window.location = "http://www.yoururl.com"; Anglo-Burmees Relation | आंग्ल-बर्मा सम्बन्ध

Anglo-Burmees Relation | आंग्ल-बर्मा सम्बन्ध

 


विषय-प्रवेश (Introduction) :

भारत के उत्तर-पूर्व में बर्मा का राज्य था। अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जिस प्रकार गोरखा जाति उत्तर भारत में एक संगठित राज्य स्थापित कर रही थी, उसी प्रकार भारत की पूर्वी सीमा पर चीनी-तिब्बती मिश्रित एक जाति आवा (Ava) को राजधानी बनाकर बर्मा का एक शक्तिशाली राज्य स्थापित कर रही थी। अपने बहादुर सरदार अलोमपोरा के नेतृत्व में बर्मा राज्य का बहुत विस्तार हुआ। उसने इरावदी नदी का मुहाना, पेंगू, तनासरम और अराकान का प्रदेश जीतकर एक बड़े राज्य की नींव डाली। इसके पश्चात् बर्मा का राज्य विभिन्न दिशाओं में बढ़ता गया और उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में उन्होंने असम, मणिपुर आदि पर भी अधिकार कर लिया जिससे उनके राज्य की सीमाएं अंग्रेजों के भारत के राज्य की सीमाओं से मिलने लगीं।

बर्मा से अंग्रेजों के व्यापारिक सम्बन्ध यूॅं तो बहुत पहले से थे परन्तु वे सम्बन्ध बहुत साधारण थे। बर्मा और अंग्रेजी राज्य की पूर्व की सीमाएं जब मिलने लगी तो इनके आपस के सम्बन्ध खराब होने लगे। अंग्रेजों ने 18वीं सदी के अन्त में बर्मा से राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न किया परन्तु बर्मा-दरबार ने इसका कोई स्वागत नहीं किया। अंग्रेजों के बर्मा से सीमा सम्बन्धी झगड़े उसी समय से आरम्भ हो गये थे जबकि बर्मा ने अराकान को जीत लिया था। अराकान के व्यक्ति जब भागकर भारत की सीमाओं में आये तो 1794 ई0 में 5,000 बर्मी सैनिकों ने भारत की सीमा में प्रवेश करके उन व्यक्तियों को अंग्रेजों से वापस मॉंगा। अंग्रेजों ने उन व्यक्तियों को वापस तो कर दिया लेकिन इस घटना से बर्मा का साहस बढा। लॉर्ड हेस्टिंग्स के समय में अंग्रेजों की इस नीति में परिवर्तन हआ। हेस्टिंग्स ने भगोडों को वापस करने से इन्कार कर दिया और यही से उनके सम्बन्ध अंग्रेजों से खराब हो गये। जब बर्मा ने असम को भी जीत लिया तब ये सीमा सम्बन्धी झगडे और बढ़ गये। 1818 ई0 में रामरी (Ramri) के बर्मी गवर्नर ने चटगांव के अंग्रेज मजिस्ट्रेट से राम, चटगॉंव, ढाका और मुर्शिदाबाद को मॉगा और लिखा कि यह जिले अराकान के अधिकार में थे, इस कारण इन पर बर्मा का अधिकार है क्योंकि अराकान बर्मा राज्य का एक भाग है। अंग्रेजों द्वारा इन्हें न देने पर युद्ध की धमकी दी गयी। इस प्रकार बर्मा और अंग्रेजों के सीमा सम्बन्धी झगडे बढ़ते गये। यद्यपि लॉर्ड हेस्टिग्स ने कड़ा रुख अपना लिया था परन्तु वह युद्ध को टालता रहा क्योंकि भारत की सीमाओं में ही उसे अनेक समस्याओं का सामना करना था।

प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध (1824-26)

लॉर्ड एम्हर्स्ट (Lord Amherst) के शासनकाल में बर्मा के युद्ध को न टाला जा सका। युद्ध का मुख्य कारण एक तरफ बर्मा-दरबार की अज्ञानता एवं उद्दण्डता तथा दूसरी तरफ अंग्रेज-साम्राज्यवाद का स्वाभाविक विस्तार था। बर्मा का राजा और वहाँ के निवासी दोनों ही भारतीय परिस्थितियों से बिल्कुल अनभिज्ञ थे। अराकान, मणिपुर और असम जैसे छोटे राज्यों को जीतकर उन्हें अपनी शक्ति का अभिमान हो गया था। उन्हें भारत में अंग्रेजों की विशाल शक्ति का कोई ज्ञान न था। बर्मा के सेनापति महाबुन्देला ने असम को सरलता से जीतकर यह अनुमान किया कि वह अंग्रेजों को भी सरलता से परास्त कर सकता है। उसने बर्मा के राजा को एक पत्र लिखा जिसमें उसने “बर्मियों को शेर और अंग्रेजों को गीदड़ बताया।“ उसने यह भी लिखा कि वह कई भारतीय राजाओं से पत्र-व्यवहार कर रहा है और जब बर्मी भारत पर आक्रमण करेंगे तो वे सभी अंग्रेजों के विरुद्ध बर्मा का साथ देंगे। बर्मा के साधारण व्यक्तियों का भी यही विचार था कि उनका शक्तिशाली राजा अंग्रेजों को सरलता से परास्त कर देगा। इस कारण जैसा कि क्रॉफोर्ड (Crawford) ने लिखा है - “राजा से लेकर भिखारी तक युद्ध के लिए तैयार था।“

दूसरी तरफ अंग्रेज सम्पूर्ण भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने के बाद पूर्व में साम्राज्य-विस्तार के लिए उत्सुक थे। साम्राज्यवाद की स्वाभाविक प्रकृति के अनुसार उन्हें पूर्वी और पश्चिमी दोनों ही सीमाओं पर अपने राज्य का विस्तार करना था जैसा कि तृतीय मराठा युद्ध के पश्चात् हुआ। इस कारण बर्मा और अंग्रेजों की बढ़ती हुई साम्राज्यवादी इच्छाओं के कारण युद्ध होना आवश्यक था। झगड़े की छोटी-छोटी बातों को तूल दिया गया और शीघ्र ही युद्ध की स्थिति बन गयी।

