Introduction (भूमिका) :
अलाउद्दीन खिलजी एक साम्राज्यवादी शासक था, अतः अत्यधिक स्वतंत्र राज्यों को अपने अधीन करना उसके साम्राज्यवादी नीति का लक्ष्य था। यूनानी शासक सिकंदर के समान वह अपनी विजय पताका दूर दूर तक फैलाना चाहता था। उसने सिकंदर द्वितीय की उपाधि धारण की और यहां तक कि अपने सिक्कों और सार्वजनिक प्रार्थनाओं में भी स्वयं को दूसरा सिकंदर घोषित किया। वह कहता था कि भगवान ने मेरे चार मित्र दिए हैं- उलूग खां, नुसरत खां, जफर खां और अलप खां। यदि मैं चाहूं तो इन चारों मित्रों की सहायता से एक नए धर्म की नींव डाल सकता हूं। मेरे पास असीमित धन, हाथी और सैनिक है, मैं चाहता हूं कि दिल्ली का शासन भार अपने प्रतिनिधि शासक को सौंप दूॅं और स्वयं विजय प्राप्त करने के लिए संसार में भ्रमण करूं और इस प्रकार संसार को अपने अधीन कर लूॅं।
लेकिन दिल्ली के कोतवान अलाउलमुल्क के परामर्श से उसने विश्व विजय की आकांक्षा त्याग दी और स्वतंत्र भारतीय राज्यों को अपने अधीन करने हेतु सैन्य अभियान जारी किया।
अपने 20 वर्षीय शासनकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने उत्तर और दक्षिण भारत के अनेक राज्यों को विजित किया लेकिन इन क्षेत्रों के प्रति उसकी नीति एक समान नहीं थी, उत्तर भारत के राज्य को विजित करने के पश्चात उन्हें अपने सूबेदारों के माध्यम से सीधे नियंत्रण में रखा जबकि दक्षिण राज्य के प्रति उसका लक्ष्य सीधे प्रशासनिक नियंत्रण में रख केवल धन प्राप्त करना था।
उत्तर भारतीय राज्यों के प्रति अलाउद्दीन की नीति विस्तारवादी थी और इस नीति के अंतर्गत उसने इन राज्यों को विजित कर उन्हें अपने अधीन बनाया। उसने अपनी विजयों से एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की थी। अलाउद्दीन की उत्तर भारत की विजय में उसके दो सेनापतियों उलूग खॉं और नुसरत खॉं ने मुख्य रुप से भाग लिया।
अलाउद्दीन द्वारा उत्तर भारतीय राज्यों पर आक्रमण करने का क्रम इस प्रकार है –
1- गुजरात 1297 ई0
2- रणथम्बौर 1301 ई0
3- चित्तौड़ 1303 ई0
4- मालवा 1305 ई0
5- सिवाना 1308 ई0
6- जालौर 1311 ई0
गुजरात अभियान-
अलाउद्दीन का पहला सैन्य अभियान 1297 ईस्वी में गुजरात पर हुआ उस समय वहॉ का शासक बघेला राजपूत राय करन द्वितीय था जिसकी राजधानी अन्हिलवाड़ा( पाटन) थी। इस समय गुजरात की गणना भारत की शक्तिशाली और समृद्ध राज्य में की जाती थी और यह भारत का प्रमुख व्यापारिक केंद्र था। इसका व्यापारिक संबंध ईरान और अरब देशों से था जो समुद्री मार्ग द्वारा संपन्न होता था। एक विवरण के अनुसार राय करण द्वितीय के प्रधानमंत्री ने अलाउद्दीन खिलजी को गुजरात पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया था, क्योंकि राय कर्ण ने उसकी अनुपस्थिति में उसकी पत्नी को अपने नियंत्रण में ले लिया था। अलाउद्दीन खिलजी ने अपने दो योग्य सेनापतियों उलूग खॉं और नुसरत खॉं को गुजरात के विरुद्ध एक अभियान का नेतृत्व करने का आदेश दिया। उलूग खॉ ने सिंध से प्रस्थान किया और मार्ग में जैसलमेर को लूटा और उस पर विजय प्राप्त की। अहमदाबाद