Introduction(विषय-प्रवेश)
इतिहासकारों द्वारा ’सामंतवाद’ (feudalism) शब्द का प्रयोग मध्यकालीन यूरोप के आर्थिक विधिक, राजनीतिक और सामाजिक संबंधों का वर्णन करने के लिए किया जाता रहा है। यह जर्मन शब्द ’फ़्यूड’ से बना है जिसका अर्थ एक भूमि का टुकड़ा है और यह एक ऐसे समाज को इंगित करता है जो मध्य फ्रांस और बाद में इंग्लैंड और दक्षिणी इटली में भी विकसित हुआ। 600 ई.से 1500 ई. तक की अवधि को यूरोपीय इतिहास में मध्य युग या मध्यकाल की संज्ञा दी गयी है। विशेष रूप से पश्चिमी यूरोप में इस अवधि के दौरान कई सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन हुए। मध्यकाल के दौरान पश्चिमी यूरोप में ऐसी सामाजिक व्यवस्था विकसित हुई जो शेष विश्व से बहुत भिन्न थी। इसे ’सामंतवाद के नाम से जाना जाता है। सामंतवाद शब्द ’मिनक’ शब्द से निकला है, जिसका अर्थ भूमि का सशर्त स्वामित्व होता है। सामंतवाद ऐसी नई सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था थी जो मध्यकाल (600-1500 ईस्वी) में पश्चिमी यूरोप में तथा आगे चलकर यूरोप के अन्य भागों में प्रचलित हुई। इसके अंतर्गत, समाज में वर्गों का विभाजन कठोर था, राजनीतिक रूप से देखें तो यहाँ कोई केंद्रीय शक्ति नहीं थी और ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था का प्रचलन था। इस प्रकार ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था वस्तुतः आत्मनिर्भर थी और अधिशेष उत्पादन बहुत कम था जिससे व्यापार की संभावना न्यून हो गयी थी। अतः व्यापार एवं शहरों के पतन को इसकी एक विशेषता के रूप में देखा गया है। सामंतवाद के अंतर्गत केंद्रीय राजनीतिक शक्ति के अभाव के कारण बहुत सारे सामंतों का राजनीतिक वर्चस्व कायम था जो राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक मामलों को नियंत्रित करते थे। इस समय राजा बहुत शक्तिशाली नहीं था। सामंत किसानों का शोषण करते थे और सर्फडम’ सामंतवाद की महत्वपूर्ण विशेषता बन गई थी। इसके अतिरिक्त, यूरोप में चर्च का प्रभाव धार्मिक मामलों से परे भी विस्तृत था। आर्थिक संदर्भ में, सामंतवाद एक तरह के कृषि उत्पादन को इंगित करता है जो सामंत (स्वतक और कृषकों (peasent) के संबंधों पर आधारित है। कृषक अपने खेतों के साथ-साथ लॉर्ड के खेतों पर कार्य करते थे। कृषक लॉर्ड को श्रम-सेवा प्रदान करते थे और बदले में वे उन्हें सैनिक सुरक्षा देते थे। इसके साथ-साथ लॉर्ड के कृषकों पर व्यापक न्यायिक अधिकार भी थे। इसलिए सामंतवाद ने जीवन के न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक और राजनीतिक पहलओं पर भी अधिकार कर लिया। यद्यपि इसकी जड़ें रोमन साम्राज्य में विद्यमान प्रथाओं और फ्रांस के राजा शॉर्लमेन (Charlemagne] 742-814) के काल में पाई गईं, तथापि ऐसा कहा जाता है कि जीवन के सुनिश्चित तरीके के रूप में सामंतवाद की उत्पत्ति यूरोप के अनेक भागों में ग्यारहवीं सदी के उत्तरार्ध में हुई।
सामंतवाद का विकास क्यों हुआ?
पश्चिमी यूरोप में केंद्रीय राजनीतिक शक्ति के अभाव के कारण सामंतवाद का विकास हुआ क्योंकि इस समय पश्चिमी यूरोप कई छोटे और बड़े राज्यों में बिखर गया था। ऐसी व्यवस्था में स्थानीय सामंत राजा की तुलना में अधिक शक्तिशाली हो गए और सामाजिक मामलों को नियंत्रित करने लगे।
राजा और सामंत सामंती पदानुक्रम में शीर्ष पर राजा होता था। राजा के नीचे सामंत लोग भी अधिपति सामंत और अधीनस्थ सामंतों के पदानुक्रम में व्यवस्थित होते थे। प्रत्येक सामंत केवल अपने अधिपति के मातहत भूमिधर होता था। मातहत होने का अर्थ निष्ठा रखना या निष्ठावान होना होता था, जिसके बदले में उसे कुछ औपचारिक अधिकार मिलते थे। यह पदानुक्रमित प्रणाली अलंघनीय थी क्योंकि अधीनस्थ सामंत केवल अपने तात्कालिक अधिपति के आदेशों का पालन करता था न कि पदानुक्रम में और ऊँचे सामंतों का। इस प्रकार दोहरे कमान की एक ऐसी व्यवस्था विकसित हुई जिसमें केवल दो क्रमागत स्तरों के मध्य ही विभिन्न प्रकार के संबंध विकसित हुए। राजा केवल ड्यूक और अर्ल को आदेश दे सकता था, जो अपने अधीनस्थ सामंतों को आदेश देते थे। ड्यूक और अर्ल को बैरन से सैन्य सहायता मिलती थी, जो सैन्य जनरलों की भांति होते थे, जो आगे नाइट्स पर निर्भर होते थे जो वास्तविक योद्धा होते इसके अतिरिक्त, स्वयं कोई भी सामंत अपने अधीन भूमि का प्रत्यक्ष स्वामी नहीं होता था। वह अपने अधिपति के नाम पर भूमि रखता था। इस प्रकार कानूनी रूप से सभी प्रदेश राजा के अधीन थे। केवल राजा को सामंत के बेटे को नाइट की पदवी देने का अधिकार होता था, जो तब अपने नाम के साथ सर जोड़ सकता था। प्रत्येक सामंत के पास अपने सैनिक होते थे और वह अपनी जागीर का एकमात्र अधिकारी होता था। इस प्रकार कार्यात्मक शब्दों में कोई केंद्रीय शक्ति नहीं थी और राजा केवल कानूनी अर्थों में केंद्रीय शक्ति था। परिणामस्वरूप इस समय राजनीतिक एकता की बहुत कमी थी। धीरे-धीरे यह पदानुक्रम वंशानुगत हो गया। सामंत के पुत्र अगले सामंत बन जाते थे और उनके पिता की जागीर उनकी जागीर बन जाती थी।
