window.location = "http://www.yoururl.com"; Rise of Punjab under Maharaja Ranjit Singh | महाराजा रणजीत सिंह के अधीन पंजाब का उत्कर्ष

Rise of Punjab under Maharaja Ranjit Singh | महाराजा रणजीत सिंह के अधीन पंजाब का उत्कर्ष

 


विषय-प्रवेश (Introduction):

उत्तर मुगल शासनकाल में सरदार बन्दा-बहादुर की मृत्यु हो जाने के पश्चात् सिख कमजोर अवश्य हो गये परन्तु समाप्त नहीं हुए थे। उनमें सैनिक-भावना बनी रही और व निरन्तर अफगान सरदार अहमदशाह अब्दाली को तंग करते रहे। विभिन्न सिख सरदारों ने स्थान-स्थान पर अपने किले बना लिये और पंजाब के मैदान पर अपना अधिकार कर लिया। जब अहमदशाह अब्दाली भारत पर आक्रमण करता था, वे अपने किलों में छिप जाते थे और जैसे ही वह वापस चला जाता था, वे पुनः मुस्लिम सबेदारों को तंग करना शुरू कर देते थे। 1767 ई0 के पश्चात् जब अब्दाली को भारत आने का अवसर न मिल सका तो सिक्खों ने लाहौर के अतिरिक्त पूर्व में सहारनपुर से पश्चिम में अटक तक और उत्तर में जम्मू से दक्षिण में काँगड़ा तक अपना अंधिकार कर लिया।

सिक्खों ने अपने को 12 मिस्लों (राज्यों) में विभाजित कर लिया था और प्रत्येक मिस्ल का अपना अलग सरदार था। वे निरन्तर आपस में झगड़ते रहते थे और उनमें एकता का अभाव था। उन्हीं में से एक मिस्ल सुकारचकिया का सरदार माहासिंह था। रणजीत सिंह सरदार माहासिंह के पुत्र थे जिसका जन्म 1780 ई0 में हुआ। सिखों की शक्ति को एकत्रित करके उनको एक राष्ट्र का स्वरूप देने का श्रेय रणजीत सिंह को है। 1792 ई0 में गुजरानवाला में माहासिंह की मृत्यु हो गयी। अतः 12 वर्ष की अल्पायु में रणजीतसिंह अपने पिता की मिस्ल का मालिक बना।

अहमदशाह अब्दाली के पुत्र तैमूरशाह की मृत्यु के पश्चात् जमानशाह अफगानिस्तान का शासक बना। उसने 1795-98 ई0 तक के समय में भारत पर तीन आक्रमण किये। अंग्रेज इतिहासकार प्रिंसेप के अनुसार उसके तीसरे आक्रमण के अवसर पर उसकी कुछ तोपें झेलम के दलदल में फंस गयी थीं जिन्हें रणजीतसिंह ने निकलवा कर उसके पास भेज दिया जिसके उपलक्ष में उसने रणजीतसिंह को राजा का पद दिया और लाहौर का सूबेदार नियुक्त किया। इतिहासकार एन0 के0 सिन्हा और अब्दुल लतीफ ने भी इस मत को स्वीकार किया है। परन्तु सरदार खुशवन्तसिंह के अनुसार रणजीत सिंह ने जमानशाह के तीनों आक्रमणों के अवसर पर उसके विरुद्ध सिक्खों को नेतृत्व प्रदान किया था और यद्यपि तोपों के सम्बन्ध में उन दोनों में पत्र-व्यवहार अवश्य हुआ था परन्तु रणजीत सिह ने लाहौर पर अधिकार स्वयं अपनी शक्ति के बल पर किया था। 1802 ई0 में रणजीत सिंह ने अमृतसर को जीत लिया। द्वितीय मराठा-युद्ध के अवसर पर जब अंग्रेजों को भारत पर जमानशाह और नेपोलियन के आक्रमण का भय था, अंग्रेजों ने रणजीत सिंह को प्रसन्न करने के लिए 10,000 रुपये की वस्तुएँ उसे भेंट में दीं। उसके बदले में रणजीत सिंह ने 1805 ई0 में अंग्रेजों के विरुद्ध होल्कर को सहायता देने से इन्कार कर दिया। 1806 ई0 में रणजीत सिंह, अंग्रेज और कपूरथला के सिख सरदार फतहसिंह में एक सन्धि हई जिसमें निश्चय हुआ कि यदि सिक्ख अंग्रेजों के शत्रुओं से मित्रता नहीं करेंगे तो अंग्रेज सिक्खों की भूमि या उनके मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। इस सन्धि से रणजीतसिंह को सतलज नदी के उत्तर के राज्यों पर कब्जा करने में सहायता मिली क्योंकि अब पंजाब में अंग्रेजों के हस्तक्षेप का भय नहीं रहा था।

रणजीतसिंह का लक्ष्य एक शक्तिशाली सिख राज्य की स्थापना करना था। कनिंघम ने लिखा है - “रणजीत सिंह ने विभिन्त्रतापूर्ण और बिखरे हुए परन्तु विस्तृत सिख राष्ट्र को एक संगठित राज्य अथवा राष्ट्रमण्डल में परिवर्तित करने का प्रयत्न प्रायः उसी प्रकार की बुद्धिमत्तापूर्ण योजना से किया जिस प्रकार गुरु गोविन्दसिंह ने एक समुदाय को जन-समुदाय में परिवर्तित करके नानक के आदर्शों को एक ध्येय तथा क्रियात्मक स्वरूप प्रदान किया था। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए रणजीत सिंह ने सतलज और यमुना नदी के बीच के भाग पर अपना अधिकार करने का प्रयत्न किया। सतलज नदी के पूर्व में कुछ सिक्ख राज्य थे जिन्हें सिन्धिया की पराजय के पश्चात् अंग्रेजों ने अपनी सुरक्षा में ले लिया था। परन्तु ब्रिटिश गवर्नर की हस्तक्षेप न करने की नीति और इन राज्यों के पारस्परिक झगडों के कारण रणजीत सिंह को इन राज्यों में हस्तक्षेप करने का अवसर मिला। 26 जुलाई 1806 ई0 को रणजीत सिंह ने प्रथम बार सतलज को पार करके लुधियाना पर अधिकार कर लिया यद्यपि उसने उसे अपने चाचा और जींद के सरदार भागसिंह को दे दिया। दूसरी बार पटियाला के राजा और रानी के झगड़ों का निर्णय करने के लिए उसने सतलज को पार किया।

रणजीतसिंह का सतलज नदी के पूर्व के राज्यों (नाभा, पटियाला, जींद आदि) में हस्तक्षेप अंग्रेजों को पसन्द न था और उन्होंने उन राज्यों के सरदारों को अंग्रेजों से सहायता मॉंगने के लिए प्रोत्साहित किया। अंग्रेजों के प्रोत्साहन पर इन सरदारों ने रणजीत सिंह के विरुद्ध अंग्रेजों से सहायता मॉंगी। परन्तु उस अवसर पर अंग्रेजों को फ्रान्स के आक्रमण का भय था। अतएव वे रणजीतसिंह से युद्ध करने की स्थिति में नही थे। लॉर्ड मिण्टो ने मेटकॉफ को रणजीतसिंह से समझौता करने के लिए भेजा। उसका इरादा था कि रणजीत सिंह सतलज नदी के पूर्व के सिक्ख-राज्यों पर आक्रमण न करे और फ्रान्सीसी आक्रमण के विरुद्ध अंग्रेजों से एक सन्धि कर ले परन्तु रणजीत सिंह केवल इस शर्त पर सन्धि को तैयार थे कि अंग्रेज उसे सभी सिक्खों का राजा स्वीकार कर लें। इसके लिए अंग्रेज तैयार नही थे। रणजीत सिंह ने तीसरी बार फिर सतलज नदी को पार करके कुछ भू-क्षेत्र को विजय कर लिया और ऐसा प्रतीत हआ कि अंग्रेजों और रणजीतसिंह के बीच सन्धि की चर्चा समाप्त हो जायेगी।

परन्तु उसी समय परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ। नेपोलियन पेनिनसुला के युद्ध (Peninsular War) में फॅस गया और फ्रान्स के भारत पर आक्रमण करने की आशंका समाप्त हो गयी। उसी समय टर्की के नवीन सुल्तान महमूद द्वितीय से भी ब्रिटेन के सम्बन्ध सौहार्द्रपर्ण हो गये। इन कारणों से अंग्रेज उत्तर-पश्चिम की ओर से सम्भावित आक्रमण के भय से मुक्त हो गये और उन्होंने रणजीत सिंह के प्रति दृढ़ता की नीति अपनाने का निश्चय किया। सर चार्ल्स मेटकाफ ने अंग्रेजों की मांगें प्रस्तुत की और लॉर्ड मिण्टो ने सर ऑक्टरलोनी के नेतृत्व में एक सेना भेज दी। 9 फरवरी 1809 ई0 का ेऑक्टरलोनी ने एक घोषणा के द्वारा सतलज नदी  के राज्यों (Cis-Satlaj States) को अंग्रेजों के संरक्षण में ले लिया और स्पष्ट कर दिया कि यदि रणजीत सिंह ने उन पर कोई आक्रमण किया तो उसका मुकाबला शस्त्रों से किया जायेगा। रणजीत सिंह इससे बहुत नाराज हुये परन्तु उसने परिस्थिति से समझौता कर लिया। वह जानते थे कि वह उस समय तक पंजाब के मात्र एक भाग के ही मालिक थे जबकि अंग्रेज सम्पूर्ण भारत के स्वामी बन चुके थे और उनकी शक्ति उसके मुकाबले बहुत अधिक थी। इस कारण अंग्रेजों से युद्ध करना एक प्रकार से सर्वनाश को न्यौता देना था। इसके अतिरिक्त, रणजीत सिंह को यह भी भय था कि सम्भवतः कुछ अन्य सिख-राज्य भी कहीं अंग्रेजी संरक्षण प्राप्त करने के लालच में न आ जायें। इन कारणों से उन्होने अंग्रेजों से मित्रता करना उचित समझा। परिणामस्वरूप 25 अप्रैल, 1809 ई0 को रणजीत सिंह और अंग्रेजों में एक सन्धि हो गयी जिसे भारतीय इतिहास में अमृतसर की सन्धि के नाम से जाना जाता है। 

