Introduction (विषय-प्रवेश) :
18वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के खंडहरों पर मराठों का साम्राज्य मजबूत हुआ था। उन्हीं परिस्थितियों में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी भी एक शक्तिशाली संगठन के रूप में अपने पैर जमा चुकी थी। अब इन दोनों शक्तियों के मध्य मुद्दा स्वयं के अधिकारों में वृद्धि करने, क्षेत्र पर वर्चस्व स्थापित करने और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ साबित करने का था। हितों के इन टकरावों की परिणति तीन आंग्ल-मराठा युद्धों के के रूप में हुई। अंग्रेज़ों और मराठों के मध्य 1775-82 में प्रथम, 1803-06 में द्वितीय तथा 1817-18 में तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ। यद्यपि मराठे उस समय मुगलों से अधिक शक्तिशाली थे परंतु अंग्रेज़ों से सैनिक व्यवस्था, नेतृत्व, कूटनीति तथा साधनों में बहुत पीछे थे फलस्वरूप मराठों को अंग्रेज़ों से हार मिली। इन युद्धों का परिणाम यह हुआ कि मराठों का पूरी तरह से पतन हो गया। मराठों में पहले से ही आपस में भेदभाव थे, जिस कारण वह अंग्रेजों के विरुद्ध नहीं लङ सके।
प्रथम आंग्ल-मराठा संघर्ष (First Anglo-Maratha War) 1775-1782 ई0
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध के कारण
प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध का प्रमुख कारण मराठों के आपसी झगड़े तथा अंग्रेजों की महत्त्वाकाक्षाएं थी। मुगलों के पतन के समय भारत में मराठा शक्ति उदित हो रही थी। अतः जो शक्ति भारत में प्रमुख स्थान प्राप्त कर रही थी, उसका अंग्रेजों से संघर्ष होना स्वाभाविक था।
प्रथम आंग्ल-मराठा संघर्ष की भूमिका- कंपनी सदैव इस बात का ध्यान रखने लगी कि वह ऐसा कोई कार्य न करे, जिससे मराठों के साथ संघर्ष करना पड़े फिर भी कंपनी अपनी नीतियों को कार्यान्वित करने का प्रयास करती रही। 1758 ई0 में अंग्रेजों व मराठों के बीच एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार अंग्रेजों ने मराठों से दस गाँव प्राप्त किये तथा मराठा क्षेत्र में कुछ व्यापारिक सुविधाएं भी प्राप्त की। 1759 ई0 में ब्रिटिश अधिकारी प्राइस (prais) व थामस वॉटसन पूना गये। इन दोनों का उद्देश्य मराठों से सालसीट व बेसीन प्राप्त करना था। इस बार भी सालसीट व बेसीन के संबंध में कोई समझौता नहीं हो सका क्योंकि पेशवा माधवराव, मैसूर के शासक हैदरअली के विरुद्ध अंग्रेजों की सहायता चाहता था, किन्तु कम्पनी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। फिर भी वॉटसन ने पेशवा को आश्वासन दिया कि कम्पनी मराठों से कभी युद्ध नहीं करेगी और यदि कोई तीसरी शक्ति मराठों से युद्ध करती है तो कम्पनी मराठों के विरुद्ध सहायता नहीं देगी।
18 नवंबर 1772 ई0 को पेशवा माधवराव की निःसंतान मृत्यु हो गयी। अतः उसका भाई नारायणराव पेशवा की गद्दी पर बैठा परंतु उसका चाचा रघुनाथ राव अर्थात राघोबा स्वयं पेशवा बनना चाहता था। अतः राघोबा ने अपनी पत्नी आनन्दीबाई के सहयोग से 13 अगस्त 1773 ई0 को नारायणराव की हत्या करवा दी और अपने आपको पेशवा घोषित कर दिया परन्तु नाना फङनवीस के नेतृत्व में मराठों ने रघुनाथराव का विरोध करते हुये बाराबाई संसद का निर्माण किया और शासन -प्रबंध अपने हाथ में ले लिया। किन्तु उनके सामने समस्या यह थी कि पेशवा किसे बनाया जाये। जिस समय नारायणराव की मृत्यु हुई थी, उस समय उसकी पत्नी गंगाबाई गर्भवती थी। 18 अप्रैल 1774 ई0 को उसने एक बालक को जन्म दिया, जिसका नाम माधवराव द्वितीय रखा गया। बाराबाई संसद ने माधवराव द्वितीय को पेशवा घोषित कर दिया तथा नाना फडनवीस को उसका संरक्षक नियुक्त किया। बाराबाई संसद ने राघोबा को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। ऐसी स्थिति में राघोबा भागकर बम्बई गया और कौंसिल के अध्यक्ष हॉर्नबाई से बातचीत की। तत्पश्चात कम्पनी की बम्बई शाखा और राघोबा के बीच 6 मार्च 1775 को संधि हो गई, जिसे सूरत की संधि कहते हैं।
