window.location = "http://www.yoururl.com"; Indian Renaissance: Reforms and Revivals | भारतीय पुनर्जागरण: सुधार और पुनरुत्थान

Indian Renaissance: Reforms and Revivals | भारतीय पुनर्जागरण: सुधार और पुनरुत्थान

 


पुनर्जागरण क्या है -

18वीं शताब्दी के अन्त तक भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ें जम चुकी थीं। राजनीतिक सत्ता की स्थापना के साथ-साथ पाश्चात्य संस्कृति एवं विचारधारा भारतीयजनजीवन को प्रभावित करने लगी थी। भारतीय संस्कृति पतन के गर्त में पड़ी सिसक रही थी और उसकी नव-सृजन शक्ति लुप्तप्राय हो चुकी थी। भारत के लिए यह एक चिन्ताजनक सांस्कृतिक आक्रमण एवं संकट का समय था। भारतीय जनता के लिए यह दुर्भाग्य का विषय था कि राजनीतिक पराजय अब धीरे-धीरे धार्मिक पराजय में परिणत होती जा रही थी। ऐसे निराशाजनक एवं अन्धकार से परिपूर्ण वातावरण में कुछ ऐसे भारतीयों का आविर्भाव हुआ जो इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यदि देश की काया पर से निराशा की सड़ी-गली केंचुली उतार फेंकनी है, तो हिन्दूधर्म के सिद्धान्तों में और  हिन्दुओं की सामाजिक लोक परम्पराओं में मौलिक परिवर्तन की आवश्यकता है। ऐसे में भारत में अनेक महापुरुषों का अभिर्भाव हुआ जिनमें राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे महापुरुषों ने धार्मिक और सामाजिक आन्दोलन चलाकर सोते हुए भारतीयों को जगाने का प्रयास किया।

19वीं शताब्दी में होने वाले भारतीय पुनर्जागरण और इसके अन्तर्गत होने वाले धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलन का भारत के इतिहास में विशेष स्थान है। इसके बहुमखी स्वरूप और व्यापकता की दृष्टि से इस आंदोलन को संघर्षपूर्ण आधुनिक इतिहास में ही एक महत्त्वपूर्ण घटना माना जा सकता है। इस आंदोलन ने भारत की तात्कालिक जड़ता को समाप्त किया और देश के जन-जीवन को झकझोर दिया। इसने जहाँ एक ओर धार्मिक तथा सामाजिक सुधारों का आह्वान किया वहीं दूसरी ओर इसने भारत के अतीत को उजागर कर भारतवासियों के मन में आत्मसम्मान और आत्मगौरव की भावना जगाने की कोशिश की। धार्मिक उपदेशों के साथ-साथ आंदोलन के नेताओं ने स्वतंत्रता और समानता का भी उपदेश दिया। भारत के समसामयिक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इस स्वतंत्रता का अर्थ मात्र बौद्धिक चिंतन की स्वतंत्रता से ही नहीं, बल्कि असमानता, शोषण और अत्याचार से मुक्ति से भी था। इस दृष्टि से यह आंदोलन इतिहास की एक विडंबना और आधुनिक युग का एक बड़ा विरोधाभास (पैराडाक्स) था। यह ठीक है कि इस आंदोलन की शुरूआत आधुनिक पश्चिमी संस्कृति के संपर्क से हुई थी, लेकिन अंततः इसने पश्चिमी विश्व की ही एक बड़ी विरासत के विनाश का मार्ग प्रशस्त किया । यह विरासत थी भारत में ब्रिटेन का साम्राज्यवादी शोषण और उसके विनाश का मार्ग था भारत का मुक्ति संग्राम। 

