लार्ड लिटन, 1876-80
लार्ड लिटन का शासनकाल भारतीय राष्ट्रीय जागरण के इतिहास में महत्वपूर्ण है। उसके शासनकाल में कुछ ऐसी घटनाएॅं घटी जिनसे राष्ट्रीय असन्तोष की ज्वाला और तेजी से धधक उठी। लार्ड लिटन की अन्यायपूर्ण तथा साम्राज्यवादी नीति से भारतीय जनमानस में अंग्रेजों के विरूद्ध उत्तेजनात्मक प्रतिक्रिया हुई। व्यापार, अर्थव्यवस्था, शासन-प्रबन्ध, अकाल-प्रबन्ध आदि की दृष्टि से उसने अनेक कार्य किये परन्तु भारत में उसके कोई भी सुधार और नीतियॉं सफल नही हो सकी। ऐसा माना जाता है कि गवर्नर जनरल का पद ग्रहण करने से पूर्व उसे भारत और यहॉं की परिस्थितियों का ज्ञान प्राप्त करने का कोई अवसर प्राप्त नही हुआ था। वह कल्पनाशील, अव्यावहारिक और सिद्धांतप्रिय था तथा लिटन के विचारों पर तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्यवाद का गहरा प्रभाव था दूसरी तरफ प्रधानमंत्री लार्ड डिजरायली ने उसे मुख्यतः अफगानिस्तान की ओर रूस के बढ़ते हुये प्रभाव की ओर से जाग्रत रहने और उसे रोकने के लिए भारत भेजा था। लॉर्ड नार्थब्रुक के त्यागपत्र देने के बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री बेंजामिन डिजरायली ने मध्य एशिया की घटनाओं को विशेष ध्यान में रखते हुए नवंबर, 1875 में लॉर्ड लिटन को भारत का वायसराय नियुक्त किया। डिजरायली का लिटन को लिखा गया वह पहला पत्र ही इस बात का संकेत है कि उसको क्या करना था। पत्र में कहा गया था कि ‘‘मध्य एशिया की शोचनीय अवस्था को एक राजनीतिज्ञ की आवश्यकता है और मैं विश्वास करता हूँ कि यदि आप इस उच्च पद को ग्रहण कर लें तो आपको एक ऐसा अवसर मिलेगा कि आप न केवल देश की सेवा कर सकेंगे, बल्कि चिरस्थायी कीर्ति के भागी भी बन सकेंगे।“ इस प्रकार लार्ड लिटन को एक विशेष विचारधारा और एक विशेष नीति को कार्य-रुप में परिणत करने हेतु भारत भेजा गया था और उसकी असफलता का यह एक बड़ा कारण रहा।
लॉर्ड लिटन ने एक बार पहले मद्रास की गवर्नरी अपने स्वास्थ्य के कारण ठुकरा दिया था, किंतु उसने वायसराय का पद स्वीकार कर लिया क्योंकि उसकी दृष्टि में यह एक बहुत ऊँचा और महान आदेश था जिसको अस्वीकार करना कर्तव्य से विमुख होना होता। यद्यपि लिटन एक प्रतिभावान व्यक्ति, श्रेष्ठ साहित्यकार और उत्तम वक्ता था। वह वृत्ति से एक कूटनीतिज्ञ था और और यूरोप के कई देशों में इंग्लैंड का प्रतिनिधित्व कर चुका था। वह मृदुभाषी तथा सुसंस्कृत होने के साथ-साथ विख्यात कवि, उपन्यासकार और निबंधकार था और साहित्य जगत में ’ओवन मैरिडिथ’ के नाम से प्रसिद्ध था। लार्ड लिटन का शासनकाल आन्तरिक और वैदेशिक दोनों ही दृष्टियों से रोचक परन्तु परिणाम रहित रहा। आन्तरिक नीति के क्षेत्र में उसने भारतीयों के प्रति जो नीति अपनायी उससे भारत में असन्तोष बढ़ा और इसी के परिणामस्वरूप उसने राष्ट्रीय भावना की प्रगति में अवश्य सहायता पहुॅचाई। विदेश नीति की दृष्टि से उसके समय का द्वितीय अफगान युद्ध निरर्थक सिद्ध हुआ।
आंतरिक प्रशासन और नीतियाँ :