अमृतसर की सन्धि की शर्ते-

इस सन्धि की शर्तों के अनुसार-

1. सतलज नदी के उत्तर के 45 परगनों पर अंग्रेजों ने रणजीतसिंह का आधिपत्य स्वीकार कर लिया।
2. रणजीतसिंह ने सतलज नदी के पूर्व में न बढ़ने का वायदा किया और अंग्रेजों ने सतलज नदी के पश्चिम में न बढ़ने का आश्वासन दिया। इस प्रकार सतलज नदी दोनों के राज्यों को पृथक करने वाली सीमा मान ली गयी।
3. दोनों ने एक-दूसरे के मित्र बने रहने का वायदा किया।

इस अमृतसर की सन्धि के द्वारा रणजीत सिंह और अंग्रेजों में स्थायी मित्रता स्थापित हो गयी। रणजीतसिंह ने जीवनपर्यन्त इस सन्धि को निभाया। अंग्रेजों को इस सन्धि से बहुत लाभ हुआ। पूर्व की ओर रणजीतसिंह की राज्य-विस्तार की इच्छा को रोक दिया गया और अंग्रेजी राज्य की सीमाएँ सतलज नदी तक हो गयीं। सरकार और दत्त ने लिखा है : “अंग्रेजी राज्य की सीमाएँ यमुना नदी से हटकर सतलज नदी तक हो गयीं और अंग्रेजी सेना लुधियाना में नियुक्त कर दी गयी।“

रणजीत सिंह का विजय अभियान -

अमृतसर की सन्धि ने रणजीतसिंह की समस्त सिख-राज्यों को संगठित करने की इच्छा को समाप्त कर दिया। परन्तु जब अंग्रेजों ने पूर्व में उनकी प्रगति को रोक दिया तब रणजीत सिंह ने पश्चिम और उत्तर की ओर ध्यान दिया। नेपाल के गोरखा अमरसिंह थापा के नेतृत्व में काँगड़ा की घाटी को जीतने के प्रयत्न में लगे हुए थे। रणजीत सिंह ने स्वयं अगस्त 1809 ई0 में वहां के राजा संसारचन्द्र से काँगड़ा जीत लिया। आसपास के पहाड़ी सरदारों से सन्धि करके रणजीतसिंह ने अमरसिंह थापा के लौटने का मार्ग बन्द कर दिया जिसके कारण वह रणजीत सिंह को एक लाख रुपया देकर ही वापस जा सका।

कांगड़ा की विजय के पश्चात् रणजीत सिंह ने पंजाब के अन्य छोटे-छोटे राज्यों की ओर ध्यान दिया और धीर-धीरे उसने सतलज नदी के पश्चिम के सभी सिख-राज्यों पर अधिकार कर लिया।

रणजीत सिंह ने अफगान-शासक को कश्मीर के विरुद्ध सहायता दी और वहीं से अफगानिस्तान के भागे हुए शासक शाहशुजा को अपने अधिकार में कर लिया तथा उससे कोहेनूर हीरा प्राप्त किया। 1813 ई0 में उसने अटक को अपने अधिकार में कर लिया जो उस समय तक अफगानों के अधिकार में था।

1814 ई0 में रणजीतसिंह ने कश्मीर को जीतने का प्रयत्न किया परन्तु असफल रहा। उसी वर्ष अंग्रेजों का नेपाल से युद्ध आरम्भ हो गया। नेपाल राज्य ने रणजीत सिंह से सहायता मॉंगी परन्तु उन्होने अंग्रेजों की मित्रता का ध्यान रखते हुए नेपाल को सहायता देने से इन्कार कर दिया।

रणजीत सिंह ने 1803 ई0, 1807 ई0, 1816 ई0 और 1817 ई0 में मुल्तान को जीतने के निरन्तर प्रयास किये, परन्तु इस प्रयास में उन्हे असफलता ही मिली। 1818 ई0 में जाकर उन्होने मुल्तान को जीतने में सफलता प्राप्त की।

1819 ई0 में तीसरी बार प्रयत्न करने पर रणजीत सिंह ने कश्मीर को जीत लिया। 1820 ई0 और 1821 ई0 में रणजीत सिंह ने डेरा गाजी खाँ, डेरा इस्माइल खां, बक्खर, लेह और मंकेरा को जीत लिया। 1823 ई0 में उन्होने पेशावर को भी अफगानों से जीता; यद्यपि वहाँ का शासन करने के लिए रणजीत सिंह ने एक अफगान सरदार यार मुहम्मद को ही वहाँ का सूबेदार नियुक्त किया।

रणजीत सिंह ने सिन्ध के अमीरों को अपने प्रभाव में लेने का प्रयास किया था लेकिन वहाँ पर अंग्रेजों ने उसकी इच्छा को पूरा नही होने दिया।

इस प्रकार रणजीतसिंह आजीवन युद्ध करते रहे और एक संगठित राज्य स्थापित करने में सफल हुये। पूर्व और दक्षिण की ओर उसके साम्राज्य की सीमाएॅं अंग्रेजों के कारण विस्तृत न हो सकीं परन्तु उत्तर-पश्चिम भारत में उन्होने एक शक्तिशाली राज्य स्थापित किया।  27 जून, 1839 ई0 को 59 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गयी।

वास्तव में रणजीत सिंह भारतीय इतिहास में एक प्रभावशाली व उल्लेखनीय स्थान रखते है। कनिंघम (Cunningham) ने उनके विषय में लिखा है कि- उसने पंजाब को विभाजित और पारस्परिक झगड़ों में फंसा हआ पाया था। ऐसी स्थिति में पंजाब बहुत सरलता से अंग्रेजों के हाथों में जा सकता था। उसने पंजाब को एक शक्तिशाली और संगठित राज्य में परिवर्तित कर दिया। उसने पंजाब के बहादुर घुड़सवारों को बिखरा हुआ और युद्ध की कला से अनभिज्ञ पाया था लेकिन उसने उन्हें 50 हजार की संगठित घुड़सवार-सेना में बदल दिया। उसका कद नाटा और शक्ल भद्दी थी लेकिन फिर भी उसका व्यक्तित्व प्रभावशाली था। उसने स्वयं शिक्षा नहीं पायी थी किन्तु उसने शिक्षा का विस्तार किया। वह शराब और अफीम का प्रेमी था तब भी अपने राज्य के कार्यों की देखभाल बहुत जिम्मेदारी से करता था। उसमें प्रशासनिक योग्यता थी और वह बहादुर. साहसी और कुशल सेनापति एवं संगठनकर्ता था। सर लेपेल ग्रिफिन ने उसके बारे में लिखा है : “उसने अपनी सैनिक योग्यता के आधार पर जिस देश को जीता उसका शासन इतनी दृढ़ता तथा योग्यता से किया कि उसकी गिनती उस सदी के महान राजनीतिज्ञों में की जाती है। वह सफल कूटनीतिज्ञ था और अपनी शक्ति को पहचानता था। वह जानता था कि अंग्रेजों से युद्ध करना उसके लिए विनाशकारी होगा, इस कारण उसने जीवनभर उनसे मित्रता रखी। उसकी धार्मिक नीति उदार थी और अपनी प्रजा में वह अत्यन्त लोकप्रिय था। निस्सन्देह रणजीतसिंह का स्थान भारत के महान शासकों में आता है। फ्रान्सीसी यात्री विक्टर जैकोमोण्ट ने उसके बारे में लिखा था - “रणजीतसिंह एक असाधारण व्यक्ति है- एक छोटा बोनापार्ट। उसकी मुख्य योग्यता सेना के संगठन की थी। उसने खालसा-सेना को बहुत शक्तिशाली बना दिया। हण्टर लिखता है - “उसने खालसा सेना को असीम शक्ति का आधार बना दिया। वह ऐसा संगठित सैनिक समुदाय बन गयी जिसकी तुलना वफादारी और धार्मिक उत्साह की दृष्टि से क्रॉमवैल की ’लौह सेना के अतिरिक्त अन्य किसी से नहीं की जा सकती है।“

रणजीतसिंह की शासन-व्यवस्था - 

अन्य मध्ययुगीन शासकों की भाँति रणजीत सिंह भी एक स्वेच्छाचारी और निरंकुश शासक थे। राज्य की सम्पूर्ण शक्तियाँ उसके हाथों में केन्द्रित थीं। वही राज्य का कानून निर्माता, शासन-प्रबन्धक, मुख्य न्यायाधीश और सर्वोपरि सेनापति थे। परन्तु व्यवहार में रणजीतसिंह एक उदार और निरंकुश शासक थे। वह अपने को सिख-राष्ट्रमण्डल अथवा खालसा का सेवक मानते थे। इसी कारण वह अपनी सरकार को ’सरकार-ए-खालसा’ पुकारतेेेेेेेेेेे थेेे। इसके अतिरिक्त, उन्होने अपने शासन में कोई धार्मिक पक्षपात नहीं अपनाया। राज्य में सभी धर्मावलम्बियों को समान सुविधाएँ प्राप्त थीं, डोगरा-राजपूतों को बड़े-बड़े पद दिये गये थे, मुसलमानों के साथ भी न्यायोचित व्यवहार किया जाता था और राज्य में समान कर व्यवस्था थी। अपनी प्रजा की भलाई करना और उसे उचित न्याय प्रदान करना रणजीतसिंह अपना कर्तव्य मानते थे। रणजीतसिंह ने अपनी सहायता के लिए एक मन्त्रि-परिषद की भी नियुक्ति की थी यद्यपि प्रत्येक मन्त्री पूर्णतः उन्ही के प्रति उत्तरदायी था और मन्त्रियों का कोई संयुक्त उत्तरदायित्व न था।