सूरत की संधि की शर्ते -
- राघोवा ने अंग्रेज़ों को बम्बई के समीप स्थित सालसीट द्वीप, थाना,जंबूसर का प्रदेश तथा बेसीन को देने का वचन दिया।
- अंग्रेज राघोबा को पेशवा बनाने में मदद करेंगे।
- सूरत की संधि के अनुसार बम्बई सरकार राघोवा से डेढ़ लाख रुपये मासिक ख़र्च लेकर उसे 2500 सैनिकों की सहायता देगी।
- अपनी सुरक्षा के बदले राघोबा कम्पनी की बम्बई शाखा को छः लाख रुपये देगा।
- यदि राघोबा पूना से कोई शांति समझौता करेगा तो उसमें अंग्रेजों को भी शामिल करेगा।
कम्पनी की बम्बई शाखा ने यह संधि गवर्नर-जनरल को बिना पूछे की थी तथा रेगुलेटिंग एक्ट, 1773 के द्वारा कम्पनी की बम्बई शाखा इसके लिए अधिकृत नहीं थी। संधि के बाद हॉर्नबाई ने केवल पत्र लिखकर इसकी सूचना गवर्नर-जनरल को भेज दी। इस संधि के कारण ही अंग्रेज व मराठों के संघर्षों का सूत्रपात हुआ तथा वॉटसन ने मराठों को जो आश्वासन दिया था, उसे इस संधि द्वारा तोङ दिया गया।
सूरत की संधि के बाद बम्बई सरकार ने रघुनाथराव की सहायता हेतु एक सेना भेजी और 8 मई 1775 ई0 को अंग्रेजों व मराठों के बीच पूना से पहले ही अरास नामक स्थान पर युद्ध हुआ, जिसमें मराठे पराजित हुए। अंग्रेजों ने सालसीट पर अधिकार कर लिया। किन्तु इसी समय बंगाल कौंसिल ने हस्तक्षेप किया, क्योंकि बम्बई सरकार ने यह समझौता बिना बंगाल कौंसिल की स्वीकृति से किया था। बंगाल कौंसिल ने सूरत की संधि को अस्वीकार कर युद्ध बंद करने का आदेश दिया क्योंकि
- यह संधि राघोबा द्वारा हस्ताक्षरित है और अब वह पेशवा नहीं है।
- सूरत की संधि से कंपनी को अनावश्यक युद्ध में भाग लेना पड़ा है।
- मराठा शक्ति से अंग्रेजों को कोई क्षति नहीं हुई है, अतः उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई औचित्य नहीं है।
- यह संधि रेग्युलेटिंग एक्ट के विरुद्ध है।
बंगाल कौंसिल ने युद्ध बंद करने का आदेश दिया था, फिर भी युद्ध बंद नहीं हुआ। तब बंगाल कौंसिल ने कर्नल अप्टन (Upton) को मराठों से बातचीत करने पूना भेजा। अप्टन के पूना पहुँचते पर युद्ध बंद हो गया। पूना में अप्टन और मराठों के बीच मतभेद उत्पन्न हो गये, क्योंकि अप्टन ने रघुनाथराव को सौंपने से इन्कार कर दिया तथा वह सालसीट और बेसीन पर अधिकार बनाये रखना चाहता था। अतः वार्ता असफल हुई और युद्ध पुनः शुरु हो गया। मराठों ने बङी वीरता का प्रदर्शन किया किन्तु दुर्भाग्यवश मराठा विद्रोही सदाशिवराव के कारण उन्हे सफलता नही मिली और उन्होंने अंग्रेजों से 1 मार्च 1776 ई0 को पुरंदर की संधि कर ली।
पुरंदर की संधि की शर्ते-
- अंग्रेजों ने रघुनाथराव के लिए जो रकम खर्च की है, उसके लिए मराठा अंग्रेजों को 12 लाख रुपये देंगे।
- सूरत की संधि को रद्द कर दिया गया। मराठों ने रघुनाथराव को 3 लाख 15 हजार रुपये वार्षिक पेंशन देना स्वीकार कर लिया।
- युद्ध में अंग्रेजों ने जो क्षेत्र प्राप्त किये थे वे अंग्रेजों के पास ही रहेंगे।
