window.location = "http://www.yoururl.com"; Economic Policy of Alauddin Khalji | अलाउद्दीन खिलजी की आर्थिक नीति

Economic Policy of Alauddin Khalji | अलाउद्दीन खिलजी की आर्थिक नीति


Introduction (विषय प्रवेश)

अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था जिसने अनेक साहसिक कार्य किये। इस दृष्टि से उसे साहसी सुधारक माना जा सकता है। वे नियम जो अलाउद्दीन के आर्थिक सुधार कहे जा सकते है, उसके प्रशासन के एक विशेष अंग है। अलाउद्दीन की लगातार विजयों और मंगोल आक्रमणों ने उसके लिए एक विशाल सेना रखना अनिवार्य कर दिया था। राज्य के कर्मचारियों, सैनिकों और दीवानी प्रशासन पर अत्यधिक व्यय होता था। खर्च इतना अधिक था कि उपज पर 50 प्रतिशत कर लगाकर, विभिन्न प्रकार के अन्य कर लगाकर और सोने चॉदी के पेयपात्रों को सिक्कों में परिवर्तित करके भी राज्य की आवश्यकताएॅ पूरी नही हो पाती थी। इन विषम परिस्थितियों में आर्थिक क्षेत्र में अलाउद्दीन खिलजी ने महत्वपूर्ण कार्य करते हुए एक स्पष्ट आर्थिक नीति अपनाई और उसपर अमल किया। आर्थिक क्षेत्र में उसकी सफलता एक सुल्तान के रुप में उसकी सफलता का प्रमुख आधार था। अलाउद्दीन के आर्थिक नियमों का विस्तृत विवरण केवल जियाउद्दीन बरनी ने किया है। आर्थिक नीति के अन्तर्गत अलाउद्दीन ने दो प्रमुख कार्य किये- बाजारों का नियंत्रण और भू-राजस्व के क्षेत्र में सुधार

Control of Market (बाजार नियंत्रण):

अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी आर्थिक नीति के अन्तर्गत सर्वप्रथम बाजार का नियंत्रण किया जिसके उद्देश्य के सन्दर्भ में लगभग सभी इतिहासकार एकमत है कि उसने जो विशान स्थायी सेना की नींव डाली थी और सैनिकों को जागीर के स्थान पर नकद वेतन देता था परन्तु नकद वेतन की मात्रा इतनी नही होती थी कि उससे सैनिकों की आवश्यकताओ ंकी पूर्ति अच्छी तरह से हो सके क्योंकि आवश्यकता अथवा दैनिक उपभोग के वस्तुओं के मूल्य अधिक थे। अतः अलाउद्दीन खिलजी ने सैनिको और राज्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए दैनिक उपभोग की वस्तुओं का मूल्य निर्धारित और नियंत्रित कर दिया। यहॉ यह स्पष्ट है कि यद्यपि अलाउद्दीन खिलजी ने सैनिको की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही बाजार के मूल्य को नियंत्रित किया था परन्तु इससे लाभ समस्त जनता को हुआ।

बाजार नियंत्रण की सीमा-

बाजार नियंत्रण केवल दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों तक ही सीमित था अथवा पूरे राज्य में लागू था- इस सम्बन्ध में सभी इतिहासकार एकमत नही है। मोरलैण्ड का विचार है कि मूल्य नियंत्रण के विषय में दिल्ली को शेष साम्राज्य से अलग कर दिया गया था और उसके अनुसार सारे देश में मूल्य घटाने का कोई प्रयत्न नही किया गया। यह प्रयास केवल दिल्ली तक सीमित रखा गया जहॉ अलाउद्दीन की सेना थी। प्रो0 के0 एस0 लाल भी मोरलैण्ड के विचार से सहमत है। दूसरी तरफ बनारसी प्रसाद सक्सेना इससे सहमत नही है। समकालीन इतिहासकार जब बाजार के प्रमुख अधिकारी का उल्लेख करते है तो वे केवल दिल्ली के ‘शहना-ए-मण्डी‘ का उल्लेख करते है जिससे स्पष्ट होता है कि यह व्यवस्था केवल दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों में ही लागू किया गया। व्यवहारिक दृष्टि से भी यह व्यवस्था पूरे राज्य में लागू करना, उसका क्रियान्वयन करना और उसपर नियंत्रण रखना सम्भव नही था। अतः निष्कर्ष रुप में कहा जा सकता है कि अलाउद्दीन की बाजार नियंत्रण व्यवस्था केवल दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों तक ही सीमित थी।
अलाउद्दीन ने विभिन्न वस्तुओं के लिए विभिन्न प्रकार के बाजार संगठित किए और उनके लिए आवश्यक अधिनियम बनाए। ये बाजार थे- मंडी (गल्ला बाजार), सरा-ए-अदल, घोड़ों, दासों और मवेशियों का बाजार तथा अन्य वस्तुओं के लिए सामान्य बाजार ।