के निकट राजा राय कर्ण ने उस का मुकाबला किया लेकिन पराजित हुआ, वह अपनी पुत्री देवल देवी के साथ भागकर देवगिरी के शासक रामचंद्र देव के यहां शरण ली। राजा राय कर्ण की पत्नी कमला देवी को बंदी बना लिया गया। उसे दिल्ली लाया गया जहॉं अलाउद्दीन ने विवाह कर उसे अपनी पत्नी बना लिया। आक्रमणकारियों ने सूरत समेत गुजरात के अन्य कई प्रमुख नगरों और सोमनाथ मंदिर को लूटा। राजधानी अन्हिलवाडा पर आक्रमण किया गया और खंभात में हिंदू और मुसलमान जनता को भी नहीं बख्शा गया।
खंभात बंदरगाह के आक्रमण के दौरान ही नुसरत खॉ को एक हिंदू हिजडा दास के रुप में प्राप्त हुआ जिसका नाम मलिक काफूर रखा गया। इसे 1000 स्वर्ण दिनारों में खरीदा गया था इसलिए यह ‘हजार दिनारी‘ भी कहा जाता था। कालान्तर में मलिक काफूर ने अलाउद्दीन के दक्षिण अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और यह अलाउद्दीन खिलजी के दक्षिण अभियान का प्रमुख सेनापति था।
मलिक काफूर गुजरात (कैंबे) का रहने वाला था मलिक काफूर को अलाउद्दीन ने अपना मलिक नायब और वजीर नियुक्त किया था। मलिक काफूर को “ताज-उल-मुल्क काफूरी” की उपाधि प्राप्त थी। गुजरात को जीतने के बाद इसे दिल्ली सल्तनत का प्रांत बना दिया गया और अलप खॉं को यहां का सूबेदार नियुक्त किया गया।
रणथम्भौर अभियान-
अलाउद्दीन के रणथम्बौर आक्रमण का उल्लेख जोधराज के हम्मीर रासो और नयन चंद्र सूरी रचित हंबीर महाकाव्य में मिलता है। रणथम्बौर राजपूतों का सुदृढ़ गढ़ था यद्यपि कुतुबुद्दीन ऐबक और इल्तुतमिश ने इसे जीत लिया था लेकिन पुनः राजपूतों ने यहॉ अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी। अलाउद्दीन के आक्रमण के समय रणथम्बौर पर चौहान वंशी राजा हम्मीर देव का शासन था। अलाउद्दीन द्वारा रणथम्बौर पर आक्रमण करने का प्रमुख कारण हम्मीर देव द्वारा अलाउद्दीन के विरोधी नव मुस्लिमों (मंगोल सेनापति मुहम्मद शाह और केहब्रु) को अपने यहां शरण देना था। 1299 ईस्वी में अलाउद्दीन ने उलूग खॉ और नुसरत खॉं के नेतृत्व में एक सैन्य अभियान भेजा। झायन पर अधिकार करने के पश्चात उन्होंने रणथम्बौर के निकट अपना शिविर लगाया। किले की घेराबंदी की गतिविधियों के निरीक्षण के दौरान गोफन द्वारा फेंके गए एक पत्थर से नुसरत खां की मृत्यु हो गई। इस घटना के बाद तुर्क सेना में खलबली मच गई स्थिति का लाभ उठाते हुए हम्मीर देव ने उलूग खॉ पर आक्रमण किया जिसमें उलूग खॉ पराजित हुआ। तत्पश्चात अलाउद्दीन ने 1300 ईसवीं ने रणथम्बौर के दुर्ग का घेरा डाला, लंबे समय तक घेरा डालने के बावजूद भी सुल्तान इस पर अधिकार नहीं कर सका। अंत में उसने हम्मीर देव के एक मंत्री रणमल को प्रलोभन देकर अपनी और मिला लिया। इस प्रकार रणमल और रतिपाल की धृष्टता के कारण अलाउद्दीन खिलजी 1301 में रणथम्बौर के किले पर अधिकार करने में सफल हुआ। हम्मीर देव और उसके शरण में आए नव मुसलमानों की हत्या कर दी गई। इस युद्ध में नव मुस्लिम मंगोलों ने हम्मीर देव के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अलाउद्दीन के विरुद्ध युद्ध लड़ा और वीरगति को प्राप्त हुए।
