गौतम बुद्ध के समकालीन अविर्भत होने वाले अरूढिवादी सम्प्रदायों में जैन धर्म और उसके प्रवर्तक महावीर का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है। दो जैन तीर्थंकरों के नामों-ऋषभदेव और अरिष्टनेमि का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है । विष्णु पुराण और भागवत् पुराण में ऋषभदेव का उल्लेख नारायण के अवतार के रूप में मिलता है। इस प्रकार यदि जैन धर्म वैदिक धर्म से अधिक पुराना नहीं तो भी उसके समान ही प्राचीन है। कुछ विद्वानों का मत है कि सिन्धु घाटी से प्राप्त हुई पुरुष की नग्न धड़-प्रतिमा का तीर्थंकरों से कुछ न कुछ संबंध अवश्य है।
जैन परम्परा में चौबीस तीर्थंकर (अवतार अथवा गुरु) के नामों का उल्लेख मिलता है। वे सभी क्षत्रिय थे और राज-परिवारों से सम्बन्ध रखते थे हालाँकि वे एक-दूसरे से पूर्णतया सम्बन्धित नहीं थे। जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव को माना जाता है। तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ और अन्तिम (चौबीसवें) वर्धमान महावीर के अतिरिक्त सभी तीर्थकरों के बारे में अधिक ज्ञात नहीं है और सभी की ऐतिहासिकता संदिग्घ है। ंपार्श्वनाथ जैन सम्प्रदाय के तेइसवें तीर्थकर माने जाते है जो काशी नरेश अश्वसेन के पुत्र थे। पार्श्वनाथ एक राजकुमार थे, जिन्होंने राजसिंहासन छोड़कर संन्यासी का जीवन व्यतीत : किया। इन्होने ही चार गणों की स्थापना की थी। इनके अनुयायियों में स्त्री-पुरूष दोनो शामिल थे। महावीर से 250 वर्ष ईसा पूर्व ये पर्याप्त लोकप्रिय थे। उनके चार मुख्य उपदेश थे- अहिंसा, सत्य, अस्तेय और त अपरिग्रह जिन्हे जैन धर्म में चार महावत्र के नाम से जाना जाता है। पार्श्वनाथ ने भिक्षुओं को वस्त्र धारण करने की अनुमति प्रदान की थी। इन्होने सम्मेद पर्वत पर कठोर तपस्या कर 84वें दिन कैवल्य की प्राप्ति की।
वर्द्धमान महावीर (540ई0पू0 – 468 ई0पू0)-
जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक वर्द्धमान महावीर का जन्म 540 ई0पू0 में एक क्षत्रिय परिवार में वैशाली जिले (बिहार) के कुण्डग्राम नामक स्थान में हुआ था। उनके पिता सिद्धार्थ वज्जि राज्य-संघ के ज्ञातृक गण के मुखिया और उनकी माता त्रिशला वैशाली के राजा चेतक की बहन थीं । महावीर का मूल नाम वर्द्धमान था। महावीर का सम्बन्ध मगध के शासक बिम्बिसार से भी था, जिन्होंने चेतक की पुत्री चेल्लना से विवाह किया था। महावीर की पत्नी यशोदा से एक पुत्री थी उत्पन्न हुई जिसका नाम अणोज्जा (प्रियदर्शना) था, जिसका पति जामाली महावीर का पहला शिष्य बना।
वर्धमान को सभी प्रकार के ज्ञान की शिक्षा प्राप्त थी परन्तु उन्होंने कभी भी भौतिक जीवन का आनन्द नहीं उठाया । 30 वर्ष की अवस्था में माता-पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने बडे भाई नंदिवर्द्धन की आज्ञा लेकर परिवार का परित्याग का गृहत्याग दिया। प्रारम्भ में उन्होने वस्त्र धारण किये परन्तु 13 महीने बाद वे पूर्णतया नंगे रहने लगे। उन्होने कठोर तपस्या एवं साधना का जीवन व्यतीत किया और सत्य की खोज में निकल पड़े। वे एक धार्मिक संत से दूसरे संत के पास गए और यातना तथा आत्म-तप का जीवन व्यतीत किया, किंत इसका कोई लाभ नहीं हुआ। वे नालन्दा गये जहॉ उनकी मुलाकात मक्खलीपुत्त गोशाल नामक सन्यासी से हुई। वह उनका शिष्य बन गया किन्तु 6 वर्षो बाद उनका साथ छोडकर उसने ‘‘आजीवक‘‘ नामक नये सम्प्रदाय की स्थापना की। अपनी तपश्चर्या के तेरहवें वर्ष, वैशाख मास में के दसवें दिन उन्हें जृम्भिक ग्राम के बाहर ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल के वृक्ष के नीचे उन्हे पूर्ण सत्य-ज्ञान (कैवल्य) की प्राप्ति हुई। इसके बाद उन्हें ‘जिन’ या जितेन्द्रिय (जिसने अपनी इन्द्रियों को विजित कर लिया हो), निर्ग्रन्थ (सभी व बन्धनों से मुक्त), कैवलिन, और अर्हत (योग्य) कहा जाने लगा। अपनी साधना में अटल रहने तथा अतुल पराक्रम दिखाने के कारण उन्हे ‘‘महावीर‘‘ नाम से सम्बोधित किया गया।