लिटन एक प्रतिक्रियावादी प्रशासक था। आंतरिक प्रशासन के क्षेत्र में उसने घोर साम्राज्यवादी और प्रतिक्रियावादी नीति को अपनाया, जिससे भारतीयों में तीखी प्रतिक्रिया हुई और उनमें काफी असंतोष फैला, परिणामस्वरूप उनमें राष्ट्रीय चेतना की भावना का विकास बहुत तेजी से हुआ। वास्तव में लिटन की आंतरिक नीति की असफलता का मुख्य कारण उसका साम्राज्यवादी दृष्टिकोण था। उसने भारतीयों की भावनाओं का तिरस्कार किया, इंग्लैंड के हितों की रक्षा के लिए भारतीय हितों की उपेक्षा की और औपनिवेशिक नीतियों का निंदनीय स्वरूप भारतीय जनता के समक्ष रखा। इस प्रकार उसका चार वर्षों का शासन (1876-1880) भारत में उपेक्षा एवं अत्याचार का काल था।
स्वतंत्र व्यापार की नीति और वित्तीय सुधार -
भारत का आर्थिक शोषण ब्रिटिश साम्राज्यवाद का ही एक अंग था और यह आर्थिक शोषण कई प्रकार से किया जाता था। इनमें से ही एक ‘स्वतंत्र व्यापार’ की अवधारणा भी थी। जिसका अर्थ था - ब्रिटिश उद्योगपतियों को भारत में शोषण की खुली छूट। स्वतंत्र व्यापार के नाम पर भारत सरकार लंकाशायर और मेनचेस्टर के सूती मिलों के हितों की रक्षा करती थी। इसी स्वतंत्र व्यापार के नाम पर भारतीय उद्योग-धंधों को नष्ट किया गया।
1870 के बाद से भारतीय कपड़ा मिलों की संख्या में वृद्धि होने लगी थी। भारतीय मिलें प्रायः मोटा कपड़ा तैयार करती थीं और सस्ती मजदूरी के कारण भारतीय कपड़ा सस्ता होता था। यद्यपि लंकाशायर की मिलों का कपड़ा उत्तम क्वालिटी का होता था, फिर भी लंकाशायर के उद्योगपतियों को लगता था कि भारतीय वस्त्र उद्योग के विकास से भारत में उनका बाजार कम हो जायेगा। इसलिए उनकी माँग थी कि कपास मिल के माल पर लगे आयात शुल्कों को समाप्त कर दिया जाये। डिजरायली की रूढ़िवादी सरकार भी इसका समर्थन करती थी क्योंकि ब्रिटेन में सत्ता में बने रहने के लिए उद्योगपतियों का समर्थन आवश्यक था।
यद्यपि लार्ड लिटन की कार्यकारी परिषद् आयात शुल्कों को समाप्त करने के पक्ष में नहीं थी क्योंकि इस समय अफगान युद्ध तथा अकाल के कारण आर्थिक संकट भी था। फिर भी, सारी आपत्तियों की उपेक्षा करते हुए लिटन ने भारत सचिव के आदेश और अपने विशेष अधिकार का प्रयोग करते हुए 29 वस्तुओं- जिनमें चीनी, लट्ठा (मोटा कपड़ा), ड्रिल (जीन) आदि कपड़े सम्मिलित थे, आयात शुल्क हटा दिया। किंतु मैनचेस्टर का वाणिज्य मंडल इस निर्णय से संतुष्ट नहीं हुआ, क्योंकि वह चाहता था कि मूल्य के अनुसार लगा 5 प्रतिशत शुल्क भी हटा दिया जाए। फलतः वायसराय ने अपनी संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग कर 1879 में मोटे विदेशी कपड़े से शुल्क समाप्त कर दिया। भारतमंत्री सैलिसबरी ने भी अपने विशेष अधिकार से वायसराय के कार्य का अनुमोदन कर दिया, यद्यपि भारत परिषद् में मत बराबर अर्थात् 7 पक्ष और 7 विपक्ष में, थे। लंकाशायर के सूती मिल मालिकों को लाभ पहुँचाने के लिए लिटन ने नील और लाख पर से भी निर्यात कर हटा दिया। कहा गया कि 1880 में चुनाव होने वाले थे और उसमें रूढ़िवादी दल के हित-संवर्द्धन के लिए वायसराय ने यह कदम उठाया था। इस प्रकार ब्रिटेन के हितार्थ भारत के हितों का बलिदान कर दिया गया।
आर्थिक सुधार
