Introduction (विषय-प्रवेश )
राजनीतिक आदर्श –
अलाउद्दीन की योजना-
अलाउद्दीन के महत्वपूर्ण कार्य-
अलाउद्दीन ने अपना ध्यान राज्य को शक्तिशाली बनाने पर केन्द्रित किया। सर्वप्रथम उसने महसूस किया कि उसके राज्य में बार-बार विद्रोह हो रहे है जिससे दिल्ली सल्तनत में अशान्ति की स्थिती उत्पन्न हो जाती है। उसने स्थिती को समझकर विद्रोहों का कारण ढूॅढने और उसका उन्मूलन करने का निश्चय किया। इस सन्दर्भ में अपने विश्वस्त अनुचरों से विचार विमर्श के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुॅचा कि राज्य में व्याप्त अशान्ति के चार आधारभूत कारण है-
- सुल्तान ने अपनी प्रजा की सदैव उपेक्षा की है और उनके भले-बुरे कार्यो के बारे में जानने की चिन्ता नही की है।
- शराब पीना और शराब की दावते करना, जिसके कारण विभिन्न व्यक्ति एक दूसरे के निकट आते है तथा उन्हे षडयन्त्र अथवा विद्रोह करने के लिए प्रेरणा मिलती है।
- सरदारों और मलिकों में परस्पर एकता, साहचर्य, वैवाहिक सम्बन्ध और मेल-मिलाप के फलस्वरुप यदि उनमें से कोई एक संकट में रहता है तो अन्य सभी अपनी रिश्तेदारी और लगाव के कारण उनके सहयोगी बन जाते है।
- धन का संचय लोगों को अवज्ञाकारी, निष्ठाहीन, उदण्ड और अहंकारी बना देता है और वे विद्रोह करने पर उतारु हो जाते है।
इन कारणों को जानने और समझने के पश्चात अलाउद्दीन ने अमीर वर्ग के दमन के उपाय किये और विद्रोहों को समाप्त करने के लिए निम्नलिखित चार अध्यादेश जारी किये –
- एक अध्यादेश के द्वारा दान में दी गई भूमि, उपहार, पेन्शन आदि व्यक्ति से छीन लिए गये और सरकारी अधिकारियों को सभी व्यक्तियों से अधिकाधिक कर और धन लेने के आदेश दिये गये। इसका परिणाम यह हुआ कि अब व्यक्तियों के पास धन विल्कुल भी नही रह गया और उनका ध्यान मुख्यतया जीविका कमाने में लग गया।
- दूसरे अघ्यादेश के द्वारा अलाउद्दीन ने एक कुशल गुप्तचर प्रणाली का संगठन किया। गुप्तचरों के भय से अमीर अपने घरों में कॉपते थे और दरबार में भी संकेतो अथवा फुसफुसाकर ही बात करते थे। उसने अपने गुप्तचरों को हर जगह नियुक्त कर दिया जो सुल्तान को प्रत्येक घटना की जानकारी देते थे।
- तीसरे अध्यादेश के द्वारा अलाउद्दीन ने दिल्ली में मद्यनिषेध कर दिया। उसने स्वयं भी शराब पीना छोड दिया और अमीरों को मद्यपान करने पर कठोर दण्ड दिये। जुआ खेलने और भॉग के सेवन पर भी प्रतिबन्ध लगा दिये गये। इस प्रकार अमीरों के बीच होने वाले मेल-जोल पर उसने पूरी तरह से पाबंदी लगा दी।
- चौथे अध्यादेश के द्वारा अलाउद्दीन ने अमीरों और सरदारों की दावतों, पारस्परिक मेल-जोल और विवाह-सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। उनपर तीन शर्ते लगा दी गई- सुल्तान अमीर के धन का उŸाराधिकारी होगा, अमीरों के यहॉ कोई भी विवाह सुल्तान की आज्ञा के बिना संम्पन्न नही होगा और अमीरों के बाद उनके पुत्र सुल्तान के दास होंगे।
- दीवान-ए-वजारत
- दीवान-ए-आरिज