कैवल्य प्राप्ति के पश्चात महावीर ने अपने सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया। वे आठ महीने तक भ्रमण करते तथा वर्षा ऋतु के शेष चार महीनों मे पूर्वी भारत के विभिन्न नगरों में विश्राम करते। जैन ग्रन्थों में ऐसे नगर चम्पा, वैशाली, मिथिला, राजगृह, श्रावस्ती आदि गिनाये गये है। वे कई बार बिम्बिसार और अजातशत्रु से भी मिले तथा सम्मान प्राप्त किया। उनके अनुयायी जैन नाम से जाने गए। राजगृह में उपालि नामक गृहस्थ उनका प्रमुख शिष्य था। इस प्रकार तीस वर्षों तक महावीर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते रहे और अपने धर्म का उपदेश देते रहे । 72 वर्ष की अवस्था में उन्हें 527 ई0पू0 में राजगृह के पास पावा में निर्वाण (मृत्यु) की प्राप्ति हुई। महावीर किसी नए पंथ के संस्थापक नहीं थे, अपितु पहले से सुस्थापित धर्ममत के सुधारक थे। महावीर द्वारा पुनः प्रवर्तित बहुत-सी प्रवृत्तियाँ पहले से ही विद्यमान थीं। निःसन्देह उन्हें अव्यवस्थित जनविश्वासों को व्यवस्थित तथा सुदृढ़ धर्म में संहिताबद्ध करने का श्रेय प्राप्त है। जैन तीर्थकरों के उपदेश बारह अंगों में संकलित हैं जिसे महावीर के समय के लगभग एक हजार वर्ष बाद पाँचवीं शती ई. में वल्लभी में लिखा गया था।
महावीर के उपदेश-
महावीर के अपने पूर्ववर्ती तीर्थकर पार्श्वनाथ से दो बातों में मतभेद था। पार्श्वनाथ ने भिक्षुओं के लिए चार व्रतों का विधान किया था – अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना) और अपरिग्रह (धन संचय का त्याग)। परन्तु महावीर ने इसमें एक पॉचवा व्रत ब्रह्मचर्य जोड दिया तथा उसका पालन करना अनिवार्य बताय। पार्श्वनाथ से उनका दूसरा मतभेद इस बात को लेकर था कि उन्होने भिक्षुओं को वस्त्र धारण करने की अनुमति प्रदान की थी परन्तु महावीर ने उन्हे नग्न रहने का उपदेश दिया।
पंच महाव्रत –
वर्द्धमान महावीर ने जैन भिक्षुओं के लिए पॉच महाव्रतों का पालन करना अनिवार्य बताया। ये पॉच महाव्रत है –
अहिंसा – यह जैन धर्म का सबसे प्रमुख सिद्धान्त है। इसमें सभी प्रकार के अहिंसा के पालन पर बल दिया गया है। इसके पूर्ण पालन के लिए निम्न आचारों का निर्देश दिया गया है – संयम से चलना ताकि मार्ग में कीट और अन्य जीव-जन्तुओं के कुचलने से कोई हिंसा न हो जाय, संयम से बोलना ताकि कटु वचन से किसी को कष्ट न पहुॅचे, संयम से भोजन ग्रहण करना ताकि किसी प्रकार से कीडे मकोडे की हत्या न हो जाय, वस्तु को उठाते व रखते समय विशेष सावधानी बरतना ताकि जीव की हत्या न हो जाय और मल-मूत्र का त्याग ऐसे स्थान पर करना जहॉ किसी जीव की हिंसा होने की आशंका न हो।
सत्य – इसमें सदैव सत्य बोलने पर जोर दिया गया है। इसके लिए भी आचरण निर्धारित किये गये है जैसे- सोच-विचार कर बोलना चाहिए, क्रोध आने पर शान्त रहना चाहिए, लोभ होने पर मौन रहना चाहिए, हॅसी में भी झूठ नहीं बोलना चाहिए और भय होने पर भी झूठ नहीं बोलना चाहिए।
