window.location = "http://www.yoururl.com"; Successor of Iltutmish | इल्तुतमिश के उत्तराधिकारी

Successor of Iltutmish | इल्तुतमिश के उत्तराधिकारी




30 अप्रैल, 1236 को इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद तीन वर्षों का इतिहास सुल्तानों व अमीरों के बीच सत्ता के अधिकार के लिए संघर्ष का इतिहास है। इस काल की दो मुख्य विशेषताएँ हैं- इल्तुतमिश के उत्तराधिकारियों का दुर्बल होना और तुर्की अधिकारियों की महत्त्वाकांक्षाएँ। सुल्तानों की दुर्बलता का लाभ उठाकर तुर्की अधिकारी अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए कृतसंकल्प थे। इन तीस वर्षों में इल्तुतमिश के वंश के पाँच शासक सिंहासन पर बिठाए गए और बाद में पदच्युत कर के मार डाले गए। इन उत्तराधिकारियों का बलि के बकरों की भॉति क्ध किया गया और अंत में तीस वर्ष बाद उसके अमीरों में से एक ने उसके वंश के समस्त सदस्यों को नष्ट कर दिया।
इल्तुतमिश ने रजिया को अपना उत्तराधिकारी चुना था किंतु इल्तुतमिश के मृत्यु के दूसरे ही दिन रूकुनुद्दीन फ़ीरोजशाह को गद्दी पर बैठाया गया। अमीरों और प्रान्तीय अधिकारियों ने उसका समर्थन किया। क्या यह इल्तुतमिश की इच्छा की अवहेलना नही थी? प्रो0 निजामी का विचार है कि संभवतः अपने राज्यकाल के अंतिम समय में इल्तुतमिश ने निर्णय बदल दिया था। रूकुनुद्दीन क्लिसी प्रकृति का व्यक्ति था जो दिल्ली का शासन संभालने में असमर्थ रहा। उसकी माता शाहतुर्कान एक तुर्क दासी थी और उसने शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली। उसने आतंक का शासन शुरू किया और इल्तुतमिश के होनहार युवा पुत्र ुकुतबुद्दीन को अंधा करवाकर मरवा दिया। इसके परिणामस्वरूप मलिकों का शासन पर से विश्वास उठ गया और देश के विभिन्न भागों में विद्रोह शुरू हो गए।ग्यासुद्दीन मुहम्मदशाह ने अवध में विद्रोह किया और दिल्ली जाते हुए शाही कोष लूट लिया। मुल्तान के ’अक्तादार मलिक सैफुद्दीन कूची तथा लाहौर के अक्तादार मलिक अलाउद्दीन जानी ने मिलकर विद्रोह कर दिया। फीरोज ने दिल्ली से कूच किया परंतु राजकीय अधिकारी और यहाँ तक कि वजीर निजामुलमुल्क जुनैदी विद्रोहियों से जाकर मिल गए। फीरोज अपनी सेना के साथ कुहराम की ओर बढ़ा। राज्य में फैली अराजकता और मलिकों के चारों ओर होने वाले विद्रोह का लाभ इल्तुतमिश की पुत्री रजिया ने उठाया। लाल वस्त्र पहनकर- जो उन दिनों न्याय की याचना करने वाले पहनते थे- उसने नमाज के लिए एकत्रित जनता से सहायता मॉंगी। जनसमूह ने महल पर आक्रमण कर शाह तुर्कान को कैद कर लिया। सेना तथा अमीर रजिया से मिल गए अतः जब रूकुनुद्दीन फीरोज दिल्ली लौटा तो उसे कोई समर्थन नहीं मिला। रुकुनुद्दीन को बंदी बना लिया गया और उसे मार डाला गया।

रजिया सुल्ताना (1236-1240 ई0)