प्रान्तीय शासन -

शासन की सुविधा की दृष्टि से रणजीतसिंह ने सम्पूर्ण राज्य को चार सूबों में विभाजित किया था- लाहौर, मुल्तान, कश्मीर और पेशावर। सूबा के मुख्य अधिकारी को नाजिम पुकारते थे। अपने अधीनस्थ अधिकारियों के कार्यों की देखभाल वह स्वयं करता था। प्रत्येक सूबा को परगनों में बाँटा गया था और प्रत्येक परगना को तालुकाओं में। प्रत्येक तालुका में 50 से लेकर 100 गाँव तक सम्मिलित होते थे। प्रत्येक तालुका में मुख्य अधिकारी कारंदार था। बड़े तालुका में एक से अधिक कारदारों की भी नियुक्ति की गयी थी। कारदार लगान वसूल करता था, वह खजांची भी था और तालुका का न्यायाधीश भी। वह सीमा-कर और चुंगी का भी प्रमुख अधिकारी था। इस प्रकार कारदार प्रशासन का एक प्रमुख अधिकारी था। गाँव की पंचायतें भी शासन में महत्वपूर्ण थीं, मुख्यतः न्याय के क्षेत्र में।

राज्य की भू-राजस्व व्यवस्था :

राज्य की आय का मुख्य साधन लगान था जो उत्पादन का 33 से 40 प्रतिशत तक हुआ करता था। लगान कठोरता से वसूल किया जाता था यद्यपि राज्य की ओर से किसानों को सविधाएँ भी प्रदान की जाती थीं। सैनिकों को आदेश दिये गये थे कि वे खेती को हानि न पहुॅंचायें और यदि उसकी हानि हो जाती थी तो राज्य उसकी पूर्ति करता था। कानूनगो, मुकद्दम और पटवारी, सम्भवतः, वंशानुगत अधिकारी थे जो लगान वसूल करने में सरकार की सहायता करते थे। किसानों पर कर का भार अधिक न था और किसान सम्पन्न थे।

न्याय व्यवस्था -

रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था सरल थी। गाँव की पंचायतें, साधारणतः, गाँवों के झगड़ों का निबटारा किया करती थीं। पंचायत के निर्णय पर पुनर्विचार की माँग कारदार से की जा सकती थी। उसके ऊपर का न्यायालय नाजिम का होता था। राजधानी में स्थापित किये गये न्यायालय को ’अदालत-ए-आला पुकारा गया था जहाँ नाजिम के न्यायालय के मकदमों पर पनर्विचार किया जा सकता था । सबसे श्रेष्ठ न्यायालय स्वयं महाराजा का था। प्रत्येक मुकदमा किसी भी न्यायालय में आरम्भ किया जा सकता था। राज्य के मन्त्री भी अपने विभागों से सम्बन्धित मुकदमों का निर्णय करते थे। नगरों में भी न्याय के लिए कारदार या विशेष अधिकारी ’अदालती नियक्त किये गये थे। न्याय से भी राज्य की आय थी। अपराधियों पर अधिकांशतः जुर्माने किये जाते थे और दोनों पक्षों को राज्य को कुछ धन देना पड़ता था।  

सैनिक संगठन -

रणजीत सिंह के शासन की एक मुख्य विशेषता खालसा सेना का संगठन था। प्रारम्भ में रणजीत सिंह की सेना में मुख्यतः घुड़सवार थे। उस सेना की संख्या का अनुमान ठीक प्रकार से नहीं किया जा सका है. परन्तु उसके दो भाग थे। एक, घुड़चढ़ा खास जिन्हें अपने घोड़े स्वयं लाने होते थे और वे राज्य से वेतन पाते थे। दसरा भाग मिसलदारों का था। यह उन अधीनस्थ सरदारों के घुड़सवार थे जिनकी भूमि पर रणजीतसिंह ने अधिकार करके उनके घुड़सवारों को अपनी सेना में सम्मिलित कर लिया था। परन्तु बाद में यूरोपियन शस्त्रों और युद्ध-पद्धति की उपयोगिता को समझकर रणजीतसिंह ने पैदल-सेना और तोपखाने का निर्माण यूरोपियन तरीकों से किया। उसने फ्रान्सीसी. जर्मन, अमेरिकन, रूसी, स्पेनिश आदि विभिन्न यूरोपियन नागरिकों को अपनी सेना में प्रतिष्ठित स्थान प्रदान किये और उनकी सहायता से एक प्रशिक्षित पैदल-सेना और अच्छे तोपखाने का निर्माण किया। उसकी एक विशेष सेना ’फौज-ए-खास फ्रान्सीसी अधिकारियों वन्तस और अलार्ड के द्वारा प्रशिक्षित की गयी थी। उसे तोपखाने के निर्माण में कोर्ट और गार्डनर नामक अधिकारियों से सहायता मिली। उसके तोपखाने में छोटी-बड़ी सभी प्रकार की तोपें थीं। उसने तोपखाने की देखभाल के लिए एक पृथक अधिकारी दारोगा-ए-तोपखाना नियुक्त किया था। सैनिकों को नकद वेतन दिये जाने की व्यवस्था थी। निस्सन्देह, रणजीतसिंह ने एक श्रेष्ठ सेना का निर्माण करने में सफलता प्राप्त की थी।

रणजीत सिंह और अंग्रेजों के सम्बन्ध :

रणजीत सिंह ने सर्वदा अंग्रेजों से अच्छे सम्बन्ध बनाये रखने का प्रयत्न किया, चाहे उसकी भावना अंग्रेजों के प्रति कुछ भी रही हो। उसने 1809 ई0 में हई अमृतसर की सन्धि का निरन्तर पालन किया। 1814-1816 ई0 में नेपाल-युद्ध और 1824 ई0में बर्मा के यद्ध के अवसर पर अंग्रेजों को प्रारम्भ में बहुत कठिनाई हुई थी परन्तु रणजीतसिंह ने उनसे लाभ उठाने का कोई प्रयत्न नहीं किया। उसने नेपाल को अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता देने से इन्कार कर दिया था। तृतीय मराठा-युद्ध में जब नागपुर का भौंसले भागकर रणजीतसिंह से सहायता मांगने आया तब उसने इन्कार कर दिया। इसी प्रकार 1825 ई0 जब भरतपुर के राजा ने अंग्रेजों के विरुद्ध उससे सहायता मांगी तब भी उसने इन्कार कर दिया।

लेकिन अंग्रेजों ने रणजीत सिंह के प्रति मित्रता के भाव कभी नहीं रखे बल्कि सर्वदा उनकी प्रगति में बाधा उपस्थित की और उसकी कठिनाइयों से लाभ उठाने का प्रयत्न किया। 1826 ई0 में वहाबी जाति ने रणजीत सिंह के विरुद्ध धर्म-युद्ध (जिहाद) की घोषणा की जिसकी तैयारी उन्होंने अंग्रेजी सीमाओं में की तथा रणजीत सिंह पर आक्रमण किया। अंग्रेज यह जानते थे परन्तु फिर भी उन्होंने वहाबियों के कार्यों को रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया। वहाबियों के नेता ने उत्तर-पश्चिम प्रान्त के लेफ्टिनेन्ट-गवर्नर को एक पत्र लिखा और सूचित किया - “वह सिखों के विरुद्ध धर्म-युद्ध आरम्भ कर रहा है और आशा है कि अंग्रेज सरकार को इसमें कोई ऐतराज न होगा।“ गवर्नर ने उसका उत्तर देते हुए लिखा - “जब तक अंग्रेजी सीमाओं की शान्ति भंग नहीं होती है तब तक उन्हें इस विषय में कुछ नहीं कहना है और न उन्हें वहाबियों के तैयारी करने में कोई ऐतराज है।“ अंग्रेजों का मानना था कि यदि पठान उत्तर-पश्चिम सीमा पर सिखों का विरोध करते रहेंगे तो रणजीत सिंह की शक्ति क्षीण होगी जिससे अंग्रेजों को लाभ होगा।

अंग्रेजों ने रणजीत सिंह को सतलज नदी के पूर्व की ओर बढ़ने से ही नहीं रोका बल्कि जब-जब उसने सिन्ध में अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयत्न किया तब-तब उन्हे रोका गया। अंग्रेज दिखावे के लिए तो रणजीत सिंह के प्रति सम्मान और मित्रता प्रदर्शित करते रहे थे परन्तु वास्तव में जब कभी भी वे अवसर पाते थे तब उनकी शक्ति को कम करने का प्रयत्न करते थे। अंग्रेजों ने रणजीत सिंह को सिन्ध की तरफ नहीं बढ़ने दिया परन्तु स्वयं सिन्ध में अपना प्रभाव स्थापित करने के प्रयत्न किये। बर्स (Burnes को इसी कारण सिन्ध की राजनीतिक और भौगोलिक स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त करने हेतु सिन्धु नदी के मार्ग से रणजीत सिंह के पास भेजा गया था। 1831 ई0 में गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेन्टिक ने जिस दिन रणजीत सिंह से रूपर नामक स्थान पर भेंट की थी और मित्रता की सन्धि को दुहराया था, उसी दिन पोटिंगर (Pottinger) को सिन्ध जाने के आदेश दिये गये थे ताकि वह वहॉं के अमीरों से मिलकर सन्धि करने का प्रयास करे परन्तु इस विषय में रणजीत सिंह को कुछ भी नहीं बताया गया था।