इस संधि पर मराठों की ओर से सूखराम बापू ने तथा अंग्रेजों की तरफ से कर्नल अप्टन ने हस्ताक्षर किये। किन्तु बम्बई सरकार तथा गवर्नर वॉरेन हेस्टिंग्ज इस संधि को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। इसी बीच मराठों ने विद्रोही सदाशिव को पकड़ लिया तथा उसकी हत्या कर दी। अब मराठे अंग्रेजों से निपटने के लिए तैयार थे। स्थिति उस समय और भी अधिक जटिल हो गई, जब 1778 ई0 में एक फ्रांसीसी राजदूत सैण्ट लुबिन फ्रांस के सम्राट का पत्र लेकर मराठा दरबार में पहुँचा। मराठों ने उसका शानदार स्वागत किया, किन्तु जब अंग्रेज राजदूत वॉटसन पूना पहुँचा तो उसका कोई विशेष स्वागत नहीं किया गया। अतः यह अफवाह फैलने लगी कि मराठों व फ्रांसीसियों में संधि हो गई। उधर वॉटसन ने मराठा दरबार के एक मंत्री की सहायता से नाना फड़नवीस और सुखराम बापू में फूट डलवा दी। सुखराम बापू, जो पुरंदर की संधि का हस्ताक्षरकर्ता था, उसने गुप्त रूप से बम्बई सरकार को लिखा कि रघुनाथराव को पेशवा बनाने में वह भी मदद देने को तैयार है। अतः बम्बई सरकार ने कहा कि चूँकि पुरंदर की संधि पर हस्ताक्षर करने वाला स्वयं हमारे निकट आ रहा है, इसलिए पुनः युद्ध चालू करने पर संधि का उल्लंघन नहीं माना जा सकता। बंगाल कौंसिल ने इसका विरोध किया, किन्तु वॉरेन हिस्टिंग्ज ने बम्बई सरकार का समर्थन किया। यद्यपि मराठों ने स्पष्ट कर दिया कि फ्रांसीसियों के साथ उनकी कोई संधि नहीं हुई है तथा सैंट लुबिन को भी वापिस भेज दिया गया है। किन्तु वारेन हेस्टिंग्स ने मार्च 1778 ई0 में बम्बई सरकार को युद्ध करने का अधिकार प्रदान कर दिया।
बम्बई सरकार ने कर्नल एगटस के नेतृत्व में एक सेना भेजी, किन्तु जब वह मराठों के हाथों पराजित हुआ, तब उसके स्थान पर कर्नल काकबर्क की नियुक्ति की गई। मराठा सेना का नेतृत्व महादजी सिंधिया व मल्हारराव होल्कर कर रहे थे। मराठा सेना धीरे-धीरे पीछे हटती गई और ब्रिटिश सेना आगे बढ़ती हुई पूना से 18 मील दूर तेलगाँव के मैदान तक आ पहुँची। 19 जनवरी 1779 को तेलगाँव पहुँचते ही अंग्रेजों को मालूम हुआ कि मराठों ने उन्हें तीन ओर से घेर लिया है। इस पर मराठों ने आगे बढकर आक्रमण कर दिया और दोनों पक्षों के बीच भीषण युद्ध हुआ, जिसमें अंग्रेज पराजित हुए। इस पराजय के साथ ही बम्बई सरकार को एक अपमानजनक समझौता करना पङा। 29 जनवरी 1779 ई0 को दोनों पक्षों में बड़गाँव का समझौता हो गया।
बड़गाँव की संधि की शर्ते-
- अंग्रेज रघुनाथराव को मराठों के हवाले कर देंगे।
- अब तक अंग्रेजों ने जिन मराठों प्रदेशों पर अधिकार किया है, वे सभी मराठों को सौंप देंगे।
- जब तक अंग्रेज इन शर्तों को पूरा न करें, तब तक दो अंग्रेज अधिकारी बतौर बंधक मराठों के पास कैद में रहेंगे।
बड़गाँव का समझौता अंग्रेजों के लिए घोर अपमानजनक था। स्वयं वारेन हेस्टिंग्स ने कहा कि जब मैं बड़गाँव समझौते की धाराओं को पढता हूँ तो मेरा सिर लज्जा से झुक जाता है। अतः हेस्टिंग्स ने उस समझौते को स्वीकार नहीं किया। जब नाना फड़नवीस को अंग्रेजों के आक्रमण की सूचना मिली तो उसने नागपुर के शासक भोंसले, हैदराबाद के निजाम तथा मैसूर के शासक हैदरअली को अपनी ओर मिलाया तथा अंग्रेजों पर आक्रमण की योजना तैयार की किन्तु हेस्टिंग्स ने कूटनीति से निजाम व भोंसले को मराठों से अलग कर दिया। उधर गुजरात में कर्नल गॉडर्ड व मराठों के बीच युद्ध चल रहा था। ब्रिटिश सेना के दबाव को कम करने के लिए नाना फडनवीस ने हैदरअली को कर्नाटक पर आक्रमण करने को कहा। इस पर हैदरअली ने कर्नाटक पर धावा बोल दिया। इसके बाद तो अंग्रेजों की निरंतर पराजय होने लगी और ब्रिटिश सेना का मनोबल गिरने लगा। अतः वारेन हेस्टिंग्स ने एंडरसन को मराठों से बातचीत करने भेजा। इस प्रकार बातचीत के बाद 17 मई 1782 ई0 को अंग्रेजों और मराठों के बीच सालाबाई की संधि हो गई।
