संघर्ष आवश्यक है। कार्नवालिस को यह विश्वास हो गया था कि टीपू की शक्ति को दबाना अंग्रेजी कम्पनी के हितों की सुरक्षा के लिए परम आवश्यक था क्योंकि उस समय भी टीपू अंग्रेजों के विरुद्ध विदेशी शक्तियों से सहायता लेने का प्रयत्न कर रहा था। उसने जुलाई 1787 ई0 में एक राजदूत-मण्डल फ्रान्स भेजा था और उसी वर्ष उसने एक अन्य राजदूत-मण्डल टर्की के सुल्तान के यहाँ भेजा। दोनों ही स्थानों पर उसके राजदूत-मण्डलों का अच्छा स्वागत हुआ परन्तु आश्वासन के अतिरिक्त कोई विशेष सहायता उसे प्राप्त न हो सकी। टीपू के कार्यो से स्पष्ट था कि टीपू अंग्रेजों की शक्ति को नष्ट करने के लिए दृढ़ संकल्प था। इस कारण कार्नवालिस ने भी उसकी शक्ति को समाप्त करने हेतु प्रयत्न आरम्भ किये। इसीलिए उसने भारत की अन्य शक्तियों मुख्यतः हैदराबाद के निजाम और मराठों से सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न किया। जुलाई 1789 ई0 में कार्नवालिस ने गुन्टूर जिले के विषय में निजाम के साथ एक स्थायी समझौता किया। उस समझौते में टीपू को सम्मिलित नहीं किया गया। इससे टीपू को स्पष्ट रुप से समझ में आ गया कि अंग्रेज शीघ्र ही युद्ध के लिए तैयार हो रहे हैं।

दिसम्बर 1789 ई0 में टीपू ने ट्रावनकोर के राज्य पर आक्रमण किया जो अंग्रेजों का मित्र-राज्य था। इस कारण कार्नवालिस ने टीपू के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया। टीपू का ट्रावनकोर के राजा से पुराना झगड़ा था। उसने टीपू के उन शत्रु-राजाओं को अपने यहां शरण दी थी जो टीपू की मालाबार की सीमाओं पर आक्रमण करते रहते थे, उसने डचों से मालाबार तट पर दो बन्दरगाह खरीदे थे जिन्हें वह अपनी सीमा में मानता था और स्वयं उन बन्दरगाहों को लेने के लिए पर्याप्त धन देने को तैयार था तथा उसने अपनी सुरक्षा के लिए जो दीवार खड़ी की थी उसके बारे में टीपू का कहना था कि उसका कुछ भाग उसके राज्य की सीमा में आता था। टीपू ने इन झगड़ों का निर्णय मद्रास कौंसिल को मध्यस्थ बनाकर भी कराना चाहा था परन्तु जब वहाँ से कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ तो उसने ट्रावनकोर पर आक्रमण कर दिया। इससे स्पष्ट होता है कि अंग्रेज युद्ध का बहाना ढूँढ रहे थे। इस आक्रमण के होते ही कार्नवालिस ने टीपू के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया।

परन्तु आक्रमण करने से पहले लार्ड़ कार्नवालिस ने इस बात की व्यवस्था की कि मराठे या निजाम किसी कारण टीपू का साथ देने को तत्पर न हो जायें। अतएव 1 जून, 1790 ई0 को मराठों के साथ और 4 जुलाई, 1790 ई0 को निजाम के साथ सन्धियाँ की गयीं जिनके अनुसार दोनों ने अंग्रेजों को सैनिक सहायता देने का वायदा किया और युद्ध के पश्चात् जीती हुई भूमि को आपस में बाँट लेने का निश्चय किया। यद्यपि निजाम और मराठों ने अंग्रेजों की बहुत कम सहायता की और युद्ध का अधिकांश भार अंग्रेजों पर ही रहा परन्तु टीपू से उनके मिलने की सम्भावना नष्ट हो गयी। इस प्रकार टीपू नितान्त अकेला रह गया। उसे फ्रान्स से भी कोई सहायता प्राप्त न हो सकी क्योंकि एक वर्ष पहले फ्रान्स में राज्य-क्रान्ति आरम्भ हो चुकी थी।