भारत में सामन्तवाद का उदय –
पूर्व मध्यकालीन भारतीय समाज का बहुचर्चित विषय सामन्तवाद रहा है। भारत का सामन्तवाद यूरोप अथवा पश्चिमी देशों के सामन्तवाद से कई अर्थो में भिन्न था। पहले ही उपर उल्लिखित किया जा चुका है कि सामंतवाद को अंग्रेजी में फ्यूडल सिस्टम कहते हैं। फ्यूडल सिस्टम फ्यूड से बना है, जिसका अर्थ है, भूमि का ऐसा कुछ भाग जो सेवा करने की कुछ शर्तों पर उसका स्वामी किसी सामंत को खेती के लिये देता था, और इस समाज में खेती ही शक्ति का एकमात्र स्त्रोत थी। कुल मिलाकर, यह भूस्वामित्व एवं व्यक्तित्व संबंधों पर आधारित एक सामाजिक पद्धति होती थी, जिसमें परस्पर अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का निर्धारण होता था।
1956 में अपनी पुस्तक ‘‘एन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री‘‘ में डी0डी0 कोशाम्बी ने भारत में सामंतवाद के उदय को द्विमार्गी प्रक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया- ऊध्वर्गामी और अधोगामी सामंतवाद। सामंतवाद के उदय में राजा द्वारा अधिकारियों की सेवा और सैन्य शक्ति हेतु उन्हें वेतन की जगह भूमि अनुदान के साथ-साथ उस भू-क्षेत्र पर विभिन्न अधिकार प्रदान करने से राजा द्वारा स्वयं शक्ति और अधिकारों का विकेंद्रीकरण, क्षेत्रीय अभिजात वर्ग का शक्तिशाली होना तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास को प्रमुख कारक माना गया। राजा अपने अधीनस्थ सामंतों से नजराना लेते थे जिसके चलते उन्हें अपने अधिकार क्षेत्र में राज करने की स्वतंत्रता थी। यह ऊध्वर्गामी सामंतवाद था।
यह राजनीतिक निर्णयों का परिणाम था। आगे चलकर राजा और किसान के मध्य ग्रामीण समाज में बिचौलियों की श्रंखला उभरी, जो राज्य के लिए किसानों पर बल प्रयोग का जरिया भी थे, सामंतवाद की इस सामाजिक और आर्थिक प्रक्रिया को अधोगामी सामंतवाद की प्रक्रिया मानते हैं।
1964 में अपनी पुस्तक ‘इंडियन फ्यूडलिज्म’ में आर0 एस0 शर्मा ने सामंतवाद का विस्तारपूर्वक विश्लेषण करने का प्रयास किया। शर्मा ने हेनरी पिरेन की यूरोप में सामंतवाद की अवधारणा को अपनाया और उसी के आधार पर भारत के सामंतवाद को समझने का प्रयास किया। उनका मानना था कि भारत में गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ-साथ लंबी दूरी का व्यापार और शहरीकरण अवरूद्ध हो गया, साथ ही मुद्रा विनिमय भी ठप होता गया, परिणामस्वरुप सामंतवादी व्यवस्था में आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थ व्यवस्था विकसित होती गई। राज्य ब्राह्मणों के साथ-साथ अब बड़े अधिकारियों को भी उनकी सेवाओं के भुगतान के लिए भूमि देने लगे थे। इस भूमि पर प्राप्तकर्ता को पूर्ण अधिकार होता था, अपने क्षेत्र एवं निवासियों के ऊपर न्याय एवं प्रशासनिक अधिकार के साथ-साथ प्राप्तकर्ता का क्षेत्रीय स्तर पर सामाजिक एवं आर्थिक दबदबा कायम हो गया। कृषि प्रधान ग्रामीण व्यवस्था में कृषक भ-ूसामंतों के अत्यधिक अधीन होते गए और इस बदलते अंतर संबंधों के फलस्वरुप कृषक, कृषक-दास में बदलते गए। आर0 एस0 शर्मा का मानना है कि सामंतों के अधीन अत्यधिक शोषण हो रहा था, सामंतो द्वारा लोगों से बलपूर्वक श्रमदान भी लिया जाता था। अतः शर्मा के अनुसार सामंतवाद के अंतर-संबंधित मुख्य कारण एवं लक्षण थे -भूमि एवं अधिकारों का वितरण, सत्ता का विकेंद्रीकरण, उप-सामंतीकरण, कृषक दास एवं बलपूर्वक श्रम और नगरों का पतन तथा मुद्रा ह्मस।