सालाबाई की संधि की शर्ते -
- इसके अनुसार सालसीट और थाना दुर्ग अंग्रेजों को मिले।
- अंग्रेजों ने रघुनाथराव का साथ छोड़ने का आश्वासन दिया तथा मराठों ने रघुनाथराव (राघोबा) को 25,000 रुपये मासिक पेंशन देना स्वीकार कर लिया।
- अंग्रेजों ने माधवराव द्वितीय को पेशवा तथा फतेहसिंह गायकवाड़ को बड़ौदा का शासक स्वीकार कर लिया। बड़ौदा के जिन भू-भागों पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया था, उन्हें पुनः बड़ौदा के शासक को लौटा दिया।
- इस संधि की स्वीकृति के छः माह के अंदर हैदरअली जीते हुए प्रदेश लौटा देगा तथा वह पेशवा, कर्नाटक के नवाब और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध में सम्मिलित नहीं होगा।
सालाबाई की संधि का सबसे महत्त्वपूर्ण महत्त्व यह था कि इसके बाद 20 वर्षों तक अंग्रेजों व मराठों के बीच शांति बनी रही।
द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध (Second Anglo-Maratha War) 1803-1806 ई0
सालबाई की संधि के बाद 20 वर्ष तक शांति रही। इस अवधि में मराठा अपने अन्य शत्रुओं से निपटते रहे। नाना फड़नवीस के नेतृत्व में उत्तरी व दक्षिण भारत में मराठों का प्रभाव फैलने लगा। इस अवधि में महादजी सिंधिया की शक्ति में वृद्धि हुई तथा पेशवा की शक्ति का हास हुआ। पेशवा माधवराव द्वितीय के काल में नाना फडनवीस मराठा संघ का सर्वेसर्वा बन गया था। 1796 ई0 में पेशवा माधवराव द्वितीय की मृत्यु के बाद बाजीराव द्वितीय पेशवा बना।
पेशवा बाजीराव द्वितीय सर्वथा अयोग्य था। 13 मार्च 1800 ई0 को नाना फडनवीस की मृत्यु हो गई। जब तक नाना फङनवीस जीवित रहा, उसने मराठों में एकता बनाये रखी किन्तु उसकी मृत्यु के बाद मराठा सरदारों में आपसी संघर्ष प्रारंभ हो गये। दो मराठा सरदारों-ग्वालियर का शासक दौलतराव सिंधिया तथा इंदौर का शासक जसवंतराव होल्कर के बीच इस बात पर प्रतिस्पर्द्धा उत्पन्न हो गयी कि पेशवा पर किसका प्रभाव रहे। पेशवा बाजीराव द्वितीय निर्बल व्यक्ति था, अतः वह भी किसी शक्तिशाली मराठा सरदार का संरक्षण चाहता था। अतः वह दौलतराव सिंधिया के संरक्षण में चला गया। अब बाजीराव व सिंधिया ने होल्कर के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बना लिया। होल्कर के लिये यह स्थिति असहनीय थी। फलस्वरूप 1802 ई0 के प्रारंभ में सिंधिया व होल्कर के बीच युद्ध छिङ गया। जब होल्कर मालवा में सिंधिया की सेना के साथ युद्ध में व्यस्त था, पूना में पेशवा ने होल्कर के भाई बिठूजी की हत्या करवा दी। अतः होल्कर अपने भाई का बदला लेने पूना की ओर चल पड़ा। पूना के पास होल्कर ने पेशवा और सिंधिया की संयुक्त सेना को पराजित किया और एक विजेता की भाँति पूना में प्रवेश किया। होल्कर ने रघुनाथराव के दत्तक पुत्र अमृतराव के बेटे विनायकराव को पेशवा घोषित किया। पेशवा भयभीत हो गया तथा भागकर बेसीन चला गया। बेसीन में उसने वेलेजली से प्रार्थना की कि वह उसे पुनः पेशवा बनाने में सहायता दे। वेलेजली भारत में कंपनी की सर्वोपरि सत्ता स्थापित करना चाहता था। मैसूर की शक्ति नष्ट करने के बाद अब मराठे ही उसके एकमात्र प्रतिद्वन्द्वी रह गये थे। अतः वह मराठा राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर ढूँढ रहा था। पेशवा द्वारा प्रार्थना करने पर वेलेजली को अवसर मिल गया। वेलेजली ने पेशवा के समक्ष शर्त रखी कि यदि वह सहायक संधि स्वीकार करले तो उसे पुनः पेशवा बनाने में सहायता दे सकता है। पेशवा ने वेलेजली की शर्त को स्वीकार कर लिया और 31 दिसंबर 1802 को पेशवा और कंपनी के बीच बेसीन की संधि हो गयी।
