Introduction (विषय प्रवेश)
भारत के मुस्लिम शासकों में अलाउद्दीन खिलजी पहला सुल्तान था जिसने दक्षिण विजय की योजना बनाई। उसके पूर्व कोई भी सुल्तान दक्षिण भारत के विजय के विषय में सोच नहीं सका क्योंकि उन्हे उत्तर भारत से ही फुर्सत नही मिली। उत्तर भारत के राजाओं में दक्षिण भारत को जीतने की लालसा प्राचीन काल से चली आ रही थी और यह चक्रवर्ती सम्राट के लिए आवश्यक था। मध्यकाल में दक्षिण भारत के विजय की योजना अलाउद्दीन खिलजी ने ही बनाई थी। दक्षिण के गवर्नर के रुप में कार्य करते हुए वहॉ की भौगोलिक स्थिती, परिस्थितीयॉ और राजनीतिक स्थिती की जानकारी उसे थी जिसका उपयोग उसने अपने दक्षिण अभियान के अन्तर्गत किया। अलाउद्दीन खिलजी के दक्षिण अभियान के मुख्यतः दो उद्देश्य बताये जा सकते है –
- साम्राज्य विस्तार की भावना और
- दक्षिण भारत से सम्पति, धन तथा वैभव की प्राप्ति।
अलाउद्दीन खिलजी की दक्षिण नीति की मुख्य विशेषता यह थी कि उसने दक्षिण के राज्यों को जीतकर वहॉ अपना प्रत्यक्ष शासन प्रारंभ नही किया अपितु वहॉ के स्थानीय शासकों द्वारा अधीनता स्वीकार कर लेने और वार्षिक कर भेजने का वादा करने पर उन्हे शासन के लिए स्वतन्त्र कर देता था। अलाउद्दीन खिलजी की यह नीति उत्तर भारत की नीति से पूर्णतया भिन्न थी। वास्तव में दिल्ली में रहकर इतने दूर के प्रदेशों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण बनाये रखना असंभव था इसलिए उसकी यह नीति पूर्णतः समयानुकूल और व्यवहारिक थी। इतिहासकारों ने अलाउद्दीन खिलजी की इस दक्षिण नीति की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
अलाउद्दीन खिलजी के अभियानों के समय दक्षिण भारत चार सम्पन्न हिन्दू राज्यों में विभक्त था :
- देवगिरि का यादव वंश
- वारंगल का काकतीय वंश
- द्वारसमुद्र का होयसल वंश और
मदुरा का पाण्ड्य वंश
देवगिरि का राज्य विन्ध्य पर्वत के दक्षिण में अवस्थित था जो अपनी धन-सम्पदा, सम्पन्नता और समृद्धि के लिए विख्यात था। अलाउद्दीन खिलजी के समय यहॉ यादव वंश का राजा रामचन्द्र देव शासन कर रहा था। देवगिरि राज्य के दक्षिण-पूर्व से समुद्र तट के क्षेत्र तक तेलांगना राज्य स्थित था जिसकी राजधानी वारंगल थी और यहॉ काकतीय वंश के शासक प्रताप रूद्र देव का शासन था। विदेशी व्यापार के कारण यह राज्य सोने-चॉदी से सम्पन्न था। तेलांगना राज्य के दक्षिण-पश्चिम और देवगिरि के दक्षिण में होयसलों का राज्य अवस्थित था जिसकी राजधानी द्वारसमुद्र थी। अलाउद्दीन खिलजी के समकालीन यहॉ का शासक बल्लाल तृतीय था। यह राज्य भी अपनी धन-सम्पदा और वैभव के लिए प्रसिद्ध था। सुदूर दक्षिण में पाण्ड्यों का राज्य था जिसकी राजधानी मदुरा थी। अलाउद्दीन खिलजी का समकालीन शासक कुलशेखर एक योग्य और प्रतिभावान शासक था।