राजपूत स्त्रियों ने हम्मीर देव की पटरानी रंग देवी के नेतृत्व में जल जौहर कर लिया। राजस्थान में प्रथम जौहर रणथम्बौर के किले में हुआ जो कि जल जौहर हुआ था। इस जोहर का पहला वर्णन फारसी साहित्य में है। रणथम्बौर अभियान के दौरान अलाउद्दीन खिलजी के साथ गये प्रसिद्ध कवि अमीर खुसरों ने अपनी एक प्रसिद्ध काव्य रचना ‘खजाइन-उल-फुतुह‘ में रणथंबोर के किले में किए गए जौहर अनुष्ठानों का उल्लेख किया है।
चित्तौड़ अभियान-
अलाउद्दीन खिलजी का सबसे प्रसिद्ध अभियान चित्तौड अभियान माना जाता है। चित्तौड़ मेवाड़ की राजधानी थी और यहां पर गुहिलोत वंश के राजपूतों का शासन था। उस समय वहां का शासक राणा रतनसिह था। जनवरी 1303 ईस्वी में अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया और लगभग आठ माह तक किले की घेरेबन्दी की गई। अमीर खुसरो अलाउद्दीन के चित्तौड़ अभियान में उसके साथ था। चित्तौड़ के किले के बारे में अमीर खुसरो ने मत व्यक्त किया है कि – हिंदुओं का स्वर्ग सातवें स्वर्ग से भी ऊंचा है। अलाउद्दीन का चित्तौड़ अभियान उसके प्रसारवादी नीति का ही परिणाम था।
मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत से ज्ञात होता है कि अलाउद्दीन खिलजी ने संभवतः राणा रतन सिंह की अनुपम सुंदर और विदुषी पत्नी पद्मिनी को प्राप्त करने के लिए यह अभियान किया था किंतु यह एक साहित्यिक सत्य हैं। पद्मिनी की कहानी के विषय में विद्वानों में मतभेद है। डॉक्टर गौरीशंकर ओझा, डॉक्टर बी0 पी0 सक्सेना और डॉक्टर के0 एस0 लाल इस कहानी की सत्यता में विश्वास नहीं करते हैं।
वस्तुत चित्तौड़ का सामरिक महत्व था इसीलिए अलाउद्दीन खिलजी इसे प्राप्त करना चाहता था। जब अलाउद्दीन ने 1303 ईस्वी में चित्तौड़ पर आक्रमण किया और किले का घेरा डाला तो राजा रतन सिंह ने 7 माह तक बहादुरी से उसका मुकाबला किया किन्तु अंत में अगस्त 1303 ईस्वी को किले पर अलाउद्दीन का अधिकार हो गया। राजपूत प्रमाणो के अनुसार राजा रतन सिंह युद्ध में लड़ता हुआ मारा गया और राजपूत स्त्रियों ने रानी पद्मिनी के साथ जौहर कर लिया। यह जौहर चित्तौड़ का पहला साका कहलाया। किंतु इसामी और अमीर खुसरो ने लिखा है कि राणा रतन सिंह ने अपनी पराजय के पश्चात आत्म समर्पण कर दिया और अलाउद्दीन की शरण में चला गया।
अमीर खुसरो जो इस अभियान में अलाउद्दीन के साथ था चित्तौड़ की घेराबंदी का विस्तार से वर्णन किया है, उसके अनुसार अलाउद्दीन के आदेश से किले में शरण लिए हुए 30000 सैनिकों का संहार कर दिया गया। चित्तौड़ विजय के बाद अलाउद्दीन ने यहां का शासन प्रबंध अपने ज्येष्ठ पुत्र खिज्र खॉ को सौंप दिया और उसके नाम पर चित्तौड़ का नाम खिज्राबाद कर दिया। लेकिन राजपूतों के दबाव के कारण 1311 ई0 में खिज्र खां को चित्तौड़ छोड़ने पर विवश होना पड़ा। ऐसी स्थिति में अलाउद्दीन ने अपने एक मित्र राजपूत सरदार मुछाला मालदेव को चित्तौड़ का प्रतिनिधि शासक नियुक्त किया। लेकिन राजपूतों ने मालदेव को अपने शासक के रूप में स्वीकार नहीं किया और रतन सिंह के वंशज हम्मीर देव ने मालदेव को निरंतर परेशान किया। मालदेव ने उसे संतुष्ट करने के लिए अपनी एक पुत्री का विवाह उसके साथ किया परन्तु इसके बाद भी हम्मीर देव का चित्तौड़ जीतने का प्रयास जारी रहा और अंत में 1321 में मालदेव की मृत्यु के पश्चात उसने चित्तौड़ और संपूर्ण मेवाड़ पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात चित्तौड़ स्वतंत्र हो गया।