जब रणजीतसिंह ने शिकारपुर पर अधिकार करने का प्रयत्न किया तब अंग्रेजों ने स्पष्ट कर दिया कि वह ऐसा नहीं कर सकते। इससे भी अधिक अंग्रेजों की जबरदस्ती उस समय स्पष्ट हुई जब 1835 ई0 में अंग्रेजों ने फीरोजपुर पर अपना अधिकार कर लिया जिस पर वे रणजीत सिंह का स्वामित्व स्वीकार कर चुके थे। फीरोजपुर अंग्रेजों के लिए सैनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था और सिख राजधानी लाहौर के बहुत निकट था। इस कारण रणजीतसिंह को अप्रसन करके भी अंग्रेजों ने फीरोजपुर पर अधिकार करना उचित समझा। मुरे (Murray) लिखता है - “राजधानी लाहौर केवल 40 मील दूर है, रास्ते में केवल एक नदी है जो वर्ष में छह माह पार करने योग्य है। फीरोजपुर का किला प्रत्येक दृष्टि से अंग्रेजों के लिए महत्वपूर्ण है।“

इस प्रकार यह निश्चित है कि यद्यपि रणजीतसिंह ने अंग्रेजों को अप्रसन्न करने का कोई भी अवसर नहीं दिया था, फिर भी अंग्रेज उसकी मित्रता का कोई ध्यान नहीं रखते थे। 1838 ई0 में अंग्रेजों, शाहशुजा और रणजीतसिंह के बीच एक त्रिदलीय सन्धि हुई। उसमें भी अंग्रेजों का ही हित था और रणजीत सिंह केवल अंग्रेजों को प्रसन्न रखने के लिए उसमें सम्मिलित हुये थे। अनेक इतिहासकारों ने अंग्रेजों के प्रति रणजीत सिंह की इस नीति को उचित बताते हुये कहा है कि उनकी यह नीति यथार्थवादी थी। वह जानते थे कि अंग्रेज उनसे अधिक शक्तिशाली हैं और उनका विरोध करके उनसे युद्ध करने का अर्थ अपने राज्य का सर्वनाश करना है। इस कारण वह बुद्धिमानी से उनसे युद्ध टालते रहे और उन्होने सर्वदा उनसे मित्रता रखी।

परन्तु कुछ इतिहासकार ऐसे भी हैं जो रणजीतसिंह की इस नीति को दुर्बलता और अदूरदर्शिता की नीति बताते हैं। एन0 के0 सिन्हा लिखते हैं कि- “जैसा कि बिस्मार्क का कथन है, प्रत्येक स्थिति में राजनीतिक सन्धि में एक घोड़ा और एक घुडसवार होता है। अंग्रेजों और सिखों की इस सन्धि में रणजीत सिंह घोड़ा और अंग्रेज सरकार घुडसवार थी। अंग्रेजों के साथ अपने सम्बन्धों में रणजीत सिंह ने अत्यधिक दुर्बलता दिखायी और उन्होने कभी भी साहस से काम नहीं लिया। वह सर्वदा अनिश्चय और हिचकिचाहट से ग्रस्त रहे। इस पक्ष के इतिहासकारों का मत है कि रणजीत सिंह को यह सोचना चाहिए था और उसे ज्ञान भी होगा कि अंग्रेज किसी न किसी अवसर पर पंजाब को जीतने का प्रयास करेंगे। ऐसी स्थिति में उन्हे नेपाल, मराठा या अन्य भारतीय राजाओं से सन्धि करके अंग्रेजों को भारत से निकालने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए था। इस नीति का परिणाम कुछ भी होता परन्तु अपने सर्वनाश की चुपचाप प्रतीक्षा करने की बजाय साहसिक नीति अपनाना, निःसन्देह, लाभप्रद होता। आर0 सी0 मजूमदार के अनुसार रणजीत सिह इस बात को भूल गये थे कि - “राजनीति में भी, युद्ध की भांति, समय रक्षात्मक उपाय करने वाले के साथ नहीं होता।“

कुछ इतिहासकारों ने रणजीत सिंह और शिवाजी की तुलना की है। रणजीतसिंह और शिवाजी में यद्यपि बहुत अन्तर था परन्तु फिर भी दोनों में कुछ समानता भी है। दोनों ने अपने राष्ट्र के बिखरे हुए व्यक्तियों या तत्वों को एकत्र किया और ऐसे शक्तिशाली सैनिक-राज्यों की स्थापना की जो अपने पड़ोसी राज्यों के मुकाबले खड़े हो सके। बाद में अंग्रेज-सिख युद्धों के अवसर पर यह स्पष्ट हो गया कि खालसा-सेना बहुत शक्तिशाली बन चुकी थी। यदि इस सेना को स्वार्थी और डरपोक नेताओं के स्थान पर रणजीत सिंह जैसे योग्य व्यक्ति का नेतृत्व प्राप्त हुआ होता तो सम्भवत युद्धों का परिणाम कुल और ही होता। इसी कारण प्रश्न यह उठता है कि जो कार्य 17वीं सदी में शिवाजी ने शक्तिशाली मुगलों के विरुद्ध किया था क्या वह कार्य 19वीं सदी में रणजीतसिंह अंग्रेजों के विरुद्ध नहीं कर सकते थे ? रणजीत सिंह यह कार्य क्यों नहीं कर सके, इसके कई कारण बताये जा सकते हैं। रणजीत सिंह का व्यक्तिगत चरित्र शिवाजी की भांति उज्जवल नहीं था क्योंकि वह शराब और शिकार के व्यसनी थे। चारित्रिक दुर्बलता होने के कारण उनमें साहसिक कदम उठाने की क्षमता नहीं थी। उसका शासन दोषपूर्ण था क्योंकि उनका शासन एकमात्र उन्ही पर निर्भर करता था। शिवाजी की अष्ट-प्रधान सभा की भाँति रणजीत सिंह को सलाह देने वाली सभा राज्य में कोई न थी। कुछ इतिहासकारों का यह भी मत है कि उन्होने सिखों के बजाय डोगरा-राजपूत तथा अन्य जाति के व्यक्तियों को राज्य के शासन में विशेष महत्व दिया जो उसकी मृत्यु के पश्चात सिख-राज्य के प्रति वफादार नहीं रहे और व्यक्तिगत स्वार्थ में लिप्त हो गये और इसलिए सिख-राज्य का पतन रणजीतसिंह की मृत्यु के पश्चात् दस वर्षों में ही हो गया जबकि शिवाजी के मराठा-राज्य को मुगलों की सम्पूर्ण शक्ति भी नष्ट न कर सकी।

इस प्रकार हम देखते हैं कि कारण कुछ भी हो परन्तु जहाँ रणजीतसिंह को हम एक महान शासक मानते हैं, वहीं यह भी स्वीकार करना पड़ता है कि उन्होने अंग्रेजों के प्रति दृढ़ता और दूरदर्शिता की नीति नहीं अपनायी। इसी कारण वह अपने जीवन काल में तो सफल रहे परन्तु एक सुदृढ़ सिख-राज्य की स्थापना करने में पूर्णतः असफल रहे। उसकी नीति की दुर्बलता ही कालान्तर में सिक्ख-राज्य के शीघ्र पतन के लिए उत्तरदायी हुई।

रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी -

रणजीत सिंह के नेतृत्व में सिखों का उत्थान उस तारे के समान था जो आकाश में एक बार चमक कर तुरन्त छिप जाता है। उसकी मृत्यु के अवसर पर सिख अपनी शक्ति की चरम सीमा पर थे और जैसा कि जे0 एच0 गोर्डन ने लिखा है - “उनके पश्चात् वह फूट गया जिससे तेज परन्तु विलुप्त होने वाली चिनगारियाँ निकलीं।’’ रणजीतसिंह की मृत्यु के दस वर्ष पश्चात् ही सिक्ख-राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