रूकुनुुद्दीन फिरोज के बाद रजिया दिल्ली सल्तनत की राजगद्दी पर विराजमान हुई। रजिया ने उचित अवसर देखकर सत्ता पर अधिकार कर लिया था। इस घटना की मूल विशेषता यह थी कि पहली बार दिल्ली की जनता ने उत्तराधिकार के प्रश्न पर स्वयं निर्णय लिया था। जब तक रजिया राजधानी में रही, उसको जनता का पूर्ण समर्थन मिला और काई विद्रोह सफल नहीं हुआ। रजिया का विरोध प्रसिद्ध तर्क अमीरों ने किया जिनमें निजामुलमुल्क जुनैदी, मलिक अलाउद्दीन जानी, मलिक सैफुद्दीन कुची, मलिक ईनुद्दीन कबीर खॉ, मलिक ईजुद्दीन सलारी आदि प्रमुख थे। उनका विद्रोह दबाने के लिए रजिया ने दिल्ली के बाहर यमुना के किनारे अपना शिविर लगाया। शीघ्र ही उसने कई तुर्क अमीरों को गुप्त रूप से अपनी ओर मिला लिया तथा मलिक सैफुद्दीन कूची जैसे कई तुर्क अमीरों को पकड़ कर मरवा दिया। इस प्रकार रजिया ने कुशलता से अपने विरोधियों को कुचल दिया। अभी तक शासक की नियुक्ति में प्रांतीय अधिकारियों का प्रमुख हाथ होता था परन्तु इस विद्रोह के दमन से इस सांविधानिक परंपरा का अंत हुआ। मिनहाज के अनुसार- ‘‘लखनौती से देवन तक सारे मलिको और अमीरों ने उसकी सत्ता स्वीकार कर ली।“
रजिया ने पर्दा त्याग दिया और पुरुषों के समान ’कुबा (कोट) और ’कुलाह (टोपी) पहनकर जनता के सामने आने लगी और शासन का सारा काम वह स्वयं संभालने लगी। उसने अक्ताओं में सेनाध्यक्षों और राज्यपालों को और शाही महल के अधिकारियों को नियुक्त किया। उसने इख्तियारुद्दीन ऐतसीन को ’अमीरे हाजिब‘ तथा मलिक जमालुद्दीन याकूत को अमीरे-आखूर (अश्वशाला का प्रधान) नियुक्त किया। याकूत अबीसीनिया का निवासी था, अतः तुर्क अधिकारी इस नियुक्ति से अप्रसन्न हुए। कबीर खॉ अयाज को रजिया ने लाहौर का ‘अक्तादार‘ नियुक्त किया था परन्तु उसने विद्रोह किया और रजिया ने उसके विद्रोह को पूरे वेग से दबा दिया। कबीर खाँ के विद्रोह की असफलता और आत्मसमर्पण से यह स्पष्ट हो गया था कि राज्यपाल अकेले विद्रोह में सफल नहीं हो सकते थे। अतः ऐसा विद्रोह ही सफल हो सकता था जिसे दरबारी तुर्क अधिकारी व प्रांतीय अधिकारी सामूहिक रूप से दिल्ली के बाहर करें। दिल्ली में नागरिकों के समर्थन के कारण रजिया का विरोध नहीं हो सकता था। ऐतशीन को रजिया ने बदायूँ का ’अक्तादार और फिर ’अमीर हाजिब जैसा महत्वपूर्ण पद दिया था। इल्तुतमिश के एक अन्य अमीर इख्तियारुद्दीन अल्तूनिया को रजिया ने पहले बरन और फिर तबरहिंद (भटिंडा) का ’अक्तादार’ नियुक्त किया था किंतु रजिया के उपकारों के बदले में इन्हीं दोनों ने विश्वासघात किया।
अप्रैल 1240 में अल्तूनिया के विद्रोह को दबाने के लिए रजिया ने तबरहिंद की ओर प्रस्थान किया। राजधानी के कुछ अमीर गुप्त रूप से अल्तूनिया का समर्थन कर रहे थे। इस बीच तुर्क अमीरों ने दिल्ली में याकूत की हत्या कर दी और रजिया को बंदी बना लिया। दिल्ली स्थित तुर्क अमीरों ने मुइजुद्दीन बहरामशाह को गद्दी पर बिठाया। इन प्रभावशाली अमीरों ने राज्य के उच्च पद और ’अक्ताएँ‘ आपस में बाँट लीं। अल्तूनिया से विवाह करके रजिया ने फिर एक बार शक्ति प्राप्त करने का असफल प्रयास किया। मुइजुद्दीन बहरामशाह ने दोनों को हरा दिया और कैथल के पास उनकी हत्या कर दी गई।
