विषय-प्रवेश (Introduction) :
ऐसा लगता है कि हैदराबाद के राज्यतंत्र ने मैसूर के राज्यतंत्र से अलग किस्म के ढाँचे को अपनाया। हैदराबाद का प्राचीन इतिहास बताता है कि अशोक के शासनकाल के दौरान तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में मौर्य साम्राज्य ने हैदराबाद के आसपास के क्षेत्र पर शासन किया था। मध्यकाल में दिल्ली सन्ल्तनत के काल में 1518 ई0 में कुली कुतुब-उल-मुल्क ने बहमनी सल्तनत से स्वतंत्रता की घोषणा की और सुल्तान कुली कुतुब शाह की उपाधि के तहत गोलकुंडा सल्तनत की स्थापना की। यह कुतुब शाही राजवंश की शुरुआत थी। बहमनी सल्तनत पॉंच अलग-अलग राज्यों में बिखर गई। कुतुब शाही वंश के मोहम्मद कुली कुतुब शाह ने हैदराबाद शहर का निर्माण किया जो मूल रूप से गोलकुंडा के पूर्व में मुसी नदी पर भाग्यनगर के रूप में जाना जाता था और इसे अपनी प्यारी हिंदू पत्नी भाग्यमती को समर्पित किया। उसने चार मीनार के निर्माण का भी आदेश दिया। मुगल काल में यहाँ शूरू के दिनों में मुगल प्रभाव कहीं अधिक मुखर था। आमतौर पर मुगल साम्राज्य के दिनों में दक्कन के सूबेदार को हैदराबाद में नियुक्त किया जाता था। यहाँ पर मुगल प्रशासन प्रणाली को लागू करने का प्रयास किया गया। लगातार मुगल मराठा टकराव और अंदरूनी तनाव के बावजूद इस प्रणाली ने दक्कन में मुगल साम्राज्य की व्यवस्था को मुखर किया। परंतु औरंगजेब के देहान्त के पश्चात मुगल साम्राज्य के पतन के परिणामस्वरूप यह प्रणाली संकट में पड़ गयी थी। निजाम अली खां (1762-1803) के समय तक आते-आते कर्नाटक, मराठे और मैसूर सभी ने अपने जमीन के दावों को सुलझा लिया था और हैदराबाद में एक किस्म का स्थिर राजनीतिक ढाँचा उभर आया था।
दक्कन में हैदराबाद के स्वतंत्र राज्य की स्थापना 1724 ई0 में एक प्रमुख कुलीन निजामुल मुल्क ने उस समय की थी जिस समय दिल्ली दरबार पर सैयद बंधुओं का नियंत्रण था। दक्कन में स्वतंत्र राज्य बनाने का सपना सबसे पहले जुल्फिकार खाँ ने देखा था। 1708 ई0 में बहादुरशाह की उदारता के कारण वह दक्कन का सूबेदार बना था। वह दक्कन का कार्य अपने नायब दाऊद खाँ के माध्यम से चलाता था। उसके मरने के बाद सैयद बंधुओं के प्रयास से 1715 ई0 में चिनकिलिच खाँ को दक्कन का वायसराय बनाया गया।
निजामुल-मुल्क चिनकिलिच खाँ ने सैयदों को हटाने में मुहम्मदशाह की सहायता की और इसके बदले में उसे दक्कन की सूबेदारी मिली। 1720 से 1722 ई0 तक उसने प्रशासन को पुनर्गठित किया तथा राजस्व व्यवस्था को सुदृढ़ बनाया। 1722 से 1724 ई0 तक संक्षिप्त समय के लिए दिल्ली में वजीर रहने के बाद सम्राट और उसके स्वार्थी सरदारों के कारण उसने पुनः दक्कन लौटने का निर्णय किया। वजीर के रूप में उसने मालवा और गुजरात को दक्कन की सूबेदारी में सम्मिलित करवा लिया। 1723 ई0 के अंत में वह शिकार के बहाने दक्कन की ओर प्रस्थान कर गया और हैदराबाद राज्य की नींव रखी।
