Buddhism and Gautam Buddha (बौद्ध धर्म और गौतम बुद्ध).
byDr. Rajesh-
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धार्मिक आंदोलन और नए धर्मों का उदय –
ई0पू0 छठी शताब्दी का काल भारतीय इतिहास में धार्मिक उथल-पुथल का काल माना जाता है। भारत ही नही पूरे विश्व के सुधारकों ने समकालीन सामाजिक एवं धार्मिक बुराईयों का विरोध किया और नई व्यवस्था के पुनर्निमाण का प्रयास किया। चीन में कनफ्यूशियस, ईरान में जोरोथ्रुस्ट्रा और यूनान में परमानाड्स के कारण सामाजिक-धार्मिक जागरण का जन्म हुआ। भारतीय क्षेत्रार्न्गत गंगा के मैदानों के मध्य में अनेक धार्मिक सम्प्रदायों का उदय हुआ जिसमें करीब 62 धार्मिक सम्प्रदाय ज्ञात है। भारत में ऐसे दो तेजस्वी व्यक्ति हुए जो सबसे महत्वपूर्ण थे। पहले महावीर, जिन्होने जैन धर्म की स्थापना की और दूसरे गौतम बुद्ध, जिन्होने बौद्ध धर्म को जन्म दिया। इन दोनो धर्मो का उदय सामाजिक-धार्मिक सुधार के परम शक्तिशाली आन्दोलन के क्रम में हुआ। इन दोनो धर्म-प्रवर्तकों ने न केवल प्राचीन अस्त-व्यस्त समाज में नवजीवन का संचार किया अपितु पुरोहितों के अत्याचार, धर्म का कर्मकाण्डीय स्वरूप, जाति प्रथा के शोषण और ब्राह्मणों के प्रभुत्व आदि का विरोध किया। ये दोनो धर्म एक प्रकार से हिन्दू धर्म के ही सुधरे रूप है।
इनके उद्भव का सबसे महत्वपूर्ण कारण था- नई कृषिमूलक अर्थव्यवस्था का उदय जो लोहे के प्रयोग के कारण संभव हुआ। इसके अतिरिक्त ब्राह्मणों की सर्वोच्चता के खिलाफ क्षत्रियों की प्रतिक्रिया, वैश्यों को अपनी सामाजिक स्थिती सुधारने की चाह, पशुपालन की आवश्यकता, नगरीकरण के कारण नवीन परिस्थितीयों का जन्म और आम जनों के सरल जीवन पद्धति की ओर लौटने की चाह के कारण धार्मिक आन्दोलन का उद्भव हुआ। विस्तार से कहे तो वैदिक दर्शन अपनी मूल पवित्रता खो चुका था और हिन्दू धर्म में कर्मकाण्डों का बोझ काफी बढ गया था। जाति प्रथा जड और बर्बर हो गई थी और ब्राह्मणों के प्रभुत्व से आम जनमानस में असन्तोष उत्पन्न हो गया था। वेदों द्धारा निर्धारित यज्ञों का स्वरूप दुरूह हो गया था और निम्न जाति का व्यक्ति यातनामय जीवन व्यतीत करता था। वैदिक मन्त्र सामान्यजन की समझ से परे था और सभी धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत में थे जो जनसामान्य की भाषा थी ही नही। परिणामस्वरूप इन कमियों और अवगुणों के कारण लोग परिवर्तन चाहते थे। बौद्ध एवं जैन धर्म के प्रवर्तकों ने न केवल आम जनमानस को सम्मानित स्थान दिलाया अपितु सरल बोधगम्य बोलचाल की भाषा पालि या प्राकृत को अपनाकर अपने सन्देश सर्वसाधारण जनता तक पहुॅचाया।
बौद्ध धर्म –
बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला ज्ञान, धर्म और दर्शन है। बौद्ध धर्म के तीन आधार स्तम्भ है – बुद्ध- इसके संस्थापक, धम्म – उनके उपदेश और संघ – बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियों का संगठन। इन्हे ही बौद्ध धर्म का ‘त्रिरत्न‘ कहा जाता है। गौतम बुद्ध के जीवन के विषय में प्रामाणिक सामग्री विरल है। इस प्रसंग में उपलब्ध अधिकांश वृत्तान्त एवं कथानक भक्तिप्रधान रचनाएँ हैं और बुद्धकाल के बहुत बाद के हैं। गौतम बुद्ध को ‘‘एशिया का ज्योतिपुंज‘‘ कहा जाता है।
बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध का जन्म नेपाल की तराई में अवस्थित कपिलवस्तु राज्य में स्थित लुम्बिनी में 563 ई0पू0 में हुआ था। इनके पिता शुद्धोधन शाक्य गण के मुखिया थे तथा माता महामाया कोलियवंशीय थी। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद ही इनकी माता माया देवी का निधन हो गया जिसके कारण इनका पालन-पोषण सौतेली मॉ अथवा मौसी महाप्रजापति गौतमी ने किया। इनका बचपन सुरक्षा और सभी प्रकार की विलासिता में व्यतीत हुआ। सिद्धार्थ की 16 साल की उम्र में ही दंडपाणि शाक्य की कन्या यशोधरा से विवाह हुआ जिसके साथ लगभग 13 वर्षो तक उन्होने पारिवारिक सुखी जीवन व्यतीत किया। इस दौरान यशोधरा ने ‘राहुल‘ नाम के पुत्र को जन्म दिया। सिद्धार्थ कपिलवस्तु के राजप्रासाद में स्वयं को एक बन्दी के रूप में अनुभव करते थे और जब कभी भी चोरी-छिपे वे महल से बाहर आये तो प्रत्येक बार उन्हे कुछ मार्मिक अनुभव हुए। पहली बार उन्होने एक जर्जर वृद्ध को देखा तत्पश्चात एक कष्टप्रद बीमार व्यक्ति को देखा। तीसरी बार उन्होने अन्त्येष्टि के लिए ले जाते हुए एक मृतक को देखा। इन तीनों घटनाओं का उनके मन पर बहुत दुःखद प्रभाव पडा और उन्होने यह अनुभव किया कि जगत में दुःख, कष्ट और मृत्यु सबकों भोगने पडते है। अन्ततः उन्होने एक सन्यासी को देखा जो पूर्णतः आत्मशान्त और स्वस्थचित्त था। इस सन्यासी के व्यक्तित्व ने बुद्ध को अत्यधिक प्रभावित किया। इसी के परिणामस्वरूप सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की आयु में सत्य की खोज में गृह त्याग दिया। इसी घटना को बौद्ध ग्रन्थों में ‘‘महाभिनिष्क्रण‘‘ कहा गया है। पूरे 6 वर्षो तक गौतम बुद्ध सांसारिक दुखों और कष्टों का समाधान खोजने में लीन रहे। इस अवधि में उन्होने समकालीन धार्मिक विचारधाराओं का अध्ययन, अनुशीलन और विश्लेषण किया। गृहत्याग के पश्चात सिद्धार्थ ने वैशाली के आलार और कलाम से सांख्य दर्शन की शिक्षा ग्रहण की। इस प्रकार आलार-कलाम सिद्धार्थ के प्रथम गुरू थे। आलार-कलाम के बाद