Introduction (विषय-प्रवेश):आठवीं शदी के दौरान, कन्नौज पर नियंत्रण के लिए भारत के तीन प्रमुख साम्राज्यों, जिनके नाम पाल, गुर्जर-प्रतिहार और राष्ट्रकूट थे, के बीच संघर्ष का आरम्भ हुआ। पालों का भारत के पूर्वी भागों पर शासन था जबकि प्रतिहार के नियंत्रण में पश्चिमी भारत का अवंती-जालौर क्षेत्र था। राष्ट्रकूटों ने भारत के दक्कन क्षेत्र पर शासन किया था। इन तीन राजवंशों के बीच कन्नौज पर नियंत्रण के लिए हुए संघर्ष को भारतीय इतिहास में त्रिपक्षीय संघर्ष के रूप में जाना जाता है।
पूर्व मध्यकालीन उत्तर भारत में साम्राज्य विस्तार हेतु तीन प्रमुख शक्तियाँ पाल, प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट प्रयास कर रही थी। साम्राज्य विस्तार हेतु घटित इस त्रिपक्षीय संघर्ष की अनवरत श्रृखंला प्राचीन भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। तत्कालीन परिस्थितियों मे कन्नौज पर अधिपत्य किए बिना उत्तर भारत का राजा बनना तथा चक्रवर्ती सम्राट कहलाना सम्भव नहीं था। इनके परस्पर संघर्ष मे आक्रमण तथा प्रत्याक्रमण की श्रृखंला शक्ति परीक्षण तथा शक्ति सन्तुलन के उद्देश्य से लगभग दो सौ साल तक चलती रही। हर्ष के शासनकाल की समाप्ति के पश्चात् कान्यकुब्ज (कन्नौज) पर निर्बल आयुध वंश का राज्य था जिससे प्रोत्साहित होकर और परिस्थिति का लाभ उठाकर प्रतिहार ओर पाल दोनों वंशों ने कन्नौज राज्य को अपने अधिकार में रखने की कोशिश की। अवसर पाकर दक्षिणी भारत के राष्ट्रकूट वंश ने भी उत्तर भारत की राजनीति में भाग लिया। परिणामतः इन तीनों वंशों के बीच दीर्धकालीन संघर्ष का सूत्रपात हुआ। यह त्रिपक्षीय संघर्ष पूर्व मध्यकालीन भारत की आठवीं व नवीं शताब्दी की एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। ये सभी हर्षोत्तर काल में उत्तरी भारत में उत्पन्न हई रिक्तता का लाभ उठाकर गंगा घाटी का स्वामित्व प्राप्त करना चाहते थे और कन्नौज इस राजनीतिक लक्ष्य का प्रतीक बन गया था।
इस प्रकार पाल, गुर्जर-प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट उत्तर भारत के प्रमुख नगर कन्नौज पर आधिपत्य जमाने के लिये लम्बे समय तक संघर्ष करते रहे। इसे ही त्रिशक्ति संघर्ष, त्रिपक्षीय संघर्ष, त्रिकोणात्मक संघर्ष, त्रिवंशीय त्रिराज्यीय संघर्ष आदि नामों से जाना जाता है।
त्रिपक्षीय संघर्ष की जानकारी के स्रोत –
त्रिपक्षीय संघर्ष के विषय में जानकारी सामान्यतः इसमें संलग्न शासकों तथा उनके राजवशों के अभिलेखो तथा तत्कालीन व कालान्तर में रचित साहित्य से प्राप्त होते है।
अभिलेखीय स्रोतो के रूप में मिहिर भोज का ग्वालियर अभिलेख, धर्मपाल का भागलपुर ताम्रपत्र अभिलेख, अमोधवर्ष प्रथम का संजन ताम्रपत्र लेख, बडौदा अभिलेख, डिंडौरी एवं राघनपुर के अभिलेख बादल स्तम्भ लेख, दुवकुण्ड अभिलेख, संजन अभिलेख आदि प्रमुख है। साहित्यिक स्रोतो में ग्यारहवीं शती में सोड्डल द्वारा रचित उदयसुन्दरी कथा तथा संध्याकर नन्दी द्वारा रचित रामचरित महत्वपूर्ण हैं। हालॉंकि इन साहित्यिक स्रोतों में विरोधाभास भी दिखाई पडता है परन्तु फिर भी कन्नौज के त्रिपक्षीय संघर्ष की जानकारी प्राप्त करने के लिए ये महत्वपूर्ण विवरण है। विदेशी यात्रियों में अरब यात्री सुलेमान का विवरण भी महत्त्वपूर्ण हैं।
कन्नौज की तात्कालिक स्थिति –
कन्नौज का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व रहा है जिसमें वर्द्धनवंश तथा हर्षवर्द्धन जैसे शासकों ने अनेक नये आयाम और जोडे। परिणामतः कन्नौज साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र के रुप में स्थापित हो गया। इतना ही नही तात्कालीन उत्तर भारत के अनेक यशस्वी साहित्यकार, दार्शनिक, विद्वान आदि कन्नौज की राजसभा में स्थान पाकर सम्मानित होते रहते थे। संस्कृत के वागपतिराज तथा भवभूति जैसे कवि यशोवर्मन के आश्रय में रहते थे। इनसे पूर्व बाणभट्ट जैसे उत्कृष्ट गद्यकार कन्नौज की राज्य सभा में रह चुके थे।
यशोवमर्न के गौरवपूर्ण इतिहास के पश्चात् लगभग बीस वर्ष तक कन्नौज का इतिहास स्पष्ट रूप से नहीं मिलता, यशोवर्मन की मृत्यु के बीस वर्ष बाद एक नवीन राजवंश कन्नौज के राजनीतिक रंगमंच पर दिखाई पडता हैं जिसके शासक कमश वज्रायुध, इन्द्रायुध एव चक्रायुध थे। इन तीनों शासकों के अन्त में हम आयुध शब्द पाते है इसलिए इस वंश को आयुधवंश के नाम से जाना जाता है। यद्यपि पायर्स महोदय ने इन शासकों को यशोवर्मन का उत्तराधिकारी ही माना है। इसी आयुधवंश के राज्यकाल में त्रिपक्षीय संघर्ष की शुरुआत हुई।
इस वंश के ज्ञात तथा त्रिपक्षीय संघर्ष से सम्बन्धित राजाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है –
वजायुध – दसवीं शताब्दी की प्रसिद्ध कृति कर्पूरमंजरी में वज्रायुध नाम के शासक की चर्चा मिलती है जिसे पंचाल के राजा के रूप में उल्लिखित किया गया है। इसकी राजधानी कन्नौज ही बताई गई है। जैन रचना हरिवंश से ज्ञात होता है कि कन्नौज में इन्द्रयुध नाम का एक शासक सन् 783 ई0 में शासन कर रहा था। इससे अनुमान लगाया जाता है कि वज्रायुध का शासन 783 ई0 के पूर्व ही रहा होगा। कुछ इतिहासकारों ने वज्रायुध का शासनकाल 770 ई0 के आस-पास तय किया है। कल्हण की राजतरंगिणी से पता चलता है कि काश्मीर के राजा जयपीड विनयादित्य ने कन्नौज के राजा को पराजित किया था। यदि जयपीड विनयादित्य ने अपने शासन के प्रारंभिक चरण में कन्नौज पर आक्रमण किया था तो निश्चित रुप से कन्नौज का शासक इन्द्रायुध ही रहा होगा।
इन्द्रायुध – इन्द्रायुध नाम का शासक वज्रायुध के बाद ही हुआ। जैन ग्रन्थ हरिवंश से विदित होता है कि इन्द्रयुध उत्तर के राजा के रुप में प्रसिद्ध था। डा0 ए0 एस0 अल्तकर के अनुसार उत्तर भारत का प्रमुख नगर कन्नौज था जिसका राजा इन्द्रायुध केवल पदवीधारी सम्राट था। इसी समय बंगाल में पालवंश, उज्जैन में गुर्जर-प्रतिहार वंश और दक्षिण के राष्ट्रकूट वंश का उत्कर्ष हो रहा था। तीनों राजवंशों की साम्राज्यवादिता की नीति का शिकार निर्बल इन्द्रायुध को होना पडा। तीनों वंश के उत्तर भारत पर आक्रमण करने के इसी संघर्ष को त्रिकोणात्मक संघर्ष के नाम से पुकारते है।
सर्वप्रथम गुर्जर-प्रतिहार वंश के राजा वत्सराज ने कन्नौज पर अधिकार किया। इससे पाल वंश के राजा धर्मपाल को ईर्ष्या हुई और उसने कन्नौज पर आक्रमण कर दिया परन्तु वत्सराज ने उसे पराजित कर दिया। कुछ समय पश्चात् राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव उत्तरी भारत पर आक्रमण करके गुर्जर-प्रतिहार नरेश वत्सराज एवं पाल नरेश धर्मपाल दोनो वंशें के राजाओं को पराजित कर दक्षिण लौट गया। भागलपुर अभिलेख से पता चलता है कि जब ध्रुव दक्षिण को लौट गया तब धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण कर वहॉ के राजा इन्द्रायुध को हटाकर चक्रायुध को राजा बनाया।
चक्रायुध – आयुध वंश का अन्तिम ज्ञात राजा चक्रायुध था। खालिमपुर अभिलेख से जानकारी मिलती है कि पाल नरेश धर्मपाल ने आसपास के विभिन्न प्रदेशों के राजाओं की एक सभा कर कन्नौज नरेश चक्रायुध का अभिषेक किया। सी0बी0वैद्य का मानना है कि ये सभी प्रदेश धर्मपाल के अधीन थे लेकिन बैद्य महोदय का यह मत तर्कसंगत प्रतीत नही होता है। कुछ समय बाद गुर्जर-प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय ने चक्रायुध पर आक्रमण किया और उसे पराजित कर अपने राज्य में मिला लिया और यही से इस आयुध वंश का पतन हो गया।
त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लेने वाली शक्तियाँ –
त्रिपक्षीय संघर्ष में जिन तीन शक्तियों ने भाग लिया उनमें गुजरात-राजपूतान के गुर्जर-प्रतिहार, बंगाल के पाल और दक्षिण के राष्ट्रकूट थे।
गुर्जर-प्रतिहार वंश :
गुर्जर-प्रतिहार राजवंश भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीन एवं मध्यकालीन दौर के संक्रमण काल में साम्राज्य स्थापित करने वाला एक राजवंश था जिसके शासकों ने मध्य-उत्तर भारत के बड़े हिस्से पर मध्य-6वीं सदी से 11वीं सदी के बीच शासन किया। इस वंश का संस्थापक’हरिश्चन्द्र’(6ठी शताब्दी) था , परन्तु वास्तविक संस्थापक नागभट्ट प्रथम (730-756) था जिसके वंशजों ने पहले उज्जैन और बाद में कन्नौज को राजधानी बनाते हुए एक विस्तृत भूभाग पर शासन किया। नागभट्ट द्वारा 725 ईसवी में साम्राज्य की स्थापना से पूर्व भी गुर्जर-प्रतिहारों द्वारा मंडोर, मारवाड़ इत्यादि इलाकों में सामंतों के रूप में 6ठीं से 9वीं सदी के बीच शासन किया गया किंतु एक संगठित साम्राज्य के रूप में इसे स्थापित करने का श्रेय नागभट्ट को जाता है।
गुर्जर-प्रतिहार राजवंश की उत्पत्ति इतिहासकारों के बीच बहस का विषय है। इस राजवंश के शासकों ने अपने लिए “प्रतिहार“ का उपयोग किया जो उनके द्वारा स्वयं चुना हुआ पदनाम अथवा उपनाम था। इनका दावा है कि ये रामायण के सहनायक और राम के भाई लक्ष्मण के वंशज हैं, लक्ष्मण ने एक प्रतिहारी अर्थात द्वार रक्षक की तरह राम की सेवा की, जिससे इस वंश का नाम “प्रतिहार“ पड़ा। कुछ आधुनिक इतिहासकार यह व्याख्या प्रस्तुत करते हैं कि ये राष्ट्रकूटों के यहाँ सेना में रक्षक (प्रतिहार) थे जिससे यह शब्द निकला। प्रतिहार वंश’ को गुर्जर प्रतिहार वंश (छठी शताब्दी से 1036 ई.) इसलिए कहा गया, क्योंकि ये गुर्जरों की ही एक शाखा थे, जिनकी उत्पत्ति गुजरात व दक्षिण-पश्चिम राजस्थान में हुई थी।
नागभट्ट प्रथम-
गुर्जर-प्रतिहार वंश का संस्थापक नागभट्ट प्रथम (730-756 ई0) था। वह एक पराक्रमी शासक था। ग्वालियर अभिलेख से पता चलता है कि उसने एक शक्तिशाली मलेच्छ शासक की विशाल सेना को परास्त कर नष्ट कर दिया। संभवतः वह मलेच्छ शासक सिन्ध का अरब शासक था। इस पकार नागभट्ट ने अरबो के आकमण से पश्चिमी भारत की रक्षा की तथा