निजाम के इस कार्य से मुहम्मदशाह बहुत क्रोधित हुआ। उसने मुबारिज खाँ को दकन का पूर्णरूपेण सूबेदार नियुक्त कर आदेश दिया कि वह निजमामुल्क को जिंदा या मुर्दा दरबार में उपस्थित करे। निजाम मुबारिज खाँ से अधिक शक्तिशाली था। उसने अक्टूबर, 1724 ई0 को शकूर खेड़ा के युद्ध में मुबारिज खाँ को हरा कर मार डाला और दकन का स्वामी बन गया। विवश होकर सम्राट ने निजामुलमुल्क को दकन का सूबेदार बना दिया और उसे ’आसफजाह’ की उपाधि भी दी।
यद्यपि निजामुल-मुल्क ने मुगल सम्राट के प्रति अपनी राजभक्ति को निरंतर बनाये रखा, लेकिन व्यवहारतः उसने एक स्वतंत्र शासक की तरह युद्ध किया, शांति स्थापित की, उपाधियाँ दी और दिल्ली के संदर्भ के बिना जागीरें बाँटी । राजस्व व्यवस्था में सुधार, जमींदारों पर नियंत्रण, हिंदुओं के प्रति सहिष्णुता ( पूरनचंद जैसों को दीवान) निजाम-उल- मुल्क की प्रशंसनीय नीतियाँ थीं। मराठों के कारण निजाम को कुछ समय कठिनाई हुई तथा मराठा सेनाएँ अपनी इच्छानुसार राज्य पर आक्रमण करतीं और असहाय राज्य के लोगों से चौथ वसूल करतीं। उसने नादिरशाह के विरुद्ध इच्छानुसार राज्य पर आक्रमण करतीं और असहाय राज्य के लोगों से चौथ वसूल करतीं। उसने नादिरशाह के विरुद्ध करनाल के युद्ध में भाग लिया था। परंतु 1748 ई0 में उसकी मृत्यु के बाद हैदराबाद की कमजोरियाँ मराठों एवं विदेशी कंपनियों के सामने स्पष्ट हो गईं।
निजाम-उल मुल्क के पुत्र नासिर जंग और पौत्र मुजफ्फर जंग के बीच उत्तराधिकार के लिए संघर्ष हुआ। डूप्ले के नेतृत्व में फ्रांसीसियों ने इस अवसर का लाभ उठाया और मुजफ्फर जंग का समर्थन किया। इस सहायता के बदले मुजफ्फर जंग ने फ्रांसीसियों को काफी मोटी रकम एवं उपहारस्वरूप कुछ क्षेत्र दे दिया। जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय उपमहाद्वीप पर सर्वोच्चता हासिल की तो उन्होंने निज़ामों को अपनी रियासतों पर ग्राहक राजाओं के रूप में शासन जारी रखने की अनुमति दी।
युद्ध और सेना
अन्य क्षेत्रों की तरह ही, हैदराबाद में उभरने वाले राज्यतंत्र का एक अहम अंग सेना ही थी। निजामुल-मुल्क ने मौजूदा जागीरदारियों को बने रहने देने की नीति ही अपनायी। सेनापति और उनके सैनिक अपने निजी नियोक्ताओं खासतौर पर सामंतों के जरिये राजनीतिक व्यवस्था से बंधे थे। यहाँ की स्थिति मैसूर से इस मायने में अलग थी कि यहाँ (हैदराबाद में) स्थानीय सरदारों के अधिकारों को ज्यों का त्यों बना रहने दिया गया। मुगल सेना की तरह, हैदराबाद की सेना का रख-रखाव भी निजाम के खजाने में सामंतों द्वारा लिये गये नकद भत्तों से किया जाता था। सेना की मराठा, कर्नाटक नवाब, मैसूर या अंग्रेजों को अंकुश में रखने में महत्वपूर्ण भूमिका थी। हालांकि ऐसा मैसूर में नहीं था, फिर भी हैदराबाद में राज्य के वित्त को सीधा-सीधा युद्ध में लगाने के लिये तैयार करने के प्रयास मैसूर के मुकाबले निश्चित रूप से कमजोर दिखायी देते हैं।
भू-राजस्व प्रणाली -
हैदराबाद की भू-राजस्व प्रणाली मैसूर की भू-राजस्व प्रणाली से इस मायने में फर्क थी कि टीपू और हैदर ने राजस्व पर एक बड़ी नौकरशाही के जरिये सीधे काबू करने की कोशिश की थी लेकिन हैदराबाद के शासकों ने यह काम बिचौलियों को करने दिया। इतिहासकार एम0 ए0 नईम ने इजारा या राजस्व खेती भूमि के वजूद की बात कही है। दूसरे तमाम ऐसे पेशकश जमींदार थे जिनकी भूमि का सरकारी तौर पर मूल्यांकन नहीं होता था। लेकिन उन्हें अपने ही मूल्यांकन खातों के हिसाब से एक सालाना अंशदान या “पेशकश“ देनी होती थी। तीसरे नईम के अनुसार, जहाँ जमींदारों ओर देशपांडे (गांव प्रधानों) को राज्य के मूल्यांकन के आधार पर भू-राजस्व देना होता था, वहाँ भी उनकी सहमति ली जाती थी।