रानी पद्मिनी की कथा-
पद्मिनी की कथा का मुख्य आधार 1540 ईस्वी में मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा लिखित काव्य ग्रंथ पद्मावत है।पद्मिनी सिंहल द्वीप के राजा गंधर्व सेन की पुत्री और राणा रतन सिंह की अत्यंत सुंदर पत्नी थी। रानी पद्मिनी के पास हीरामन नामक एक तोता था जो मानव की भाषा में बोलता था। इसी तोते ने रतन सिंह को पद्मिनी की सुंदरता का बखान किया था और 12 वर्ष के इंतजार के बाद राजा रतन सिंह ने पद्मिनी से विवाह किया। पद्मावती के अनुसार अलाउद्दीन का चित्तौड़ पर आक्रमण करने का प्रमुख कारण पद्मिनी को प्राप्त करना था। अलाउद्दीन खिलजी को रानी पद्मिनी की सुंदरता का बखान राघव चेतन ने किया था। राघव चेतन जादू टोने को जानने वाला एक ब्राह्मण था जिसे रतन सिंह के द्वारा दरबार से निकाल दिया गया था। जब अलाउद्दीन ने चित्तौड़ के किले का घेरा डाला था तब उसने यह शर्त रखी कि यदि वह पद्मिनी की एक झलक देख लेगा तो वह वापस चला जाएगा।राणा रतन सिंह ने यह शर्त स्वीकार कर ली, अलाउद्दीन को किले में लाया गया और एक दर्पण के द्वारा उसे रानी पद्मिनी की झलक दिखाई गई। पद्मिनी की झलक देखकर अलाउद्दीन को उसे पाने की इच्छा और बढ़ गई। जब राणा रतन सिंह और उसके सैनिक अलाउद्दीन को किले के बाद छोड़ने आए तो अलाउद्दीन के सैनिकों द्वारा उन्हें बंदी बना लिया गया। अलाउद्दीन ने राणा रतन सिंह को छोड़ने के बदले में रानी पद्मिनी का हाथ मांगा। राजपूतों ने भी अलाउद्दीन के छल का प्रयुक्तर छल से देने का निश्चय किया। पद्मिनी ने यह संदेश भेजा कि वह अपने सेवकों के साथ आ रही है 700 पालकियॉ जिनमे वीर राजपूत सैनिक बैठे हुए थे सुल्तान के शिविर में पहुंचे और यह बताया गया कि उनमें रानी के पहरेदार है। अलाउद्दीन धोखा खा गया राजपूत सैनिक अचानक आक्रमण कर राणा रतन सिंह और रानी पद्मिनी को लेकर चित्तौड़ पहुंच गए। गोरा और बादल ने चित्तौड़ दुर्ग के द्वार पर आक्रांताओं का सामना किया लेकिन दिल्ली की सेनाओं के विरुद्ध अधिक समय तक नहीं टिक सके। गोरा और बादल राणा रतन सिंह के दो प्रसिद्ध सेनानायक थे। इसके पश्चात राणा रतन सिंह ने कुंभलगढ़ के शासक देवपाल पर आक्रमण किया जिसने उसकी अनुपस्थिति में पद्मिनी को प्राप्त करने का प्रयत्न किया था। इस युद्ध में देवपाल मारा गया लेकिन राणा रतन सिंह घायल हो गया और कुछ समय पश्चात उसकी मृत्यु हो गई, उसकी चिता के साथ रानी पद्मिनी ने भी सोलह सौ महिलाओं के साथ मिलकर जौहर कर लिया।
