window.location = "http://www.yoururl.com"; Alauddin Khalji and His Administrative Reforms | अलाउद्दीन खिलजी और उसके प्रशासकीय सुधार

Alauddin Khalji and His Administrative Reforms | अलाउद्दीन खिलजी और उसके प्रशासकीय सुधार

Introduction (विषय-प्रवेश )

दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों में अलाउद्दीन खिलजी एक सर्वश्रेष्ठ सुल्तान के रूप में जाना जाता है।1296 ई० में जिस समय और जिन परिस्थितियों में वह दिल्ली की राजगद्दी पर आसीन हुआ उसके समक्ष उसकी विश्वसनीयता और एक शासक के रूप में योग्यता साबित करना अत्यन्त कठिन था। अलाउद्दीन खिलजी ने अत्यन्त सूझबूझ, कूटनीति और क्षमता का परिचय देते हुए अनेक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण सफलताएॅं अर्जित की। एक शासक के रूप में अलाउद्दीन खिलजी की दूरदृष्टि और सफलताओं को सभी इतिहासकारों ने स्वीकार किया है। के0 एस0 लाल ने अपनी पुस्तक श्भ्पेजवतल वि जीम ज्ञीपसरपष्ैश् में अलाउद्दीन खिलजी की शासन नीति, विशेष रूप से भू-राजस्व व्यवस्था और बाजार नियंत्रण की भूरि-भूरि प्रशंसा की हैै।
अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था जिसने अनेक नवीन कार्य किये और इस दृष्टि से उसे साहसी सुधारक माना जाता है। उसने पहली बार धर्म पर राज्य का नियंत्रण स्थापित किया। इसके पूर्व उलेमा राजकाज तथा सुल्तान के निर्णयों को अपने हित के अनुरूप तोड-मरोड करते थे परन्तु अलाउद्दीन खिलजी ने कहा कि -‘‘धर्माधिकारियों के अपेक्षा मैं ज्यादा अच्छी तरह से जानता हूॅ कि राज्य के हित में क्या है क्या नही।‘‘
राज्य की आवश्यकताओं को देखते हुए उसने पहली बार स्थायी सेना की नींव डाली। इसके पूर्व के सुल्तानों ने आवश्यकता के समय सेना रखी। अलाउद्दीन खिलजी के नेतृत्व में पहली बार तुर्को का आक्रणण दक्षिण भारत पर हुआ। अर्थात वह पहला सुल्तान था जिसने स्पष्ट दक्षिण विजय की योजना बनाई और एक नीति के अन्तर्गत विजय दर्ज की। अपने नवीन आर्थिक सुधारों की सहायता से अलाउद्दीन खिलजी अपने शासन को स्थायित्व प्रदान करने, आर्थिक रूप से सुदृढ बनाने तथा साम्राज्य विस्तार करने में सफल रहा।