लार्ड लिटन के काल में आर्थिक सुधारों का कार्य वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् के वित्तीय सदस्य सर जान स्ट्रेची ने किया। उसने शक्कर से ड्यूटी को समाप्त कर दिया और नमक कर व्यवस्था में भी सुधार किया। अभी तक नमक बनाने का अधिकार भारतीय नरेशों के पास था और विभिन्न प्रांतों में नमक तस्करी रोकने के लिए सरकार को जगह-जगह चुंगी की रुकावटें बनानी पड़ती थीं। स्ट्रेची ने सभी प्रांतों में नमक की दर को बराबर करने का प्रयत्न किया और चुंगी हटाकर नमक का आना-जाना आसान कर दिया। उसने भारतीय राजाओं को वित्तीय क्षतिपूर्ति के बदले नमक बनाने के अधिकार को छोड़ने के लिए प्रेरित किया और संपूर्ण भारत के नमक- उत्पादन पर अपना नियंत्रण स्थापित किया। इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय तस्करी समाप्त हो गई और सरकार को नमक से अधिक कर मिलने लगा।
आर्थिक सुधारों के अंतर्गत दूसरा महत्वपूर्ण कार्य वित्त का विकेंद्रीकरण था। लॉर्ड मेयो ने 1870 प्रान्तीय सरकारों में उत्तरदायित्व की भावना पैदा करना करने के लिए वित्तीय विकेंद्रीकरण की नीति को आरंभ किया था और जेल, रजिस्ट्रेशन, पुलिस, शिक्षा, डाक्टरी सेवाएँ, छपाई, सड़कें जैसे कुछ मदों से होने वाली आय प्रांतीय सरकारों को दे दिया गया था। इसके अतिरिक्त, प्रान्तों को प्रतिवर्ष एक निश्चित अनुदान भी दिया जाता था। किंतु इन सुधारों से प्रान्तीय वित्त की समस्या नहीं सुलझी, क्योंकि प्रान्तीय सरकारों का व्यय आय से अधिक था।
यद्यपि लार्ड लिटन ने मेयों की प्रान्तों को आर्थिक अधिकार देने की ही नीति का अनुसरण किया लेकिन लार्ड लिटन ने वित्तीय विकेंद्रीकरण की दिशा में एक कदम और बढ़ाया। उसके द्वारा प्रान्तीय सरकारों को विभिन्न कर, जैसे- भूमिकर, उत्पादन कर, आबकारी कर, स्टाम्प कर भी हस्तांतरित कर दिये गये और प्रान्तों को सामान्य प्रशासन तथा कानून और व्यवस्था का उत्तरदायित्व भी सौंप दिया गया। अब प्रान्तीय सरकारों का वार्षिक अनुदान समाप्त कर दिया गया और प्रान्तों को संबंधित सेवाओं पर व्यय के लिए संबंधित विभाग की आय दे दी गई। लिटन की व्यवस्था में यह प्रावधान था कि यदि व्यय के बाद कोई धन बच जाए तो उसे केंद्रीय सरकार के साथ आधा-आधा बाँट लिया जाए और यदि कम पड़ जाए तो भी केंद्रीय सरकार आधा भार वहन करेगी। ऐसा करने से आशा की गई कि प्रान्तीय सरकारें अपने साधनों का विकास करेंगी और सरकार की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी। यह प्रणाली 1877 ई0 से 1882 ई0 तक चलती रही। इस प्रणाली में केवल एक दोष था कि प्रान्तीय सरकारें केन्द्रीय करों के संग्रह में उत्साह नहीं दिखाती थीं।
इस प्रकार लार्ड लिटन के काल में अकाल, अफगान युद्ध एवं आयात करों की समाप्ति से आर्थिक संकट बढ़ गया था, किंतु स्ट्रेची के सुधारों से आर्थिक स्थिति में अधिक गिरावट नहीं आई। 1880 ई0 में सैनिक विभाग में लेखा-संबंधी गलतियों के कारण वित्त विभाग की बहुत बदनामी हुई। फिर भी, स्ट्रेची के सुधारों के कारण वित्तीय स्थिति संतोषजनक बनी रहीं।
अकाल सम्बन्धी नीति -
लार्ड लिटन के प्रशासन काल में 1876 -1878 ई0 के मध्य एक विनाशकारी अकाल पड़ा, जिसमें सबसे अधिक प्रभावित प्रदेश मद्रास, बंबई, मैसूर, हैदराबाद, मध्य भारत और पंजाब थे। ऐसा माना जाता है कि अकाल का प्रभाव लगभग 2,57000 वर्ग मील और 5 करोड़ 80 लाख लोगों पर पड़ा। गॉव के गाँव उजड़ गये और भूमि के बहुत बड़े भाग पर इस दौरान कोई कृषि कार्य नहीं हुई। आर0 सी0 दत्त का अनुमान है कि एक वर्ष में लगभग 50 लाख लोग भूख से मर गये। सरकार ने अनमने ढंग से अकाल पीड़ितों की सहायता की लेकिन यह सहायता व्यवस्था पर्याप्त सिद्ध नही हुई जिससे जनता के कष्टों में वृद्धि हुई और जान-माल का भारी नुकसान हुआ। इसके अलावा यातायात और संचार साधनों में कमी से भी अकाल पीड़ितों को समय से सहायता नहीं पहुँच सकी।