आधुनिक इतिहासकार आर्शीवादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार – यद्यपि इस सम्बन्ध में अनेक घटनाएॅ कल्पित है परन्तु काव्य का मुख्य कथानक सत्य प्रतीत होता है। डा0 सत्या राय और डा0 ईश्वरी प्रसाद अलाउद्दीन के चरित्र की कामुकता और हिन्दू स्त्रियों को प्राप्त करने की इच्छा के कारण इस कहानी के आधार को सत्य मानने की संभावना प्रकट करते है। अन्त में यह कहा जा सकता है कि इस कहानी को पूर्णतया असत्य कहकर टाल देना उचित नही है यद्यपि ऐतिहासिक तथ्य इसे अभी तक प्रमाणित करने में असमर्थ रहे है।
मालवा अभियान-
1305 ईस्वी में अलाउद्दीन ने मुल्तान के सूबेदार आईन-उल-मुल्क को मालवा पर आक्रमण करने के लिए भेजा। उस समय में मालवा का शासक महलकदेव था। हरनंद महलकदेव का सेनापति था जो एक योग्य राजनीतिज्ञ और कुशल योद्धा था। आईनुल-मुल्क ने महलकदेव को पराजित किया इसी युद्ध में उसका सेनापति हरनंद मारा गया। महलकदेव भागकर मांडू चला गया।आईनुल-मुल्क ने मांडू पर चढ़ाई की और इस युद्ध में महलकदेव मारा गया। 1305 ईस्वी में मालवा के किले पर आईनुल- मुल्क का अधिकार हो गया। तत्पश्चात उसने उज्जैन, धार और चंदेरी को जीत लिया। मालवा को दिल्ली राज्य में शामिल कर आईनुल-मुल्क को विजय क्षेत्रों का सूबेदार नियुक्त किया गया।
सिवाना और जालौर अभियान-
कान्हड़ देव जालौर के चौहान शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली था। अलाउद्दीन खिलजी की सेना के गुजरात आक्रमण के समय रास्ता देने को लेकर कान्हड ़देव और अलाउद्दीन खिलजी के मध्य विरोध बढ़ गया था। 1305 ई0 में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने अपने सेनानायक आईनुल मुल्क मुल्तानी को ससैन्य जालौर में भेजा था। वह कान्हड़देव को समझा-बुझाकर दिल्ली ले आया। दिल्ली दरबार का वातावरण उसके स्वाभिमान की विरुद्ध था। फरिश्ता के अनुसार सुल्तान ने हिंदू शासकों की शक्ति को चुनौती दी, जिसे कान्हड़ देव सहन नहीं कर सका और जालौर लौट कर युद्ध की तैयारी करने लगा। इसी बीच 1308 ईस्वी में सुल्तान ने जालौर के शक्तिशाली किले सिवाना पर अधिकार कर लिया। इस समय यहां का शासक परमार राजपूत शीतल देव था। सिवाना आक्रमण के समय अलाउद्दीन कि सेना लंबे संघर्ष के उपरांत पर भी इस पर अधिकार नहीं कर पायी, तो अलाउद्दीन स्वयं सिवाना आया और उसने राजद्रोही भावले की सहायता से दुर्ग के जल स्रोत में गौ रक्त मिलवा दिया। इस प्रकार एक कड़े संघर्ष के बाद शीतल देव युद्ध में पराजित हुआ और मारा गया। सिवाना दुर्ग का नाम खैराबाद रखा गया और कमालुद्दीन गुर्ग को वहां का प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया गया।
जालौर अभियान-
जालौर अभियान अलाउद्दीन का उत्तर भारत में अंतिम अभियान था। वहां का शासक चौहानवंशीय शासक कान्हड़ देव एक साहसी और महान योद्धा था। 1305 में कान्हड़देव ने अलाउद्दीन खिलजी की अधीनता स्वीकार कर ली थी। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि अलाउद्दीन का जालौर पर आक्रमण करने का मुख्य कारण कान्हड़ देव के पुत्र वीरमदेव द्वारा अलाउद्दीन की पुत्री फिरोजा से प्रेम करने के बावजूद विवाह के लिए मना कर देना था।