राजनीतिक आदर्श –

जलालुद्दीन की हत्या कर अलाउद्दीन ने दिल्ली की राजगद्दी पर अधिकार किया था। ऐसी स्थिती में उसकी प्रथम समस्या थी कि कैसे हडपे हुए राजत्व को जनता की दृष्टि में उचित सिद्ध किया जाय जिससे वह उस वास्तविक राजत्व के समकक्ष हो जाय जिसके लिए जनता के हृदय में प्रेम, लगाव और भक्ति थी। यह सोचने विचारने के बाद ही अलाउद्दीन के समय में राजत्व के सिद्धान्त का ढॉचा पुनः निर्मित किया गया। वह जलालुद्दीन और कैकुबाद के समान मानवीय प्रवृŸायों पर आधारित राजत्व का समर्थक नही था। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि उसे अपने कार्यो के लिए धार्मिक स्वीकृति प्राप्त करने की आकांक्षा नही थी। वह किसी दैवीय शक्ति पर आधारित राजत्व में नही वरन् ऐसे राजत्व में विश्वास करता था जो स्वयं अपने अस्तित्व द्वारा अपना औचित्य सिद्ध कर सके।
इन समस्त बातों को ध्यान में रखते हुए उस समय के प्रख्यात बुद्धिजीवी अमीर खुसरों ने अलाउद्दीन के लिए राजत्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जिसके अन्तर्गत अलाउद्दीन के राजत्व को न्यायसंगत बनाने और उॅचा उठाने का प्रयत्न किया गया। अमीर खुसरों ने शासक की सर्वोच्च उपलब्धि उसकी विजयों को मानते हुए लिखा है कि -‘‘सूर्य पूर्व से पश्चिम तक धरती को अपनी तलवार की किरणों से आलोकित करता है। उसी प्रकार शासक को भी विजय हासिल करनी चाहिए और उन विजयों को सुरक्षित रखना चाहिए।‘‘ अलाउद्दीन ने अपने राज्यारोहण के बाद निरन्तर विजय प्राप्त की थी जिससे प्रभावित अमीर खुसरों की दृष्टि में वह एक महान विजेता था परन्तु विजेता होने से भी अधिक उसकी महŸा एक कुशल और कर्मठ प्रशासक के रुप में थी। इसी महान गुण ने अलाउद्दीन के राजत्व को महानता देनी चाही। अमीर खुसरों ने कहा – ‘‘उसके युग का विजेता शासक के गुणों में सर्वोत्कृष्ट है अतः न तो कलम और न ही जीभ उसकी शक्ति का वर्णन कर सकती है।‘‘ इस प्रकार अमीर खुसरों ने ईश्वरीय गुणों से समानता देकर अलाउद्दीन के पद को पवित्र और दिव्य बना दिया।
यह कहना उचित होगा कि अलाउद्दीन एक अनुभवी राजनीतिज्ञ था और अपनी समस्याओं को बुद्धिमानी से सुलझाता था। वह राजनीति में धन के महत्व को समझता था और उसे ज्ञात था कि धन एक ऐसी शक्ति है जिसका कोई मुकाबला नही है। उसके पास जो अपार धन था उसका प्रयोग उसने जनता के हृदय को जीतने के लिए किया और धन का उदारतापूर्वक वितरण कर उसने राजत्व को सुरक्षित और संगठित कर लिया। अलाउद्दीन यह जानता था कि उसका राजत्व जनता के स्नेह और भक्ति के बिना संभव नही है। उसे जनता द्वारा राजत्व की वैघानिकता को मान्यता दिलाना भी आवश्यक था। यही कारण है कि अपने पद के स्थायित्व के लिए अलाउद्दीन ने जनमत का समर्थन प्राप्त करना आवश्यक समझा। अलाउद्दीन ने अपने राजत्व को धर्म के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त करने का प्रयास किया और उसे अधिकाधिक धर्मनिरपेक्ष स्वरुप प्रदान किया। उसने पहली बार राज्य द्वारा धर्म पर नियंत्रण स्थापित किया। इससे पूर्व उलेमा राज-काज और सुल्तान के निर्णयों को अपने हित के अनुरुप तोड-मरोड करते थे परन्तु अलाउद्दीन ने कहा कि – धर्माधिकारियों की अपेक्षा मै अच्छी तरह जानता हूॅ कि राज्य के हित में क्या है और क्या नही। धन के वितरण व जनहित के कार्यो से उसने अपने पद को स्थायित्व तथा शक्ति प्रदान की और वह उसकी वैधानिकता स्थापित करने में सफल रहा।