राजस्व के लिये यह तो समझा जाता था कि वह उत्पादन का 50 प्रतिशत होना चाहिए लेकिन ऐसा बहुत कम ही होता था कि इस अनुपात में राजस्व इकट्ठा हो। राज्य और भू-राजस्व दाताओं के बीच बिचौलियों का महत्व इस तथ्य से पता चलता है कि राज्य की इकट्ठा हुई रकम या “जमाबंदी“ जमीदार की सहमति से तय हुई मूल्यांकन की रकम से हमेशा कम होती थी। इन दोनों, कामिल और जमा के बीच का फर्क जमींदार का हिस्सा होता था। निजाम काल के राजस्व संबंधी दस्तावेजों से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि वास्तविक राजस्व में भी गिरावट आयी। हैदराबाद में जागीरें या राज्य की सेवा के लिये मिलने वाली भूमि पुश्तैनी होती थी। मैसूर में तो इस पर रोक लगाने की कोशिश हुई लेकिन हैदराबाद में इसके लिये कोई गंभीर उपाय किये गये नहीं लगते। यही नहीं, जागीरदार पुश्तैनी विरासत का फायदा उठाते हुए इतने मजबूत हो गये कि वास्तविक राजस्व में गिरावट आने के संदर्भ में भी इस बात का कोई सवाल ही नहीं उठता कि जागीरदारों को जो रकम सचमुच मिलनी चाहिये, उनकी जागीरों से उन्हें मिलने वाल राजस्व उससे कम हो।
हैदराबाद के भू-राजस्व प्रशासन में आमिलों (प्रांतीय प्रधानों) के नीचे अधिकारी होते थे। नियमित मूल्यांकन और सर्वेक्षण के उपाय किये जाते थे। खेती करने वालों को राज्य की कर्ज और मोहलत की नीति के जरिये हौसला बढ़ाया जाता था। मगर, ये सभी संभावनायें बिचौलियों की ताकत और अहमियत ने खत्म कर दी। इसका निजामों के अधीन हैदराबाद के राज्यतंत्र के बनने पर महत्त्वपूर्ण असर पड़ना था।
लगता है वहाँ बिचौलिये स्वार्थों का एक ऐसा तंत्र (नेटवर्क) मौजूद था जो सर्वोच्च स्तर पर ताकत और असर के लिये चलने वाली होड़ के लिये राजनीतिक आधार बन सकता था।
संरक्षक और उनके आश्रित
इतिहासकार कैरेन लियोनार्ड हैदराबाद की राजनीतिक व्यवस्था में शिथिल “संरक्षक-आश्रित संबंध“ की बात बताती है। वह मुख्य संरक्षक निजाम और शक्तिशाली सामंतों को बताती है। निजाम तो अपनी पकड़ बनाये रखते थे, जबकि उनके इर्द-गिर्द सामंतों का घेरा समय-समय पर बदलता रहता था। निजाम के काल में सामंतों को अपने काम में आगे बढ़ने के लिये कोई एक-सा मानदंड नहीं था, जैसा कि मुगलों के अधीन होता था। निजाम के साथ व्यक्तिगत संबंध या सैनिक कौशलों को अहमियत मिल रही थी। इसलिये हैदराबाद में शक्तिशाली बनने के लिये मनसबों ने (जैसा कि मुगलों की व्यवस्था में था) सामंतों के उदय को नहीं रोका। बहुत से ऐसे जमींदार या जागीरदार जो अपने पीछे छोटे बिचौलियों को लेकर चल सकते थे, थोड़े से सैनिक कौशल और कूटनीति के बल पर शक्तिशाली हो गये।
इससे पहले मगलों के औपचारिक भू-राजस्व नियमों और व्यवस्थित प्रशासनिक स्तरीकरण के कारण शक्ति और दौलत बनाने की गुंजाइश सीमित ही रही। लेकिन अब संस्था का ढाँचा इतना कमजोर था कि शीर्ष पर राजनीतिक दावों को सीधे-सीधे हथियाया जा सकता था।
