लार्ड कैनिंग, 1856-62 (Lord Canning) -
लार्ड कैनिंग के शासनकाल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना 1857 में घटित भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम था जिसें 1857 की क्रान्ति के नाम से भी जाना जाता है। वास्तव में 1857 ई0 की यह घटना लगभग 100 वर्षो से चले आ रहे भारतीय जनमानस में व्याप्त असन्तोष का परिणाम था। 10 मई 1857 ई0 से प्रारंभ हुआ भारत का यह प्रथम स्वाधीनता संग्राम लगभग एक वर्ष तक चलता रहा और अन्ततः मई 1858 ई0 तक आते-आते पूर्णतः दबा दिया गया जिसपर विस्तार से अलग से चर्चा की जाएगी। लेकिन यह भी सत्य है कि इस घटना के कारण ब्रिटिश सम्पिŸा का अपार नुकसान हुआ और साथ ही साथ सैकडों अंग्रेज और भारतीय भी काल के गाल में समा गये। इसके परिणामस्वरूप लगातार यह मॉंग की जा रही थी कि इसका बदला लेते हुये भारतीयों के प्रति कठोर निर्णय लिये जाय। लेकिन लार्ड कैनिंग ने अपने मस्तिष्क को शान्त बनाये रखा और उसने कोई भी ऐसी कठोर कार्रवाई करने से इनकार कर दिया। वह शान्तिपूर्ण नीति का अनुसरण करता रहा। यहाँ तक कि उसने व्यक्तिगत लोकप्रियता का भी ध्यान न रखा। लार्ड ग्रैनविल के प्रति भेजे गये पत्र में उसने अपनी नीति के पक्ष में इन शब्दों का प्रयोग किया - “जब तक मेरे शरीर में एक भी साँस है तब तक मैं अन्य किसी नीति का अनुसरण नहीं करूँगा, अपितु उसी नीति पर ही चलता रहूँगा जिसका अनुसरण मैंने अब तक किया है। केवल इसी कारण से नहीं कि वह उचित है, अपितु इसलिए कि वह न्यायोचित है। मैं आवेश में शासन नहीं करूँगा। मैं ऐसा कोई कार्य नहीं करूंगा, जो क्रोध से अथवा पक्षपात से पूर्ण हो, मैं ऐसे किसी कार्य अथवा शब्द की भारत सरकार की ओर से अनुगति नहीं दूँगा जबतक कि मैं उसके लिए उत्तरदायी हूँ। मैं किसी समाचार-पत्र की चाहे वह ब्रिटिश हो अथवा भारतीय, अपशब्द अथवा टीका-टिप्पणी की तनिक भी परवाह नहीं करूँगा। मैं सदा से ऐसा न करने के कारण हैरान होता हूँ। किन्तु वास्तव में यह एक तथ्य है। इसका एक कारण यह है कि ध्यान रखने के लिए समय का अभाव है, तथा मेरे सामने कई जरूरी काम पड़े हैं, इसलिए शेष सब बातें मुझे छोटी दिखाई देती हैं।‘‘
उसकी इसी तटस्थ नीति के कारण जब उसे वापस बुलाए जाने की माँग हुई तब उसने अपनी सरकार को इस प्रकार लिखा - “किसी भी पक्ष से प्राप्त होने वाली निन्दा अथवा प्रक्षेपयुक्त वचन मुझे ऐसे मार्ग से हटा नहीं सकेंगे, जिसे मैं अपने सार्वजनिक कर्त्तव्य-पालन का मार्ग मानता हूँ। मेरा विश्वास है कि ऐसे समय में भारत सरकार के मुख्याधिकारी के परिवर्तन से, यदि ऐसा हुआ, इंग्लैंड की सरकार की ओर से उस नीति का उल्लंघन अथवा अवहेलना होगी, जिस नीति का पालन अथवा अनुसरण अवध के लुटेरे विद्रोहियों के प्रति किया जाता रहा है तथा इससे देश की शान्ति पर गम्भीर प्रति- क्रिया होगी। मेरा विश्वास है कि वह नीति प्रारम्भ से ही बिना दुर्बलता के दयापूर्ण रही है तथा सरकार के गौरव तथा प्रतिष्ठा को बिना हानि पहुँचाए अनुग्रह की रही है। अपने इस दृढ़ विश्वास के कारण, मैं इस अतुलनीय कठिनाइयों, खतरे तथा कठोर परिश्रम के समय में अपने कार्य तथा ऊँचे विश्वास को, जिसे मैं अब तक दृढ़तापूर्वक सम्भाले रहा हूँ, नहीं छोड़ूगा।‘‘
1857 की इस क्रान्ति के अनेक प्रभाव और परिणाम हुये। इन प्रभावों में से एक प्रभाव यह हुआ कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया गया तथा भारत सरकार का उत्तरदायित्व सम्राट् ने अपने हाथों में ले लिया। इस सम्बन्ध में औपचारिक घोषणा 1858 के अधिनियम द्वारा की गई। इस प्रकार लार्ड कैनिंग अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी का अन्तिम गवर्नर-जनरल तथा ब्रिटिश सम्राट के अधीन प्रथम वायसराय था।
1861 ई0 में प्रसिद्ध भारतीय कौंसिल अधिनियम स्वीकृत हुआ जिसके अनुसार प्रैसिडेंसियों में विधानमण्डलों को स्थापित किए जाने तथा वाइसराय की प्रबन्ध-कारिणी कौंसिल में वैधानिक कार्यों के लिए अधिक सदस्यों के लिए जाने का उपबन्ध किया गया। 1861 ई0 में एक कानून स्वीकृत हुआ जिसके द्वारा उच्चतम न्यायालयों तथा अंग्रेजी कम्पनी की अदालतों के स्थान पर अधिकृत हाईकोर्ट स्थापित किए गये।