1971 में हरबंस मुखिया ने अपने लेख द्वारा भारतीय मार्क्सवादियों की भारतीय सामंतवाद के विचार पर गंभीर प्रश्न खड़े किए। खासकर भारतीय सामंतवाद पर आर.एस.शर्मा के विचारों की उन्होंने कड़ी आलोचना की। उन्होंने पूछा क्या भारत के इतिहास में वास्तविक रूप में काभी सामंतवाद था? मुखिया सामंतवाद को पूंजीवाद की भांति एक सार्वभौमिक व्यवस्था न मानते हुए केवल क्षेत्रीय व्यवस्था के रूप में देखते है, जहां उत्पादन अत्यधिक लाभ पर नियंत्रण के लिए नहीं बल्कि उपभोग की प्रवृत्ति से प्रेरित था। इसमें उत्पादन वृद्धि एवं बाजार विस्तार द्वारा सार्वभौमिक व्यवस्था के रूप में उभरना संभव नहीं है। मुखिया का मानना है कि अगर सामंतवाद अलग-अलग स्थानों में अलग प्रकार का था तो व्यवस्था के रूप में भी उसकी एक सटीक परिभाषा देना मुश्किल है।
हरवंश मुखिया के अनुसार भारत में यूरोप की तुलना में खेती साल के अधिक महीनों तक की जाती थी। साथ ही खेती के लिए उर्वरक भूमि तथा कृषि श्रम के लिए जनसंख्या भी यूरोप की तुलना में बहुत अधिक थी। भारत में कूबड़ वाले बैल का उपयोग होता था जिससे अधिक संतुलन के साथ हल का उपयोग होने के कारण खेत जोतने की क्षमता यूरोप की तुलना में अधिक थी। भूमि उत्पादकता की दर भी भारत में अधिक थी, भारत में अधिकांश जगह साल में दो बार खेती की जाती थी। जैसा दबाव यूरोप के कृषक समाज पर था वह दबाव भारतीय कृषक समाज पर नहीं था। इसलिए कृषक दास और कृषि में बलपूर्वक श्रम प्रथा का उभरना भारत में संभव नहीं था। इसके अतिरिक्त भारत में बंधुआ श्रम गैर-उत्पादक कार्यों के लिए अधिक प्रयोग होता था। मुखिया का मानना है कि भारतीय किसानों का श्रम उनके अपने नियंत्रण में था।
हरबंस मुखिया के इस लेख के बाद आर0एस0शर्मा ने ‘‘भारतीय सामंतवाद कितना सामंती था’‘ के रूप में अपने विचारों को पुनः नवीन दृष्टिकोण एवं शोध अध्ययन के साथ प्रस्तुत किया तथा भारतीय सामंतवाद को उन्होंने सामाजिक एवं आर्थिक संकटों के कारण उत्पन्न हुई एक आर्थिक प्रतिक्रिया के रूप में देखने पर अधिक बल दिया। अपने पुराने तर्कों को संशोधित करते हुए, हाल ही में उन्होंने सामंती समाज के विचारात्मक एवं सांस्कृतिक पहलुओं की और अपना ध्यान मोड़ा। उनके अनुसार सामंती मानसिकता, कला एवं वास्तुशिल्प में पदानुक्रम के तत्व विद्यमान थे तथा सामंती समाज के वैचारिक आधार में स्वामी के प्रति कृतज्ञता एवं निष्ठा दृष्टिगोचर होती है। भारत की सामंतवाद के पक्षधर कई विद्वानों ने सांस्कृतिक पहलुओं के माध्यम से भी सामंतवाद का अध्ययन करने का प्रयास आरंभ किया है।
भारत में सामंती व्यवस्था गुप्तोत्तर काल को प्राचीन भारत के अन्य कालों से अलग करती है। सामंत का मूल अर्थ पङोसी होता है, तथा इसका प्रयोग मौर्य काल में पडोसी शासकों के लिये कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा अशोक के अभिलेख में प्रयोग किया गया है। गुप्त काल के पहले इस शब्द का प्रयोग नीतिकारों द्वारा पङोस की भूमि संपत्ति के लिये किया जाता था। समुद्रगुप्त के इलाहाबाद प्रशस्ति में वर्णित सीमावर्ती राजा (प्रत्यंतनिर्पति) भी सामंत के मूल अर्थ में आते हैं। गुप्त काल के समाप्त होते-होते तथा निश्चित रूप से छठवी शताब्दी तक इसका एक नया अर्थ सामने आया। अब सामंत का अर्थ एक पराजित पर पुनर्स्थापित भेंट देने वाला राजा हो गया, जो राज्य की सीमाओं के अंदर था।
सामंती व्यवस्था की उत्पत्ति-
सामंतों की उत्पत्ति तथा विकास सामंतवादी व्यवस्था के विकास में एक महत्त्वपूर्ण कङी थी। जहाँ प्रारंभिक काल में प्रशासन का काम केन्द्र द्वारा नियुक्त व्यक्ति देखता या, वहीं गुप्त काल के बाद यह काम पराजित पर पुनर्स्थापित राजाओं के पास आ गया, जो राजा के प्रति वफादार होते थे तथा भेंट भेजते थे। गुप्तोत्तर काल में यह प्रशासन व्यवस्था सीमांत प्रांतों में देखी जा सकता थी, जबकि हर्ष तथा उसके बाद के काल में यह राज्य के केन्द्र में भी पाई जाने लगी। सामंत अपने क्षेत्र में काफी स्वतंत्र होता था। शीघ्र ही उसने पुराने नायबों को संपत्ति तथा सम्मान में पीछे छोङ दिया।
इन शक्तिशाली तत्वों को राज्य का अंग बनाने के उद्देश्य से इन्हें (सामंतों को) राजा के दरबार में ऊँचे पद दिये जाते थे। अतः वल्लभी के राजा, जिसे हर्ष ने पराजित किया था, न सिर्फ महासामंत बने बल्कि महाप्रतिहार तथा महादंडनायक जैसे उच्च पदों पर भी गए। केन्द्रीय दरबार के अधिकारियों ने भी इन पराजित राजाओं के समान सम्मान की मांग की तथा उसे प्राप्त भी किया परंतु सिर्फ पदवियों से संतुष्ट न होकर इन अधिकारियों ने क्षेत्र की भी मांग की। यह भारत के सामंतीकरण की प्रक्रिया थी, जिसे भारतीय सामंती स्वरूप माना जा सकता है।
सामंतवाद के मौलिक विचार-
सामंतवाद के दो मौलिक विचार थे
प्रत्येक व्यक्ति का कोई स्वामी होना चाहिये, जो उनकी रक्षा कर सके तथा जिसकी वह बदले में सेवा कर सके।
