window.location = "http://www.yoururl.com"; Khalji Revolution and Jalaluddin Khalji | खिलजी क्रांति और जलालुद्दीन खिलजी

Khalji Revolution and Jalaluddin Khalji | खिलजी क्रांति और जलालुद्दीन खिलजी


विषय-प्रवेश (Introduction)

बीस वर्ष मंत्री और बीस वर्ष सुल्तान के रुप में राज्य करने के उपरांत बल्बन की मृत्यु हो गई। उसका वंश तीन वर्ष से अधिक राज्य नही कर सका। बल्बन ने शहीद राजकुमार मुहम्मद के पुत्र कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने की इच्छा व्यक्त की परंतु मलिकों ने कैखुसरो को मुल्तान भेज दिया और बुगरा खॉं के पुत्र कैकुबाद को मुइजुद्दीन का खिताब देकर गद्दी पर बैठा दिया। कैकुबाद एक सुंदर, शिष्ट और उदार युवक था परंतु उसका नवयुवक होना ही उसकी प्रधान दुर्बलता थी। सत्रह या अठारह वर्ष की आयु में गद्दी प्राप्त करने वाले इस युवक का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा अपने कठोर पितामह के नियंत्रण में हुई थी। उसे सुंदर स्त्रियों व शराब के प्यालों से एकदम दूर रखा गया था, परिणाम यह हुआ कि नियंत्रण से स्वतंत्रता पाते ही वह भोगविलास, मद्यपान, शिकार और नाच-गान में अपना जीवन व्यतीत करने लगा। तीन वर्षों में ही उसका आधा शरीर लकवे से बेकार हो गया तथा शासन-कार्य अन्य लोगों के हाथ में चला गया।

’नायब-ए-मुमलकत‘ बनकर मलिक निजामुद्दीन ने, जो दिल्ली के कोतवाल फखरुद्दीन का भतीजा एवं दामाद था, शासन पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया। निजामुद्दीन ने कैकुबाद को उसके चचेरे भाई के प्रति चेतावनी दी कि वह उसके सिंहासन को छीनने का प्रयत्न कर सकता है। अतः उसने ही मुइजुद्दीन कैकुबाद को भड़काकर मंडोली में कैखुसरो की हत्या करवा दी। बल्बन के घोषित उत्तराधिकारी की हत्या के पश्चात ऐसा हत्याक्रम आरंभ हुआ कि कोई भी स्वयं को सुरक्षित नहीं समझ सकता था। निजामुद्दीन ने सभी तुर्क अमीरों से पीछा छुड़ाने की योजना बनाई और निर्दयतापूर्वक अमीरों व मलिकों की हत्या करवाने लगा।

जब कैकुबाद दिल्ली के सिंहासन पर बैठाया गया तो उसका पिता बुगरा खाँ लखनौती में ’सुल्तान नासिरुद्दीन के खिताब से सुल्तान बन गया। बुगरा खाँ अपने पुत्र के भ्रष्ट जीवन के संबंध में और निजामुद्दीन के षड़यंत्रों के संबंध में जानता था। निजामुद्दीन ने बराबर यह प्रयत्न किया कि बुगरा खाँ और कैकुबाद में युद्ध छिड़ जाए, क्योंकि अब वह स्वयं सिंहासन पर अधिकार करने की महत्वाकांक्षा रखता था। बुगरा खाँ स्वयं दो वर्ष बाद अपने पुत्र से मिलने आया और उसे निजामुद्दीन से पीछा छुड़ाने का परामर्श दिया। कैकुबाद ने निजामुद्दीन को मुल्तान जाने का आदेश दिया परंतु वह विलंब करता रहा। कुछ समय पश्चात तुर्क अधिकारियों को उचित अवसर प्राप्त हुआ और उन्होंने विष देकर निजामुद्दीन की हत्या कर दी।