इस कारण अलाउद्दीन ने 1308-09 में जालौर के विरुद्ध अभियान प्रारंभ किया। इस कड़ी में पहला आक्रमण सिवाना दुर्ग पर किया गया था। अलाउद्दीन खिलजी स्वयं जालौर पहुंचा और जालौर दुर्ग की जिम्मेदारी कमालुद्दीन को सौंपी गई
इससे पूर्व 1311 ईस्वी में अलाउद्दीन ने अपनी दासी गुलबहिश्त से उत्पन्न पुत्र मलिक शाहीन के नेतृत्व में कान्हणदेव के विरुद्ध एक सेना भेजी। इस युद्ध में गुलबहीश्त भी सेना के साथ जालौर गई लेकिन बुखार के कारण उसकी मृत्यु हो गई। मलिक शाहीन युद्ध में पराजित हुआ और मारा गया अंत में अलाउद्दीन ने कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी। कमालुद्दीन ने जालौर को जीत लिया और युद्धक्षेत्र में ही कान्हड़ देव मारा गया। उसके सभी सम्बन्धियों का कत्ल कर दिया गया और केवल उसका एक संबंधी मालदेव जीवित बच सका जिसने अलाउद्दीन को प्रसन्न करके चित्तौड की सूबेदारी प्राप्त की थी। अलाउद्दीन ने जालौर को जीतकर उसका नाम बदलकर जलालाबाद कर दिया और इस आक्रमण के उपरांत अलाउद्दीन ने जालौर के किले में एक मस्जिद (अलाई तोपखाने) का निर्माण करवाया।
जालौर की विजय ने अलाउद्दीन खिलजी के राजस्थान की विजय को पूर्ण कर दिया। यद्यपि अलाउद्दीन की राजस्थान की विजय अत्यन्त अस्थिर थी और अलाउद्दीन के सूबेदारों को निरन्तर राजस्थान में राजपूतों से मुकाबला करना पडा। परन्तु फिर भी अलाउद्दीन का उद्देश्य पूरा हो गया। वस्तुतः राजस्थान की विजय उसकी साम्राज्यवादी नीति और विजय योजना की एक कडी थी। राजस्थान के सुदृढ किले उसके अधिकार में हो गये तथा गुजरात और दक्षिण-भारत के मार्गो पर उसका आधिपत्य हो गया।
मंगोल आक्रमण और उत्तर पश्चिम सीमा नीति –
सल्तनत काल में मंगोलों का सर्वाधिक आक्रमण अलाउद्दीन खिलजी के काल में हुआ। वास्तव में मंगोल इस बात से चिड़े हुए थे कि उसने जलालुद्दीन की हत्या कर गद्दी प्राप्त की थी जबकि जलालुद्दीन ने मंगोलों को दिल्ली में बसाया था। अलाउद्दीन खिलजी के दो सेनापतियों उलूग खॉ और जफर खॉ ने मंगोलों के विरुद्ध युद्ध में भाग लिआ और इनमें से जफर खॉं मारा भी गया। अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में मंगोलों का पहला आक्रमण 1297-98 ईसवी में ट्रांसआक्सियाना के शासक दावा खां के सेनापति कादिर खां ने किया। अलाउद्दीन ने मंगोलों के नियमित हमलों का सामना करने के लिए सीमावर्ती किलों और दिल्ली के किलों के मरम्मत के अलावा कुछ नए किलां का निर्माण भी कराया। उसने मंगोल आक्रमण से दिल्ली की रक्षा के लिए सीरी नगर की स्थापना की और उसमें सीरी दुर्ग का निर्माण किया। इन समस्त किलों को योग्य और कुशल अधिकारियों के अंतर्गत रखा गया। सुरक्षा की पहली पॅंक्ति के रुप में बडे पैमाने की मोर्चाबंदी की गई, खाईयॉ खुदवाई गई और शहरी दिवारों का निर्माण करवाया गया। हथियारों के निर्माण के लिए नए कारखाने स्थापित किए गए और दीपालपुर ,समाना और मुल्तान में सेना की तैनात की गई। अलाउद्दीन का सौभाग्य यह था कि उसे नुसरत खॉ, उलूग खॉ, अलक खॉ, जफर खां और मलिक काफूर जैसे योग्य सेनानायकों की स्वामी भक्ति प्राप्त थी जिसके दम पर उसने मंगोलों को बुरी तरह परास्त किया।