मिनहाज के अनुसार रजिया ने तीन वर्ष छह मास और छह दिन तक शासन किया। उसके शब्दों में- “सुल्ताना रजिया एक महान शासिक थी- बुद्धिमान, न्यायप्रिय, उदारचित्त और प्रजा की शुभचिंतक, समद्रष्टा, प्रजापालक और अपनी सेनाओं की नेता। उसमें सभी बादशाही गुण विद्यमान थे- सिवाय नारीत्व के और इसी कारण मर्दो की दृष्टि में उसके सब गुण बेकार थे। वह निस्संदेह इल्तुतमिश के उत्तराधिकारियों में सबसे योग्य और प्रशंसनीय गुणों से युक्त थी।
वह जितनी महान सुल्तान थी, उतनी ही योग्य नारी भी थी परंतु तुर्की अधिकारियों को एक ओर उसके शासक रूप से प्रेम था वही दूसरी ओर उसके नारीत्व से घृणा थी। ईश्वर टोपा का विचार है कि ‘‘उसके अनुचित कार्यों ने तुर्की दल की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाया और उसके प्रिय समर्थकों व उसके हितैषियों को उसका विरोधी बना दिया। उनके अनुसार, “अबीसीनिया के गुलाम जमालुद्दीन याकूत के प्रति उसका रुझान कोई अपराध नहीं था परंतु राजनीति के क्षेत्र में इसका परिणाम हुआ- तुर्की दल और सुल्तान के बीच वैमनस्य की भावना। नारी रजिया ने तुर्कों की भावनाओं का विरोध किया था। रजिया-याकूत के संबंध चालीसा दल के लिए असहनीय थे जिन्हें रजिया द्वारा अपमान और अवहेलना सहनी पड़ी थी और इसी कारण उसके राज्य का विनाशकारी अन्त हुआ।‘‘
इसके विपरीत हसन निजामी का विचार है कि “जमालुद्दीन याकूत को प्रोत्साहन देना उसके चरित्र पर एक संदेहजनक प्रकाश डालता है, यह मत बिल्कुल निराधार है।“ रजिया का स्वयं शासन संभालने व गैर-तुर्क अमीरों के एक दल को संगठित करने का प्रयास उसके विनाश का एक कारण बना। रजिया के राज्यारोहण में दिल्ली की सेना, जनता और अधिकारियों का सहयोग था। अतः प्रांतीय राज्यपालों ने यह अनुभव किया कि उनकी उपेक्षा और अपमान की गई है। इन शक्तिशाली तुर्की अधिकारियों ने प्रारंभ से ही रजिया का विरोध किया। रजिया के शासनकाल की घटनाओं से स्पष्ट है कि उसका विरोध मुख्यतः जातीय आधार पर किया था। उसने यह अनुभव किया था कि तुर्क अमीरों की महत्वाकांक्षा राज्य में कानून तथा व्यवस्था की स्थापना में बाधा बन रही थी। अतः उसने गैर-तुर्को को प्रतिस्पर्धी दल बनाकर उनकी शक्ति को संतुलित करना चाहा था और इसी कारण वह तुर्क अमीरों में अप्रिय हो गई।
इस प्रकार रजिया का अंत तुर्क मलिको और अमीरों की सफलता थी। इसके बाद ’चालीसा दल‘ ने सुल्तानों को चुनने और पदच्युत करने का अधिकार पूर्णतः अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने सुल्तान के पद पर अधिकार करने का प्रयत्न तो नहीं किया, परंतु वे सुल्तान की निरंकुशता को कम करने में सफल रहे। सुल्तान की शक्ति के मार्ग में वे बाधा बन गए। सुल्तान केवल एक कठपुतली बनकर रह गया जो पूर्णतः इन ’चालीसा दल’ की कृपा पर निर्भर था परंतु उन्होंने सुल्तान का पद इल्तुतमिश के परिवार के लिए सुरक्षित रखा।