खिलजी क्रांति –

अब कैकुबाद ने समाना से मलिक फीरोज खलजी को बुलाया और राज्यपाल और युद्धमंत्री ( आरिजे ममालिक) नियुक्त किया। मलिक फ़ीरोज खलजी ने अपने भाई शिहाबुद्दीन तथा अलीगुर्शप के साथ अनेक बर्षो तक बलबन की सेवा की थी। मंगोलों के विरुद्ध युद्धों से भी उसे प्रसिद्धि मिली थी और वह एक जन्मजात सैनिक था। तुर्की अमीर फ़ीरोज खलजी से द्वेष करने लगे और आपसी मतभेद बढ़ गए। सुल्तान के गिरते स्वास्थ्य से परिस्थिति और भी संकटमय हो गई। दिल्ली का अमीर वर्ग विभाजित हो गया। तुर्की दल के नेता थे एतमार कच्छन और एतमार सुरखा और इसमें पुराने बल्बनी अमीर शामिल थे। यह दल बलबन के वंश को सत्तारुढ रखना चाहता था। दूसरा नेता था जलालुद्दीन खलजी जिसे आम लोग तुर्क नहीं मानते थे। यह दल नए तत्वों के प्रभुत्व का समर्थक था। अब तुर्को और तथाकथित गैर-तुर्कों में वास्तविक शक्ति प्राप्त करने के गुप्त संघर्ष आरंभ हो गया। जिस समय पक्षाघात से असहाय कैकुबाद किलूखरी के महल में था मलिक कच्छन और मलिक सुरखा ने उसके बच्चे कैमूयर्स को गद्दी पर बैठाया। जलालुद्दीन खलजी को उसका नायब नियुक्त किया गया और महत्वपूर्ण पद और विभाग योग्य अधिकारियों को बाँट दिए गए। बरनी लिखते हैं कि ’राजत्व बल्बन के ही वंश में रहा और किसी अन्य जाति के व्यक्ति के हाथ में नहीं गया। वह तुर्कों के हाथ से निकल नहीं गया।

तुर्कों के लिए इस प्रकार से सिंहासन की रक्षा और कुछ नहीं, केवल पुराने अमीरों द्वारा जलालुद्दीन खलजी के विरुद्ध एक पड़यंत्र था। मलिक कच्छन और मलिक सुरखा ने कुछ अन्य तुर्क अमीरों के साथ मिलकर निश्चय किया कि ऐसे अमीर, जो सच्चे तुर्क नहीं हैं, शक्तिहीन बनाकर अपदस्थ कर दिए जाने चाहिए। उनके नामों की सूची में जलालुद्दीन खलजी का नाम सबसे ऊपर रखा गया। इस पड़यंत्र की सूचना जलालुद्दीन को मिल गई। जलालुद्दीन ने अब दिल्ली में ठहरना सुरक्षित नहीं समझा और अपने अनुयायियों के साथ बहारपुर चला गया। अन्य गैर-तुर्क अधिकारी, जिनका नाम हत्या किए जाने वाले अमीरों में था, खलजियों से आकर मिल गए।

जलालुद्दीन के पलायन से तुर्की अमीर आतंकित हो गए और दूसरे दिन ही उन्होंने कार्रवाई आरंभ कर दी। उन्होंने जलालुद्दीन को समाप्त करने के आशय से उसे कैमुयर्स के दरबार में उपस्थित होने का संदेश भेजा। जलालुद्दीन को सारी योजना की जानकारी थी अतः जैसे ही कच्छन जलालुद्दीन के भवन पर पहुंचा, उसकी हत्या कर दी गई। कच्छन की हत्या के बाद दोनों दलों में संघर्ष शुरू हो गया। शिशु सुल्तान कैमूयर्स को बलपूर्वक उठाकर जलालुद्दीन के शिविर में लाया गया। एतमार सुरखा ने उनका पीछा किया परंतु उसे मार डाला गया।