अस्तेय – इसके अन्तर्गत निम्नलिखित बातों को शामिल किया गया है – बिना किसी की अनुमति के उसकी कोई भी वस्तु नही लेनी चाहिए, बिना आज्ञा किसी के घर में प्रवेश नही करना चाहिए, गुरू की आज्ञा के बिना भिक्षा में प्राप्त अन्न को नही ग्रहण करना चाहिए, बिना अनुमति के किसी के घर में निवास नहीं करना चाहिए, यदि किसी के घर में रहना हो तो बिना उसकी आज्ञा के उसकी किसी भी वस्तु का उपयोग नही करना चाहिए।
अपरिग्रह – इसके अन्तर्गत किसी भी प्रकार की सम्पत्ति एकत्रित न करने पर जोर दिया गया है क्योंकि महावीर के अनुसार सम्पत्ति से मोह और आसक्ति का उदय होत है।
ब्रह्मचर्य – इसके अन्तर्गत भिक्षुओं को कुछ महत्वपूर्ण निर्देश दिये गये है जैसे – किसी स्त्री से बातें न करना, किसी स्त्री को न देखना, किसी स्त्री से संसर्ग की बात कभी न सोचना, शुद्ध और अल्प भोजन ग्रहण करना और ऐसे घर में न जाना जहॉ कोई अकेली स्त्री रहती हो। संक्षेप में सभी प्रकार के आवेगों, भावनाओं और तृष्णाओं को नियंत्रित रखना ही ब्रह्मचर्य है।
महावीर ने गृहस्थों के लिए उपर्युक्त व्रतों को सरल ढंग से पालन करने का विधान प्रस्तुत किया। इसी कारण गृहस्थ जीवन के सम्बन्ध में इन्हे ‘‘अणुव्रत‘‘ कहा गया है। इनमें अतिवादिता और कठोरता का अभाव है।
जैन धर्म के सिद्धांत –
1 महावीर ने वेदों तथा वैदिक कर्मकाण्डों को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने संयमित और सामान्य जीवन का सन्देश दिया जिसका अन्तिम उद्देश्य कैवल्य (निर्वाण या मोक्ष) की प्राप्ति है। यद्यपि वे जाति-प्रथा के सिद्धान्त के विरोधी नहीं थे तथापि उन्होंने खान-पान सम्बन्धी प्रतिबन्धों का अनमोदन किया।
महावीर को ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं था। उन्होंने कहा कि यह संसार प्रकृति की रचना-कारण और कार्य का परिणाम है । मनुष्य की मुक्ति ईश्वर की दया पर नहीं बल्कि उसके अपने कार्यों पर निर्भर है। मनुष्य स्वयं अपनी नियति का निर्माता है।
महावीर कर्म और आत्मा के पुनर्जन्म में विश्वास करते थे । मनुष्य वर्तमान तथा पिछले जन्मों के अपने कर्म के अनुसार आने वाले जन्मों में दण्डित या पुरस्कृत होता है। अच्छे या बुरे कर्मों के अनुसार आत्मा स्वयं अपने वर्तमान या भविष्य का सृजन करती है। शरीर मृत हो जाता है लेकिन आत्मा अमर होती है।
जैनियों ने समानता पर अधिक जोर दिया। महावीर ने जाति-प्रथा को स्वीकार किया फिर भी उन्होंने कहा कि मनुष्य अपने कर्म के अनुसार अच्छा या बुरा हो सकता है, न कि अपने जन्म के कारण।
महावीर के अनुसार विश्व में दो तत्त्व होते हैं- जीव (चेतन) और आत्मा (अचेतन)। जीव कार्य करता है, अनुभव करता है तथा इच्छा करता है। यह दुःख भोगता है तथा मृत हो जाता है। आत्मा शाश्वत है और इसका जन्म एवं पुनर्जन्म होता है। जीव का अन्तिम उद्देश्य जन्म और पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा पाना तथा निर्वाण की प्राप्ति होना है।।
जैन धर्म में सिद्धान्तों को अवरोही क्रम में पाँच श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है-
तीर्थकर – जो मोक्ष प्राप्त कर चुके हों,
अर्हत – जो निर्वाण पाने के निकट हों,
आचार्य – संन्यासी समूह का प्रमुख
उपाध्याय – अध्यापक या सन्त, और
साधु – वह वर्ग, जिसमें शेष सभी आ जाते हैं।
जैन-धर्म के अनुसार यथार्थ वास्तविकता से पैदा नहीं होती, वह शाश्वत होती है और उत्पत्ति, नाश और स्थायित्व उसकी विशेषताएँ हैं। प्रत्येक यथार्थ वस्तु का निस्सीम स्वरूप होता है। वस्तु का क्या है और क्या नहीं है, इन दोनों का अपना स्वतंत्र स्वरूप तथा विशेषताएँ होती हैं । हालाँकि किसी पदार्थ के रूप और आनुषंगिक स्वरूप प्रगट और विलुप्त होते रहते हैं, लेकिन उसके स्वरूप का मूल तत्त्व स्थायी रहता है । उदाहरण के लिए, आत्मा अपने चेतन स्वरूप के कारण अमर रहती है जबकि इसका आनुषंगिक स्वरूप सुख या दुःख से आप्लावित होता रहता है और शारीरिक क्रिया के माध्यम से सम्पन्न होता है।