सिद्धार्थ ने राजगीर के रूद्रकरामपुत्त से शिक्षा ग्रहण की। उरूवेला में सिद्धार्थ को कौण्डिन्य, वप्पा, भादिया, महानामा, और अस्सागी नाम के पॉच साधक मिले। बिना अन्न जल ग्रहण किये 6 साल की कठिन तपस्या के बाद 35 साल की आयु में वैशाख पूर्णिमा की रात गया में निरंजना नदी के किनारे पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुआ। ज्ञान प्राप्ति के बाद सिद्धार्थ बुद्ध के नाम से जाने जाने लगे और जिस स्थान पर उन्हे ज्ञान की प्राप्ति हुई उसे बोधगया के नाम से जाना जाता है। गौतम बुद्ध ने वाराणसी के समीप सारनाथ में अपना पहला उपदेश उन पॉच भिक्षुओं को दिया जो तपश्चर्या के दौरान उनके साथ रह चुके थे। इसे ही बौद्ध धर्मग्रन्थों में ‘‘धर्मचक्र प्रवर्तन‘‘ कहा गया है। इस प्रकार गौतम बुद्ध ने लगभग पैतालीस वर्षो तक दुखी मानवता के कल्याण के लिए आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसार करते हुए उत्तर भारत के विभिन्न भागों में परिभ्रमण किया। बुद्ध ने अपने उपदेश कोशल, कौशाम्बी और वैशाली राज्य में पालि भाषा में दिये। बुद्ध ने अपने सर्वाधिक उपदेश कौशल राज्य की राजधानी श्रावस्ती में दिए। 80 वर्ष की आयु में 483 ई0पू0 कुशीनारा आधुनिक कुशीनगर में उनका देहान्त हुआ जिसे ‘‘महापरिनिर्वाण‘‘ कहा गया है।
धम्म (DHAMM) –
बौद्ध धर्म में घम्म का अर्थ है – महात्मा बुद्ध की शिक्षाएॅ। बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का सार चार आर्य सत्य में निहित है। ये चार आर्य सत्य है –
दुःख – यह संसार दुःख से व्याप्त है।
दुःख समुदय – दुःखों के उत्पन्न होने के कारण है और सभी कारणों का मूल है तृष्णा।
दुःख निरोध – दुःख निवारण के लिए तृष्णा का उन्मूलन आवश्यक है।
दुःख निदान मार्ग – महात्मा बुद्ध ने कहा कि जो संबोधि का प्रयास करता है, उसे दो अतिवादी मार्गो से बचना चाहिए। भोग विलास से युक्त जीवन जो अशिष्ट और निरर्थक होते है तथा आत्मदमन से पूर्ण जीवन कष्टकारी और समान रूप से निस्सार होता है। बौद्ध धर्म में दुःख निवारण का मार्ग ‘‘आष्टांगिक मार्ग‘‘ है जिसे मध्यम प्रतिपदा या मध्यम मार्ग के नाम से जाना जाता है।
आष्टांगिक मार्ग –
सम्यक् मार्ग – बस्स्तुओं के यथार्थ स्वरूप् को जानना ही सम्यक् दृष्टि या मार्ग है।
सम्यक् संकल्प – आसक्ति, द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार रखना ही सम्यक् संकल्प है।
सम्यक् वाक् – सदा सत्य और मृदु वाणी का प्रयोग करना ही सम्यक् वाक् है।
सम्यक् कर्मान्त – इसका आशय अच्छे कर्मो में संलग्न होने तथा बुरे कर्मो के परित्याग से है।
सम्यक् आजीव – विशुद्ध रूप से सदाचरण से जीवन निर्वाह करना ही सम्यक् आजीव है।
सम्यक् व्यायाम – अकुशल धर्मो का त्याग और कुशल धर्मो का अनुसरण ही सम्यक् व्यायाम है।
सम्यक् स्मृति – इसका आशय वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप के सम्बन्ध में सदैव जागरूक रहना है।
सम्यक् समाधि – चित्त की समुचित एकाग्रता ही सम्यक् समाधि है।
दस शील –
महात्मा बुद्ध ने निर्वाण प्राप्ति के लिए सदाचार और नैतिक जीवन पर बल दिया। इसके लिए उन्होने दस शील का पालन अनिवार्य बताया –
अहिंसा
सत्य
अस्तेय अर्थात चोरी न करना
अपरिग्रह अर्थात व्यभिचार न करना
शराब का सेवन न करना
असमय भोजन न करना
सुखद बिस्तर अर्थात कोमल शैया का परित्याग
धन संचय न करना
ब्रह्मचर्य का पालन करना
नृत्य, गान, सुगन्ध आदि से दूर रहना.
इनमें से सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को पंचशील के नाम से जाना जाता है। गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों को पंचशीलों का अनिवार्यतः पालन करने की शिक्षा दी।
संध-
बौद्ध धर्म में दो प्रकार के अनुयायियों का उल्लेख मिलता है – श्रमण और साधारण उपासक।
श्रमण अर्थात भिक्षु-भिक्षुणी को संघ या परिषद के रूप में संगठित किया गया था। संघ की सदस्यता 15 वर्ष से अधिक आयु वाले ऐसे व्यक्तियों, पुरूषों तथा स्त्रियों, दोनों के लिए खुली थी जो कुष्ठ रोग, क्षय और अन्य संक्रामक रोगों से मुक्त थे। इसके लिए कोई जातीय प्रतिबन्ध नहीं था। संघ का संचालन पूर्णतया लोकतांत्रिक सिद्धान्तों पर होता था और उसे अपने सदस्यों पर अनुशासन लागू करने का अधिकार प्राप्त था। जो व्यक्ति गृहस्थ जीवन त्याग देते है और संघ में सम्मिलित होकर एकान्तवासी जीवन व्यतीत करने लगते है, वे श्रमण के रूप में जाने जाते है। भिक्षु और भिक्षुणियों का जीवन पूर्णतया नियमों और 10 धर्माशीलों से संचालित होता था और व्यक्तिगत रूचि या अनिच्छा के लिए उनमें कोई स्थान नही था। केन्द्रीय समन्वय का अभाव संघ प्रणाली की एक बहुत बडी कमी थी। किसी आस्तिक धर्म की भॉति बौद्ध भिक्षु पुरोहित या पुजारी नही थे। धम्म के पथप्रदर्शक के रूप में वे समस्त सामाजिक व धार्मिक मामलों में साधारण उपासकों के मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक थे। संघ का पूर्ण सदस्य बनने से पूर्व प्रत्येक भिक्षु को श्रमण के रूप में दीक्षा लेनी पडती थी। भिक्षुओं के दीक्षाकरण को ‘‘उपसंपदा‘‘ कहा जाता था। उपासक सामान्य भक्त या वह साधारण अनुयायी है, जिन्होने बुद्ध, धम्म और संघ की शरण ले ली हो।
बुद्ध द्वारा स्थापित संघ या भिक्षुओं का संगठन थाईलैण्ड, श्रीलंका, बंग्लादेश आदि में आज भी अपने मूल रूप में विद्यमान है।