नन्हें सुल्तान के अपहरण के विरुद्ध दिल्ली के नागरिक उठ खड़े हुए। उन्होंने बहारपुर जाकर उसे खलजियों के शिकंजे से बचाने का निश्चय कर लिया। अस्सी वर्ष से शासन करने वाले इलबरियों के प्रति उनके हृदय में भक्ति थी। वे खलजियों द्वारा शासित किए जाने के विचार से भी घृणा करते थे। परंतु मलिक-उल-उमरा ने नागरिकों को आगे बढ़ने से रोका क्योंकि उसके पुत्र जलालुद्दीन की हिरासत में थे। इसी अवसर पर अनेक मलिक जलालुद्दीन से जा मिले। बलबन के अमीरों ने तुर्कों के हाथ में प्रभुसत्ता रखने का प्रयत्न किया जबकि जलालुद्दीन अपनी सीमाओं को जानता था, ऐसी स्थिति में वह तीन माह तक सत्ता प्राप्त करने में संकोच करता रहा। दोनों विरोधी दल एक-दूसरे पर अविश्वास करते थे और उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे किंतु समय आने पर जलालुद्दीन ने अंत में अपनी योग्यता व कुशलता से बलबन के वंश के समर्थकों को पछाड़ दिया। तुर्की दल के विनाश, शिशु सुल्तान पर अधिकार और मुइजुद्दीन के मरणासन्न होने के कारण जलालुद्दीन खिन्न था। उसने तरकेश नामक व्यक्ति को (जिसका पिता मुइजुद्दीन के हाथों मारा गया था) बदला लेने के लिए किलूखरी भेजा। मुइजुद्दीन को उसने जमुना नदी में फेंक दिया और इस प्रकार 1290 ई० में अंतिम इल्बारी सुल्तान की मृत्यु हो गई। खलजी शाही सत्ता प्राप्त करने को तत्पर नहीं थे और अभी तक उन्होंने जो कुछ किया था वह विशेषतः सुरक्षात्मक था। कैमूयर्स को दरबार में लाकर जलालुद्दीन ने तीन महीने तक उसके संरक्षक और वजीर के रूप में काम किया। परंतु यह व्यवस्था असफल रही और जलालुद्दीन ने स्वयं को किलूखरी में शासक घोषित कर दिया। शत्रु एवं मित्र सभी ने उदीयमान सितारे का स्वागत किया। इस पूरे घटनाक्रम को दिल्ली सल्तनत के इतिहास में ‘‘खिलजी क्रान्ति‘‘ के नाम से जाना जाता है।

दिल्ली के नागरिकों को जलालुद्दीन के राज्यारोहण से निराशा हुई। बरनी लिखता है कि “दिल्ली उच्च श्रेणी और संपन्न लोगों से भरपूर थी“ किंतु बधाई के किसी स्वर ने जलालुद्दीन के राज्यारोहण का स्वागत नहीं किया। जनता की भावना खलजियों के विरुद्ध थी जिसके सत्तारोपण ने तुर्को के शासन का अंत कर दिया था। जनता खलजी लोगों को तुर्को से भिन्न समझती थी। ख़लजी क्रांति ने जनमत की शक्ति को भी प्रदर्शित किया था, क्योंकि जनसाधारण के विरोध के भय से जलालुद्दीन एक लंबी अवधि तक दिल्ली में आने का साहस नहीं कर सका।

खिलजी क्रांति का महत्त्व –

खिलजी मूलतः तुर्क थे किंतु यह भी सच है कि दीर्घकाल तक अफगानिस्तान में रहने के कारण उन्होने उस देश की आदतों और रीति-रिवाजों को अपना लिया था। मंगोलों की उथल-पुथल के फलस्वरुप इस जाति के अनेक लोग शरणार्थी के रुप में भारत आए। लगभग एक शताब्दी तक प्रभुसत्ता पर इल्बारी तुर्कों का एकाधिकार रहा था। अतः खिलजियों द्वारा सत्ता प्राप्ति का दिल्ली की जनता ने स्वागत नहीं किया। खलजियों के राज्यारोहण के कारण व्याप्त विस्मय की भावना के मूल में जनता की परंपरावादिता थी, खलजियों व इल्बारियों की प्रतिद्वंद्विता नहीं। जातीय दृष्टि से दोनों ही तुर्क थे। मूल तथ्य यह है कि खलजी क्रांति भारत में मुस्लिम राजत्व के विकास में महत्व रखती है। जलालुद्दीन को जो गद्दी प्राप्त हुई वह न तो वंशाधिकार से प्राप्त हुई, न ही चुनाव अथवा षड़यंत्र से। जातीय उच्चता या खलीफ़ा की स्वीकृति पर भी उन्होंने अपने राजत्व का दावा नहीं किया। उन्होंने राज्य को शक्ति प्रयोग के बल पर ही अपने हाथ में रखा। खलजी वंश ने न जनता, न अमीर वर्ग और न ही उलेमा का समर्थन प्राप्त किया। उन्होंने मुस्लिम जमात को भी यह बता दिया कि धार्मिक समर्थन के बिना राज्य न केवल जीवित रह सकता है बल्कि सफलतापूर्वक कार्य भी कर सकता है। यह एक अभूतपूर्व सत्य था और उसमें अलाउददीन की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उसका दृष्टिकोण उलेमा वर्ग से प्रभावित राजत्व के दृष्टिकोण से पूर्णतः भिन्न था। सबसे बड़ी बात यह है कि खलजियों ने धर्म को राजनीति से दूर रखने का निश्चय किया।