अलाउद्दीन की योजना-

जनता का समर्थन प्राप्त करने के बाद उसने आंतरिक क्षेत्र में अपने सभी प्रतिद्वन्दियों को समाप्त कर दिया। तत्पश्चात उसने मंगोलों की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया और उनकी शक्ति को पूर्णत समाप्त किया। उसके बाद उसने एक के बाद एक महत्वपूर्ण विजय हासिल की। इन विजयों, अपार धन की प्राप्ति और सशक्त सेनाओं के फलस्वरुप अलाउद्दीन स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने लगा। वह अपनी सफलता, शक्ति और अहंकार से प्रेरित असाधारण और सनक भरी योजनाएॅ बनाने लगा। इन योजनाओं में उसकी दो योजना का उल्लेख किया जाना आवश्यक है –
उसकी प्रथम योजना थी एक नवीन धर्म की स्थापना करना जिससे पैगम्बर के समान भावी पीढीयॉं उसका नाम ले सके। उसे विश्वास था कि अपनी भुजाओं और अपने स्वामीभक्त सेवकों के बल पर वह एक धर्म की स्थापना कर सकता है जो उसकी मृत्यु के बाद भी उन्नति करता जाएगा। वैसे भी धर्म और राजनीति का निकट का सम्बन्ध होता है। संभवतः इसी कारण अलाउद्दीन ने यह चाहा कि वह सांसारिक तथा आध्यात्मिक दोनों शक्तियों में सर्वोच्च स्थिती प्राप्त करे। वस्तुतः उसकी यह योजना केवल अपने नाम को अमर बनाने और कीर्ति प्राप्त करने की लालसा से प्रेरित था। इस सन्दर्भ में उसने अपने घनिष्ठ साथियों से वार्ता भी की और दिल्ली के कोतवाल अलाउलमुल्क ने सुल्तान को बताया कि धर्म ईश्वरीय ज्ञान का मामला है जिसे मानवीय ज्ञान के आधार पर प्रतिपादित नही किया जा सकता। चंगेज खॉ के उदाहरण से दिल्ली के कोतवाल ने यह समझाने का प्रयास किया कि शक्ति के आधार पर धर्म की स्थापना नही हो सकती है। उसने यह भी कहा कि यदि लोग सुनेंगे कि सुल्तान उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने का विचार कर रहा है तो जनता उसकी भक्ति से विमुख हो सकती है। कोतवाल के परामर्श का उसके उपर सकारात्मक प्रभाव पडा और अलाउद्दीन ने अपना यह विचार त्याग दिया।
अलाउद्दीन खिलजी की दूसरी प्रमुख योजना थी सिकन्दर के समान अपनी विजय पताका दूर-दूर तक फैलाना। दिल्ली में अपने प्रतिनिधि छोडकर स्वयं अभियान का नेतृत्व करने और सिकन्दर के समान पूर्व तथा पश्चिम को अपने अधीन करने की योजना बनाने लगा। यहॉ तक कि उसने अपने सिक्कों पर ‘द्वितीय सिकन्दर‘ उत्कीण करवाया और सार्वजनिक प्रार्थनाओं में स्वयं को द्वितीय सिकन्दर घोषित किया। इस योजना के सन्दर्भ में भी दिल्ली के कोतवाल ने अलाउद्दीन को परामर्श दिया कि उसकी विश्वविजय की योजना प्रशंसनीय अवश्य है किन्तु व्यवहारिक नही। दिल्ली के कोतवाल ने कहा कि परिस्थितीयॉ जितनी सिकन्दर के समय अनुकूल थी, उतनी अनुकूल परिस्थितीयॉ आज नही है क्योंकि दिल्ली सल्तनत यूनानी साम्राज्य के समान सुदृढ नींव पर आधारित नही है। सिकन्दर के पास अरस्तू जैसा योग्य सलाहकार था परन्तु अलाउद्दीन के पास ऐसा कोई व्यक्ति नही है जो उसकी अनुपस्थिती में शासन कार्यो की देखभाल कर सके। दिल्ली के कोतवाल ने परामर्श दिया कि उसे पहले भारत के स्वतन्त्र राज्यों को जीतना चाहिए और मंगोल आक्रमण से दिल्ली सल्तनत की सुरक्षा की ओर ध्यान देना चाहिए। जब यह कार्य पूर्ण हो जाय तब उसे देश से बाहर साम्राज्य-विस्तार के बारे में सोचना चाहिए। अलाउलमुल्क की इस सलाह से अलाउद्दीन प्रभावित हुआ और उसने इस योजना की अव्यवहारिकता को समझ लिया।