बेसीन की संधि की शर्ते -
- पेशवा अपने राज्य में 6,000 अंग्रेज सैनिकों की एक सेना रखेगा तथा इस सेना के खर्चे के लिए 26 लाख रुपये वार्षिक आय का भू-भाग अंग्रेजों को देगा।
- पेशवा ने अंग्रेजी संरक्षण स्वीकार कर भारतीय तथा अंग्रेजी सेना को पूना में रखना स्वीकार किया।
- पेशवा बिना अंग्रेजों की अनुमति के मराठा राज्य में किसी अन्य यूरोपियन को नियुक्ति नहीं देगा और न अपने राज्य में रहने की अनुमति देगा।
- पेशवा ने सूरत नगर कंपनी को दे दिया।
- पेशवा ने निजाम से चौथ प्राप्त करने का अधिकार छोङ दिया और अपने विदेशी मामले कम्पनी के अधीन कर दिये।
- पेशवा के जो निजाम और गायकवाह के साथ झगड़े हैं, उन झगङों के पंच निपटारे का कार्य कम्पनी को सौंप दिया।
- भविष्य में किसी राज्य के साथ युद्ध संधि अथवा पत्र-व्यवहार बिना अंग्रेजों की अनुमति के नहीं करेगा।
बेसीन की संधि के बाद मई-जून, 1803 ई0 में बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों के संरक्षण में पुनः पेशवा बना दिया गया। किन्तु बेसीन की संधि से मराठा सरदारों के आत्मगौरव पर भारी आघात पहुँचा क्योंकि पेशवा ने मराठों की इज्जत व स्वतंत्रता बेच दी थी। मराठा सरदार इसे सहन नहीं कर सके। अतः उन्होंने पारस्परिक वैमनस्य को भुलाकर अंग्रेजों के विरुद्ध एक होने का प्रयत्न किया। सिंधिया और भोंसले तो एक हो गये किन्तु सिधिंया व होल्कर की शत्रुता ताजा थी अतः उसने इस अंग्रेज विरोधी संघ में शामिल होने से इंकार कर दिया। इस प्रकार केवल सिंधिया व भोंसले ने अंग्रेजों के विरुद्ध सैनिक अभियान की तैयारी आरंभ की। जब वेलेजली को इसकी सूचना मिली तो उसने 7 अगस्त 1803 ई0 को मराठों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और एक सेना अपने भाई आर्थर वेलेजली तथा दूसरी जनरल लेक के नेतृत्व में मराठों के विरुद्ध भेज दी।
आर्थर वेलेजली ने सर्वप्रथम अहमदनगर पर विजय प्राप्त की। उसके बाद अजंता व एलोरा के पास असाई नामक स्थान पर सिंधिया व भोंसले की संयुक्त सेना को पराजित किया। असीरगढ व अरगाँव के युद्धों में मराठा पूर्णरूप से पराजित हुए। अरगाँव में पराजित होने के बाद 17 सितंबर 1803 ई0 को भोंसले ने अंग्रेजों से देवगढ की संधि कर ली। इस संधि के अंतर्गत भोंसले ने वेलेजली की सहायक संधि की सभी शर्तों को स्वीकार कर लिया। केवल एक शर्त राज्य में कंपनी की सेना रखने संबंधी शर्त स्वीकार नहीं की और वेलेजली ने भी इस शर्त को स्वीकार करने के लिए जोर नहीं दिया। इस संधि के अनुसार कटक व वर्धा नदी के आस-पास के क्षेत्र अंग्रेजों को दे दिये गये।
इधर जनरल लेक ने उत्तरी भारत के विभिन्न क्षेत्रों का जीतते हुये अंत में लासवाङी नामक स्थान पर सिंधिया की सेना को पराजित किया। फलस्वरूप 30 सितंबर 1803 ई0 को अर्जुनगाँव की संधि हो गयी। इस संधि के अनुसार सिंधिया ने दिल्ली, आगरा, गंगा-यमुना का दोआब, बुंदेलखंड, भङौंच, अहमदनगर का दुर्ग, गुजरात के कुछ जिले, जयपुर व जोधपुर अंग्रेजों के अधिकार में दे दिये। उसने कम्पनी की सेना को भी अपने राज्य में रखना स्वीकार कर लिया। अंग्रजों ने सिंधिया को पूर्ण सुरक्षा का आश्वासन दिया।