सभी राजनैतिक एवं सामाजिक संबंधों का आधार भू-नियंत्रण था। वस्तुतः भूमि का अधिकार या भू-नियंत्रण ही इस संबंध का एकमात्र आधार था। संकट के समय इसी से पारस्परिक सेवा एवं सुरक्षा का भी कार्य होता था।
सामंतीकरण की प्रक्रिया को दो बातों ने तेज किया –
- वेतन में देने के लिये मुद्रा का अभाव तथा
- यह विचार कि राजा का सम्मान उसके सामंतचाकर के आकार पर निर्भर करता था।
अर्थशास्र जैसी पुरानी संहिता अधिकारियों के वेतन का विस्तृत ब्यौरा देती हैं तथा ह्वेनसांग बताता हैं, कि सातवीं शताब्दी में भी कुछ उच्च अधिकारी अपना वेतन नकद पाते थे। इसके बाद विश्व व्यापार में आई मंदी तथा मुद्रा के प्रचलन में कमी के कारण यह आवश्यक हो गया, कि अधिकारियों को वेतन के स्थान पर गांव अथवा जिले का राजस्व प्रदान कर दिया जाए। कुछ समकालीन स्रोत हमें बताते हैं, कि राजा ऐसे दाने को रद्द करने में प्रसन्न होते थे, खासकर अगर उस अधिकारी ने राजा को नाराज किया हो। परंतु आमतौर पर सामंतीकरण की प्रक्रिया केन्द्रीय शासक से ज्यादा मजबूत थी।
भारत में सामंतवाद का विकास–
सामंतवाद का उदय एवं विकास प्रथम शताब्दी के बाद ब्राह्मणों को दिए जाने वाले भूमि अनुदानों में देखा जा सकता है। गुप्तकाल में उत्तर भारत में इनकी संख्या में बृद्धि हुई जो बाद के काल में और बढती गई। हर्ष के काल में नालंदा बौद्ध विहार को 200 गांवों का स्वामित्व प्राप्त था। ब्राह्मणों तथा मंदिरों को भूमि कर सौंपने का उद्देश्य अपने संरक्षकों के प्रति नागरिक एवं सैनिक सेवा नहीं बल्कि अध्यात्मिक सेवा प्रदान करना था। उन्हें वित्तीय अधिकार एवं कानून-व्यवस्था तथा अपराधियों से जुर्माना वसूलने जैसे प्रशासनिक अधिकार सौंपे जाते थे। ह्वेनसांग के अनुसार राज्य के उच्च अधिकारियों का वेतन भूमि अनुदान के रूप में दिया जाता था, लेकिन ऐसे अनुदान प्राप्त नहीं हुए हैं। संभवतः वे ऐसी वस्तु पर अंकित किये गये होंगे जो नष्ट हो गई होंगी।
भूमिपतियों के एक वर्ग के निर्माण की यह प्रक्रिया पूरे देश में असामान्य थी। यह रिवाज सर्वप्रथम पहली सदी के लगभग महाराष्ट्र में प्रारंभ हुआ था। ऐसा प्रतीत होता है, कि चौथी शताब्दी में भूमि अनुदान मध्य प्रदेश के एक बङे भाग में होता था। पश्चिम बंगाल और बंग्लादेश में पांचवी-छठी शदी में उङीसा में छठी-सातवीं सदी में, आसाम में सातवीं सदी में, तमिलनाडु में आठवीं सदी में तथा केरल में नवीं-दसवीं सदी में यह प्रथा महत्त्वपूर्ण हो गयी थी। ब्राह्मणों के लिये आय के अतिरिक्त स्रोत का पता लगाने के लिये तथा नए क्षेत्रों में कृषि के विस्तार के लिये भूमि अनुदान की प्रथा सबसे पहले सूदूर, पिछङे तथा कबीलाई क्षेत्रों में प्रारंभ की गयी थी। उपयोगी पाने पर इसका विस्तार मध्य भारत या मध्य प्रदेश में किया गया, जो देश का सभ्य भाग था तथा ब्राह्मणवादी समाज तथा सभ्यता का केन्द्र था।
प्रारंभिक भारतीय सामंतवाद की एक और विशेष बात यह थी, कि 10, 12 या 16 गांव या उनके गुणकों की आर्थिक इकाई की व्यवस्था करना। पहली-दूसरी शताब्दी के मनु के नियम पुस्तक में यह कहा गया है, कि 10 गांवों के संग्राहक को भूमि दान द्वारा वेतन देना चाहिये। ये इकाई राष्ट्रकूट तथा कुछ हद तक पाल राज्य में भी थी।
भारत में सामंतवाद का सामाजिक-आर्थिक पक्ष गुप्त काल से बाद के (जिन्हें ऊपर के तीन वर्णों का सेवक माना जाता था) कृषक के रूप में परिवर्तन के साथ जुङा हुआ है। पुराने बसाए गये क्षेत्रों में संभवतः शूद्रों को जमीन दी गयी। पिछङे क्षेत्रों में अनेक जनजातीय कबीलों को ब्राह्मणवादी व्यवस्था में भूमि-अनुदान के द्वारा सम्मिलित किया गया तथा उन्हें शूद्र कहा गया। इसी कारण से ह्वेनसांग ने शूद्रों को किसान कहा तथा लगभग चार शताब्दी के बाद अलबरूनी ने भी इसी बात को दोहराया।
प्रारंभिक सामंतवाद की भूमिका-
प्रारंभिक सामंतवाद की ऐतिहासिक भूमिका कई कारणों से महत्त्वपूर्ण थी। सर्वप्रथम, भूमि अनुदान द्वारा मध्य भारत, उङीसा तथा पूर्वी बंगाल में नए क्षेत्रों में कृषि का विस्तार संभव हो पाया। यह स्थिति दक्षिण भारत की भी थी। कुल मिलाकर प्रारंभिक सामंतवाद के काल में कृषि का काफी विस्तार हुआ। उद्यमी ब्राह्मणों ने पिछङे तथा आदिवासी क्षेत्रों में कृषि के नए तरीकों को पहुँचाया। पुजारियों द्वारा कुछ परंपरा तथा विश्वासों को बढावा देने से कबीलायी लोगों की प्रगति हुई। पुजारियों ने आदिवासियों को हल चलाने, खाद का प्रयोग करने, मौसम तथा पौधों का ज्ञान देकर खेती के विकास को मदद दी विशेषकर बरसात के ज्ञान द्वारा। इनमें से अधिकांश बातें कृषि पराशऱ में अंकित हैं, जो इस समय की रचना थी।