कुछ अंग्रेजों को, जो चटगाँव की सीमा के निकट हाथियों का शिकार कर रहे थे, बर्मियों ने पकड़ लिया। एक अंग्रेजी नाव के सामान पर बर्मियों ने चुंगी माँग ली। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए अंग्रेजों ने टेक नाफ (Tek Naaf) के दर्रे और शाहपुरी के द्वीप पर अपनी सैनिक चौकियों स्थापित की। जनवरी 1823 है में बर्मा ने अंग्रेजों से शाहपुरी के द्वीप को खाली करने की मांग की जिसके लिए अंग्रेजों ने इन्कार कर दिया। सितम्बर 1823 ई0 में बर्मियों ने शाहपुरी पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया। बाद में उन्होंने उसे खाली छोड़ दिया किन्तु यह धमकी दी कि यदि अंग्रेजों ने शाहपरी पर पुनः अधिकार किया तो वे ढॉंका और मुर्शिदाबाद को भी जीत लेंगे। इस प्रकार शाहपुरी के छोटे और निर्जन द्वीप पर, जिस पर किसी का भी कानूनी अधिकार न था, बर्मियों और अंग्रेजों में झगड़ा हुआ।

इससे भी अधिक खराब स्थिति उस समय हुई जब बर्मियों ने कछार के शासक गोविन्दचन्द्र को सहायता देकर उसे उसका राज्य वापस दिलवा दिया। गोविन्ददन्द्र को अपना राज्य छोड़कर भागना पड़ा था। पहले वह भागकर बंगाल आया था और उसने अंग्रेजों से सहायता मॉगी थी। जब अंग्रेजों ने उसकी कोई सहायता नहीं की तो उमने बर्मा से सहायता मॉंगी और उसकी सहायता से पुनः कछार का शासक बन गया। लॉर्ड एम्हर्स्ट इस स्थिति से चिन्तित हुआ क्योंकि उसका मानना था कि बर्मी असम से ब्रह्मपुत्र नदी के द्वारा अचानक ही केवल पाँच दिन में अपनी बड़ी से बड़ी सेनाएं बंगाल की सीमाओं तक ला सकते थे। इस कारण लॉर्ड एम्हर्स्ट ने गोविन्दचन्द्र को अपने संरक्षण में ले लिया और एक सेना कछार भेज दी। गोविन्दचन्द्र ने अंग्रेजी संरक्षण को स्वीकार कर लिया, दस हजार रुपये वार्षिक कर देना स्वीकार किया और अपना आन्तरिक शासन अंग्रेजों को सौंप दिया। बर्मा सरकार ने इस घटना का बहुत बुरा माना और एक सेना कछार भेजी जिसका सामना अंग्रेज सैनिकों से हुआ। इसी बीच में शाहपुरी के द्वीप पर पुनः झगड़ा हो गया। बर्मियों ने मॉंग की कि शाहपुरी को तटस्थ घोषित कर दिया जाय परन्तु अंग्रेजों ने इसे स्वीकार नहीं किया। फरवरी 1824 ई0 में बर्मियों ने उस द्वीप पर आक्रमण किया और उसे जीत कर वहाँ वर्मा का झण्डा फहरा दिया। ऐसी स्थिति में  लॉर्ड एम्हर्स्ट ने 24 फरवरी, 1824 ई0 को बर्मा के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध प्रारंभ हुआ जो दो वर्षो तक चलता रहा।

बर्मा के जंगल, पहाड़ और नदियों के कारण अंग्रेजों को आक्रमण करने में बड़ी कठिनाइयाँ कठिनाईयों का सामना करना पड़ा जबकि बर्मियों को सुरक्षा करने में अत्यधिक सुविधा थी। युद्ध का आरम्भ भी ठीक अवसर पर नहीं हुआ था क्योंकि शीघ्र ही वर्षा आरम्भ होने वाली थी। इस कारण इस युद्ध में अंग्रेजों को बहुत कठिनाई हुई। अंग्रेजों ने दो तरफ से सेनाएं भेजीं। एक सेना उत्तर-पूर्व के स्थल मार्ग से भेजी गयी जिसका मुख्य उद्देश्य बर्मा में प्रवेश करना न था बल्कि केवल उन्हीं भागों पर अधिकार करना था जिन्हें बर्मा ने कुछ समय पहले जीता था। दूसरी सेना समुद्री मार्ग से रंगून होकर आगे बढ़ने के लिए मेजर-जनरल सर आर्चीबाल्ड कैम्पल (ैपत ।तबीपइंसक ब्ंउचइमसस) के नेतृत्व में भेजी गयी। बर्मी सेनापति महाबुन्देला ने चटगॉंव के निकट रामू नामक स्थान पर एक अंग्रेजी सेना को परास्त किया परन्तु दूसरी तरफ 11 मई 1824 ई0 को अंग्रेजों ने रंगून जीत लिया। बर्मी रंगून को खाली छोड़कर भाग गये। परन्तु उसी समय वर्षा आरम्भ हो जाने से अंग्रेजों का आगे बढ़ना रुक गया और उनके सैनिकों में बीमारी फैल गयी। बर्मा के राजा ने महाबुन्देला को अपनी सहायता के लिए दक्षिण में बुलाया लेकिन 15 दिसम्बर, 1824 ई0 को उसकी परराजय हुई और उसे पीछे हटना पड़ा। 1825 ई0 में अंग्रेजों ने असम को जीत लिया और कैम्पबैल ने रंगून से आगे बढ़ना शुरू किया। महाबुन्देला ने एक माह तक अंग्रेजों को रोका परन्तु 1 अप्रैल, 1825 ई0 को वह युद्ध में मारा गया जिससे उसकी सेना रात में ही मैदान छोड़कर भाग गयी। कैम्पबैल ने 25 अप्रैल को दक्षिण बर्मा की राजधानी प्रोम (Prome) पर अधिकार कर लिया। कुछ समय पश्चात् सन्धि की वार्ता आरम्भ हुई। यद्यपि साधारण तरीके से युद्ध भी चलता रहा। जब अंग्रेज बर्मा की राजधानी याण्डबू (ल्ंदकंइवव) के केवल 60 मील दूर रह गये तब बर्मियों ने सन्धि का प्रस्ताव किया और 24 फरवरी, 1826 ई0 को याण्ड़बू की सन्धि हो गयी । 