इस समय दक्षिण भारत की राजनीतिक स्थिती दयनीय थी क्योंकि यहॉ के हिन्दू राज्यों और उनके शासकों में एकता, संगठन और सहयोग का नितान्त अभाव था और वे पारस्परिक वैमनस्य, द्वेष, ईर्ष्या आदि से ग्रस्त थे। चारों प्रमुख राज्यों के बीच निरन्तर संघर्ष होते रहते थे और हर राजा दूसरे को नीचा दिखाने की अवसर में लगा रहता था। यही कारण है कि अलाउद्दीन खिलजी को इन राज्यों पर विजय प्राप्त करने में कोई कठिनाई नही हुई। एक अन्य उल्लेखनीय बात यह थी कि दक्षिण भारत के ये राज्य विदेशी आक्रमणकारियों के लूटमार से सुरक्षित थे और हजारों वर्षो से यहॉ के राजा तथा प्रजा अपना धन एकत्रित करते चले आये। विदेशी व्यापारियों और अनेक यात्रियों ने दक्षिण भारत की इस अपार धन सम्पदा का उल्लेख अपने विवरणों में किया है। दक्षिण की इस अपार धन सम्पति के आकर्षण ने अलाउद्दीन खिलजी को इस समृद्ध भूमि पर विनाशकारी अभियान के लिए प्रेरणा दी। अलाउद्दीन खिलजी ही वह पहला सुल्तान था जिसने 1296 ई0 में दक्षिण के इन राज्यों पर अपने अभियान की शुरुआत की।
देवगिरि का प्रथम आक्रमण, 1296 ई0
अलाउद्दीन खिलजी ने सर्वप्रथम 1296 ई0 में दक्षिण के देवगिरि राज्य पर आक्रमण किया था जब वह कडा का सूबेदार था। इतिहासकार बरनी के अनुसार अलाउद्दीन अपनी पत्नी और सास से मनमुटाव हो जाने के कारण अपने लिए उचित स्थान की तलाश में विन्ध्य पर्वत पार करने के लिए बाध्य हुआ। वह अपने कुछ सैनिकों और विश्वस्तों के साथ देवगिरि से 12 मील दूर अवस्थित एलिचपुर पहुॅचा जहॉ उसका सामना देवगिरि के सीमारक्षक और युद्धकला में निपुड दो महिलाओं से हुआ जिन्होने शत्रु सेना का डटकर सामना किया। अलाउद्दीन ने यह युद्ध जीत लिया लेकिन इससे देवगिरि के निवासी और वहॉ का राजा रामचन्द्र देव अत्यन्त भयभीत हो गये। रामचन्द्र देव इस अकस्मात आक्रमण से चिन्तित हो उठा और अपनी सेना के साथ किले में चला गया। अलाउद्दीन की सेना ने जनता को जी भर कर लूटा और यह अफवाह फेला दी कि उसके पीछे बहुत बडी सेना मदद के लिए आ रही है। रामचन्द्र देव ने अपनी रक्षा का कोई उपाय न देखकर सन्धि करने के लिए दूत भेजे। अलाउद्दीन ने परिस्थिती को भापते हुए सन्धि कर लेना ही उचित समझा और क्षतिपूर्ति के रुप में बहुत सारा धन लेकर लौट जाने का वचन दिया। ठीक इसी समय रामचन्द्र देव का पुत्र सिंहण देव लौट आया और उसने युद्ध करने का निश्चय किया। इस प्रकार अलाउद्दीन सिंहण देव का सामना करने के लिए नुसरत खॉ की देखरेख में किले को छोडकर आगे बढा। पीछे से नुसरत खॉ ने अपने सुल्तान की सहायता हेतु प्रस्थान किया जिसे देखकर देवगिरि की सेना ने यह सोचा कि सुल्तान की सहायता के लिए दिल्ली की विशाल सेना आ गई है। अतः वे भयभीत होकर रणक्षेत्र से भाग खडे हुये। अलाउद्दीन ने नगर के व्यापारियों और नागरिकों को निर्दयता से लूटा। इन परिस्थितीयों में रामचन्द्र देव ने पुनः सन्धि की प्रार्थना की। इस बार पहले से अधिक कठोर शर्तो के साथ दोनों के मघ्य सन्धि सम्पन्न हुई और रामचन्द्र देव ने वार्षिक कर देने का भी वादा किया।
इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार – सन्धि की शर्तो में 6 सौ मन सोना, 7 मन मोती, 2 मन लाल, नीलम, हीरे, पन्ने, 1 हजार मन चॉदी और 4 हजार थान रेशम और अन्य वस्तुएॅ सम्मिलित थी।
देवगिरि का दूसरा अभियान, 1307 ई0 –
देवगिरि के प्रथम अभियान के दौरान रामचन्द्र देव ने प्रतिवर्ष कर देने का वादा किया था लेकिन 1205-06 में यह वार्षिक कर दिल्ली नही भेजा गया। संभवतः उसने मंगोलों तथा राजपूतों के साथ अलाउद्दीन की व्यस्तता का लाभ उठाया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इसके लिए उसका पुत्र सिंहण देव उत्तरदायी था। कारण कुछ भी रहा हो अलाउद्दीन इस आर्थिक हानि को स्वीकार करने के लिए तैयार नही था और उसने मलिक काफूर के नेतृत्व में एक सेना देवगिरि पर आक्रमण करने के लिए भेजा। गुजरात के सूबेदार अलप खॉ को अपनी सेनाएॅ लेकर उसकी सहायता करने के आदेश दिये गये।
इस समय जब मलिक काफूर दक्षिण की विजय पर जा रहा था, अलाउद्दीन की पत्नी कमलादेवी ने अपनी एकमात्र जीवित पुत्री देवलरानी से मिलने की इच्छा प्रकट की। इस कारण अलाउद्दीन ने काफूर को देवलरानी को अपने पिता से छीनकर दिल्ली लाने की आज्ञा दी। उल्लेखनीय है कि गुजरात के राजा करन सिंह ने देवगिरि के शासक रामचन्द्र देव के यहॉ शरण ले रखी थी जिसने बगलाना का प्रदेश उसे स्वतन्त्र रुप से शासन करने के लिए दे दिया था।
मालवा को पार करता हुआ काफूर सुल्तानपुर पहुॅचा जहॉ राजा करण सिंह ने अपनी पुत्री को काफूर को देने से इन्कार कर दिया। राजा करण सिंह को समाप्त करने का दायित्व अलप खॉ को सौप कर मलिक काफूर देवगिरि की ओर बढा। इसी बीच राजा करन सिंह ने रामचन्द्र देव के पुत्र सिंहण देव से अपनी पुत्री देवलरानी का विवाह कर उसे देवगिरि भेज दिया। अलप खॉ ने राजा करन सिंह को पराजित कर उसे देवगिरि की ओर भागने के लिए बाध्य कर दिया। पीछा करते हुए अचानक उसके सैनिकों को देवलरानी का काफिला मिल गया। अलप खॉ ने देवलरानी को दिल्ली भेज दिया जहॉ उसका विवाह अलाउद्दीन के शहजादा खिज्रखॉ से कर दिया गया।
मलिक काफूर सम्पूर्ण मार्ग में लूटपाट करता हुआ देवगिरि पहुॅचा और उसने युद्ध में रामचन्द्र देव को पराजित किया। उसका पुत्र सिंहण देव युद्ध से बच कर भाग निकला। अन्ततः रामचन्द्र देव ने आत्मसमर्पण कर दिया। एक बार पुनः देवगिरि को लूटा गया और अपार धन सम्पदा के साथ-साथ मलिक काफूर रामचन्द्र देव के साथ दिल्ली पहुॅचा। सुल्तान अलाउद्दीन ने रामचन्द्र देव के साथ उदारता का व्यवहार करते हुये उसे गुजरात में नवसारी की जागीर और एक लाख टंके भी भेंट किये। उसे ‘रायराखान‘ की उपाधि से विभूषित किया गया। इस प्रकार रामचन्द्र देव दिल्ली में लगभग 6 महीने तक ठहरने के पश्चात वापस अपने राज्य आ सका। वस्तुत इस उदारता का उद्देश्य भविष्य में दक्षिण के अभियानों में निष्ठावान मित्र प्राप्त करना था। देवगिरि के शासकों की पराजय ने दक्षिण के अन्य हिन्दू राजाओं की पराधीनता का मार्ग प्रशस्त कर दिया। डा0 सत्या राय के शब्दों में – ‘‘निःसन्देह देवगिरि दक्षिण और सुदूर दक्षिण में अलाउद्दीन खिलजी के सैनिक अभियानों का आधार बना।‘‘