उसके द्वारा रौदे हुए अनेक प्रदेशों को पुनः जीत लिया। ग्वालियर लेख मे कहा गया है कि ‘मलेच्छ राजा की विशाल सेनाओं को चूर करने वाला मानो नारायण रुप में वह लोगों की रक्षा के लिए उपस्थित हुआ था।
ऐसा प्रतीत होता है कि नागभट्ट ने अरबों को परास्त कर भडौच के आस-पास का क्षेत्र छीन लिया। इसके पहले अरबो ंने जयभट्ट को पराजित कर भडौच पर अपना अधिकार कर लिया था। इस प्रकार गुजरात और राजपूताना के एक बडे भू-भाग का वह शासक बन बैठा।
वत्सराज (775-800 ई0)-
नागभट्ट प्रथम के बाद उसके दो भतीजे- कुक्कुक तथा देवराज ने शासन किया। वे दोनो निर्बल शासक थे जिनकी किसी भी उपलब्धि के बारे में हमे ज्ञात नही है। इस वंश का चौथा शासक वत्सराज हुआ जो देवराज का पुत्र था। एक वह शक्तिशाली शासक था जिसे गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जा सकता है। उसने कन्नौज पर आक्रमण कर वहॉ के शासक इन्द्रायुध को हराया तथा उसे अपने अधीन कर लिया। वत्सराज को सर्वाधिक महत्वपूर्ण सफलता गौडों के विरुद्ध प्राप्त हुई और उसने गौड नरेश को आसानी से पराजित किया। जयानक कृत पृथ्वीराज विजय से पता चलता है कि उसके सामन्त दुर्लभराज ने गौड देश पर आक्रमण कर विजय प्राप्त किया था। मजूमदार का विचार है कि यह पराजित नरेश पालवंशी शासक धर्मपाल था।
इस प्रकार वत्सराज उत्तर भारत के एक विशाल भू-भाग का स्वामी बन बैठा परन्तु राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव ने उस पर आक्रमण किया और युद्ध में बुरी तरह परास्त कर दिया। भयभीत होकर वत्सराज राजपूताना के रेगिस्तान की ओर भाग गया। वास्तव में ध्रुव का आक्रमण मात्र एक धावा था और उत्तर में अपनी शक्ति का अहसास कराने के उपरान्त वह स्वदेश लौट गया। ध्रुव के वापस लौटने के बाद भी वत्सराज छुपा रहा जिसका लाभ उठाते हुए पाल शासक धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण किया और वत्सराज के मनोनीत शासक इन्द्रायुध को परास्त किया। धर्मपाल ने चक्रायुध को कन्नौज का नया शासक बनाया।
नागभट्ट द्वितीय (800-833 ई0) –
वत्सराज के पश्चात् उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय गुर्जर-प्रतिहार वंश का राजा बना। वह अपने वंश की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित करने के प्रयास में जुट गया। ग्वालियर लेख से पता चलता है कि उसने कन्नौज पर आक्रमण कर चक्रायुध को वहॉ से भगा दिया और कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया। नागभट्ट द्वितीय ने सिन्ध, विदर्भ और कलिंग को भी जीता। अपनी स्थिती मजबूत बना लेने के बाद नागभट्ट द्वितीय ने पालों के विरुद्ध अभियान प्रारम्भ किया जिसके शासक धर्मपाल के हाथों उसके पिता वत्सराज की पराजय हुई थी। मुंगेर के समीप एक युद्ध में उसने धर्मपाल को भी पराजित कर दिया। इस प्रकार वह उत्तरी भारत का शक्तिशाली शासक बन बैठा। अपनी महानता एवं पराक्रम को सूचित करने के लिए उसने ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर‘ की उपाधि धारण की।
परन्तु नागभट्ट द्वितीय की शक्ति को राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द सहन नही कर सका और अपने पिता की भॉंति उसने भी उत्तर की राजनीति में हस्तक्षेप किया। सर्वप्रथम उसने अपने भाई इन्द्र को गुजरात का राज्यपाल बनाया और पूरी शक्ति के साथ उसने नागभट्ट द्वितीय पर आक्रमण किया। इस युद्ध में नागभट्ट द्वितीय बुरी तरह पराजित हुआ। हालॉंकि इस पराजय से नागभट्ट द्वितीय हताश नही हुआ और उसने उत्तर भारत के अनेक राज्यों की विजय कर इस क्षति की पूर्ति कर ली। उसने लगभग उन सभी प्रदेशों को अपने अधिकार में कर लिया जो पहले धर्मपाल के अधीन थे। अब नागभट्ट का साम्राज्य हिमालय से नर्मदा नदी तक तथा गुजरात से लेकर बंगाल तक विस्तृत हो गया। इस प्रकार वह अपने वंश का एक प्रतापी शासक साबित हुआ जिसने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करने में सफलता पायी।
रामभद्र(833-836 ई0)-
नागभट्ट द्वितीय के बाद उसका पुत्र रामभद्र राजसिंहासन पर बैठा। वह एक निर्बल शासक था जिसने मात्र तीन वर्ष तक राज्य किया। उसके समय में गुर्जर-प्रतिहारों को पालों के हाथों पराजय का सामना करना पडा। नारायणपाल के बादल लेख से पता चलता है कि देवपाल ने गुर्जर राजाओं के घमण्ड को चूर-चूर कर दिया था। किन्तु यहॉ यह भी उल्लेखनीय है कि साम्राज्य के कुछ दूरस्थ प्रदेशों पर उसका अधिकार अभी भी बना रहा।
मिहिरभोज प्रथम (836-885 ई0) –
रामभद्र का पुत्र और उत्तराधिकारी मिहिरभोज प्रथम इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली और महत्वपूर्ण शासक हुआ। ग्वालियर प्रशस्ति के अतिरिक्त कल्हण और अरब यात्री सुलेमान के विवरणों से भी हम उसके काल की घटनाओं का ज्ञान प्राप्त कर सकते है। राजा बनने के बाद मिहिरभोज का पहला महत्वपूर्ण कार्य साम्राज्य का सुदृढीकरण था। सर्वप्रथम उसने अपने पिता के निर्बल शासनकाल में स्वतन्त्र हुए प्रान्तों को पुनः अपनी अधीनता में किया। उसने मध्य भारत तथा राजपूताना में अपनी स्थिती सुदृढ की और कलचुरियों के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित किया।
मिहिरभोज के समय में भी प्रतिहारों की पालों तथा राष्ट्रकूटों के साथ पुरानी प्रतिद्वन्दिता चलती रही। मिहिरभोज दो पाल राजाओं – देवपाल और विग्रहपाल का समकालीन था। एक ओर जहॉ पाल लेख प्रतिहारों पर विजय का विवरण देते है वही प्रतिहार लेख पालों पर विजय का दावा प्रस्तुत करते है। तमाम साक्ष्यों का अध्ययन करने के बाद यही कहा जा सकता है कि प्रारंभिक चरण में देवपाल का मिहिरभोज के विरुद्ध सफलता प्राप्त हुई परन्तु देवपाल के शासन के अन्तिम दिनों में मिहिरभोज ने अपनी पराजय का बदला ले लिया और पाल साम्राज्य के पश्चिमी भागों पर उसका अधिकार हो गया।
पालों से निपटने के बाद मिहिरभोज ने राष्ट्रकूटों की ओर रुख किया और राष्ट्रकुट नरेश अमोघवर्ष के समय मिहिरभोज ने उज्जैन पर अधिकार करते हुए नर्मदा नदी तक धावा बोला। अमोघवर्ष का सामन्त ध्रुव ने साहस के साथ मिहिरभोज की सेना का सामना किया और उसकी सेना को खदेडने में वह सफल रहा। अमोघवर्ष के पुत्र कृष्ण द्वितीय के समय में भी दोनों का संघर्ष चलता रहा। जिस समय राष्ट्रकूट नरेश चालुक्यों के साथ युद्ध में व्यस्त था, उसी समय मिहिरभोज ने उस पर आक्रमण कर नर्मदा नदी के तट पर उसे परास्त किया। इस विजय के फलस्वरुप मालवा पर उसका अधिकार स्थापित हो गया। इसके बाद वह गुजरात की ओर बढा और खेडा जिले के आस-पास का भू-भाग पर अधिकार करने में सफल रहा। इस प्रकार भोज ने उत्तर भारत में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना कर ली। उत्तर-पश्चिम में उसका साम्राज्य पंजाब तक विस्तृत था। पूर्व में गोरखपुर के कलचुरि उसके सामन्त थे तथा सम्पूर्ण अवध का क्षेत्र उसके अधीन था। दक्षिण में उसका साम्राज्य नर्मदा नदी तक विस्तृत था। उसने कन्नौज को इस विशाल साम्राज्य की राजधानी बनाई तथा लगभग 50 वर्षो तक शासन किया।
मिहिरभोज वैष्णव मतावलम्बी था तथा उसने ‘आदिवाराह‘ तथा ‘प्रभास‘ जैसी उपाधियॉ धारण की थी। निश्चय ही गुर्जर-प्रतिहार वंश का वह सबसे शक्तिशाली शासक था। अरब यात्री सुलेमान ने उसके शासनकाल और साम्राज्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। 915-16 ई0 में सिन्ध की यात्रा करने वाले अरब मुस्लिम यात्री अलमसूदी यहॉ तक लिखता है कि अरब के लोग उससे बहुत डरते थे। विलादुरी कहता है कि अरबों को अपनी रक्षा के लिए कोई सुरक्षित स्थान मिलना ही कठिन था। उन्होने एक झील के किनारे अलहिन्द सीमा पर अल-महफूज नामक एक शहर बसाया था जिसका अर्थ है – सुरक्षित स्थान। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भोज ने पश्चिम में अरबों के प्रसार को रोक दिया था। इस प्रकार अपने वीर कृत्य से उसने भारत भूमि की महान सेवा की।
महेन्द्रपाल प्रथम (885-910 ई0)-
मिहिरभोज प्रथम के बाद उसकी पत्नी चन्द्रभट्टारिका देवी से उत्पन्न पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम शासक बना। उसने न केवल उत्तराधिकार में अपने पिता से प्राप्त साम्राज्य को अक्षुण्ण बनाये रखा, अपितु पूर्व में उसका विस्तार भी किया। विभिन्न अभिलेखों से उसके साम्राज्य विस्तार की सूचना मिलती है और कहा गया है कि उसने बंगाल तक के क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित करने में सफलता पाई। मालवा का परमार शासक वाग्पति भी संभवतः उसकी अधीनता स्वीकार करता था। काठियावाड के चालुक्य शासक भी उसके सामन्त थे। इस प्रकार महेन्द्रपाल ने एक अत्यन्त विस्तृत साम्राज्य पर शासन किया और जीवन पर्यन्त अपने शत्रुओं को दबाकर रखा।
महेन्द्रपाल न केवल एक विजेता एवं साम्राज्य निर्माता था अपितु एक कुशल प्रशासक एवं साहित्य का महान संरक्षक भी था। उसकी राज्यसभा में प्रसिद्ध विद्वान राजशेखर निवास करते थे जो उसके राजगुरु भी थे। राजशेखर ने ‘कर्पूरमंजरी‘, ‘काव्यमिमांसा‘, ‘विद्यशालभंजिका‘, ‘बालरामायण‘, ‘भुवनकोश‘, ‘हरविलास‘ जैसे प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना की थी। इन रचनाओं से कन्नौज नगर के वैभव और समृद्धि का पता चलता है। इस प्रकार विभिन्न स्रोतों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुॅचते है कि महेन्द्रपाल के शासनकाल में राजनीतिक व सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य की अभूतपूर्व उन्नति हुई। कन्नौज ने एक बार पुनः वही गौरव और प्रतिष्ठा प्राप्त कर लिया जो हर्षवर्द्धन के शासनकाल में उसे प्राप्त था। यह नगर हिन्दू सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र बिन्दु बन गया तथा शक्ति और सौन्दर्य में इसकी बराबरी करने वाला कोई दूसरा नगर नही रहा।
महीपाल (912-944 ई0) –