1859 में बंगाल किराया अधिनियम स्वीकृत हुआ था और इसे बिहार, आगरा तथा मध्य प्रान्त में लागू किया गया। इसके अनुसार प्रत्येक किसान के साथ, जिसने लगातार बीस वर्षों तक समान किराये पर भूमि को अपने अधिकार में रखा, इस प्रकार व्यवहार किया जाना था, मानो वह भूमि 1793 ई0 से उसके अधिकार में हो। वे किरायेदार जिन्होंने 12 वर्षों तक निरन्तर भूमि पर अधिकार रखा था, उनको भी भूमि पर अधिकारी रखने का अधिकारी समझा जाता था। उनके किरायों में तभी वृद्धि हो सकती थी जब कोई कानूनी अदालत इस सम्बन्ध में उचित जॉंच कर ले।
1861 ई0 में बेयर्ड स्मिथ ने बंगाल की स्थायी भू-व्यवस्था को सारे भारत में लागू करने का प्रस्ताव रखा। 1862 ई0 में, भारत मन्त्री सर चार्ल्स ने इस प्रस्ताव को स्वीकृत कर दिया, किन्तु लार्ड मेयो के समय में इस प्रस्ताव का विरोध किया गया तथा लार्ड रिपन के समय में इस प्रस्ताव को पूर्णतया छोड़ दिया गया।
1854 के चार्ल्स वुड द्वारा प्रेषित पत्र की सिफ़ारिशों के अनुसार 1857 ई0 में लन्दन विश्वविद्यालय के आदर्श पर कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित किए गये। लार्ड कैनिंग की सरकार को आर्थिक समस्या का सामना करना पड़ा। इस समय लगभग 360 लाख का घाटा दिखाया गया था जिसका एक मुख्य कारण यह भी था कि बहुत-सा धन गदर के दमन में तथा कुछ धन समाज तथा प्रशासन की अव्यवस्था के कारण व्यय हो गया था। उस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता कम व्यय, छटनी तथा आय में वृद्धि करना था। इसलिए बहुत-से फौजी दस्ते खत्म किए गये, क्योंकि उनकी आवश्यकता नहीं थी। इंग्लैण्ड का एक महान् अर्थशास्त्री जान विल्सन भारत में 1856 ई0 में आया तथा उस पर देश की आर्थिक पुनर्व्यवस्था का कार्य सौंपा गया। भारत में आगमन के एक वर्ष से कम समय के भीतर ही उसकी मृत्यु हो गई। उस काम को सैम्युनल लैंग ने जारी रखा। अपनी मृत्यु से पूर्व, विल्सन ने तीन नये करों को लगाने की सिफ़ारिश की थी। वे तीन कर ये थे- आय कर, व्यापार तथा पेशों पर लाइसेंस कर तथा घरेलू तम्बाकू पर चुंगी कर। आयकर का प्रस्ताव प्रयोग के रूप में स्वीकार कर लिया गया। यह वार्षिक 500 रुपये से अधिक की आय पर 5 वर्षों के लिए 5 प्रतिशत के हिसाब से लगाया गया। विल्सन ने 10 प्रतिशत के हिसाब से एक जैसे आयात कर की स्थापना की। उसने नागरिक तथा फौजी व्यय में भी कम व्यय के लिए प्रस्ताव किया। नमक पर कर लगाए जाने का सुझाव रखा गया। विल्सन तथा लैंग के सुधारों का परिणाम यह हुआ कि जब कैनिंग भारत से रवाना होने लगा, तब घाटे का बजट नहीं था।
फौज में भी बहुत कुछ बदलाव किए गये। अंग्रेजों ने 1857 की क्रान्ति से एक शिक्षा प्राप्त की थी जिसके अनुसार भारतीय तथा यूरोपीय सैनिकों के मध्य एक निश्चित अनुपात के लिये नियम बनाए गये। तीन बड़े प्रान्तों के लिये तीन टुकड़ियों में ब्रिटिश अफसरों का संगठन किया गया। अंग्रेजी कम्पनी की यूरोपीय फौजें महारानी की सेनाओं के साथ मिला दी गई। इस समय में कानूनों की भी संहिताएँ बनाई गईं। लार्ड मैकाले द्वारा प्रस्तावित भारतीय दण्ड संहिता 1858 में कुछ आवश्यक परिवर्तन किये गये जिसके पश्चात् यह कानून बन गई। उसके पश्चात् आगामी वर्ष फौजदारी नियम-संहिता का निर्माण किया गया।
1861 ई0 में आगरा तथा अवध के उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों में तथा पंजाब व राजपूताना के कुछ भागों में एक अत्यन्त भयंकर अकाल प्रारम्भ हुआ। जनसंख्या का लगभग 10 प्रतिशत भाग मृत्यु की चपेट में आया। इसका आंशिक कारण विद्रोह के बाद के प्रभाव थे। उन वर्षो में वर्षा भी नहीं हुई परिणामस्वरूप फ़सलें भी नष्ट हो गई। सरकार ने लोगों को सहायता देने के लिए बहुत-सा रुपया व्यय किया। 1856 तथा 1860 में नील उगाने वाले यूरोपियनों तथा बंगाल के कृषकों के मध्य में झगड़े हुए जिससे स्थिति अत्यन्त गम्भीर हो गई। परिणामस्वरूप दंगे हुए मामले की जाँच करने के लिए आयोग की नियुक्ति की गई। अन्त में इस बात का निश्चय किया गया कि नील की खेती करने के सम्बन्ध में एक दीवानी समझौते को पूरा करने में इन्कार के कारण किरायेदार पर फौजदारी अभियोग नहीं चलाना चाहिए।