तेलंगाना पर आक्रमण, 1309 ई0 –
देवगिरि के अभियान की सफलता ने अलाउद्दीन को तेलंगाना पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया। अलाउद्दीन के आदेश पर मलिक काफूर ने नवम्बर 1309 ई0 में तेलंगाना और वारंगल के शासक पर आक्रमण करने के लिए प्रस्थान किया। दिसम्बर के महीने तक काफूर की सेनाएॅ देवगिरि पहुॅच गई। काफूर को सुल्तान का आदेश था कि यदि राय अपने कोष और रत्नों को देने तथा अगले वर्ष भी धन देने के लिए तैयार हो जाय, तो वह शर्तो को स्वीकार कर ले। इस अभियान में देवगिरि के राजा ने काफूर और उसके सैनिकों की भरपूर मदद की। उसने कुछ चुने हुए सैनिक साथ लगा दिये जो स्थानीय मार्गो से परिचित थे। स्थान-स्थान पर बाजार खुलवा दिये गये जिससे सैनिकों की दैनिक आवश्यकताएॅ प्राप्त हो सके। मार्ग में अनेक स्थानों को लूटती हुई काफूर की सेनाएॅ जनवरी 1310 ई0 में तेलंगाना की राजधानी वारंगल पहुॅच गई। यद्यपि वारंगल का दुर्ग अमीर खुसरों की दृष्टि में इतना अभेद्य था कि इस्पात का भाला भी इसको छेद नही सकता था लेकिन शासक प्रताप रूद्रदेव अधिक समय तक अपनी रक्षा नही कर सका और उसने सन्धि की इच्छा प्रकट की। काफूर सन्धि के लिये तैयार हो गया और इस प्रकार बरनी के अनुसार प्रताप रूद्रदेव ने उसे 100 हाथी, 7000 घोडे तथा अनेक मूल्यवान बस्तुएॅ और अतुल धनराशी प्रदान की। इतिहासकार खाफी खॉ का मानना है कि इन मूल्यवान पत्थरों में ‘कोहिनूर हीरा‘ भी था जो मलिक काफूर द्वारा दक्षिण से दिल्ली लाया गया था। लूट से प्राप्त माल को काफूर एक हजार ऊॅटों पर लादकर देवगिरि से दिल्ली लाया गया।
द्वारसमुद्र की विजय, 1310 ई0 –
देवगिरी और तेलंगाना की सफलताओं ने अलाउद्दीन की महत्वकांक्षा को बढ़ा दिया था फलस्वरुप अब वह सुदूर दक्षिण तक अपनी सैनिक गतिविधियों का विस्तार करना चाह रहा था। इस उद्देश्य से उसने 1310 ई0 में मलिक काफूर को द्वार समुंद्र अभियान के लिए भेजा। वैसे भी अबतक मलिक काफूर दक्षिणी क्षेत्र से भली-भॉति परिचित हो चुका था और उसने द्वारसमुद्र और माबर प्रदेश की धन सम्पन्नता की जानकारी प्राप्त कर ली थी। होयसलों और यादवों के बीच उन दिनों संघर्ष जारी था और वे एक-दूसरे के विनाश के लिए उतावले थे। अतः देवगिरी के राजा रामचंद्र देव ने अपने सेनापति पारस देव को काफूर की सहायता के लिए भेजा। बरनी और फरिश्ता के अनुसार रामचन्द्र देव उस समय मर चुका था और उसके पुत्र सिंहण देव ने सुल्तान की सेना को