टीपू और अंग्रेजों का यह युद्ध प्रायः दो वर्ष चला। आरम्भ में जनरल मीडोज (डमकवू) के नेतृत्व में अंग्रेजों का आक्रमण विफल रहा जिसके कारण दिसम्बर 1790 ई0 में स्वयं कार्नवालिस ने सेनापति का पद संभाला। कार्नवालिस ने वैलोर और अम्बर की ओर से बंगलोर की ओर बढ़ना शुरू किया और मार्च 1791 ई0 में बंगलौर पर अधिकार कर लिया। मई तक अंग्रेजी सेनाएँ मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टम से एक मील दूर तक पहुँच गयीं। परन्तु टीपू ने उस समय एक साहसी सेनापति की योग्यता का परिचय दिया तथा वर्षा के दिनों में लार्ड़ कार्नवालिस को वापस लौटना पड़ा। नवम्बर 1791 ई0 में टीपू ने कोयम्बटूर को जीतने में सफलता प्राप्त की परन्तु उसकी शक्ति क्षीण होती जा रही थी। कार्नवालिस ने श्रीरंगपट्टम के मार्ग के सभी पहाड़ी किलों पर एक-एक करके अधिकार कर लिया और फरवरी 1792 ई0 में वह श्रीरंगपट्टम के किले की दीवार तक पहुँच गया। हताश होकर टीपू को सन्धि की बातचीत शुरू करनी पड़ी और मार्च 1792 ई0 में श्रीरंगपट्टम की सन्धि द्वारा इस युद्ध का अन्त हुआ।

इस सन्धि की शर्तों के अनुसार- 

1. टीपू का प्रायः आधा राज्य उससे छीन लिया गया। इसका एक बड़ा भाग निजाम को प्राप्त हुआ। मराठों को जो भूमि प्राप्त हुई उससे उनकी सीमाएँ तुंगभद्रा नदी तक पहुंच गयीं। अधिकांश भाग अंग्रेजों को प्राप्त हुआ जिसमें मालाबार, दक्षिण में डिण्डीगल और उसके समीप के सभी जिले तथा पूर्व में बाड़ामहल और आसपास के सभी पहाड़ी मार्ग सम्मिलित थे जिससे उनके राज्य का विस्तार ही नहीं हुआ बल्कि उन्हें सैनिक और राजनीतिक महत्व के स्थान प्राप्त हुए।

2. अंग्रेजों को कुर्ग के राजा पर आधिपत्य प्राप्त हुआ। 

3. टीपू को 30 लाख पौण्ड से अधिक धन युद्ध की क्षतिपूर्ति के लिए देना पड़ा।

4. भविष्य की सुरक्षा के लिए उसे अपने दो पुत्र बन्धक के रूप में अंग्रेजों को सौंपने पड़े।

कुछ इतिहासकारों ने लार्ड़ कार्नवालिस के इस समझौते की आलोचना की है। उनका कहना है कि कार्नवालिस ने इस सन्धि को करने में जल्दबाजी की। वह सरलता से टीपू और उसकी शक्ति को पूर्णतः समाप्त कर सकता था लेकिन उसने यह एक अच्छा अवसर खो दिया। परन्तु कार्नवालिस ने यह सन्धि बहुत सूझ-बूझ से की थी। उस अवसर पर अंग्रेज सैनिकों में बीमारी फैल गई थी, क्रान्तिग्रस्तत फ्रान्स की स्थिति में सुधार हो रहा था और संभव था कि टीपू को फ्रान्सीसी सहायता प्राप्त हो जाती। डायरेक्टरों के आदेश भी उस समय उस युद्ध को समाप्त करने के थे। परन्तु कार्नवालिस को इससे भी अधिक कठिनाई मैसूर राज्य के विभाजन की थी। यदि वह सम्पूर्ण मैसूर को अपने अधिकार में कर लेता तो उसे निजाम और मराठो को भी विस्तृत प्रदेश देना पड़ता जिससे उनकी शक्ति में वृद्धि हो जाती और इसके लिए कार्नवालिस तत्पर न था। इस प्रकार तृतीय मैसूर-युद्ध ने टीपू की शक्ति को अत्यधिक दुर्बल बना दिया और मैसूर राज्य को समाप्त करना केवल कुछ समय की बात रह गयी थी। यह कार्य लार्ड़ वैलेजली ने भारत में आते ही पूरा कर दिया।

चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ई0) 