बुद्ध के कुछ समकालीन प्रख्यात भिक्षु थे –
सारिपुत्र- जिनके पास घम्म की गहनतम अन्तर्दृष्टि थी,
मोग्गल्लान- जो महानतम दैवीय शक्तियों के पुंज थे,
आनन्द- जो बुद्ध के सर्वाधिक समर्पित शिष्य, साथी और देवदत्त के भाई थे। यह लगातार 20 वर्षो तक बुद्ध के संगत में रहे। यह अपनी स्मरण शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। ऐसा माना जाता है कि आनन्द के अनुरोध पर ही बुद्ध ने स्त्रियों को संघ में प्रवेश की अनुमति दी।
महाकस्सप – यह मगध के ब्राह्मण थे जो महाम्मा बुद्ध के नजदीकी शिष्य बन गये। बुद्ध की मृत्यु के तत्काल बाद राजगृह में बुलाई गई प्रथम बौद्ध संगिति के अध्यक्ष थे।
अनिरूद्ध – सम्यक् स्मृति के ज्ञाता।
उपालि – विनय के विद्वान।
रानी खेमा – रानी खेमा सिद्ध धर्मसंघिनी थी। यह अतिसुन्दर और बिंबिसार की रानी थी। आगे चलकर रानी खेमा बौद्ध धर्म की अच्छी शिक्षिका बनी।
महाप्रजापति – महाप्रजापति बुद्ध की माता महामाया की बहन थी। इन दोनों ने राजा शुद्धोधन से विवाह किया था। शुद्धोधन की मृत्यु के बाद बौद्ध संघ में पहली महिला सदस्य के रूप में महाप्रजापति को स्थान मिला था।
बौद्ध धर्मः दर्शन और सिद्धान्त –
बौद्ध धर्म की तीन विशेषताएॅ है – अनित्यता, दुःख और भावशून्यता। दूसरे शब्दों में जीवन सतत् परिवर्तनशील है और सभी भौतिक वस्तुएॅ क्षणभंगुर होती है। जो भी क्षणभंगुर होता है और जहॉ परिवर्तन तथा दुख व्याप्त होता है, वहॉ किसी स्थायी अमर आत्मा के अस्तित्व का प्रश्न ही नही उठता। एक प्रकार से बौद्ध धर्म में आत्मा की परिकल्पना नही है। उनका इस सन्दर्भ में यह तर्क था कि आत्मा अकेले अपनी मुक्ति के लिए कैसे प्रयास कर सकती है। आत्मा का अर्थ ’मै’ होता है। किन्तु, प्राणी शरीर और मन से बने है, जिसमे स्थायित्व नही है। क्षण-क्षण बदलाव होता है। इसलिए, ’मै’अर्थात आत्मा नाम की कोई स्थायी चीज़ नहीं। जिसे लोग आत्मा समझते हैं, वो चेतना का अविच्छिन्न प्रवाह है। आत्मा का स्थान मन ने लिया है। इस दुनिया में सब कुछ क्षणिक है और नश्वर है तथा कुछ भी स्थायी नहीं। बुद्ध ने ऐसी किसी सत्ता या शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार नही किया जो शरीरान्त के बाद भी जीवन-मृत्यु के चक्र के माध्यम से विभिन्न रूपों में जन्म लेकर जीवित रहती हो। तथापि बुद्ध ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया तथा पुनर्जन्म की प्रक्रिया को प्रतीत्यसमुत्पाद के रूप में स्पष्ट किया।
प्रतीत्यसमुत्पाद –
प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त कहता है कि कोई भी घटना केवल दूसरी घटनाओं के कारण ही एक जटिल कारण-परिणाम के जाल में विद्यमान होती है। प्राणियों के लिये, इसका अर्थ है कर्म और विपाक (कर्म के परिणाम) के अनुसार अनंत संसार का चक्र। क्योंकि सब कुछ अनित्य और अनात्मं (बिना आत्मा के) होता है, कुछ भी सच में विद्यमान नहीं है। हर घटना मूलतः शुन्य होती है। परंतु, मानव, जिनके पास ज्ञान की शक्ति है, तृष्णा को, जो दुःख का कारण है, त्यागकर, तृष्णा में नष्ट की हुई शक्ति को ज्ञान और ध्यान में बदलकर, निर्वाण पा सकते हैं। तृष्णा शून्य जीवन केवल विपश्यना से संभव है। आज के इस युग मे प्रतीत्यसमुत्पाद समाज से कही गायब हो गया है। बुद्ध ने ब्रह्म-जाल सूत् में सृष्टि का निर्माण कैसा हुआ, ये बताया है। सृष्टि का निर्माण होना और नष्ट होना बार-बार होता है। ईश्वर या महाब्रह्मा सृष्टि का निर्माण नही करते क्योंकि दुनिया प्रतीत्यसमुत्पाद अर्थात कार्यकरण-भाव के नियम पर चलती है। भगवान बुद्ध के अनुसार, मनुष्यों के दुःख और सुख के लिए कर्म जिम्मेदार है, ईश्वर या महाब्रह्मा नही। पर अन्य जगह बुद्ध ने सर्वोच्च सत्य को अवर्णनीय कहा है।
यहॉ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि बौद्ध धर्म का मतलब निराशावाद नहीं है। दुख का मतलब निराशावाद नहीं है, बल्कि सापेक्षवाद और यथार्थवाद है। दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करने वाला बोधिसत्व कहलाता है। बोधिसत्व निर्वाण प्राप्त करने वाले वे व्यक्ति थे जो मुक्ति के बाद भी मानव जाति के कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहते थे। अवलोकितेश्वर, मंजुश्री, वज्रपाणि तथा मैत्रेय बोधिसत्व है। बोधिसत्व जब दस बलों या भूमियों (मुदिता, विमला, दीप्ति, अर्चिष्मती, सुदुर्जया, अभिमुखी, दूरंगमा, अचल, साधुमती, धम्म-मेघा) को प्राप्त कर लेते हैं तब “बुद्ध“ कहलाते हैं। बुद्ध बनना ही बोधिसत्व के जीवन की पराकाष्ठा है। इस पहचान को बोधि (ज्ञान) नाम दिया गया है। कहा जाता है कि बुद्ध शाक्यमुनि केवल एक बुद्ध हैं – उनके पहले बहुत सारे थे और भविष्य में और होंगे। उनका कहना था कि कोई भी बुद्ध बन सकता है अगर वह दस पारमिताओं का पूर्ण पालन करते हुए बोधिसत्व प्राप्त करे और बोधिसत्व के बाद दस बलों या भूमियों को प्राप्त करे। बौद्ध धर्म का अन्तिम लक्ष्य है सम्पूर्ण मानव समाज से दुःख का अंत। “मैं केवल एक ही पदार्थ सिखाता हूँ – दुःख है, दुःख का कारण है, दुःख का निरोध है, और दुःख के निरोध का मार्ग है“ (बुद्ध)। बौद्ध धर्म के अनुयायी अष्टांगिक मार्ग पर चलकर अज्ञानता और दुःख से मुक्ति और निर्वाण पाने की कोशिश करते हैं।
बौद्ध धर्म के सम्प्रदाय –