- दीवान-ए-इंशा
- दीवान-ए-रसालत
दीवान-ए-वजारत सामान्यतया वजीर या नायब के नाम से जाना जाता था जो राज्य का सबसे महत्वपूर्ण पद होता था। बरनी के अनुसार – ‘‘एक बुद्धिमान वजीर के बिना राजत्व व्यर्थ है, तथा सुल्तान के लिए एक बुद्धिमान वजीर से बढकर अभिमान और यश का दूसरा स्रोत नही है और हो भी नही सकता। सत्ता में आते ही अलाउद्दीन ने ख्वाजा खातिर को अपना वजीर बनाया। 1297 ई0 में अलाउद्दीन ने उसके स्थान पर नुसरत खॉ को वजीर के पद पर नियुक्त किया लेकिन लोगों से धन हडपने के कारण वह शीध्र ही बदनाम हो गया। अतः इसके बाद मलिक ताजुद्दीन काफूर को सुल्तान का नायब नियुक्त किया गया। इसका मुख्य विभाग वित्त होता था और वह राजस्व के एकत्रीकरण और प्रान्तीय सरकारों के दीवानी पक्ष के प्रशासन में सुल्तान के प्रति उत्तरदायी होता था।
वजीर के बाद राज्य का दूसरा महत्वपूर्ण अधिकारी दीवान-ए-आरिज था। यह सैन्य विभाग का प्रधान होता था। सेना की भर्ती करना, वेतन बॉटना, सेना की दक्षता और साज-सज्जा की देख-रेख करना, उसके निरीक्षण की व्यवस्था करना और युद्ध के समय सेनापति के साथ जाना उसका कर्तव्य था। उल्लेखनीय है कि शाही सेनाओं का नेतृत्व वजीर करता था। दीवान-ए-आरिज के प्रधान अधिकारी को आरिज-ए-मुमालिक कहा जाता था और अलाउद्दीन के काल में इस पद पर नासिरुद्दीन मुल्क सिराजुद्दीन नामक व्यक्ति था। ख्वाजा हाजी नायब आरिज के पद पर कार्यरत था। आरिज अपने सैनिकों के प्रति सहानुभूति व दया का व्यवहार करता था। अलाउद्दीन के समय में सैनिकों को कठोर दण्ड देने का कोई विवरण नही मिलता है। स्वयं अलाउद्दीन ने अपने सैनिकों के प्रति उदारता की नीति को अपनाया जो एक सुदृढ राज्यनिर्माता के रुप में उसकी सफलता का कारण है।राज्य का तीसरा महत्वपूर्ण मंत्री दीवान-ए-इंशा था जिसका प्रमुख कार्य शाही पत्रों और आदेशों का प्रारुप बनाना था। प्रान्तपति और स्थानीय अधिकारियों से पत्र व्यवहार करना और सरकारी बातों का लेखा-जोखा रखना भी इसी का दायित्व था। उसके कार्यो में सहायता के लिए उसके पास अनेक सचिव होते थे जिन्हे ‘दबीर‘ कहा जाता था।दीवान-ए-रसालत राज्य का चौथा महत्वपूर्ण मंत्री था। यह एक प्रकार का विदेश मन्त्रालय था जो पडोसी राज्यों को भेजे जाने वाले पत्रों का प्रारुप तैयार करता था और विदेशों से आने वाले राजदूतों के साथ सम्पर्क रखता था। समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी ने इसका कोई उल्लेख नही किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि अलाउद्दीन स्वयं इस मंत्रालय के कार्य को देखता था। इन चार मंत्रियों के अतिरिक्त अनेक अधिकारी थे जो सचिव और राजमहल के कार्य को सॅभालते थे।पुलिस और गुप्तचर विभाग-