वकील
शक्ति और दौलत हथियाने की इस प्रक्रिया को “वकील“ कहलाने वाले बिचौलियों का एक और तंत्र मदद पहुँचा रहा था। ये “वकील“ निजाम और सामंतों के बीच सामंतों और सामंतों के बीच निजाम और बाहरी ताकतों के बीच दलालों का काम करते थे। वकील हैदराबादी द्वारा संचालित विशाल और पैसे वाली संस्थाओं में व्यक्तियों के सुअवसरों की भी व्यवस्था करते थे। ये वकील आमतौर पर व्यक्तियों के स्वार्थों के आधार पर काम करते थे और वहीं जहाँ तक उनके संरक्षक शक्तिशाली थे। इसी के साथ व्यक्ति लाभ के लिये निष्ठा तथा संरक्षण बदल लेना आम बात थी। उस माहौल के लिये कोई एक-सा मापदंड नहीं था, ये वकील शक्ति और दौलत के लिये चलने वाली होड़ में व्यक्तिगत लाभ के लिये कार्य करने वाली शक्तियों के प्रतिनिधि थे।
स्थानीय सरदार
मैसूर की स्थिति के विपरीत, निजाम के अधीन स्थायी सरदारो ने निजाम को अंशदान देने के बाद अपनी अपनी पुश्तैनी भूमि पर कब्जा जारी रखा। उन्होंने निजामों और सामंतो और उसके जैसे संरक्षकों की भूमिका तो निभायी लेकिन उन्हें हैदराबाद की राजनीतिक व्यवस्था में आमतौर पर मिलाया नहीं गया। न ही उनके वकीलों ने दूसरे शासकों के साथ संबंध बनाये रखे। स्थानीय सरदारों ने हैदराबाद दरबार की जीवन शैली को भी नहीं अपनाया और दरबार की राजनीतिक के दायरे से बाहर रहने में ही संतुष्ट रहे। लेकिन जब हैदराबाद दरबार कमजोर हा गया उस समय वे अपनी व्यक्तिगत क्षमता में निर्णायक कारक बने रहे।
वित्तीय और सैनिक समूह
साहूकारों, महाजनों और सेनापतियों (आम तौर पर भाड़े के) ने हैदराबाद की राजनीतिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे प्रमुख भूमिका निभाते थे क्योंकि वे आवश्यक वित्तीय और सैनिक सेवा प्रदान करते थे। उनकी शक्ति का स्रोत उनका सम्प्रदाय था और वकीलों के विपरीत वे जाति अथवा सम्प्रदाय के समूहों की तरह काम करते थे। वित्तीय समूहों में कुछ मुख्य सम्प्रदाय या जाति समूह अग्रवाल और मारवाड़ी थे जबकि अफगान और अरब प्रमुख सैनिक समूह थे। समर्थन और सेवाएँ वापस लेने की धमकी देकर ये व्यक्ति और समूह अपने स्तर पर राज्यतंत्र के संतुलन में एक अहम भूमिका निभाने की स्थिति में थे।
प्रशासनिक प्रणाली
प्रशासनिक प्रणाली हैदराबाद राज्यतंत्र के दूसरे पहलुओं की प्रवृत्ति का अनुसरण करती दिखती है। पहले की मुगल संस्थाएँ प्रकट में व्यक्तियों को लाभ कमाने की छूट देने की प्रक्रिया में लगी रही, लेकिन अब उन्होंने निहित स्वार्थों को मजबूत करने की भी छूट दे दी। सबसे अच्छा उदाहरण दीवान के पद का है जो राज्य के अधिकतर रोजमर्रा के मामलों को चलाता था। यहाँ दीवान की जगह दफतरदारों का मातहत पुश्तैनी पद कहीं अधिक अहम हो गया। राजस्व जैसे मामलों को चलाने के लिए वेतनभोगी अधिकारियों के न होने की स्थिति में स्थानीय देशपांडे या तालुकदार के द्वारा रकम निश्चित करके और उसे खाते में दर्ज करके नियंत्रण कर पाने में समर्थ थे। इस तरह से उन्हें काफी दौलत बना लेने का मौका भी मिल जाता था।