दूसरा, भूमि- अनुदान द्वारा दान में दिये गये क्षेत्र का प्रशासन चलाने के लिये एक व्यवस्था मिली, क्योंकि यह कार्य दान प्राप्त करने वाले का होता था। स्थापित तथा पिछङे क्षेत्र में धार्मिक दान से लोगों में स्थापित व्यवस्था के लिये वफादारी के भाव का विकास हुआ। दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्ष सामंत युद्ध के समय सैनिकों द्वारा तथा क्षेत्र के प्रशासन द्वारा स्वामी की सेवा करते थे।
तीसरा, भूमि अनुदान के द्वारा कबीलायी क्षेत्रों का ब्राह्मणीकरण हुआ तथा उन्हें उन्नत जीवन के लाभ मिले। इस अर्थ में सामंतवाद ने देश को जोङने का काम किया। ब्राह्मविवर्त पुराण के अनुसार सैकङों जातियों में तथा मिश्रित जातियों में चार वर्णों के विभाजित होने का मुख्य कारण इन कबीलायी लोगों का ब्राह्मणवादी व्यवस्था से सीधा संपर्क भूमि दान द्वारा स्थापित होना था।
अतः भारतीय सामंतवाद अनेक विकास के चरणों से गुजरा। गुप्त काल तथा उसके बाद की दो शताब्दी में ब्राह्मणों तथा मंदिरों को भूमि अनुदान देने की परंपरा प्रारंभ हुई, जिसका स्वरूप तथा संख्या पाल, प्रतिहार तथा राष्ट्रकूट राज्य में परिवर्तित होता रहा। प्रारंभिक काल में सिर्फ आर्थिक अधिकार दिये जाते थे, पर आठवी शताब्दी के बाद मालिकाना हक भी दिया जाने लगा। ग्यारहवी तथा बारहवी सदी में यह प्रक्रिया पूर्ण हुई जब पूरा उत्तर भारत आर्थिक तथा राजनैतिक टुकङों में बंट गया तथा किसी न किसी धार्मिक अथवा धर्मनिरपेक्ष व्यक्तियों को दान में दिया गया था, जो इसे जागीर की तरह भोग रहे थे।
भारत में सामन्तवाद के उदय और विकास के कारण –
भारत में सामन्तवाद के उद्भव तथा विकास के लिये राजनीतिक, सामाजिक धार्मिक तथा आर्थिक परिस्थतियों ने उपयुक्त आधार प्रदान किया। संक्षेप में इसके लिए निम्न कारणों और परिस्थितीयों को उत्तरदायी माना जा सकता है –
- राजनीतिक परिस्थितीयॉ – मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद और तत्पश्चात गुप्तों के पतन के बाद भारत में राजनीतिक केन्द्रीकरण शिथिल पडता गया। वाह्य आक्रमण के कारण केन्द्रीय सत्ता निर्बल पड़ गयी तथा चतुर्दिक अराजकता एवं अव्यवस्था फैल गयी। केन्द्रीय शक्ति की निर्बलता ने समाज में प्रभावशाली व्यक्तियों का एक ऐसा वर्ग तैयार किया जिन पर स्थानीय सुरक्षा का भार आ पड़ा। अर्थव्यवस्था के अवनति के उस युग में सामान्यजन अपनी जान-माल की सुरक्षा के लिये इस नवीन वर्ग की ओर उन्मुख हुआ। उल्लेखनीय है कि इन्हीं परिस्थितियों में मध्यकालीन यूरोप में भी सामन्तवाद का अभ्युदय हुआ था। अरबों तथा तुर्कों के आक्रमण ने शक्तिशाली राजवंशों को घराशायी कर दिया। फलस्वरूप उत्तर भारत में कई छोटे-छोटे राजवंशों का उदय हो गया। इससे सामन्ती प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला।
- धर्मविजय की अवधारणा – सामन्तवाद के विकास में प्राचीन भारतीय ’धर्मविजय’ की अवधारणा का भी योगदान रहा है। इसके अन्तर्गत विजेता सम्राट विजित राजा के राज्य को जीत लेने के पश्चात् उस पर अपना अधिकार नहीं करता था अपितु उससे भेट अथवा उपहार आदि प्राप्त कर विजित राजा को अपनी अधीनता में राज्य करने का अधिकार दे देता था। इस नीति को ’ग्रहणमोक्षानुग्रह’ कहा गया है। विजित राजाओं को अपने सम्राट को सभी कर देना पड़ता था, उसकी आज्ञाओ का पालन करना पड़ता था तथा उसके प्रति निष्ठा सूचित करने के लिये राजसभा में उपस्थित होना पड़ता था। समुद्रगुप्त के ‘प्रयाग-प्रशस्ति‘ लेख मे सामन्तो के इन कर्तव्यो का उल्लेख मिलता है। इन वंशों के शासक ’महाराज’ की उपाधि धारण करते थे जबकि गुप्त सम्राट ’महाराजाधिराज’ कहा जाता था। गुप्त साम्राज्य के पतन के उपरान्त कई सामन्त वंशो ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी तथा ’महाराजधिराज’ बन बैठे। कुछ बड़े सामन्त अपने अधीन छोटे सामन्त रखने लगे जिससे यह प्रथा व्यापक आधार प्राप्त करने लगी। बाण के हर्षचरित मे भी इसकी चर्चा हुई है जहाँ बताया गया है कि हर्ष ने अपने महासामन्तो को अपना ’करद’ (कर देने वाला) बना लिया था। सम्राट अधीन राजाओ की प्रजा से कर न लेकर उन सामन्तो से ही लेता था। गुप्तकाल तथा उसके बाद से शासको की विजय का उद्देश्य अधिक से अधिक सामन्त शासक तैयार कर उनसे करादि बटोरना हो गया। इस प्रवृत्ति ने भी सामन्तवाद को प्रोत्साहित किया।