मुइजुद्दीन बहरामशाह (1240-1242 ई०)

रजिया की स्वतंत्र रुप से शासन करने की नीति से अमीर अधिकारी यह अनुभव करने लगे थे कि शासन की वास्तविक शक्तियों उन्हीं में से किसी एक के हाथ में रहनी चाहिए और सुल्तान का शासन पर कोई प्रभावशाली नियंत्रण न रखा जाए। रजिया के बाद के शासक भी इस योग्य नहीं थे कि वे सुल्तान के पद को अधिक प्रतिष्ठित बना सकें। अपनी शासन-सत्ता को सुरक्षित करने के लिए तुर्क अधिकारियों ने एक नवीन पद ’नायब-ए-मुमलकत‘ की रचना की जो संपूर्ण अधिकारों का स्वामी होगा। यह पद एक संरक्षक के समान था। मुइजुद्दीन बहरामशाह का चुनाव इस शर्त पर किया गया था कि वह मलिक इख्तियारुद्दीन ऐतगान को अपना नायब बनाए। ऐतगीन रजिया के विरुद्ध पड़यंत्रकारियों का नेता था, अतः उसका चुनाव सुल्तान के लिए एक बाधा था। साथ ही वजीर का पद भी समाप्त नहीं किया गया और वह मुहज्जुबुद्दीन मुहम्मद एवाज के हाथ में ही रहा। इस प्रकार वास्तविक शक्ति व सत्ता तीन दावेदार थे- सुल्तान, नायब और वजीर। मिनहाज के अनुसार यद्यपि बहरामशाह में अनेक प्रशंसनीय गुण थे, तथापि वह क्रूर और रक्तपात करने वाला शासक था। दो मास के शासनकाल में उसने यह स्पष्ट कर दिया था कि वही वास्तविक शासक था। यद्यपि वह योग्य नहीं था, तथापि वह हत्या करने में कोई संकोच नही करता था। वह अपनी प्रतिष्ठा और विशेषाधिकारों के संबंध में तुर्की सरदारों से समझौता करने को तैयार नहीं था। ऐतगीन ने नायब बनने के बाद शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली थी और अपनी स्थिति दृढ़ करने के लिए उसने इल्तुतमिश की तलाकशुदा पुत्री से विवाह कर लिया। उसने अपने द्वार पर नौबत (नगाड़ा) आर हाथी रखना शुरु कर दिया था जिसका अधिकार केवल सुल्तान को होता था। ऐतगीन की बढ़ती हुई महत्वाकांक्षाओं के कारण दो माह में ही सुल्तान ने दरबार में उसकी हत्या करवा दी।
ऐतशीन की मृत्यु के बाद बद्रुदुद्दीन जो ‘आमिरे हाजिब‘ के पद पर आसीन था, ने सभी अधिकारों को अपने हाथ में ले लिया। उसने कुछ अमीरों के साथ मिलकर आरामशाह की हत्या का षड्यंत्र बनाया परंतु वजीर मुहज्जबुद्दीन ने इसकी सूचना सुल्तान को दे दी। सुल्तान ने शीघ्रता से कार्रवाई कर षड्यंत्रकारियों को पकड़ लिया, परंतु उसने उन्हें कोई कठोर दंड नहीं दिया। इन षड्यंत्रकारियों को या तो पदच्युत कर दिया गया या उनका तबादला कर दिया गया। बद्रुद्दीन सुन्कर को बदायूँ का अक्तादार बनाकर भेज दिया, परंतु वह चार महीने बाद ही दिल्ली वापस आ गया, अतः उसकी और ताजुुद्दीन अली मसूदी की हत्या कर दी गई। इन दोनों की हत्या से अमीरों में भय फैल गया और वे अपनी सुरक्षा के लिए सावधान हो गए। सुल्तान व अमीरों के बीच की खाई और गहरी हो गई और वजीर मुहज्जबुद्दीन ने सुल्तान मुइजुद्दीन बहरामशाह को सिंहासन से हटाने का निश्चय कर लिया।
1241 ई० में मंगोल आक्रमण के समय उसे यह अवसर मिला। सुल्तान ने उसे अन्य अमीरों के साथ मंगोलों के विरुद्ध युद्ध के लिए भेजा। तुर्क अमीरों को सुल्तान के विरुद्ध भड़काने के लिए उसने एक चाल चली। उसने सुल्तान को पत्र लिखकर, इस आशय का फरमान प्राप्त कर लिया जिसमें सुल्तान ने उन तुर्क अमीरों की हत्या करने को कहा था जो स्वामिभक्त नहीं थे। धोखे से प्राप्त किया गया यह पत्र उसने तुर्की सरदारों को दिखा दिया। तुर्की सरदारों ने विद्रोह कर दिया और दिल्ली की ओर कूच कर करने लगे। बहरामशाह के प्रति कुछ स्वामिभक्त तुर्कों और दिल्ली की जनता ने विद्रोही सेना का सामना किया परंतु वे पराजित हुए। 10 मई 1242 ई० को अमीरों और तुर्कों ने नगर पर अधिकार कर लिया और 13 मई को बहरामशाह की हत्या कर दी गई।