लार्ड कैनिंग के सम्बन्ध में यह ठीक ही कहा गया है कि कोई भी गवर्नर जनरल बौद्धिक गुणों में उससे आगे न बढ़ सका। उसने इतने परिश्रम से कार्य किया कि एक प्रकार से उसने वास्तव में अपनी हत्या ही कर डाली। उसे न ही शारीरिक व्यायाम का ध्यान रहता था और न ही उसे मानसिक शान्ति मिलती थी। यद्यपि वह बहुत कठोर था लेकिन उसमें कर्त्तव्यपरायणता, सौजन्य तथा उदारता की भावना थी। उसने विद्रोह को दबाने में दमन नीति तथा उत्साह से कार्य किया। वह “एक ऐसा सज्जन महानुभाव था, जो बड़ी से बड़ी आपत्ति के समय में भी अपने निश्चय को भावों से नहीं बहने देता था। प्रतिष्ठा तथा न्याय की सुन्दर भावना में प्रतिशोध की भावना को भी प्रविष्ट नहीं होने देता था।“ ट्रॉटर के कथनानुसार- “उसकी कमियों को यदि छोड़ दिया जाए, तो उसका नाम अंग्रेजों की स्मृतियों में एक ऐसे निर्भीक, सत्य हृदय वाले अंग्रेज के रूप में आदरपूर्वक स्मरण किया जाएगा, जिसने ग़दर जैसी महान विपत्ति का शान्त-चित्त होकर मुकाबला किया।“
लार्ड एलगिन, 1862-63 ¼Lord Elgin½-
लार्ड एलगिन लार्ड डरहम का जामाता था और लार्ड डरहम, डरहम रिपोर्ट का प्रसिद्ध लेखक था। भारत आगमन से पूर्व वह कनाडा तथा जमैका के गवर्नर के रूप में कार्य कर चुका था। उसका कार्य- काल संक्षिप्त था । भारत में वायसराय के 15 माह के कार्यकाल के पश्चात् धर्मशाला में उसकी मृत्यु हो गई। उसने केवल इस बात का प्रयत्न किया कि वह अपने पूर्ववर्ती के पदचिह्नों का अनुसरण कर सके। उसने नये कर लगाने से बचने का प्रयत्न किया। उसने इस बात का भी प्रयत्न किया कि फौजी व्यय कम किया जाए। लार्ड एलगिन ने बनारस, कानपुर, आगरा तथा अम्बाला में अनेक दरबार किए। इन दरबारों का उद्देश्य भारतीय रियासतों को ब्रिटिश सरकार के समीप लाना था।
इसके कार्य-काल में वहाबियों ने विद्रोह किया। अन्ततः उन्हें पराजित किया गया तथा 1862 ई0 में मलका के स्थान पर उनका गढ़ पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया गया। वहाबी उत्तर-पश्चिमी सीमात्रों पर रहने वाले मुसलमानों की एक जनूनी टोली थी। लार्ड कर्जन के कथनानुसार - “लार्ड एलगिन कुशाग्रबुद्धि, परिश्रमी तथा प्रसन्न रहने वाला व्यक्ति था। उसने अपने सभी कार्यों में पूर्ण जागरूकता से ध्यान रखा। उसने किसी के साथ भी ऐसा व्यवहार नहीं किया, जिसकी निन्दा की जा सके। साथ ही उसमें साहस तथा सामान्य बुद्धि का अंश भी पर्याप्त मात्रा में था।“
सर जॉन लारेन्स, 1864-69 ¼Sir John Lawrence½ --
1863 में लॉर्ड एल्गिन की मृत्यु के बाद, सर जॉन लॉरेंस को भारत का वायसराय नियुक्त किया गया और 12 जनवरी 1864 से 12 जनवरी 1869 तक वह इस पद पर बना रहा। 1845 से 1846 के प्रथम सिख युद्ध के दौरान, लॉरेंस ने पंजाब में ब्रिटिश सेना की आपूर्ति की थी। पंजाब के अंग्रेजी राज्य में मिलाये जाने के पश्चात वह चीफ कमिश्नर नियुक्त किया गया था। उस भूमिका में वह अपने प्रशासनिक सुधारों, पहाड़ी जनजातियों को मुख्य धारा में लाने और सती प्रथा को खत्म करने के अपने प्रयासों के लिए जाना जाता था। 1849 में, दूसरे सिख युद्ध के बाद, वह अपने भाई के अधीन पंजाब बोर्ड ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन का सदस्य बना और प्रांत में कई सुधार किये, जिसमें एक सामान्य मुद्रा और डाक प्रणाली की स्थापना शामिल था। उसने पंजाब के बुनियादी ढॉंचे के विकास को प्रोत्साहित किया, जिसके लिए उसे “पंजाब के उद्धारकर्ता” भी कहा जाता है।
सर जान लारेंस को पंजाब के अंग्रेजी राज्य में मिलाए जाने के पश्चात् चीफ कमिश्नर नियुक्त किया गया था। इसका कारण यह था कि पंजाब विद्रोह के दिनों में शान्त रहा। उसे उचित रूप से “भारत का रक्षक तथा विजय का संचालक कहा जाता है।“ उसकी नियुक्ति उस सामान्य नियम का अपवाद थी कि किसी नागरिक कर्मचारी को भारत का गवर्नर-जनरल न बनाया जाए। उसका कार्य- काल प्रत्येक प्रकार से सफल कहा जा सकता है।