- समाजिक-आर्थिक कारण – सामन्तवाद के विकास में आर्थिक कारक भी सहायक सिद्ध हुए। इसके सामाजिक-आर्थिक कारक शक-कुषाण युग में ही स्पष्ट होने लगते है। इस समय ग्रामो में ग्राम-पतियो का एक सम्पन्न वर्ग उठ खड़ा हुआ जिसकी अधीनता में निर्धन किसानों का वर्ग था। इसके साथ ही विदेशी जातियो ने कुलीन शासकवर्ग का स्थान ग्रहण कर लिया जिसके फलस्वरुप स्वामी-सामन्त सम्बन्धों का विकास हुआ। किन्तु कुषाण युग की आर्थिक प्रगति ने सामन्ती मनोवृत्ति पर अंकुश लगाया तथा उसका प्रभाव व्यापक नहीं हो सका। गुप्तकाल के पश्चात् राजनीतिक उथल-पथल के वातावरण में व्यापार-वाणिज्य का पतन हुआ। 600 से 1000 ई० के मध्य हमे व्यापारिक संघो की मुहरे नहीं मिलती तथा सिक्के मिश्रित धातु एवं भद्दे आकार-प्रकार के मिलते है। इससे सूचित होता है कि इस समय वाणिज्य पर अधारित अर्थव्यवस्था का पतन हो गया था। अहिच्छत्र तथा कौशाम्बी जैसे नगरो की खुदाई और हुएनसांग के विवरण से प्रमाणित होता है कि उत्तर-भारत के अनेक नगर वीरान हो चुके थे। नगरीय जीवन के पतन के फलस्वरूप अर्थ-व्यवस्था मुख्यतः भूमि और कृषि पर निर्भर हो गयी। कृषि के प्रति समाज का दृष्टिकोण बदलने लगा। इसकी झलक हमे तत्कालीन ग्रन्थो मे मिलती है जहाँ कृषि को सभी वर्गों के सामान्य व्यवसाय के रूप में निरुपित किया गया है। पराशर स्मृति में उल्लिखित है कि कलियुग में कृषि सभी वर्गों का समान व्यवसाय बन जायेगी। भूमि तथा कृषि के प्रति इस परिवर्तित दृष्टिकोण के फलस्वरूप विभिन्न वर्गों के लोगो ने अधिकाधिक भूमि प्राप्त करने का प्रयास किया। इस प्रकार समाज में भूसम्पन्न कुलीनवर्ग का आविर्भाव हुआ और बहुसंख्यक शूद्र तथा श्रमिक जीविका के लिये उनकी ओर उन्मुख हो गये। भूस्वामियों को अपने खेतो पर काम करने के लिये श्रमिको की आवश्यकता थी अतः उन्होने उनका अधिकाधिक उपयोग किया। आर्थिक-परिवर्तन की इस प्रक्रिया ने सामन्तवाद के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
भूमि और ग्राम दान का प्रचलन – भारत में सामन्तवाद के विकास में शासकों द्वारा दिये जाने वाले भूमि और ग्राम अनुदानों का प्रमुख योगदान रहा है। मौर्यो के पतन के पश्चात विशेषकर गुप्त काल से शासन की एक प्रवृति अधिकारियों, मन्दिरों और ब्राह्मणों को भूमिदान में दिये जाने की हुई। जो भूमि ब्राह्मणों को दान में दी जाती थी उसे ‘ब्रह्मदेय‘ कहा गया है और महाभारत, पुराणों और धर्मशास्त्रों में ऐसे दान की काफी प्रशंसा की गई है। इसे लोक-परलोक में पुण्य प्राप्ति का साधन बताया गया है। भूमिदान संबन्धी सर्वप्रथम उल्लेख सातवाहन लेखो से मिलता है। सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र सातकर्णि के एक लेख से पता चलता है कि उसने बौद्ध भिक्षुओ को ग्राम दान से दिये थे। राज्य दानग्राहकों को दान में दी गयो भूमि से प्राप्त आय देने के साथ-साथ उन्हें वहॉं के प्रशासन तथा न्याय का भी अधिकार दे देता था। किन्तु दूसरी शताब्दी तक इस प्रकार के अनुदानो को सख्या सीमित थी तथा राज्य अब भी आय के कुछ साधनो पर अधिकार रखता था। गुप्तकाल में हम भूमि सम्बन्धों अनुदानां में वृद्धि पाते है। इस काल से दान से दी गयी भूमि में स्थित चारागाहो, खानो, निधियो, विष्टि (बेगार) आदि राजस्व के समस्त साधनो को दानग्राही को सौप देने को प्रथा प्रारम्भ हो गयी। वाकाटक नरेश प्रवरसेन द्वितीय को चमक प्रशस्ति से इसकी सूचना मिलती है। सामन्तवाद पर गहन अध्ययन करने वाले प्रख्यात इतिहासकार प्रो0 रामशरण शर्मा की मान्यता है कि भारत में सामन्तवाद का उदय राजाओं द्वारा ब्राह्मणों और प्रशासनिक तथा सैनिक अधिकारियो को भूमि तथा ग्राम दान में दिये जाने के कारण हुआ। हालॉकि प्रो० यादव इससे इत्तेफाक नही रखते और उनकी दृष्टि में कोई भूमि अनुदान ऐसा नही मिलता जिससे यह पता चले कि दानग्रही व्यक्ति सामन्त या राजा बन गया हो। उनकी दृष्टि में ब्राह्मण भूस्वामी हो सकता था किन्तु सामन्त नही।