बौद्ध धर्म में संघ का बडा स्थान है। इस धर्म में बुद्ध, धम्म और संघ को ’त्रिरत्न’ कहा जाता है। संघ के नियम के बारे में गौतम बुद्ध ने कहा था कि छोटे नियम भिक्षुगण परिवर्तन कर सकते है। उनके महापरिनिर्वाण के पश्चात संघ के आकार में व्यापक वृद्धि हुई। इस वृद्धि के पश्चात विभिन्न क्षेत्र, संस्कृति, सामाजिक अवस्था, दीक्षा, आदि के आधार पर भिन्न लोग बौद्ध धर्म से आबद्ध हुए और संघ का नियम धीरे-धीरे परिवर्तन होने लगा। साथ ही में अंगुत्तर निकाय के कालाम सुत्त में बुद्ध ने अपने अनुभव के आधार पर धर्म पालन करने की स्वतन्त्रता दी है। अतः, विनय के नियम में परिमार्जन/परिवर्तन, स्थानीय सांस्कृतिक/भाषिक पक्ष, व्यक्तिगत धर्म का स्वतन्त्रता, धर्म के निश्चित पक्ष में ज्यादा व कम जोड आदि कारण से बौद्ध धर्म विभिन्न सम्प्रदाय वा संघ में परिमार्जित हुआ। वर्तमान में, इन संघ में प्रमुख सम्प्रदाय या पंथ थेरवाद, महायान और वज्रयान है। भारत में बौद्ध धर्म का नवयान संप्रदाय है जो भीमराव आम्बेडकर द्वारा निर्मित है।
बुद्ध की मृत्यु के तत्काल बाद उनके अनुयायियों में उनके उपदेशों की व्याख्या को लेकर मतभेद उत्पन्न हो गये। बुद्ध की मृत्यु के 100 वर्षो बाद वैशाली में बुलाई गई द्वितीय बौद्ध संगिति सभा में बौद्ध धर्म दो सम्प्रदाय – स्थविर अथवा थेरवाद तथा महासंघिक में विभक्त हो गया। परम्परागत रूढिवादी बुद्ध के अनुयायी स्थविर या थेरवादी कहलाए जबकि अनुशासन के 10 नियमों को मानने वाले बौद्ध अनुयायी महासंघिक कहलाए। थेरवाद का महत्वपूर्ण सम्प्रदाय सर्वास्तिवादियों का था जिसके संस्थापक राहुलभद्र थे। मथुरा, गांधार और काश्मीर इसका प्रधान केन्द्र था। दूसरी तरफ महासंघिक सम्प्रदाय की स्थापना महाकस्सप ने की। सम्राट अशोक के शासनकाल तक इसके भिन्न-भिन्न 18 सम्प्रदाय थे। प्रत्येक सम्प्रदाय ने बौद्ध दर्शन और बुद्ध की शिक्षाओं की अपनी अपनी व्याख्याएॅ की। अशोक ने इसे रोकने के लिए तीसरी बौद्ध संगिति बुलाई लेकिन इसका कोई निश्चित हल नही निकल सका। कनिष्क के शासनकाल के समय बौद्ध धर्म स्पष्टतः दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया – हीनयान और महायान।
हीनयान – प्रारंभिक काल के स्थविरवादी, जो रूढिवादी प्रकृति के थे, हीनयान कहलाए। ये बुद्ध के मौलिक सिद्धान्त पर विश्वास करते थे। हीनयान एक व्यक्तिवादी धर्म था जिसका कहना था कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रयत्नों से ही मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए। इस सम्प्रदाय के अनुयायी महात्मा बुद्ध को मार्गदर्शक या आचार्य मानते थे, भगवान नही। ये मूर्तिपूजा और भक्ति में विश्वास नही करते थे। इनका मानना है कि निर्वाण के पश्चात पुनर्जन्म नही होता है। कालान्तर में इसकी लोकप्रियता कम होती चली गई परन्तु श्रीलंका, वर्मा, थाईलैण्ड, कम्बोडिया और दक्षिण वियतनाम में यह आज भी प्रचलित है। हीनयान के अन्तर्गत एक सम्प्रदाय जिसकी उत्पति मुख्यतः काश्मीर में हुई थी, वैभाषिक नाम से जाना जाता है।। इस मत के प्रमुख आचार्य धर्मत्रात, द्योतक, वसुमित्र तथा बुद्धदेव थे। हीनयान का ही एक दूसरा सम्प्रदाय जो मुख्यतः सुत्तपिटक पर आधारित सम्प्रदाय है, सौत्रान्तिक के नाम से जाना जाता है।
महायान – बौद्ध धर्म का वह सम्प्रदाय जो सुधारवादी प्रकृति का था, महायान के नाम से विख्यात हुआ। महासंघिकों ने ही महायान का मार्ग प्रशस्त किया। महायानियों ने बोधिसत्व के आदर्श को प्रमुखता दी और व्यक्तिगत निर्वाण की थेरवादी विचारधारा की अपेक्षा सभी सचेतन प्राणियों की मुक्ति पर जोर दिया। महायानियों का यह मानना था कि सभी वस्तुएॅ अनावश्यक तथा अस्पष्ट स्वरूप वाली होती है और उनके मूल्य में शून्य होता है। प्रत्येक वस्तु शून्य होने के कारण वास्तव में न कोई उसकी प्रतिक्रिया होती है और न ही उसका कभी अवसान ही होता है। महायानी गौतम बुद्ध को भगवान मानते थे और उनकी मूर्तिपूजा पर विश्वास करते थे। इन्होने अवतारवाद तथा भक्ति से संबंधित हिन्दू धर्म के सिद्धान्त को अंगीकार किया। यह सम्प्रदाय चीन, जापान, तिब्ब्बत, कोरिया आदि में आज भी प्रचलित है। कालान्तर में यह महायान सम्प्रदाय भी दो भागों में विभक्त हो गया – शून्यवाद और विज्ञानवाद।
शून्यवाद अर्थात माध्यमिक मत का प्रवर्तन नागार्जुन ने किया जबकि विज्ञानवाद अर्थात योगाचार के संस्थापक मैत्रेयनाथ थे। विज्ञानवाद में न केवल काल्पनिक प्राणियों को अपितु विभिन्न पंथों के प्रवर्तकों या आचार्यो को भी बोधिसत्व के रूप में देवतुल्य माना गया। बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवादी चिन्तनों के आपस में मिल जाने के कारण विज्ञानवाद सम्प्रदाय ने वज्रयान या तांत्रिक बौद्ध धर्म के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया। इस प्रकार सातवी शताब्दी के आस-पास बौद्ध धर्म में तंत्र-मंत्र के प्रभाव के फलस्वरूप वज्रयान सम्प्रदाय का उदय हुआ। वज्रयान बौद्ध दर्शन एवं अभ्यास की एक जटिल और बहुमुखी प्रणाली है जिसका विकास कई सदियों में हुआ। इस सम्प्रदाय में देवी तारा को प्रमुख स्थान दिया गया। इस सम्प्रदाय के लोग मांस-मदिरा, मुद्रा, मैथुन, मत्स्य सेवन करते थे। यह सम्प्रदाय बिहार और बंगाल में लोकप्रिय रहा।