एक वायसराय के रूप में, लार्ड लॉरेंस ने एक सतर्क नीति अपनाते हुये अफगानिस्तान और फारस की खाड़ी में उलझाव से बचने की कोशिश की तथा उसने भारतीयों के लिए शैक्षिक अवसरों में वृद्धि की, लेकिन साथ ही उच्च नागरिक सेवा पदों में देशी भारतीयों के इस्तेमाल को सीमित कर दिया। घरेलू स्तर पर, लॉरेंस ने किरायेदार सुरक्षा बढ़ाने और भारतीयों पर लगाए गए वित्तीय आकलन को कम करने की मॉंग की, यह मानते हुए कि पंजाब में जो काम किया था वह पूरे ब्रिटिश भारत में काम करेगा। उसने हल्के कराधान को निष्पक्षता और व्यावहारिकता के मामले के रूप में देखा, यह तर्क देते हुए कि भारतीय शासन के लिए ब्रिटिश शासन की रक्षा के लिए यह आवश्यक था कि वे ब्रिटिश प्रशासन के लाभों को महसूस करें। लॉरेंस ने नमक के कराधान को बढ़ाने के आह्वान का विरोध किया, जिससे गरीब भारतीयों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता। उसने गणना की कि नमक पर उत्पाद शुल्क ने इसकी कीमत पंजाब में बारह गुना और शायद उत्तर पश्चिम प्रांतों में आठ गुना बढ़ा दी। उसने भारत में गैर-आधिकारिक ब्रिटिश समुदाय को ’मार्ग के पक्षी’ के रूप में चित्रित किया, जो उनके जाने के बाद क्या हुआ, इसकी परवाह किए बिना जितनी जल्दी हो सके धन इकट्ठा करने के लिए दौड़ रहे थे।
1866 ई0 में उड़ीसा में भयंकर अकाल पड़ा और बड़े पैमाने पर प्राण हानि हुई लेकिन सरकार लोगों की सहायता करने में पूर्णतः असफल रही। 1868-69 में एक और अकाल पड़ा जिसका प्रभाव राजपूताना तथा बुन्देलखण्ड पर पड़ा। अकालों से निपटने के लिए एक अकाल आयोग नियुक्त किया गया, जो अकालों का मुकाबला करने के सबसे सफल उपायों पर विचार कर सके। लेकिन सारे कार्य कागजों तक ही सीमित रह गये। संभवतः लॉरेंस के कार्यकाल की सबसे बड़ी विफलता 1866 का उड़ीसा अकाल था जिसमें अनुमानित दस लाख भारतीय मारे गए थे। आलोचना का एक हिस्सा उनके सरकारी तंत्र को शिमला की ठंडी पहाड़ियों पर ले जाने पर केंद्रित था जो कि कलकत्ता में सत्ता के केंद्र से भौगोलिक रूप से दूर था। जवाब में, लॉरेंस ने अपने इस्तीफे की पेशकश की, लेकिन विस्काउंट क्रैनबोर्न ने इसे अस्वीकार कर दिया।
सर जान लारेन्स ने अफ़गानिस्तान के सम्बन्ध में तथाकथित पूर्ण गतिहीनता की नीति का अनुसरण किया। वास्तव में वह किसी देश के आन्तरिक मामलों में तब तक हस्तक्षेप नही करना चाहता था, जब तक कोई अन्य शक्ति उस देश में हस्तक्षेप करने का प्रयत्न न करे। जून 1863 में अफगानिस्तान के अमीर, दोस्त मुहम्मद खान की मृत्यु हो गई जिसके परिणामस्वरूप अफगानिस्तान के भीतर गृह युद्ध प्रारंभ हो गया। उसने दोस्त मुहम्मद की मृत्यु के पश्चात् राजगद्दी के उत्तराधिकार के संघर्ष में किसी भी पक्ष का समर्थन करने से इनकार कर दिया जब ब्रिटिश सरकार मध्य एशिया में रूसी विस्तारवाद से चिंतित थी तब भी लॉरेंस ने अफगानिस्तान पर सख्त गैर-हस्तक्षेप की रणनीति अपनाई। उसने एक ऐसी नीति तैयार की जिसे ’कुशलतापूर्वक निष्क्रियता’ के रूप में जाना जाता है। सामान्यतया यह तर्क दिया गया कि इस नीति को लॉरेंस के प्रथम एंग्लो-अफगान युद्ध के अनुभव से आकार दिया गया था, जहॉं उनके भाई जॉर्ज को बंदी बना लिया गया था। लॉरेंस ने तर्क दिया कि अफगानिस्तान में रूसी प्रगति को रोकने के किसी भी प्रयास से देश पर अंतिम कब्जा हो जाएगा, जैसा कि 1838 में हुआ था। भारत में सेवारत या पूर्व ब्रिटिश सेना अधिकारियों ने लॉरेंस की ’कुशलतापूर्वक निष्क्रियता’ की नीति का मुखर आलोचना भी कि जिनमें हेनरी रॉलिन्सन और सर सिडनी कॉटन का नाम सर्वप्रमुख है। आलोचना इस विश्वास पर केंद्रित थी कि ब्रिटेन की स्पष्ट निष्क्रियता रूस को काबुल में अपना प्रभाव स्थापित करने की अनुमति देगी।
कालान्तर में लाई मेयो तथा लार्ड नार्थ ब्रूक ने भी इस नीति का अनुसरण किया। इस नीति को लार्ड लिटन ने बदला तथा उसके भयानक परिणाम हुए। उसे भूटान का युद्ध भी लड़ना पड़ा। भूटान निवासी ब्रिटिश क्षेत्र में आक्रमण किया करते थे। मि० ऐशले ईडन को इन आक्रमणों के सम्बन्ध में चर्चा करने के लिए भेजा गया। भुटानियों ने ईडन को एक अपमानजनक सन्धि पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश कर दिया कि जिसके द्वारा दुवार जाति के लोग उन्हें सौंप दिये गये। जब ब्रिटिश सरकार को इसका पता चला, वो उसने सन्धि को मानने से इनकार कर दिया और एक विशाल सेना भूटान भेजी गयी। आरंभ में अंग्रेज पराजित हुये तथापि बाद में वे अपनी स्थिति सुधारने में सफल हो गए। अन्त में एक सन्धि हुई, जिसके द्वारा भुटानियों ने दुवार जाति के लोगों को सौंप दिया तथा उन्हें वार्षिक सहायता प्राप्त होने का निश्चय हो गया।