हर्षवर्द्धन तथा उसके बाद के समय से प्रशासनीक और सैनिक अधिकारियों को उनकी सेवाओं के बदले में भूमिखण्ड दिये जाने की प्रवृति सर्वमान्य हो गयी। मनुस्मृति जैसे ग्रन्थों में राजस्व अधिकारियों को भूमिदान के रुप में वेतन देने की संस्तुति की गयी है। हर्षकाल से इस बात के निश्चित संकेत मिलते है कि भूमि अनुदान न केवल धार्मिक कार्यो, अपितु राज्य की सेवा के लिए भी दिये जाते थे। चीनी यात्री भी इसका स्पष्ट उल्लेख करता है और वह हमें बताता है कि राज्य का चतुर्थाश बडे-बडे अधिकारियों के उपभोग के लिए सुरक्षित था। हर्ष के लेखों में राज्य के बडे-बडे अधिकारियों के लिए सामन्त और महासामन्त जैसी उपाधियों का प्रयोग मिलता है। पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल अभिलेख से पता चलता है कि हर्ष की सेना में बडे-बड़े सामन्त शामिल थे। हर्ष के काल में भूमिदानों की संख्या काफी बढ गयी थी और सामन्त शब्द का प्रयोग भू-स्वामियों, अधीन राजाओं तथा उच्च प्रशासनिक पदाधिकारियों के लिए किया जाने लगा था। हर्षचरित में कई प्रकार के सामन्तों का उल्लेख मिलता है- सामन्त, महामामन्त, आप्त सामन्त, प्रधान सामन्त, शत्रुमहासामन्त तथा प्रति सामन्त। साधारण कोटि के भूस्वामियों को सामन्त कहा जाता था। महासामन्त बड़े भूस्वामी तथा अधिकारी होते थे। हर्ष के लेखों में महासामन्त स्कन्दगुप्त तथा ईश्वरगुप्त के नाम मिलते है। शत्रु सामन्त से तात्पर्य पराजित किये गये शत्रु सरदारों से है।
सामन्तो का एक प्रमुख कर्तव्य अपने स्वामी के लिये युद्ध के समय सेना जुटाना होता था। हर्ष की सेना सामान्यतया सामन्तो द्वारा ही प्रदान की गयी थी। इन सबसे स्पष्ट है कि हर्षकाल में सम्राट की शक्ति का निरन्तर पतन हो रहा था तथा केन्द्रीय सत्ता का विकेन्द्रीकरण हो चुका था। यही कारण है कि इस काल के सिक्के बहुत कम मिलते है। राजपत काल तक आते-आते सामन्तवाद अपने उत्कर्ष की सीमा पर पहुंच गया।राजपूतो के राज्य कई छोटी-छोटी जागीरो मे बॅटे थे तथा प्रत्येक का शासक एक सामन्त होता था। इन जागीरो का उदय, सामन्तो एवं राज्याधिकारियों को भूमि अनुदान मे दिये जाने के फलस्वरूप हुआ। राज्य के अधिकारियो तथा कर्मचारियों को उनकी सेवाओ के बदले भूमिखण्ड दिये जाने का सिद्धान्त इस समय सर्वमान्य हो गया। ऐसे अनदान सैनिक अधिकारियो को भी प्रदान किये जाते थे। चन्देल लेखों से पता चलता है कि बुन्देलखण्ड के चन्देल राजाओं ने अपने अधिकारियों के बहुत अधिक भूमि अनुदान में दिये। भूमि अनुदान में पाने वाले अधिकारियों की स्थिती धीरे-धीरे सामन्तो जैसी ही हो गयी। राजपूत काल में ऐसे सामन्तों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हो गयी। भूमिदान प्राप्त करने वाला व्यक्ति धीरे-धीरे अपना पद और प्रभाव बढाकर सामन्त बन गये और इस प्रकार सम्राट तथा प्रजा के बीच उनका एक महत्वपूर्ण वर्ग खडा हो गया।
इस प्रकार अनेक कारणों से भारत में सामन्तवाद का उत्कर्ष हुआ और अनेक कारणों ने समय-समय पर इसके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हर्षकाल से लेकर राजपूत काल तक के समाज में इसका पूर्ण प्रचलन दिखाई देता है। प्रो0 शर्मा के अनुसार विदेशी व्यापार के पतन, सिक्कों का अभाव तथा बन्द अर्थव्यवस्था के सुदृढ होने के फलास्वरुप सामन्तवादी प्रवृतियों का तेजी से विकास हुआ।
सामन्तवाद का प्रभाव और परिणाम-
- राजनीति तथा प्रशासन पर प्रभाव – सामन्तवादी व्यवस्था के चर्मोत्कर्ष काल में भारत के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। सामन्तों के प्रशासन पर बढ़ते हुए प्रभाव के कारण केन्द्रीय सत्ता अत्यन्त निर्बल हो गयी और अपनी शक्ति के लिये सम्राट पूर्णतया सामन्तों पर ही आश्रित रहने लगे। सामंतीकरण के परिणामतः राजा का प्रभाव उसके केन्दीय क्षेत्र में भी धीरे-धीरे कम होने लगी, क्योंकि राजस्वदायक भूमि केन्द्रीय प्रशासन के प्रभाव से दूर होने लगी। उनका अपनी प्रजा की कठिनाइयों से बहुत कम सम्बन्ध रह गया तथा वे सामन्तो की परामर्श को ही सब कुछ समझने लगे। राजपूत काल में यहाँ तक उल्लेख मिलता है कि सामन्तों के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण सम्राट अपने मन्त्रियों की सलाह को भी उपेक्षा कर देते थे। इस प्रकार राज्य की वास्तविक शक्ति सामन्तो के हाथों में ही केन्दित हो गयी तथा राज्य की सुरक्षा की जिम्मेदारी उन्ही के कन्धो पर आ पड़ी। सामन्तां की संख्या में वृद्धि से आम जनता का जीवन कष्टमय हो गया क्योकि वे नाना प्रकार से उसका शोषण करने लगे। केन्द्रीय शक्ति को दुर्बलता का लाभ उठाकर सामन्त सदा स्वतंत्र होने का अवसर ढूॅढा करते थे। असंतुष्ट सामन्तों द्वारा सम्राट तथा राज्य के विरुद्ध षडयन्त्र किये जाने के भी उदाहरण मिलते हैं। कभी-कभी अपने स्वार्थ एवं महत्वाकाक्षा की पूर्ति के लिये सामन्त एक सम्राट का साथ छोड़कर दूसरे का साथ पकड़ लेते थे। उदाहरणार्थ चन्देलवंश के पतन काल में दूबकुण्ड के कछवाहां ने उनका साथ छोड़ दिया तथा भोज परमार की प्रभुसत्ता को स्वीकार कर लिया। कलचुरि शासक विजयसिह के सामन्त मलयसिंह ने उसके स्थान पर चन्देल नरेश त्रैलोक्यवर्मा का साथ पकड़ लिया। इसी प्रकार चालुक्य कुमारपाल के कई सामन्त रिश्वत लेकर उसके शत्रुओं से जा मिले। इस प्रकार सामन्तवाद ने राजनीति तथा प्रशासन दोनों को कलुषित कर दिया।