जैन धर्म में संसार को वास्तविक, शाश्वत तथा दुःखमूलक माना गया है। यह सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को नही मानता। महावीर ने देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार किया है परन्तु इसका स्थान ‘जिन‘ से नीचे है। एक प्रकार से जैन धर्म कर्मवादी है तथा इसमें पुनर्जन्म को मान्यता प्रदान की गई है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा संसार की सभी वस्तुओं में है। प्रत्येक जीव में दो तत्व सदा विद्यमान रहते है – एक आत्मा और दूसरा भौतिक तत्व जिसे काया क्लेश कहते है। महावीर के अनुसार समस्त संसार जीव तथा अजीव नामक दो नित्य और स्वतन्त्र तत्वों से मिल कर ही बना है। जीव चेतन तत्व है और अजीव अचेतन जड तत्व है। यहॉ जीव से तात्पर्य मनुष्य की व्यक्तिगत आत्मा से है। अनके मतानुसार आत्माएॅ अनेक होती है और चैतन्य आत्मा का स्वाभाविक गुण है। अजीव का विभाजन पॉच भागों में किया गया है – पुद्गल(Matter),काल, आकाश, धर्म और अधर्म। यही धर्म तथा अधर्म गति तथा स्थिती के सूचक है। पुद्गल (MAtter) से तात्पर्य उस तत्व से है जिसका संयोग और विभाजन किया जा सके। इसका सबसे छोटा भाग ‘अणु‘ कहलाता है जिसमें जीव निवास करते है। समस्त भौतिक पदार्थ अणुओं के ही संयोग से निर्मित होता है। स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण – ये पुद्गल के गुण है जो समस्त पदार्थो में दिखाई देते है।
महावीर के अनुसार जीवन का चरम लक्ष्य कैवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति है। अज्ञानता के कारण जीव कर्म की ओर आकर्षित होने लगता है, इसे ही जैन दर्शन में ‘आस्रव‘ कहते है। कर्मफल से छुटकारा पाने के लिए और मोक्ष प्राप्ति के लिए महावीर ने त्रि-रत्न का पालन अर्थात तीन साधन आवश्यक बताए है-
सम्यक् दर्शन – जैन तीर्थकरों और उनके उपदेशों में दृढ विश्वास ही सम्यक् दर्शन या श्रद्धा है। दूसरे शब्दों में सत् में विश्वास ही सम्यक् दर्शन है।
सम्यक् ज्ञान – जैन धर्म और उसके सिद्धान्तों का ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है। दूसरे शब्दों में वास्तविक ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है।
सम्यक् आचरण – जो कुछ भी जाना जा चुका है और माना जा चुका है उसे कार्यरूप में परिणत करना ही सम्यक् आचरण है। दूसरे शब्दों में सांसारिक विषयों में उत्पन्न सुख-दुख के प्रति समभाव रखना ही सम्यक आचरण है। इसमें सदाचरण और सच्चरित्रता पर विशेष बल दिया गया है।
इन तीनों को ही जैन धर्म में ‘त्रि-रत्न‘ की संज्ञा दी गई है। त्रि-रत्नों का अनुसरण करने से कर्मो का जीव की ओर वहाव रूक जाता है जिसे ‘संवर‘ कहते है। इसके बाद पहले से जीव में व्याप्त कर्म समाप्त होने लगते है जिसे ‘निर्जरा‘ कहा गया है। जब जीव से कर्म का अवशेष बिल्कुल समाप्त हो जाता है तब वह मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है। इस प्रकार कर्म का जीव से संयोग बन्धन है और वियोग ही मुक्ति है। दूसरे शब्दों में आत्मा को कर्मो के बन्धन से छुटकारा दिलाने को ही निर्वाण कहा गया है। जैन धर्म में तप पर अत्यधिक बल दिया गया है। उपवास द्वारा शरीर के अन्त का भी विधान है जिसे ‘सल्लेखन‘ कहा गया है। इस प्रकार महावीर की शिक्षाएॅ पूर्णतया नैतिक थी जिनका उद्देश्य आत्मा की पूर्णता था।