महेन्द्रपाल के पुत्र भोज द्वितीय को सिंहासन से हटाकर महिपाल स्वयं सिंहासनारुढ हुआ। इसके काल में भी कन्नौज के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष का दौर चलता रहा। 915 ई0 से 918 ई0 के बीच राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र तृतीय ने कन्नौज पर आक्रमण कर दिया और महिपाल को प्रयाग में शरण लेनी पडी। इन्द्र तृतीय के इस अभियान में उसके चालुक्य सामन्त नरसिंह ने सहायता दी। किन्तु दक्षिण के शासक के लिए उत्तर भारत में अधिक समय तक ठहर पाना मुश्किल था। इन्द्र तृतीय के लौटने के बाद महिपाल ने अपने साम्राज्य के काफी बडे भाग पर पुनः आधिपत्य ही स्थापित नही किया वरन् उसने अपनी शक्ति और राज्य को पूरी लगन के साथ संगठित भी किया। हालॉंकि पाल शासकों ने उसके संकट का लाभ उठाते हुए उसके राज्य का कुछ भाग उससे छीन लिया। 940 ई0 के आसपास राष्ट्रकूटों ने पुनः आक्रमण करके कालिंजर और चित्रकूट के दुर्गो को अपने अधीन कर लिया।
कुल मिलाकर महिपाल का शासनकाल शान्ति और समृद्धि का काल रहा। उसने अपने साम्राज्य को न केवल अक्षुण्ण बनाये रखा अपितु उसमें कुछ विस्तार भी किया। गुजरात जैसे दूरस्थ प्रदेश पर भी उसका अधिकार बना रहा तथा वहॉ उसका सामन्त धरणिवराह शासन करता था। राजशेखर उसे ‘आर्यावर्त का महाराजाधिराज‘ कहता है और उसने उसके विजयों का बडा ही काव्यात्मक विवरण दिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि महीपाल की सफलताओं के वावजूद राष्ट्रकूटों के आक्रमण से गुर्जर-प्रतिहारों को जो आघात पहुॅचा उससे वे संभल नही सके। महीपाल के समय में ही प्रतिहार साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो गया।
गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का पतन –
प्रतिहार साम्राज्य पर राष्ट्रकूटों तथा पालवंशीय शासकों के आघात के कारण चन्देल, चेदि तथा परमार शासक भी अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक सत्ता के लिए लालायित हो उठे। 915-16 ई0 में भारत भ्रमण करने वाले बगदाद के यात्री अल-मसूदी ने कन्नौज के प्रतिहार सम्राट की शक्ति तथा सम्पन्नता की चर्चा की है। महीपाल के बाद महेन्द्रपाल द्वितीय, देवपाल, विनायक पाल द्वितीय, महिपाल द्वितीय, तथा विजयपाल जैसे निर्बल शासको के काल में प्रतिहार साम्राज्य के विघटन की गति तेज हो गयी और कन्नौज की केन्द्रीय शक्ति पर भी आघात लगा। प्रतिहारों के सामन्त गुजरात के चालुक्य, जेजातभुक्ति के चन्देल, ग्वालियर के कच्छपघात, मध्यभारत के कलचुरि, मालवा के परमार, शाकंभरी के चौहान आदि प्रान्तीय तथा क्षेत्रीय स्तर पर स्वतन्त्र हो गये। 1018 ई0 में महमूद गजनवी ने राज्यपाल पर भीषण आक्रमण करके उसे अपने अधीन कर लिया। बाद में चन्देल शासक गंडदेव तथा विद्याधर ने राज्यपाल की हत्या करने के बाद उसके लडके त्रिलोचनपाल को कन्नौज का शासक बनाया जिसे 1019 ई0 में महमूद गजनवी ने पराजित किया। इस वंश का अन्तिम शासक यशपाल 1036 ई0 तक एक छोटे राज्य का शासक बना रहा। इस प्रकार कन्नौज पर आधिपत्य के लिए होने वाले त्रिपक्षीय संघर्ष का अन्त भी प्रतिहार वंश के अन्त के साथ ही हो जाता है।
यहॉ यह उल्लेखनीय है कि सिन्ध की ओर से राजस्थान पर होने वाले अरब शासकों के आक्रमण को रोकने के लिए उनकी ख्याति में वृद्धि हुई। अरब यात्रियों के अनुसार प्रतिहार शासकों के पास सर्वोत्तम अश्वारोही सैनिक थे।
बंगाल के पाल वंश :
बंगाल पर हर्ष की विजय और बाद में 637 ई० में गौड़ नरेश शशांक की मृत्यु के पश्चात बंगाल में अराजकता का दौर शुरू हुआ जो लगभग एक शताब्दी तक चलता रहा। बाद में हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद कश्मीर के शासक ललितादित्य मुक्तापीड़ ने कन्नौज पर अधिकार करने के बाद बंगाल के क्षेत्र में भी आक्रमण किया और लूटपाट करके ही संतुष्ट होकर लौट गया। इसी बीच बंगाल को कुछ अन्य बाह्य आक्रमणों का भी सामना करना पड़ा क्योंकि उस समय वह क्षेत्र शासक विहीन क्षेत्र था जिस पर कोई भी आसानी से अभियान कर सकता था। ऐसे में वहां के स्थानीय कुलीनों द्वारा यह अनुभव किया गया कि यदि यहां एक शक्तिशाली केंद्रीय शासन स्थापित किया जाता तो इस प्रकार की अराजकता व अव्यवस्था की स्थिति को सुधारा जा सकता था। अतः 8वीं सदी के मध्य में अशांति एवं अव्यवस्था से ऊब कर बंगाल के प्रमुख नागरिकों ने गोपाल नामक एक सुयोग्य सेनानायक को अपना शासक चुन लिया। गोपाल ने 750 ई० में एक नए राजवंश की स्थापना की जो भारतीय इतिहास में ’पाल वंश’ के रूप में विख्यात हुआ जिसने बंगाल में लगभग 400 वर्षों तक राज्य किया। इतने दीर्घकालिक शासनकाल में पाल वंश के नेतृत्व में राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से बंगाल की अभूतपूर्व प्रगति हुई।
गोपाल : (750-770 ई०)-
पाल वंश की स्थापना का श्रेय गोपाल को जाता है। गोपाल ने बंगाल में शांति और सुव्यवस्था स्थापित की। उसका आरंभिक राज्य पूर्वी बंगाल में था किंतु अंतिम समय तक उसने पूरे बंगाल पर अपना अधिकार सुदृढ़ कर लिया। देवपाल के मुंगेर लेख में वर्णन मिलता है कि गोपाल ने समुद्र तट तक की पृथ्वी की विजय की। किंतु यह वर्णन अलंकारिक मात्र है, संभवतः उसने बंगाल के समुद्र तट तक विजय की थी। वर्तमान समय में हमें गोपाल की राजनीतिक उपलब्धियों के विषय में इससे अधिक कुछ ज्ञात नहीं है।
गोपाल एक बौद्ध मतावलंबी शासक था तथा उसने नालंदा में एक विहार का निर्माण करवाया। तारानाथ का मानना है कि गोपाल ने ओतान्तपुर का प्रसिद्ध विहार बनवाया।
धर्मपाल : (770 – 810 ई०)-
गोपाल के बाद उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र धर्मपाल, पाल वंश की गद्दी पर बैठा। इस समय तक उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति काफी जटिल हो चुकी थी। उसके प्रतिद्वंदी के रूप में राजपूताना और मालवा के क्षेत्र में गुर्जर प्रतिहारों का उदय हो चुका था तथा दक्षिण भारत के दक्कन क्षेत्र पर राष्ट्रकूट शासन कर रहे थे। इन्ही के साथ उत्तर भारत में वर्चस्व के लिए धर्मपाल का संघर्ष हुआ। जिस समय पाल वंश में धर्मपाल का शासन था उस समय उसका प्रतिहार प्रतिद्वंदी वत्सराज था। इससे पहले कि धर्मपाल अपनी स्थिति मजबूत कर पाता वत्सराज ने धर्मपाल पर आक्रमण कर गंगा के दोआब में किसी स्थान पर उसे पराजित किया। राधनपुर लेख में वर्णन है कि “वत्सराज ने गौड़ (बंगाल) राजा का राजकीय ऐश्वर्य सुगमतापूर्वक हस्तगत कर लिया। लेकिन गुर्जर-प्रतिहार शासक वत्सराज राष्ट्रकूट शासक ध्रुव से पराजित हुआ और राजपूताना के रेगिस्तान में भागने को विवश हुआ। ध्रुव ने धर्मपाल को भी पराजित किया और दक्षिण की ओर लौट गया। इसका धर्मपाल ने पूरा लाभ उठाया। सर्वप्रथम धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण के कर वहां के शासक इन्द्रायुध को पराजित कर अपने अधीन शासक चक्रायुध को बैठाया। इसके बाद उसने कन्नौज में एक दरबार का आयोजन किया जिसमें बहुत से सामंत सरदार सम्मिलित हुए जिनमें भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु, यदु, यवन, अवन्ति, गंधार और कीर के शासक प्रमुख हैं।
धर्मपाल उत्तर भारत के नवस्थापित साम्राज्य को अक्षुण्ण नहीं रख सका। शीघ्र ही धर्मपाल को एक और चुनौती का सामना करना पड़ा। प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय ने कन्नौज विजय कर लिया और उसके शासक चक्रायुध को वहाँ से खदेड़ दिया। अतः नागभट द्वितीय और धर्मपाल का युद्ध अवश्यम्भावी था। सम्भवतः मुंगेर के निकट एक घमासान युद्ध हुआ जिसमें नागभट्ट ने धर्मपाल को परास्त किया। किन्तु एक बार फिर राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय ने नागभट्ट द्वितीय को पराजित कर दिया। इसके बाद धर्मपाल और चक्रायुध ने यह सोचकर उसकी अधीनता स्वीकार ली कि गोविंद तृतीय के पुनः लौटने के बाद वह फिर से कन्नौज व उत्तर भारत का स्वामी बन जायेगा। शीघ्र ही गोविंद तृतीय दक्कन लौट गया और धर्मपाल को एकबार पुनः अवसर मिला। अपनी सैनिक आकांक्षाओं की पूर्ति कर वह एक बार फिर से कन्नौज पर अधिकार करके एक विस्तृत साम्राज्य का शासक बन गया और अपने अंत तक बना रहा। अपनी महानता के अनुरूप उसने परमेश्वर , परमभट्टारक , महाराजाधिराज की उपाधियां प्राप्त की। इस प्रकार निःसंदेह वह पाल वंश का एक महान शासक था। वह एक बौद्ध धर्मानुयायी शासक था तथा उसने विक्रमशिला तथा सोमपुरी में प्रसिद्ध विहारों की स्थापना की। उसने विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की तथा नालंदा विश्वविद्यालय का पुनुरुद्धार किया और उसके खर्च के लिए 200 गॉवों का अनुदान दिया था।
देवपाल : (810 – 850 ई०)-
धर्मपाल की मृत्यु के बाद उसका पुत्र देवपाल सिंहासन पर बैठा। वह सुयोग्य पिता का सुयोग्य पुत्र था। उसने न केवल अपने पैतृक साम्राज्य को बनाए रखा बल्कि उसमें वृद्धि भी की। यह पाल वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। उसने उत्कलों को नष्ट किया, असम का विजय किया, हूणों का दम्भ चूर किया और गुर्जरों तथा द्रविड़ शासकों को भी नीचा दिखाया। नागभट्ट द्वितीय के पुत्र रामभद्र प्रतिहार पर देवपाल ने आक्रमण किया और उसे परास्त किया। प्रतिहार नरेश मिहिरभोज को भी देवपाल ने परास्त किया। देवपाल को राष्ट्रकूटों की तीन पीढ़ियों से संघर्ष करना पड़ा। किन्तु सभी कठिनाइयों के सामने उसने उत्तरी भारत में अपनी सर्वोच्चता को स्थिर रखा। प्रतीत होता है कि देवपाल ने राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष को भी परास्त किया। यह सम्भवतः उसने उन राज्यों की सहायता से किया जो राष्ट्रकूटों को अपना शत्रु समझते थे। देवपाल का शासन पाल वंश के चर्मोत्कर्ष को व्यक्त करता है।
देवपाल भी बौद्ध मत का आश्रयदाता था। इसने मगध में अनेक मंदिर और विहार बनवाए तथा कला और शिल्पकला को संवेग प्रदान किया। इसके समय मे भी नालंदा बौद्ध ज्ञान के केंद्र के रूप में पूर्ववत विद्यमान रहा।
विग्रहपाल : (850 – 854 ई०)-