अलाउद्दीन के महत्वपूर्ण कार्य-

अलाउद्दीन ने अपना ध्यान राज्य को शक्तिशाली बनाने पर केन्द्रित किया। सर्वप्रथम उसने महसूस किया कि उसके राज्य में बार-बार विद्रोह हो रहे है जिससे दिल्ली सल्तनत में अशान्ति की स्थिती उत्पन्न हो जाती है। उसने स्थिती को समझकर विद्रोहों का कारण ढूॅढने और उसका उन्मूलन करने का निश्चय किया। इस सन्दर्भ में अपने विश्वस्त अनुचरों से विचार विमर्श के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुॅचा कि राज्य में व्याप्त अशान्ति के चार आधारभूत कारण है-

  1. सुल्तान ने अपनी प्रजा की सदैव उपेक्षा की है और उनके भले-बुरे कार्यो के बारे में जानने की चिन्ता नही की है।
  2. शराब पीना और शराब की दावते करना, जिसके कारण विभिन्न व्यक्ति एक दूसरे के निकट आते है तथा उन्हे षडयन्त्र अथवा विद्रोह करने के लिए प्रेरणा मिलती है।
  3. सरदारों और मलिकों में परस्पर एकता, साहचर्य, वैवाहिक सम्बन्ध और मेल-मिलाप के फलस्वरुप यदि उनमें से कोई एक संकट में रहता है तो अन्य सभी अपनी रिश्तेदारी और लगाव के कारण उनके सहयोगी बन जाते है।
  4. धन का संचय लोगों को अवज्ञाकारी, निष्ठाहीन, उदण्ड और अहंकारी बना देता है और वे विद्रोह करने पर उतारु हो जाते है।

इन कारणों को जानने और समझने के पश्चात अलाउद्दीन ने अमीर वर्ग के दमन के उपाय किये और विद्रोहों को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित चार अध्यादेश जारी किये –

  1. एक अध्यादेश के द्वारा दान में दी गई भूमि, उपहार, पेन्शन आदि व्यक्ति से छीन लिए गये और सरकारी अधिकारियों को सभी व्यक्तियों से अधिकाधिक कर और धन लेने के आदेश दिये गये। इसका परिणाम यह हुआ कि अब व्यक्तियों के पास धन विल्कुल भी नही रह गया और उनका ध्यान मुख्यतया जीविका कमाने में लग गया।
  2. दूसरे अघ्यादेश के द्वारा अलाउद्दीन ने एक कुशल गुप्तचर प्रणाली का संगठन किया। गुप्तचरों के भय से अमीर अपने घरों में कॉपते थे और दरबार में भी संकेतो अथवा फुसफुसाकर ही बात करते थे। उसने अपने गुप्तचरों को हर जगह नियुक्त कर दिया जो सुल्तान को प्रत्येक घटना की जानकारी देते थे।
  3. तीसरे अध्यादेश के द्वारा अलाउद्दीन ने दिल्ली में मद्यनिषेध कर दिया। उसने स्वयं भी शराब पीना छोड दिया और अमीरों को मद्यपान करने पर कठोर दण्ड दिये। जुआ खेलने और भॉग के सेवन पर भी प्रतिबन्ध लगा दिये गये। इस प्रकार अमीरों के बीच होने वाले मेल-जोल पर उसने पूरी तरह से पाबंदी लगा दी।
  4. चौथे अध्यादेश के द्वारा अलाउद्दीन ने अमीरों और सरदारों की दावतों, पारस्परिक मेल-जोल और विवाह-सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। उनपर तीन शर्ते लगा दी गई- सुल्तान अमीर के धन का उŸाराधिकारी होगा, अमीरों के यहॉ कोई भी विवाह सुल्तान की आज्ञा के बिना संम्पन्न नही होगा और अमीरों के बाद उनके पुत्र सुल्तान के दास होंगे।