याण्ड़बू की सन्धि की शर्ते -

इस सन्धि के अनुसार

1. बर्मा ने अराकान. तनासरम. येह, तवाय और मर्गी के जिले अंग्रेजों को दे दिये।

2. बर्मा ने असम, कछार और जैन्तिया के राज्यों में हस्तक्षेप न करने का वायदा किया। 

3. मणिपुर के राज्य को स्वतन्त्र मान लिया गया और बर्मा ने वायदा किया कि यदि वहाँ का राजा गम्भीरसिंह वापस आ जायेगा तो वे उसे स्वीकार कर लेंगे। 

4. बर्मा ने युद्ध की क्षतिपूर्ति के रूप में धीरे-धीरे एक करोड़ रुपया देना स्वीकार किया। 

5. दोनों राज्यों ने एक-दूसरे के राज्य में राजदूत भेजना स्वीकार किया। 

6. दोनों राज्यों ने एक व्यापारिक सन्धि करने का वायदा किया। 

7. दोनों राज्यों ने एक-दूसरे के मित्र बने रहने का वायदा किया।

स्पष्ट है कि इस युद्ध से अंग्रेजों को बहुत लाभ हुआ। उन्हें उत्तर-पूर्व में पर्याप्त भूमि प्राप्त हो गयी और मुख्य बर्मा में उनके पैर जम गये जिससे बाद में उन्हें सम्पूर्ण बर्मा को जीतने में सुविधा हुई। परन्तु जिस प्रकार युद्ध लड़ा गया और जिस कारण युद्ध आरम्भ हुआ, उसकी इतिहासकारों ने आलोचना की है।

युद्ध में अंग्रेजों को धन और सैनिकों की हानि हुई। इस युद्ध की योजना ठीक प्रकार नहीं बनायी गयी थी। यदि मद्रास के गवर्नर सर टॉमस मुनरो के द्वारा समय पर पर्याप्त सहायता न भेजी गयी होती तो बहुत हानि होती। जहाँ तक बर्मियों का प्रश्न है, उन्होंने बड़ी बहादुरी से युद्ध किया परन्तु हथियारों और संगठन की दृष्टि से उनका अंग्रेजी सेना से कोई मुकाबला न था। जहाँ तक युद्ध के कारणों का प्रश्न है, एक निष्पक्ष इतिहासकार अवश्य ही यह मत व्यक्त करेगा कि अंग्रेजों द्वारा युद्ध घोषित करने का कोई न्यायिक कारण नहीं था। बर्मा का ढाका, मुर्शिदाबाद आदि को जीतने की धमकी देना बचकाना हरकत था क्योंकि बर्मियों को अंग्रेजों की शक्ति का ज्ञान न था। शाहपुरी के द्वीप को बर्मियों ने तटस्थ घोषित करने की मॉंग की थी परन्तु अंग्रेजों ने उस मांग को ठुकरा दिया था। कछार के मामले में हस्तक्षेप करना अंग्रेजों के लिए अनुचित था क्योंकि पहली बार जब गोविन्दचन्द्र ने उनसे सहायता मॉंगी थी तब उन्होंने इन्कार कर दिया था। बर्मा राज्य की यह शिकायत उचित थी कि अराकानी अंग्रेजी भूमि से उनके राज्य पर आक्रमण करते थे। इस प्रकार अंग्रेजों का मुख्य उद्देश्य केवल साम्राज्य-विस्तार था और इस युद्ध को आरम्भ करने में उनका आधार औचित्यपूर्ण न था। 

इस प्रकार यह निश्चित है कि युद्ध का मुख्य कारण बर्मा का भारत की पूर्वी सीमा पर शक्तिशाली राज्य का स्थापना करने में सफलता प्राप्त कर लेना था। अंग्रेजों ने उस राज्य को शक्ति को तोड़ने और बर्मा की भूमि पर अपने पैर जमाने के लिए यह युद्ध आरम्भ किया। इसी कारण अंग्रेजों ने मुख्यतः बर्मा के निचले (दक्षिणी) माग पर आक्रमण किया और उसमें सफलता प्राप्त की।

बर्मा का द्वितीय युद्ध (1852 ई0) 

1826 ई0 की याण्डबू की सन्धि से बर्मा और अंग्रेजों के सम्बन्धों की कहानी समाप्त नहीं हुई। यह कहानी उस समय तक चलती रही जब तक कि दो और युद्धों के पश्चात् सम्पूर्ण बर्मा की विजय अंग्रेजों द्वारा पूरी नहीं हो गयी। याण्डबू की सन्धि की शर्तों को मानने की इच्छा बर्मा-दरबार की न थी। नवीन राजा थारावदी (Tharrawoddy, 1837-45 ई0) ने उस सन्धि को मानने से इन्कार कर दिया। उसने कहा- “अंग्रेजों ने मेरे बड़े भाई को पराजित किया था, मुझे नहीं। मैं याण्डबू को सन्धि को मानने के लिए बाध्य नहीं हूँ क्योंकि मैंने उसे स्वीकार नहीं किया था। मैं अंग्रेज रेजीडे़ण्ट से व्यक्तिगत रूप से मिलूॅंगा, अंग्रेज रेजीडेण्ट की हैसियत से कभी नहीं। वे कब इस बात को समझेंगे कि मैं केवल इंगलैण्ड से भेजे हुए शाही राजदूत को ही स्वीकार कर सकता हूँ‘‘?