तृतीय मैसूर-युद्ध में टीपू का जो अपमान और पराजय हुई थी वह उसे भूलने वाला न था और न वह उस समय तक अपनी पराजय स्वीकार करने को तैयार था। उसने किले की किलेबन्दी को सुदृढ़ करना आरम्भ किया, अपनी घुड़सवार व पैदल सेना की संख्या और प्रशिक्षण में सुधार किया, विद्रोही सरदारों को दबाया और कृषि की उन्नति करने का प्रयत्न किया। 1796 ई0 में नाममात्र के मैसूर के हिन्दू राजा की मृत्यु हो गयी और टीपू ने उसके अल्पायु पुत्र को नाममात्र के लिए भी गद्दी पर बैठाने से इन्कार कर दिया। उसने अंग्रेजों के विरुद्ध मित्र प्राप्त करने के लिए अरब, काबुल, टर्की और मॉरीशस में अपने राजदूत भेजे और इनमें से उसे फ्रान्सीसियों की थोड़ी सहायता भी प्राप्त हुई। यह सन्देह किया गया था कि कुछ फ्रान्सीसी स्वयंसेवक मैसूर आये जहाँ उन्होंने ‘‘स्वतन्त्रता के वृक्ष‘‘ को आरोपित किया, स्वयं टीपू जैकोबिन-दल का सदस्य बन गया, उसने अपने को ’नागरिक टीपू (ब्पजप्रमद ज्पचन) पुकारा, मॉरीशस के फ्रान्सीसी गवर्नर ने टीपू को मैसूर का सुल्तान स्वीकार किया और जिस समय लॉर्ड वैलेजली कलकत्ता पहुँचा उसी समय फ्रान्सीसी सैनिकों की एक टुकड़ी मंगलौर पहुँची। निश्चय ही टीपू अंग्रेजों को भारत से निकालने और अपने अपमान का बदला लेने के लिए दृढ़-संकल्पित था। लॉर्ड वैलेजली के लिए टीपू के ये कार्य शत्रुतापूर्ण थे। वह साम्राज्यवादी था, फ्रान्सीसी प्रभाव को भारत से पूर्णतः नष्ट करना उसका उद्देश्य था और शत्रु-राज्यों में मैसूर का राज्य ऐसा था जिसे, सम्भवतः, वह सरलता से समाप्त कर सकता था। इस कारण वेलेजली ने सर्वप्रथम टीपू को समाप्त करने का लक्ष्य बनाया। अपनी सफलता को निश्चित करने के लिए उसने निजाम और मराठों को अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न किया। सितम्बर 1798 ई0 में निजाम ने सहायक-सन्धि को स्वीकार कर लिया और अंग्रेजों का मित्र बन गया। मगर वैलेजली को कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया, तब भी अपने पक्ष को मजबूती प्रदान करने के लिए वेलेजली ने अपनी ओर से मैसूर के विजित प्रदेशों के आधे भाग को पेशवा को दे देने का लालच दिया। इस प्रकार अपनी स्थिति को दृढ़ करके वैलेजली ने मैसूर पर आक्रमण करने की योजना बनायी और 1799 ई0 में मैसूर पर आक्रमण शुरू कर दिये।

जनरल हैरिस और लार्ड़ वैलेजली के नेतृत्व में एक सेना ने फरवरी में वैलोर से चलकर मार्च 1799 ई0 में मैसूर पर आक्रमण किया। पश्चिम से एक दूसरी सेना ने जनरल स्टुअर्ट के नेतृत्व में मैसूर पर आक्रमण किया। इस युद्ध में टीपू को पराजय का सामना करना पड़ा और टीपू श्रीरंगपट्टम के किले में शरण लेने के लिए विवश हुआ। 17 अप्रैल 1799 ई0 को श्रीरंगपट्टम का घेरा डाल दिया गया और 4 मई 1799 ई0 को उस पर अधिकार कर लिया गया। टीपू अपने किले की दीवार पर युद्ध करता हुआ मारा गया और उसके पुत्र ने अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।

इस युद्ध से 33 वर्ष पूर्व स्थापित मैसूर का मुस्लिम-राज्य समाप्त हो गया। अंग्रेजों ने उसकी कुछ भूमि कुछ शर्तो पर पेशवा को देनी चाही परन्तु उसने लेने से इन्कार कर दिया। इस प्रकार मैसूर रियासत के अधिकांश भू-भाग को अंग्रेजों और निजाम ने आपस में बॉंट लिया और अवशिष्ट भू-भाग पूर्ववर्ती हिन्दू राजा के अल्पायु पुत्र को दे दिया गया। उसने अंग्रेजों से सहायक-सन्धि कर ली और स्वीकार कर लिया कि आवश्यकता पड़ने पर अंग्रेज उसके राज्य के शासन को कभी भी अपने हाथ में ले सकते थे। टीपू सुल्तान के परिवारीजन वैलोर के किले में भेज दिये गये जहाँ वे बन्दी की भाँति रहे। 

टीपू सुल्तान की प्रशासनिक व्यवस्था -

अठारहवीं शताब्दी में निरंकुश राजतंत्र का बोलबाला था, इसलिए टीपू का प्रशासन भी उससे अलग नहीं हो सकता था। सुल्तान ही देश में समस्त सैनिक, असैनिक तथा राजनैतिक शक्ति का केंद्र होता था, वही अपना विदेश मंत्री, मुख्य सेनापति और न्यायाधीश था। यद्यपि टीपू निरंकुश था, किंतु वह एक संयमी, दयावान, कर्मशील और कर्तव्यपरायण शासक की भाँति अपने कार्यों का संपादन करता था तथा सदैव अपनी प्रजा के हित के लिए कार्य करता था।