यद्यपि इससे पहले भी भारत के विभिन्न भागों में अकाल पड़ चुके थे। किंतु 1876-78 का अकाल सबसे भयंकर और कष्टकारी था। बार-बार पड़ने वाले अकालों से निपटने के लिए लॉर्ड लिटन द्वारा सर रिचर्ड स्ट्रेची की अध्यक्षता में प्रथम अकाल आयोग की नियुक्ति की गई। इस आयोग ने 1880 ई0 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, किंतु तब तक लिटन जा चुका था और रिपन भारत में आ गया था। रिपन ने अकाल आयोग को सिफारिशों को स्वीकार कर लिया और ‘फेमीन इंश्योरेंस फंड की व्यवस्था की। धन प्राप्त करने के लिए व्यापार तथा व्यवसाय पर एक लाइसेंस कर लगाया गया और भूमि पर भी उपकर लगाये गये।
इसमें सिफारिश की गई थी कि अकाल के अवसर पर शारीरिक श्रम कर सकने वाले योग्य व्यक्तियों को कार्य देना चाहिए, प्रत्येक प्रान्त में एक स्थायी अकाल फण्ड की स्थापना होनी चाहिए और विभिन्न स्थानों पर रेलवे और नहरों की स्थापना की जानी चाहिए जिससे अकाल की सम्भावना कम हो और अकाल पड़ने पर वहॉं शीध्र सहायता पहुॅचायी जा सके।
सम्राट पद कानून और दिल्ली दरबार का आयोजन -
ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 1876 में सम्राट- पद अधिनियम (The Royal Titles Act) पारित किया, जिसके द्वारा महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी का पद प्रदान करते हुये उन्हे ’कैसर- ए-हिंद’ की उपाधि से विभूषित किया गया। इस उपाधि की औपचारिक घोषणा के लिए लिटन ने 1 जनवरी, 1877 को दिल्ली में एक भव्य और शानदार दरबार का आयोजन किया। दरबार की शान-शौकत पर अत्यधिक धन व्यय किया गया और वह भी उस समय जब दुर्भाग्यवश इस समय देश के अधिकांश हिस्सों में भीषण अकाल पड़ा हुआ था और लोग भूखों मर रहे थे। इस दरबार में राजाओं, नवाबों और जनता के समक्ष उपाधि की घोषणा की गई। सरकार ने मिथ्या-प्रदर्शन तथा आडंबर पर लाखों रुपया पानी की तरह बहा दिया। आर0जी0 प्रधान के अनुसार इस सम्राट पर कानून और दिल्ली दरबार से जनता में एक राष्ट्रीय अपमान की गुप्त भावना सी फैल गई। भारतीयों ने इस दिल्ली दरबार की कड़ी आलोचना की और उनमें असन्तोष तीव्र गति से फैला। कलकत्ता की एक पत्रिका ने इसकी इस आयोजन की आलोचना करते हुये कहा कि- ’‘नीरो चैन की वंशी बजा रहा था और रोम जल रहा था।“
कुल मिलाकर भारतीय दृष्टिकोण से यह घटना परोक्ष रूप से भारत के लिए लाभदायक सिद्ध हुई। दिल्ली दरबार के आयोजन से भारतीयों के मन में एक नये आंदोलन का प्रादुर्भाव हुआ, जिससे उनके मन में साम्राज्य में अपना अधिकृत स्थान प्राप्त करने की इच्छा जाग उठी।
वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, 1878 -