एशिया के राज्यों में यूरोपियन जातियों के प्रवेश को सभी सन्देह और घृणा की भावना से देखते थे। कोई भी राजा अपने यहॉं अंग्रेज रेजीडेण्ट को रखना पसन्द नहीं करता था। यूरोपियन जातियों के प्रति इस घृणा की भावना का प्रमाण चीन के राजा द्वारा बर्मा के राजा को 1836 ई0 में लिखे गये उस पत्र से मिलता हैं जिसमें चीन ने बर्मा को बताया - “नगर में अंग्रेजों को रहने देना बुद्धिमानी नहीं है। वे पीपल के वृक्ष की तरह बढ़ते हैं।“ बर्मा में भी अंग्रेजों के प्रति यही घृणा की भावना थी जिसके कारण वे अंग्रेज रेजीडेण्ट की कोई परवाह नहीं करते थे, अपितु कभी-कभी उसका अपमान तक कर दिया करते थे। इसी कारण बर्मा-दरबार में कोई अंग्रेज न रहा। इसके अतिरिक्त यह समाचार भी फैलने लगा था कि अंग्रेज व्यापारियों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है और बर्मा का राजा अंग्रेजों को निकालने के लिए चीन, फ्रान्स और स्याम के राजा से सहायता लेने का प्रयत्न कर रहा है। इस कारण बर्मा और अंग्रेजों में सन्देह व घृणा का वातावरण फैलने लगा।

लेकिन द्वितीय आंग्ल-बर्मा युद्ध का मुख्य कारण बर्मियों और अंग्रेजों की एक-दूसरे के प्रति घृणा और सन्देह की भावना या अंग्रेज व्यापारियों की असुविधाएँ न थीं। ये तो युद्ध का बहाना मात्र थे। युद्ध का मुख्य कारण तो यूरोपियन जातियों की साम्राज्यवाद की भावना थी। उस समय यूरोपियन जातियों को अपनी सभ्यता और शासन की श्रेष्ठता में विश्वास था तथा वे पूर्वी सभ्यता, कानून और शासन को हीन एवं घृणा की दृष्टि से देखते थे। इस कारण वे अपने विचार, अपनी सभ्यता और अपने शासन को पूर्वी देशों में फैलाना अपना अधिकार मानते थे। वे पहले व्यापार या धर्म-विस्तार के आधार पर पूर्वी देशों में प्रवेश करते थे और जब उन्हें उन देशों का शासन व्यवहार पसन्द नहीं आता था जैसा कि हमेशा ही होता था, तब वे तलवार के बल पर वह अपना शासन स्थापित करते थे। उनका कहना था कि वे जनसाधारण को अत्याचारी शासको से बचाने के लिए अपना राज्य स्थापित कर रहे हैं, इसी कारण वह एक माननीय कार्य करते हैं। इसी आधार पर उसके साम्राज्य का विस्तार होता था। परन्तु युरोपियन जातियों का यह मानवता का आधार पूर्णतः अनुचित और अन्यायपूर्ण था। यह तो केवल साम्राज्य विस्तार का बहाना मात्र था क्योकि पूर्वी और पश्चिमी सभ्यता का अन्तर यह निश्चय नहीं कर सकता था कि पश्चिमी सभ्यता ही श्रेष्ठ है। इसमें सन्देह नहीं है कि शासन की दृष्टि से युरोपियन जातियों का शासन पूर्वी राज्यों के शासन की तुलना में श्रेष्ठ था परन्तु विदेशी शासन के अपने दोष भी थे। इसके अतिरिक्त पूर्वी देशों की जनता पर जबरदस्ती अपने शासन को लादने का अधिकार युरोपियन जातियों को नही था। वास्तव में सभी युरोपियन जातियों का मूल उद्देश्य पूर्वी राज्यो की दुर्बलता का लाभ उठाकर अपने साम्राज्य का अधिकाधिक विस्तार करना था। बर्मा के प्रति भी अंग्रेजों की नीति का मुख्य आधार साम्राज्यवाद की यही भावना थी।

बर्मा और अंग्रेजों के सम्बन्ध दिन-प्रतिदिन खराब होते गये। मुख्य झगड़ा व्यापार का था और अंग्रेज व्यापारियों को यह शिकायत थी कि बर्मा राज्य याण्डबू की सन्धि द्वारा निश्चित हुए कर से अधिक व्यापारिक कर लेता है। जिस समय लॉर्ड ड़लहौजी भारत में गवर्नर-जनरल बनकर आया उस समय अंगेज व्यापारियों को सुअवसर प्राप्त हुआ क्योंकि डलहौजी को साम्राज्यवादी और पूर्व में अंग्रेजो के सम्मान की सुरक्षा की नीति उनके हितों की सुरक्षा करने में समर्थ थी। रंगून के अंग्रेज निवासियों ने लॉर्ड ड़लहौजी के पास एक प्रार्थना-पत्र भेजा जिसमें उन्होंने लिखा था- ‘‘उन्होंने बहुत लम्बे समय तक बर्मा सरकार के अत्याचार और अन्याय को सहन किया है, और अब उससे उनको बचाने का कर्तव्य गवर्नर-जनरल का है।‘‘

लॉर्ड डलहौजी के पास जब यह प्रार्थना-पत्र पहुॅंचा तब उसने तुरन्त निर्णय कर लिया कि अंग्रेज नागरिक और व्यापारियों का यह न्यायपूर्ण अधिकार है कि वे अपनी सरकार से अन्याय के विरुद्ध रक्षा की मॉंग करें और इस कारण बर्मा-दरबार से तुरन्त क्षतिपूति की मॉंग की जानी चाहिए। अंग्रेजो ने सबसे पहले शेपर्ड और लुइस कम्पनी के 9948 रुपये की मॉंग बर्मा-दरबार से की और क्योकि बर्मा-दरबार में कोई अंग्रेज रेजीडे़ण्ट न था, इस कारण नौ-सेना के प्रधान लेम्बर्ट (Lambert) को आदेश दिया गया कि वह अपने समस्त जहाजों और तत्समय उपलब्ध अन्य युद्धपोतों को लेकर रंगून के लिए चल दे। लेम्बर्ट ने रंगून पहुंचकर बर्मा के गवर्नर पर अत्याचार का आरोप लगाया और एक पत्र बर्मा के राजा को और दूसरा पत्र रंगून के गवर्नर को लिखा। उसने दोनों पत्रों का उत्तर पाँच सप्ताह के अन्दर मॉंगा। बर्मा के राजा और गवर्नर दोनों का उत्तर यथासमय प्राप्त हुआ। गवर्नर ने लिखा कि सम्पूर्ण मामले की पूरी तरह से जांच की जायेगी किन्तु तभी रंगून का गवर्नर बदल गया। नये गवर्नर से मिलने के लिए एक अंग्रेज दूतमण्डल गया जिससे गवर्नर की भेंट न हो सकी। अंग्रेजों ने इसे अपना अपमान कहा जबकि बाद में गवर्नर ने बताया कि जब अंग्रेज उससे मिलने पहॅुंचे तब वे शराब पिये हए थे और वह स्वयं सो रहा था। इस कारण अंग्रेजों को वापस लौटना पड़ा था। लेम्बर्ट ने इस बात को स्वीकार नहीं किया। उसने गवर्नर से क्षमा मांगने और क्षतिपूर्ति के धन को तुरन्त देने की मांग की। कुछ समय पश्चात् धन की मांग बढ़ा दी गयी। उसी अवसर पर अंग्रेजों ने बर्मा के शाही जहाज-पीले जहाज (Yellow Ship)-को पकड़ लिया। इससे झगड़ा और बढ़ गया। अन्ततोगत्वा अंग्रेजों ने रंगून के गवर्नर को हटाने, बर्मा के राजा द्वारा क्षमा मॉंगने और अप्रैल 1852 ई0 तक एक लाख पाउण्ड धनराशि देने की मांग की। इस बीच डलहौजी ने युद्ध की पूरी तैयारी कर ली। जब बर्मा-दरबार से 1 अप्रैल तक कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ तो सेनापति गोडविन (Godwin) के नेतृत्व में एक बड़ी सेना रंगून भेज दी गयी।