देवपाल की मृत्यु के बाद विग्रहपाल शासक बना और यही से पाल वंश पतनोन्मुख हो उठा। कुछ विद्वान उसे देवपाल का पुत्र तो कुछ उसे भतीजा मानते हैं। देवपाल के एक पुत्र राज्यपाल की मृत्यु उसके शासनकाल में ही हो गयी थी। विग्रहपाल ने केवल 3 या 4 वर्ष राज्य किया उसके बाद उसने अपने पुत्र नारायणपाल के पक्ष में राज्य त्याग कर साधु बन गया।
नारायणपाल : (854 – 908 ई०)-
विग्रहपाल के बाद नारायणपाल राजा बना। यह भी शांत और धार्मिक प्रवृत्ति का शासक था और इसने 50 वर्ष से अधिक शासन किया। 860 ई० के आस पास राष्ट्रकूटों ने पाल शासक को पराजित किया जिसका लाभ प्रतिहार शासकों को मिला और प्रतिहार शासक भोज तथा महेंद्रपाल ने इन्हें पराजित कर पूर्व की ओर अपना साम्राज्य विस्तृत किया। पाल शासक के हाथ मगध तथा दक्षिणी बिहार निकल गया तथा उत्तरी बंगाल पर भी कुछ समय तक प्रतिहारों का अधिकार रहा। इसके साथ ही उड़ीसा और असम के पाल सामंतो ने भी विद्रोह कर न केवल स्वयं को स्वतंत्र किया बल्कि राजसी उपाधियां भी धारण की। इस समय पाल शासक नारायणपाल का राज्य बंगाल के एक भाग तक सीमित हो गया। किन्तु 908 ई० में अपनी मृत्यु के पूर्व नारायणपाल ने प्रतिहारों से उत्तरी बंगाल और दक्षिणी बिहार वापस ले लिए। यह राष्ट्रकूटों द्वारा प्रतिहारों की पराजय के बाद ही सम्भव हो सका। संभव है कि नारायणपाल को भी राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय ने परास्त किया हो। वास्तविकता जो भी हो 908 ई० में अपनी मृत्यु के पहले नारायण पाल ने बंगाल और बिहार पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था।
नारायणपाल के पश्चात पाल वंश के अंतिम शासकों ने 80 वर्ष तक शासन किया। इन शासकों के समय में पाल शक्ति का लगातार पतन होता रहा। विग्रहपाल द्वितीय के समय तक आते-आते पालों का बंगाल पर से शासन समाप्त हो गया। अब वे केवल बिहार में शासन कर रहे थे अर्थात पाल वंश लगभग पतन को प्राप्त हो चुका था।
महीपाल प्रथम : (988 – 1038 ई०)-
पाल साम्राज्य लगभग समाप्त ही होने वाला था कि इस वंश की गद्दी पर महिपाल प्रथम जैसा एक शक्तिशाली शासक बैठा। उसके अभिलेखों की प्राप्ति स्थानों से प्रतीत होता है कि उसके अधीन पाल साम्राज्य की शक्ति एक बार पुनः जागृत हुई। महीपाल प्रथम के राज्य में दिनाजपुर, मुजफ्फरपुर, पटना, गया और तिप्पेरा जैसे दूरस्थ स्थान शामिल थे। शासक बनने के बाद महीपाल प्रथम ने कंबोज वंश की एक गौड़ शासक से उत्तरी बंगाल छीना। सारनाथ लेख (1026 ई०) काशी क्षेत्र पर उसके अधिकार का सूचक है। इस प्रकार यह देवपाल के बाद सबसे शक्तिशाली शासक था। किन्तु कर्णाकों के साथ महिपाल के युद्ध में तीरभुक्ति के छीन जाने का उल्लेख मिलता है। इसके अलावा महीपाल प्रथम को 1023 ई० में राजेन्द्र चोल द्वारा भी पराजित होना पड़ा किन्तु वह चोलों को गंगा के पार होने नहीं दिया। महिपाल प्रथम ने भी बौद्ध धर्म को पुनः प्रतिष्ठित किया तथा उसने मंदिर और विहार बनवाए।
पाल वंश का पतन-
महिपाल के उत्तराधिकारी नयपाल (1038 – 1055 ई०) को लम्बे समय तक कलचुरि नरेश कर्ण के साथ युद्ध में रत रहना पडा था। उसके उत्तराधिकारी विग्रहपाल तृतीय को भी कलचुरि कर्ण, चालुक्य नरेश विक्रमादित्य चतुर्थ तथा कोसल के शासक महाशिवगुप्त के आक्रमणों का सामना करना पडा जिसके कारण पाल साम्राज्य के अनेक भाग स्वतन्त्र हो गये। किन्तु किसी प्रकार से वह बंगाल, गौड और मगध को अपने अधीन रख सकने में समर्थ रहा। अपने भाई महिपाल द्वितीय और सरपाल को राजगद्दी से हटाकर रामपाल (1017 – 1120 ई०) ने युद्ध और कूटनीति से पाल वंश की अन्तिम गरिमा को कुछ और समय के लिए जीवित रखा। उसने उत्तरी बंगाल में विजय प्राप्त की और असम के शासक को अपने अधीन कर लिया। वह राजा कलिंग के शासकों की बढती हुई शक्ति को रोकने में भी समर्थ रहा। गोविन्द्र चन्द्र गहडवाल के परिवार से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर उसने पाल साम्राज्य को सुरक्षित रखने का प्रयास किया। नयपाल के बाद कुमारपाल, गोपालतृतीय तथा मदनपाल ने तीस वर्षो तक शासन किया किन्तु इस काल में आन्तरिक कलह, सामन्तों के विद्रोह तथा अन्य राज्यों के आक्रमण के कारण पाल वंश का अन्त हो गया।
दक्षिण के राष्ट्रकूट वंश :
ऐतिहासिक स्रोतों से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूट दक्षिण भारत में मौर्यो के समय में रठीक और सातवाहनो के काल में मरहठी कहलाते थे। ये बहुत समय तक वातापी (बादामी) के चालुक्यों के अधीन सामंत थे। चालुक्यों की सत्ता क्षीण होने पर वे स्वतंत्र शासक बन गए। इस राज्य की स्थापना दंतिदुर्ग ने की थी। इसने आधुनिक शोलापुर के निकट मान्यखेत को अपनी राजधानी बनाई। राष्ट्रकूटों की राजभाषा कन्नड थी।
इनके मूलस्थान के बारे में कई भ्रांतियां प्रचलित है। एलिचपुर में शासन करने वाले ‘राष्ट्रकूट’ ‘बादामी चालुक्यों’ के उपनिवेश के रूप में स्थापित हुए थे लेकिन ‘दान्तिदुर्ग’ के नेतृत्व में उन्होंने चालुक्य शासक ‘कीर्तिवर्मन द्वितीय’ को वहाँ से उखाड़ फेंका तथा आधुनिक ‘कर्नाटक’ प्रान्त के ‘गुलबर्ग’ को अपना मुख्य स्थान बनाया। यह जाति बाद में ‘मान्यखेत के राष्ट्रकूटों‘ के नाम से विख्यात हो गई, जो दक्षिण भारत में 753 ईसवी में सत्ता में आई। इसी समय पर बंगाल का ‘पाल साम्राज्य’ एवं गुजरात के प्रतिहार साम्राज्य’ ‘भारतीय उपमहाद्वीप’ के पूर्व और उत्तरपश्चिम भ-ूभाग पर तेजी से सत्ता में आ रहे थे। आठवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य के काल में गंगा के उपजाऊ मैदानी भाग पर स्थित ‘कन्नौज राज्य’ पर नियंत्रण हेतु एक त्रिदलीय संघर्ष चल रहा था, उस वक्त ‘कन्नौज’ ‘उत्तर भारत’ की मुख्य सत्ता के रूप में स्थापित था। प्रत्येक साम्राज्य उस पर नियंत्रण करना चाह रहा था। पालों और गुर्जर-प्रतिहारों के साथ-साथ राष्ट्रकूटों ने भी इसमें भाग लिया।
दन्तिदुर्ग (735 – 756 ई0)-
वह इन्द्र की भवनागा नामक चालुक्य राजकन्या से उत्पन्न पुत्र था। उसकी उपलब्धियों के विषय में हम उसके समय के दो लेखों- दशावतार (742 ई॰) तथा समनगड का लेख (753 ई॰) से जानकारी प्राप्त करते हैं। बाद के कुछ अन्य लेख भी उसकी उपलब्धियों की चर्चा करते हैं। दन्तिदुर्ग ने बादामी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य द्वितीय के सामन्त के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ किया। इसी रूप में उसने कुछ विजयें कर अपनी शक्ति एवं प्रतिष्ठा को बढ़ाया। 744 ई॰ में कांची की विजय से वापस लौटने के पश्चात् दन्तिदुर्ग ने स्वतन्त्र साम्राज्य स्थापित करने के उद्देश्य से अपना अभियान प्रारम्भ कर दिया। सर्वप्रथम नन्दिपुरी के गुर्जरों तथा नौसारी के चालुक्यों को पराजित कर उसने उनके राज्यों पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात उसने मालवा के प्रतिहार राज्य पर आक्रमण किया। इस अभियान के बाद उसने कोशल तथा कलिंग के राजाओं को पराजित किया। इस प्रकार उसने अपना राज्य या प्रभाव मध्य एवं दक्षिणी गुजरात तथा सम्पूर्ण मध्यप्रदेश में विस्तृत कर लिया। दन्तिदुर्ग का बढ़ता हुआ प्रभाव कीर्त्तिवर्मा के लिये खुली चुनौती था जिसकी वह कदापि उपेक्षा नहीं कर सकता था अतः दोनों के बीच युद्ध अनिवार्य हो गया। कीर्त्तिवर्मा ने नौसारी के सामन्त को पुन उसके पद पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। दन्तिदुर्ग की ओर से इसका विरोध किये जाने पर दोनों के बीच युद्ध हुआ जिसमें दन्तिदुर्ग ने कीर्त्तिवर्मा को पराजित कर दिया।
इस प्रकार दन्तिदुर्ग एक महान् विजेता तथा कूटनीतिज्ञ शासक था। वह राष्ट्रकूट साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक था। दन्तिदुर्ग बाह्मण धर्मावलम्बी था और उसने शास्त्रों के आर्दशानुसार शासन किया तथा कई गाँव दान में दिये थे। उज्जयिनी में उसने बड़ी मात्रा में स्वर्ण तथा रत्नों का दान किया था तथा प्रसिद्ध दशावतार मन्दिर का निर्माण भी उसी ने करवाया।
कृष्ण प्रथम (756 – 774 ई0)-
दन्तिदुर्ग के निःसन्तान मरने के बाद उसका चाचा कृष्ण प्रथम शासक बना था। कृष्ण प्रथम भी दन्तिदुर्ग के समान एक साम्राज्यवादी शासक था। राज्यारोहण के पश्चात् सभी दिशाओं में उसने अपने साम्राज्य का विस्तार प्रारम्भ किया। उसके राजा बनते ही लाट प्रदेश के शासक जो उसका भतीजा था, ने विद्रोह कर अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दिया। कृष्ण ने वहॉं आक्रमण कर उसे पराजित किया तथा लाट प्रदेश में अपनी स्थिति मजबूत बना ली। कृष्ण ने मैसूर के गंगों पर आक्रमण कर उसने उनको अपनी अधीनता में किया। इस समय गंग वंश का शासक श्रीपुरुष था। उसने गंगों की राजधानी मान्यपुर (बंगलौर स्थित मन्नपुर) के ऊपर अधिकार कर लिया। कृष्ण ने अपने वड़े पुत्र गोविन्द को वेंगी के पूर्वी चालुक्यों पर आक्रमण करने के लिये भेजा। वेंगी के चालुक्य नरेश विष्णुवर्धन चतुर्थ ने बिना लड़े ही उसकी अधीनता मान लिया। उसने राष्ट्रकूट युवराज को न केवल अपने राज्य का एक बड़ा भाग तथा हर्जाना दिया अपितु अपनी कन्या शीलभट्टारिका का विवाह भी गोविन्द के छोटे भाई ध्रुव से कर दिया। इस विजय के फलस्वरूप वेंगी-राज्य का अधिकांश भाग राष्ट्रकूट साम्राज्य में मिला लिया गया। इस प्रकार कृष्ण प्रथम एक योग्य शासक तथा कुशल योद्धा सिद्ध हुआ उसने ही एलोरा के प्रसिद्ध कैलाश मन्दिर का निर्माण करवाया था ।
गोविन्द द्वितीय (774 – 780 ई0)-
कृष्ण प्रथम के दो पुत्र थे- गोविन्द द्वितीय तथा ध्रुव। गोविन्द अपने पिता के समय में ही अनेक युद्धों में ख्याति प्राप्त कर चुका था, अतः वही कृष्ण प्रथम के वाद राजा बना। उसने अपने छोटे भाई ध्रुव को नासिक का राज्यपाल नियुक्त किया। ऐसा प्रतीत होता है कि राजा होने के बाद गोविन्द विलासी हो गया तथा प्रशासनिक कार्यों के प्रति उदासीन हो गया। अतः उसकी अकर्मण्यता का लाभ उठाते हुए उसके छोटे भाई ध्रुव ने गोविन्द के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। फलस्वरूप दोनों भाइयों के बीच एक युद्ध हुआ जिसमें ध्रुव विजयी हुआ और गोविन्द संभवतः मार डाला गया।