मंडी अलाउद्दीन द्वारा स्थापित बाजारों में सबसे मुख्य था मंडी अथवा गल्ला बाजार। नगर के प्रत्येक मुहल्ले में एक केंद्रीय गल्लामंडी स्थापित की गई जहाँ अनाज की खरीद-बिक्री होती थी। मंडी से संबंधित सात अधिनियम बनाए गए। बरनी ने इन नियमों की विस्तृत विवेचना की है। पहला अधिनियम विभिन्न अनाजों के मूल्य निर्धारण से संबंधित था और इसके द्वारा सभी अनाजों के दाम निश्चित कर दिए गए और इनमें कोई वद्धि नहीं की जा सकती थी। दूसरे अधिनियम के अनुसार मलिक कबूल उलुग खॉं को गल्ला मंडी का शहना नियुक्त किया गया। उसे विस्तृत अधिकार और सैनिक सहायता भी दी गई। गल्ला मंडी का बरीद अलाउद्दीन का एक विश्वासपात्र व्यक्ति बनाया गया। तीसरे अधिनियम के अनुसार यह आज्ञा दी गई कि दोआब की समस्त खालसा भूमि का लगान अनाज के रूप में एकत्रित कर सरकारी गोदामों में सुरक्षित रखा जाए। अन्य स्थानों से आधा लगान अनाज के रूप में वसूल कर गोदामों में भेजने की व्यवस्था की गई। चौथे अधिनियम के अनुसार घुमक्कड़ व्यापारियों के नेताओं पर कठोर निगरानी रखी गई और उन्हें शहना के प्रत्यक्ष नियंत्रण में यमुना नदी के किनारे अपने परिवारों के साथ रहने को कहा गया। ये व्यापारी नगर में इतना अधिक अनाज लाते थे जिससे सरकारी गोदाम का अनाज छूने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी और अनाज सभी दुकानों में सहज ही उपलब्ध हो जाता था। पॉचवे अधिनियम द्वारा मुनाफाखोरी का कठोरतापूर्वक दमन किया गया और अपराधियों को कठोर दंड दिए गए। छठे अधिनियम के द्वारा दोआब और दिल्ली के आसपास के प्रदेशों के समस्त लगान अधिकारियों से यह लिखित आश्वासन लिया गया कि किसान व्यापारियों को गल्ला अपने खेतों से निश्चित नकद मूल्य पर देंगे और उसे अपने घर न ले जाएँगे। इसी प्रकार किसानों से लगान भी कठोरता से वसूला जाएगा जिससे वे चोरबाजारी या मुनाफाखोरी नहीं कर सकेंगे। सातवें अध्यादेश के द्वारा यह व्यवस्था की गई कि गल्लामंडी की स्थिति की रिपोर्ट शहना, बरीद और मनहियान प्रतिदिन सुलतान को भेजेंगे। इन अधिनियमों का कड़ाई से पालन किया गया फलतः अनाज निश्चित मूल्य पर और सुगमता से उपलब्ध हो गया। बरनी के अनुसार शायद ही कोई ऐसा मुहल्ला था जहाँ अनाज से भरे दो-तीन सरकारी गोदाम न थे और बाजार में भी अनाज उपलब्ध था। सरकारी गोदाम का अनाज आपातकालीन परिस्थिति में ही जा सकता था जिसके वितरण के लिए राशन व्यवस्था लागू की गई थी।