केंद्रीय प्रशासनः नवोन्मेषी टीपू को नये सुधारों तथा प्रयोगों से बहुत प्यार था। उसने अपने पिता द्वारा उत्तराधिकार में प्राप्त शासन प्रणाली में सुधार किया। डॉडवेल के अनुसार वह प्रथम भारतीय राजा था जिसने पाश्चात्य परंपराओं को भारतीय प्रजा पर लागू करने का प्रयास किया। प्रत्येक विभाग का एक अधिकारी होता था और अनेक निम्न स्तर के अधिकारी उसकी सहायता करते थे। निर्णय पूर्ण वाद-विवाद के बाद बहुमत से लिये जाते थे, किंतु अंतिम निर्णय सुल्तान का ही होता था।

टीपू के प्रशासन में प्रधानमंत्री या वजीर नहीं होता था। राजस्व तथा वित्त, सेना, तोपखाना, वाणिज्य, नाविक, कोष और टंकण जैसे सात मुख्य विभाग थे, जो मीर आसिफ के अधीन होते थे जो स्वयं सुल्तान के प्रति उत्तरदायी होता था। इसके अलावा, डाक तथा गुप्तचर, लोक निर्माण तथा पशु विभाग जैसे तीन छोटे विभाग भी थे।

प्रांतीय एवं स्थानीय प्रशासनः टीपू के राज्य में पहले 7 प्रांत थे, किंतु बाद में उसने अपने राज्य के प्रांतों की संख्या 17 कर दी। प्रांतों के मुख्य अधिकारी आसिफ (असैनिक गवर्नर) तथा फौजदार (सैनिक प्रधान) होते थे और दोनों एक-दूसरे पर नियंत्रण रखते थे। प्रांतों को जिलों, जिलों को ग्रामों में बाँटा गया था। स्थानीय प्रशासन का प्रबंध ग्राम पंचायतें करती थीं।

भूमिकर व्यवस्थाः टीपू ने भूमिकर प्रणाली को अधिक कार्यक्षम बनाने का प्रयत्न किया। उसने जागीर देने की प्रथा को खत्म करके राजकीय आय बढ़ाने की कोशिश की। उसने पोलीगारों की पैतृक संपत्ति को कम करने और राज्य तथा किसानों के बीच के मध्यस्थों को समाप्त करने की भी कोशिश की। किंतु उसका भू-राजस्व उतना ही ऊँचा था, जितना अन्य समसामयिक शासकों का। वह पैदावार का एक तिहाई हिस्सा तक भू-राजस्व के रूप में लेता था। किंतु उसने अब्वाबों की वसूली पर रोक लगा दी। वह भू-राजस्व में भी छूट देने में उदार था।

भूमि से प्राप्त राजस्व भूमि को अलग-अलग दरजों में बाँटा हुआ था और हर दरजे की भूमि के मूल्यांकन का तरीका भी अलग था। इजारा भूमि को तय किरायों पर किसानों को पट्टे पर दिया जाता था। हिस्सा भूमि पर किराया उत्पादन में हिस्से के तौर पर देना होता था। इसके अलावा सिंचित भूमि का किराया उत्पादन में हिस्से के तौर पर देना होता था और सूखी भूमि का किराया पैसों में चुकाना होता था। भूमि को सर्वेक्षण और नियंत्रण प्रणाली के तहत रखा जाता था और खेत जोतने वालों को काफी राहत और सुरक्षा देकर उनका हौसला बढ़ाया जाता था। राज्य नियंत्रण की एक मजबूत प्रणाली बनायी गयी थी जिसमें अमलदार तो राजस्व प्रशासन को नियंत्रित करते थे और आसफदार किराये संबंधी झगड़ों के कानूनी बिंदुओं की देखभाल करते थे। बिचौलियों को खत्म करके राज्य के लिए अधिक से अधिक राजस्व बनाने के लिए राज्य के हितों और किसानों के हितों के बीच एक सीधा सम्बन्ध बनाया गया। टीपू ने राजस्व किसानों से किसानों की रक्षा करने के लिए खास सरकारी अधिकारियों को खेती के अधिकार न देने जैसे कई उपाय किये।

टीपू सुल्तान ने अधिकाधिक भूमि को जोत में लाने का प्रयास किया। इसके लिए उसने किसानों को हल तथा पशुओं के लिए तकावी ऋण दिया। उसने अपने पिता द्वारा शुरू की गई लालबाग परियोजना को सफलतापूर्वक पूरा किया तथा जल भंडारण के लिए कावेरी नदी के उस स्थान पर एक बाँध की नींव रखी, जहाँ आज कृष्णराज सागर बाँध मौजूद है। किसानों को प्रोत्साहन देने के लिए उसके आमिल जैसे अधिकारी राज्य में भ्रमण करते रहते थे।