- समाज पर प्रभाव – सामन्तवाद ने तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक परिवेश को भी प्रभावित किया। सैनिक शक्ति, समृद्धि तथा राजनीतिक प्रतिष्ठा के कारण विभिन्न वर्गों के लोगों ने समाज मे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया और वे क्षत्रियत्व का दावा करने लगे। कृत्यकल्पतरु नामक रचना में विभिन्न वर्गों के सामन्तों का उल्लेख मिलता है। राजपूतों के छत्तीस प्रमुख कुलों (जिनका उल्लेख पृथ्वीराजरासों में हुआ है) में से कई निम्न उत्पत्ति के थे। इस प्रकार प्राचीन चातुर्वर्ण व्यवस्था प्रभावित होने लगी। समाज में वर्ण का स्थान स्पष्टतः जाति ने ले लिया। भारत में अनेंक जातियों का विभाजन अनेक उप-जातियों में होने लगा। एक प्रकार से जाति व्यवस्था अत्यधिक जटिल हो गई और समाज में स्त्रियों की दशा भी दयनीय होती गयी। समृद्ध वैश्यों ने भी इनका अनुकरण किया तथा उनका जीवन भी विलासी और आडम्बरपूर्ण हो गया। संभ्रान्त कुलों में श्रम को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा तथा लोग बहुसंख्यक सेवक, दास-दासियों को रखना सामाजिक प्रतिष्ठा का सूचक मानने लगे।
- धर्म पर प्रभाव – सामन्तवाद के विकास ने भारतीय धर्म को भी प्रभावित किया। धार्मिक क्षेत्र में हम देखते हैं कि धार्मिक सम्प्रदायों ने भी सामन्ती विलासिता एवं वैभव के जीवन को अपनाया। मठाधीश सामन्ती उपाधियाँ धारण करने लगे तथा मन्दिरों में देवताओं की उपासना भी ठाठ-बाट के साथ सम्पन्न होने लगी। मन्दिरों तथा मठों के स्वामियों का जीवन सामन्तों के ही समान विलासी एवं वैभवपूर्ण बन गया। मन्दिरों की देखरेख के लिए दक्षिण भारत में कुऑरी कन्याएॅ रखी जाने लगी जिसने कालान्तर में देवदासी प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों को जन्म दिया।
- आर्थिक प्रभाव – आर्थिक क्षेत्र में सामन्तवाद का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। विभिन्न सामन्ती ईकाईया आत्मनिर्भर आर्थिक इकाइयों में परिवर्तित हो गयी। सामन्तों में स्थानीयता की भावना बड़ी प्रबल होती थी। उन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों में बसे हुए व्यापारियों एवं व्यवसायियों को दूसरे स्थान में जाने पर पाबन्दी लगा दिया। फलस्वरुप व्यापार-वाणिज्य का पतन हो गया तथा सामाजिक गतिशीलता अवरुद्ध हो गयी। एक प्रकार से सामन्तों ने व्यापार-वाणिज्य को हतोत्साहित किया और आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन दिया। अब कृषि तथा पशुपालन ही आर्थिक जीवन के आधार मान लिये गये। उल्लेखनीय है कि लक्ष्मीधर ने ’वार्ता’ के अन्तर्गत ’वाणिज्य’ को शामिल नहीं किया है तथा इसका अर्थ केवल कृषि और पशुपालन बताया है। मुद्रा के अभाव तथा. माप-तौल में स्थानीय मानकों के प्रचलन से व्यापारियों की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गयी तथा उनमें से अधिकांश ने कृषि करना प्रारम्भ कर दिया। विष्णु तथा वायु पुराणों में तो यहाँ तक बताया गया है कि, कलियुग में वैश्य वर्ण वस्तुतः विलुप्त हो जायेगा।’
- क्षेत्रीयतावाद को प्रोत्साहन – सामंतों द्वारा अपने-अपने क्षेत्र के विकास को प्राथमिकता देने के कारण स्थानीय संस्कृतियाँ विकसित हई। विभिन्न स्थानों में अलग-अलग भाषाओ, बोलियॉ तथा परम्पराओं का प्रारम्भ हो गया। सामन्तो और उनके अधीनस्थों के अपने-अपने क्षेत्रों में व्यस्त रहने के कारण प्रबल स्थानीयकरण की भावना विकसित हुई और स्थानीयता की इस प्रवत्ति ने देश में क्षेत्रीयतावाद को जन्म दिया। लोग अपने-अपने क्षेत्र को ही अपना देश मानने लगे और शासकों के लिये राजनीतिक एकता बनाये रखना कठिन हो गया। क्षेत्रीयतावाद के विकास के कारण प्रत्येक क्षेत्रीय राज्य अपने पडोसी राज्य और उसके शासक से परस्पर ईष्या और घृणा रखने लगा जिसके फलस्वरुप विदेशी अथवा मुस्लिम आक्रमण के समय कभी भी ये शासक सामूहिक रुप से इन शत्रुओं का मुकाबला नही कर सके और अन्ततः भारत में तुर्की आक्रमणकारियों को सफलता मिली।