सरा-ए-अदल : अलाउद्दीन द्वारा स्थापित दूसरा बाजार सरा-ए-अदल अथवा न्याय का स्थान था यहाँ बाहर से लाया गया तैयार सामान बिकता था। इस बाजार को सरकारी आर्थिक सहायता उपलब्ध थी। इस बाजार से संबंधित पाँच अधिनियम बनाए गए। पहले अधिनियम के अनुसार बदायूँ द्वार के निकट बाजार बनाकर उसमें दुकानें बनाई गईं। नगर में बाहर से आनेवाली प्रत्येक वस्तु-कपड़ा, शक्कर, मेवे, जड़ी-बूटियाँ, दीपक जलाने का तेल एवं अन्य वस्तुएॅ इसी बाजार में आनी थीं। व्यापारियों के व्यक्तिगत धन से अथवा सरकारी सहायता से खरीदी गई सभी वस्तुओं को यही लाना था, किसी निजी मकान या बाजार में नहीं। एक टका से लेकर दस हजार टंका मूल्य तक का सामान सिर्फ यही बेचा जाना था। इस नियम का उल्लंघन करनेवाले व्यापारी दंड का भागी बनते थे। दूसरे अधिनियम के द्वारा इस बाजार में बिकने वाले वस्तुओं के मूल्य निश्चित कर दिये गये। तीसरे अधिनियम के अनुसार दिल्ली के सभी व्यापारियों को वाणिज्य मंत्रालय या दीवान-ए-रियासत में पंजीकृत कराने का आदेश दिया गया। उन्हें निश्चित मात्रा में प्रत्येक वर्ष नगर में माल लाना था एवं सरा-ए-अदल में बेचना था। चौथा अधिनियम मुल्तानी व्यापारियों से संबंधित था। चूँकि उन्हें दिल्ली के व्यापारियों की तुलना में कम मुनाफा होता था इसलिए उन्हें प्रोत्साहन देने के लिए अनेक कदम उठाए गए। पाँचवें अधिनियम के अनुसार परवाना नवीस (परमीट देनेवाला आधकारी) नियुक्त किया गया। इसके अनसार बहमुल्य वस्त्र संपन्न व्यक्तियों को तब तक नहीं दिये जाते थे जब तक कि परमिट देनेवाला अधिकारी उनकी आय के आधार पर अनुमति नहीं न दे दे। इस व्यवस्था का उद्देश्य कालाबाजारी को रोकना था जिससे कि कोई व्यक्ति सस्ते मूल्य पर दिल्ली में वस्त्र खरीद कर उसे बाहर महँगे मूल्य पर न बेच सके। वस्त्रों के मूल्यों को सूची देखकर यह स्पष्ट हो जाता है।
घोड़ों, दासों और मवेशियों के बाजारों के लिए चार सामान्य अधिनियम बनाये गए थे। इनके अनुसार वस्तु के किस्म के अनुसार उसका मूल्य निश्चित किया गया, व्यापारियों और पूँजीपतियों का बहिष्कार किया गया, बिचौलियों पर कड़ी निगरानी रखी गई।
सामान्य बाजार- दीवान-ए-रियासत अथवा वाणिज्य मंत्रालय के नियंत्रण में सामान्य बाजार भी स्थापित किए गए। ये बाजार पूरे नगर में थे। इन बाजारों में बिकने वाली सामान्य वस्तुएॅ जैसे- मिठाईयाँ, सब्जियाँ, रोटियाँ, कंघी, चप्पल, जूता, बर्तन, सुपारी, इत्यादि के मूल्य भी निश्चित किए गए। मूल्य-निर्धारण उत्पादन लागत के आधार पर किया गया था।
अलाउद्दीन खिलजी ने अपने आर्थिक सुधार केवल सेना को ही ध्यान में रखकर नही किये थे क्योंकि आर्थिक नीति को विजय की दौड के लगभग समाप्त होने के बाद भी जारी रखा गया था लेकिन इसमें कोई सन्देह नही है कि उसके आर्थिक सुधारों में सेना एक महत्वपूर्ण अंग थी। अलाउद्दीन ने व्यापारियों को मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित किया। प्रथम ऐसे व्यापारी जो बाहर से माल लाकर दिल्ली के व्यापारियों को आपूर्ति करते थे तथा दूसरे ऐसे व्यापारी जो दिल्ली में स्थायी रुप से दुकान कर व्यापार करते थे। अलाउद्दीन खिलजी ने सर्वप्रथम दोनो श्रेणियों के व्यापारियों की एक सूची तैयार करवाई तथा व्यापारियों से एक लिखित शपथपत्र ले लिया जिसके अनुसार बाजार नियंत्रण व्यवस्था में उन्हे पूरा सहयोग करना होता था। उन्हे निर्धारित मूल्य पर सामान बेचना था, माप-तौल सही रखना था और बस्तुओं की उपलब्धि पर भी ध्यान देना था। उनमें किसी भी प्रकार की गडबडी करने वाले व्यापारियों को कठोर दण्ड दिया जाता था जो न केवल उस व्यापारी तक सीमित रहता था अपितु उसके परिवार के सदस्यों को भी दण्डित किया जाता था। अलाउद्दीन खिलजी ने व्यापारियों के रहने के लिए दिल्ली में ही यमुना नदी के किनारे एक बस्ती बनवा दी थी। अलाउद्दीन स्वयं बाजार नियंत्रण व्यवस्था की नियमित देखभाल करता था। व्यापारियों द्वारा किसी प्रकार की गडबडी करने की आशंका को ध्यान में रखकर उसने एक गुप्तचर विभाग स्थापित किया था जिसे ‘मनहियान‘ के नाम से जाना जाता था।
समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी लिखते है कि – ‘‘माप-तौल में कमी करने वाले व्यापारियों को अत्यन्त कठोर दण्ड दिया जाता था। वे जितनी कमी माप-तौल में करते थे उतना मांस उनके शरीर से निकाल लिया जाता था।‘‘
संक्षेप में, अपनी बाजार नियंत्रण व्यवस्था के अन्तर्गत अलाउद्दीन खिलजी ने निम्नलिखित बाजारों का नियंत्रण किया –