रणजीत सिंह की मृत्य होते ही सिक्खों में अशान्ति फैल गयी और आन्तरिक झगडे होने लगे जिससे अंग्रेज उन्हें सरलतापूर्वक पराजित कर सके। रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् उसका अयोग्य पुत्र खड्गसिंह महाराजा बना। लेकिन राज्य की शक्ति उसके पुत्र नौनिहालसिंह के हाथों में थी। खड़गसिंह की मृत्यु 5 नवम्बर, 1840 ई0 को हो गयी। उसी दिन एक दुर्घटना में नौनिहालसिंह की भी मृत्य हो गयी। यद्यपि इस बात का कोई प्रमाण नहीं है तब भी विश्वास किया जाता था कि नौनिहालसिंह की मृत्यु एक षड्यन्त्र के कारण हुई थी। नौनिहालसिंह की पत्नी चाँद कौर ने गद्दी पर अपने होने वाले बच्चे के अधिकार की माँग की। उसे सिंघनवालिया सरदारों का समर्थन प्राप्त था। उसका विरोध रणजीतसिंह के एक अन्य पुत्र शेरसिंह ने किया। दोनों पक्षों ने अंग्रेजों से सहायता माँगी। चाँद कौर अंग्रेजों की सहायता के बदले में उन्हें पंजाब की आय का एक-चौथाई भाग या कश्मीर का सूबा तक देने को तैयार थीं। अन्त में, पर्याप्त झगड़े के पश्चात् 1841 ई0 में सेना की सहायता से शेरसिंह महाराजा बन गया। चाँद कौर को एक जागीर दे दी गयी लेकिन उसके समर्थक सिंघनवालिया सरदार शरण के लिए अंग्रेजों के पास भाग गये। शेरसिंह का दो वर्ष का शासन दुर्बलता और विलासिता का था और अन्त में 1843 ई0 में शेरसिंह, उसका लडका प्रतापसिंह और वजीर ध्यानसिंह-तीनों ही सिंघनवालिया सरदारों द्वारा कत्ल कर दिये गये। सिंघनवालिया सरदार अंग्रेजों के आश्वासन पर पंजाब में वापस गये थे और यह सन्देह किया गया है कि अंग्रेज भी इस षडयन्त्र में सम्मिलित थे। इस बार भी हीरासिंह ने सेना की सहायता से महारानी जिन्दा कौर उर्फ रानी झिण्डन के पुत्र दलीपसिंह को गद्दी पर बैठाया। परन्तु रानी झिण्डन का चरित्र सन्देहपूर्ण था। वह अपने अल्पायु बच्चों की संरक्षक थी। उसका हीरासिंह से झगड़ा हो गया और अन्त में 1844 ई0 में हीरासिंह का कत्ल कर दिया गया। अब शासन-सत्ता रानी झिण्डन के भाई और राज्य के वजीर जवाहरसिंह व रानी के प्रेमी लालसिंह के हाथों में आ गयी। परन्तु इनमें से किसी में भी शासन करने की योग्यता न थी और पंजाब में आन्तरिक कलह, फूट, हत्याएँ और प्रशासनिक अव्यवस्था फैल गयी। ऐसी स्थिति में सिख-सेना का प्रभुत्व बढ़ता गया। शेरसिंह से लेकर दलीपसिंह तक सभी महाराजाओं, वजीरों और सरदारों को अपनी शक्ति स्थापित रखने के लिए सेना की सहायता लेनी पड़ी थी। इससे भी सेना की शक्ति में वृद्धि हुई। सेना ने स्वयं अपनी एक पंचायत “खालसा-पंचायत” बना ली और उसी के द्वारा अपने निर्णय लेने आरम्भ किये। यह स्पष्ट हो गया कि राज्य की वास्तविक सत्ता अब महाराजा में नहीं बल्कि सेना की खालसा-पंचायत में निहित थी। सेना का शासन में इतना अधिक प्रभाव न तो नागरिकों के लिए अच्छा था और न ही राज्य के लिए। रानी झिण्डन एवं दरबार के अन्य सरदार इसे पसन्द न कर सके। लेकिन सेना की सत्ता को समाप्त करने का एकमात्र मार्ग यही था कि अंग्रेजों से युद्ध कराकर उसकी शक्ति समाप्त करा दी जाय। यह विश्वास किया जाता है कि सेना की शक्ति को समाप्त करने के उद्देश्य से स्वयं रानी झिण्डन, लालसिंह, तेजसिंह और गुलाबसिंह सदृश राज्य के बड़े-बड़े सरदारों ने सेना को अंग्रेजों से युद्ध के लिए उकसाया।

प्रथम आंग्ल-सिक्ख-युद्ध (1845-46 ई0)

इस प्रकार 1845 ई0 के अन्त तक पंजाब की स्थिति ऐसी बन गयी जिसमें एक ऐसा अल्पवयस्क महाराजा था जिसकी संरक्षक एक विलासप्रिय रानी थी, जिसके सरदारों में परस्पर झगड़ा था, जिसके डोगरा और सिख सरदारों में मतभेद थे और जिसका प्रत्येक सरदार अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए हत्या व षड्यन्त्र आदि जैसे गलत तरीकों को अपना रहा था। ऐसी स्थिति में सेना के प्रभुत्व में वृद्धि हुई तथा राज्य के शासक सेना की शक्ति को स्वयं न दबा सकने के कारण उसे किसी भी दूसरी और बाहरी शक्ति से लड़ाने के लिए उत्सुक हो उठे और इसके लिए अपने शत्रु अंग्रेजों से भी हाथ मिलाने को तैयार हो गये। ऐसी स्थिति में अंग्रेजों को पंजाब में हस्तक्षेप करने का अवसर मिला। अंग्रेज पंजाब की ऐसी स्थिति को देखकर चुपचाप न बैठे। उन्हें आशा हो गयी कि अब उनके लिए पंजाब-विजय सरल हो जायेगी और वे इस अवसर से पूरा लाभ उठाने के लिए तत्पर हो गये। 

दूसरी तरफ पंजाब को जीतने की इच्छा मिसेज हेनरी लॉरेन्स के पत्रों से भी स्पष्ट होती है। 1841 ई0 में उसने लिखा था, - “इसमें कोई सन्देह नहीं कि अगले जाड़ों के मौसम से रुका हुआ पंजाब को जीतने का प्रश्न हल हो जायेगा।’’ इस प्रकार यह निश्चय है कि रणजीतसिंह की मृत्यु के पश्चात अंग्रेज पंजाब को जीतने के लिए उत्सुक हो उठे थे और उन्होंने पंजाब के राजनीतिक षड्यन्त्रों में भाग लेना शुरू कर दिया था। वास्तव में अफगान-युद्ध से अंग्रेजों को जो हानि हुई उसके कारण उसी समय वे पंजाब को जीतने के लिए कोई कदम न उठा सके परन्तु अंग्रेजों ने गुलाबसिंह, लालसिंह, ध्यानसिंह, तेजसिंह आदि जैसे बड़े सरदारों से मिलकर षड्यन्त्र करने अवश्य आरम्भ कर दिये थे।

एक तरफ अंग्रेज पंजाब के सिक्ख और डोगरा सरदारों में फूट डाल रहे थे और उन्हें विभिन्न लालच देकर अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न कर रहे थे तथा दूसरी तरफ वे पंजाब पर आक्रमण करने के लिए सैनिक तैयारियां कर रहे थे। लॉर्ड ऐलनबरो ने गवर्नर-जनरल के पद परं नामजद होते ही पंजाब पर आक्रमण करने की योजना बनानी आरम्भ कर दी थी।  1843 ई0 में कैथल के सिख-राज्य पर अधिकार करते हुये अंग्रजों ने करनाल एवं फीरोजपुर में अंग्रेजी सेनाओं को एकत्र करना आरम्भ कर दिया। जिस समय ऐलनबरो ने भारत छोड़ा, पंजाब की सीमा पर 18 हजार सैनिक नियुक्त कर दिये गये थे। उसके उत्तराधिकारी लॉर्ड हार्डिज ने उसकी नीति को आगे बढ़ाया और जिस समय प्रथम सिख-युद्ध आरम्भ हुआ उस समय पंजाब की सीमा पर 40 हजार अंग्रेज सैनिक और 94 तोपें थीं। सतलज नदी को पार करने के लिए बम्बई में नावें तैयार की गयी थीं जिन्हें लॉर्ड हार्डिज ने आते ही फीरोजपुर मँगा लिया था। सिखों के कट्टर शत्रु मेजर ब्रोडफुट (Major Broadfoot) को राजनीतिक प्रतिनिधि बनाकर भी इसी कारण पंजाब भेजा गया जिससे वह सिखों में फूट डाले और ऐसी परिस्थितियाँ बनाये जिससे सिख स्वयं युद्ध को तैयार हो जायें। इसमें सन्देह नहीं कि तेजसिंह और गुलाबसिंह को सेना लेकर आगे बढ़ने के लिए ब्रोडफुट ने ही उकसाया था जिससे युद्ध का कारण उपस्थित हुआ। 

इस प्रकार स्पष्ट है कि अंग्रेज युद्ध के लिए उत्सुक थे। वे अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए पंजाब को जीतना चाहते थे। परन्तु वे बहुत समय तक युद्ध के लिए कोई बहाना न पा सके। उनकी सैनिक तैयारियां पूरी थीं तथा लुधियाना, अम्बाला और फीरोजपुर में उनकी सेना और रसद तैयार थी। सिक्खों को युद्ध के लिए भड़काने हेतु उन्होंने सतलज के पूर्व के लाहौर-दरबार के राज्यों पर अधिकार कर लिया, छोटे-छोटे सीमावर्ती झगड़ों को बढ़ावा दिया, अपनी युद्ध की तैयारियों को छिपाने का प्रयत्न नहीं किया और सिक्ख अधिकारियों का अपमान किया। परन्तु फिर भी सिक्ख-दरबार ने अंग्रेजों से अच्छे सम्बन्ध रखे परन्तु अन्त में मेजर ब्रोडफुट के प्रयास सफल हुए। तेजसिंह और गुलाबसिंह उसके मित्र थे। उसके कहने से तेजसिंह के नेतृत्व में सिक्ख-सेना सतलज नदी के किनारे आ गयी। सिक्खों को अंग्रेजों की तैयारियों से यह भय हो गया था कि अंग्रेज पंजाब पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहे हैं। अतएव खालसा-सेना अंग्रेजों से मिले हुए अपने सरदारों के कहने में आकर अपनी रक्षा के लिए सीमा पर पहुँच गयी। लेकिन उस समय भी उसने यही घोषणा की कि जब तक अंग्रेज लुधियाना और फीरोजपुर से आगे नहीं बढ़ेंगे तब तक वे भी आगे नहीं बढ़ेंगे। अंग्रेजों ने इस अवसर को छोडना उचित नहीं समझा तथा अपनी सेनाओं को मेरठ और अम्बाला से आगे बढ़ने के आदेश दे दिये। 13 दिसम्बर, 1845 ई0 को खालसा-सेना ने सतलज नदी को पार किया और उस भूमि पर अपने कदम रखे जो सिख-राज्य की ही थी। अंग्रेजों के लिए केवल इतना ही बहाना पर्याप्त था और लॉर्ड हार्डिंज ने युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध आरम्भ हुआ।