व्यापार और वाणिज्यः टीपू आधुनिक उद्योग और व्यापार के महत्त्व से भलीभाँति परिचित था। भारतीय शासकों में यही एकमात्र शासक था जो आर्थिक शक्ति के महत्त्व को सैनिक शक्ति की नींव मानता था। उसने आधुनिक उद्योगों की शुरूआत के लिए प्रयास भी किया। उसने विदेशों से कारीगर बुलाये और कई उद्योगों को राज्य की ओर से सहायता दिया। विदेश व्यापार के विकास के लिए उसने फ्रॉंस, तुर्की और ईरान में अपने दूत भेजे। उसका विचार चीन और पीगू से भी व्यापार करने का था और इसके लिए उसने एक व्यापार बोर्ड का गठन भी किया था।

टीपू ने चंदन, सुपारी, कालीमिर्च, मोटी इलायची, सोने तथा चाँदी के व्यापार तथा हाथियों के निर्यात को सरकार के एकाधिकार में रखा। उसने राज्य में कारखाने भी लगवाये जहाँ युद्ध के लिए गोला, बारूद, कागज, चीनी, रेशम, छोटे उपकरण तथा कलात्मक वस्तुएँ बनाई जाती थीं। वास्तव में टीपू की व्यापारिक नीति का मुख्य उद्देश्य सरकार को प्रमुख व्यापारिक संस्था बनाना तथा राजकोष को भरना था। वह आर्थिक गतिविधियों को सैनिक और राजनैतिक हितों के अधीन लाना चाहता था।

सैनिक प्रशासन : समकालीन विवशताओं के कारण टीपू को अपना अधिकांश समय सैनिक तैयारी में ही लगाना पड़ा। उसने यूरोपीय सेना के नमूने पर अपनी पदाति सेना को बंदूकों और संगीनों से सुसज्जित किया, किंतु इन हथियारों को मैसूर में ही बनाया जाता था। उसने अपनी सेना को फ्रांसीसी कमांडरों द्वारा प्रशिक्षण का प्रबंध किया और एक फ्रांसीसी टुकड़ी तैयार की। किंतु धीरे-धीरे उसकी सेना में फ्रांसीसी सैनिकों की संख्या कम होती चली गई।

हैदरअली और टीपू दोनों ने नौसेना के महत्त्व को समझा, किंतु वे कभी भी अंग्रेजों की बराबरी नहीं कर सके। हैदरअली ने जिन जलपोतों को बनाया था, वे सभी एडवर्ड यूज ने 1780 ई0 में मंगलौर आक्रमण के समय नष्ट कर दिया था। जब तीसरे आंग्ल-मैसूर युद्ध में अंग्रेजों ने मालाबार तट के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया, तो टीपू सुल्तान के लिए नौसेना का महत्त्व और भी बढ़ गया। 1796 ई0 में उसने एक आधुनिक नौसेना खड़ी करने की कोशिश की थी। उसने एक नौसेना बोर्ड का गठन किया और 22 युद्धपोत तथा 20 बड़े फिगेट बनाने की योजना बनाई थी। उसने मंगलौर, वाजिदाबाद तथा मोलीदाबाद में पोतघाट बनाया तथा जहाजों के नमूने स्वयं तैयार कराये थे। अंग्रेज श्रीरंगापट्टनम से दो राकेट ब्रिटेन के वूलविच संग्रहालय की आर्टिलरी गैलरी में प्रदर्शनी के लिए ले गये थे। भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं महान् वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने टीपू सुल्तान को विश्व का सबसे पहला राकेट आविष्कारक बताया है।

टीपू सुल्तान का चरित्र तथा मूल्यांकन -

टीपू 18वीं शताब्दी के किसी अन्य भारतीय शासक की तुलना में दक्षिण भारत या दूसरे भारतीय शासकों के लिए अंग्रेजी राज के खतरे को अधिक ठीक तरह से समझता था। उदीयमान अंग्रेजी सत्ता के सामने वह दृढ़-निश्चयी शत्रु के रूप में खड़ा हुआ और अंग्रेज भी उसको अपना सबसे खतरनाक दुश्मन समझते थे। वह एक दुस्साहसी योद्धा था और अत्यंत प्रतिभाशाली सेनानायक था। उसकी प्रिय उक्ति थीः शेर की तरह एक दिन जीना बेहतर है, लेकिन भेड़ की तरह लम्बी जिंदगी जीना अच्छा नहीं। इसी विश्वास का पालन करते हुए वह श्रीरंगपट्टनम के द्वार पर लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।