इस प्रकार सुल्तान अलाउद्दीन ने अमीरों का पूर्णतः दमन कर स्वयं को एक दृढ निरंकुश शासक बना लिया। अलाउद्दीन की दृष्टि में राजनीति और धर्म विल्कुल ही भिन्न और विपरित कार्यक्षेत्र है और धर्म का राजनीति से कोई सम्बन्ध नही है। वह केवल जनहित को अपना कर्तव्य मानता था और राज्य की राजनीति में धर्मान्ध उलेमा की सलाह के अनुकरण को अव्यवहारिक समझता था। उसे इस बात की चिन्ता नही थी कि अन्तिम न्याय के दिन उसका क्या होगा। मूलतः अलाउद्दीन का दृष्टिकोण एक मध्यकालीन निरंकुश शासक का था और वह मानता था कि शासक के उपर किसी का आधिपत्य नही होना चाहिए। खजाइन-उल-फुतुह में अमीर खुसरों ने अलाउद्दीन को ‘विश्व का सुल्तान‘, ‘युग का विजेता‘, ‘पृथ्वी के शासकों का सुल्तान‘, और ‘जनता का चरवाहा‘ जैसी पदवियों से विभूषित किया है। इससे स्पष्ट है कि उसने सारे अधिकारों को अपने हाथों में केन्द्रित कर लिया था और वह शासन के प्रत्येक विभाग की व्यक्तिगत रुप से देख-भाल करता था। अलाउद्दीन विजय और प्रादेशिक विस्तार की लगातार कामना करता था लेकिन इसके वावजूद विवेकहीन प्रसारवाद के खतरों से भी परिचित था। यही कारण है कि सल्तनत काल के शासकों में अलाउद्दीन एक प्रशासक के रुप में बहुत उॅचा स्थान रखता है। उसने बलबन की उच्चतावादी नीति का परित्याग करके योग्यता के आधार पर पदों का वितरण किया। उसने किसी धर्मयुद्ध की कल्पना नही की और समयानुकूल और व्यवहारिक शासन व्यवस्था की विवेकपूर्ण ढंग से स्थापना की।
प्रशासकीय सुधार –
अलाउद्दीन ने न केवल अपने राज्य का विस्तार किया अपितु उसको एक प्रभावशाली प्रशासनतंत्र भी प्रदान किया। अन्य मध्यकालीन शासकों के समान वह प्रशासनिक तंत्र का प्रधान था। वह सेना का सर्वोच्च प्रधान, सर्वोच्च न्यायिक तथा कार्यकारी शक्ति था। अलाउद्दीन ने विशाल सेना की सहायता से राज्य के सभी स्वेच्छाचारी तत्वों का दमन कर पूर्ण सŸा उसने अपने हाथ में केन्द्रित कर ली। उसने पुराने उलेमा का दमन किया और उलेमा के आदेशों से अपने को मुक्त रखा। उसके मन्त्रियों की स्थिती सचिवों और क्लर्कों जैसी थी जो उसकी आज्ञाओं का पालन करते और प्रशासन के कार्यो को देखते थे। वह अपनी इच्छानुसार उनकी सलाह लेता था परन्तु उसे मानने के लिए बाध्य नही था। प्रान्तों के सूबेदार पहले से अधिक केन्द्र के नियंत्रण में थे।
अलाउद्दीन ने अनेक मन्त्रियों की नियुक्तियॉ करते हुए भी वास्तविक सत्ता अपने हाथों में रखी। राज्य में केवल चार महत्वपूर्ण मंत्री थे जिनपर प्रशासन का पूरा दायित्व टिका था-