लारेन्स ने देश के आर्थिक विकास के लिये बहुत कुछ किया। बहुत-सी रेलें, नहरें तथा सार्वजनिक निर्माण कार्य आरम्भ किये गये। उसने पुननिर्माणात्मक कार्यों के लिये रुपये इकट्ठा करने के सिद्धान्त को अपनाया। ऐसा माना जाता है कि जॉन लारेन्स किसानों के हित के पक्ष में था। पंजाब काश्तकारी अधिनियम के अनुसार किसानों के अधिकार कुछ मामलों में स्वीकृत किये गये। यह कानून सन्तुष्ट किसानों के अधिकार पत्र के रूप में प्रसिद्ध है। अवध काश्तकारी अधिनियम के द्वारा किसानों की समस्त संख्या के पाँचवें भाग को उचित किरायों पर भूमि का अधिकार प्राप्त हो जाता था। किराये में वृद्धि केवल कानूनी अदालत के द्वारा ही हो सकती थी । ये दोनों कानून 1868 ई0 में स्वीकृत हुए।
डा० स्मिथ ने जॉन लारेन्स की विशेषताओं का इन शब्दों में उल्लेख किया है- “भारतीय सिविल सेवा के सदस्य की गवर्नर-जनरल के रूप में नियुक्ति के विपक्ष में दिये गये कारणों को सर जॉन लारेन्स के वायसराय पद के इतिहास से पुष्टि ही मिलती है, किसी प्रकार का धब्बा नहीं लगता। उसकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिलाये जाने के पश्चात् उसके द्वारा उसकी व्यवस्था तथा विद्रोह के समय में उसके द्वारा की गई अमूल्य सेवाएँ हैं, न कि वायसराय के रूप में उसका कार्य है, जो कि उतना ही अथवा उससे भी अच्छा या कोई बुरा से बुरा व्यक्ति भी कर सकता था।‘‘
लार्ड कर्जन के अनुसार - तथ्य यह है कि लारेन्स अपने स्वभाव तथा प्रशिक्षण की दृष्टि से उस कार्य के लिए उपयुक्त नही था जिन परिस्थितियों में रहकर किसी वायसराय को कार्य करना पडा। निःसन्दहे वह एक कर्मठ व्यक्ति तथा मितभाषी था। वह चर्चा तथा वाद-विवाद के सम्बन्ध में असहिष्णु था तथा वह विभागीय फाइलों के सम्बन्ध में धीरे-धीरे कार्य करने का आदि न बन सका। वह सारी आयु आज्ञा देने व आज्ञा का पालन करने का आदी रहा था। अब वह ऐसे लोगों के बीच था जो कष्टदायक और कलहप्रिय थे तथा जिन्हे वह सामान्य रुप से वह आज्ञापालन के लिए विवश नही कर सकता था। उसके स्वभाव में वह सोच नही थी कि वह स्थिति के अनुसार क्रियाशील रहता इसलिए अन्य बहुत से वायसरायों के समान उसने अपने आपको इंग्लैण्ड़ में समर्थनहीन पाया।
संक्षेप में, सर जॉन लारेन्स का शासन काल इस बात का सूचक है कि अकर्मण्यता की नीति के प्रयोग के आवश्यक खतरे में लाभ अधिक है और इस प्रयोग को उस समय से लेकर कभी दोहराया नही गया।
लार्ड मेयो, 1869-72 (Lord Mayo)-
सर जॉन लारेन्स के पश्चात लार्ड मेयो को भारत का अगला वायसराय नियुक्त किया गया। हालॉंकि भारतीय वायसराय के रूप में उसका चुनाव लार्ड ड़िजरायली ने किया था तथापि ग्लैडस्टन के प्रधानमंत्री बनने पर भी उसके कार्य में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नही किया गया। लार्ड मेयो ने नमक शुल्क और आयकर में वृद्धि करते हुये लोक प्रशासन में अर्थव्यवस्था को लागू किया। पूर्व में केंद्र सभी वित्त को नियंत्रित करता था और प्रांतों को धन के आवंटन के लिए मामले बनाने पड़ते थे और जो उन्हें मिलता था उसे खर्च करते थे। उसने भारत की सीमाओं को मजबूत किया और देश के वित्त को पुनर्गठित किया। उसने सिंचाई, रेलवे, वन और अन्य उपयोगी सार्वजनिक कार्यों को बढ़ावा देने के लिए भी बहुत कुछ किया।
लॉर्ड मेयो की नियुक्ति के बाद जो स्पष्ट चुनौतीपूर्ण कार्य था, वह बाहरी सीमावर्ती प्रांतों, विशेष रूप से अफगानिस्तान के साथ सुचारू राजनयिक संबंध सुनिश्चित करना था, जो निरंतर आंतरिक संघर्ष और उत्तराधिकार के युद्धों से तबाह हो गया था। 1869 में लॉर्ड मेयो ने अफगानिस्तान के अमीर शेर अली खान को अंबाला में आमंत्रित किया। अहस्तक्षेप की नीति के अनुसार लॉर्ड मेयो अमीर के साथ मित्रता का गठबंधन स्थापित करने में सक्षम था। इसके अलावा वह ब्रिटिश भारतीय क्षेत्रों पर अफगानिस्तान और फारस के बीच संघर्ष के प्रभाव की संभावना से उजागर होने वाले खतरे से भी आशंकित थे। लॉर्ड मेयो ने प्रभावी ढंग से यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि ब्रिटिश सरकार विभिन्न भारतीय प्रांतों की व्यक्तिगत शासक शक्तियों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध रखे।