सहायता दी थी जबकि अमीर खुसरों और इसामी स्वीकार करते है कि रामचन्द्र देव जीवित था। उस समय वीर बल्लाल तृतीय अपने पड़ोसी राज्य मदुरा पर आक्रमण में व्यस्त था। परिस्थिति का लाभ उठाकर मलिक काफूर ने द्वार समुद्र पर चढ़ाई कर दी इस आक्रमण की घटना सुनकर वीर बल्लाल राजधानी लौट कर आया लेकिन वह द्वार समुद्र की रक्षा नहीं कर सका बाध्य होकर उसे संधि करनी पड़ी। उसने मलिक काफर को अनेक बहुमूल्य उपहार दिये और अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार करते हुए वार्षिक कर देना स्वीकार किया। सन्धि की शर्ते तय हो जाने पर मलिक काफूर ने माबर प्रदेश के मार्ग की जानकारी भी प्राप्त की।
मदुरा पर आक्रमण, 1311 ई0
होयसल राज्य से मुक्त होकर मलिक काफूर ने पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण की तैयारी प्रारंभ की। उस समय वहां दो भाइयों सुंदर पांड्य और वीर पांड्य के मध्य उत्तराधिकार के लिए संघर्ष चल रहा था। कहा जाता है कि सुंदर पांड्य ने वीर पांड्य के विरुद्ध अलाउद्दीन से मदद मांगी थी। अलाउद्दीन के लिए यह स्वर्णिम अवसर था और उसने तत्काल मलिक काफूर को मदुरा पर आक्रमण करने के लिए भेजा। लगभग एक वर्ष की यात्रा के बाद मलिक काफूर ने 1311 ई0 में पांड्य राज्य की सीमा में प्रवेश किया और वीर पांड्य के प्रमुख स्थान वीर धूल पर आक्रमण किया लेकिन वीर पांड्य यहां से जा चुका था। यहां से लूटमार कर मलिक काफूर कुण्डूर पहुंचा जहां उसे खजाना और 120 हाथी मिले, लेकिन वीर पांड्य यहां से भी जा चुका था। तत्पश्चात उसने आधुनिक चिदंबरम पर आक्रमण किया और लिंग महादेव के सोने के मंदिर को लूटा। यहां से उसने पांड्य राज्य की राजधानी मदुरा पर आक्रमण किया और अपार संपत्ति को लूटा और रामेश्वर के मंदिर को नष्ट करवाकर मस्जिद बनाई गई। वीर पांड्य को पकड़ने के लिए मलिक काफूर के सभी प्रयत्न असफल रहे। इस कारण पांड्य राज्य ने अलाउद्दीन की अधीनता को स्वीकार नहीं किया और मदुरा के खिलाफ सैनिक अभियान राजनीतिक दृष्टि से असफल रहा। लेकिन आर्थिक दृष्टि से यह आक्रमण मलिक काफूर का सबसे सफल आक्रमण था। अप्रैल 1311 ई0 में मलिक काफूर अपार संपत्ति के साथ उत्तर भारत पहुंचा।
देवगिरी का तृतीय अभियान, 1312-13 ई0 –
मलिक काफूर का दक्षिण में अंतिम अभियान देवगिरी के विरुद्ध था। 1312 ई0 में राम चंद्र देव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र सिंहण देव गद्दी पर बैठा। गद्दी पर बैठते ही उसने अलाउद्दीन की अधीनता को अस्वीकार कर दिया और वार्षिक कर देना बन्द कर दिया। उसकी मंगेतर देवलरानी के छिन जाने से भी उसके हृदय में शत्रुता की आग धधक रही थी। अतः 1313 ई0 में उसे दंड देने के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने मलिक काफूर को भेजा। शंकर देव ने मलिक काफूर का मुकाबला किया लेकिन युद्ध में मारा