ध्रुव प्रथम (774 – 780 ई0)-
गोविन्द द्वितीय के पश्चात् राष्ट्रकूट शासन की बागडोर उसके सुयोग्य तथा यशस्वी भाई ध्रुव के हाथों में आई। उसकी गणना प्राचीन इतिहास के महानतम विजेता एवं साम्राज्य निर्माता शासकों में की जाती है। उसके काल में राष्ट्रकूटों की शक्ति एवं प्रतिष्ठा का चतुर्दिक् विस्तार हुआ। राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के बाद ध्रुव अपने भाई के सहायकों को दण्ड देने के लिये गंगवाडि पर आक्रमण किया। उसके अमृर्ण राज्य को राष्ट्रकूट साम्राज्य में मिला लिया गया जिससे राष्ट्रकूट राज्य की दक्षिणी सीमा कावेरी तक जा पहुँची। इसके बाद उसने कांचि के पल्लव राज्य पर आक्रमण किया। पल्लव वंश का शासन दन्तिवर्मा के हाथों में था और ध्रुव ने उसे भी पराजित किया। पल्लव नरेश ने उसे हाथियों का उपहार दिया। इसके अतिरिक्त ध्रुव ने त्रिकलिंग पर अधिकार कर लिया तथा चालुक्य राजा ने उसकी अधीनता में शासन करना स्वीकार कर लिया। इन विजयों के परिणामस्वरूप ध्रुव सम्पूर्ण दक्षिणापथ का एकछत्र शासक बन बैठा।
दक्षिणी भारत में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के पश्चात् ध्रुव ने उत्तरी भारत की ओर ध्यान दिया। इस समय कन्नौज पर अधिकार करने के लिये प्रतिहार तथा पाल राजवंशों में संघर्ष चल रहा था। 786 ई॰ में ध्रुव ने उत्तर भारत की राजनीति में हस्तक्षेप करते हुए नर्मदा नदी तट पर अपनी सेनाओं को एकत्रित किया तथा विन्ध्यपर्वत पार कर ध्रुव ने गुर्जर-प्रतिहार नरेश वत्सराज को बुरी तरह पराजित किया। इसके बाद ‘गंगा-यमुना के दोआव में ही उसने बंगाल के पाल शासक धर्मपाल को भी हराया। ध्रुव का उद्देश्य कन्नौज पर अधिकार करना अथवा उत्तर भारत में अपनी शक्ति का विस्तार करना नहीं था अतः उत्तर के राजाओं को अपनी शक्ति की अनुभूति कराकर तथा उत्तरी भारत के मैदानों में अपनी विजय वैजयन्ती फहराकर ध्रुव अतुल सम्पत्ति के साथ अपनी राजधानी वापस लौट आया।
इस प्रकार ध्रुव राष्ट्रकूट वंश के महानतम राजाओं में से एक था। उसने अपनी शक्ति का विस्तार सम्पूर्ण भारत में कर दिया। सातवाहन वंश के पतन के बाद प्रथम वार ध्रुव के नेतृत्व में ही किसी दक्षिणी शक्ति ने मध्य भारत में अपनी शक्ति का विस्तार किया था।
गोविन्द तृतीय (793 – 814 ई0)-
ध्रुव के चार पुत्र थे तथापि गोविन्द तृतीय की कर्मठता और प्रतिभा से प्रभावित होकर उसने गोविन्द तृतीय को ही अपना उत्तराधिकारी बनाया। सूरत लेख से भी इस बात की पुष्टि होती है।
गोविन्द तृतीय के भाई स्तम्भ ने शासन सत्ता पर अधिकार प्राप्त करने के उद्देश्य से दक्षिण के 12 राजाओं का एक संघ तैयार किया लेकिन शीध्र ही इसकी सूचना गोविन्द तृतीय को मिल गई फलस्वरुप उसने 12 राज्यों के इस संघ को पराजित किया। इस प्रकार शीध्र ही वह दक्षिण भारत का सार्वभौम राजा बनने में सफल हुआ।
दक्षिण भारत में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के पश्चात् अपने पिता के समान वह भी उत्तर भारत के अभियान पर निकल पड़ा। अपने छोटे भाई इन्द्र को उसने गृहराज्य की रक्षा के लिये नियुक्त किया और स्वयं प्रतिहार नरेश नागभट्ट के ऊपर आक्रमण करने के लिये भोपाल-झाँसी मार्ग से होते हुए उसने कव्रौज की ओर प्रस्थान किया। दोनों सेनाओं के बीच संभवतः बुन्देलखण्ड के किसी भाग में संघर्ष हुआ जिसमें नागभट्ट बुरी तरह पराजित किया गया। इसके बाद धर्मपाल तथा कन्नौज के राजा चक्रायुध ने स्वतः उसके सन्मुख हथियार डाल दिये। इस प्रकार दूसरी बार भी राष्ट्रकूट सेना को उत्तरी भारत के मैदानों में सफलता प्राप्त हुई।
गोविन्द तृतीय की गृहराज्य से अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुए सुदूर दक्षिण के द्रविड़ शासकों ने उसके विरुद्ध एक संघ तैयार कर लिया। इसमें पल्लव, पाण्ड्य, चोल, केरल तथा पश्चिमी शासक सम्मिलित थे। इस संघ ने गोविन्द तृतीय के राज्य पर आक्रमण कर दिया। तुंगभद्रा नदी के तट पर गोविन्द ने इन सभी राजाओं को पराजित कर दिया। गंग का राजा इस युद्ध में मार डाला गया तथा पल्लवों तथा पाण्ड्यों की पताका को गोविन्द ने छीन लिया। इस प्रकार इन सभी शासकों ने पुन उसकी अधीनता स्वीकार कर लिया। उसकी शक्ति से भयभीत होकर लंका के शासक ने भी उसकी अधीनता स्वीकार करते हुए उसके दरवार में अपना एक दूत-मण्डल भेजा। इस प्रकार गोविन्द ने उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक तथा पश्चिम में अरब सागर से लेकर पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक के विस्तृत भूभाग में अपनी विजय वैजयन्ती फहरा दिया। निश्चित रुप से उसके समय में राष्ट्रकूट साम्राज्य अपनी उन्नति के शिखर पर था।
अमोघवर्ष प्रथम (814 – 878 ई0)-
गोविन्द तृतीय के बाद उसका पुत्र अमोघवर्ष 814 ई॰ में गद्दी पर बैठा। उस समय वह अवयस्क था, अतः गुजरात के राज्यपाल कर्क ने उसके संरक्षक के रूप में कार्य करना प्रारम्भ किया। 817 ई॰ के लगभग उसके विरुद्ध एक भीषण विद्रोह हुआ जिसका नेतृत्व वेंगी के चालुक्य शासक विजयादित्य द्वितीय ने किया तथा इसमें कुछ अन्य सामन्तों एवं अधिकारियों ने भाग लिया। 821 ई॰ तक उसने समस्त विद्रोहियों को दबा दिया धीरे-धीरे अमोघवर्ष ने राज्य में शान्ति और व्यवस्था स्थापित कर लिया तथा 830 ई॰ में पूरी शक्ति के साथ उसने वेंगी के चालुक्य शासक विजयादित्य पर आक्रमण किया। वेंगी पर राष्ट्रकूटों का अधिकार हो गया जो 12 वर्षों तक बना रहा। अमोघवर्ष को गुजरात के राष्ट्रकूटों के विद्रोह का भी सामना करना पड़ा। दोनों परिवारो का यह संघर्ष लगभग 25 वर्षों तक चलता रहा।
सिरुर के लेख (856 ई॰) में अमोघवर्ष को अंग, वंग, मगध, मालवा तथा वेंगी के राजाओं को नतमस्तक करने का उल्लेख मिलता है। हालॉंकि इस दावे का समर्थन किसी अन्य प्रमाण से नहीं होता अतः ऐसी दशा में यह कह सकना बड़ा संदिग्ध है कि अमोघवर्ष ने कभी भी उत्तर भारत में सैनिक अभियान किया था। अमोघवर्ष में अपने पिता जैसी सैनिक क्षमता नहीं थी। वह शान्त प्रकृति का मनुष्य था जिसकी युद्ध की अपेक्षा धर्म और कला में अधिक अभिरुचि थी। अमोघवर्ष जैनमत का पोषक था और यही उसकी शान्तिवादी प्रकृति का कारण था किन्तु जैनमतानुयायी होते हुए भी वह हिन्दू देवी-देवताओं का भी सम्मान करता था। वह विद्या और कला का उदार संरक्षक था। उसने ‘कविराजमार्ग’ नामक कन्नड् भाषा में एक काव्यग्रन्ध की रचना की थी। उसने अपनी राजसभा में अनेक विद्वानों को आश्रय प्रदान किया था जिसमें गणित सारसंग्रह के लेखक शाक्तायण तथा जिनसेन का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है जिसने ‘आदिपुराण’ की रचना की थी।
कृष्ण द्वितीय (878 – 914 ई0)-
अमोघवर्ष प्रथम की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र कृष्ण द्वितीय शासक बना। उसका मालवा के प्रतिहार शासक भोज प्रथम तथा देंगी के चालुक्य नरेश विजयादित्य तृतीय के साथ संघर्ष हुआ। संभवतः नर्मदा नदी के किनारे दोनों की सेनायें टकराई जिसमें विजयश्री प्रतिहारों के हाथ लगी तत्पश्चात् मिहिरभोज ने सेना के साथ गुजरात की ओर प्रस्थान किया। इस बार कृष्ण ने अधिक शक्ति के साथ उसका सामना किया। इस युद्ध में लाट प्रदेश के राष्ट्रकूट सामन्त तथा चेदि के राजा ने उसकी सहायता की जिसके परिणामस्वरुप विजय कृष्ण द्वितीय को मिली। उत्साहित होकर उसने प्रतिहारों की राजधानी उज्जयिनी पर आक्रमण कर वहाँ अपना अधिकार कर लिया।
कृष्ण द्वितीय का वेंगी के चालुक्यों के साथ दीर्घकालीन संघर्ष हुआ जिसमें कुछ समय के लिये उसकी स्थिति दयनीय हो गयी। उसके समकालीन चालुक्य शासक विजयादित्य तृतीय तथा भीम प्रथम थे। विजयादित्य तृतीय ने उसे परास्त कर दिया और कृष्ण द्वितीय ने भागकर मध्य भारत के चेदि शासक शंकरगण के राज्य में स्थित किरणपुर दुर्ग मेख शरण ली। यहाँ भी चालुक्य सेनापति ने उसका पीछा किया और कृष्ण द्वितीय को झुकना पड़ा तथा उसने चालुक्य नरेश की अधीनता को स्वीकार कर लिया। अन्ततः उसे उसका राज्य पुन वापस मिल गया। विजयादित्य तृतीय के उत्तराधिकारी चालुक्य भीम प्रथम के समय में कृष्ण द्वितीय ने वेंगी पर पुन आक्रमण किया। इस वार भीम पराजित हुआ तथा कृष्ण द्वितीय ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया।
कृष्ण द्वितीय का सुदूर दक्षिण के चोलों के साथ भी संघर्ष हुआ। कृष्ण द्वितीय ने अपने पौत्र को राजगद्दी दिलाने के लिए चोल नरेश परान्तक पर आक्रमण किया। बल्लाल के युद्ध में परान्तक ने कृष्ण द्वितीय और उसके सहायकों को पराजित कर दिया जिससे उसका अभियान असफल रहा।
कृष्ण द्वितीय ने 878 ई॰ से लेकर 914 ई॰ तक शासन किया। यद्यपि उसमें गोविन्द तृतीय तथा ध्रुव के समान सैनिक कुशलता नहीं थी तथापि उसने राष्ट्रकूट साम्राज्य को सुरक्षित वनाये रखा।
इन्द्र तृतीय (914 – 929 ई0)-
कृष्ण द्वितीय के पश्चात् उसका पौत्र इन्द्र तृतीय राजा बना वह एक सैनिक योग्यता वाला शासक था। इन्द्र तृतीय ने भी त्रिकोणीय संघर्ष में भाग लिया और प्रतिहार शासक महिपाल को पराजित कर 915 ई0 में कन्नौज को लूट लिया। इन्द्र तृतीय का यह अभियान एक धावा मात्र था। वह संभवतः प्रयाग तथा काशी तक गया और इसके बाद 916 ई॰ की ग्रीष्म ऋतु के प्रारम्भ में स्वदेश लौट गया। इस प्रकार इन्द्र तृतीय ने एक बार पुन राष्ट्रकूट वंश के गौरव को प्रतिष्ठित कर दिया तथा अपनी शक्ति से उत्तरी भारत के राजाओं को आतंकित कर दिया।
अमोघवर्ष द्वितीय, गोविन्द चतुर्थ और अमोघवर्ष तृतीय –