अनाज का बाजार – 

अनाज की मण्डी का प्रमुख अधिकारी अलाउद्दीन ने ‘शहना-ए-मण्डी‘ को नियुक्त किया और इस पद पर मलिक कबूल खॉ को नियुक्त किया। शहना नामक अधिकारी ने अनाज की मण्डी पर कठोर नियंत्रण स्थापित किया। दिल्ली के सभी व्यापारियों को सर्वप्रथम ‘शहना-ए-मण्डी‘ नामक पदाधिकारी के कार्यालय में अपने नाम दर्ज कराने पडते थे और सभी व्यापारियों को शपथ पत्र के माध्यम से निर्धारित दर पर सामान बेचना होता था। अलाउद्दीन ने अनाज की निरन्तर उपलब्धता बनाए रखने पर विशेष बल दिया। इसके लिए उसने प्रत्येक मुहल्लों में बडे-बडे अन्नागार स्थापित करवाए। वह किसानों से कर के रुप में अनाज लेने पर ही जोर देता था। दुर्भिक्ष अथवा बाढ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय इन्ही अन्नागारों से अनाज निकाल कर दिया जाता था। ऐसे भी प्रमाण मिलते है कि अलाउद्दीन ने राशन व्यवस्था भी लागू की थी। अकाल के साथ प्रत्येक घर को आधा मन अनाज प्रतिदिन दिया जाता था। नगर के सम्पन्न व्यक्तियों को उनकी आवश्यकता की पूर्ति के लिए अकाल के समय निश्चित मात्रा में अनाज दिया जाता था। इस प्रकार राशनिंग की पद्धति अलाउद्दीन की नई सूझ थी और यहॉ यह उल्लेखनीय है कि इसके लिए कोई राशन कार्ड आदि की व्यवस्था नही थी। समकालीन इतिहासकार बरनी लिखते है कि – ‘अनाज का मूल्य काफी कम हो गया था।‘ बरनी द्वारा दिये गये कुछ अनाजों के मूल्य की सूची निम्न प्रकार से है –
  1. गेहूॅ – 7.5 जीतल/मन
  2. जौ – 4 जीतन/मन
  3. चना – 5 जीतल/मन
  4. चावल – 5 जीतल/मन
  5. उडद – 5 जीतल/मन
  6. गुड – 1/3 जीतल/सेर
  7. सरसों का तेल – 1 जीतल/3 सेर
  8. नमक – 1 जीतल/1/2मन
  9. घी अथवा मक्खन – 1 जीतल/ढार्ड सेर
उपर्युक्त मूल्य सूची को ध्यान में रखते हुए वर्तमान समय में इन कीमतों का रुपये में हिसाब लगाना तो अत्यन्त कठिन है किन्तु मोटे तौर पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एक टंके में दिल्ली का नागरिक 88 सेर गेंहूॅ, 98 सेर चना चावल या दालें और 250 सेर के आसपास सरसों का तेल खरीद सकता था।
वास्तव में अनाज का मूल्य इतना कम हो गया था कि गरीब से गरीब जनता भी अपना पेट भरने में समर्थ हुई। अलाउद्दीन ने स्वयं अनाज की उपलब्धता और गुणवत्ता बनाये रखने पर ध्यान दिया। परिणामस्वरुप यह बाजार नियंत्रण व्यवस्था अत्यन्त सफल हुई। अनाज का मूल्य कम होने से व्यापारियों को घाटा होने की आशंका थी परन्तु यह बात उल्लेखनीय है कि इस व्यवस्था में व्यापारियों का लाभ कम अवश्य हो गया परन्तु हानि की आशंका से वे बच गये। आवश्यकता पडने पर अलाउद्दीन ने उन्हे अग्रिम राशी अथवा उधार में अनाज भी उपलब्ध करवाया जिससे यह व्यवस्था सुचारू रुप से चल सकी।

कपडे का बाजार – 

अनाज के मूल्य की अपेक्षा कपडे का मूल्य अधिक था। अतः जब अलाउद्दीन खिलजी ने कपडे के बाजार का नियंत्रण किया तो दिल्ली में कपडा सस्ता हो गया और अन्य स्थानों पर कपडा मॅहगा हो गया जिससे कपडे के व्यापारी आगे आने को प्रस्तुत नही थे। इस समस्या को दूर करने के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने मुल्तान से व्यापारियों को बुलाया। कपडे के व्यापार के लिए उन्हे लाइसेन्स दिया गया और सरकार द्वारा उन्हे कपडा उपलब्ध करवाया गया। उनका कार्य केवल इतना था कि वे राज्य द्वारा निर्धारित मूल्य पर कपडा बेचते थे और सारा पैसा या राशि उन्हे राजकोष में जमा करना होता था। बदले में उन्हे एक निश्चित दर से कमीशन मिलता था अर्थात इनका कार्य वर्तमान समय के एक कमीशन एजेण्ट की भॉंति हो गया था। अच्छे किस्म के कपडे जैसे रेशम आदि बहुत मॅंहगा था तथा जबकि साधारण किस्म के कपडे जैसे लट्ठा आदि का मूल्य कम था। अलाउद्दीन खिलजी ने कपडे के बाजार का अधिकारी ‘दीवान-ए-रियासत‘ को नियुक्त किया। बाहर से मॅगाई गई वस्तुएॅ बदायूॅ द्वार के पास बनाई गई ‘सराय-ए-अदल‘ में जमा की जाती थी। जियाउद्दीन बरनी लिखते है कि कभी-कभी दीवान-ए-रियासत की नियुक्ति ‘शहना-ए-मण्डी‘ नामक पदाधिकारी के संस्तुति पर की जाती थी। बरनी के अनुसार कुछ कपडों के मूल्य निम्न प्रकार से निर्धारित किये गये थे –
  1. अच्छी किस्म का रेशम – 16 टंका
  2. साधारण कपडे – साढे तीन जीतल
  3. मोटा अस्तर – 12 जीतल
  4. 20 गज लट्ठे का मूल्य – 1 से 2 टंका
  5. अच्छी किस्म की चादर – 10 जीतल
पशुओं का बाजार – पशुओं के बाजार के अन्तर्गत अलाउद्दीन खिलजी की दृष्टि मुख्य रुप से घोडे पर थी। अलाउद्दीन ने देखा कि विदेशी व्यापारी अच्छे किस्म के घोडे अधिक से अधिक मूल्य देकर अपने देश लेकर चले जाते है फलस्वरुप हिन्दुस्तान में अच्छे किस्म के घोडों की कमी हो जाती थी। हिन्दुस्तान में केवल बेकार किस्म के घोडे बच जाते थे जो युद्ध के समय सही रुप से लड नही पाते थे। इस समस्या से निपटने के लिए उसने पशुओं के बाजार पर भी नियंत्रण लगाया। पशुओं के बाजार को नियंत्रित करने का मुख्य उद्देश्य घोडों के बाजार के साथ साथ दूघ देने वाले पशु तथा भार ढोने वाले पशुओं के उपर भी बाजार नियंत्रण लागू किया। कीमतों को कम बनाये रखने के लिए अलाउद्दीन ने घोडों के दलालों और मध्यस्थों से कठोरता का व्यवहार किया। अलाउद्दीन ने घोडों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया और इसी प्रकार कुछ दुधारु पशुओं को उनकी नस्ल के आधार पर विभाजित किया। बरनी के अनुसार पशुओं के बाजार के अन्तर्गत विभिन्न पशुओं के मूल्य निम्न प्रकार से निर्धारित किये गये –
  1. प्रथम श्रेणी के घोडों का मूल्य – 100 टंका
  2. मध्यम श्रेणी के घोडों का मूल्य – 80 से 90 टंका
  3. साधारण श्रेणी के घोडों का मूल्य – 60 से 70 टंका
  4. भारतीय टट्टू – 10 से 20 टंका
  5. साधारण गाय – 3 से 4 टंका
  6. अच्छी गाय – 5 से 7 टंका
  7. भार ढोने वाले जानवर – 3 से 4 टंका
  8. भैंस – 10 से 12 टंका
इस प्रकार मूल्य निर्धारण के माध्यम से पशुओं के बाजार को भी अलाउद्दीन खिलजी ने नियंत्रित किया।