लॉर्ड मेयो की प्रशासनिक नीतियों के अन्तर्गत भारत में पहली बार अस्थायी तौर पर 1871 ई0 में उनके संरक्षण में जनगणना हुई। उसने अपने कार्यकाल के दौरान भारतीय सांख्यिकी सर्वेक्षण की व्यवस्था करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लॉर्ड मेयो का महत्वपूर्ण योगदान उनके वित्तीय सुधारों से संबंधित है। लॉर्ड मेयो ने निजीकरण के बजाय सरकारी धन की सहायता से रेलवे के विस्तार को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जो उनके पूर्ववर्ती लॉर्ड जॉन लॉरेंस द्वारा सुझाया गया एक कदम था।
1870 में लॉर्ड मेयो द्वारा प्रख्यापित वित्तीय विकेंद्रीकरण की नीति आर्थिक सुधारों के क्रियान्वयन में उनकी दक्षता का एक शानदार उदाहरण है। इस प्रस्ताव का उद्देश्य सर्वोच्च शाही सत्ता द्वारा प्रांतीय सरकारों को कुछ प्रशासनिक कर्तव्यों का परिसीमन करना था। इस प्रस्ताव के माध्यम से उन्होंने स्थानीय या प्रांतीय सरकारों को सार्वजनिक कार्यों, चिकित्सा सुविधाओं और शिक्षा के क्षेत्र में धन के आवंटन की जिम्मेदारी दी। उनका मानना था कि धन के इस तरह के स्थानीयकरण से स्वशासन के विकास में मदद मिलेगी। उत्तर-पश्चिम, पंजाब, पश्चिम बंगाल और मद्रास जैसे विभिन्न क्षेत्रों ने इस नीति को लागू करने के लिए नगरपालिका करों की शुरुआत की। लॉर्ड मेयो ने नागरिक प्रशासन से संबंधित सैन्य व्यय और अन्य खर्चों को बहुत कम कर दिया, नमक शुल्क लागू किया और आयकर में वृद्धि की। उसने स्वयं सिंचाई, वानिकी और अन्य सेवाओं से संबंधित लोक निर्माण विभाग के कुशल कामकाज का पर्यवेक्षण किया। कृषि सुधारों में भी उनके वित्तीय सुधारों का एक महत्वपूर्ण पहलू शामिल था। राजस्व, कृषि और वाणिज्य विभाग की स्थापना 9 जून, 1871 को लॉर्ड मेयो द्वारा की गई थी और उन्होंने भूमि सुधार अधिनियम भी शुरू किया था। लॉर्ड मेयो ने लॉर्ड कॉर्नवालिस द्वारा शुरू किए गए स्थायी बंदोबस्त में भी कुछ बदलावों का आह्वान किया। उसने वकालत की कि भू-राजस्व विभिन्न प्रांतों में एक समान राजस्व के भुगतान के बजाय उपज की मात्रा और भूमि की उर्वरता के आकलन पर आधारित होना चाहिए। 1870 ई0 में लाल सागर में समुद्री तार का जाल बिछाया गया जिससे गवर्नर- जनरल तथा इंग्लैंड की सरकार के पारस्परिक सम्बन्ध में स्थिति काफी बदल गई ।
लॉर्ड मेयो के नेतृत्व में किए गए शैक्षिक सुधारों का भारतीय संस्कृति के इतिहास में अत्यधिक महत्व है। उसने भारतीय नागरिकों के बीच प्राथमिक शिक्षा के महत्व की जोरदार वकालत की। उसने काठियावाड़ में राजकुमार कॉलेज और प्रमुख रूप से भारतीय नरेशों के बालकों की शिक्षा के लिए अजमेर में मेयो कॉलेज की स्थापना की। लॉर्ड मेयो को अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में स्थित सेलुलर जेल में कैद दोषियों के लिए उनके द्वारा प्रतिपादित अनुशासनात्मक दिशानिर्देशों के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने कैदियों की बेहतरी के लिए संहिताबद्ध कानूनों का एक सेट निर्धारित किया, जिन्हें प्रभावी ढंग से व्यवहार में लाया जाएगा।
लॉर्ड मेयो अंडमान द्वीप समूह को बंदियों के लिए एक स्वतंत्र आत्मनिर्भर कॉलोनी के रूप में विकसित करना चाहता था। इस उद्देश्य के लिए, लॉर्ड मेयो ने पशु प्रजनन, कपड़ा बनाने के लिए कपास की नवोदित जैसी कृषि गतिविधियों की शुरूआत की इच्छा व्यक्त की, जिसे दोषियों को सिखाया जाना था। इन सुधारों के कार्यान्वयन की समीक्षा करने के उद्देश्य से लॉर्ड मेयो ने 1872 में अंडमान द्वीप समूह का दौरा किया। 8 फरवरी 1872 को अंडमान में एक पठान अपराधी ने उसकी यात्रा के दौरान चाकू मारकर हत्या कर दी थी। उसके बाद उनके पार्थिव शरीर को आयरलैंड ले जाया गया जहॉं उसे दफन कर दिया गया।
डा० स्मिथ के अनुसार- “लार्ड मेयो ने अपने तीन वर्ष के कार्य काल में उसे नियुक्त करने वाले राजनीतिज्ञों की आशाओं को पूर्ण कर दिया तथा अपने आपको पूर्ण योग्य वायसराय सिद्ध कर दिया। उसके अनोखे व्यक्तिगत आकर्षण ने उसे विशेष रूप से सुरक्षित रियासतों के शासकों में लोकप्रिय बना दिया। वे उसे साम्राज्य का आदर्श प्रतिनिधि मानते थे। उसने शासन-कार्य की सभी समस्याओं के सम्बन्ध में कड़ा परिश्रम किया तथा अण्डमान द्वीपों में कैदियों के सरकार की ओर से बुरी प्रणाली को सुधारने के लिए उत्साहपूर्वक प्रयत्नों के कारण अपने प्राण भी दे दिए।“