सुल्तान अलाउद्दीन मसूदशाह (1242-1246 ई०)

मलिक ईजद्दीन किश्लू खाँ ने विद्रोहियों का नेता होने का दावा किया और इल्तुतमिश के महलों पर अधिकार कर लिया। उसने स्वयं को सुल्तान घोषित किया परन्तु तुर्क अमीर राजवंश परिवर्तन नहीं चाहते थे। उनके विरोध के भय से किश्लू खॉं ने एक हाथी और नागौर के अक्तादार के पद के बदले सिंहासन पर से अपना दावा वापस ले लिया। इससे यह स्पष्ट हो गया कि तुकी सरदारों में कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं था कि वह सुल्तान बन सकता। यह भी स्पष्ट था कि गद्दी इल्तुतमिश के वंशज को ही दी जाएगी पर उसे केवल नाममात्र का सुल्तान बनकर रहना होगा। सुल्तान बहरामशाह अपने विशेषाधिकारों को सुरक्षित रखने में असफल रहा था जिससे तुर्की अमीरों की शक्ति प्रमाणित हो गई थी। बहरामशाह की पराजय पर उसकी हत्या तुर्की अमीरों की स्पष्ट विजय थी। अलाउद्दीन मसूदशाह को सुल्तान चुनकर अमीरों ने जनता से अनुरोध किया कि उसे शासक स्वीकार किया जाए। उसे भी इस शर्त पर सुल्तान बनाया गया कि राज्य की सत्ता वह ’नायब’ के द्वारा करेगा। इन परिस्थितीयों में नज्मुुद्दीन अबू बक्र को वजीर बनाया गया। गयासुुद्दीन बलबन को न केवल हॉसी की अक्ता दी गई अपितु उसे ‘आमिरे-हाजिब‘ बनाया गया और बाद में उसे ‘उलुग खॉ‘ की उपाधि भी दी गई।
सुल्तान अलाउद्दीन मसूदशाह का शासनकाल तुलनात्मक दृष्टि से अधिक शांतिपूर्ण रहा। बल्बन ने अपनी शक्ति बढ़ा ली थी और तुर्कों पर उसका प्रभुत्व बन रहा था। वह तुर्की सरदारों का नेता बन गया। मंगोल आक्रमणों के कारण तुर्की सरदारों का ध्यान उस ओर लगाकर बना रहा जिसका लाभ उठाकर बल्बन ने सत्ता पर अपना प्रभाव बढ़ा लिया। अतः सुल्तान के साथ सरदारों का संघर्ष नहीं हुआ। अमीरों का आपसी वैमनस्य व झगड़े भी कम हो गए। यह समय बल्बन की शक्ति-निर्माण का काल था। सन् 1245 में मंगोल के विरुद्ध नीति के सफल होने के बाद बल्बन का प्रभाव अधिक बढ़ गया। इस अभियान से लाहौर, उच्छ और सुल्तान सल्तनत के अधिकार में आ गए। बल्बन अपने साथ के तुर्क अधिकारियों की ईर्ष्या के प्रति सावधान था। अतः जब उसने सुल्तान के पद पर नासिरुद्दीन को बैठाने के लिए षड्यंत्र किया तो उसने बिना कोई शर्त रखे सभी महत्वपूर्ण तुर्क अधिकारियों को अपनी ओर मिला लिया। जिस शांतिपूर्ण ढंग से सुल्तान मसूदशाह को सिंहासन से हटाया गया इससे स्पष्ट है कि सुल्तान अपनी सत्ता पूरी तरह खो चुका था। चार वर्ष एक मास के शासनकाल के बाद उसे 10 जून, 1246 को कारागार में डाल दिया गया जहाँ उसकी मृत्यु हो गई।