दास-दासियों का बाजार – 

अलाउद्दीन खिलजी ने दास- दासियों के बाजार पर भी नियंत्रण स्थापित किया। उसने दास और दासियों के बाजार पर नियंत्रण लगाना इसलिए आवश्यक समझा कि अच्छे किस्म के दास-दासियों को अन्य वस्तुओं तथा पशुओं की तरह मूल्य लगाकर विदेशी व्यापारी हिन्दुस्तान से खरीद ले जाते थे जिससे देश में इनकी कमी हो जाती थी। वस्तुतः दास दासियॉ ही उच्च परिवारों में काम-काज किया करती थे और राजकार्य से सम्बन्धित व्यक्तियों की सेवा करते थे। इस प्रकार इनके मूल्यों का निर्धारण कर अलाउद्दीन ने इनके बाजार पर भी कठोर अंकुश लगा दिया। स्वयं अलाउद्दीन खिलजी के पास दास-दासियों की संख्या लगभग 50 हजार तक थी। उस काल में जानवरों की बिक्री की तरह दासो की बिक्री हुआ करती थी। इन्हे भी कई श्रेणियों में विभक्त कर इनके मूल्य निर्धारित कर दिये गये। जियाउद्दीन बरनी के अनुसार विभिन्न प्रकार के दास-दासियों का मूल्य निम्नलिखित था –
  1. अच्छे किस्म के दास का मूल्य – 40 टंका
  2. मध्यम श्रेणी के दास का मूल्य – 20 से 30 टंका
  3. साधारण श्रेणी के दास का मूल्य – 10 से 15 टंका
  4. घर में काम करने वाली दासी का मूल्य – 5 से 12 टंका
दासियों का मूल्य दासों की तुलना में अधिक होता था। यदि कोई 10000 या इससे अधिक मूल्य की अत्यन्त सुन्दर कन्या बाजार में विक्रय के लिए लाई जाती थी तो कोई भी उसे खरीदने का साहस नही करता था। उन्हे भय होता था कि कही मनहियाब सुल्तान को सूचना न दे दे कि वह व्यक्ति इतना धनवान है। इस प्रकार यह बाजार भी इस काल में नियंत्रित रुप से चला।