टीपू के चरित्र के विषय में तत्कालीन और आधुनिक इतिहासकारों ने विरोधी मत व्यक्त किये हैं। उसके विरोधी इतिहासकारों ने लिखा है कि - वह कठोर, अत्याचारी और धर्मान्ध शासक था। उसे अपनी योग्यता का बहुत घमण्ड था और वह विज्ञान, चिकित्साशास्त्र, इन्जीनियरिंग, सैनिक व्यवस्था, व्यापार आदि सभी के विषय में अपने मत प्रकट किया करता था जबकि उसे इनका पर्याप्त ज्ञान न था। अभिमान के कारण ही उसने ’खुतबा‘ मुगल बादशाह के नाम से नहीं बल्कि अपने नाम से पढ़वाना आरम्भ कर दिया था। उसे स्थानों और नियमों को बदलने की सनक थी और वह अनावश्यक ही उनके नामों में परिवर्तन किया करता था। उसे मनुष्य के चरित्र का ज्ञान न था और वह उनके बारे में उचित निर्णय नहीं ले सकता था। कर्नल विल्कस ने उनके बारे में लिखा है- “हैदरअली चरित्र के मूल्यांकन में शायद की कभी भूल करता था, जबकि टीपू शायद ही कभी ही ठीक होता था। टीपू के विषय में यह भी कहा जाता है कि वह अत्याचारी था। उसने अपने समय में अनेक व्यक्तियों को कठोर यातनाएँ दी थी और उन्हें बेदर्दी से कत्ल कराया था। वर्तमान समय में हिन्दू संगठन दावा करते है कि टीपू धर्मनिरपेक्ष नही था, बल्कि एक असहिष्णु और निरंकुश शासक था। वह दक्षिण का औरंगजेब था जिसने लाखों लोगों का धर्मान्तरण कराया और बड़ी संख्या में मन्दिरों को गिराया। 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश सरकार के अधिकारी और लेखक विलियम लोगान ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि- टीपू ने अपने तीस हजार सैनिकों के दल के साथ कालीकट में तबाही मचाई थी। टीपू सुल्तान ने पुरुषों और महिलाओं को सरेआम फॉंसी दी और उनके बच्चों को उन्ही के गले में बॉंध कर लटकाया गया। इस पुस्तक में विलियन ने टीपू सुल्तान पर मन्दिर, चर्च तोड़ने और जबरन शादी जैसे कई आरोप भी लगाए है। 1964 ई0 में प्रकाशित पुस्तक ‘‘लाइफ ऑफ टीपू सुल्तान‘‘ में कहा गया है कि टीपू सुल्तान ने मालाबार क्षेत्र में लगभग एक लाख से ज्यादा हिन्दुओं और 70 हजार से ज्यादा ईसाईयों को मुस्लिम धर्म अपनाने के लिए मजबूर किया। एक प्रकार से इन इतिहासकारों की दृष्टि में टीपू सुल्तान धर्मान्ध था और हिन्दुओं के प्रति उसका व्यवहार कठोर था। उसने कुर्ग के हिन्दुओं को धर्म-परिवर्तन के लिए बाध्य किया था। इसी कारण उसकी हिन्दू प्रजा उससे असन्तुष्ट थी। टीपू में राजनीतिक दूरदर्शिता की भी कमी थी और इसी कारण अपने पडोसी राज्यों से सहायता प्राप्त करने के स्थान पर उसने दूरस्थ फ्रान्स और अन्य मुस्लिम राज्यों से सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया। अपनी इन्हीं त्रुटियों के कारण टीपू ने अपना साम्राज्य खो दिया। उसके बारे में कहा गया है- “हैदरअली एक साम्राज्य का निर्माण करने के लिए पैदा हुआ था और टीपू उसे खोने के लिए।