  1. दीवान-ए-वजारत
  2. दीवान-ए-आरिज
  3. दीवान-ए-इंशा
  4. दीवान-ए-रसालत

    दीवान-ए-वजारत सामान्यतया वजीर या नायब के नाम से जाना जाता था जो राज्य का सबसे महत्वपूर्ण पद होता था। बरनी के अनुसार – ‘‘एक बुद्धिमान वजीर के बिना राजत्व व्यर्थ है, तथा सुल्तान के लिए एक बुद्धिमान वजीर से बढकर अभिमान और यश का दूसरा स्रोत नही है और हो भी नही सकता। सत्ता में आते ही अलाउद्दीन ने ख्वाजा खातिर को अपना वजीर बनाया। 1297 ई0 में अलाउद्दीन ने उसके स्थान पर नुसरत खॉ को वजीर के पद पर नियुक्त किया लेकिन लोगों से धन हडपने के कारण वह शीध्र ही बदनाम हो गया। अतः इसके बाद मलिक ताजुद्दीन काफूर को सुल्तान का नायब नियुक्त किया गया। इसका मुख्य विभाग वित्त होता था और वह राजस्व के एकत्रीकरण और प्रान्तीय सरकारों के दीवानी पक्ष के प्रशासन में सुल्तान के प्रति उत्तरदायी होता था।

    वजीर के बाद राज्य का दूसरा महत्वपूर्ण अधिकारी दीवान-ए-आरिज था। यह सैन्य विभाग का प्रधान होता था। सेना की भर्ती करना, वेतन बॉटना, सेना की दक्षता और साज-सज्जा की देख-रेख करना, उसके निरीक्षण की व्यवस्था करना और युद्ध के समय सेनापति के साथ जाना उसका कर्तव्य था। उल्लेखनीय है कि शाही सेनाओं का नेतृत्व वजीर करता था। दीवान-ए-आरिज के प्रधान अधिकारी को आरिज-ए-मुमालिक कहा जाता था और अलाउद्दीन के काल में इस पद पर नासिरुद्दीन मुल्क सिराजुद्दीन नामक व्यक्ति था। ख्वाजा हाजी नायब आरिज के पद पर कार्यरत था। आरिज अपने सैनिकों के प्रति सहानुभूति व दया का व्यवहार करता था। अलाउद्दीन के समय में सैनिकों को कठोर दण्ड देने का कोई विवरण नही मिलता है। स्वयं अलाउद्दीन ने अपने सैनिकों के प्रति उदारता की नीति को अपनाया जो एक सुदृढ राज्यनिर्माता के रुप में उसकी सफलता का कारण है।
    राज्य का तीसरा महत्वपूर्ण मंत्री दीवान-ए-इंशा था जिसका प्रमुख कार्य शाही पत्रों और आदेशों का प्रारुप बनाना था। प्रान्तपति और स्थानीय अधिकारियों से पत्र व्यवहार करना और सरकारी बातों का लेखा-जोखा रखना भी इसी का दायित्व था। उसके कार्यो में सहायता के लिए उसके पास अनेक सचिव होते थे जिन्हे ‘दबीर‘ कहा जाता था।
    दीवान-ए-रसालत राज्य का चौथा महत्वपूर्ण मंत्री था। यह एक प्रकार का विदेश मन्त्रालय था जो पडोसी राज्यों को भेजे जाने वाले पत्रों का प्रारुप तैयार करता था और विदेशों से आने वाले राजदूतों के साथ सम्पर्क रखता था। समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी ने इसका कोई उल्लेख नही किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि अलाउद्दीन स्वयं इस मंत्रालय के कार्य को देखता था। इन चार मंत्रियों के अतिरिक्त अनेक अधिकारी थे जो सचिव और राजमहल के कार्य को सॅभालते थे।