अंग्रेजों ने रंगून, प्रोम और पेंगू पर अधिकार कर लिया। अक्टूबर 1852 ई0 तक सम्पूर्ण निचले (दक्षिणी) बर्मा पर अधिकार कर लिया गया। ऊपरी (उत्तरी) बर्मा पर अधिकार करने की लॉर्ड डलहौजी की इच्छा भी न थी। बर्मा-दरबार ने सन्धि करने से इन्कार कर दिया। इस कारण बिना सन्धि के ही 20 दिसम्बर 1852 ई0 को एक घोषणा द्वारा पेगू अर्थात् सम्पूर्ण निचले बर्मा को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। बर्मा के निचले भाग पर अधिकार करने से अंग्रेजों को न केवल व्यापारिक लाभ हुआ वरन् एक विस्तृत और उपजाऊ भू-क्षेत्र भी प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त बंगाल की खाड़ी में चटगाँव से लेकर सिंगापुर तक सम्पूर्ण समुद्र-तट भी अंग्रेजों को प्राप्त हुआ जिसके कारण न केवल बर्मा राज्य समुद्रतटीय सुविधाएँ पाने हेतु अंग्रेजों पर निर्भर हो गया बल्कि अंग्रेजों को अपने पूर्वी साम्राज्य की सुरक्षा में भी सहायता मिली। इस प्रकार निचले बर्मा की विजय अंग्रेजों के समस्त हितों की रक्षा और उनकी वृद्धि करने में सहायक सिद्ध हुई। 

सभी भारतीय इतिहासकारों ने द्वितीय आंग्ल-बर्मा युद्ध की आलोचना की है। उनका कहना है कि वह एक जबरदस्ती थी और अंग्रेजों का युद्ध करना अनुचित था। जो आरोप प्रारम्भ में अंग्रेज व्यापारियों ने बर्मा-दरबार पर लगाये थे उनकी सत्यता के प्रमाण पाने का लॉर्ड डलहौजी ने कोई प्रयत्न नहीं किया था। इसके अतिरिक्त, 1851 ई0 से पहले ये आरोप अंग्रेज व्यापारियों ने भारत-सरकार पर कभी नहीं लगाये थे। इन आरोपों का लॉर्ड डलहौजी के सामने प्रस्तुत करना यह सिद्ध करता है कि अंग्रेज व्यापारी ड़लहौजी की साम्राज्यवादी भावना से लाभ उठाना चाहते थे। अन्त में, यह विचारणीय है कि यदि अंग्रेज व्यापारी बर्मा-सरकार की नीति से अप्रसन्न थे तो वे बर्मा को छोड़ क्यों न गये? बर्मा-सरकार स्वतन्त्र थी, उस पर दबाव डलवाकर अपने. स्वार्थ की रक्षा करने का उन्हें क्या अधिकार था?

तत्पश्चात् जिस प्रकार लॉर्ड डलहौजी ने धन की मॉंग की, लेम्बर्ट की नियुक्ति की, राजा से क्षमा की माँग की और युद्ध की तैयारियाँ की तथा बिना सन्धि के पेंगू को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित कर लिया, उसे न्यायपूर्ण स्वीकार नहीं किया जा सकता। जबकि ड़लहौजी के समर्थकों का कहना है कि डलहौजी युद्ध नहीं चाहता था और जो माँगें उसने बर्मा-दरबार से की वह बर्मा के राजा को ड़राने और बिना यद्ध के समझौता हो जाने के लिए की थीं। लेकिन इस प्रकार तो डलहौजी की स्थिति उस डाकू के समान हो जाती है जो किसी व्यक्ति से उसकी गर्दन पर तलवार रखकर उससे अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति दे देने के लिए कहे और जब वह न दे तो उसे कत्ल कर दे और बाद में यह दुःख प्रकट करे  कि - “ईश्वर जानता है कि मुझे यह कार्य (कत्ल) करने से कितना दुःख हुआ लेकिन ऐसी परिस्थिति मैंने स्वयं नहीं बनायी थी।“ लॉर्ड ड़लहौजी के व्यवहार की तुलना कैसर (Kaiser), हिटलर (Hitler) और मुसोलिनी (Mussolini) के व्यवहार से की जा सकती है। वे युद्ध न करते यदि उनकी समस्त मॉगें स्वीकार कर ली जातीं। ड़लहौजी ने जो मांगें प्रस्तुत की थीं उन्हें कोई भी स्वतन्त्र राज्य स्वीकार नहीं कर सकता था। अतएव ऐसी मॉंगों को रखने का कारण युद्ध को रोकना नहीं बल्कि युद्ध को निमन्त्रण देना था। इस प्रकार यह निश्चित है कि लॉर्ड डलहौजी युद्ध के लिए तत्पर था और इसके लिए उचित अवसर की तलाश में था। उसने स्वयं अपनी डायरी में लिखा था - वह गर्म मौसम के निकट होने के कारण आवा से युद्ध आरम्भ नहीं करना चाहता था। वह 1852 ई0 के ठण्डे मौसम के शुरू में युद्ध आरम्भ करेगा। यद्यपि इस बात का कोई निश्चित प्रमाण नहीं है कि लॉर्ड ड़लहौजी युद्ध चाहता था परन्तु फिर भी जो व्यक्ति समस्त परिस्थितियों पर विचार करेगा वह इसी निश्चय पर पहुंचेगा कि डलहौजी ने सम्पूर्ण योजना का निर्माण पहले ही कर लिया था। उसका मूल उद्देश्य बर्मा में अंग्रेजी सत्ता की स्थापना करना था जिससे वह अमेरिका और फ्रान्स के प्रभाव को वहाँ बढ़ने से रोक सके। वह यह भी जानता था कि इस उद्देश्य की पूर्ति बिना युद्ध के नहीं हो सकती। इसी कारण उसने इस कार्य के लिए नौसेनापति लेम्बर्ट की नियुक्ति की और लेम्बर्ट के कार्यों को अनुचित मानते हुए भी वह उसका समर्थन करता रहा। जॉन लॉरेन्स John Lawrence) ने जब लॉर्ड डलहौजी के सेक्रेटरी को लिखा : “जब तुम शान्ति चाहते थे तो तुमने एक नौ-सेनापति को बर्मा क्यों भेजा, तो डलहौजी ने उत्तर दिया : “भूल हो जाने के बाद बुद्धिमान बनना सरल है। यदि मैं भविष्य के बारे में जान सकता तो मैं लेम्बर्ट को वार्तालाप के लिए नियुक्त न करता।“ परन्तु डलहौजी का यह उत्तर सन्तोषजनक नहीं माना जा सकता क्योंकि यह स्पष्ट है कि वह निरन्तर लेम्बर्ट का समर्थन करता रहा था।