अलाउद्दीन ने अपने शासनकाल में पुलिस और गुप्तचर विभाग को कुशल और प्रभावशाली बनाया। पुलिस विभाग का प्रमुख अधिकारी कोतवाल होता था और उसके अधिकार विस्तृत होते थे। अलाउद्दीन के शासनकाल में दिल्ली का कोतवाल अलाउलमुल्क था। एक प्रकार से कोतवाल ही अपने क्षेत्र में शान्ति और कानून का रक्षक होता था। अलाउद्दीन ने पुलिस विभाग में अनेक सुधार कर नवीन पदों को सृजित किया और इस पर कुशल व्यक्तियों को नियुक्त किया। दीवान-ए-रियासत का नया पद बनाया गया जो व्यापारी वर्ग पर नियंत्रण रखता था। मुहतसिब जनसामान्य के आचार-व्यवहार का रक्षक होता था और वह बाजारों पर भी नियंत्रण रखता था।अलाउद्दीन ने एक बेहतर गुप्तचर प्रणाली का संगठन किया जिसका प्रधान अधिकारी बरीद-ए-मुमालिक कहलाता था। बरीद के अतिरिक्त अलाउद्दीन ने अनेक सूचनादाता नियुक्त किये जिन्हे ‘मनहियान‘ कहा जाता था। इन सबका कार्य राज्य में घटने वाली प्रत्येक घटना की सूचना सुल्तान तक पहुॅचाना था। बरनी गुप्तचर विभाग की कठोरता के सम्बन्ध में अनेक सूचनाए देता है और कहता है कि इनकी गतिविधियों के कारण मलिक, अमीर, अधिकारी अपने घरों में रात-दिन कॉपते रहते थे। मूलतः इन्ही अधिकारियों के दम पर अलाउद्दीन ने अपने नीतियों को न केवल सफलतापूर्वक लागू किया अपितु अपने राज्य में शान्ति व्यवस्था भी कायम की।न्याय प्रशासन –
सुल्तान न्याय का स्रोत और अपील का उच्चतम अदालत था। अलाउद्दीन खुले दरबार में न्याय करता था। सुल्तान के बाद सद्र-ए-जहॉ काजीउल कुजात होता था और उसके अधीन नायब काजी कार्य करते थे। इनकी सहायता के लिए मुफ्ती होते थे जो कानून की व्याख्या करते थे। एक अन्य अधिकारी अमीर-ए-दाद होता था जिसका कार्य ऐसे प्रभावशाली व्यक्तियों को दरबार में प्रस्तुत करना होता था जिनके विरुद्ध कोई मुकदमा दायर किया गया हो और काजियों द्धारा उसे नियंत्रित न किया जा सके। प्रान्तों में भी न्यायिक अधिकारियों की ऐसी ही पद्धति थी और वहॉ प्रान्तपति, काजी और अन्य छोटे अधिकारी न्याय का कार्य करते थे। छोटे शहरों और गॉवों में मुखिया और पंचायतें झगडों का निपटारा करती थी। जिन मामलों में कानून के विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता नही थी उन मामलों को राजकुमार, सेनापति और अन्य अधिकारी भी निपटारा करते थे। कुल मिलाकर अलाउद्दीन ने इस बात का ध्यान रखा कि न्याय कार्य सरल और शीध्रता से हो और उसके न्यायाधिकारी अच्छा व्यवहार करते हुए जीवन में पवित्रता रखे। अलाउद्दीन के काल में सामान्यतया न्यायपालिका निष्पक्ष थी।सैनिक सुधार –
सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने साम्राज्य विस्तार, आन्तरिक विद्रोहों को कुचलने तथा बाह्य आक्रमणों का सामना करने हेतु एक विशाल, सुदृढ़ तथा स्थाई साम्राज्य स्थापित करने के लिए सैनिक व्यवस्था की ओर पर्याप्त ध्यान दिया। उसने सैनिक प्रशासन के पुनर्गठन पर पूरा ध्यान दिया था। अपनी फतवा-ए-जहाँगीरी में जियाउद्दीन बरनी लिखता है कि राजत्व दो स्तंभों पर आधारित रहता है- पहला स्तंभ है, प्रशासन और दूसरा है, विजय। दोनों स्तंभों का आधार सेना है। यदि शासक सेना के प्रति उदासीन है तो वह अपने ही हाथों से राज्य का विनाश