इन्द्र तृतीय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी अमोघवर्ष द्वितीय हुआ। उसके शासन-काल की किसी भी घटना के विषय में हमें ज्ञात नहीं है। राजा बनने के एक वर्ष के भीतर ही वह मृत्यु का शिकार हो गया। उसके बाद उसका छोटा भाई गोविन्द चतुर्थ 930 ई॰ में राजा बना। वह अयोग्य तथा दुराचारी शासक था और उसकी विलासप्रियता के कारण शासन शिथिल पड़ गया। उसे चालुक्य शासक भीम द्वितीय के हाथों पराजित भी होना पड़ा। अतः उसके सामन्तों, अधिकारियों तथा मत्रियों ने उसे पदच्यूत करने का षड़यन्त्र रचा। उन्होंने इन्द्र तृतीय के सौतेले भाई तथा गोविन्द के चाचा अमोघवर्ष तृतीय को सिंहासन देने का निश्चय किया और इस प्रकार अमोघवर्ष तृतीय ने मंत्रियों और सामन्तों के सहयोग से 936 ई॰ में राष्ट्रकूट सिंहासन पर अधिकार कर लिया। उसने केवल तीन वर्षों तक शासन किया। अमोघवर्ष तृतीय धार्मिक प्रवृति का शासक था और वह शासन में बहुत कम रुचि रखता था। 939 ई॰ में अपने पिता की मृत्यु के बाद कृष्ण तृतीय शासक बना।
कृष्ण तृतीय (929 – 967 ई0)-
कृष्ण तृतीय राष्ट्रकूट वंश का अन्तिम महान शासक हुआ। वह भारत के इतिहास में अकालवर्ष के नाम से भी जाना जाता है और सत्तासीन होते ही उसने कांची और तन्जौर पर विजय अभियान चलाकर उन्हे जीत लिया। कृष्ण तृतीय राष्ट्रकूट वंश के सबसे प्रतापी राजाओं में से एक था। कांची और तन्जौर के सफल अभियान के बाद उसने ‘तंजयमकोंड‘ की उपाधि धारण की। उसने चाले नरेश परान्तक प्रथम को परास्त कर उसके राज्य के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। उसने रामेश्वरम में एक मन्दिर व विजय स्तम्भ स्थापित करवाया। ‘‘शान्ति-पुराण‘‘ के रचयिता पोन्न कृष्ण तृतीय के दरबार में ही निवास करते थे। कृष्ण तृतीय की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों में राज्यसत्ता को लेकर विवाद प्रारंभ हो गया।
खोट्टिग (967 – 972 ई0)-
कृष्ण तृतीय निःसन्तान मरा अतः उसका भाई खोट्टिग उसके बाद राष्ट्रकूट वंश का राजा बना। वह अत्यन्त निर्बल शासक था। उसके काल में मालवा के परमार नरेश सीयक ने राष्ट्रकूट राज्य पर आक्रमण किया। परमार सेना राजधानी मान्यखेट तक आ गयी और 972 ई॰ में उन्होंने मान्यखेट पर अधिकार कर उसे खूब लूटा। सीयक अपने साथ अतुल सम्पत्ति लेकर लौटा। इस पराभव के फलस्वरूप खोट्टिंग की मृत्यु 972 ई॰ के लगभग हो गयी।
कर्क द्वितीय (972 – 974 ई0)-
खोट्टिग का उत्तराधिकारी उसका भतीजा कर्क द्वितीय हुआ। वह भी एक अयोग्य तथा निर्बल शासक था। वह केवल दो वर्षों तक शासन कर सका। इस काल में सामन्तों के विद्रोह हुए जिसे वह दबाने में असमर्थ रहा और तर्दवाडि (बीजापुर जिला) के सामन्त तेल द्वितीय ने उसके ऊपर आक्रमण कर उसे पदच्युत कर दिया तथा सिंहासन पर अधिकार जमा लिया। 975 ई॰ तक तैल ने उसके अन्य सामन्तों तथा सहयोगियों को पूरी तरह समाप्त कर दक्षिणापथ का एकछत्र शासक बन गया। तैल ने जिस नवीन राजवंश की स्थापना की उसे कल्याणी का चालुक्य वंश के नाम से जाना जाता है। कर्क द्वितीय राष्ट्रकूट वंश का अन्तिम शासक था। उसके साथ ही दक्षिणापथ से राष्ट्रकूटों का लगभग दो शताब्दियों का राज्य तथा शासन समाप्त हुआ।
त्रिपक्षीय संघर्ष के कारण-
लगभग दो सौ वर्षो तक चलने वाले इस त्रिपक्षीय संघर्ष के निम्नलिखित कारण बताए जा सकते है –
कान्यकुब्ज (कन्नौज) का महत्व- पाटिलपुत्र तथा उज्जयिनी के बाद गुप्तोत्तार काल में कान्यकुब्ज अर्थात कन्नौज को विशिष्ट महत्व प्राप्त हो गया था। तत्कालीन भारत वर्ष की राजनीति में हर्षवर्धन के राजनीतिक महत्त्व के चलते कन्नौज को वह स्थान प्राप्त हो गया था जो इससे पहले पाटलिपुत्र तथा उज्जैयिनी को प्राप्त था। कन्नौज अब केवल राजनीतिक केन्द्र ही नहीं रहा अपितु आर्थिक एवं सामरिक दृष्टि से भी इसका महत्त्व स्थापित हो चुका था। एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र के रूप में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित होने के साथ-साथ कन्नौज को सांस्कृतिक उत्कर्ष भी प्राप्त हो चुका था। कन्नौज की महत्ता का वर्णन तत्कालीन साहित्य एवं अभिलेखों में प्रभूत रूप से मिलता है। अतः यह नवीन शक्तियां कन्नौज पर अपना अधिकार स्थापित करने के लिये प्रयासरत थी। फलतः इन तीनों में घमासान होना अवश्यम्भावी हो गया था।
आयुध वंश की दुर्बल राजनीतिक स्थिति- कन्नौजपति हर्षवर्धन का साम्राज्य काफी विस्तृत था इसके बाद यशोवर्मा ने भी राजनीतिक उत्कर्ष की अलख जगाये रखी, किन्तु उसके पश्चात् आयुध शासक साम्राज्य की सीमाएं सुरक्षित नहीं रख पाये। इनकी दुर्बलता ने पालो, प्रतिहारों, और राष्ट्रकूटों को कन्नौज पर अधिकार जमाने के लिये आकर्षित किया। इस प्रकार त्रिपक्षीय संघर्ष के कारण के रूप में आयुध वंश की दुर्बलता को एक प्रमुख कारण के रूप में देखा जा सकता है।
गंगा-यमुना दोआब क्षेत्र की समृद्धता का आकर्षण- दोआब की उपजाऊ भूमि तथा जीवनोपयोगी जलवायु ने नव स्थापित राजवंशो को आकर्षित करने में एक महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में भूमिका निभाई। इस मैदानी भू-भाग पर जिस राजवंश का राज्य होता था वह भू-राजस्व आदि की प्राप्ति से शीघ्र ही आर्थिक समृद्धता प्राप्त कर सकता था। अतः इस विशाल, उपजाऊ भू-भाग पर अधिकार करने के लिये शासक सदैव प्रयासरत रहे हैं। कालान्तर में कन्नौज सहित गंगा-यमुना दोआब की प्रशंसा अरब लेखक भी करते रहे हैं।
शक्ति संतुलन तथा सामाज्य की सुरक्षा- शक्ति संतुलन तथा साम्राज्य की सुरक्षा हेतु तत्कालीन उत्तर भारत की राजनीति में कोई एक राजवंश शक्तिशाली न हो जाए इसकी चिंता दक्कन के पठार के राजाओं सहित अन्य सभी राजवंशो को रहती थी। यद्यपि राष्ट्रकूट वंश उत्तर भारत से काफी दूर था, किन्तु अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखने के लिये शायद इसके राजा अन्य राज्यों को अधिक शक्तिशाली नहीं होने देना चाहते थे। इसलिये त्रिपक्षीय संघर्ष लम्बे समय तक गतिमान रहा।
शासकों की सामाज्यवादी प्रवृतियाँ- वस्तुतः इस संघर्ष में शामिल सभी राज्य और उसके शासक एक वृहत से बृहत्तर साम्राज्य के स्वामी बनना चाहते थे। इसी कारण से इन राजवंशो मे आपस में संघर्ष हुआ। गुर्जर प्रतिहार एवं पालवंश के शासकों में मगध की राजधानी पाटिल पुत्र पर अधिकार करने की कोशिश मे उनकी यह प्रवृत्ति साफ झलकती है।
त्रिपक्षीय संघर्ष की एक विशेषता यह भी है कि कभी भी पूरे संघर्षकाल में तीनों शक्तियां एक साथ युद्धरत नहीं हुई।
त्रिपक्षीय संघर्ष के विभिन्न चरण-
अध्ययन की सुविधा के लिये त्रिपक्षीय संघर्ष को विभिन्न चरणों में प्रस्तुत किया जा रहा है
प्रथम चरण –
गुर्जर-प्रतिहार नरेश वत्सराज एवं पाल नरेश धर्मपाल दोनों ही कन्नौज पर अधिकार जमाना चाहते थे। अतः दोनों शक्तिशाली वंशों के इन राजाओं के बीच संघर्ष होना निश्चित हो गया था। राष्ट्रकूट शासकों के अभिलेख से ज्ञात होता है कि प्रतिहार राजा वत्सराज ने पाल राजा धर्मपाल को सहजता में ही पराजित कर उसके धवल राजछत्र को छीनकर यश प्राप्त किया। पराजित धर्मपाल ने राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से सहायता मांगी, क्योंकि धर्मपाल की रानी रण्णा देवी राष्ट्रकूट वंश की बेटी थी। अतः उत्तर भारत की जीत का आकांक्षी ध्रुव इसे उचित अवसर मानकर युद्ध के लिये तैयार हो गया। अमोघवर्ष प्रथम के सजन ताम्रपत्र लेख से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने वत्सराज को हराकर राजछत्र छीन लिया। इस प्रकार प्रतिहार राजा वत्सराज को युद्ध में हारकर कन्नौज छोड़ना पड़ा। इतना ही नहीं उसे अपनी प्राण रक्षा के लिये मरुस्थल की ओर भागना भी पड़ा। किन्तु राष्ट्रकूट राजा ध्रुव भी अपनी कन्नौज विजय को स्थायी नहीं कर सका क्योंकि वह अपने मूल राज्य क्षेत्र (दक्कन) से काफी दूर था। इस भौगोलिक दूरी के चलते जहां एक ओर ध्रुव कन्नौज विजय को स्थायी नही कर पा रहा था, वहीं दूसरी ओर उसके गृह राज्य में आन्तरिक कलह उत्पन्न हो रहा था क्योंकि वह वहां पर नहीं था। इन परिस्थितियों में ध्रुव को अपने राज्य में शान्ति स्थापित करने के लिये वापस जाना पड़ा इस प्रकार त्रिपक्षीय संघर्ष का प्रथम चरण अल्पकालिक था।
द्वितीय चरण-
राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने प्रतिहार नरेश वत्सराज को पराजित करने के पश्चात् पूर्व की और प्रस्थान किया। अमोघवर्ष प्रथम के सजन ताम्रपत्र लेख से ज्ञात होता है कि पूर्व में पाल नरेश धर्मपाल पराजित हुआ। यह युद्ध गंगा एवं यमुना के दोआब में हुआ था।
सूरत अभिलेख से भी पता चलता है कि ध्रुव की सेना ने गंगा नदी के प्रवाह को भी अवरूद्ध कर दिया था। अन्य अभिलेख से भी ज्ञात होता है कि गंगा-यमुना के दोआब पर राष्ट्रकूटों का अधिकार हो गया था। राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने प्रतिहार एवं पाल नरेशों को पराजित कर उनके प्रदेशों को अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया, बल्कि अपनी राजधानी को वापस लौट गया। सन् 794 ई0 में राष्ट्रकूट वंश के प्रतापी शासक ध्रुव की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र गोविन्द तृतीय उत्तराधिकारी हुआ। ध्रुव के अपनी राजधानी लौटते ही कन्नौज में आयुध वंश के इन्द्रायुध और चक्रायुध आपस में सत्ता प्राप्ति के लिये संघर्षरत हो गये। अतः धर्मपाल अपनी सीमा सुरक्षित करने के लिये इसी पश्चिमी प्रदेश पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिये आगे बढ़ा। वास्तव में अब कन्नौज के दोनो आयुध भाई उत्तर भारत की साम्राज्यिक शक्तियों के संघर्ष की कठपुतलियाँ बन गये थे। धर्मपाल के 32वे वर्ष के खालिमपुर अभिलेख से ज्ञात होता है कि कन्नौज नरेश चक्रायुध को पाल नरेश के संरक्षण के कारण स्वामित्व प्राप्त हुआ था। बाद के नारायण पाल के 17वें वर्ष के अभिलेख में धर्मपाल द्वारा चक्रायुध के राज्यारोहण का उल्लेख है। ज्ञात होता है कि उसके राज्याभिषेक के समय अनेक राज्यों के सम्राट सम्मिलित हुए थे। खालिमपुर अभिलेख से ही चक्रायुध की राजनीतिक स्वीकृति का भी ज्ञान होता है। कुरु, यदु, अवन्ति, गंधार, कीर (कांगड़ा घाटी), भोज (बरार क्षेत्र), मल्ल (जयपुर अलवर क्षेत्र), मद (पूर्वी पंजाब) के राजाओं ने चक्रायुध को कन्नौजपति के रूप में स्वीकार किया था। कुछ भी हो धर्मपाल के कारण, बंगाल जो एक शताब्दि से भारतीय राजनीति में अनुपस्थित सा था वह अब एक महत्वपूर्ण कारक बन गया था। इस द्वितीय चरण में प्रतिहार नरेश की भूमिका बहुत स्पष्ट नहीं है।