गया। देवगिरी का अधिकांश भाग दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया। दिल्ली में अलाउद्दीन खिलजी की मलिका-ए-जहां और उसका भाई अलप खां काफूर के प्रभाव को कम करने का प्रयत्न कर रहे थे, इस कारण मलिक काफूर देवगिरी में ही रहकर स्वयं शासन करने का विचार करने लगा। उसने तेलंगाना और होयसल राज्यों का कुछ भाग सीधे अपने शासन में मिला लिया था और वहां शासन प्रबंध की देखरेख करने लगा लेकिन 1314 ईस्वी में यादव राजवंश के ही एक सदस्य हरपाल देव को वहा का शासन सौंपकर 1315 ई. में अलाउद्दीन की बीमारी का समाचार सुनकर मलिक काफूर दिल्ली लौट आया।
दक्षिण नीति –
दक्षिण राज्यों पर विजय प्राप्त करके सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने समस्त भारत को कम से कम एक राजनीतिक सूत्र में बॉध दिया। इस दृष्टि से वह पहला सुल्तान था जिसने विजय के बाद यह नवीन कार्य सम्पादित किया। उसके शासनकाल से दक्षिण में होने वाले उस नाटक का प्रारंभ हुआ जो औरंगजेब के शासनकाल तक चलता रहा। 1296 ई0 में जब देवगिरि पर अलाउद्दीन ने पहली बार आक्रमण किया तब उसका लक्ष केवल धन प्राप्त करना था। यह धन कहीं और भी मिल सकता था परन्तु जिस सुविधा के साथ दक्षिण के राज्यों में धन मिलना संभव हुआ उतना कही और से मिलना दुर्लभ था। दक्षिण के क्षेत्र अपार धन सम्पदा के केन्द्र थे और वह इस सम्पूर्ण एकत्रित सम्पति के अपहरण का इच्छुक था। दक्षिण में शाही सेना की सफलता का मुख्य कारण यही था कि दक्षिण भारत के हिन्दू राज्य भी आपस में निरन्तर संघर्ष करते रहते थे। उनमें इतनी राजनीतिक समझ नही थी कि वे अपने हित और रक्षा के लिए किसी बाह्य शत्रु के विरुद्ध संगठित हो जाय। वे तो अपने ही पडोसी राजा के विरुद्ध सहायता देने को तत्पर थे। इसके अतिरिक्त शाही सेना का सुसंगठित और सुसज्जित होना भी इन हिन्दू राजाओं की पराजय का एक प्रमुख कारण था। तुर्की सेना निश्चित रुप से सैन्य बल और युद्ध कला में दक्षिणी सेनाओं से अधिक योग्य और कुशल थी। अलाउद्दीन खिलजी विन्ध्य के पार के प्रदेशों को दिल्ली सल्तनत में मिलाने का कदापि इच्छुक नही रहा, उसके दक्षिण अभियान तो मात्र धन-प्राप्ति के साधन थे।
दक्षिण विजय का स्वरुप –
अलाउद्दीन खिलजी की दक्षिण विजय का स्वरुप प्राचीन भारतीय सम्राटों की दिग्विजय के समान था। वह दक्षिण राज्यों को जीतकर वहॉ की जनता पर प्रत्यक्ष रुप से शासन करने की इच्छा नही रखता था। वह भली-भॉति जानता था कि दक्षिण के इन राज्यों को साम्राज्य में मिलाकर उसपर नियंत्रण रखना संभव नही होगा। मुख्य रुप से दक्षिण की भौगोलिक स्थिती, यातायात के साधनों का अभाव, दिल्ली से दक्षिण की दूरी और दक्षिण में हिन्दुओं की प्रधानता और प्रभाव इन सभी समस्याओं के कारण दक्षिण के विजित प्रदेशों को दिल्ली सल्तनत में नही मिलाया गया। अलाउद्दीन ने केवल इन राज्यों को करद राज्य के रुप में विकसित किया। उसकी एकमात्र इच्छा थी कि दक्षिण के राज्य उसकी अधीनता स्वीकार कर ले और नियमित रुप से उसे कर देते रहे। इन राज्यों को साम्राज्य में विलय करना दिल्ली सल्तनत के लिए सिरदर्द ही होता। कालान्तर में मुहम्मद बिन तुगलक की कठिनाईयों ने भी प्रमाणित कर दिया कि दक्षिण को सल्तनत में सम्मिलित करना किसी भी दशा में सुरक्षित नही था।