सिंधिया व भोंसले ने बेसीन की संधि को भी स्वीकार कर लिया था। इन विजयों से वेलेजली खुशी से उछल पङा और घोषणा की कि युद्ध के प्रत्येक लक्ष्य को प्राप्त कर लिया गया है और इससे सदैव शांति बनी रहेगी। किन्तु वेलेजली का उक्त कथन ठीक न निकला क्योंकि यह शान्ति स्थायी नही हो सकी।
होल्कर से युद्ध- मराठा राज्य का प्रमुख स्तंभ होल्कर, जो अब तक इन घटनाओं के प्रति उदासीन था, सिंधिया तथा भोंसले के आत्मसमर्पण के बाद अंग्रेजों से युद्ध करने का निर्णय लिया और अप्रैल 1804 में संघर्ष छेङ दिया। उसने सर्वप्रथम राजपूताना में कम्पनी के मित्र राज्यों पर आक्रमण किया। यह अंग्रेजों के लिए चुनौती थी अतः वेलेजली ने कर्नल मॉन्सन के नेतृत्व में एक सेना भेज दी। कर्नल मॉन्सन राजपूताने के भीतर घुस गया। होल्कर ने कोटा के निकट मुकंदरा के दर्रे के युद्ध में मॉन्सन को पराजित किया तथा उसे आगरा की ओर लौटने को विवश कर दिया। उसके बाद होल्कर ने भरतपुर पर आक्रमण करके वहाँ के शासक से संधि कर ली। यद्यपि भरतपुर के शासक ने अंग्रेजों से संधि कर ली थी, किन्तु इस समय उसने अंग्रेजों की संधि को ठुकरा दिया तथा होल्कर का समर्थन किया। यहाँ से होल्कर दिल्ली की ओर गया तथा दिल्ली को चारों ओर से घेर लिया। लेकिन दिल्ली पर विजय प्राप्त न कर सका। दिल्ली पर होल्कर के दबाव को कम करने के लिए अंग्रेजों ने जनरल मूरे को होल्कर की राजधानी इंदौर पर आक्रमण करने भेजा। मूरे ने इंदौर पर अधिकार कर लिया। जब होल्कर को इंदौर के पतन की सूचना मिली तो वह दिल्ली का घेरा उठाकर इंदौर की ओर रवाना हुआ। रास्ते में डीग नामक स्थान पर ब्रिटिश सेना से उसका भीषण संग्राम हुआ। उसके बाद फर्रुखाबाद में होल्कर पराजित हुआ और पंजाब की तरफ भाग गया। इस युद्ध में भी होल्कर की शक्ति को पूरी तरह से नहीं कुचला जा सका।
भरतपुर के शासक ने होल्कर का समर्थन किया था, अतः जनरल लेक ने भरतपुर के दुर्ग को घेर लिया। जनरल लेक ने दुर्ग पर अधिकार करने के लिए 6 जनवरी से 21 फरवरी 1805 ई0 के बीच चार बार आक्रमण किये, किन्तु उसे कोई सफलता नहीं मिली। अंत में अप्रैल 1805 ई0 में उसे भरतपुर के राजा से शान्ति संधि करनी पड़ी। जनरल लेक की यह भयंकर भूल थी कि वह व्यर्थ ही भरतपुर में उलझा रहा। यदि उसी समय होल्कर से निपट लिया जाता तो भरतपुर तो स्वतः ही बाद में अंग्रेजों की अधीनता में आ जाता किन्तु उसकी मूर्खता से न तो होल्कर की शक्ति को ही नष्ट किया जा सका और न भरतपुर पर ही अधिकार हो सका। इस असफलता के कारण ब्रिटिश सरकार व बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स बड़े चिन्तित हुये। इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री पिट ने भी वेलेजली की कटु आलोचना की। फलस्वरूप वेलेजली को त्यागपत्र देकर जाना पड़ा।
तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (Third Anglo-Maratha War) 1817-1818 ई0
अगस्त 1805 में वेलेजली के भारत से जाने के बाद लगभग तीन गवर्नर जनरलों की अहस्तक्षेप की नीति के कारण मराठों ने अपनी शक्ति पुनः संगठित कर ली। इधर पिंडारी भी, जो आरंभ में मराठों के सहयोगी थे, अपनी स्वयं की शक्ति बढा रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में 1813 ई0 में लार्ड हेस्टिंग्स गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। लार्ड हेस्टिंग्ज मराठा शक्ति को पूरी तरह समाप्त कर राजपूत राज्यों पर ब्रिटिश संरक्षण स्थापित करना चाहता था।