नवयान – नवयान बौद्ध धर्म का एक सम्प्रदाय हैं, जो भारतीय बौद्ध नेता भीमराव आम्बेडकर द्वारा नीर्मित हैं। नवयान का अर्थ है – “नया मार्ग“। इस बौद्ध धर्म के सारे अनुयायी “आम्बेडकरवादी बौद्ध“ होते हैं, इन बौद्धों का आम्बेडकर द्वारा निर्धारित बाईस प्रतिज्ञाओं का पालन अनिवार्य तथा महत्वपूर्ण माना जाता हैं, जो आम्बेडकर ने 14 अक्तुबर 1956 के धर्म परिवर्तन समारोह दी थी। आम्बेडकर के इन धर्म परिवर्तित बौद्ध अनुयायिओं को भारत सरकार तथा अन्य राज्य सरकारों ने “नवबौद्ध“ नामक संज्ञा दी हैं। नवयान संप्रदाय महायान, थेरवाद और वज्रयान आदि से कुछ मामलों में भिन्न हैं। 2011 के अनुसार, कुल भारतीय बौद्धों में अधिकांश यानी 87 प्रतिशत हिस्सा नवयानी बौद्धों (नवबौद्ध) का हैं।
बौद्ध धर्मग्रन्थ और साहित्य –
बौद्धों के प्रमुख धर्मग्रन्थ पालि में है। ‘पालि‘ शब्द का अर्थ केवल ‘पाठ‘ या ‘पवित्र पाठ‘ से है। भाषा के रूप में पालि प्राचीन प्राकृत है तथा बुद्ध के समय में यह मगध और समीपवर्ती प्रदेशों की बोलचाल की भाषा थी। चूॅकि भगवान बुद्ध पालि में बोलते थे अतः पालि के प्रामाणिक धर्मग्रन्थ संग्रह को बुद्ध के उपदेशों का अत्यन्त प्रामाणिक रूपान्तरण माना जाता है। ‘त्रिपिटक‘ बौद्ध धर्म का मुख्य ग्रन्थ है जो पालि भाषा में लिखा गया है। यह ग्रन्थ गौतम बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात बुद्ध के द्धारा दिये गये उपदेशों को सूत्रबद्ध करने का सबसे वृहद प्रयास है। बुद्ध के उपदेशों को इस ग्रन्थ में सूत्र के रूप में दिया गया है। पालि भाषा में इसी सूत्र को सुत्त के नाम से सम्बोधित किया गया है। सूत्रों को वर्ग और वर्ग को खण्ड या निकाय में समाहित किया गया है। निकायों को पिटक अर्थात टोकरी में एकीकृत किया गया है। इस प्रकार से तीन पिटक निर्मित है जिनके संयोजन को ‘‘त्रि-पिटक‘‘ कहा जाता है। ये निम्न है –
विनय पिटक – इसमें बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियों के लिए आचरण सम्बन्धी नियमों का उल्लेख है। एक प्रकार से यह बौद्ध धर्म के नियमों का संग्रह है। विनय पिटक के तीन खण्ड है- सुत्त विभंग, खन्धक और परिवार। सुत्त विभंग के दो भागों – भिक्खुविभंग और भिक्खुनी विभंग में विभाजित है। इनमें भिक्षु और भिक्षुणियों द्वारा पालन किये जाने वाले आवश्यक नियमों और आचरण संहिता का वर्णन है। इन नियमों का उल्लेख करने के सन्दर्भ में बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित अनेक घटनाओं का भी उल्लेख किया गया है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से विनय पिटक के महत्वपूर्ण अंश है।
सुत्त पिटक – इसमें भगवान बुद्ध द्वारा विभिन्न अवसरों पर दिए गए छोटे-बडे प्रवचनों को संकलित किया गया है। एक प्रकार से यह गौतम बुद्ध के उपदेशों का संग्रह है। सुत्त पिटक पॉच भागों में विभाजित है – दिव्यनिकाय, मज्जिमनिकाय, अंगुत्तर निकाय, संयुक्त निकाय और खुद्दक निकाय। दिव्यनिकाय में भगवान बुद्ध की शिक्षाओं और संवादों का संकलन है। कुल मिलाकर इसमें 34 दीर्धाकार सूत्त या सूक्त है, जिनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध महापरिनिब्बान सूत्त है। मज्जिमनिकाय में 125 लघु सूक्त है। अंगुत्तर निकाय में 2300 एवं संयुक्त निकाय में 56 सूत्त है। खुद्दक निकाय बौद्ध धर्म-दर्शन से सम्बन्धित 15 ग्रन्थों का संकलन है, जिनमें घम्मपद, थेरीगाथा और जातक सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। बौद्ध धर्म में घम्म पद का वही स्थान है जो हिन्दू धर्म में गीता का है। जातक में बुद्ध पद प्राप्त होने से पूर्व बुद्ध के पूर्वजन्मों से सम्बन्धित लगभग 550 कथाओं को संकलित किया गया है।
अभिधम्म पिटक – इसमें बुद्ध की शिक्षाओं का दार्शनिक विवेचन एवं आध्यात्मिक विचारों को समाविष्ट किया गया है। अभिधम्म पिटक से सम्बद्ध सात ग्रन्थ है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण कथावस्तु है जिसकी रचना अशोक के धर्मगुरू मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की थी। इसमें दार्शनिक विषयों पर विचार किया गया है।
त्रिपिटकों के अतिरिक्त पालि भाषा में लिखित अन्य अनेक बौद्ध ग्रन्थ भी है जिनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध मिलिन्दपन्हो है जिसमें हिन्द-यूनानी नरेश मिनाण्डर तथा बॉद्ध आचार्य नागसेन के मध्य बौद्ध दर्शन विषयक प्रश्नोत्तर का संग्रह है। यह रचना संभवतः प्रथम शताब्दी ई0पू0 की होगी। इसके अतिरिक्त अष्ठकथा को त्रिपिटक के महाभाष्य के रूप में लिखा गया। बुद्धघोष द्वारा रचित विसुद्धिमग्ग अर्थात विशुद्ध मार्ग बौद्ध सिद्धान्तों पर आधारित एक अत्यन्त प्रामाणिक दार्शनिक ग्रन्थ माना जाता है। ललितविस्तार महायान सम्प्रदाय का प्राचीनतम ग्रन्थ है।
बौद्ध संगीतियाँ-
प्रथम बौद्ध संगीति – बौद्ध धर्म की प्रथम संगीति राजगृह के निकट सप्तकर्णि गुफा में महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के तत्काल बाद 483 ई0पू0 में बुलाई गई थी, जिसमें धम्म अर्थात धार्मिक विचारों और विनय अर्थात संघ विषयक नियम के शिक्षाओं का संकलन किया गया। इस समय मगध का शासक अजातशत्रु था और इसकी अध्यक्षता महाकस्सप ने की थी। विभिन्न स्थानीय संघों का प्रतिनिधित्व करने वाले पॉच सौ भिक्षुओं ने इसमें भाग लिया तथा बुद्ध के उपदेशों के दो पिटकों- सुत्त पिटक और विनय पिटक में विभाजित कर अधिकारिक धर्मसम्मत पाठों के रूप में स्वीकार किया गया।