करता है। वह इस तथ्य को स्वीकार करता है कि राजत्व ही सेना है और सेना ही राजत्व है। यह सच है कि अलाउद्दीन जैसा साम्राज्य-निर्माता किसी भी प्रकार अपनी सेना की उपेक्षा नहीं कर सकता था। बलबन की ही भॉति उसने पुराने किलों की मरम्मत करवाई और सामरिक महत्व के स्थानों पर नए किलों का निर्माण करवाया। इन किलों में अनुभवी तथा विवेकशील सेनानायक नियुक्त किए। इन्हें कोतवाल कहा जाता था। किलों में हर प्रकार के शस्त्रों, अनाज तथा चारे के भंडार को रखने की व्यवस्था भी की गयी थी।दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों में अलाउद्दीन वह पहला सुल्तान था जिसने राज्य की आवश्कताओं को देखते हुए सेना का विकेंद्रीकरण किया और एक स्थायी सेना की नींव डाली। इससे पूर्व के सुल्तानों ने केवल आवश्यकता के समय सेना रखी। उसने इस स्थायी सेना की सीधी भर्ती की और केंद्रीय कोषागार से सैनिकों को नकद वेतन देना प्रारंभ किया। सेना की इकाइयों का विभाजन हजार, सौ और दस पर आधारित था, जो खानों, मलिकों, अमीरों, सिपहसालारों इत्यादि के अंतर्गत थी। दस हजार की सैनिक टुकड़ियों को ‘तुमन‘ कहा जाता था। अमीर खुसरो के अभियानों के वर्णन से स्पष्ट है कि अलाउद्दीन की सेना में भी तुमन थे, हालाँकि बरनी ने तुमन का उल्लेख केवल मुगल सेना के संदर्भ में किया है। मुख्य रूप से सेना में घुङसवार और पैदल सैनिक होते थे। युद्ध में हाथी भी प्रयोग किए जाते थे। दीवान-ए-आरिज सैनिकों की नामावली और हुलिया का विवरण रजिस्टर में दर्ज रखता था। अलाउद्दीन ने घोङों को दागने की प्रथा को को अपनाया, जिससे निरीक्षण के समय किसी भी घोड़े को दुबारा प्रस्तुत न किया जा सके या उसके स्थान पर निम्न श्रेणी का घोङा न रखा जा सके। समय-समय पर सेना का कठोर निरीक्षण किया जाता था और घोङों, सैनिकों तथा उनके शस्त्रों की बारीकी से जाँच-पड़ताल की जाती थी।अलाउद्दीन ने स्थायी रूप से एक विशाल तैयार सेना रखी। फरिश्ता के अनुसार सुल्तान की विशाल सेना में 4,75,000 सुसज्जित और वर्दीधारी घुङसवार थे। यथोचित रूप से निरीक्षण करके नियुक्त किए गए सैनिक को सरकारी भाषा में मुर्रत्तब कहा जाता था। उसका वेतन सुल्तान द्वारा 234 टंका प्रतिवर्ष निश्चित किया गया था। उसके पास कम से कम एक घोङा होता था। यदि उसके पास दो घोङे होते थे, जो उसकी योग्यता में वृद्धि करते थे, तो उसे अतिरिक्त घोडे के लिये 78 टंका का अतिरिक्त भत्ता मिलता था। उसे दो घोडे वाला सैनिक या सरकारी भाषा में दो अस्पा कहा जाता था, वह 312 टंका (234$78) वेतन प्रतिवर्ष पाता था। एक घोङे वाले सैनिकों को यक अस्पा कहा जाता था। यह स्पष्ट है कि यक अस्पा या दो से अधिक घोड़े रखने वाले सैनिक को कोई अतिरिक्त भत्ता न दिया जाता था। सैनिक को 234 टंका वार्षिक या 19.5 टंका मासिक वेतन मिलता था। एक अतिरिक्त घोड़े के व्यय के लिये उसे 6.50 टंका मासिक अधिक मिलते थे। इस प्रकार अलाउद्दीन ने कई महत्वपूर्ण सुधार किये।