स्यादवाद –
स्याद्वाद जिसे सप्तभंगीनय भी कहा जाता है, वास्तव में ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धान्त है। जैन मत के अनुसार किसी वस्तु के अनेक पहलू होते है तथा व्यक्ति अपनी सीमित बुद्धि द्वारा केवल कुछ ही पहलू को जान पाता है। सांसारिक वस्तुओं के विषय में हमारे सभी निर्णय सापेक्ष्य और सीमित होते है। न तो हम किसी को स्वीकार कर सकते है और न ही अस्वीकार। वास्तव में महावीर के अनुसार ये दोनो स्थितीयॉ अतिवादी है। अतः हमें प्रत्येक निर्णय के पूर्व ‘स्याद्‘ (शायद) लगाना चाहिए। एक प्रकार से महावीर ने आत्मवादियों और नास्तिकों के एकान्तिक मतों को छोडकर बीच का मार्ग अपनाया जिसे ‘अनेकान्तवाद‘ अथवा ‘स्याद्वाद‘ कहा गया है। इसके सात प्रकार या दृष्टिकोण बताए गए है।
जैन धर्म का प्रचार-प्रसार और राजकीय संरक्षण-
महावीर के जीवनकाल में ही उनके मत का मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में व्यापक प्रचार हो गया। मगध साम्राज्य के शासक अजातशत्रु तथा उसके उत्तराधिकारी उदयिन जैन धर्म के अनुयायी थे और नन्द शासक भी जैन अनुयायी थे। जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर ने अपने जीवनकाल में एक संघ की स्थापना की जिसमें ग्यारह उत्साही शिष्य थे, जिन्हें ‘गणधर‘ कहा जाता था। उनमें से दस शिष्यों की मृत्यु महावीर के जीवनकाल में ही हो गई थी। उनके बाद केवल एक शिष्य आर्य सुधर्मन् जीवित रहे जो महावीर की है मृत्यु के बाद पहले थेर (धर्मगुरु) बने। उज्जैन जैन धर्म का एक बड़ा केन्द्र था जहाँ कलिकाचार्य तथा है गर्दभिल्ल जैसे सन्त रहते थे। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में जैन दर्शन के महानतम प्रतिपादक भद्रबाहु का जन्म हुआ, जिन्होंने जैन धर्म के जन्म से लेकर अपने समय तक के उत्थान और विकास से सम्बन्धित अत्यन्त प्रामाणिक ग्रन्थ ’कल्पसूत्र’ की रचना की । मौर्य शासक चन्द्रगुप्त मौर्य भी जैन धर्म के अनुयायी थे । उन्होंने इस मत को अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में अंगीकार किया था। वे पाटलिपुत्र छोड़कर भद्रबाहु के साथ में श्रवणबेलगोला पहुँचे, जहाँ उन्होंने चन्द्र नामक पहाड़ी पर मृत्यु-पर्यन्त व्रत रखा और महावीर के निर्वाण के ठीक 170 वर्षों बाद एक सच्चे जैन उपासक की तरह उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई। जैन ग्रन्थों के अनुसार भद्रबाहु ने दक्षिण भारत में जैन-धर्म का प्रसार किया था।
जैन धर्म के आचार्यों एवं भिक्षुओं की तपश्चर्या, कठोर जीवन, अनुशासन एवं सदाचार से आकर्षित होकर अनेक प्राचीन भारतीय नरेशों ने जैन धर्म को राजकीय संरक्षण प्रदान किया। अशोक का पौत्र सम्प्रति प्रसिद्ध जैन आचार्य सुहस्ति के सम्पर्क में आया और उनके उपदेशों से प्रभावित होकर जैन धर्मावलम्बी हो गया । सम्प्रति द्वारा जैन धर्म स्वीकार करने के सम्बन्ध में जैन ग्रन्थ परिशिष्ठवर्मन में उल्लेख प्राप्त होता है। इससे पूर्व चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैन आचार्य भद्रबाहु के प्रभाव से जैन धर्म अंगीकार कर लिया था तथा कर्नाटक में चन्द्रगिरि में अपने जीवन के अंतिम वर्ष व्यतीत किए। कलिंगराज खारवेल जैन धर्म का महान संरक्षक था। उसने द्वितीय जैन महासभा का आयोजन किया तथा खण्डगिरि में जैन भिक्षओं के निवास के लिए गुफाओं का निर्माण कराया। खारवेल के प्रयासों से उड़ीसा में जैन धर्म का खूब प्रसार हुआ। उज्जैन के प्रसिद्ध गर्दभिल्ल द्वारा जैन धर्म अंगीकार करने के सम्बन्ध में जैन साहित्य में अनेक कथाएँ हैं।