पी० ई० राबर्ट्स के अनुसार- “उसका आकर्षक व्यवहार तथा सार्वजनिक लोकप्रियता उसके ऐसे व्यक्तिगत गुण थे, जिनकी ओर बिना आकर्षित हुए नही रहा जा सकता था। ये दोनों गुण अत्यन्त मूल्यवान् थे। इनके कारण उसे सुरक्षित रियासतों के नरेशों के द्वारा वास्तविक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई तथा उनका हार्दिक सहयोग प्राप्त हुम्रा तथा उसे ऐसा अवसर प्राप्त हुआ कि वह अपने कार्य-काल में भारतीय नौकर- शाही की कठिन समस्यायों को कम से कम विरोध तथा अधिक से अधिक योग्यता से निभा पाया।“
लार्ड नार्थब्रुक, 1872-76 (Lord Northbrook) -
लार्ड नार्थब्रुक एक सावधानी से काम करने वाला व्यक्ति था। उसका चरित्र महान् तथा गम्भीर था। उसे प्रशासनिक कार्यों का काफी अनुभव था। उसने किसी नवीन वस्तु को प्रारम्भ नहीं किया अपितु केवल अपने पूर्ववर्ती लोगों की नीति का अनुसरण किया। उसके आपने ही शब्दों में, ’मेरी नीति का मुख्य उद्देश्य वस्तुओं को शान्तिपूर्वक चलाते रहना तथा देश को शान्ति प्रदान करना था।“ उसने 1873 ई0 में यह घोषणा की “मेरा उद्देश्य करों को हटाना तथा अनावश्यक वैधानिक कार्रवाइयों को बन्द करना था।“ वह गतिशील लेखक अथवा वक्ता नहीं था, अपितु वह पर्याप्त निर्णयात्मक स्वतन्त्रता का स्वामी था।
अफ़ग़ानिस्तान के सम्बन्ध में उसने लारेन्स तथा लार्ड मेयों की नीतियों को ही जारी रखा। उसने शिमला में 1873 ई0 में अफ़ग़ानिस्तान के राजदूत से बातचीत की लेकिन अपनी ओर से कुछ भी आश्वासन देने से इन्कार कर दिया। उसने 1876 ई0 में अपने पद से त्यागपत्र दे दिया क्योंकि अफगानिस्तान के सम्बन्ध में उसके विचार ड़िजरायली के विचार से मेल नही खाते थे।
उसके कार्यकाल में पंजाब में घटित कूका आन्दोलन एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई छोटे-बड़े आन्दोलन हुए और इनका देश की आज़ादी में महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। उन्हीं में से कुछ आंदोलन ऐसे भी हुए जो धार्मिक या एक विशेष समुदाय के लिए आरम्भ किये गए, लेकिन बाद में वे किन्हीं कारणों से ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ हो गए। ऐसे ही आन्दोलनों में से एक नाम ‘कूका आंदोलन’ का आता है जो सिख समुदाय का अंग्रेजों के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन माना जाता है। जिसके लिए कई लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी।
कूका आंदोलन की शुरूआत पंजाब से हुई। जिसकी नींव भगत जवारमल ने रखी थी। इनको सियान साहिब के नाम से भी जाना जाता है। इसका उद्देश्य सिख धर्म में सुधार व उसकी शुद्धता को बनाए रखना था। उन्होंने हाजरो नामक स्थान को अपना मुख्यालय बनाया। कहा जाता है कि इस आंदोलन को जवारमल ने अपने शिष्य बालक सिंह के साथ आरम्भ किया, लेकिन बाबा राम सिंह ने इतिहास के पन्नों में उसे अमर करा दिया। इतिहासकारों के अनुसार 1857 ई0 में बाबा राम सिंह ने अपने गांव भैणी में नामधारी संप्रदाय को गठित किया। उन्होंने देश- विदेश के विभिन्न क्षेत्रों में 22 उपदेश केन्द्रों की स्थापना की जिनमें ग्वालियर, लखनऊ, आदि नाम शामिल हैं। इन केन्द्रों के माध्यम से बाबा राम सिंह सामाजिक व धार्मिक शिक्षाओं का प्रचार प्रसार जोर शोर से करने लगे थे। नामधारी संप्रदाय से आने वाले सिखों को कूका के नाम से भी जाना जाता है। इनको केवल सफ़ेद कपड़े के अलावा किसी अन्य रंगों के वस्त्र धारण करने की अनुमति नहीं थी।
बाबा राम सिंह राजनीतिक स्वतंत्रता को धर्म का एक हिस्सा मानते थे। नामधारियों के संगठन ने बहिष्कार व असहयोग के सिद्धांत को अपनाया। अब यह आंदोलन अंग्रेजों के विरुद्ध हो गया था जिसका उद्देश्य समाज में फैली कुरीतियों के साथ- साथ ब्रिटिश नीतियों के खिलाफ हो गया। अबतक यह संगठन अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए बहुत ही सक्रिय रूप ले चुका था। जब अंग्रेजों ने धार्मिक आस्था को चोट पहुँचाने के लिए पंजाब में जगह-जगह बूचड़खाने खुलवाए, तो संगठन के लगभग 100 सदस्यों ने 15 जून 1871 ई० को अमृतसर व 15 जुलाई 1871 ई० को रायकोट के बूचड़खाने पर धावा बोल दिया। उन्होंने वहां से गायों को छुड़वाया। इसके लिए ब्रिटिश हुकूमत ने रायकोट में तीन, अमृतसर में चार, व लुधियाना में दो नामधारी सिखों को सरेआम फॉंसी के फंदे पर लटका दिया था।