लार्ड लिटन का एक अन्य प्रतिक्रियावादी कार्य था वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, जिससे भारतीयों की भावनाओं को गहरा आघात पहुँचाया। एक तरफ देश के विभिन्न हिस्सों में भीषण अकाल था और अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए जो व्यवस्था उसने की थी वह नाकाफी थी। दूसरी तरफ दिल्ली दरबार के आयोजन और 1878 में अफगानिस्तान से युद्ध छेड़कर उसने देश का करोड़ों रुपया बहा दिया। भारत तथा इंग्लैंड के समाचार-पत्रों में लार्ड लिटन की इन नीतियों की खुलकर निंदा की जा रही थी। लिटन भारतीय निंदा को राजद्रोह मानता था, इसलिए उसने आयरिश समाचार-पत्रों की तरह भारतीय समाचार-पत्रों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने का निश्चय किया। भारतमंत्री से तार द्वारा स्वीकृति लेकर लिटन ने अपनी परिषद् के सदस्यों के विरोध के बावजूद 14 मार्च, 1878 को भारतीय भाषा समाचार-पत्र अधिनियम परिषद् में प्रस्तुत किया और उसी दिन उसे पारित कर दिया। इसी अधिनियम को वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट (The Vernacular press Act) के नाम से जानते है।
इस अधिनियम द्वारा लार्ड लिटन ने भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता पर अंकुश लगा दिया। इस अधिनियम के द्वारा प्रत्येक भारतीय प्रेस को सरकार के पास सुरक्षा धन जमा करने के लिए कहा गया और एक मजिस्ट्रेट को किसी भी ऐसे समाचार-पत्र का प्रकाशन बन्द करने का अधिकार दिया गया जिसमें छपने वाली खबरों से राजद्रोह या नागरिकों में असन्तोष फैलने की आशंका हो। इस अधिनियम में दंड देने का अधिकार मजिस्ट्रेटों को दिया गया था और मजिस्ट्रेट के निर्णय के विरुद्ध न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती थी। मुद्रक को यह विकल्प अवश्य दिया गया था कि वह सरकारी सेंसर को प्रूफ भेजे और ऐसी सामग्री को हटा दे, जिसे अस्वीकृत किया गया हो। यह भारतीय नागरिकों के विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता पर एक बड़ा आघात था। उस समय तक भारत में ऐसे अनेक समाचार-पत्र प्रकाशित होने लगे थे जो शासन और अंग्रेजों के व्यक्तिगत व्यवहार की कटु आलोचना करते थे। इससे अंग्रेजों के विरुद्ध जनमत का निर्माण करने में सहायता मिलती थी। यही कारण था कि लार्ड लिटन ने इस कानून के द्वारा इस स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया।
इस प्रेस एक्ट का भारत और इंग्लैंड में व्यापक रूप से विरोध हुआ और इसे ’गलाघोंटू कानून’ घोषित किया गया। सर अर्सकिन पेरी, जो इंडिया काउंसिल का सदस्य था, ने इस अधिनियम को प्रतिगामी और असंगत ’ बताया। उसका कहना था कि समाचार-पत्रों के दमन के लिए कोई साम्राज्यवादी कानून इससे कठोर नहीं हो सकता था। सुरेंद्रनाथ बनर्जी के अनुसार यह ’वज्रपात’ था। वास्तव में भारतीयों के असंतोष का कारण यह था कि यह अधिनियम केवल भारतीय भाषाओं के समाचार-पत्रों पर लागू किया गया था। अंग्रेजी समाचार-पत्रों तथा सिविल सर्विस के लोगों ने लिटन का समर्थन किया। इस विभेदकारी अधिनियम से स्पष्ट हो गया था कि लार्ड लिटन कितना बड़ा प्रतिक्रियावादी राजनीतिज्ञ था। बाद में 1882 में लार्ड रिपन ने इस अधिनियम को निरस्त कर दिया।
भारतीय शस्त्र अधिनियम, 1878
भारतीय शस्त्र अधिनियम (The Arms Act) लार्ड लिटन की दमनकारी नीति का एक और महत्वपूर्ण कदम था। 