प्रथम आक्रमण-
अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में पहला मंगोल आक्रमण 1297-98 ईस्वी में ट्रांसआक्सियाना के शासक दावा खां के सेनापति कादिर खान ने किया। अलाउद्दीन खिलजी ने मंगोलों को रोकने के लिए अपने दो सेनापति उलूग खॉ और जफर खां के अधीन फौजे भेजी थी। दोनों सेनाओं के मध्य लाहौर और अमृतसर के बीच क्षेत्र के निकट युद्ध हुआ जिसमें मंगोल पराजित हुए। इस युद्ध में लगभग 20 हजार मंगोल मारे गए बड़ी संख्या में मंगोल स्त्रियां और बच्चों को गुलाम बनाकर दिल्ली भेज दिया गया।
दूसरा आक्रमण-
दूसरा मंगोल आक्रमण 1299 ईस्वी में सल्दी के नेतृत्व में हुआ जब उलूग खॉ और नुसरत खांॅं गुजरात अभियान में व्यस्त थे। सल्दी के नेतृत्व में मंगोल सिन्ध के उत्तरी-पश्चिमी भाग तक आ गये और उन्होने सिबिस्तान के किलों पर अधिकार कर लिया। अलाउद्दीन खिलजी ने जफर खां को आक्रमणकारियों का सामना करने के लिए भेजा। उसने मंगोलों को पराजित कर सिबिस्तान के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। सल्दी और अनेक स्त्री पुरुष को बंदी बनाकर दिल्ली भेजा गया। एक प्रकार से जफर खां की इस विजय ने नुसरत ख़ां और उलूग खॉ की गुजरात विजय की यश को भुला दिया। जफर खां की इस विजय से अलाउद्दीन उसकी ओर से आशंकित रहने लगा अलाउद्दीन का भाई उलूग खॉ भी इस से ईर्ष्या करने लगा था।
तीसरा आक्रमण-
अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में मंगोलों का तीसरा आक्रमण 1299 ईस्वी के अंत में हुआ। यह अभियान दवा खां ने अपने पुत्र कुतलुग ख्वाजा के नेतृत्व में भेजा था जिसका उद्देश्य सल्दी खा की पराजय और उसका मृत्यु का बदला लेना था। अलाउद्दीन के पास इस आक्रमण की कोई पूर्व सूचना नहीं थी परिणामस्वरुप मंगोल खिलजी की राजधानी सीरी के पड़ोस में किली तक पहुंचने में सफल हो गए। ऐसी स्थिति में दिल्ली के कोतवाल अलाउलमुल्क ने अलाउद्दीन को कूटनीति का मार्ग अपनाने और यदि संभव हो तो मंगोलों को चुपचाप लौट जाने का प्रलोभन देने की सलाह दी क्योंकि सुल्तान की सेना में अधिकांशतः हिंदुस्तानी सैनिक थे। वह केवल हिंदुओं के साथ युद्ध किए थे, मंगोलों के साथ युद्ध का उन्हें अनुभव नहीं था। लेकिन सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने अलाउलमुल्क के इस सुझाव को ठुकरा दिया उसने अपने विश्वास पात्र सेनानायकों नुसरत खां, उलूख खॉ, जफर खां और अकत खां को साथ लेकर युद्ध का निश्चय किया। स्वयं सुल्तान और नुसरत खॉ सेना के मध्य भाग में, उलूग खॉ बाम पक्ष पर और जफर खां दाहीने पक्ष पर था। जफर खां ने मंगोलों के प्रति आक्रमक नीति अपनाते हुए उन पर प्रहार करना प्रारंभ कर दिया। इस युद्ध में मंगोलों का बुरी तरह से कत्ल किया गया और अन्ततः मंगोल सेना पराजित हो कर भागने लगी। जफर खां ने 18 कोस तक उनका पीछा किया लेकिन वापस लौटते समय तार्गी के नेतृत्व में मंगोलों ने उसे घेर लिया। अलाउद्दीन की तरफ से उसकी रक्षा हेतु कोई सहायता नहीं पहुंची, फलस्वरुप जफर खॉ मारा गया। जफर खां के शौर्य से मंगोल इतने भयभीत हुए कि उन्होने वापस जाने का फेसला कर लिया। इस प्रकार अलाउद्दीन के लिए यह दोहरी विजय थी, एक तरफ शक्ति शाली मंगोलों की पराजय के साथ दूसरी तरफ जफर खॉ का अंत।