प्रथम से तीसरी शताब्दी के मध्य जैन धर्म उत्तर भारत के विभिन्न भागों-विशेषतः मगध, मथुरा, मालवा, गुजरात आदि में स्थापित हो चुका था । इसी काल में दक्षिण में आन्ध्र, कर्नाटक, तमिलनाडु आदि में जैन धर्म का प्रचार हो चुका था।
पाँचवीं शताब्दी ई. के बाद दक्षिण भारत के बहुत से : राजवंशों जैसे-गंग, कदम्ब, चालुक्य तथा राष्ट्रकूटों ने भी जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया। इसी अवधि में अमर कवि जिनसेन और गुणभद्र ने अपने महापुराण की रचना की। राष्ट्रकूट राजवंश का नरेश अमोघवर्ष एक जैन संन्यासी बन गया तथा ’रत्नमालिका’ नामक एक ग्रन्थ की रचना की, जो अति प्रसिद्ध हुआ। बादामी और एहोल की शैल निर्मित गुफाओं में जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ मिलती हैं जो कि प्रारम्भिक चालुक्य काल की हैं । चालुक्य शासक सोमदेव (दसवीं शताब्दी ई.) और गंग शासक नीतिमार्ग (बारहवीं शताब्दी) ने जैन मन्दिरों को उदारतापूर्वक दान दिए तथा अनेक जैन प्रतिमाओं को प्रतिष्ठापित किया। काँची (तमिलनाडु) में सामन्तभद्र (110ई.) ने इस धर्म का उपदेश दिया तथा गुजरात के प्रसिद्ध चालुक्य नरेश सिद्धराज जयसिंह (1094-1143 ई.) ने जैन धर्म को अंगीकार कर लिया।
गुजरात के चालुक्य नरेश कुमारपाल और जयसिंह सिद्धराज दोनों ही जैन धर्म के अंतिम महान संरक्षक थे। उनके बाद बारहवीं शताब्दी से जैन धर्म का महान युग समाप्त हो गया । समय के साथ-साथ जैन धर्म में बहुत सी बुराइयाँ आ गई। कालान्तर में यह एक शुद्ध एवं पवित्र धर्म नहीं रह गया। इसके अतिरिक्त अधिकतर उत्साही धर्माचार्य निष्क्रिय हो गए । द्वितीयतः अब इसे राजकीय संरक्षण प्राप्त नहीं हो रहा था। तीसरे, जैन मन बार-बार खण्डित होकर अनेक संप्रदायों में विभाजित हो गया था । चौथे, जाति प्रथा के दुर्गुणों का भी जैन धर्म के पतन पर प्रभाव पड़ा । पाँचवें, विदेशी आक्रान्ता पहले शक और हूण तथा बाद में मुस्लिमों से इसे भारी आघात पहुँचा। अन्त में हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान जैन धर्म के लिए घातक सिद्ध हुआ।
परवर्ती युग में जैन धर्म दो संप्रदायों में विभाजित होकर पतोन्मुख हो गया। परन्तु इन विभाजनों के बावजद जैन धर्म भारत में न केवल विद्यमान है, अपित उसने भारतीय जन-जीवन एवं संस्कृति को दूरगामी रूप से प्रभावित किया है।
जैन महासभायें –
जैन धर्म के विकास एवं विस्तार के दौरान समय-समय पर जैन धर्म महासभाओं का आयोजन किया गया। प्रथम जैन महासभा महावीर के निर्वाण के 200 वर्ष पश्चात पाटलिपुत्र आचार्य स्थूलभद्र की अध्यक्षता में आयोजित की गई। द्वितीय महासभा का कलिंगराज खारवेल द्वारा सुपर्वत विजयचक्र पर निर्मित एक विशाल सभागार में आयोजित किया गया। इस सभा में द्वादश अंगों को संकलित किया गया। तृतीय महासभा का प्रथम ईसवी सदी में आन्ध्र प्रदेश में वेण्ण नदी के किनारे स्थित वेणाकतटीपुर नामक स्थान में आयोजित किया गया। इस महासभा की अध्यक्षता आचार्य अहंदवली ने की और उन्होंने इसमें अंगों का विवेचन किया। चतुर्थ महासभा का आयोजन चौथी शताब्दी में मथुरा में किया गया। यह महासभा श्वेताम्बर सम्प्रदाय के भिक्षुओं की थी। लगभग इसी समय एक अन्य सभा बल्लभी में आचार्य नागार्जुन सूरी की अध्यक्षता में आयोजित की गई। पाँचवीं महासभा का आयोजन पाँचवीं शताब्दी के मध्य में बल्लभी में जैन आचार्य देवर्धि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में आयोजित की गई। यह महासभा श्वेताम्बरों द्वारा धर्मशास्त्रों को शुद्ध रूप में संकलित करने के लिए आयोजित