साम्राज्यवादी लेखकों ने अपने विकट शत्रु टीपू को बदनाम करने के लिए सीधा-सादा दैत्य तथा धार्मिक उन्मादी के रूप में चित्रित किया है। यद्यपि अपने धार्मिक दृष्टिकोण में वह काफी रूढ़िवादी था, किंतु दूसरे धर्मों के प्रति उसका दृष्टिकोण सहिष्णु और उदार था। उसने हिंदू कुर्गों और नायरों का दमन किया, तो मुसलमान मोपलाओं को भी क्षमा नहीं किया। यह सही है कि भारतीय शासकों ने उसका साथ नहीं दिया, किंतु उसने किसी भी भारतीय शासक के विरुद्ध, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, अंग्रेजों से गठबंधन नहीं किया। उसने अपने शासन के सभी महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर हिंदुओं की नियुक्ति की थी। 1791 ई. में जब मराठा घुड़सवारों ने श्रृंगेरी के शारदा मंदिर को लूटा, तो उसने न केवल मंदिर के टूटे भाग की मरम्मत करवाई, बल्कि शारदादेवी की मूर्ति स्थापना के लिए धन भी दिया। टीपू अनेक हिंदू मंदिरों को नियमित रूप से भेंट दिया करता था। उसने श्रीरंगापट्टनम के दुर्ग में स्थित रंगनाथ नरसिंह अथवा गंगाधारेश्वर के मंदिरों की पूजा में कभी हस्तक्षेप नहीं किया, जो उसके महल से बमुश्किल 100 गज की दूरी पर था। इसलिए टीपू पर धर्मांधता होने का आरोप लगाना उचित नहीं है।

टीपू शिक्षित था और उसे फारसी व कन्नड़ भाषाओं का ज्ञान था। उसे राजनीति में रुचि थी और विदेशी राज्यों से व्यवहार करने में वह कुशल था। उसने विभिन्न देशों में अपने राजदूत भेज कर उनसे सम्पर्क स्थापित करने का प्रयत्न किया था। मराठा और निजाम से सहायता न मिलने तथा अंग्रेजों से शत्रुता होने में उसका स्वयं का कम और इतिहास की घटनाओं व परिस्थितियों का दोष अधिक था। उसने निजाम और मराठों की मित्रता हो जाने के पश्चात् व मुगल बादशाह को सिन्धिया के प्रभाव में समझकर ही 1786 ई0 में ‘खुतबा‘ अपने नाम से पढ़वाया था। उसने निजाम से मित्रता और विवाह-सम्बन्ध का भी प्रस्ताव किया था जो निजाम के द्वारा ठुकरा दिया गया था। वह एक साहसी सैनिक और सेनापति था। तृतीय मैसूर-युद्ध में बुरी तरह से दुर्बल हो जाने पर भी उसने साहस नहीं छोड़ा था और अपनी पराजय को स्थायी मानने की बजाय तुरन्त ही अपनी शक्ति को पुनः एकत्रित करना आरम्भ कर दिया था। आंशिक रूप से यह भी कहा जा सकता है कि भारतीय शासकों में वही अकेला शासक था, जिसने बिना किसी समझौते के विदेशी शक्ति-अंग्रेजों के विरुद्ध निरन्तर संघर्ष किया।

साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से भले ही उसपर आज आरोप लग रहे है लेकिन टीपू सुल्तान को दुनिया का पहला मिसाइलमैन कहा जाता है। बी0बी0सी0 की  एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के मिसाइल कार्यक्रम के जनक ड़ा0 ए0पी0जे0 अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक ‘‘विंग्स ऑफ फायर‘‘ में लिखा है कि उन्होने नासा के एक सेन्टर में टीपू की सेना की रॉकेट वाली पेंटिंग देखी थी। टीपू सुल्तान दुनिया का पहला राकेट आविष्कारक था। टीपू सुल्तान के लोहे से बने मैसूरियन रॉकेट से अंग्रेज घबराते थे। टीपू सुल्तान के इस हथियार ने भविष्य को नई सम्भावनाये और कल्पनाओं को उड़ान दी। ये रॉकेट आज भी लंदन के म्यूजियम में रखे गये हैं। अंग्रेज टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद उस रॉकेट को अपने साथ ले गए थे। टीपू सुल्तान ने अपने इस हथियारों का बेहतरीन इस्तेमाल करके कई युद्धों में जीत हासिल की। 

टीपू सुल्तान एक मुस्लिम शासक होने के बावजूद उन्होंने कई मंदिरों में अनेक तोहफे पेश किये। श्रीरंगपट्टण के श्रीरंगम (रंगनाथ मंदिर) को टीपू ने सात चांदी के कप और एक रजत कपूर - ज्वालिक पेश किया। मेलकोट में सोने और चांदी के बर्तन हैं जिनके शिलालेख बताते हैं कि ये टीपू ने भेंट किये थे। इनमे से कई को सोने और चॉंदी की थाली पेश की। टीपू सुल्तान ने अपने शासनकाल में नये सिक्के और कलैंडर चलाये। टीपू सुल्तान की तलवार का वजन 7 किलो 400 ग्राम था और उनकी तलवार पर रत्नजड़ित बाघ बना हुआ था। आज इस तलवार की कीमत 21 करोड़ के लगभग आंकी जाती है। टीपू सुल्तान के सभी हथियार अपने आप में कारीगरी का बेहतरीन उदहारण हैं। टीपू सुल्तान की अंगूॅठी 18वीं सदी की सबसे विख्यात अंगूॅठी थी जिसका वजन 41.2 ग्राम था। उसकी नीलामी लगभग 145,000 पौंड यानी करीब 1,42,87,665 रुपये में हुई थी। ‘क्रिस्टी‘ ने इसके बारे में उल्लेख किया है कि- ‘‘यह अद्भुत है कि एक मुस्लिम सम्राट ने हिन्दू देवता के नाम वाली अंगूठी पहने हुए था। टीपू सुल्तान की ‘राम‘ नाम की अंगूॅठी को  अंग्रेज उसके के मरने के पश्चात् उसे अपने साथ ले गये।