चौथा आक्रमण-
मंगोलों का चौथा आक्रमण 1303 ईस्वी में तार्गी के नेतृत्व में हुआ था। उस समय अलाउद्दीन चित्तौड़ अभियान से वापस लौटा था और उसकी सेना अपर्याप्त और दुर्बल स्थिति में थी। मंगोल नेता तार्गी ने अपनी सेना के साथ अत्यंत द्रुतगति से दिल्ली पर आक्रमण किया। अलाउद्दीन इस समय मंगोलों से युद्ध की स्थिति में नहीं था इसलिए उसने सीरी किले में अपनी सुरक्षा का प्रबंध किया। मंगोल अधिक समय तक भारत में नहीं टिक सके और अंततः दो माह के घेरे के पश्चात सीरी के दुर्ग को जीतने में असफल रहने के कारण वह वापस चले गए। तार्गी के नेतृत्व में हुए आक्रमण के पश्चात अलाउद्दीन सचेत हो गया और मंगोल समस्या का स्थाई हल ढूंढने का प्रयास करने लगा।
उसने सीरी के किले को दृढ किया, दिल्ली के किले की मरम्मत कराई, सीरी को अपनी राजधानी बनाया, उत्तर पश्चिम में स्थित किलो की मरम्मत कराई और कुछ नवीन किलो का निर्माण कराया। किलो में स्थाई सेना रखी और सीमांत प्रदेशों की रक्षा के लिए पृथक सेना और एक सूबेदार की नियुक्ति की गई।
पॉंचवा आक्रमण-
मंगोलों का पांचवा आक्रमण 1305 ईस्वी में अली बेग व तातार्क के नेतृत्व में हुआ था। उन से मुकाबला करने के लिए अलाउद्दीन ने मलिक नायब को नियुक्त किया। इस संघर्ष में अली बेग व तातार्क को बंदी बना लिया गया और बाद में दोनों का कत्ल कर दिया गया। इस विजय ने भारत में मगोलों की अजेयता के गौरव को नष्ट कर दिया।
छठाँ और अंतिम आक्रमण-
मंगोलो ने अलीबेग व तातार्क की हार का बदला लेने के लिए 1306 ईस्वी में तीन सेनापतियों के नेतृत्व में एक सैन्य दल भारत भेजा। यह अलाउद्दीन के समय का अंतिम मंगोल आक्रमण था। पहले दल का नेतृत्व काबुक ने तथा दूसरे और तीसरे दल का नेतृत्व इकबाल मंद और ताइ-बू ने किया। काबुक के अधीन सेना मुल्तान होती हुई रावी नदी की ओर बढ़ी और इकबाल मंद और ताइ-बू के नेतृत्व में नागौर की तरफ बढ़ी। अलाउद्दीन ने मलिक काफूर और गाजी मलिक तुगलक को इस बार मंगोलों का सामना करने के लिए भेजा था। मलिक काफूर ने काबुक को रावी नदी के तट पर पराजित कर बंदी बना लिया, तत्पश्चात नागौर की ओर बढ़ा और मंगोलों पर अचानक हमला किया। मंगोल पराजित हो कर भाग गए। बहुत से युद्ध बंदियों के साथ मलिक काफूर दिल्ली पहुंचा और युद्ध बंदियों को हाथी के नीचे कुचल कर मार डाला गया और उनके सिर बदायूं फाटक के सामने स्तंभ में चिनवा दिए गए।
मंगोलों की इस हार का मुख्य कारण-दवा खॉ की मृत्यु थी जिसके कारण चगताई राज्य में गृह युद्ध आरंभ हो गया था। अलाउद्दीन के समय में मंगोलों के सबसे अधिक और सबसे भयंकर आक्रमण हुए लेकिन अलाउद्दीन खिलजी ने मंगोलों के विरुद्ध रक्षात्मक नीति का अनुसरण करने के स्थान पर आक्रामक नीति अपनाई जिसके फलस्वरुप उसने मंगोलों को पराजित करने में सफलता प्राप्त की।
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