तृतीय चरण-
गोविन्द तृतीय भी अपने पिता ध्रुव की भॉंति महत्वाकांक्षी था। वह भी उत्तर भारत की राजनीति में भाग लेने को उत्सुक था, क्योंकि वह पिता की ही भांति प्रतिहार वंश के उत्कर्ष को समाप्त करना चाहता था। राष्ट्रकूट राज्य की उत्तरी सीमा पर स्थित विदर्भ, कलिंग, आंध्र, आदि राज्यों ने प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय के साथ मिलकर एक संघ बनाया था जिससे उसे इनके आक्रमण का भय भी था। अतः अपने इन्हीं उद्देश्य की पूर्ति के लिये गोविन्द तृतीय ने अपने भाई इन्द्र को प्रतिहारो के मूल प्रदेश पर आक्रमण करने के लिये भेजा। वास्तव में उत्तरी भारत में राजनीतिक गठबंधन काफी अस्थायी और परिवर्तनशील थे अतः किसी एक शक्ति के लिये अधिक समय तक अपनी प्रभुसत्ता बनाये रखना आसान न था। ग्वालियर प्रशस्ति के अनुसार नागभट्ट ने अपने संघ में शामिल राजाओं को पराजित भी किया था। नागभट्ट द्वितीय के सामन्त बाउक के जोधपुर अभिलेख से संकेत मिलता है कि उसने गौड़राज धर्मपाल को पराजित किया था किन्तु कन्नौज की गद्दी पर चक्रायुध की स्थापना प्रतिहार नरेश नागभट्ट के लिये एक चुनौती बन गई थी।
अतः उसने चक्रायुध को हटाकर इन्द्रायुध को कन्नौज का राजा बनाया। महेन्द्र पाल के दो अभिलेखों से ज्ञात होता है कि जब नागभट्ट द्वितीय उत्तर भारत में अपनी विजय पताका फहरा रहा था तभी उसे वही झटका लगा जो उसके पूर्वज वत्सराज को लगा था। जिस प्रकार वत्सराज को धर्मपाल के विरूद्ध अपनी शानदार सफलता के बावजूद राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव के आगमन के कारण ़मरूस्थल प्रदेश में भागना पड़ा था ठीक उसी प्रकार गंगा घाटी में नागभट्ट द्वितीय की विजयें
अधिक स्थाई साबित न हो सकी। वह गोविन्द तृतीय से लगभग सन् 810 ई0 के आस-पास परास्त हुआ।
पाल नरेश धर्मपाल इस युद्ध से बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि इसमें प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय की पराजय हुई थी। राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय ने उत्तरी भारत के विजित राज्यों को अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया और पहले की ही भॉंति वह वापस लौट गया। गोविन्द तृतीय के लौटने के पश्चात् भी प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वितीय की शक्ति में कोई कमी नहीं हुई थी। कदाचित राष्ट्रकूट शासक के स्वदेश लौटने के पश्चात् नागभट्ट द्वितीय ने पुनः कन्नौज पर अपना अधिकार कर लिया।
चतुर्थ चरण –
त्रिपक्षीय संघर्ष का यह चतुर्थ चरण राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय के आक्रमण के काल एवं कारणों के कारण विवादास्पद माना जाता है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि नागभट्ट द्वितीय ने धर्मपाल द्वारा संरक्षित कन्नौज के साथ-साथ चक्रायुध को पराजित किया और उसे सिंहासन से हटाकर अपने समर्थक को शासक बनाया तत्पश्चात् धर्मपाल को भी परास्त किया। इसकी चर्चा तृतीय चरण के अन्तर्गत कर दी गई है। इन दोनों शासकों के परास्त होने के बाद इनके अनुरोध पर राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय उत्तर भारत की ओर आया तथा उसने नागभट्ट को पराजित किया। दूसरी और कुछ अन्य इतिहासकार कहते है कि राष्ट्रकूट नरेश नागभट्ट की सफलताओं से असुरक्षित अनुभव कर रहा था। क्योंकि राष्ट्रकूट अभिलेखों से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूट साम्राज्य के उत्तर पश्चिमी क्षेत्रों पर नागभट्ट की नजर थी और इस क्षेत्र पर नागभट्ट ने अधिकार करने का भी प्रयास किया था। इस प्रकार इस चरण में नागभट्ट द्वितीय के विरूद्ध राष्ट्रकूट गोविन्द तृतीय के अभियान की प्रकृति का अध्ययन महत्वपूर्ण है।
पंचम चरण –
गुर्जर प्रतिहार वंश में नागभट्ट द्वितीय के पश्चात् रामभद्र एक अत्यन्त कमजोर शासक था। मिहिर भोज के वराह तथा दौलतपुर अभिलेखों में ऐसे उल्लेख हैं जिनसे रामभद्र के काल की प्रशासनिक निर्बलता का संकेत मिलता है। उदाहरणार्थ, कुछ भूमिदानों का पुनः अनुमोदन न करना। उधर राष्ट्रकूट राज्य मे अल्पवयस्क अमोधवर्ष भी कठिनाइयों से घिरा पड़ा था। चालुक्य शक्ति का उदय हो रहा था यद्यपि अमोधवर्ष ने चालुक्यों को परास्त कर दिया था किन्तु सामन्त स्वतंत्रता के लिये निरन्तर प्रयास कर रहे थे। अमोधवर्ष की प्रकृति यह थी कि वह धार्मिक अभिरूचि वाला व्यक्ति था जिसमें वैराग्य की भावना भी विद्यमान थी। यद्यपि उसने “वीरनारायण“ की उपाधि धारण की हुई थी। बादल स्तम्भ अभिलेख (जो बिना तिथि का है) के अनुसार उपर्युक्त दोनों राजवंशों के शासकों को निर्बल एवं कठिनाइयों में भरा पाकर पालवंश के शासक धर्मपाल के उत्तराधिकारी देवपाल ने उत्कलों के वंश को समाप्त कर दिया, हूणों का दर्प भंग किया तथा द्रविड़ों और गुर्जरों के अभिमान को परास्त कर दिया। यहां द्रविड़ व गुर्जर से आशय राष्ट्रकूट एवं गुर्जर प्रतिहार राजाओं से है। स्पष्ट है देवपाल ने राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष तथा गुर्जर प्रतिहार नरेश रामभद्र को परास्त करने में सफलता प्राप्त की।
देवपाल ने लगभग 40 वर्षों तक राज्य किया। उसके समय में पालवंश की कीर्ति चर्मोत्कर्ष पर थी, उसकी राजनीतिक सत्ता सम्पूर्ण उत्तरी भारत पर आसाम से लेकर कश्मीर की सीमा तक, सिंधु से लेकर ब्रह्मपुत्र तक और हिमालय से बिन्ध्य क्षेत्र तक फैली हुई थी। डॉ0 त्रिपाठी का कथन है कि प्रतिहार नरेश मिहिरभोज भी पाल नरेश देवपाल से पराजित हुआ। भोज के ग्वालियर लेख से भी यही संकेत मिलता है। डॉ0 रमेश चन्द मजूमदार का विचार है कि प्रतिहार नरेश मिहिर भोज अपनी सफलताओं के बावजूद भी देवपाल से पराजित हुआ तथा अपने परिवार में यश को तब तक सुरक्षित न रख सका, जब तक कि पाल नरेश जीवित रहा। इस प्रकार पाल नरेश देवपाल ने तीन पीढियों के प्रतिहार शासकों से सफलतापूर्वक युद्ध किया और उसने उत्तरी भारत में पाल वंश की महत्ता को कायम रखा।
छठॉ चरण –
बंगाल के पालवंश में देवपाल का उत्तराधिकारी विग्रहपाल व इसके पश्चात् नारायण पाल शासक बना। किन्तु यह दोनों देवपाल की भांति योग्य एवं शक्तिशाली साबित नहीं हुए। इसी तरह राष्ट्रकूट वंश में बालक अमोघवर्ष शासक बना किन्तु वह अपने राज्य के आन्तरिक विद्रोहों में ही फॅसा रहा। सिरूर अभिलेख के अनुसार अंग, बंग, मगध और बैंगी के राजा, राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष के अधीन थे। इस आधार पर डॉ0 आर0 सी0 मजूमदार का विचार है कि अमोघवर्ष ने पाल नरेश नारायणपाल को पराजित किया। इसके विपरीत पाल अभिलेखों में दावा किया गया है कि नारायणपाल ने किसी द्रविड़ शासक को हराया। डॉ0 ए0 एस0 अल्तेकर के अनुसार यह द्रविड़ शासक अमोघवर्ष था। इस प्रकार परस्पर विरोधी दावों से यहीं निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राष्ट्रकूट एव पाल वंश के मध्य छोटी-छोटी झड़पें होती रही। किन्तु उत्तर भारतीय राजनीति में राष्ट्रकूट इस समय दखल नहीं दे पाए। इसके बाद राष्ट्रकूटों की बाग-डोर कृष्ण द्वितीय के हाथ आई। कतिपय अभिलेखों में राष्ट्रकूटों की विजय का एवं कुछ में गुर्जर प्रतिहारों की जीत का वर्णन मिलता है किन्तु इतना सुनिश्चित है कि प्रतिहार नरेश मिहिर भोज के शासनकाल में राष्ट्रकूट किसी भी प्रकार की हानि न पहुंचा सके और मिहिरभोज के समय में भी कन्नौज उसके साम्राज्य की राजधानी बनी रही। इसी क्रम में भवनगर अभिलेख का कथन है, कि मिहिरभोज ने नर्मदा नदी को पार करके कृष्णराज को पराजित किया। यह कृष्णराज ही कृष्ण द्वितीय था जबकि बागुम्रा अभिलेख इसके विपरीत जानकारी देता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इनमें निर्णायक युद्ध नहीं हुआ। गुर्जर-प्रतिहार नरेश मिहिरभोज की मृत्यु के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम उत्तराधिकारी हुआ। महेन्द्रपाल प्रथम के बिहार व बंगाल लेख से ज्ञात होता है कि प्रतिहार नरेश महेन्द्रपाल प्रथम ने पालवंश के नारायण पाल से मगध एव उत्तरी बंगाल छीनकर अपने अधिकार में कर लिया था। डॉ0 रमेश चन्द्र मजूमदार का भी कथन है कि प्रतिहार नरेश महेन्द्रपाल के साम्राज्य को उग्रता के साथ नष्ट कर दिया परन्तु नारायणपाल के 906 ई0 के उदयपुर लेख से विदित होता है कि नारायणपाल ने मगध राज्य पर पुनः अधिकार प्राप्त कर लिया था।
पाल नरेश नारायणपाल के बाद इस वंश के उत्कर्ष काल का अन्त हो जाता है। इसके बाद किसी भी अभिलेख में प्रतिहार एव पाल संघर्ष का उल्लेख नहीं मिलता है।
गुर्जर प्रतिहार नरेश महेन्द्रपाल प्रथम के पश्चात् भोज द्वितीय एव महिपाल प्रथम कमशः राजा बने। महिपाल प्रथम का शासन काल 912 से 942 ई0 तक था। अतः इसके समकालीन राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय (914-922 ई0) अमोघवर्ष द्वितीय (922-923 ई0) गोविन्द चतुर्थ (923-936 ई0) अमोघवर्ष तृतीय (936-939 ई0) एवं कृष्ण तृतीय (336-968 ई0) थे।
खम्भात ताम्रलेख से ज्ञात होता है कि राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय ने कन्नौज पर आक्रमण कर विजयश्री प्राप्त की और महीपाल प्रथम को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा परन्तु इन्द्र तृतीय के लौट जाने के पश्चात् प्रतिहार नरेश महीपाल ने दोबारा अधिकार प्राप्त कर लिया।
