Introduction (विषय-प्रवेश)
दिल्ली पर शासन करनेवाले तुर्क राजवंशों में तुगलक वंश, अंतिम महत्वपूर्ण राजवंश था और यह दिल्ली सल्तनत के इतिहास में विशिष्ट महत्व रखता है। इस काल में सल्तनत का चरम विस्तार भी हुआ और इसका विघटन भी प्रारंभ हुआ, निरंकुश राजतंत्र की परम्परा कमजोर पड़ी और कल्याणकारी शासन का प्रारम्भ हुआ, धार्मिक सहिष्णुता की नीति का सर्वप्रथम कार्यान्वयन हुआ और धार्मिक कट्टरता का प्रदर्शन भी हुआ। इन सबके अतिरिक्त कुछ महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक सुधार भी लागू हुए। इन विविध और कभी परस्पर विरोधी विशेषताओं के कारण भी थे। अलाउद्दीन की नीतियों ने दिल्ली सल्तनत को साम्राज्यवादी विस्तार की दिशा में अग्रसर कर दिया था। तुगलक शासकों को इसी नयी परिस्थिति और इसमें निहित चुनौतियों का सामना करना था। इसी क्रम में उनके द्वारा यह विभिन्न उपाय किये गये, किन्तु यह उपाय बहुत सफल सिद्ध नहीं हुए और साम्राज्य को बचाना संभव नहीं हो सका।
गियासुद्दीन तुगलक (1320-24)
खुसरो शाह के लज्जास्पद अथवा निन्दनीय शासन का अन्त करके गाजी तुगलक ने गियासुद्दीन तुगलक शाह के नाम से दिल्ली के सिंहासन पर 1320 में अधिकार कर लिया। यहॉ यह उल्लेखनीय है कि ‘तुगलक‘ शब्द किसी जनजाति या कुल का नाम नही था, अपितु यह गियासुद्दीन तुगलक का व्यक्तिगत नाम था। तुगलक सुल्तान करौना तुर्क जनजाति के थे, जो कि तुर्को और मंगोलों की एक मिश्रित जनजाति थी। उसके राज्यारोहण का सामान्यतः स्वागत किया गया था और उसे प्रभावशाली वर्गों का समर्थन भी मिला। सिंहासन पर अधिकार करने के पश्चात् गाजी तुगलक ने गियासुद्दीन तुगलक शाह की पदवी धारण की और अगले पाँच वर्षों तक उसने दिल्ली पर शासन किया। गियासुद्दीन तुगलक को जो सल्तनत प्राप्त हुई, वह विस्तृत होने के कारण समस्याओं से भरी हुई थी और उसके समक्ष कई समस्याएँ थीं। सिंहासन पर उसका कोई प्रत्यक्ष दावा नहीं था और उसके सत्तारूढ़ होने का विरोध हो सकता था। प्रान्तों में विद्रोह हो रहे थे। सिंध पर नाममात्र का नियंत्रण रह गया था और यहॉ के गवर्नर ने केन्द्रीय गडबडी का लाभ उठाकर थट्टा और सिन्ध के निचले भाग पर कब्जा कर लिया था। गुजरात में भी उपद्रव हो रहे थे और बंगाल की स्वामिभक्ति भी संदेहास्पद थी। राजपूतों द्वारा भी अपनी शक्ति का विस्तार किया जा रहा था और जालौर, चित्तौड और नागौर में राजपूतों ने अपनी शक्ति बढा ली थी जबकि दक्षिण में भी अशांति और उपद्रव का वातावरण था क्योंकि मुबारक खिलजी ने देवगिरि और तेलंगाना पर सीधा नियंत्रण करके इस्लामी शासन लागू कर दिया था। खुसरो शाह द्वारा राजकोष का धन अपने समर्थकों और सामन्तों के बीच बाँटने से वित्तीय संकट भी उत्पन्न हो गया