इसके अतिरिक्त, यदि लेम्बर्ट की नियुक्ति न भी की गयी होती तो भी युद्ध आवश्यक था क्योंकि लार्ड़ डलहौजी की साम्राज्यवादी नीति और पूर्व में अंग्रेजी सम्मान की सुरक्षा करने की भावना युद्ध का मूल कारण थी। 24 अप्रैल, 1852 ई0 को उसने लिखा था : “यह प्रश्न मात्र अपमान का नहीं है बल्कि सम्मान की गम्भीर क्षति है। सीधा सा सवाल यह है कि क्या सम्पूर्ण एशिया की आंखों के सामने इंगलैण्ड आवा-दरबार के सामने झुक जाय। डलहौजी का विचार था कि एक बार जो निश्चय उसने कर लिया उससे हटना अंग्रेजी प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचाना था चाहे वह निर्णय गलत ही क्यों न लिया गया हो। उसका यह भी विचार था कि यदि एक बार अंग्रेज किसी पूर्वी देश में जायें तो फिर वहाँ से उनका हट जाना अंग्रेजी प्रतिष्ठा के विरुद्ध होगा। इसके अतिरिक्त, वह सभी पूर्वी राज्यों के नरेशों के सम्मान और बद्धि के बारे में अत्यन्त हीन विचार रखता था। जब डायरेक्टरों की सभा के सभापति ने लिखा कि “उसने आवा-दरबार को 18 फरवरी को बड़ा कठोर पत्र लिखा था, तो डलहौजी ने उत्तर दियाः “सभ्य देशों की भांति पूर्वी देशों में कूटनीतिक भाषा का प्रयोग सफल नहीं हो सकता और भारत अथवा बर्मा के किसी राज्य में उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा जहाँ केवल आक्रामक व्यक्ति की भाषा को ही समझा जाता है।“

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि डलहौजी की नीति का मुख्य लक्ष्य पूर्व के प्रत्येक देश में अंग्रेजों के सम्मान की सुरक्षा करना था चाहे उसके लिए उसे युद्ध ही करना पड़े। उसके अनुसार, “देश पहले, ठीक हो या गलत“ (My Country, right or wrong) ही अंग्रेजी सम्मान की उचित व्याख्या थी। इसी कारण सभी भारतीय और पूर्वी देशों के नरेशों के प्रति उसका व्यवहार अत्यन्त कठोर और उदण्डतापूर्ण था।

कुछ अंग्रेज विद्वानों ने भी लॉर्ड डलहौजी के व्यवहार को अनुचित बताया है। कॉब्डेन (Cobden) ने अपने एक लेख “भारत में युद्धों के कारण, बर्मा-युद्ध के कारण“ (How Wars Got Up in India, the Origin of Bumese War) में बर्मा के युद्ध की तीव्र आलोचना की थी। आर्नोल्ड (Arnold) ने डलहौजी के बर्मा-युद्ध के लक्ष्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है - “अमेरिका और फ्रान्स मुख्यतः अमेरिका की पूर्वी समुद्र में कार्रवाइयाँ तथा अराकान, मोलमीन और इरावदी नदी के मुहाने की सुरक्षा डलहौजी के लिए चिन्ता का विषय था।“ इस प्रकार निश्चय ही बर्मा के युद्ध का मूल कारण डलहौजी की साम्राज्यवादी भावना तथा अंग्रेजी सम्मान और हितों की सुरक्षा करना था। अन्य कारण तो केवल बहाना मात्र थे।

बर्मा का तृतीय युद्ध (1885-86 ई0) -

पेंगू पर अंग्रेजों के अधिकार के पश्चात् बर्मा में शान्ति स्थापित हो गयी और धीरे-धीरे बर्मा के सम्बन्ध अंग्रेजों से सुधरने लगे। परन्तु अंग्रेज विभिन्न सन्धियों द्वारा अपने अधिकारों में वृद्धि करते गये। 1862 ई0 में हुई एक सन्धि के अनुसार अंग्रेजों को बर्मा की सीमाओं में रहने तथा बर्मा की सीमाओं से होकर चीन से व्यापार करने का अधिकार प्राप्त हो गया। 1867 ई0 में एक अन्य सन्धि के द्वारा बर्मा ने तेल, लकड़ी और कीमती पत्थर के अतिरिक्त अन्य सभी वस्तुओं से अपना एकाधिकार छोड़ दिया। अंग्रेजों को बर्मा की सीमाओं में एक अंग्रेज रेजीडेण्ट रखने का अधिकार मिल गया और उसे अंग्रेज नागरिकों की देखभाल के समस्त अधिकार दिये गये। इसके उपरान्त बर्मा को धीरे-धीरे विभिन्न वस्तुओं से चुंगी हटाने, विभिन्न एकाधिकारों को समाप्त करने, भामो (Bhamo) में राजनीतिक प्रतिनिधि रखने, युन्नान (Yunnan) और रंगून के बीच जल-यात्रा करने की सुविधा देने आदि के लिए बाध्य किया गया। इस प्रकार, अंग्रेज धीरे-धीरे बर्मा की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति को दुर्बल करते गये। अंग्रेजों का इरादा रंगून से प्रोम (Prome) तक एक रेलवे लाइन बनाने का भी था जिससे व्यापारिक वस्तुओं और आवश्यकता होने पर सैनिकों के आवागमन में सुविधा हो सके। परन्तु अंग्रेज इन अधिकारों की वृद्धि से भी सन्तुष्ट न रह सके और कई बार अंग्रेज व्यापारियों और शासन-अधिकारियों ने उत्तरी बर्मा को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित करने की मांग की।