अनेक ऐसे प्रमाण भी प्राप्त होते हैं जिनसे टीपू को योग्य और परिश्रमी शासक माना जा सकता है। उसके समय में कृषि की स्थिति बहुत अच्छी थी। उसका विवरण मूर (Moore), डीरम (Dirom) आदि अनेक व्यक्तियों ने दिया है। सर जॉन शोर ने लिखा है- “उसके राज्य में किसानों की रक्षा की जाती है और उनके श्रम को प्रोत्साहन व इनाम दिया जाता है।“ टीपू ने सेना, व्यापार, मुद्रा, ऋण-व्यवस्था, नाप-तोल के साधनों सहित शासन के विभिन्न क्षेत्रों में सुधार किये थे, इसके भी प्रमाण प्राप्त होते हैं। मालाबार-क्षेत्र में सार्वजनिक सड़कों का निर्माण उसी ने आरम्भ किया और वहाँ कई सड़कें बनवायीं। इससे स्पष्ट होता है कि यद्यपि टीपू एक निरंकुश शासक था परन्तु उसने अपनी प्रजा की भलाई के लिए अनेक कार्य किये थे। अनेक ऐसे उदाहरण भी प्राप्त होते हैं जबकि उसने अत्यधिक कठोरता का परिचय दिया था परन्तु यह अपराधियों और विद्रोहियों के सम्बन्ध में था, न कि सार्वजनिक अत्याचारों की दृष्टि से।

व्यक्तिगत दृष्टि से निःसन्देह वह कट्टर मुसलमान था, पाँचों वक्त की नमाज पढ़ता था और ईश्वर में पूर्ण विश्वास करता था परन्तु वह धर्मान्ध था, यह आवश्यक रूप से सिद्ध नहीं होता। टीपू ने कुछ स्थानों पर हिन्दुओं को मुसलमान बनाया और ईसाइयों को बाहर निकाल दिया, इसमें सन्देह नहीं। परन्तु यह उसकी सार्वजनिक नीति नही थी। श्रृंगेरी के मठ से जो पत्र प्राप्त हुए हैं उनसे स्पष्ट होता है कि टीपू हिन्दुओं की भावनाओं को सन्तुष्ट करना जानता था और धर्मान्धता उसके पतन का कारण न थी। ऐसे उदाहरण भी प्राप्त होते हैं जब टीपू ने हिन्दू मन्दिरों को दान दिया था और हिन्दू अधिकारियों की नियुक्ति की थी। वह श्रृंगेरी के तत्कालीन जगद्गुरु शंकराचार्य का सम्मान करता था और उनसे निरन्तर पत्र-व्यवहार करता रहा था। परन्तु यह अवश्य स्वीकार किया जा सकता है कि अपने पिता हैदरअली की तुलना में टीपू धार्मिक मामलों में अवश्य अनुदार था और उसके समय में उसकी हिन्दू प्रजा में थोड़ा असन्तोष था।

वस्तुतः साहसी और कभी भी पराजय स्वीकार न करने वाला होते हुए भी टीपू ने घुड़सवार सेना की अपेक्षा अपनी पैदल सेना और किलेबन्दी पर अधिक बल दिया था। इसी कारण उसकी युद्ध-नीति आक्रामक होने के स्थान पर सुरक्षात्मक बन गयी थी और यही उसकी पराजय और पतन का एक मुख्य कारण बना। संभवतः उसकी असफलता ही उसके व्यक्तित्व को उपर उठने नही देती क्योंकि एक शासक के लिए असफलता और पराजय से बुरी कोई चीज नही होती है।

टीपू निश्चय ही दक्षिण भारत के इतिहास का एक आकर्षक व्यक्तित्व है। मैसूर के इस शेर ने कभी अपना स्वाभिमान नहीं छोड़ा और वेलेजली की सहायक संधि को कभी स्वीकार नहीं किया। अपनी देशभक्ति तथा स्वतंत्रता के लिए अपने संघर्ष के कारण उसका नाम आधुनिक भारत के इतिहास में अमर रहेगा।


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