नासिरुद्दीन महमूद (1246-1265 ई०)

नासिरूद्दीन महमूद शम्सुद्दीन इल्तुतमिश का पौत्र था। जब अमीरों ने सुल्तान बनाया, वह सत्रह वर्ष का नवयुवक था। 1236 से 1246 ई० के बीच राजवंश के चार राजकुमार सिंहासन पर बैठाए गए थे और बाद में उनकी हत्या कर थी। यह इस युवा राजकुमार के लिए चेतावनी थी। शम्मी मलिक, जिन्होंने उसका समर्थन किया था, उसके लिए खतरे का स्रोत भी थे। जब तक इन शम्सी मलिकों में एकता रही, नासिरुद्दीन को कोई समस्या नहीं उत्पन्न हुई। सुल्तान और तर्की अमीरों के संघर्ष का कोई अवसर नही आया। सुल्तान नासिरुद्दीन को धर्म-परायण और सच्चरित्र शासक बताया गया है जो शासन करने का इच्छुक नहीं था। चूँकि उसने गददी पर आने के लिए बलबन के साथ षडयन्त्र में भाग लिया था इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि वह सुल्तान का पद नहीं सॅंभालना चाहता था पर इसके साथ ही वह तुर्क अधिकारियों को अप्रसन्न भी नहीं करना चाहता था।
सुल्तान नासिरुद्दीन ने यह अनुभव किया कि उसके पहले जिन सुल्तानों की हत्या हुई है उसका मुख्य कारण यही था कि उन्होंने तुर्की सरदारों की शक्ति का विरोध किया था। अतः शासन की बागडोर उसने अपने ’नायब’ बल्बन के हाथ में सौप दी, जिससे तुर्की अमीरों की वैमनस्यता का सामना उसे नहीं करना पड़ा। वह उनकी शक्ति से पूर्णतः अवगत था। इतिहासकार इसामी ने लिखा है कि- “वह बिना उनकी (तुर्की अधिकारी की) पूर्व आज्ञा के अपनी कोई राय व्यक्त नहीं करता था। वह बिना उनकी आज्ञा के हाथ-पैर तक नहीं हिलाता था। वह बिना उनकी जानकारी के न पानी पीता था और न सोता था।“ इससे प्रतीत होता है कि उसने अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं किया और पूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया। शासन के प्रारंभिक वर्षों में उसने वही किया जो बल्बन ने चाहा।
7 अक्टूबर 1249 को सुल्तान नासिरुद्दीन ने बलबन को ’उलुग ख़ाँ’ की उपाधि प्रदान की और सेना पर पूर्ण नियंत्रण के साथ ’नायबे मुलाकात‘ का पद दिया। बाद में उसे ’अमीर हाजिब‘ बनाया गया और उसने अपनी पुत्री का विवाह बलबन से किया। इस प्रकार थोड़े समय के अवकाश के अतिरिक्त बलबन ने लगभग अगले चालीस वर्ष तक शासन किया, बीस वर्ष एक वजीर की हैसियत से और बीस वर्ष एक सुल्तान के रूप में। वजीर अथवा नायब के पद पर रहते हुए बलबन ने 20 वर्षो में अपने सभी प्रतिद्वन्दियों का दमन करते हुए उनका सफाया करने में सफलता अर्जित की। 1265 ई0 में सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद के देहान्त के पश्चात वह दिल्ली सल्तनत का सुल्तान बना।

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