1878 के इस शस्त्र अधिनियम के अनुसार किसी भारतीय के लिए बिना लाइसेंस शस्त्र रखना अथवा उसका व्यापार करना एक दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया। इस अधिनियम को तोड़ने पर तीन वर्ष तक की जेल, अथवा जुर्माना अथवा दोनों और इसको छुपाने का प्रयत्न करने पर सात वर्ष तक की जेल, अथवा जुर्माना अथवा दोनों दंड दिये जा सकते थे। किंतु इस अधिनियम में भी भेदभाव किया गया था क्योंकि यूरोपियनों, ऐंग्लो-इंडियनों अथवा सरकार के कुछ विशेष अधिकारियों पर यह अधिनियम लागू नहीं था। अतः इस भेदभावपूर्ण कानून से भी भारतीय में तीव्र असन्तोष हुआ। इस अधिनियम से यह स्पष्ट हो गया कि भारतीयों को अविश्वासनीय माना जाता था। भारतीयों के बढ़ते हुए असंतोष को देखकर कालान्तर में लॉर्ड लिटन ने इस अधिनियम को रद्द कर दिया। इस प्रकार भारतीयों की इस विजय ने राष्ट्रीय आंदोलन में उन्हें सक्रिय सहयोग के लिए प्रोत्साहित किया।
सरकारी सेवाओं के नियमों में परिवर्तन -
सरकारी सेवाओं के विषय में भी लार्ड लिटन के समय में कुछ परिवर्तन किया गया। 1833 ई0 के कम्पनी के आदेश-पत्र द्वारा भारतीयों को बिना किसी भेदभाव के और केवल योग्यता के आधार पर बड़ी से बड़ी नौकरी प्राप्त करने की सुविधा दी गयी थी। कालान्तर में 1863 ई0 के आदेश-पत्र द्वारा सरकारी सेवा के उच्च पदों के लिए लन्दन में एक परीक्षा की व्यवस्था की गयी थी। इस प्रकार सिद्धान्ततः भारतीयों को उच्च से उच्च सरकारी सेवा में स्थान प्राप्त करने का अधिकार था, यद्यपि नागरिक सेवाओं की इन परीक्षाओं में भारतीयों का बैठना और उसमें सफल होना अत्यंत कठिन था। व्यवहारिक दृष्टि से यह सम्भव नही हो पाया था और न ही अंग्रेज शासक इसको पसन्द करते थे। 1862 से 1875 तक 50 भारतीय इस नागरिक सेवाओं की परीक्षा में सम्मिलित हुए और उनमें से केवल 10 ही सफल हो सके थे। प्रथम भारतीय सत्येंद्रनाथ टैगोर थे, जिन्हें 1864 ई0 में इस परीक्षा में सफलता प्राप्त हुई थी।
लार्ड लिटन ने भारतीयो की इस सुविधा को भी समाप्त करने का प्रयत्न किया। उसने भारतीयों के लिए एक पृथक सार्वजनिक सेवा की व्यवस्था की। प्रान्तीय सरकारों की सिफारिश और भारत सचिव की स्वीकृति के पश्चात कुछ विशेष परिवारों के व्यक्तियों को इस सेवा में लिया जा सकता था। 1878-79 में प्रस्तुत इस योजना को वैधानिक नागरिक सेवा (Statutory Civil Services) का नाम दिया गया। यद्यपि वैधानिक नागरिक सेवा में पद और वेतन वैसा नहीं था, जैसा कि सिविल सेवा में था अतः यह योजना भारतीयों में बहुत लोकप्रिय नहीं हो सकी और आठ वर्ष बाद ही बंद कर दी गई किन्तु इस अवसर पर उसने भारतीयों को उच्च सेवाओं मं प्रवेश करने से रोक दिया। भारत सचिव, लिटन के इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थे कि भारतीयों के लिए भारतीय नागरिक सेवा पूर्णतया बंद कर दी जाए। फिर भी, भारतीयों को इस सेवा में जाने से रोकने के लिए परीक्षा की आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर दी गई। चूॅंकि परीक्षा केवल लंदन में होती थी, इसलिए इस आयु के भारतीयों के लिए वहाँ जाकर परीक्षा देना बहुत कठिन था। वास्तव में यह नागरिक सेवाओं में भारतीयों के अवसरों को समाप्त करने का एक प्रयत्न था।
यह भी उल्लेखनीय है कि इसके पूर्व भी लॉर्ड लिटन ने भारतीयों को सिविल सर्विस सेवाओं में जाने से रोकने के लिए एक पृथक् संवृत स्थानीय सेवा (Close Native Service) की योजना प्रस्तुत की थी। किंतु गृह अधिकारी लिटन के विचार से सहमत नहीं हुए थे, क्योंकि उनके अनुसार एक काली और एक गोरी सेवा संभव नहीं थी और इससे भेदभाव की गंध आती।
द्वितीय अफ़गान युद्ध (1878-1880)