था। गियासुद्दीन ने इन सभी समस्याओं का समुचित समाधान करने के लिए उपाय किए। सर्वप्रथम, उसने अपने सत्तारूढ़ होने की औपचारिक पुष्टि सामंतों से प्राप्त की। इससे उसकी सत्ता को वैधानिक आधार प्राप्त हुआ। उसके राज्यारोहण का स्वागत सामान्यतः उलेमावर्ग ने भी किया। इससे सामंतों के विरोध की संभावना पर नियंत्रण प्राप्त हुआ, और गियासुद्दीन की सत्ता को वैधानिक स्वीकृति भी मिली जिससे उसकी सत्ता सुदृढ़ हुई। परन्तु इससे सामंतों और उलेमा जैसे शक्तिशाली वर्गों के राजनैतिक प्रभाव में भी वृद्धि हुई और निरंकुश राजतंत्र की परम्परा कमजोर पड़ी।
प्रशासनिक एवं आर्थिक सुधार :
गयासुद्दीन ने सारी स्थिति का जायजा लेकर कुछ प्रशासनिक तथा आर्थिक सुधार किए। बरनी के अनुसार सुल्तान ने वह कार्य कुछ दिनों में कर दिखाया जो दूसरे सुल्तानों ने वर्षों में किया था। इन सुधारों से राजनीतिक प्रतिष्ठा, शांति तथा समृद्धि की भावना फिर जाग उठी। लोगों को ऐसा लगने लगा जैसे अलाउद्दीन खलजी वापस आ गया हो। सुल्तान गयासुद्दीन ने उन सबसे उस धन-राशि को वापस खजाने में जमा कराने के लिए कहा जो खुसरो खाँ ने मनमाने रूप से उन्हें दी थी। यहाँ तक कि दिल्ली के प्रसिद्ध सफ़ी संत निजामददीन औलिया को भी पैसा लौटाने के लिए कहा गया जो उन्हें धार्मिक अनुदान के स्प में खसरो खाँ के समय में दिया गया था। उस घटना के कारण सूफी संत तथा सुल्तान में काफी मन-मुटाव चलता रहा। कुछ समय बाद ग़यासुद्दीन को बंगाल में विद्रोह को दबाने के लिए लखनौती जाना पड़ा। वापसी पर यह प्रश्न दुबारा उठ सकता था किंतु इससे पहले ही सुल्तान के लिए दिल्ली दूर हो गई थी।
ग़यासुद्दीन अलाउद्दीन खलजी द्वारा लागू की गई भूमि-लगान तथा मंडी-संबंधी नीति के पक्ष में नहीं था। अलाउद्दीन के शासनकाल की कठोरता के विपरीत उसने उदारता की नीति अपनाई जिसे बरनी ने “रस्मेमियाना“ अथवा मध्यपंथी नीति कहा है। इस दृष्टि से वह बल्बन के सिद्धांतों के करीब था। सुल्तान की आर्थिक नीति का आधार संयम, सख्ती और नर्मी के बीच संतुलन ( रस्म-ए-मियाना) स्थापित करना था। उसने भू-मापीकरण के अलाउद्दीन खिलजी की प्रथा को बन्द कर दिया। वह पहला शासक था जिसने सिचाई के लिए नहरों के निर्माण की योजना बनाई तथा सूखे की स्थिती में किसानों की सहायता के लिए उसने अकाल नीति बनाई। मध्यवर्ती जमींदारों, विशेष रूप से मुकद्दम तथा खूतों को उनके पुराने अधिकार लौटा दिए गए तथा उनको वही स्थिति प्रदान की गई जो उन्हें बल्बन के समय प्राप्त थी। उनको लगान वसूली के लिए उचित जमींदाराना शुल्क दिया गया तथा उन्हें निश्चित लगान से अधिक वसूली तथा अत्याचार करने के लिए मनाही कर दी गई। उनसे कहा गया कि वे किसानों को अधिक उपज के लिए प्रोत्साहन