राष्ट्रकूट वंश के इन्द्र तृतीय के पश्चात् अमोघवर्ष द्वितीय एव गोविन्द चतुर्थ क्रमश उत्तराधिकारी हुये। ये अयोग्य एवं निर्बल शासक थे। गोविन्द चतुर्थ के पश्चात् अमोघवर्ष तृतीय शासक हुआ। वह एक वृद्ध शासक था। अतः युवराज कृष्ण तृतीय ही उसके शासन का संचालन अप्रत्यक्ष रूपसे कर रहा था। युवराज के पद पर रहते हुए कृष्ण तृतीय ने प्रतिहार नरेश महीपाल प्रथम से कालिजर एवं चित्रकूट प्रदेश को छीन लिया था।
अमोघवर्ष तृतीय की मृत्यु के पश्चात् कृष्ण तृतीय राष्ट्रकूट वश का शासक हुआ। उसने मालवा तथा उज्जैन पर भी अधिकार कर लिया। कृष्ण तृतीय का कोई पुत्र न था अतः 968 ई. के बाद राष्ट्रकूट वश का भी अवसान प्रारम्भ हो गया। अरब यात्री अलमसूदी ने भी बऊर (प्रतिहार राज्य) एवं बल्हर (राष्ट्रकूट राज्य) के बीच घोर शत्रुता का वर्णन किया है।
त्रिपक्षीय संघर्ष का अन्त –
त्रिपक्षीय संघर्ष लगभग 200 वर्ष तक चलता रहा। राष्ट्रकूट वंश के राजा कृष्ण तृतीय के बाद उसका भाई खोट्टिग शासक बना जो कि निर्बल शासक था। खोट्टिग का उत्तराधिकारी कर्कराज द्वितीय था, जिसने 972 ई. तक राज्य किया। कर्कराज द्वितीय इस वश का अन्तिम शासक था जो पूर्णतः अयोग्य एवं निर्बल था। इसकी निर्बलता का लाभ उठाकर सामन्त तैल ने कर्क को पराजित कर राष्ट्रकूट वंश का अन्त एव चालुक्य वश का उत्कर्ष किया। सत्यकेतु का कथन है कि कर्क द्वितीय राष्ट्रकूट राजकुल का अन्तिम राजा था, और उसके साथ इस वंश के शासन का अन्त हो गया। अब दक्षिणापथ पर एक बार फिर चालुक्यों का शासन स्थापित हुआ। गुर्जर प्रतिहार नरेश महिपाल प्रथम (912-942 ई0) की मृत्यु के पश्चात् शक्तिशाली राजा के अभाव में इस वंश का पतन आरम्भ हो गया। आपसी संघर्ष ने इस वंश की नींव को जर्जर कर दिया। इस वंश का अन्तिम नरेश राज्यपाल (990-1018 ई0 तक) था। इस समय गुर्जर प्रतिहार पर चारों ओर से संकट के बादल मंडरा रहे थे। 20 दिसम्बर, 1018 ई0 को कन्नौज पर महमूद गजनवी ने आक्रमण कर दिया जिससे घबराकर राज्यपाल भाग गया।
इसी तरह पाल वंश में भी विग्रहपाल द्वितीय के पश्चात् इस वंश का कमशः पतन प्रारम्भ हो जाता है। इस वंश का अन्तिम शासक मदनपाल (1106-1125 ई0) था जो बहुत ही कमजोर था। आन्तरिक विघटन और विदेशी आक्रमणों के कारण पाल राज्य धराशायी हुआ। मदनपाल के शासन के कम से कम आठवें वर्ष तक उत्तरी बंगाल का सम्पूर्ण भाग यदि नहीं, तो अधिकांश भाग अवश्य था। जयनगर प्रतिमा उत्कीर्ण लेख से स्पष्ट होता है कि उसके शासन के चौदहवें वर्ष में मुंगेर जनपद पर उसका राज्य था। इस प्रकार आन्तरिक विघटन और विदेशी आक्रमणों के कारण पाल वंश समाप्त हो गया। लाट का सामन्त विजयसेन पाल वंश की निर्बलता का लाभ उठाकर स्वतंत्र हो गया और उसने एक नवीन वंश की नीव रखी, जिसे भारतीय इतिहास में सेन वंश के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार तीनों वंशों के पतन के साथ ही त्रिपक्षीय संघर्ष समाप्त हो गया।
त्रिपक्षीय संघर्ष के परिणाम-
इस प्रकार उत्तर-मध्य भारत पर साम्राज्य हेतु संघर्ष में 9वीं सदी की तीन प्रमुख शक्तियों – गुर्जर प्रतिहार , पालों और राष्ट्रकूटों में जो त्रिपक्षीय संघर्ष प्रारंभ हुआ था, उसमें प्रतिहारों की विजय के साथ, उसकी समाप्ति हुई। देवपाल की मृत्यु के बाद पाल उत्तर भारत की राजनीति से ओझल हो गए जिसका लाभ प्रतिहारों ने उठाया। अब प्रतिहारों की गणना उत्तर भारत की सर्वाधिक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में होने लगी थी। इस लम्बे संघर्ष के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सहित सभी क्षेत्रों में गम्भीर परिणाम निकले। युग परिवर्तन की दिशा में इस त्रिपक्षीय संघर्ष ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। संक्षेप में कन्नौज के इस त्रिपक्षीय संघर्ष के परिणाम न्म्नि शीर्षकों के अन्तर्गत बताए जा सकते है –
- कन्नौज का पतन- वर्धन वंश से लेकर त्रिपक्षीय संघर्ष तक कन्नौज का राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व उत्कर्षाधीन था। यह नगर भारत की राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का महत्वपूर्ण केन्द्र था किन्तु महमूद गजनबी के आक्रमण के बाद कन्नौज के सातों किले ध्वस्त हो गये। कन्नौज के राजकीय कोष एव भव्य मन्दिरों को लूट लिया गया। साथ ही साथ राज्यपाल की इस कायरता से क्रोधित होकर चन्देल नरेश विद्याधर ने एक संघ बनाकर कन्नौज पर आक्रमण कर राज्यपाल को मार डाला। इस प्रकार कन्नौज के इतिहास में त्रिपक्षीय संघर्ष ने जिस पतन की शुरूआत की वह अन्ततः गहड़वाल वंश के पतन के बाद इसके सम्पूर्ण पतन में जा मिली।
- देश का सैनिक दृष्टि से कमजोर होना- त्रिपक्षीय संघर्ष के चलते देश में सैनिक दृष्टि से दुर्बलता आई। जनता में योद्धाओं की कमी नहीं थी, लेकिन एकता की भावना के अभाव में ये तीनों शक्तियां आपस में ही युद्धरत रहीं, जिससे सैनिक दृष्टि से दुर्बलता आ गई। ऐसी परिस्थिति को ही देखकर अरब देश के शासकों ने आक्रमण करना आरम्भ किया। प्रारम्भ में जब अरबी आक्रमण हुए तब भी क्षेत्रीय शासक एकजुट नही हुए। कालान्तर में महमूद गजनवी ने तो आक्रमणों की एक श्रृंखला ही चलाई जिसे आर्थिक एवं सैनिक दृष्टि से कमजोर राज्य झेल नहीं पाये।
- देश का आर्थिक दृष्टि से कमजोर होना- त्रिपक्षीय दीर्घकालिक संघर्ष ने देश के आर्थिक संसाधनों को इस सीमा तक बर्बाद कर दिया कि आने वाले समय में भी मानव संसाधनों का पुनर्निर्माण सम्भव नहीं हो सका। इसमें संलग्न तीनों राज्य देश के तीन भागों में स्थित थे। अतः अपने-अपने क्षेत्रों में यह विकास की ओर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकते थे लेकिन यह तीनों त्रिपक्षीय युद्ध की भंवर में फंसे रहे। अतः तीनों प्रतिद्वन्द्वी शक्तियों, प्रतिहार, पाल तथा राष्ट्रकूट का लगभग एक साथ पतन होना आश्चर्यजनक नहीं है। प्रो0 रोमिला थापर का मत है कि उनकी शक्ति लगभग समान थी और वह मुख्यतः विशाल सुसंगठित सेनाओं पर निर्भर करती थी। इन सेनाओं का खर्च उठाने के लिये राजस्व के स्रोत भी एक जैसे ही थे और उन स्रोतों पर अत्यधिक दबाव का परिणाम भी एक सा ही होना था। कन्नौज पर अधिकार करने के लिये जो निरन्तर संघर्ष हुआ उससे उनका ध्यान अपने सामन्तों पर से हट गया। जिससे एक ओर राज्य के आय के स्रोत कम हुए तथा दूसरी ओर युद्ध में खर्चा अधिक हुआ। परिणामतः युद्धकालीन अर्थव्यवस्था ने तीनों राज्यों को आर्थिक रूप से जर्जर कर दिया जो भविष्य में आने वाली शक्तियों का प्रतिरोध करने में सक्षम न था।
- तीनों राजवंशों का पतन- तीनों प्रतिद्वन्द्वी शक्तियों का एक साथ पतन हुआ क्योंकि संघर्ष काल में इन्होंने जन कल्याण एवं सार्वजनिक महत्त्व के कार्यों को अनदेखा करते हुए अपनी समूची शक्ति व संसाधनों का संघर्ष में उपयोग किया, जिससे राज्यों का विकास नहीं हो सका और धीरे-धीरे यह तीनों राजवंश तत्कालीन भारतीय राजनीतिक मानचित्र से विलुप्त होते गये।
- नये राजवंशो का उदय- त्रिपक्षीय संघर्ष का समय वह समय है जब भारतीय सामन्तवाद का विकास तेजी से हो रहा था। ऐसे में इन तीनों राज्यों के लिये सामन्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थे। किन्तु सामन्तों ने इस दीर्घकालीन संघर्ष का फायदा यह उठाया कि वह जो कर (टैक्स) जनता से प्राप्त करते थे उसे उन्होंने अपनी शक्ति के विकास में लगाया। परिणाम स्वरूप देश के विभिन्न भागो में अनेक छोटे-छोटे नये राज्य उदित हुए। इसमें सेन, चालुक्य, चन्देल, चाहमान और चोल वंशो को गिनाया जा सकता है।
नयी संस्कृति का उदय- कन्नौज के त्रिपक्षीय संघर्ष के चलते योद्धाओं और अस्त्र-शस्त्रों का महत्व स्थापित हुआ। इसलिए इस काल में शस्त्रोपजीवी जातियों का न केवल प्रादुर्भाव हुआ अपितु उनका विकास भी हुआ। युद्ध कौशल तकनीक के नये आयाम खोजे जाने लगे तथापि समाज में नयी जातियों के उदय से सामाजिक, धार्मिक कानूनों की नई-नई टिकाओं की रचना हुई।
उपरोक्त विवरणों से स्पष्ट है कि इस त्रिपक्षीय संघर्ष ने तीनों महाशक्तियों की स्थिति को कमज़ोर किया जिससे ये एक बड़ा साम्राज्य कायम नहीं कर सकीं और इसने तुर्कों को इन्हें सत्ता से बेदखल करने में सक्षम बनाया। तीनों महाशक्तियों की शक्ति लगभग समान थी जो मुख्यतः विशाल संगठित सेनाओं पर आधारित थी लेकिन कन्नौज के संघर्ष का लाभ उठाकर सामंतों ने अपने-आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया, जिससे रही-सही एकता भी नष्ट हो गई। यद्यपि त्रिपक्षीय संघर्ष की शक्तियाँ लगभग एक साथ अस्तित्व में आई और धीरे – धीरे लुप्त हो गईं। तत्समय ये भारत में एक बड़ा साम्राज्य स्थापित करने में सफल नहीं हुईं लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि राजनीतिक शून्यता को काफी लम्बे समय तक भरने में कामयाब रहीं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची –
- प्राण नाथ चोपड़ा, प्राचीन भारत का व्यापक इतिहास (अंग्रेज़ी में), स्टर्लिंग पब्लिशर्स. पृ0सं0- 194-95.
- इलियट और डाउसन, हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, पृ0सं0- 1-126
- वी0 के0 अग्निहोत्री, इंडियन हिस्ट्री (2010), पृ0सं0- 26
- राजस्थान की नई छवि. सार्वजनिक संबंध निदेशालय, राजस्थान सरकार, 1966. पृ0सं0- 02
- एपिक इण्डिया, खण्ड-6, पृ0सं0- 121-26
- एपिक इण्डिया, खण्ड-12, पृ0सं0- 197 से
- एपिक इण्डिया, खण्ड-18, पृ0सं0- 108-12
- एपिक इण्डिया, खण्ड़-19 , पृ0सं0- 176
- के0 एम0 मुंशी, द ग्लोरी दैट वाज गुर्जरा देशा, बाम्बे, 1955
गुरूजी बिना आपके नहीं होता जीवन साकार,
ReplyDeleteसर पर होता जब आपका हाथ,
तभी बनता जीवन का सही आकार,
गुरूजी आप ही है मेरे सफल जीवन के आधार
*मैंने हमेशा से यह अनुभव किया है कि मेरे सबसे अच्छी किताब आप है गुरूजी।*
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