बेसीन की संधि द्वारा यद्यपि पेशवा अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर चुका था, किन्तु वह अब इस अधीनता से मुक्त होना चाहता था। इस समय पेशवा तथा गायकवाड़ के बीच खिराज के संबंध में झगड़ा चल रहा था। अतः इस संबंध में बातचीत करने के लिए गायकवाड़ का एक मंत्री गंगाधर शास्त्री अंग्रेजों के संरक्षण में पूना आया। पेशवा अंग्रेजों के विरुद्ध गायकवाङ का सहयोग चाहता था, किन्तु गंगाधर अंग्रेजों का घनिष्ठ मित्र था, अतः उसने पेशवा से सहयोग करने से इंकार कर दिया। ऐसी स्थिति में पेशवा के एक विश्वसनीय मंत्री त्रियंबकजी ने धोखे से गंगाधर शास्त्री की हत्या करवा दी। पूना दरबार में ब्रिटिश रेजीडेण्ट एलफिन्सटन की त्रियंबकजी से व्यक्तिगत शत्रुता थी, अतः रेजीडेण्ट ने पेशवा से माँग की कि त्रियंबकजी को बन्दी बनाकर उसे अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिया जाये। पेशवा ने बङी हिचकिचाहट के साथ 11 सितंबर 1815 ई0 को त्रियंबकजी को अंग्रेजों के हवाले कर दिया। त्रियंबकजी को बंदी बनाकर थाना भेज दिया गया किन्तु एक वर्ष बाद त्रियंबकजी थाना से भागने में सफल हो गया। इस पर एलफिन्सटन पेशवा पर आरोप लगाया कि उसने त्रियंबकजी को भागने में सहायता दी।
एलफिन्सटन ने पेशवा की शक्ति को सीमित करने के उद्देश्य से पेशवा पर एक नई संधि करने हेतु दबाव डाला और उसे धमकी दी कि यदि वह नई संधि करने पर सहमत नहीं होगा तो उसे पेशवा के पद से हटा लिया जायेगा। अतः भयभीत होकर 13 जून 1817 ई0 को पेशवा ने अंग्रेजों से पूना की संधि कर ली। इस संधि के अंतर्गत पेशवा ने मराठा संघ के अध्यक्ष पद को त्याग दिया, सहायक सेना के खर्च के लिए 33 लाख रुपये वार्षिक आय के भू-भाग उसे अंग्रेजों को सौंपने पड़े और नर्मदा नदी के उत्तर में स्थित अपने राज्य के सभी भू-भाग उसे अंग्रेजों को सौंपने का वादा किया और जब तक त्रियंबकजी को अंग्रेजों के सुपुर्द ने कर दिया जाये, उस समय तक त्रियंबकजी के परिवार को अंग्रेजों के पास बंधक के रूप में रखना स्वीकार किया। अंग्रेजों की अनुमति के बिना पेशवा को किसी अन्य राज्य से पत्र-व्यवहार न करने का वादा किया।
यद्यपि सभी मराठा सरदार अंग्रेजों से अपमानजनक संधियाँ कर चुके थे, किन्तु उन्होंने ये संधियाँ विवशता के कारण की थी और वे उनसे मुक्त होना चाहते थे। पेशवा भी पूना की संधि के अपमान की आग में जल रहा था। अतः जिस दिन सिंधिया ने अंग्रेजों के साथ संधि की (नवंबर,1817), उसी दिन पेशवा ने पूना में स्थित ब्रिटिश रेजीडेन्सी पर आक्रमण कर दिया। एलफिंसटन किसी प्रकार जान बचाकर भागा तथा पूना से चार मील दूर किर्की नामक स्थान पर ब्रिटिश सैनिक छावनी में शरण ली। पेशवा की सेना ने किर्की पर धावा बोल दिया, किन्तु पेशवा पराजित हुआ तथा वह सतारा की ओर भाग गया। नवंबर 1817 ई0 में पूना पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।