दें ताकि अधिक लगान मिल सके और सरकार की आर्थिक स्थिति भी सुधर सके। लगान निश्चित करने में बटाई का प्रयोग फिर से प्रारंभ कर दिया गया। किसानों का ध्यान रखते हुए लगान में कटौती की गई। बटाई द्वारा किसान को उपज पर लगान देना पड़ता था इससे फसल के बरबाद होने पर अथवा अकाल या बाढ़ आने पर उसे अधिक हानि नहीं उठानी पड़ती थी। उस समय में लगान की कितनी दर निश्चित की गई थी, इतिहासकारों में इस पर पर्याप्त विवाद जारी है। बरनी के अनुसार सुल्तान ने आज्ञा दी थी कि दीवानी अफसर उपज का 1/10 या 1/11 हिस्सा लगान के लिए निश्चित करें जबकि परम्परागत दर 1/5 चल रही थी जो अलाउद्दीन के समय में 1/2 हो गई थी तथा जिसे मुबारक खिलजी ने मम करके शायद फिर 1/5 कर दिया था। यह विश्वास करना कठिन है कि ग़यासुद्दीन 1/10 या 1/11 दर से कैसे आर्थिंक संकट दूर कर सकता था। बरनी एक और स्थान पर बताता कि 1/10 या 1/11 दर चालू लगान पर बढ़ोतरी (ेनतबींतहम) के रूप में थी जो उचित प्रतीत होती है। ऐसा भी हो सकता है कि कृषि-संबंधी सुधारों में जहाँ-जहाँ उपज बढती हो उसके अनुरूप लगान में थोड़ी-थोड़ी बढ़ोतरी कर दी जाती हो ताकि सरकार की आय बढ़ सके तथा इसके साथ-साथ किसान पर भी अधिक बोझ न पड़े। इरफान हबीब के अनुसार, उसने मध्यस्थ भूमिपतियों को किसान से लगान के अतिरिक्त सभी दूसरे कर वसूलने से रोक दिया। उसने अमीरों अथवा इक्तादारों द्वारा लगान वसूली में ठेकेदारी की कुरीति पर रोक लगाई और उनके द्वारा लगान वसूली में प्राप्त आमदनी का लेखा-जोखा नियमित रूप से लिया जाने लगा। “फवाजिल“ या अतिरिक्त आमदनी को इक्तादारों द्वारा केन्द्रीय कोष में जमा करने के उपाय किए गए। सुल्तान ने एक नियमावली भी जारी की जिसके अनुसार मुक्ताओं अथवा गवर्नरों को लगान वसूली में किसानों पर अत्याचार नहीं करने देना चाहिए। परिणाम यह हुआ कि इस संतुलित नीति से अक्तादारों, जमींदारों तथा किसानों में समन्वय स्थापित होता गया।
सुल्तान ने अमीरों द्वारा कृषि के लगान की इजारेदारी (थ्ंतउपदह ेलेजमउ) की भर्त्सना की। प्रत्येक अक्तादार अमीर (जिसको सेना रखने के बदले में अक्ते के लगान से वेतन मिलता था ) अपने खर्चे निकालकर फालतू लगान (फ़वाजिल) खजाने में भेजता था। सुल्तान ने इन मलिको तथा अमीरों के फालतू लगान के 1/10 से 1/15 तक के अंतर को माफ कर दिया किन्तु अधिक अंतर होने पर उन्हें सजा मिलने लगी। अमीरों को पद देने में खानदान के साथ-साथ योग्यता को भी आधार बनाया गया तथा इसी वर्ग से गवर्नरों को चुना जाने लगा ताकि इजारेदारी को समाप्त किया जा सके। उसके हिसाब-किताब पर दीवान-ए-वजारत का नियंत्रण रखा गया। किंतु यहाँ भी बीच वाली नीति अपनाई गई जिसके अनुसार इजारेदारी के लालच मे प्रांतीय गवर्नर जमींदारों तथा किसानों से अधिक न मांग सकें और दीवानी महकमा भी गवर्नरों के प्रति मनमानी न कर सके।