औरंगजेब की मत्यु के बाद भारत का प्रशासनिक ढाँचा चरमराने लगा था। अंग्रेजों ने इसे कमज़ोर और अंततः ध्वस्त कर दिया । जैसे-जैसे देश पर अंग्रेजी प्रमत्व बढ़ा, शोषण की गति तेज होती गई और देश का आर्थिक आधार हिलने लगा। इसका भारत के सामाजिक जीवन पर घातक प्रभाव पड़ा। नए शासन में लोककल्याणकारी तत्त्वों का अभाव था, अतः देश की स्थिति सुधारने के लिए कोई प्रयत्न नहीं हुआ। ऐसी हालत में आर्थिक विपन्नता के साथ सामाजिक कुरीतियाँ, भेदभाव एवं धामिक अंधविश्वास बढ़ते गए। परिणाम यह हुआ कि 18वीं शताब्दी के समाप्त होते होते भारत दरिद्रता तथा पिछड़ेपन की अंतिम सीमा तक पहुॅंच गया।

लेकिन ऐसी विषम परिस्थितियों में भी कुछ ऐसी ऐतिहासिक शक्तियों सक्रिय थी जिनसे भविष्य में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आने वाले थे। ये शक्तियाँ दो प्रकार थीं। पहली शक्ति पश्चिम की आधुनिक संस्कृति के भारत पर प्रभाव से अवतरित हुई। दूसरी शक्ति का जन्म इस संपर्क के खिलाफ भारतीय जनता की प्रतिक्रिया से हुआ। बहुत हद तक इन दोनों शक्तियों के सम्मिलित प्रभाव से 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में एक ऐसे आंदोलन का श्रीगणेश हुआ और संपूर्ण भारत में एक ऐसी जागृति आ गई जिसे कुछ विद्वानों ने भारतीय पुनर्जागरण (Indian Renaissance) के नाम से पुकारा है। जिस प्रकार 16वीं शताब्दी में यूरोप में होने वाले पुनर्जागरण ने यूरोप के धर्म, समाज, साहित्य और राजनीतिक जीवन को गंभीरता से प्रभावित किया उसी प्रकार भारतीय पुनरुत्थान आन्दोलन ने भारतीय जीवन के सभी क्षेत्रों में परिवर्तन किया। यह भारत की एक नवीन जागृति थी जिसने पश्चिमी सभ्यता से तर्क, समानता, और स्वतंत्रता की भावना प्राप्त करके भारत के प्राचीन गौरव को स्थापित करने का प्रयत्न किया और साथ ही साथ प्राचीन भारतीय सभ्यता के दोषों को दूर करतु हुये उसे प्रगति के लिए नवीन आधार और जीवन प्रदान किया।

भारत की सभ्यता और संस्कृति श्रेष्ठ है, उसमें प्रगति करने का साहस है और वह पश्चिमी सभ्यता के मुकाबले खड़ी हो सकती है- यह पुनर्जागरण आन्दोलन का आधार था। जीवन के सभी क्षेत्रों में परिवर्तन और सुधार उसका व्यवहारिक स्वरुप था तथा भारत के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक, धार्मिक एवं कलात्मक क्षेत्र में नए नवीन चेतना प्रदान करना उसका परिणाम था। भारत को पश्चिमी सभ्यता का अंग बनने से रोकना, भारतीयों में आत्मगौरव और आत्म विश्वास उत्पन्न करना, परम्परागत धर्म और समाज में विभिन्न परिवर्तन करना तथा नवीन भारत का निर्माण करना भारतीय पुनरुत्थान आन्दोलन की आधुनिक भारत को देन है। प्रारंभ में यह पुनर्जागरण एक बौद्धिक परिवर्तन था, बाद में वह अनेक सामाजिक और धार्मिक सुधारों का आधार बना तथा अन्त में उसने भारत के राजनीतिक आन्दोलन को जीवन प्रदान करने में सहयोग दिया। भारतीय जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र बाकी न रहा था जिस पर इस आन्दोलन का प्रभाव नही पड़ा।

जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया है, अंग्रेजों की राजनीतिक गतिविधियों, प्रशासनिक व्यवस्थाओं तथा आर्थिक शोषण के साथ-साथ, भारत के जन-जीवन में पश्चिम के तमाम आधुनिक विचारों एवं ज्ञान का भी प्रवेशं हुआ। भारतीय समाज पर उनके प्रबुद्ध एवं विकसित विचारों का तुरंत असर हुआ और एक सामाजिक और सांस्कृतिक जागृति शुरू हो गई। वास्तव में इस जागृति के लिए अनेक परिस्थितियॉं जिम्मेदार थी।