    पुलिस और गुप्तचर विभाग-

    अलाउद्दीन ने अपने शासनकाल में पुलिस और गुप्तचर विभाग को कुशल और प्रभावशाली बनाया। पुलिस विभाग का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था और उसके अधिकार विस्तृत होते थे। अलाउद्दीन के शासनकाल में दिल्ली का कोतवाल अलाउलमुल्क था। एक प्रकार से कोतवाल ही अपने क्षेत्र में शान्ति और कानून का रक्षक होता था। अलाउद्दीन ने पुलिस विभाग में अनेक सुधार कर नवीन पदों को सृजित किया और इस पर कुशल व्यक्तियों को नियुक्त किया। दीवान-ए-रियासत का नया पद बनाया गया जो व्यापारी वर्ग पर नियंत्रण रखता था। मुहतसिब जनसामान्य के आचार-व्यवहार का रक्षक होता था और वह बाजारों पर भी नियंत्रण रखता था।
    अलाउद्दीन ने एक बेहतर गुप्तचर प्रणाली का संगठन किया जिसका प्रधान अधिकारी बरीद-ए-मुमालिक कहलाता था। बरीद के अतिरिक्त अलाउद्दीन ने अनेक सूचनादाता नियुक्त किये जिन्हे ‘मनहियान‘ कहा जाता था। इन सबका कार्य राज्य में घटने वाली प्रत्येक घटना की सूचना सुल्तान तक पहुॅचाना था। बरनी गुप्तचर विभाग की कठोरता के सम्बन्ध में अनेक सूचनाए देता है और कहता है कि इनकी गतिविधियों के कारण मलिक, अमीर, अधिकारी अपने घरों में रात-दिन कॉपते रहते थे। मूलतः इन्ही अधिकारियों के दम पर अलाउद्दीन ने अपने नीतियों को न केवल सफलतापूर्वक लागू किया अपितु अपने राज्य में शान्ति व्यवस्था भी कायम की।

    न्याय प्रशासन –

    सुल्तान न्याय का स्रोत और अपील का उच्चतम अदालत था। अलाउद्दीन खुले दरबार में न्याय करता था। सुल्तान के बाद सद्र-ए-जहॉ काजीउल कुजात होता था और उसके अधीन नायब काजी कार्य करते थे। इनकी सहायता के लिए मुफ्ती होते थे जो कानून की व्याख्या करते थे। एक अन्य अधिकारी अमीर-ए-दाद होता था जिसका कार्य ऐसे प्रभावशाली व्यक्तियों को दरबार में प्रस्तुत करना होता था जिनके विरुद्ध कोई मुकदमा दायर किया गया हो और काजियों द्धारा उसे नियंत्रित न किया जा सके। प्रान्तों में भी न्यायिक अधिकारियों की ऐसी ही पद्धति थी और वहॉ प्रान्तपति, काजी और अन्य छोटे अधिकारी न्याय का कार्य करते थे। छोटे शहरों और गॉवों में मुखिया और पंचायतें झगडों का निपटारा करती थी। जिन मामलों में कानून के विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता नही थी उन मामलों को राजकुमार, सेनापति और अन्य अधिकारी भी निपटारा करते थे। कुल मिलाकर अलाउद्दीन ने इस बात का ध्यान रखा कि न्याय कार्य सरल और शीध्रता से हो और उसके न्यायाधिकारी अच्छा व्यवहार करते हुए जीवन में पवित्रता रखे। अलाउद्दीन के काल में सामान्यतया न्यायपालिका निष्पक्ष थी।