द्वितीय बौद्ध संगीति – बुद्ध के महापरिनिर्वाण के लगभग 100 साल बाद 383 ई0पू0 में द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन कालाशोक के शासनकाल में वैशाली में किया गया जिसमें सात सौ भिक्षुओं ने भाग लिया। अतः इसे ‘‘सप्तशतिका‘‘ भी कहा जाता है। इसकी अघ्यक्षता सब्बाकामी ने किया। यह संगीति संघ के नियमों के सम्बन्ध में 10 विवादपूर्ण विषयों से सम्बन्धित मतभेदों को दूर करने के लिए बुलाया गया था। परन्तु इस महासभा में विवादास्पद प्रश्नों पर कोई सहमति नही बन सकी और अन्ततः बौद्ध संघ स्थविरवाद और महासंघिक नामक दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया। जो भिक्षुक पुराने आचार-विचार एवं नियमों के पक्षपाती थे वे स्थविरवादी कहलाए और जो भिक्षु उससे सहमत नही थे, उन्होने एक अलग महासंघ का आयोजन किया जिसके कारण वे महासंघिक कहलाए। वस्तुतः भिक्षुओं के आचरण विषयक नियमों को लेकर स्थविरवाद एवं महासंघिक सम्प्रदायों में मतभेद उत्पन्न हुए थे।
तृतीय बौद्ध संगीति – महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के लगभग 236 वर्षो बाद 251 ई0पू0 अशोक के शासनकाल में पाटलिपुत्र में प्रसिद्ध विद्वान मोग्गलिपुत्त तिस्स की अध्यक्षता में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया। तिस्स स्वयं स्थविरवाद के अनुयायी थे और सम्राट अशोक इन्ही का शिष्य था। इस तृतीय संगीति में बौद्ध धर्म के त्रिपिटकों का नया वर्गीकरण किया गया और अभिधम्म पिटक का संकलन किया गया। इस महासभा में धर्म सम्बन्धी समस्त विवादग्रस्त विषयों पर विचार करके बौद्धधर्म में एकता लाने का प्रयास किया गया। इस संगीति का एक अन्य महत्वपूर्ण परिणाम भारत के बाहर बौद्ध धर्म के प्रचार की प्रक्रिया का शुभारम्भ था। इस महासभा द्वारा नियुक्त प्रचारक मण्डलों ने जिस बौद्ध धर्म का विदेशों में प्रचार किया, वह स्थविरवाद ही था।
चतुर्थ बौद्ध संगीति – कुषाण वंश के शासक कनिष्क के शासनकाल में प्रथम शताब्दी ई0 के आसपास काश्मीर के कुण्डलवन में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया। इस संगीति की अध्यक्षता वसुमित्र तथा उपाध्यक्षता अश्वघोष ने की थी। अश्वघोष ने ही भगवान बुद्ध के जीवन चरित्र का वर्णन करने वाले प्रथम ग्रन्थ बुद्धचरित की एक महाकाव्य के रूप में रचना की। इस महासभा में तीनों पिटकों पर प्रामाणिक भाष्य लिखे गये, जिसे बौद्ध साहित्य में ‘विभाषा‘ की संज्ञा दी गई। इस चतुर्थ और अन्तिम बौद्ध संगीति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिणाम बौद्ध धर्म का दो पृथक सम्प्रदायों- हीनयान एवं महायान के रूप में विभाजन था। महायान ने बुद्ध की लोकोत्तर और अमानव रूप में कल्पना कर मूर्तियों के रूप में उनकी पूजा प्रारम्भ की।
बौद्ध धर्म का विस्तार और विकास –
बौद्ध धर्म के इतिहास में मौर्य सम्राट अशोक (273-232 ई.पू.) द्वारा बौद्ध धर्म को अंगीकार करना एक युगान्तकारी घटना थी। अशोक ने अपने राज्याभिषेक के आठ वर्ष उपरान्त या कलिंग युद्ध के तत्काल बाद बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। इसके उपरान्त उसने अपनी आध्यात्मिक उन्नति और अपनी प्रजा की भौतिक प्रगति के लिए बौद्ध धर्म को आधार बनाया। बौद्ध धर्म के प्रचार में गति लाने एवं बौद्ध धर्म में एकता बनाए रखने के लिए उसने तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया। पाटलिपुत्र में आयोजित इस तृतीय बौद्ध संगीति, जिसकी अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की थी, के उपरान्त अशोक ने बुद्ध के संदेशों एवं शिक्षाओं का संपूर्ण भारत एवं पड़ोसी देशों में प्रचार करने हेतु धर्म-प्रचारक मण्डल भेजे। उसने अपने व्यवस्थित एवं उत्साहपूर्ण प्रयासों के द्वारा बुद्ध के संदेशों को गुफाओं और मठों से निकालकर उसे एक राष्ट्रीय धर्म बनाया।
अशोक महान के प्रयासों से बौद्ध धर्म लोकप्रिय हुआ एवं बौद्ध धर्मानुयायियों में नवीन उत्साह का संचार हुआ। इसके परिणामस्वरूप बौद्ध समुदाय ने मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद भी बौद्ध संघ को उदार संरक्षण प्रदान किया। साँची और भरहुत में आज भी हम स्तूपों एवं उनके चारों ओर निर्मित वेदिकाओं को देखते हैं, वे अशोक के बाद लगभग 50-100 वर्षों में बुद्ध के धर्मपरायण अनुयायियों द्वारा निर्मित की गई हैं । यह कहा जाता है कि इन स्थानों पर वेदिकाओं के निर्माण के लिए ग्राम समितियाँ बनाई गई थीं। इस प्रकार दूसरी शताब्दी ई.पू. तक बौद्ध धर्म एक प्रमुख धर्म बन गया। जब हिन्द-यूनानियों और कुषाणों ने क्रमशः दूसरी शताब्दी ई.पू. तथा प्रथम शताब्दी ई.पू. में उत्तर-पश्चिमी भारत पर अपना अधिकार स्थापित करके बौद्ध धर्म अंगीकार कर लेने के उपरान्त बौद्ध धर्म का और – तेजी से विस्तार हुआ। उन्होंने इस धर्म को अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए भरसक प्रयास किए। उनमें से यवन (यूनानी) – नरेश मिनान्डर या मिलिन्द, जिन्होंने 160 ई.पू. के लगभग नागसेन से बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी और कुषाण शासक, कनिष्क जिसने 78 ई. से 101 ई. तक शासन किया, अत्यधिक प्रमुख है। अशोक के बाद कुषाण नरेश कनिष्क बौद्ध धर्म का दूसरा – महान संरक्षक था। उसने चतुर्थ एवं अंतिम बौद्ध संगीति का आयोजन किया था, जिसका पीछे उल्लेख किया जा चुका है, जिसमें बौद्ध धर्म दो संप्रदायों-महायान एवं हीनयान में विभाजित हो गया। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान अश्वघोष, वसुमित्र एवं पार्श्व कनिष्क के समकालीन थे। कहा जाता है कि कनिष्क ने त्रिपिटकों को ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण करा कर उन्हें एक स्तूप में सुरक्षित रूप में रखवा दिया था। कनिष्क के ही शासन-काल में चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ, जहाँ से इसका कोरिया एवं जापान में प्रसार हुआ और इस प्रकार विश्व के एक महान धर्म के रूप में बौद्ध धर्म का विकास हुआ। कनिष्क के ही शासन काल में बुद्ध की प्रथम प्रतिमा गान्धार शैली में निर्मित की गई, जो बौद्ध कला के इतिहास में एक महान घटना थी।