भारतीय पुनर्जागरण के कारण :

भारतीय समाज और धर्म में दोष-      भारतीय समाज और धर्म में अनेक अंधविश्वास उत्पन्न हो गये थे। 19वीं शताब्दी के आरंभ में ईसाई पादरियों को भारत में धर्म-प्रचार करने की छूट दे दी गई। ईसाई मिशनरियों ने स्थान-स्थान पर हिन्दू धर्म की कटु आलोचना आरंभ कर दी। बहुदेववाद, अवतारवाद और मूर्तिपूजा की भी कटु आलोचना की और समाज में प्रचलित कुरीतियों के लिए भी धर्म को ही दोषी ठहराया। अतः भारतीय समाज और धर्म में उत्पन्न दोषों का निवारण अनिवार्य था। ईसाई मिशनरियों के प्रचार ने भारतीयों को चुनौती दी। भारत में 19वीं शताब्दी में कई सामाजिक-धार्मिक आंदोलन इसलिए आरंभ हुए क्योंकि ईसाई धर्म द्वारा हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित करने के प्रयत्न आरंभ हुआ जिससे भारतीयों में एक नया दृष्टिकोण उत्पन्न हुआ, जिसमें अन्ध-विश्वास का स्थान आध्यात्मिक चिंतन ने ले लिया। 

भारत में औपनिवेशिक शासन की स्थापना-       भारत पर अंग्रेजों की विजय ने भारतीय समाज की कमजोरियों एवं गिरी हुई हालत को स्पष्ट कर दिया। मुगल साम्राज्य के पतन के उपरान्त भारत की राजनीतिक एकता नष्ट हो गयी थी। अंग्रेजों ने भारत को पुनः राजनीतिक एकता प्रदान की। राजनीतिक एकीकरण से उत्पन्न व्यवस्था, एकता, और शान्ति ने भारतीयों को अपने बारे में सोचने का अवसर प्रदान किया। अतः कुछ विचारशील और बुद्धिमान भारतीयों ने देश की दुर्दशा, पिछड़ेपन और विदेशियों के समक्ष अपनी पराजय के कारणों की खोज-बीन शुरू की तथा देश के उद्धार के लिए प्रयत्न करने लगे। वैसे अधिकांश भारतीय अभी भी परंपरागत विचारों, रीति-रिवाजों एवं संस्थाओं में विश्वास जमाए बैठे थे, लेकिन उनमें से कुछ ने संपर्क में आते ही पश्चिम के नए विचारों एवं ज्ञान के महत्व को पहचाना। पश्चिम के वैज्ञानिक ज्ञान, बुद्धिवाद (rationalism) के सिद्धांत और मानवतावाद (humanitarianism) का इन प्रबुद्ध भारतीयों पर अच्छा प्रभाव पडा। वे इस नए ज्ञान एवं सिद्धांतों की सहायता से अपने समाज की भलाई में लग गए। इनमें समाज के विभिन्न वर्गों को अपना निजी हित भी नजर आया। नए सामाजिक वर्ग- जैसे पूॅजीपति वर्ग, श्रमजीवी वर्ग और आधुनिक बुद्धिजीवी वर्ग- पाश्चात्य विचारों एवं ज्ञान को इसलिए अपनाना चाहते थे ताकि उनसे देश का आधुनिकीरण हो और इन विभिन्न सामाजिक वर्गों की स्वार्थ-सिद्धि हो सके। धीरे-धीरे बाकी भारतीयों पर भी इन पाश्चात्य विचारों का प्रभाव पड़ा क्योकि भारतीय उत्तरोत्तर  यह महसूस करते गए कि पश्चिमी विचार केवल पश्चिमी समाज के लिए ही नही बल्कि भारत सहित सम्पूर्ण मानव जाति के लिए भी उपयोगी थे। इस तरह बौद्धिक स्तर पर भारतीय आस्था एवं दृष्टिकोण में महत्वपर्ण परिवर्तन आया और धर्म व समाज के क्षेत्र में सुधार का युग शुरू हो गया। यह आंदोलन प्रथम विश्व युद्ध तक चलता रहा। वैसे यह सिलसिला उसके बाद पूर्णतः समाप्त हो गया हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता।

पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव-       अंग्रेजी शिक्षा के कारण ही भारतीय युवकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के कारण ही यूरोपीय विधान, दर्शन और साहित्य का अध्ययन हमारे देश में आरंभ हुआ। यूरोपीय इतिहासकारों के उत्तेजक विचारों के प्रभाव से भारतीयों को नई शिक्षा प्राप्त हुई। अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से भारतीय, यूरोप की उदारवादी विचारधारा से परिचित हुए, जिससे उनकी सदियों की मोह-निद्रा भंग हुई। अब लोग भूतकाल पर आलोचनात्मक दृष्टि से देखने लगे और भविष्य के संबंध में एक नूतन जिज्ञासा उनके मन में उत्पन्न हुई। भारतीयों ने यूरोपीय दर्शन से जो मुख्य सिद्धांत सीखा, वह यह था कि मानवीय संबंधों का आधार परंपरागत व्यवस्था अथवा सत्ता न होकर तर्क होना चाहिये। अतः अब भारतीय धर्म और समाज की व्यवस्थाओं के औचित्य को समझने लगे। अब विचारों की शिथिलता प्रगति में बदल गई। परंपरागत रीति-रिवाजों के अंधानुकरण का वे विरोध करने लगे। ऐसे लोगों द्वारा सामाजिक और धार्मिक सुधारों का बीङा उठाना स्वाभाविक ही था। 

ब्रिटेन में शासनतंत्र के अंदर एवं बाहर लोगों का एक ऐसा वर्ग था जो प्राच्य ज्ञान और सभ्यता का आदर करता था और चाहता था कि आधनिक यूरोपीय ज्ञान द्वारा भारतीय अपनी ऐतिहासिक उपलब्धियों को पुनः स्थापित करें। तत्कालीन अँग्रेज़ी शासन की भी कुछ अपनी आवश्यकताएँ थीं, जिनके चलते अंग्रेजों ने भारतीयों के सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में अपनी प्रारंभिक अहस्तक्षेप की नीति (laissez faire) को धीरे-धीरे त्यागना शुरू कर दिया। विशेषकर 1813 ई0 के बाद अंग्रेजों ने प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की नीति अपनाई। उन्होंने भारत में आधुनिक शिक्षा की शुरूआत की और कुछ समाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों को खत्म करने के लिए कानून बनाए। इन प्रशासनिक प्रयत्नों ने भावी सामाजिक सुधारों का मार्ग प्रशस्त किया।

भारतीय समाचार-पत्रों का योगदान-       भारतीय समाचार पत्र, पत्रिकाओं, साहित्य आदि ने भी धर्म एवं सुधार आंदोलन में सहयोग प्रदान किया। भारतीयों द्वारा पहला अंग्रेजी भाषा में समाचार-पत्र 1780 में बंगाल-गजट के नाम से प्रकाशित हुआ। इसमें धार्मिक विरोध पर विचार-विमर्श अधिक होता था। तत्पश्चात् बंगाली भाषा में दिग्दर्शन तथा समाचार दर्पण 1818 में प्रकाशित हुए। ये समाचार-पत्र भी धर्म से अधिक प्रभावित थे। 1821 में राजा राममोहन राय ने साप्ताहिक संवाद कौमुदी प्रकाशित किया, जिसमें उनके धार्मिक और सामाजिक विचार प्रकाशित होते थे। राजा राममोहन राय के विचारों का विरोध करने के लिए 1822 में समाचार चंद्रिका प्रकाशित होना शुरू हुआ। इसके एक माह बाद ही अप्रैल, 1822 में राजा राममोहन राय ने फारसी भाषा में एक साप्ताहिक मिरात-उल-अखबार तथा अंग्रेजी में ब्रह्मनिकल मैगजीन निकालना प्रारंभ किया। इन समाचार-पत्रों के माध्यम से भारतीयों ने सामाजिक और धार्मिक समस्याओं पर विचार-विमर्श आरंभ कर दिया था। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारतीय समाचार-पत्रों ने सामाजिक और धार्मिक विषयों तथा शिक्षा से संबंधित समस्याओं पर चर्चा करके भारतीय जनमत को जागृत किया। इन समाचार-पत्रों के कारण ही लोगों ने अपने समाज व धर्म की रक्षा करने के प्रयत्न आरंभ कर दिये।। 