इस प्रकार यह निश्चित है कि यद्यपि बर्मा के राजा ने अपनी दुर्बलता के कारण अंग्रेजों की समस्त शर्तों को स्वीकार किया था, फिर भी अंग्रेज साम्राज्य विस्तार की लालसा को न छोड़ सके थे। दूसरी तरफ बर्मा का राजा भी अग्रेजों से सन्तुष्ट नहीं था। इस प्रकार अंग्रेज तो युद्ध के लिए तत्पर थे ही, बर्मा-दरबार ने भी झगडे के कुछ कारण उपस्थित किये। दो युद्धों में पराजित होने के बावजूद भी बर्मीवासियों में अहंकार था। ऐसी स्थिति में दोनों पक्षों के बीच झगड़े प्रारंभ हो गये। अन्त में ‘जूते‘ का प्रश्न उपस्थित हो गया। बर्मा की परम्परा थी कि बर्मा के राजा के सामने जूते उतारकर उपस्थित होना पड़ता था लेकिन अग्रेंज इसे अपना अपमान मानते थे और 1876 ई0 में गवर्नर-जनरल ने इस परम्परा का पालन न करने के आदेश दे दिये जबकि बर्मा के राजा ने स्पष्ट कहा कि वह “जूते के लिए अवश्य युद्ध करेगा, यद्यपि उसने पेंगू के लिए युद्ध नहीं किया था।‘‘ इस झगड़े के कारण अंग्रेज प्रतिनिधि ने बर्मा के राजा से मिलना बन्द कर दिया।

इसी समय बर्मा के राजा ने अन्य युरोपीय राज्यों से सम्बन्ध स्थापित करने के प्रयत्न किये। 1873 ई0 में बर्मा ने फ्रान्स से एक व्यापारिक सन्धि की किन्तु जब उस सन्धि में यह शर्त रखी गयी कि फ्रान्सीसी अधिकारी बर्मी सैनिको को शिक्षित करेंगे तो अंग्रेजों ने हस्तक्षेप किया और यह सन्धि तोड़ दी गयी। कुछ इसी प्रकार की सन्धि बर्मा ने इटली, फारस और रूस से भी करने का प्रयत्न किया लेकिन सफलता नही मिली। इसी बीच 1878 ई0 में राजा भिण्डन की मृत्यु हो गयी और उसके बाद बीस वर्षीय नवयुवक थीबा (Thibaw) बर्मा का राजा बना। उस अवसर पर लॉर्ड लिटन के नेतृत्व में अग्रगामी नीति (Forward policy) का पालन किया जा रहा था। इस कारण अंग्रेजों ने नये राजा से अन्य सुविधाओं की मॉंग की और उनमें से अधिकांश मॉंगें स्वीकार कर ली गयी परन्तु जूते की परम्परा को त्यागने से नये राजा ने भी इन्कार कर दिया।

1879 ई0 में बर्मा राजपरिवार के अनेक व्यक्तियों के कत्ल पर अंग्रेज रेजीड़ेण्ट ने लार्ड लिटन के आदेशानुसार बर्मा के राजा को एक कठोर पत्र लिखा लेकिन बर्मा दरबार ने इसकी कोई परवाह नही की। इस प्रकार बर्मा दरबार से अंग्रेजों के सम्बन्ध खराब होते गये। उस समय तक लार्ड लिटन की अग्रगामी नीति अफगानिस्तान में असफल हो चुकी थी। बर्मा के राजा के व्यापारिक आधिपत्य से अंग्रेज अप्रसन्न थे। राजा थीबा ने अपने पिता की ही भॉंति अन्य युरोपियन राज्यों से सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न किया और जनवरी 1885 ई0 में बर्मा और फ्रान्स में एक व्यापारिक सन्धि हो गयी। इस सन्धि से अंग्रेज सशंकित हो गये और वे बर्दाश्त नहीं कर सके कि बर्मा के व्यापार में फ्रान्स भी उनका साझीदार बन जाये। इसी कारण अंग्रेज व्यापारी वर्ग ने ब्रिटिश सरकार पर बर्मा को जीतने के लिए दबाव डालना आरंभ कर दिया। भारत का गवर्नर जनरल लार्ड़ डुरिन प्रारंभ से ही सम्पूर्ण बर्मा को जीतने के लिए तत्पर था क्योंकि वह किसी भी हालत में बर्मा में फ्रान्स के प्रभाव को बढ़ने नहीं देना चाहता था।

बर्मा युद्ध का आरम्भ एक व्यापारिक कम्पनी “बम्बई-बर्मा व्यापारिक कॉरपोरेशन“ (Bombay-Burma Trading Corporation) के झगड़े के कारण हुआ। इस व्यापारिक कम्पनी को जंगलों का ठेका दिया गया था। बर्मा की सरकार ने आरोप लगाया कि इस कम्पनी ने बेईमानी करके बर्मा-सरकार का 10 लाख रुपये का टैक्स चुराया है। कम्पनी की यह बेईमानी सिद्ध भी हो गयी। पहले तो बर्मा- सरकार का इरादा इस कम्पनी के ठेके को समाप्त करने का था परन्तु बाद में उस पर केवल 23.59,066 रुपये का जुर्माना मात्र किया गया जिसे कम्पनी को चार बराबर किस्तों में देना था। कम्पनी के मालिकों ने भारत की अंग्रेज सरकार से हस्तक्षेप की मांग की जिसके कारण भारतीय ब्रिटिश सरकार ने इस मामले में हस्तक्षेप किया। अंग्रेज कमिश्नर ने बर्मा-दरबार से इस जुर्माने को रद्द करने और इस मामले को भारत के गवर्नर-जनरल के एक प्रतिनिधि को सौंप देने की मॉंग की लेकिन बर्मा-सरकार ने इसको मानने से इन्कार कर दिया। पुनः 22 अक्टूबर 1885 ई0 को बर्मा-दरबार से अंग्रेजों द्वारा निम्नलिखित माँगें की गयीं - 