कन्नौज के पुष्यभूति या वर्धन वंश के नरेश हर्षवर्द्धन (606-647 ई.) बौद्ध धर्म के अंतिम महान संरक्षक थे। उन्होंने बड़ी विषम परिस्थितियों में थानेश्वर के पुष्यभूति एवं कन्नौज के मौरवरी राजवंशों का शासन ग्रहण किया था। हर्ष ने उत्तर भारत के विशाल भूभाग पर शासन किया और कन्नौज उनकी राजधानी थी। चीनी यात्री हुएन-त्सांग ने हर्ष के साम्राज्य में यात्रा की और कुछ समय तक उसकी राजधानी कन्नौज में रहा। हुएन-त्सांग ने लिखा है कि “कन्नौज में हीनयान और महायान दोनों बौद्ध संप्रदायों में एक सौ विहार थे, जिनमें दस हजार बौद्ध भिक्षु निवास करते थे।“ चीनी यात्री के अनुसार, “हर्ष महायान बौद्ध संप्रदाय का अनयायी था। उसने कश्मीर से बुद्ध के दंत अवशेष को लाकर कन्नौज के एक संघाराम में प्रतिष्ठित किया था।“
बंगाल एवं बिहार के पूर्व मध्य-कालीन पाल शासक (आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक) बौद्ध धर्म के अंतिम महान संरक्षक थे। पाल नरेश धर्मपाल ने विक्रमशिला के महाविहार की स्थापना की जो आगे चलकर नालन्दा के समान ही बौद्ध ज्ञान एवं शिक्षा के एक महान केन्द्र के रूप में विकसित हुआ। धर्मपाल का उत्तराधिकारी देवपाल भी बौद्ध धर्म का महान अनुयायी एवं नालंदा महाविहार का एक महान संरक्षक था। उसने नालंदा महाविहार को कुछ ग्राम दान में प्रदान किए थे। पालों के शासन-काल में बौद्ध धर्म में तंत्रवाद का विकास हुआ।
हुएन-त्साँग के अनुसार हर्ष के शासन काल में भारत में 10,000 विहार थे, जिनमें लगभग 75,000 भिक्षु-भिक्षुणी निवास करते थे। इस प्रकार सम्पूर्ण भारत में विहारों का बाहुल्य था और बहुत से प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान और शिक्षक थे। तथापि, इतना सब होते हुए भी बौद्ध धर्म में पतन के लक्षण दिखाई दे रहे थे। 647 ई. में हर्ष की मृत्यु के पश्चात् इसका तेजी से पतन होने लगा। बारहवीं शताब्दी ई. तक भारत में बौद्ध धर्म केवल उत्तर पूर्व भारत के एक छोटे से क्षेत्र तक ही सीमित रह गया था, वहाँ भी यह प्रायः बौद्ध विहारों तक ही केन्द्रीभूत रह गया था। बारहवीं शताब्दी में जब तुर्की सेना बिहार की ओर आगे बढ़ी तो नालन्दा, विक्रमशिला और ओदन्दपुरी में स्थित प्रसिद्ध बौद्ध महाविहारों को लूट लिया गया और उनमें रहने वाले अधिकांश भिक्षुओं की हत्या कर दी गई। इससे बौद्ध धर्म को अत्यधिक आघात लगा । भिक्षु-संघों के समाप्त हो जाने तथा बौद्ध विहारों के नष्ट कर दिए जाने से बौद्ध मतावलम्बी पथ-विहीन हो गए और वे कालान्तर में हिन्दू धर्म की ओर आकर्षित हुए।
भारत में अपने प्रसार के साथ ही साथ बौद्ध धर्म ने भारत की सीमाओं को भी पार कर लिया और वहाँ इसे ठोस आधार मिला। तीसरी शताब्दी ई.पू. में अशोक द्वारा तीव्रता से धर्मप्रचार आरम्भ किया गया। उसने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ श्रीलंका भेजा। यह धर्म धीरे-धीरे एशिया के अधिकांश भागों में फैल गया। इसकी एक शाखा श्रीलंका, बर्मा, थाईलैण्ड, कम्बोडिया और मलाया प्रायद्वीप में गई। दूसरी शाखा मध्य एशिया और वहाँ से चीन, कोरिया और जापान की ओर गई फिर एक अन्य शाखा का तिब्बत में प्रवेश हुआ और वहाँ से वह चीन और मंगोलिया की ओर गई। हालाँकि लगभग एक हजार वर्ष पहले विभिन्न कारणों से भारत में बौद्ध धर्म का पतन हुआ, लेकिन यह दक्षिण-पूर्व एशिया के प्रायः सभी भागों में अब भी एक जीवन्त धर्म है।
भारतीय संस्कृति को बौद्ध धर्म की देन-
बौद्धधर्म ने ही सर्वप्रथम भारतीयों को एक सरल तथा आडंबररिहत धर्म प्रदान किया, जिसका अनुसरण अनेक राजाओं ने किया। भारतीय जनमानस में जो धार्मिक सहिष्णुता देखने को मिलती है, वह बौद्धधर्म के प्रभाव का ही परिणाम थी। अशोक ने युद्ध विजय की नीति का परित्याग कर धम्मविजय की नीति को अपनाया तथा लोकल्याण का आदर्श समस्त विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। बौद्धधर्म के उपदेश तथा सिद्धांत पाली भाषा में लिखे गये, जिससे पाली भाषा एवं साहित्य का विकास हुआ। भारतीय दर्शन में तर्कशास्त्र की प्रगति बौद्धधर्म के प्रभाव से ही हुई। बौद्ध दर्शन में शून्यवाद तथा विज्ञानवाद की जिन दार्शनिक पद्धतियों का उदय हुआ, उनका प्रभाव कालान्तर में शंकराचार्य के दर्शन पर पङा। यही कारण है, कि शंकराचार्य को कभी-कभी प्रच्छन्न-बौद्ध भी कहा जाता है बौद्धधर्म ने न केवल भारत अपितु विश्व के देशों को अहिंसा, शांति, बंधुत्व, सह-अस्तित्व आदि का आदर्श बताया। इसके कारण ही भारत का विश्व के देशों पर नैतिक आधिपत्य कायम हुआ। बुद्ध ने मानव जाति की समानता का आदर्श प्रस्तुत किया था।