ईसाई धर्मप्रचारकों का योगदान-       अंग्रेज़ व्यापारियों के साथ ईसाई पादरी एवं धर्मप्रचारक भी भारत आए थे। अंग्रेजी शासन की स्थापना के बाद उनकी गतिविधियाँ जोर पकड़ती गई। अन्य कार्यों के अलावा उन्होंने दो ऐसे कार्य किए जिनसे भारतीय पुनर्जागरण को काफ़ी बल मिला। पहला, उनके प्रयत्नों से देश में अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार हुआ जिससे पाश्चात्य ज्ञान एवं विचार भारतीयों तक पहुँचने लगे और उनमें जागरण की चिंतनधारा फूटने लगी। दूसरे, जब ईसाई मिशनरियों ने भारतीयों को ईसाई बनाना शुरू किया तो इसके विरुद्ध हिन्दुओं की तीखी प्रतिक्रिया हुई और कुछ हिंदू अपने धर्म की रक्षा के प्रयत्न में जुट गए। लेकिन वे जानते थे कि ईसाई हिन्दुओं की किन कमजोरियों का फायदा उठा रहे हैं। जात-पात अंधविश्वास और निरर्थक आडंबरों के परिणामस्वरूप उस समय खुद हिन्दू धर्म एवं समाज निष्क्रिय और शक्तिहीन हो गया था तथा हिन्दू समाज का निचला तबका सामाजिक सम्मान और आर्थिक सुविधाओं के लिए ईसाई धर्म को स्वीकार करने लगा था। अतः हिंदू धर्म की रक्षा के लिए उसमें सुधार आवश्यक प्रतीत होने लगा। भारतीय सुधारकों को ईसाई मिशनरियों की धर्म-प्रचार-प्रणाली से भी प्रेरणा मिली। यही कारण था कि 19वीं शताब्दी के धर्म-सुधार का कार्य ईसाई मिशनों की तरह ही संगठनों के माध्यम से शुरू हुआ।