मूल्यांकन –

अलाउद्दीन का बाजार एवं मूल्य-नियंत्रण इस बात को लेकर महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इससे वस्तुएँ सस्ती हो गईं, बल्कि इस बात से है कि बाजार में वस्तुओं की कीमतें निश्चित हो गईं। यद्यपि अलाउद्दीन की आर्थिक व्यवस्था उसके साथ ही समाप्त हो गई, तथापि इससे इनका महत्त्व कम नहीं हो जाता है। इस व्यवस्था से सबसे अधिक लाभान्वित सैनिक-वर्ग ही हुआ। प्रो० के० एस० लाल के शब्दों में, अलाउद्दीन ने साधारण जनता की आवश्यकताओं से ऊपर सैनिक आवश्यकताओं को रखा तथा ऐसी सुसंगठित सेना रखी, जिसने देश तथा विदेश में सदैव अपने शत्रुओं को पराजित किया।
अनेक विद्वानों ने अलाउद्दीन खिलजी की व्यापार और मूल्य संबंधी नीतियों की कटु आलोचना भी की है। उनका तर्क है कि सुलतान का उद्देश्य केवल दिल्ली का प्रजा को ही संतुष्ट करना था जिससे वे निरंकुश शासन के विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकें। दिल्ला की प्रजा के लिए सीमावर्ती लोगों का शोषण किया गया। के० एस० लाल के अतिरिक्त अन्य विद्वान भी मानते हैं कि अपने सुधारों द्वारा अलाउद्दीन केवल सैनिक और सामंत वर्ग को सन्तुष्ट रखना चाहता था और इन्हीं के आधार पर उसकी सत्ता भी टिकी थी। अतः इस व्यवस्था द्वारा किसान, शिल्पकार अथवा व्यापारी लाभ नहीं उठा सके और वे असंतुष्ट रहे। प्रो० इरफान हबीब का भी मानना है कि इस योजना का लाभ वास्तव में सामंत और सैनिक ही उठा सके। मूल्य में कमी और मजदूरी की दर में कमी का असर समाज के छोटे तबके पर पड़ा और वे इसका लाभ नही उठा सके। इसी प्रकार डा0 सत्या राय का मत है कि अलाउद्दीन का बाजार नियंत्रण आर्थिक सि़द्धान्तों के विरुद्ध था। शक्ति पर आधारित यह व्यवस्था बहुत लम्बे समय तक स्थापित नही रखी जा सकती थी अतः अलाउद्दीन के बाद ही उसकी बाजार नियंत्रध व्यवस्था समाप्त हो गयी।
इन आलोचनाओं और दोषों के वावजूद यह कहना समीचीन होगा कि अलाउद्दीन खिलजी की आर्थिक नीति को पूर्णतः सार्थक बनाने के लिए लागू की गई बाजार नियंत्रण व्यवस्था अत्यन्त सफल रही। वास्तव में गल्ला मण्डी में मूल्य की स्थिरता अलाउद्दीन की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। जबतक वह जीवित रहा तबतक इन मूल्यों में कोई वृद्धि नहीं हुई। अलाउद्दीन ने अपने बाजार नियंत्रण की सफलता के लिए कुशल कर्मचारी नियुक्त किये थे और उनकी सहायता के लिए घुडसवारों और पैदल सैनिकों की एक विशाल टुकडी दी गई थी। वह स्वयं सारे व्यापारियों की देखरेख करता रहता था और उसके कर्मचारी बाजार की सामान्य स्थिती की सूचना देते रहते थे। कभी कभी अलाउद्दीन अपने छोटे गुलाम लडकों को कुछ जीतल देकर भिन्न-भिन्न वस्तुएॅ खरीदने को भेजता था और उसका वाणिज्य मंत्री अर्थात दीवान-ए-रियासत नाजिर याकूब इन लडकों द्वारा लाए गए सामान की जॉच करता था। यदि कोई दुकानदार कम तौलता हुआ पाया जाता था तो उसे कठोरतम दण्ड दिया जाता था। इस बडे नियंत्रण का प्रभाव यह पडा कि बाजार व्यवस्थित हो गया। आधुनिक इतिहासकार के0 एस0 लाल और आर्शीवादी लाल श्रीवास्तव ने अलाउद्दीन खिलजी के बाजार नियंत्रण व्यवस्था की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। वास्तव में इसकी सफलता के पीछे स्वयं अलाउद्दीन खिलजी का विशेष योगदान था। लगभग सभी इतिहासकारों ने बाजार नियंत्रण व्यवस्था की प्रशंसा की है जिसकी सफलता का पूरा श्रेय अलाउद्दीन खिलजी को दिया जाता है। अतः निष्कर्ष रुप में कहा जा सकता है कि अलाउद्दीन की आर्थिक नीति के अन्तर्गत बाजार नियंत्रण का जो पहला प्रयोग हुआ, अत्यन्त सफल रहा।

भू-राजस्व सम्बन्धी सुधार(Land-Revenue Reforms)

अलाउद्दीन ने प्रचलित भू-राजस्व-व्यवस्था में भी महत्त्वपूर्ण सुधार किए। दिल्ली के सुलतानों में वह पहला शासक था, जिसने भूमि-व्यवस्था और कर-प्रणाली में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए। इस समय भू-पतियों के जिम्मे ही अधिकांश जमीन थी। किसानों से वसूले गए राजस्व का अधिकांश वे स्वयं ही हड़प जाते थे। फलस्वरूप जमींदारों के हौसले बहुत अधिक बढ़ गए थे। अलाउद्दीन के राजस्व संबंधी सुधारों के दो स्पष्ट उद्देश्य थे। वह राजकीय आय में पर्याप्त वृद्धि करना चाहता था जिसके आधार पर एक विशाल और सुगठित सेना स्थापित व संचालित की जा सके और खिलजी साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान किया जा सके। उसका दूसरा उद्देश्य मध्यस्थ भूमिपति वर्ग पर अंकुश लगाकर उनकी शक्ति को कमजोर करना था जिससे बार-बार होनेवाले उपद्रवों एवं विद्रोहों पर नियंत्रण रखा जा सके।
राजस्व वृद्धि के लिए अलाउद्दीन ने तीन महत्त्वपूर्ण उपाय किए-
सबसे पहले उसने दोआब में प्रचलित भू-राजस्व की दर में वृद्धि की। अब किसानों से उपज का 1/2 लगान (भूमिकर या खिराज) के रूप में लिया गया। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र की कर-मुक्त जमीन पर राजकीय नियंत्रण स्थापित किया गया। लगान-निर्धारण की व्यवस्था में भी सुधार लाया गया। भूमि की माप करवा कर उपज के आधार पर लगान तय किया गया। इतिहासकार बरनी के अनुसार नाप और प्रति “बिस्वा“ के आधार पर लगान निश्चित किया गया। वह मापन की पद्धति या “मसहत” की विस्तृत जानकारी नहीं देता है लेकिन अनुमान लगाया है कि जमीन की माप के लिए एकीकृत प्रणाली अपनाई गई। इस व्यवस्था में किसी को भी छूट नहीं दी गई। राजस्व नकद तथा अनाज दोनों रुपों में लिया जाता था। इन सुधारों से राजस्व में भी पर्याप्त वृद्धि हुई। इस प्रकार अलाउद्दीन दिल्ली का पहला सुलतान था जिसने वास्तविक उपज के आधार पर लगान की राशी निश्चित की। इस व्यवस्था के द्वारा राज्य ने किसानों से सीधा संबंध स्थापित किया तथा किसानों के बीच बिचौलियों का प्रभाव समाप्त कर दिया।