1. बर्मा-दरबार एक अंग्रेज प्रतिनिधि को अपने दरबार में आमन्त्रित करे और उसकी सलाह से कम्पनी के झगडे का निर्णय करे। 

2. अंग्रेज प्रतिनिधि के पहुॅंचने तक कम्पनी के विरुद्ध कोई कार्रवाई न की जाये। 

3. भविष्य में एक अंग्रेज प्रतिनिधि सर्वदा बर्मा-दरबार में रहे। 

4. बर्मा विदेशों से अपने सम्बन्ध भारत के गवर्नर-जनरल की सलाह से स्थापित करे। 

5. अंग्रेजों को चीन से व्यापार करने की पूर्ण सुविधा दी जाये।

यह भी कहा गया कि पहली तीनों मॉंगें बिना किसी विवाद के 10 नवम्बर 1885 ई0 तक स्वीकार कर ली जानी चाहिए।

9 नवम्बर को बर्मा-दरबार ने उत्तर भेज दिया जिसमें कहा गया कि यदि अंग्रेज कम्पनी बर्मा के राजा से कोई प्रार्थना करेगी तो उस पर अवश्य विचार किया जायेगा। बर्मा ने तीसरी और पॉंचवीं मांग को स्वीकार कर लिया। चौथी मांग के विषय में बर्मा ने कहा कि इसका निर्णय फ्रान्स, जर्मनी और इटली के राज्यों को करने दिया जाय क्योंकि यह राज्य बर्मा और इंगलैण्ड दोनों के ही मित्र-राज्य हैं।

दूसरी तरफ लॉर्ड डफरिन ने अपनी मॉंगें भेजने के पश्चात युद्ध की तैयारियां आरम्भ कर दी थी और जैसे ही बर्मा-दरबार का उत्तर उसे मिला, उसने अंग्रेज सेनाओं को बर्मा की राजधानी माण्डले की ओर बढ़ने के आदेश दे दिये। राजा थीबा ने भी युद्ध की घोषणा कर दी।

इस बार युद्ध अधिक नहीं हुआ और अंग्रेजों ने सरलता से नवम्बर 1885 ई0 में माण्डले पर अधिकार कर लिया और राजा थीबा ने आत्मसमर्पण कर दिया। उसे आधुनिक महाराष्ट्र में रत्नागिरि नामक स्थान पर राजनीतिक बन्दी के रूप में रखा गया। 1 जनवरी, 1886 ई0 को सम्पूर्ण बर्मा को ब्रिटिश भारतीय राज्य में सम्मिलित कर लेने की घोषणा कर दी गई, यद्यपि विजित प्रदेशों को नियंत्रण में लाने में पॉच वर्ष का समय लगा। इस प्रकार बर्मा भारत का एक प्रान्त बन गया।

अंग्रेजों द्वारा बर्मा पर अधिकार नंगा साम्राज्यवाद था। राजा थीबा ने अंग्रेजों पर कुछ अत्याचार अवश्य किये थे और फ्रान्स से सहायता लेने का भी प्रयत्न किया था परन्तु जैसा कि रॉबर्टस ने लिखा है - “यह कहना पाखण्ड मात्र होगा कि राजा का अत्याचार और अंग्रेजों के व्यापार में रुकावट डालने का उसका प्रयत्न उसके पतन के लिए पर्याप्त था।

बर्मा के प्रति अंग्रेजों के व्यवहार का मूल आधार अंग्रेजों की श्रेष्ठता और अपने लाभ की भावना थी। सर जेम्स स्टीफन (Sir James Stephen) ने लिखा था कि अंग्रेज अफगानिस्तान, भारत या पूर्व के अन्य राज्यों को वह स्थान नहीं दे सकते जो पश्चिमी यूरोप के सम्य राज्य को प्राप्त है। वह लिखता है - उनकी स्थिति निस्सन्देह निम्न हैं। उनकी मुख्य निम्नता यही है कि हम उन्हें ऐसी नीति का पालन नहीं करने दे सकते जिससे हमें कोई खतरा हो। यही वह आधार है जिस पर हम ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अन्तर्गत सभी राज्यों से व्यवहार करते हैं। सिन्धिया, काबुल का अमीर, होल्कर, निजाम आदि सभी के साथ हमारे व्यवहार का मूल आधार यही है। ये व्यवहार इस आधार पर निश्चित होते हैं कि हम बहुत अधिक शक्तिशाली और सभ्य हैं, जबकि हमारी तुलना में वे दुर्बल और अर्द्ध-बर्बर हैं। स्टीफन के ये शब्द बहुत ही स्पष्ट हैं और 19वीं सदी के यूरोपीय साम्राज्यवाद के आधार को स्पष्ट करते हैं। यूरोपीय जातियाँ अपनी शक्ति और सभ्यता की श्रेष्ठता के आधार पर अपने साम्राज्य का विस्तार करना अपना अधिकार समझती थीं। भारत, बर्मा, अफगानिस्तान तथा एशिया और अफ्रीका के देशों में यूरोपीय साम्राज्यवाद के विस्तार का मूल आधार यही था। ऐसी स्थिति में यह सोचना कि उनका व्यवहार उचित था या अनुचित, निरर्थक है।

अन्ततः 1936 ई0 में जाकर बर्मा भारत से अलग हुआ तत्पश्चात उसपर अंग्रेजों ने उपनिवेश की भॉति शासन किया। 1948 ई0 में बर्मा ने एक गणतन्त्र के रुप में स्वतंत्रता अर्जित की।


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