इस दक्षिण विजय से उत्तरी भारत में काफी धन आ गया और राजकोष इतना समृद्ध हो गया कि अलाउद्दीन के उत्तराधिकारियों को भारी आर्थिक संकट का सामना नही करना पडा। इसी धन से सुल्तान ने अपनी निरंकुशता को सुदृढ किया और अनेक योजनाओं को कार्यान्वित किया। दक्षिण की इस अपार सफलता ने अलाउद्दीन खिलजी की सफलता, प्रतिष्ठा और गौरव को उज्जवल बनाया। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि इन निरन्तर अभियानों और विजयों से दक्षिण में मुस्लिम जनसंख्या में वृद्धि हुई और इस्लाम धर्म अपनाया जाने लगा जिसके फलस्वरुप मुस्लिम सभ्यता और संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ। इस प्रकार अलाउद्दीन ने एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की।
खिलजी वंश का अन्त-
अथक परिश्रम और बढती हुई आयु ने अलाउद्दीन के शरीर और बुद्धि को नष्ट करना आरंभ कर दिया था। उसकी सन्देह के कारण धीरे-धीरे सभी योग्य सरदार उससे दूर होते गये। यहॉ तक कि उसके अपने पुत्र और पत्नी भी उससे दूर होते गये। मलिक काफूर ने सत्ता प्राप्ति के लालच में उसके इस सन्देह को और गहरा कर दिया। धीरे-धीरे राजदरबार गुटबाजी और षडयंत्रों का स्थल बन गया और कई सरदारों ने विद्रोह कर दिया। इन्ही विषम परिस्थितीयों में जनवरी 1316 ई0 में अलाउद्दीन खिलजी का देहान्त हुआ। उसके पश्चात कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी दिल्ली सल्तनत का उत्तराधिकारी बना। अलाउद्दीन के मरते ही सत्ता प्राप्त करने हेतु राज्य में आंतरिक अशान्ति और षडयन्त्रों का दौर प्रारंभ हुआ। इतिहासकारों का मत है कि कुतुबुद्दीन मुबारक सुल्तान की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल भोग विलास में लिप्त हो गया। उसे नग्न स्त्री-पुरुषों की संगत पसन्द थी। वह अत्यधिक शराब पीने लगा और स्त्रियों के वस्त्र पहनकर दरबार में आने लगा। दरबार में स्त्रियों, वेश्याओं और चाटुकारों का प्रभाव हो गया। एक प्रकार से विलासिता और दम्भ ने उसके बुद्धि और विवेक को नष्ट कर दिया। इन्ही परिस्थितीयों में नासिरुद्दीन खुसरो शाह ने उसकी हत्या कर राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। मात्र 04 माह के शासन के बाद गाजी मलिक ने उसका वध कर अन्ततः खिलजी वंश के भग्नावशेषों पर 1320 ई0 में एक नये वंश की नींव डाली जिसे मध्यकालीन भारत के इतिहास में ‘तुगलक वंश‘ के नाम से जाना जाता है।