अगर परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि युद्ध का मूल कारण सिख-सेना का आक्रमण न था बल्कि एक तरफ सिक्ख सरदारों का स्वार्थ और दूसरी तरफ अंग्रेजों की साम्राज्य-विस्तार की लालसा थी। अंग्रेजों के आक्रमण की पूरी सम्भावना होते हुए भी सिक्ख-सेना या सिक्ख-दरबार ने अंग्रेजी सीमा पर आक्रमण नहीं किया था। सतलज नदी को पार करके भी वे अपनी ही भूमि और सीमाओं में प्रविष्ट हुई थीं। इस कारण अंग्रेजों को युद्ध घोषित करने का कोई कारण न था। परन्तु अंग्रेज साम्राज्य-विस्तार के लिए युद्ध चाहते थे, इस कारण सिख-सेना का सतलज नदी को पार करना ही युद्ध का बहाना बना लिया गया। स्वयं लॉर्ड हार्डिंज को युद्ध के कारण के बारे में शंका थी, कैम्पबैल (Campbell) ने भी लिखा है - “इतिहास के पन्नों में लेखबद्ध है कि सिक्ख-सेना ने हम पर आक्रमण करने के लिए अंग्रेजी सीमाओं में प्रवेश किया परन्तु अधिकांश व्यक्तियों को यह जानकर अत्यधिक आश्चर्य होगा कि उन्होंने ऐसा कोई कार्य नहीं किया। उन्होंने हमारी छावनियों पर आक्रमण नहीं किया और न वे हमारी सीमा में आये। वे नदी पार करके केवल अपनी हो सीमा में आ गये थे।“

सिखों और अंग्रेजो का पहला युद्ध मुदकी (Mudki) नामक स्थान पर 18 दिसम्बर, 1845 ई0 को हुआ। इस युद्ध में सिखों की पराजय हुई। 21 दिसम्बर को फीरोजशाह नामक स्थान पर दूसरा युद्ध हुआ और इसमें भी अंग्रेजों की जोत हुई। 21 जनवरी, 1810 ई0 को रनजोरसिंह मजीठिया के नेतृत्व में सिखों ने अंग्रेजों को बदवाल (Buddwal) नामक स्थान पर परास्त किया। 28 जनवरी को सिखों की अलीवाल (Alival) नामक स्थान पर पराजय हुई। अन्तिम युद्ध 10 फरवरी, 1546 ई. को सोबराव (Sobraon) नामक स्थान पर हुआ और उसमें सिक्खों को पराजय हुई। सोबरांव के युद्ध निर्णायक साबित हुआ और 13 फरवरी को अंग्रेजों ने सतलज को पार किया और 20 फरवरी 1846 को लाहौर पर अधिकार कर लिया।

सिक्खों के पराजय के कारण-

सिख सेना ने प्रत्येक स्थान पर अंग्रेजों का साहस और बहादुरी से मुकाबला किया। अंग्रेज कोई भी युद्ध सरलता से नहीं जीत सके थे बल्कि प्रत्येक युद्ध में उनकी स्थिति गम्भीर हो गयी थी। सोबरांव के युद्ध के विषय में मि0 व्हीलर ने लिखा है : “भारत के इतिहास में अंग्रेजों के लिए सोबरॉव का युद्ध सबसे कठिन युद्ध सिद्ध हुआ। अपने गद्दार सेनापति तेजसिंह के विरुद्ध सिख-सैनिक खालसा के सम्मान की रक्षा के लिए युद्ध जीतने अथवा युद्ध में मृत्यु प्राप्त करने के लिए तत्पर थे।“ स्मिथ ने ’सिक्खों को “भारत में अंग्रेजों का मुकाबला करने वाले शत्रुओं में सबसे बहादुर और दृढ़’ बताया है।

इस प्रकार सिखों की पराजय का कारण उनके सैनिकों की दुर्बलता न थी। उनकी पराजय का मूल कारण उनके सरदारों का स्वार्थ और गद्दारी थी। उनके बडे-बडे सेनापति अंग्रेजों से मिले हए थे, उन्हें सूचना भेजते थे, ठीक समय से युद्ध नहीं करते थे और कई अवसरो पर तो वे अपनी सेना को छोड़कर भाग गये थे। उनका मूल आशय सिख-सेना की पराजय देखना था। सेना की शक्ति का इस प्रकार विध्वंस कराकर अपने व्यक्तिगत स्वार्थो की पूर्ति हेतु पंजाब में वे अपनी निर्विवाद सत्ता स्थापित करना चाहते थे और उनमें से कई को अंग्रेजों ने विभिन्न प्रकार के लालच दे रखे थे। इस कारण अधिकांश सिख सरदारों ने अपने राज्य और अपनी सेना के साथ गद्दारी की।

31 दिसम्बर, 1845 ई. को सिख-सेना ने सतलज नदी को पार किया था और सम्भवतः. उसका उद्देश्य अचानक ही फीरोजपुर पर आक्रमण करने का था। परन्तु यह उद्देश्य लालसिंह की गद्दारी के कारण पूरा न हो सका। लालसिंह ने फीरोजपुर के अंग्रेज प्रतिनिधि निकलसन को लिखा था - “मैंने सिख-सेना के साथ सतलज को पार कर लिया है। तुम अंग्रेजों से मेरी मित्रता को जानते हो। मझे बताओ कि अब मुझे क्या करना चाहिए।’’ इस निकलसन ने उत्तर दिया - “फीरोजपुर पर आक्रमण मत करो। जितने दिन सम्भव हो सके, वहीं रुको, और फिर गवर्नर-जनरल की तरफ बढ़ो।“ लालसिंह ने ऐसा ही किया और फीरोजपुर बच गया। लुडलो (Ludlow) ने लिखा था : “यदि उसने (सिखों ने) आक्रमण किया होता तो हमारी पूरी सेना नष्ट हो गयी होती और 60 हजार विजयी सिक्ख सैनिक सर हार्डिज पर टूट पड़ते जिसके पास केवल 8,000 सैनिक थे।“’ मुदकी में युद्ध आरम्भ होते ही लालसिंह अपनी सेना छोड़कर भाग गया था। फीरोजपुर के युद्ध में भी पहले दिन अंग्रेजों को भारी क्षति उठानी पड़ी थी। अगर उसी रात सिखों ने आक्रमण कर दिया होता तो अंग्रेजों के पैर उखड़ जाते। परन्तु लालसिंह रात को चुपचाप अपने सैनिकों और तोपों को लेकर चला गया। तेजसिह भी सुबह अंग्रेजों पर आक्रमण करने की बजाय अपनी सेना को लेकर भाग गया। इस प्रकार लालसिंह और तेजसिंह की गद्दारी के कारण सिख फीरोजपुर के प्रायः जीते हुए युद्ध में परास्त हो गये। इसके पश्चात् भी ये सरदार एक माह तक इसलिए चुपचाप रहे ताकि अंग्रेजों को रसद और सहायता प्राप्त हो जाये। 1846 ई0 में गुलाबसिंह ने अंग्रेजों से एक गुप्त समझौता किया कि सिख-सेना की पराजय के उपरान्त सिख राजदरबार सेना से अपना सम्बन्ध तोड़ देगा और अंग्रेज बिना किसी विरोध के सतलज पार कर सकेंगे। अंग्रेजों ने वायदा किया कि वे सिखों के राज्य में कोई हस्तक्षेप न करेंगे। इस आधार पर लालसिंह ने सिख-सेना की प्रत्येक गतिविधि का समाचार अंग्रेजों को प्रेषित किया और सिख-सेना को रसद और सहायता भेजना बन्द कर दिया। सोबरॉंव के युद्ध में भी लालसिंह और तेजसिंह भाग खड़े हुए थे। यही नहीं बल्कि उन्होंने सतलज के पुल को भी तोड़ दिया जिससे पराजित सिख-सेना भागकर वापस न आ सके और पूर्ण रूप से नष्ट हो जाये। ऐसी परिस्थितियों में अपने सरदारों की गद्दारी के कारण ही प्रत्येक स्थान पर सिख-सेना की पराजय हुई।

लाहौर की सन्धि, 1846 ई0 -

सोबरॉंव के युद्ध में सिक्खों के पराजय के बाद अंग्रेजों और सिक्खों मध्य 1 मार्च 1846 ई0 को लाहौर की सन्धि हुई जिसमें उल्लिखित शर्तो के अनुसार -

1. महाराजा दलीपसिंह ने सतलज के दक्षिण के सभी भू-भागों से अपना अधिकार हटा लिया।

2. महाराजा दलीपसिंह ने व्यास और सतलज नदी के बीच की भूमि के सभी किलों, पहाड़ों और भू-भाग से अपना अधिकार हटा लिया।

3. युद्ध-क्षतिपूर्ति के रूप में अंग्रेजों ने डेढ़ करोड़ रुपये की मॉंग की जिसको महाराजा दलीपसिंह नहीं दे सका। इस कारण अंग्रेजों ने कश्मीर और हजारा के सूबे भी महाराजा से छीन लिये। एक करोड़ रुपये में कश्मीर गुलाबसिंह को बेच दिया गया और 50 लाख रुपये को महाराजा ने शीघ्र चुकाने का वायदा किया।

4. महाराजा दलीपसिंह की सेना की संख्या 12,000 घुड़सवार और 25 बटालियन पैदल निश्चित कर दी गयी।