    सैनिक सुधार –

    सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने साम्राज्य विस्तार, आन्तरिक विद्रोहों को कुचलने तथा बाह्य आक्रमणों का सामना करने हेतु एक विशाल, सुदृढ़ तथा स्थाई साम्राज्य स्थापित करने के लिए सैनिक व्यवस्था की ओर पर्याप्त ध्यान दिया। उसने सैनिक प्रशासन के पुनर्गठन पर पूरा ध्यान दिया था। अपनी फतवा-ए-जहाँगीरी में जियाउद्दीन बरनी लिखता है कि राजत्व दो स्तंभों पर आधारित रहता है- पहला स्तंभ है, प्रशासन और दूसरा है, विजय। दोनों स्तंभों का आधार सेना है। यदि शासक सेना के प्रति उदासीन है तो वह अपने ही हाथों से राज्य का विनाश करता है। वह इस तथ्य को स्वीकार करता है कि राजत्व ही सेना है और सेना ही राजत्व है। यह सच है कि अलाउद्दीन जैसा साम्राज्य-निर्माता किसी भी प्रकार अपनी सेना की उपेक्षा नहीं कर सकता था। बलबन की ही भॉति उसने पुराने किलों की मरम्मत करवाई और सामरिक महत्व के स्थानों पर नए किलों का निर्माण करवाया। इन किलों में अनुभवी तथा विवेकशील सेनानायक नियुक्त किए। इन्हें कोतवाल कहा जाता था। किलों में हर प्रकार के शस्त्रों, अनाज तथा चारे के भंडार को रखने की व्यवस्था भी की गयी थी।
    दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों में अलाउद्दीन वह पहला सुल्तान था जिसने राज्य की आवश्कताओं को देखते हुए सेना का विकेंद्रीकरण किया और एक स्थायी सेना की नींव डाली। इससे पूर्व के सुल्तानों ने केवल आवश्यकता के समय सेना रखी। उसने इस स्थायी सेना की सीधी भर्ती की और केंद्रीय कोषागार से सैनिकों को नकद वेतन देना प्रारंभ किया। सेना की इकाइयों का विभाजन हजार, सौ और दस पर आधारित था, जो खानों, मलिकों, अमीरों, सिपहसालारों इत्यादि के अंतर्गत थी। दस हजार की सैनिक टुकड़ियों को ‘तुमन‘ कहा जाता था। अमीर खुसरो के अभियानों के वर्णन से स्पष्ट है कि अलाउद्दीन की सेना में भी तुमन थे, हालाँकि बरनी ने तुमन का उल्लेख केवल मुगल सेना के संदर्भ में किया है। मुख्य रूप से सेना में घुङसवार और पैदल सैनिक होते थे। युद्ध में हाथी भी प्रयोग किए जाते थे। दीवान-ए-आरिज सैनिकों की नामावली और हुलिया का विवरण रजिस्टर में दर्ज रखता था। अलाउद्दीन ने घोङों को दागने की प्रथा को को अपनाया, जिससे निरीक्षण के समय किसी भी घोड़े को दुबारा प्रस्तुत न किया जा सके या उसके स्थान पर निम्न श्रेणी का घोङा न रखा जा सके। समय-समय पर सेना का कठोर निरीक्षण किया जाता था और घोङों, सैनिकों तथा उनके शस्त्रों की बारीकी से जाँच-पड़ताल की जाती थी।

    अलाउद्दीन ने स्थायी रूप से एक विशाल तैयार सेना रखी। फरिश्ता के अनुसार सुल्तान की विशाल सेना में 4,75,000 सुसज्जित और वर्दीधारी घुङसवार थे। यथोचित रूप से निरीक्षण करके नियुक्त किए गए सैनिक को सरकारी भाषा में मुर्रत्तब कहा जाता था। उसका वेतन सुल्तान द्वारा 234 टंका प्रतिवर्ष निश्चित किया गया था। उसके पास कम से कम एक घोङा होता था। यदि उसके पास दो घोङे होते थे, जो उसकी योग्यता में वृद्धि करते थे, तो उसे अतिरिक्त घोडे के लिये 78 टंका का अतिरिक्त भत्ता मिलता था। उसे दो घोडे वाला सैनिक या सरकारी भाषा में दो अस्पा कहा जाता था, वह 312 टंका (234$78) वेतन प्रतिवर्ष पाता था। एक घोङे वाले सैनिकों को यक अस्पा कहा जाता था। यह स्पष्ट है कि यक अस्पा या दो से अधिक घोड़े रखने वाले सैनिक को कोई अतिरिक्त भत्ता न दिया जाता था। सैनिक को 234 टंका वार्षिक या 19.5 टंका मासिक वेतन मिलता था। एक अतिरिक्त घोड़े के व्यय के लिये उसे 6.50 टंका मासिक अधिक मिलते थे। इस प्रकार अलाउद्दीन ने कई महत्वपूर्ण सुधार किये।

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