सुल्तान गियासुद्दीन ने सैनिको को आर्थिक दृष्टि से संतुष्ट रखने के लिए अलाउद्दीन खलजी की तरह कोई मंडी-संबंधी सुधार नहीं किया बल्कि उनके हितों की रक्षा के लिए अस्तादारो को निर्देश दिए कि वे किसी सैनिक के उचित वेतन तथा भत्ते का दुरुपयोग न करे। बरनी लिखता है कि सुल्तान सैनिको को अपने बेटो की तरह प्यार करता था। घोड़ो की सरकारी खर्चे पर देखभाल की गई। अलाउद्दीन खलजी द्वरा चलाई गई ’दाग तथा चेहरा प्रथा को प्रभावशाली ढंग तथा उत्साह से लागू किया गया। दो वर्षों के भीतर सेना इस प्रकार सुसंगठित हो गई कि सुल्तान ने दक्षिण में सैनिक अभियान भेजने की योजना बना ली।
सैनिक अभियान –
विद्रोहों की समस्या पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए गियासुद्दीन ने सक्रिय उपाय किए। एक सफल सेनानायक होने के नाते उसे प्रभावशाली सैनिक कारवाइयों की अपेक्षा भी की जा सकती थी। 1321 में उसने अपने पुत्र जौना खाँ को तेलंगाना के विद्रोही शासक प्रताप रूद्रदेव के विरूद्ध अभियान के लिए दक्षिण भेजा। तेलंगाना में रायप्रताप रुद्र देव ने भेट देने से इनकार कर दिया था तथा स्वयं को दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र घोषित कर दिया। सुल्तान ने अपने लड़के जौना खॉ को एक विशाल सेना देकर वारंगल की ओर भेजा। वारंगल दुर्ग को करीब छह महीने तक घेरे रखा गया। और उनकी रसद-पक्ति काट दी गई। किंतु इसी समय गियासुद्दीन की मृत्यु की अफवाह फैल गई और अफसरों ने सांठ-गांठ शुरू कर दी। परिणामस्वस्प जौना खॉं विजय प्राप्त करने से पहले ही वापस देवगिरी लौट गया। अफवाहों को निराधार पाने पर दोषी लोगों को सजा दी गई तथा एक बार फिर 1322 ई0 में दक्षिण के विरुद्ध जौना खॉं के अधीन एक अभियान भेजा गया। इस बार जौना खॉ को सफलता मिली और वारंगल दुर्ग के साथ-साथ दूसरे किले भी जीते गए। हिंदू अफसरों को नहीं हटाया गया पर धार्मिक स्थानों को हानि पहुंचाई गई। यह अवश्य हुआ कि सारे वारंगल क्षेत्र को कई प्रशासनिक इकाइयों में बाँट दिया गया।
तेलंगाना के बाद जाज नगर (उड़ीसा) में सैनिक अभियान भेजा गया क्योंकि यहाँ के राजा ने वारंगल का साथ दिया था। राजामुंदरी के एक अभिलेख में उलुग खॉं (जौना खाँ) की विजय का उल्लेख मिलता है जिसमें उसे दुनिया का खान कहा गया है। ऐसा उल्लेख भी मिलता है कि इसके बाद गुजरात में विद्रोह को दबाया गया। सुल्तान गियासुद्दीन का अंतिम सैनिक अभियान बंगाल में गड़बड़ी को समाप्त करना था। बल्बन के लड़के बुगरा खाँ ने बंगाल को स्वतंत्र राज्य घोषित कर दिया था। उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का