प्राच्य युरोपीय विद्वानों का योगदान-        पुनर्जागरण लाने में उन कतिपय यूरोपीय विद्वानों का भी हाथ था जो भारत की प्राचीन सांस्कृतिक उपलब्धियों से प्रभावित थे। वे चाहते थे कि भारत का वह गौरवमय अतीत पुनः वापस आए और भारत का सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास हो। इन व्यक्तियों ने भारतीय इतिहास दर्शन, धर्म और साहित्य का अध्ययन किया तथा भारत की प्राचीन उपलब्धियों को प्रकाश में लाने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। इससे भारतीयों में आत्मगौरव एवं आत्मसम्मान की भावना उत्पन्न हुई। ऐसे यूरोपीय विद्वानों में विलियम जोन्स का नाम उल्लेखनीय है। भारतीय साहित्य एवं परंपरा के अध्ययन के अलावा उनकी भारत को सबसे बड़ी देन थी 1784 ई0 में कलकत्ता में ’एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल’¼Asiatic Society of Bengal½ की स्थापना। इस सोसायटी के विद्वानों ने यह खोज निकाला कि प्राचीन काल में भारत ने एक ऐसी महान् सभ्यता को जन्म दिया था जो संसार की महानतम सभ्यताओं में से एक थी। इस सोसाइटी के तत्वाधान में प्राचीन भारतीय ग्रंथों तथा यूरोपीय साहित्य का भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। विदेशी विद्वानों ने प्राचीन भारतीय साहित्य का अध्ययन उनका अंग्रेजी में अनुवाद हुआ और बताया कि यह साहित्य विश्व सभ्यता की अमूल्य निधियाँ हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने भारत की अनेक कलाकृतियों और सभ्यता के केन्द्रों की खोज की तथा उसने प्राचीन सभ्यता की श्रेष्ठता स्थापित की। मैक्समूलर,विलियम जॉन्स,मोनियर, विल्सन आदि विद्वानों के प्राचीन भारतीय संस्कृति,कला और साहित्य को विश्व के सामने रखा, जिसका तुलनात्मक अध्ययन करने से भारतीयों को अपनी प्राचीन गौरवमय सभ्यता और संस्कृति का ज्ञान हुआ। दूसरी ओर भारतीयों को पाश्चात्य देशों के ज्ञान-विज्ञान का परिचय हुआ। कुछ यूरोपीय विद्वानों ने प्राचीन भारतीय आदर्शों की भूरि-भूरि प्रशंसा की, जिससे भारतीयों की सुप्त भावनाएँ जागृत हुई और उन्होंने अनुभव किया कि हम अपने मूल धर्म और सामाजिक रीति-रिवाजों से दूर चले गये हैं, जिससे हमारा पतन हुआ है। इस भावना से भारतीयों में यह विचार उत्पन्न हुआ कि जब तक धर्म और समाज की बुराइयों को दूर नहीं किया जाता, उनका कल्याण असंभव है। सोसायटी के प्रयत्नों से भारत के प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास के अध्ययन में भारतीयों एवं विदेशियों, दोनों की रुचि बढ़ी और भारतीयों को पुनर्जागरण के भरपूर प्रेरणा मिली।

पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव-         भारतीय पुनर्जागरण के अन्तर्गत सुधारों का एक कारण भारतीयों पर पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव भी था। भारत में अंग्रेजों के आने के साथ-साथ यूरोपीय सभ्यता का आगमन हुआ। जबकि यूरोप के विचारों पर बुद्धिवाद और व्यक्तिवाद आधिपत्य जमाये हुए थे। ऐसी स्थिति में पश्चिमी सभ्यता के प्रबल वेग के समक्ष भारतीय सभ्यता घुटने टेकती दिखी देने लगी। अंग्रेजी पढे-लिखे लोगों के लिए पाश्चात्य सभ्यता आदर्श बन गई। पश्चिमी विचार,वेश-भूषा, खान-पान आदि से वे इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनकी नकल करने में अपना गौरव समझने लगे। भारतीय धर्म और समाज से उनका विश्वास उठ गया और ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो संपूर्ण भारत पाश्चात्य सभ्यता का शिकार हो जायेगा। ऐसी स्थिति में कट्टर हिन्दुओं और बौद्धिक वर्ग ने अनुभव किया कि यदि धर्म और समाज में आवश्यक सुधार नहीं किये गये तो भारत में धर्म और समाज का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। 19 वी. शताब्दी में हुई पश्चिम की वैज्ञानिक प्रगति से भारतीयों में  अंधविश्वासों और रूढ़िवादिता का अंधकार हटने लगा और उन्हे भारतीय धर्म और समाज में आस्था रखने की प्रेरणा दी।

उपर्युक्त कारणों से भारतीयों में सामाजिक और धार्मिक नवचेतना का संचार हुआ और 19वीं शताब्दी में अनेक सुधारक पैदा हुये  जिन्होने भारतीय धर्म और समाज सुधार आन्दोलनों का नेतृत्व किया। कुछ उग्र सुधारवादी जिनमें ब्रह्म समाज और प्रार्थना समाज प्रमुख थे, वे पश्चिमी समाज और संस्कृति को आधार बनाकर भारतीय धर्म और समाज में क्रान्तिकारी सुधार चाहते थे। इन सुधारकों ने जब अत्यधिक मौलिक परिवर्तन चाहे तो इसकी प्रतिक्रिया कट्टर सुधार आन्दोलन के रूप में हुई। आर्य समाज और रामकृष्ण मिशन ऐसे ही कट्टर सुधारवादी प्रयास थे।


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