5. सिक्खों द्वारा युद्ध में प्रयुक्त सभी तोपें अंग्रेजों को दे दी गयीं। 

6. अंग्रेज सैनिकों को पंजाब की सीमाओं में से गुजरने की आज्ञा दे दी गयी।

7. महाराजा दलीपसिंह ने किसी भी यूरोपियन या अमेरिकन को अंग्रेजों की स्वीकृति के बिना अपने यहाँ नौकरी न देने का वायदा किया।

8. दलीपसिंह को सिखों का राजा, रानी झिण्डन को उसका संरक्षक और लालसिंह को मुख्य मन्त्री स्वीकार किया गया।

9. अंग्रेजों ने सिख-राज्य के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन दिया। 

10. दलीपसिंह की रक्षा के लिए एक अंग्रेजी सेना पंजाब में रखी गयी जो 1846 ई0 के अन्त तक वहीं रही।

सन्धि की शर्तों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध के पश्चात् ही सिक्खों की शक्ति अत्यधिक दुर्बल कर दी गयी थी। सिक्ख-राज्य को सीमित करके, सेना की संख्या को कम करके, गद्दार सिख-सरदारों को उच्च पद देकर और अंग्रेजी सेना को पंजाब में छोडकर अंग्रेजों ने सिक्खों को अपने विरोध के योग्य नहीं छोड़ा था।

इसके पश्चात् भी अंग्रेजों लगातार सिक्खों को दुर्बल करने का अवसर प्राप्त करते रहे। लालसिंह ने गुलाबसिंह के विरुद्ध कश्मीर में विद्रोह कर दिया लेकिन विद्रोह दबा दिया गया और लालसिंह को मन्त्री पद से हटा दिया गया। उसी अवसर पर 16 दिसम्बर. 1846 ई0 को अंग्रेजों ने सिक्ख-दरबार से ’भैरोंवाल की सन्धि की जिसके द्वारा शासन की देखभाल करने के लिए एक अंग्रेज रेजीडेण्ट के संयोजकत्व में आठ सरदारों की एक संरक्षक-परिषद स्थापित की गयी। इस प्रकार रानी झिण्डन की संरक्षता समाप्त हो गयी। लाहौर-दरबार ने अपने यहाँ एक स्थायी अंग्रेजी सेना रखना और उसके व्यय के लिए 20 लाख रुपया प्रति वर्ष देना स्वीकार किया। रानी झिण्डन को डेढ़ लाख रुपये प्रति वर्ष की पेंशन दे दी गयी।

इस नवीन सन्धि से पंजाब का शासन एक प्रकार से अंग्रेज रेजीडेण्ट के अधिकार में चला गया क्योंकि सरंक्षक-परिषद् के सदस्य अंग्रेजों के हाथ की कठपतली मात्र थे। पंजाब में स्थायी रूप से अंग्रेजी सेना के रहने की व्यवस्था से यह भी स्पष्ट हो गया कि पंजाब में अब अंग्रेजों के विरुद्ध कोई विद्रोह अथवा षड्यन्त्र सफल नहीं हो सकेगा। इस प्रकार देखा जाय तो प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध ही पंजाब के भाग्य का निर्णय कर चुका था। यद्यपि लॉर्ड हार्डिज ने राजनीतिक कठिनाइयों के कारण उसे अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित नहीं किया था परन्तु इस कार्य में अधिक देर नहीं लगी और लॉर्ड डलहौजी ने आते ही पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित करने की योजना बना ली। 

द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध (1848-49 ई0)

लॉर्ड हार्डिज ने पंजाब के सिक्ख राज्य में जो व्यवस्था की थी वह स्थायी नहीं हो सकती थी। उससे न तो सिक्ख सन्तुष्ट हुए थे और न ही अंग्रेजी साम्राज्यवाद की नीति पूर्ण हुई थी। इस कारण द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध के कारण शीघ्र उपस्थित हो गये। अंग्रेजों ने जो सुधार पंजाब में किये उससे सिक्ख असन्तुष्ट थे। मुसलमानों को दी गयी विभिन्न सुविधाएँ सिक्खों की धार्मिक भावना के विरोध में थीं। जो सैनिक सेना से निकाल दिये गये थे, वे असन्तुष्ट थे क्योंकि उनकी जीविका का साधन समाप्त कर दिया गया था। सिक्खों का यह विश्वास था कि उनकी पराजय का कारण उनके सरदारों की गद्दारी थी। इस कारण उन्हें भरोसा था कि पुनः युद्ध होने पर वे अंग्रेजों को अवश्य परास्त कर देंगे। आन्तरिक शासन में अंग्रेज रेजीडेण्ट के हस्तक्षेप को सिक्ख पसन्द नहीं करते थे। रानी झिण्डन का जो अपमान अंग्रेज करते थे, उससे भी सिक्ख असन्तुष्ट थे। इस प्रकार सिक्खों में अंग्रेजों के विरुद्ध तीव्र असन्तोष था जो लगातार बढ़ रहा था।

इन्ही अनुकूल परिस्थितियों में लॉर्ड डलहौजी गवर्नर-जनरल बनकर भारत आया। उसका उद्देश्य प्रारम्भ से ही सम्पूर्ण भारत को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करना था। उसे पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित करने के लिए केवल एक बहाना चाहिए था और वह बहाना उसे मुल्तान के सूबेदार मूलराज के विद्रोह से प्राप्त हो गया।

अपने पिता सावन्तमल की मृत्यु के पश्चात् 1844 ई0 में मूलंराज मुल्तान का सूबेदार बना। उससे उत्तराधिकार-कर के रूप में 30 लाख रुपये माँगे गये जिसके चुकाने के लिए वह तैयार न था। अन्त में यह निर्णय हुआ कि मूलराज से जंग का जिला हमेशा के लिए ले लिया जायेगा और उसे लाहौर-दरबार को कर के रूप में 19 लाख के स्थान पर 25 लाख रुपया पहले वर्ष और बाद में 30 लाख रुपया प्रति वर्ष देना होगा। इसके लिए भी मूलराज तैयार न हुआ और उसने अपनी सूबेदारी से त्यागपत्र दे दिया। तात्कालीन ब्रिटिश रेजीड़ेण्ट जॉन लॉरेन्स ने उसके त्यागपत्र को स्वीकार नहीं किया परन्तु नवीन रेजीडेण्ट क्यूरी (ब्नततपम) ने 1848 ई0 में उसके त्यागपत्र को स्वीकार कर लिया। सरदार खानसिंह मान को नवीन सूबेदार बनाकर दो अंग्रेज अफसरों- पी0ए0 वान्स एग्न्यू और डब्ल्यू0ए0 एण्डरसन के साथ मुल्तान भेज दियर गया। 19 अप्रैल 1848 ई0 को मूलराज ने शान्तिपूर्वक मुल्तान का किला खानसिंह को सौंप दिया परन्तु उसी दिन दोनों अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी गयी। यह सन्देह किया गया कि इन हत्याओं में मूलराज का हाथ था परन्तु अधिक प्रमाण इस बात के मिलते हैं कि असन्तुष्ट सिक्ख-सैनिकों ने इन अंग्रेजों की हत्या की थी और बाद में मूलराज को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए विवश किया था। इस प्रकार एक स्थानीय विद्रोह के रूप में मूलराज का विद्रोह आरम्भ हुआ।

अंग्रेजों ने इस विद्रोह को शीघ्र दबाने का कोई प्रयत्न नहीं किया। उन्होंने बहाना किया कि इस विद्रोह को शीघ्र दबाने का उत्तरदायित्व लाहौर-दरबार का था। परन्तु वास्तव में अंग्रेज चाहते थे कि यह विद्रोह पंजाब के अन्य भागों में भी फैल जाय जिससे उन्हें सम्पूर्ण पंजाब को जीतने का बहाना मिल सके। आगे ऐसा ही हुआ। जब तक राजा शेरसिंह को लाहौर-दरबार की ओर से मुल्तान के विद्रोह को दबाने के लिए भेजा गया तब तक विद्रोह बन्नू, पेशावर और पंजाब के उत्तर-पश्चिमी भागों में फैल चुका था। विद्रोह के फैलने का एक मुख्य कारण यह भी था कि अंग्रेजों ने रानी झिण्डन पर यह आरोप लगाया कि वह मुल्तान के विद्रोह के लिए उत्तरदायी थी और इस आधार पर रानी को पंजाब से बाहर भेज दिया गया। इसमें सन्देह नहीं कि पंजाब के विद्रोहियों की आशाएँ रानी पर केन्द्रित थीं, जैसा कि क्यूरी ने अपने एक पत्र में लिखा - “यह.सत्य है कि इस अवसर पर दीवान मूलराज, सम्पूर्ण सिक्ख-सेना और सैनिक जनता की आशाएॅं रानी को विद्रोह अथवा असन्तोष का केन्द्र-बिन्दु बनाने में लगी हुई थीं।“ परन्तु यह भी सत्य है कि विद्रोह में उस समय तक रानी का कोई हाथ न था, जैसा कि स्वयं क्यूरी के पत्र से ही स्पष्ट होता है। वह लिखता है - “यद्यपि यह सन्देह किया जा सकता है कि मुल्तान के विद्रोह में महारानी का हाथ था, परन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं है। वास्तव में अंग्रेजों ने रानी को दो उद्देश्यों से पंजाब के बाहर भेजा गया था- प्रथम, चूॅंकि रानी झिण्ड़न ही सम्पूर्ण पंजाब के विद्रोहियों का केन्द्र-बिन्दु हो सकती थी, अतः इस खतरे को टालने हेतु उसे पंजाब से बाहर भेजना राजनीतिक आधार पर उचित था। द्वितीय, अंग्रेज जानबूझकर रानी को अपमानित करके सिक्खों की भावनाओं को चोट पहुॅंचाना चाहते थे जिससे विद्रोह अधिक तेजी से फैले।