संघर्ष होता रहा। बरनी के अनुसार बंगाल के कुछ अमीर सुल्तान के पास प्रार्थना लेकर आए कि वह बंगाल के शासक के अत्याचार को समाप्त करें जिसे गियासुद्दीन ने सहर्ष स्वीकार कर लिया तथा बंगाल को सल्तनत के कड़े नियंत्रण में लाने के लिए दिल्ली में मजलिस-ए-हुक्मरान (Council of Regency) कायम करके पूर्व की ओर चल पड़ा। उसने तिरहुत के रास्ते लखनौती पहुँचकर बंगाल के शासक को पराजित किया। नसीरुद्दीन को लखनौती का पेशकशी (भेंटकर्ता ) शासक बनाया गया जब कि सतगांव व सोनारगाँव अमीर तातार ख़ाँ के नियंत्रण में रखे गए। सिक्कों पर गयासुद्दीन तुग़लुक तथा नए सुल्तान नसीरुद्दीन के नाम लिखाए गए।इस प्रकार बंगाल को जीतकर उसे पुनः दिल्ली सल्तनत में मिला लिया। वापसी के समय उसने उत्तर बिहार के क्षेत्र में प्रवेश किया और मिथिला के कर्नाट शासक को पराजित करते हुए तिरहुत के क्षेत्र को हस्तगत कर लिया। यह पहला अवसर था जब तुर्कों की सत्ता उत्तर बिहार तक विस्तृत हुई और सक्रिय सैनिक कारवाइयों ने राज्य में शांति की पुर्नस्थापना और केन्द्रीय सत्ता की सुदृढ़ता में योगदान दिया।
बंगाल से लौटने पर स्वयं उसके द्वारा निर्मित नई राजधानी तुग़लुक़ाबाद से आठ किलोमीटर की दूरी पर अफ़गानपुर में उसके लड़के जौना खाँ ने स्वागत की तैयारी की थी। स्वागत-समारोह के लिए निर्मित लकड़ी का एक भवन गिरने से फरवरी-मार्च 1325 में सुल्तान रायासुद्दीन की मृत्यु हो गई। तुगलकाबाद में उसने अपने लिए जो कब्र बनवाई थी उसी में उसे दफना दिया गया। सुल्तान की मृत्यु का कारण इतिहासकारों में एक विवादास्पद प्रश्न रहा है। समकालीन ऐतिहासिक सामग्री को पढ़कर यह संदेह किया जाने लगा है कि हो सकता है जौना खाँ ने जानबूझकर भवन का निर्माण अपने बाप को मारने के लिए किया हो। बरनी इस भवन के गिरने का कारण ’बिजली का गिरना’ बताता है जब कि यहया बिन अहमद सरहिंदी लिखता है कि भवन दैवी प्रकोप से गिर गया। मलफूजात (सूफी साहित्य) के अनुसार गयासुद्दीन की मृत्यु का कारण सुल्तान द्वरा शेख निजामुद्दीन औलिया को परेशान करना था। इब्नेबतूता तथा इसामी इसे जौना खाँ का षड़यंत्र मानते है तथा बाद में निजामुद्दीन, अबुलफजल तथा बदायूनी जैसे लेखको ने इन्हीं का अनुकरण करके जौना ख़ाँ को बाप का हत्यारा करार दे दिया है। यद्यपि जिन परिस्थितियों में मृत्यु हुई उससे संदेह होना स्वाभाविक है तथापि इसे हत्या कहने का कोई ठोस प्रमाण हमारे सामने नहीं है क्योंकि मुहम्मद तुग़लुक गद्दी पर बैठा तो उसके अपने परिवार में किसी प्रकार का विरोध नहीं हुआ। उसका अपनी माँ के प्रति प्यार तथा आदर बना रहा। मुहम्मद तुगलक का सदैव परिवार के प्रति स्नेह इस बात का प्रतीक है कि शायद ऐसे षड़यंत्र में उसका हाथ न रहा हो।