पेशवा द्वारा युद्ध आरंभ कर दिये जाने पर कुछ मराठा सरदारों ने भी युद्ध करने का निश्चय किया। नवंबर 1817 ई0 में ही अप्पा साहब भोंसले ने नागपुर के पास सीताबंदी नामक स्थान पर अंग्रेजों से युद्ध किया, किन्तु पराजित हुआ। तत्पश्चात् दिसंबर 1817 ई0 में नागपुर के युद्ध में वह पुनः पराजित हुआ और भागकर पंजाब चला गया। पंजाब से भागकर वह शरण के लिए जोधपुर आया। जोधपुर के राजा मानसिंह ने अप्पा साहब को शरण दी। इसी प्रकार होल्कर की सेना व अंग्रेजों के बीच 21 दिसंबर 1817 ई0 को महीदपुर के मैदान में भीषण युद्ध हुआ। युद्ध में होल्कर की सेना पराजित हुई तथा जनवरी 1818 ई0 में दोनों के बीच मंदसौर की संधि हो गयी। इस संधि के अनुसार होल्कर ने सहायक संधि स्वीकार कर ली, राजपूत राज्यों से अपने अधिकार त्याग दिये तथा बूॅंदी की पहाड़ियों व उसके उत्तर के सभी प्रदेश कम्पनी को हस्तांतरित कर दिये। इस प्रकार होल्कर भी कंपनी की अधीनता में आ गया।
अब अंग्रेजों ने पेशवा की ओर ध्यान दिया। अंग्रेजों ने पेशवा के विरुद्ध एक सेना भेजी। जनवरी 1818 ई0 में कोरगांव के युद्ध में तथा अंत में फरवरी 1818 ई0 में अष्टी के युद्ध में पेशवा बुरी तरह पराजित हुआ। अतः मई 1818 ई0 में उसने अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। अंग्रेजों ने पेशवा के पद को समाप्त कर पेशवा को 8 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देकर कानपुर के पास बिठुर भेज दिया। पेशवा का राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। सतारा का छोटा सा राज्य शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को दे दिया गया। पेशवा के मंत्री त्रियंबकजी को आजीवन कारावास की सजा देकर चुनार के किले में भेज दिया गया। इस प्रकार लार्ड हेस्टिंग्ज ने मराठा शक्ति को नष्ट करने में सफलता प्राप्त की।
मराठों की पराजय के मुख्य कारण -
यूॅं तो आंग्ल-मराठा युद्धों में मराठों के पराजय के अनेक कारण थे जिनमें सबसे महत्वपूर्ण योग्य नेतृत्व का अभाव था। मराठों में उत्तम नेतृत्व का पूर्णतया अभाव था। महादजी सिंधिया, अहिल्याबाई होल्कर, पेशवा माधवराव तथा नाना फड़नवीस जैसे नेता 1790 से 1800 के बीच संसार से चल बसे थे। इसके अतिरिक्त मराठा राज्य के लोगों की एकता कृत्रिम तथा आकस्मिक थी। मराठा शासकों ने किसी समय भी कोई सामुदायिक विकास, विद्या प्रसार अथवा जनता के एकीकरण के लिये कोई प्रयास नहीं किया। मराठों की आर्थिक नीति राजनीतिक स्थिरता में सहायक नहीं थी। मराठा साम्राज्य महाराष्ट्र के संसाधनों पर नहीं अपितु बलपूर्वक एकत्रित की गई धनराशि (लूट, चौथ, सरदेशमुखी आदि) पर निर्भर था। बार-बार युद्धों के चलते अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। मराठों में राजनीतिक तौर पर पारस्परिक सहयोग की भावना नहीं थी। होल्कर, सिंधिया, भोंसले सब आपस में लड़ते रहते थे। अंग्रेज़ों ने उनकी इस फूट का पूरा लाभ उठाया।
यद्यपि व्यक्तिगत वीरता में मराठे कम नहीं थे, किंतु इनकी सैनिक प्रणाली अंग्रेज़ी सैनिक संगठन, अस्त्र-शस्त्र, अनुशासन और नेतृत्व से काफी पीछे था। मराठों ने युद्ध की वैज्ञानिक तथा आधुनिक प्रणाली नहीं अपनाई और न ही उन्होंने उत्तम व अचूक तोपखाना बनाया। अंग्रेज़ों की उत्तम कूटनीति जिसके द्वारा वे युद्ध से पूर्व प्रायः भिन्न-भिन्न मित्र बनाकर शत्रु को अकेला कर देते थे, अधिक उत्तम गुप्तचर व्यवस्था तथा प्रगतिशील दृष्टिकोण (यूरोपीय लोग उस समय तक धर्म तथा दैवीय बंधनों से बाहर आ चुके थे तथा अपनी शक्ति का प्रयोग वैज्ञानिक आविष्कारों, दूर समुद्री यात्राओं तथा उपनिवेश जीतने में लगा रहे थे) मराठों से अंग्रेज़ों को श्रेष्ठ सिद्ध करने में सफल रहा।
इस प्रकार अपनी आंतरिक व बाह्य दुर्बलताओं के कारण मराठों ने अपने से अधिक मजबूत व अनुशासित संगठन के समक्ष घुटने टेक दिये तथा मराठा साम्राज्य पर कम्पनी का प्रभुत्व स्थापित हुआ।