लार्ड लिटन को प्रधानमंत्री डिजरायली ने विशेष रूप से रूसी प्रभाव को रोकने और अफगानिस्तान के प्रति अग्रगामी नीति के क्रियान्वयन के लिए भारत भेजा था। इस नीति का उद्देश्य अफगानिस्तान को ब्रिटिश नियंत्रण में लाकर भारतीय साम्राज्य के लिए ‘वैज्ञानिक सीमा‘‘ प्राप्त करना था। इस साम्राज्यवादी नीति के कारण लिटन ने अफगानों से एक मूर्खतापूर्ण युद्ध छेड़ दिया, जो अपने आरंभ तथा परिणामों में प्रथम अफगान युद्ध (1839-1842) के समान ही विनाशकारी सिद्ध हुआ। इसकी विस्तृत चर्चा अगले अध्याय ब्रिटिश अफगान नीति : लॉरेन्स से रिपन तक में की गई है। सब कुछ करने के बाद अंततः लिटन की अफ़गान नीति पूर्णतया असफल हो गई और इसके परिणाम न केवल लिटन की प्रतिष्ठा के लिए घातक साबित हुए, बल्कि ब्रिटिश रूढ़िवादी सरकार के पतन का कारण बने।
1880 ई0 में इंग्लैंड में चुनाव हुए जिसमें उदारवादी दल सत्ता में आया और उसके नेता ग्लैडस्टोन इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बन गये। फलतः वायसराय लॉर्ड लिटन को 1880 ई0 में अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। लिटन ने एक पृथक् उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत बनाने की योजना प्रस्तुत की किंतु यह योजना लॉर्ड कर्जन के काल में ही क्रियान्वित हो सकी। उसने भारतीय नरेशों की एक अंतः परिषद् बनाने का भी विचार किया, किंतु यह योजना भी 1921 ई0 में चैंबर ऑफ प्रिंसेज के रूप में मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड योजना के अंतर्गत ही अस्तित्व में आ सकी।
लार्ड लिटन का मूल्यांकन
आन्तरिक नीति के क्षेत्र में लार्ड लिटन द्वारा किये गये समस्त कार्यो से यह स्पष्ट होता है कि उसे भारतीयों के प्रति घोर अविश्वास था और उसका एकमात्र लक्ष्य भारतीयों का दमन कर ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा करना था। लिटन एक कल्पनाशील व्यक्ति था, जो एक प्रशासक के रूप में असफल रहा। भारत में किसी वायसराय के कार्यों की इतनी कटु आलोचना नहीं हुई, जितनी लिटन की गई। इसका मुख्य कारण यह था कि वह घोर साम्राज्यवादी था और भारत को एक उपनिवेश मात्र समझता था। उसने भारतीयों के साथ अत्यंत अपमानजनक दुर्व्यवहार किया। वह प्रजातीय भावना से पीड़ित था और भारतीयों को निम्न, अयोग्य और अविश्वासी समझता था। उसने आई0सी0एस0 में भारतीयों के प्रवेश को रोकने का हरसंभव प्रयास किया। उसके काल में लाखों लोग अकाल में काल के ग्रास बन गये और हजारों गाँव उजड़ गये। ऐसे समय में उसने भारतीयों का उपहास उड़ाने और ब्रिटिश शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए शानदार दिल्ली दरबार का आयोजन किया। वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट के द्वारा उसने भारतीयों के अभिव्यक्ति के अधिकार को समाप्त कर दिया। उसके सभी कार्य भारतीय विरोधी थे और सभी में प्रजातीयता की गंध थी। अफगान युद्ध और अकाल के कारण उसका कार्यकाल भारतीयों के लिए दुखदायी रहा। वस्तुतः लार्ड लिटन साम्राज्यवादी और सामंतवादी विचारधारा का व्यक्ति था। उसका प्रशासन मानवीय भावनाओं से शून्य था। जो भी हो, लिटन की दमनकारी नीतियों से भारतीय समाज में नई जागृति आई। उसकी अप्रिय और दमनकारी नीति से भारत की जनता में असंतोष फैलना स्वाभाविक था और इस प्रकार न चाहते हुए भी उसने भारत पर उपकार कर दिया।