अलाउद्दीन का दूसरा आक्रमण खूत, चौधरी और मुकद्दमों पर हुआ जो पैतृक आधार पर लगान अधिकारी थे और सभी हिन्दू थे। इनपर नियंत्रण कायम करने के उद्देश्य से अलाउद्दीन ने एक अध्यादेश द्वारा मिल्क (सम्पत्ति), इनाम और वक्फ (उपहार) में दी गई भूमि को वापस लेकर उसे खालसा भूमि (राज्य की भूमि) में परिवर्तित कर दिया गया। व्यक्तिगत जमीन सिर्फ वैसे लोगों के पास ही बच गई, जो राज्य की सेना में कार्यरत थे और ठीक से उसका प्रबंध कर सकते थे। लगान वसूलनेवाले मुकद्दमों (मुखिया), खूत अर्थात जमींदार और चौधरी के विशेषाधिकारों को समाप्त कर उनसे लगान वसूली का काम वापस ले लिया गया। इससे उनकी स्थिति अत्यंत दुर्बल हो गई। बरनी के अनसार “सुल्तान की आज्ञा का पालन इस कठोरता से किया गया कि राजस्व विभाग का एक सिपाही बीस खूतों, मुकद्दमों और चौधरियों की गर्दन एक साथ बांध कर और उन्हें लात और घूसे मार कर खिराज वसूल करता था। गांव के हिंदू (मुखिया) के लिए असंभव था कि वह अपना सर उठाए। हिन्दूओं के घरों में सोना-चाँदी, टंके, जीतल तथा अन्य फालतू सामग्री नहीं रह गई। दरिद्रता के कारण खूतों और मुकद्दमों की स्त्रियाँ मुसलमानों के घरों में नौकरियों के लिए जाया करती थीं।“ अब उनके स्थान पर आमिल (कर एकत्र करनेवाले) एवं गुमाश्ता (प्रतिनिधि) लगान वसूलने लगे। लगान वसूली से संबद्ध अन्य पदाधिकारी थे – मुहस्सिल (खराज वसूलनेवाला), ओहदा दाराने दफातिर (कार्यालय का अध्यक्ष) और नवीसिन्दा (लिपिक)। बड़ी संख्या में हिंदू कर्मचारियों को भी लगान व्यवस्था से जोड़ा गया। एक नये विभाग दीवान-ए-मुस्तखराज के जिम्मे राजस्व-व्यवस्था सौंप दी गई। एक अध्यादेश द्वारा खिराज (भूमिकर) की मात्रा बढ़ाकर पचास प्रतिशत कर दी गई। जियाउद्दीन बरनी के अनुसार – ‘‘यद्यपि पचास प्रतिशत कर वसूला जाना इस्लामी कानूनों के विरुद्ध नही था फिर भी इतना अधिक कर इससे पूर्व कभी भी वसूल नही किया गया था।‘‘ आधुनिक इतिहासकार के0एस0 लाल अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री आफ द खलजीज‘ में अलाउद्दीन की भू-राजस्व प्रणाली की प्रशंसा करते हुए लिखते है कि उसके लिए इतना कर निर्धारित करना समय की आवश्यकता थी क्योंकि राजकोष की स्थिती और सैनिकों के बोझ को देखते हुए इतना कर वसूल करना आवश्यक हो गया था।

तीसरा महत्वपूर्ण काम सुल्तान द्वारा कुछ नए कर भी लगाए गये जैसे आवास-कर एवं चराई-कर। राज्य को सिंचाई-कर, सीमा-शुल्क, करही, जजिया (हिंदुओं पर लगाया जानेवाला कर), जकात (धार्मिक कर, सिर्फ मुसलमानों से वसूला जानेवाला, और खुम्स (युद्ध में प्राप्त लूट का माल) से भी आमदनी होती थी। अलाउद्दीन से पूर्व खुम्स नामक कर में सैनिकों का हिस्सा 4/5 जबकि सुल्तान का हिस्सा 1/5 होता था। अलाउद्दीन ने इसका 4/5 भाग राज्य-कर के रूप में लिया। दुधारु पशुओं के लिए चारागाह निश्चित कर चराई-कर वसूला गया। फरिश्ता के अनुसार चार बैल, दो गाएँ, दो भैंसें और बारह बकरियाँ और भेड़ें कर से मुक्त थीं। करही संभवतः एक गौण कर था। स्त्रियों, बच्चों, विक्षिप्तों और अपंगों के अतिरिक्त सभी गैर-मुसलमानों को जजिया देना पड़ता था। जकात मुसलमानों की संपत्ति के 40वें भाग के रूप में वसूला जाता था। लगान-वसूली का काम कठोरता से होता था। अलाउद्दीन की राजस्व नीति को सफलतापूर्वक लागू करने का श्रेय उसके नायब वजीर शर्फ कायिनी को दिया जाता है।