की गई थी। यहॉ यह उल्लेखनीय है कि सामान्यतया जैन महासभा के सन्दर्भ में दो सम्मेलनों का ही उल्लेख होता है जिसमें प्रथम जैन महासभा चतुर्थ शताब्दी ई0पू0 में स्थूलभद्र की अध्यक्षता में पाटलीपुत्र में आयोजित की गई। ऐसी मान्यता है कि इस महासभा में जैन धर्म के 12 अंगों का सम्पादन किया गया और जैन धर्म का श्वेताम्बर और दिगम्बर में विभाजन हुआ। द्वितीय जैन महासभा 512 ई0 में देवर्धि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में बलभी में आयोजित की गई जिसमें जैन धर्मग्रन्थों का अंतिम संकलन कर उसे लिपिबद्ध किया गया।
जैन संप्रदाय-
चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण के समय मगध में 12 वर्षो का एक भीषण अकाल पडा जिसके फलस्वरूप भद्रबाहु अपने शिष्यों के साथ कर्नाटक में चले गये जबकि स्थूलबाहु के नेतृत्व में कुछ जैन अनुयायी मगध में ही रूक गये। भद्रबाहु के वापस लौटने पर मगध के जैन साधुओं के साथ उनका गहरा मतभेद हो गया जिसके परिणामस्वरूप जैन मत लगभग 300 इ्र्र0पू0 के आसपास दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया – श्वेताम्बर और दिगम्बर। जो जैन अनुयायी मगध में ही रूक गये थे, वे श्वेताम्बर कहलाए। वे श्वेत बस्त्र धारण करते थे। भद्रबाहु और उनके समर्थक , जो नग्न रहने में विश्वास करते थे, दिगम्बर कहे गये। उनके अनुसार प्राचीन जैन-शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान केवल भद्रबाहु को ही था। चूकि सारे शास्त्र नष्ट हो गये थे अतः उन्हे पुनः एकत्र करने के लिए चौथी शताब्दी ई0पू0 में पाटलिपुत्र में जैन धर्म की प्रथम महासभा आयोजित की गयी किन्तु भद्रबाहु के अनुयायियों ने इसमें भाग नहीं लिया। परिणामस्वरूप दोनो सम्प्रदायों में मतभेद बढता गया। पाटलिपुत्र महासभा में जो सिद्धान्त निर्धारित किये गये थे वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के मूल सिद्धान्त बन गये।
जैन धर्म के दोनो सम्प्रदायों में मूल अन्तर निम्न थे –
श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोग श्वेत वस्त्र धारण करते थे तथा वस्त्र धारण करने को वे मोक्ष प्राप्ति में बाधक नही मानते थे। इसके विपरित दिगम्बर मतानुयायी पूर्णतया नग्न रहकर तपस्या करते थे तथा वस्त्र धारण को मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में बाधक मानते थे।
श्वेताम्बर मत के अनुसार स्त्री के लिए भी मोक्ष प्राप्ति संभव है किन्तु दिगम्बर मत के अनुयायी इसके विरूद्ध थे।
श्वेताम्बर मत ज्ञान-प्राप्ति के बाद भोजन ग्रहण करने में विश्वास करते है जबकि दिगम्बरों के अनुसार आदर्श साधु भोजन ग्रहण नही करता है।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोग प्राचीन जैन ग्रन्थ – अंग, उपांग, प्रकीर्णक, वेदसूत्र, मूलसूत्र आदि को प्रामाणिक मानकर उनमें विश्वास करते है किन्तु दिगम्बर इन्हे मान्यता प्रदान नहीं करते है।
पुजेरा, ढुढिया आदि श्वेताम्बर के उपसम्प्रदाय थे जबकि बीस पंथी, तेरापंथी तथा तारणपंथी दिगम्बर के उपसम्प्रदाय थे।
भारतीय संस्कृति को जैन धर्म की देन-
सभी हिन्दू धार्मिक मूल ग्रन्थ संस्कृत में थे तथा बौद्ध धर्मग्रन्थ अधिकांशतः पालि में थे । तथापि जैनियों ने प्राकृत में अपने धर्मग्रन्थों की रचना की। हालाँकि विभिन्न प्रदेशों से स्थानीय भाषाओं में भी जैन धर्मग्रन्थ लिखे गए। महावीर ने स्वयं अर्द्ध-मागधी में उपदेश दिए थे। जैन साहित्य का संकलन बल्लभी में छठी शताब्दी ई0 में हुआ था। प्राकृत भाषा के विकास के साथ साथ कन्नड के विकास में भी जैनों का योगदान सराहनीय है। जैन साहित्य को ही ‘‘आगम‘‘ कहा जाता है। जैन दर्शन से निश्चित रूप से भारतीय विचारधारा एवं चिंतन गम्भीर रूप से प्रभावित हुआ। पंचअणुव्रत- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य आज भी प्रासंगिक हैं।