विदोह के फैलने का दूसरा कारण अंग्रेजों का हजारा के सूबेदार और राजा शेरसिंह के पिता छतरसिंह का अपमान करना था। ये दोनों सरदार पंजाब में पर्याप्त लोकपिय थे। छत्तरसिंह की पुत्री का विवाह महाराजा दलीपसिंह से निश्चित हो चुका था परन्तु निरन्तर प्रयत्न करते रहने पर भी अंग्रेजों के विरोध के कारण यह विवाह उस समय तक सम्पन्न नहीं हो सका था। फिर भी मूलराज के विद्रोह के समय तक दोनों सरदार अंग्रेजों के प्रति वफादार थे। परन्तु हजारा के रेजीडेण्ट ऐबट ने न केवल हजारा के मुसलमानों को छत्तरसिंह के विरुद्ध विदोह करने के लिए प्रोत्साहित किया अपितु उसके आन्तरिक शासन में हस्तक्षेप करके उसका निरन्तर अपमान किया। 23 अगस्त 1848 ई0 को छत्तरसिंह ने अपने पुत्र शेरसिंह को, जो उस समय मुल्तान के विद्रोह को दबाने के लिए गया था, एक पत्र लिखा जिसमें उसने अंग्रेजों के दुर्व्यवहार की निन्दा करते हए विद्रोह करने की इच्छा प्रकट की। 14 सितम्बर, 1848 ई0 को अपने पिता के अपमान के कारण राजा शेरसिंह विद्रोह में सम्मिलित हुआ। सिक्खों ने अफगानों को पेशावर देकर उनकी भी सैनिक सहायता प्राप्त कर ली। अब मूलराज का स्थानीय विद्रोह पंजाब के विद्रोह में परिणत हो गया जैसा कि अंग्रेज स्वयं चाहते थे।

मूलराज के विद्रोह करने के पश्चात् भी अंग्रेजों के विरुद्ध किसी संगठित विद्रोह की भावना पंजाब में नही थी, इसके अनेक प्रमाण हैं। लाहौर-दरबार अन्त तक अंग्रेजों के प्रति वफादार रहा था। इस प्रकार यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि सिक्खों ने जान-बूझकर अंग्रेजी सत्ता को युद्ध की चनौती दी थी, जैसा कि लॉर्ड डलहौजी ने कहा था। लॉर्ड डलहौजी के अनुसार- “बिना किसी पूर्व-सूचना अथवा बिना किसी कारण के सिक्ख-राष्ट्र ने युद्ध को आमन्त्रित किया है और मैं अपनी ओर से आप सब महानुभावों को विश्वास दिलाता हूँ कि इसका प्रतिशोध लिया जायगा।“ यह वक्तव्य उस परिस्थिति में दिया गया था जबकि लाहौर-दरबार अंग्रेजों के प्रति वफादार था और अंग्रेजों से हुई सन्धि के अनुसार उन्हीं की सलाह से शासन कर रहा था। फिर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि किस प्रकार लार्ड़ डलहौजी ने यह मान लिया और घोषणा की कि सिक्ख-राज्य ने अंग्रेजों को युद्ध की चुनौती दी थी। अंग्रेज सेनापति लॉर्ड गफ जब पंजाब पहुॅंचा तो उसे यह तक ज्ञात नहीं था कि उसे लाहौर-दरबार के विरुद्ध या उसके पक्ष में युद्ध करने के लिए भेजा गया था। उसने स्वयं लिखा था : “मैं नहीं जानता कि हम शान्ति की स्थिति में है या युद्ध की अथवा हमें किससे युद्ध करना है।“ लाहौर पहॅुंचने पर ही उसे ज्ञात हुआ कि उसे लाहौर-दरबार के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा गया है। इससे यह स्पष्ट है कि डलहौजी और उसके कुछ विश्वस्त व्यक्तियों के अतिरिक्त किसी को भी यह ज्ञात न था कि अंग्रेज लाहौर-दरबार से युद्ध करना चाहते थे। इसलिए विद्रोह को फैलने का अवसर दिया गया और इसी कारण महाराजा दलीपसिंह को भी शत्रु-पक्ष का माना गया जबकि वास्तव में वह अंग्रेजों के विरुद्ध कुछ भी करने की स्थिति में बिल्कुल भी नही था। वास्तव में लॉर्ड डलहौजी पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित करने का बहाना ढॅूंढ रहा था। लाहौर-दरबार के शत्रु बनने से ही यह बहाना मिल सकता था। परन्तु जब यह सम्भव न हुआ तो लाहौर-दरबार को जबर्दस्ती शत्रु माना गया और इसी आधार पर अंग्रेजों ने पंजाब पर अधिकार किया और उसे ब्रिटिश राज्य में विलिन कर लिया गया।

22 नवम्बर 1848 ई0 को रामनगर का युद्ध हुआ परन्तु उसमें कोई निर्णय न हो सका। 13 जनवरी 1849 ई0 को चिलियानवाला का भीषण युद्ध हआ। दोनों पक्षों की बहुत हानि हुई परन्तु निर्णय इस युद्ध में भी नहीं हुआ। 22 जनवरी 1849 ई0 को अंग्रेजों ने मुल्तान को जीत लिया और मूलराज ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस बीच में शेरसिंह और छत्तरसिंह की सेनाएं मिल गयी थीं तथा लॉर्ड गफ को मुल्तान की अंग्रेजी सेना की सहायता प्राप्त हो गयी थी। अन्तिम युद्ध चिनाब नदी के किनारे गुजरात नामक स्थान पर हुआ जिसमें सिक्ख बुरी तरह पराजित हुए और अंग्रेजों ने 15 मील तक उनका पीछा किया। 12 मार्च 1849 ई0 को शेरसिंह, छत्तरसिंह तथा अन्य सभी सिक्ख सरदारों ने आत्मसमर्पण कर दिया और अपने शस्त्र डाल दिये। एक वृद्ध सिख सैनिक ने समर्पण किये हुए सिख शस्त्रों के सामने हाथ जोड़कर कहा- “आज रणजीतसिंह की मृत्यु हो गयी।“

29 मार्च, 1849 ई0 को डलहौजी ने स्वयं की जिम्मेदारी पर पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित कर लिया। इसके लिए उसने डायरेक्टरों की आज्ञा की भी प्रतीक्षा नहीं की। उसने घोषणा की - “पंजाब का राज्य समाप्त हो गया है और अब तथा अब से आगे महाराजा दलीपसिंह का सम्पूर्ण राज्य अंग्रेजों के राज्य का एक भाग है।“’ महाराजा दलीपसिंह को 4 से 5 लाख रुपये के बीच में पेंशन दे दी गयी और उसे उसकी माँ रानी झिण्डन के संरक्षण में इंगलैण्ड भेज दिया गया।

पंजाब को अपने राज्य में सम्मिलित करने से अंग्रेजी राज्य की सीमाएँ भारत की प्राकतिक भौगोलिक सीमाओं तक पहुॅंच गयीं। अब अंग्रेज अफगानिस्तान या उत्तर-पश्चिम में अन्य राज्यों से सीधा सम्पर्क स्थापित कर सकते थे। सिक्ख भारत में अन्तिम शक्ति थे जिससे अंग्रेजों को खतरा हो सकता था। अब वह खतरा भी समाप्त हो गया।

पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित किये जाने के विषय में इतिहासकारों ने विभिन्न मत दिये गये हैं। एक मत डलहौजी के पक्ष का है जिसके अनुसार सिक्खों ने विद्रोह करके ऐसा अवसर प्रदान किया जिससे डलहौजी को पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित करना पड़ा और यह कार्य सर्वथा आवश्यक था। दूसरा मत उन व्यक्तियों का है जिनका कहना है कि डलहौजी का यह कार्य सर्वथा अन्यायपूर्ण था। लाहौर-दरबार अन्त तक अंग्रेजों के प्रति वफादार था। संरक्षक परिषद के आठ सदस्यों में से मात्र एक ने इस विद्रोह में भाग लिया और एक अन्य पर केवल संदेह किया जाता है। बाकी छह संरक्षक पूर्णतः अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे। इसके अतिरिक्त महाराजा दलीपसिंह का तो कोई अपराध हो ही नहीं सकता था क्योंकि वह तो तब बच्चा ही था। फिर अंग्रेजों ने उसका राज्य उससे छीनकर कौन-सा न्यायिक कार्य किया था ? इस विद्रोह को दबाने में पंजाब के 20,000 सैनिकों ने अंग्रेजों की सहायता की थी। फिर इस विद्रोह को पंजाब का विद्रोह कैसे मान सकते हैं जिसके आधार पर अंग्रेजों ने पंजाब को अपने राज्य में सम्मिलित किया था? इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित करने का आधार सिक्खों का विद्रोह या नैतिक अथवा कोई अन्य न्यायसंगत आधार न था। उसका मूल आधार लार्ड़ डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति ही थी।

लॉर्ड डलहौजी ने पंजाब का शासन करने के लिए तीन कमिश्नरों के एक बोर्ड की स्थापना की। बाद में उसका शासन केवल सर जॉन लॉरेन्स (Sir John Lawrence) के हाथों में रहा। उसने पंजाब में कूटनीति और कठोरता से शासन किया तथा अनेक सुधार भी किये। उसका शासन अंग्रेजी और कम्पनी के हितों की दृष्टि से बहुत सफल रहा और उसकी सफलता इस बात से स्पष्ट है कि आगे आने वाले 1857 ई0 के विद्रोह में सिक्खों ने अंग्रेजों का साथ दिया यद्यपि कुछ समय पहले ही अंग्रेज अन्यायपूर्ण आधार पर उनके राज्य को उनसे छीन चुके थे।


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