1872 में नामधारियों ने मलेरकोटला पर धावा बोला। इस हमले के दौरान 10 लोग शहीद हो गए थे। कूकसों की हुंकार से ब्रिटिश हुकूमत दहल चुकी थी और वे उनके नज़रों में चुभने लगे थे। इस हमले के बाद उन्होंने मलेरकोटला के परेड ग्राउंड में लगभग 60 से 65 सिखों को तोप से उड़ाकर शहीद कर दिया। इनमें एक 12 साल का बच्चा बिशन सिंह का भी नाम शामिल है। इसके अलावा चार नामधारी सिखों को काले पानी की सजा दे दी गई। कूका आंदोलन के राजनीतिक स्वरुप धारण करने से ब्रिटिश चिंतित हो गए थे। इसको दबाने के लिए उन्होंने 1872 में आंदोलन के प्रमुख नेता बाबा राम सिंह को कैद कर लिया। इसके बाद उन्हें रंगून भेज दिया गया। जहाँ 1885 में उनकी मृत्यु हो गई।
इस आन्दोलन के दौरान कुका आन्दोलनकारियों द्वारा सरकारी खजाने पर अधिकार करने, लोगों को क्रान्ति के लिए तैयार करने का प्रयत्न किया गया। सरकार ने त्वरित कार्रवाई करते हुये डिप्टी कमिश्नर को विद्रोहियों का दमन करने के लिए आदेशित किया। संक्षिप्त मुकदमे की सुनवाई के पश्चात् 50 व्यक्तियों को तोपों से उड़ा दिया गया। इसके बाद भी यह आन्दोलन चलता रहा तथा कमिश्नर और डिप्टी कमिश्नर दोनों को नौकरी से निकाल दिया गया।
लार्ड नार्थब्रुक के कार्यकाल में बड़ौदा के गायकवाड़ पर महिलाओं को दण्डित करने, अंग्रेज रैजीडैण्ट को विष देने का प्रयत्न करने, व्यापारियों तथा बैंकों के तथा अपने स्वार्थी भाई के सम्बन्धियों के साथ दुर्यवहार करने के अभियोग में प्रयोग के द्वारा मुकदमा चलाया गया। इस मुकदमे का परिणाम दुर्भाग्यपूर्ण था। सरकारी सदस्यों ने बड़ौदा के गायकवाड़ को अपराधी सिद्ध किया तथा गैर-सरकारी सदस्यों ने निरपराध। ऐसा होने पर भी उसे शासन व्यवस्था के कुप्रबन्ध तथा बुरे व्यवहार के कारण गद्दी से हटा दिया गया और राजा को मद्रास भेज दिया गया ।
लॉर्ड नॉर्थब्रुक के समय में भारत पर दो बड़े अकाल पड़े। एक था 1873-74 का बिहार का अकाल। आश्चर्यजनक रूप से इस अकाल में ब्रिटिश सरकार ने बंगाल सरकार द्वारा आयोजित एक व्यापक राहत प्रयास का सहारा लिया, जिससे इस अकाल में कोई जनहानि नहीं हुई। लोगों के कष्टों को कम करने के लिए बहुत सा रुपया व्यय किया गया।
लेकिन इसके तुरंत बाद, 1876-78 में लॉर्ड लिटन के समय में दक्षिणी भारत में एक और बड़ा अकाल पड़ा। इस अकाल ने मद्रास और बंबई, मैसूर और हैदराबाद को प्रभावित किया। 10 मिलियन लोग मारे गए और रियासतों के लिए कोई संख्या दर्ज नहीं की गई।
लार्ड नार्थब्रुक के ही शासनकाल में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की स्थापना 15 जनवरी 1875 को कोलकाता में हुई थी। इसके बाद इसे शिमला, फिर पुणे और अंत में नई दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। इसके अतिरिक्त लॉर्ड कैनिंग के समय से लगाया गया आयकर काफी अलोकप्रिय हो गया था जिसे लॉर्ड नॉर्थब्रुक द्वारा इसे समाप्त कर दिया गया था।
महारानी विक्टोरिया के सबसे बड़े बेटे प्रिंस ऑफ वेल्स ने 1876 में एक बड़े सुइट के साथ भारत का दौरा किया। वह बम्बई पहुॅंचे और फिर मद्रास, सीलोन और अंत में कलकत्ता की यात्रा की। इस यात्रा का उद्देश्य स्थानीय राजकुमारों की ब्रिटिश साम्राज्ञी के प्रति वफादारी को प्रेरित करना और साम्राज्य के रखरखाव में उनकी केंद्रीय भूमिका की पुष्टि करना था। वे जहां भी गए, उन पर “निष्ठावान“ भारतीय सामंतों द्वारा बहुमूल्य उपहारों की वर्षा की गई। प्रिन्स ऑफ वेल्स ने 6 महीने में इतना कुछ इकट्ठा कर लिया कि एक जहाज में जवाहरात, पेंटिंग्स, प्राचीन हथियार, जीवित जानवर, कशीदाकारी ब्रोकेड और सभी प्रकार की समकालीन कलाकृतियाँ भरी हुई थीं। वह लौट आया और उपहार 6 महीने के लिए इंग्लैंड में एक प्रदर्शनी में चला गया। बदले में वेल्स के राजकुमार ने भारतीय राजकुमारों को मैक्समूलर द्वारा अनुवादित ऋग्वेद की एक प्रति दी।