ईस्वी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों के दौरान बौद्धों की भाँति जैन धर्मानुयायियों ने भी वेदिका, तोरण द्वारों एवं स्तम्भों पर नक्काशी के द्वारा कोरी गई आकृतियों से युक्त स्तूपों का निर्माण कराया। लोहानीपुर (पटना) से प्राप्त मौर्य-कालीन तीर्थंकर की प्रतिमा प्रारम्भिक जैन मूर्तियों में से एक है। खारवेल के हाथीगुम्फा नामक गुफा (उसके प्रसिद्ध शिलालेख सहित) और उड़ीसा के खण्डगिरि तथा उदयगिरि नामक गुफाओं में प्रारम्भिक जैन अवशेष मिलते हैं । कषाण काल के दौरान मथुरा जैन-कला का एक महान केन्द्र था । मथुरा में जैन तीर्थंकरों की शिल्पित आकृतियों वाले अनेक शिलापट्टों (आयागपट्ट) को शिल्पित किया गया था।
यह जैन शिल्पकला संपूर्ण प्राचीन काल में चलती रही तथा गुप्तकाल तथा उसके बाद के समय में बहत सी जैन मूर्तियों बनाई गईं। कर्नाटक में श्रवणबेलगोला तथा कारकल (दोना स्थान कर्नाटक में स्थित हैं) बाहबली (गोमतेश्वर के नाम से भी प्रसिद्ध है) की विशालकाय प्रतिमाएँ शिल्प-कला क आश्चर्यजनक निदर्शन हैं।
समस्त जैन तीर्थस्थलों में अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण किया गया। राजस्थान माउण्ट आबू (राजस्थान) के दिलवाड़ा मन्दिर उत्कृष्ट वास्तुशिल्प की सुन्दर प्रस्तुतियाँ हैं। चित्तौड़ के किले का जैन स्तम्भ वास्तुकला के अभियंत्रण का एक दूसरा महत्वपूर्ण निदर्शन है। ताड़ के पत्तों पर असंख्य जैन पाण्डुलिपियाँ लिखी गई थीं और उनमें से कुछ में लघु चित्रों से अलंकृत की गई। इससे चित्रकला की एक नवीन शैली का उदय हुआ, जो पश्चिम भारतीय शैली’ के रूप में प्रसिद्ध है।
इस प्रकार जैन-धर्म ने भारत में भाषा, दर्शन, वास्तुकला, शिल्पकला तथा चित्रकला के विकास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जैन धर्म कभी भी एक सशक्त धर्म नहीं बन पाया, न ही पर्याप्त संख्या में लोगों ने इसे अंगीकार किया और न कभी भी यह भारत की सीमाओं से बाहर जा सका। परन्तु भारतीय कला और संस्कृति में इसके प्रभाव को सदैव अनुभव किया गया तथा इसकी प्रशंसा की गई। जैन धर्म का भारतीय जन-जीवन एवं संस्कृति पर आज भी एक जीवंत प्रभाव दिखाई पडता है।
माता-पिता ने तो जन्म दिया ताउम्र हमारी रक्षा करते हैं, फिर भी हम अपने गुरुजी को मानते है, युग चाहे कोई भी हो हम अपने गुरुजी को ही पहचानते है, क्यूंकि मेरे गुरु के द्वारा मिली हुई शिक्षा ही हमें जीवन जीना सिखाती है, हर चुनौती का सामना करने की कला बतलाती है।
हमारे लिए आपसे ज्यादे बेहतर टीचर कोई भी नही हो सकते/सकती हमारे student life में आपका एक अलग ही महत्व है गुरुजी। और ये महत्व मै किसी भी टीचर को नहीं दे सकती,आपके जैसे टीचर न तो इस कॉलेज में ही हैं, न कहीं हैं।
माता-पिता ने तो जन्म दिया
ReplyDeleteताउम्र हमारी रक्षा करते हैं,
फिर भी हम अपने गुरुजी को मानते है,
युग चाहे कोई भी हो हम अपने गुरुजी को ही पहचानते है,
क्यूंकि मेरे गुरु के द्वारा मिली हुई शिक्षा ही हमें जीवन जीना सिखाती है,
हर चुनौती का सामना करने की कला बतलाती है।
हमारे लिए आपसे ज्यादे बेहतर टीचर कोई भी नही हो सकते/सकती
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All Time My Supportive Teacher 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