समकालीन इतिहासकार बरनी ने लगान व्यवस्था की कमजोरियों की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। किसानों से सीधे लगान वसूलने के कारण राजस्व विभाग के अधिकारियों और कर्मचारियों में भ्रष्टाचार बढ़ गया। कर्मचारियों को बर्खास्त करने पर भी भ्रष्टाचार में कमी नहीं आई। अतः भ्रष्टाचार का सहारा लेनेवाले कर्मचारियों के विरुद्ध कठोर कदम उठाए गए। राजस्व कर्मचारियों से बकाए लगान की राशि को कठोरतापूर्वक वसूला गया। बरनी के अनुसार, यदि किसी पटवारी की बही से एक जीतल भी उसके जिम्मे निकलता तो उसे कठोर दंड दिए जाते और जेल में डाल दिया जाता। यह संभव न था कि कोई एक टके का भी अपहरण कर सके या किसी हिंदू या मुसलमान से घूस ले सके। इससे स्पष्ट होता है कि राज्य ने आर्थिक हितों की सुरक्षा एवं राजकीय धन के गबन को रोकने के लिए कठोर कदम उठाए। अलाउद्दीन की राजस्व नीति के परिणामस्वरूप राज्य की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हुई। डा0 ताराचन्द ने लिखा है कि- यह नीति आत्मघातक थी क्योंकि उसने सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी को ही मार डाला।

अलाउद्दीन की भू-राजस्व-व्यवस्था की आलोचना करते हुए प्रो० आर० पी० त्रिपाठी लिखते है कि – राजस्व-विभाग में सबसे बडी खराबी स्थायी रूप से यह आ गई थी कि लगान ठीक से वसूल नहीं हो पा रहा था और बहुत बड़ी धनराशि बाकी रह जाती थी। चूँकि अभी लगात ठीक से बनाई जा रही थी, लगान आँकने तथा वसूल करने का काम अविकसित रूप में था। अतः कुछ रकम की वसूली होने से बाकी बच जाना अनिवार्य हो गया था।“ इसको वसूल करने के लिए ही एक नया विभाग दीवान-ए-मुस्तखराज खोला गया और गलती करनेवाला के लिए कडे दंड की व्यवस्था की गई। अलाउद्दीन की राजस्व-व्यवस्था पूरे साम्राज्य में एक समान लागू नहीं की जा सकी, सिर्फ केंद्रीय भाग में ही यह व्यवस्था लागू हो सकी। इस व्यवस्था से राज्य को अत्यधिक लाभ हुआ, परंतु जनसाधारण पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा। उनकी दरिद्रता बढ़ गई। उपज का पचास प्रतिशत भाग खिराज के रूप में देने और उसके साथ अन्य कर देने से उनकी स्थिति दुर्बल हो गई। इसी प्रकार जमींदार वर्ग भी निर्धन हो गया। वस्तुतः अलाउद्दीन ने अपनी राजस्व नीति के परिणामस्वरूप किसी के पास इतना धन ही नहीं छोडा जिससे वह अहंकारी बन सके अथवा षड्यंत्रकारी कार्यों में भाग ले सके। यह अलाउद्दीन की एक बड़ी उपलब्धि थी और इससे दिल्ली सलतनत की स्थिति मजबूत हुई।

आर्थिक और राजस्व सुधारों के परिणाम-

अलाउद्दीन के आर्थिक सुधार सल्तनत युग की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि कही जा सकती है परन्तु खेद का विषय यह है कि यह सब कुछ केवल एक सुल्तान तक ही सीमित रहा। अलाउद्दीन के उत्तराधिकारी इन नियमों को अपने साम्राज्य में लागू नही कर सके। इन आर्थिक सुधारों की सबसे महत्वपूर्ण बात वह सफलता है जिसके द्वारा इसे क्रियान्वित किया गया। स्वयं सुल्तान, उसके अधिकारी-कर्मचारी, उसके गुप्तचर आदि सभी ने इन सुधारों को सफल बनाने का पूरा प्रयास किया। हम यह भी नही कह सकते कि इस प्रणाली में कोई दोष नही थे और निश्चित रुप से भू-राजस्व की दरों में वृद्धि का भार कृषकों पर पडा। कृषकों को अपनी आय का पचास प्रतिशत भूमि कर, चराई कर, आवास कर के रुप में चुकाना होता था। किसानों को अपनी बचत का सारा अनाज सुल्तान द्वारा नियंत्रित दरों में बेचने के लिए बाध्य किया जाता था। फिर भी इतना कडा नियंत्रण समय की स्थिती को ध्यान में रखने पर अनुचित नही लगता है। कुल मिलाकर निष्कर्ष रुप में यह कहा जा सकता है कि अलाउद्दीन खिलजी द्वारा लागू आर्थिक नीति के अन्तर्गत बाजार नियंत्रण तथा भू-राजस्व के क्षेत्र में जो पहला प्रयोग हिन्दुस्तान में किया गया, अत्यन्त सफल रहा।

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