बौद्ध धर्म की प्रगति ने भारतीय सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन के विभिन्न पक्षों को अनुप्राणित करने में बहुमूल्य योगदान दिया। बौद्ध धर्म के रूप में भारत को एक लोकप्रिय धर्म मिला जिसे ऐसे जटिल, विस्तृत तथा गूढ़ कर्मकाण्डों की आवश्यकता नहीं थी जो केवल पुरोहित वर्ग द्वारा ही सम्पन्न किए जा सकते हो। बौद्धों ने अहिंसा के जिस सिद्धान्त पर अधिकाधिक बल दिया, धर्मनिष्ठ रूप से पालन और प्रचार किया, उसे परवती ब्राह्मण धर्म के स्वरूप में समाहित कर लिया गया। हिन्दु धर्म में व्यक्तिगत देवताओं की पूजा करने, उनकी मूर्तियाँ बनाने और विभिन्न देवताओं से सम्बन्धित मंदिरों का निर्माण करने सम्बन्धी धार्मिक विश्वासों का महायान बौद्धों से ही अनुकरण किया था।
भारतीय जन-जीवन के प्रति बौद्ध धर्म का महानतम एवं सर्वोत्कृष्ट योगदान स्थापत्य एवं शिल्पकला के क्षेत्र में है। बौद्धधर्म की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देन भारतीय कला एवं स्थापत्य के विकास में रही। इस धर्म की प्रेरणा पाकर शासकों एवं श्रद्धालु जनता द्वारा अनेक स्तूप, विहार, चैत्यगृह, गुहायें, मूर्तियाँ आदि निर्मित की गयी, जिन्होंने भारतीय कला को समृद्धशाली बनाया। साँची, भरहुत और अमरावती के स्तूपों, अशोक के प्रस्तर स्तम्भों तथा कन्हेरी (बम्बई), कार्ले (पुणे) और नासिक के गुहाओं, चैत्य एवं विहार बौद्ध कला के सर्वोत्तम निदर्शन हैं। सुन्दर तोरण-द्वारों एवं वेदिका से युक्त साँची का महा-स्तूप अपनी वास्तुकला एवं शिल्प-सौष्ठव, दोनों के लिए विश्वविख्यात है। गंधार शैली के अंतर्गत ही सर्वप्रथम बुद्ध मूर्तियों का निर्माण किया गया। आज भी भारत के कई स्थानों पर बौद्ध स्मारक विद्यमान हैं तथा श्रद्धालुओं के आकर्षण के केन्द्र बने हुये हैं।
इस सम्बन्ध में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत के पड़ोसी देशों को सभ्य बनाने और विभिन्न देशों में भारतीय संस्कृति का प्रसार करने में बौद्ध धर्म ने महानतम योगदान दिया। बौद्धधर्म के माध्यम से भारत का सांस्कृतिक संपर्क विश्व के विभिन्न देशों के साथ स्थापित हुआ। भारत के भिक्षुओं ने विश्व के विभिन्न भागों में जाकर अपने सिद्धांतों का प्रचार किया। अशोक के शासन-काल से ही बौद्ध धर्म प्रचारक भारतीय संस्कृति और सभ्यता को चीन, मंगोलिया, मंचूरिया, कोरिया, जापान, म्याँमार (बर्मा) जावा, सुमात्रा (इण्डोनेशिया) आदि विभिन्न देशों में ले गए। महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं से आकर्षित होकर शक, पार्थियन, कुषाण आदि विदेशी जातियों ने बौद्धधर्म को ग्रहण कर लिया। यवन-शासक मेनाण्डर तथा कुषाण शासक कनिष्क ने इसे राजधर्म बनाया और अपने साम्राज्य के साधनों को इसके प्रचार में लगा दिया। अनेक विदेशी यात्री तथा विद्वान बौद्धधर्म का अध्ययन करने तथा पवित्र बौद्धस्थलों को देखने की लालसा से भारत की यात्रा में आये। फाहियान, ह्वेनसांग, इत्सिंग जैसे चीनी यात्रियों ने भारत में वर्षों तक निवास कर इस धर्म का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया।आज भी विश्व की एक तिहाई जनता बौद्धधर्म तथा उसके आदर्शों में अपनी श्रद्धा रखती है। एक प्रकार से बौद्ध धर्म ने भारत के अलगत्व को समाप्त किया और विदेशों के साथ भारत के घनिष्ठ सम्बन्धों की स्थापना की दिशा में सेतु का काम किया। दूसरे देशों अथवा बाह्य जगत के प्रति यह भारत का महानतम उपहार था।
इस प्रकार स्पष्ट है, कि शताब्दियों पूर्व महात्मा बुद्ध ने जिन सिद्धांतों एवं आदर्शों का प्रतिपादन किया वे आज के वैज्ञानिक युग में भी अपनी मान्यता बनाये हुये हैं, तथा संसार के देश उन्हें कार्यान्वित करने का प्रयास कर रहे हैं। भारत ने अपने राजचिह्न के रूप में बौद्ध प्रतीक को ही ग्रहण किया है, तथा वह शांति एवं सह-अस्तित्व के सिद्धांतों का पोषक बना हुआ है। पंचशील का सिद्धांत बौद्धधर्म की ही देन है। आधुनिक संघर्षशील युग में यदि हम बुद्ध के सिद्धांतों का अनुसरण करतें तो निःसंदेह शांति एवं सद्भाव स्थापित हो सकते हैं।
गुरु आपकी ये अमृत वाणी हमेशा मुझको याद रहे, जो अच्छा है जो बुरा है उसकी हम पहचान करे। मार्ग मिले चाहे जैसा भी उसका हम सम्मान करे, दीप जले या अंगारे हो पाठ आपका याद रहे। अच्छाई और बुराई का जब भी हम चुनाव करे, गुरु आपकी ये अमृत वाणी हमेशा मुझको याद रहे।
जीवन एक यात्रा है, और आपके शब्द पूरे मार्गदर्शक सितारे थे। प्रेरणा दृष्टि शक्ति आपके मार्गदर्शन और समर्थन के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद गुरुजी।🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
गुरु आपकी ये अमृत वाणी हमेशा मुझको याद रहे,
ReplyDeleteजो अच्छा है जो बुरा है उसकी हम पहचान करे।
मार्ग मिले चाहे जैसा भी उसका हम सम्मान करे,
दीप जले या अंगारे हो पाठ आपका याद रहे।
अच्छाई और बुराई का जब भी हम चुनाव करे,
गुरु आपकी ये अमृत वाणी हमेशा मुझको याद रहे।
जीवन एक यात्रा है, और आपके शब्द पूरे मार्गदर्शक सितारे थे। प्रेरणा दृष्टि शक्ति आपके मार्गदर्शन और समर्थन के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद गुरुजी।🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
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