खलजी क्रांति का महत्व केवल एक वंश-परिवर्तन तक ही सीमित नहीं था। पच्चीस वर्ष पूर्व बल्बन द्वारा स्थापित राज्य व्यवस्था के विपरीत वह एक नए युग का आरंभ था। भारतीयों के लिए वंश-परिवर्तन कोई नई चीज नहीं थी। अनेक आकस्मिक वंशीय क्रांतियों के कारण सत्ता का हस्तांतरण जनसाधारण के लिए अधिक महत्व का नहीं था परंतु खलजी क्रांति के परिणाम दूरगामी हुए। ममलूक वंश के साथ-साथ वह जातिवाद भी समाप्त हो गया जिससे कुतुबुद्दीन, इल्तुतमिश और उसके उत्तराधिकारियों का दृष्टिकोण प्रभावित था। इल्बारी तुर्कों ने जातिवाद पर अधिक बल दिया था। राज्य की आधारशिला केवल तुर्की हितों की सुरक्षा और उन्हीं के सीमित एकाधिकार पर रखी गई थी। बल्बन के काल में विरोधी तत्वों के दमन के लिए हिंसात्मक तरीके भी अपनाए गए। कथित ख़लजी दल की सरल विजय ने यह सिद्ध कर दिया कि जातीय निरंकुशता और अधिक समय तक राज्य नहीं कर सकती थी। खलजियों की नसों में शाही खून नहीं था। मूलतः वे निचले तबके के थे। उनके राज्यारोहण ने इस मिथ्या धारणा को समाप्त कर दिया कि प्रभुसत्ता पर केवल विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का ही एकाधिकार है। खलजी क्रांति निश्चय ही तुर्की आधिपत्य के विरुद्ध भारतीय मुसलमानों का विद्रोह था। उनका विद्रोह गोरी और राजनी से प्रेरणा प्राप्त करने वालों के विरुद्ध भी था जो दिल्ली की ओर निहारते थे। इस क्रांति ने शाही रक्त की तुलना में सर्वसाधारण के जनमत का आधिपत्य स्थापित कर यह सिद्ध कर दिया कि गद्दी पर कोई भी ऐसा व्यक्ति अधिकार कर सकता है जिसमें उसे अपने हाथ में रखने की शक्ति व योग्यता हो।

खलजी क्रांति के महत्व के संबंध में इतिहासकार के० एस० लाल लिखते हैं, “इससे न केवल एक नवीन वंश का उदय हुआ, बल्कि इसने अनवरत विजयों, कूटनीति में असाधारण प्रयोगों और अतुलनीय साहित्यिक क्रियाकलापों के एक युग को जन्म दिया। इतिहास की गाथाओं में खलजी सुल्तानों ने अभूतपूर्व विजयों की एक अनवरत श्रृंखला का दौर प्रारंभ किया। देश के सुदूरतम कोनों में खलजी सेनाओं ने प्रवेश किया और बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा का भी भरपूर ध्यान रखा।
इस संबंध में आर० पी० त्रिपाठी लिखते हैं, “खलजी क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि राजभक्ति की उस भावना को, जो दिल्ली सिंहासन के प्रति विकसित हो रही थी और जिससे भविष्य में अच्छे परिणामों की आशा थी, भारी धक्का लगा। यदि खलजियों ने राजभक्ति तथा राजप्रतिष्ठा की परंपराओं को उत्पन्न होते ही न कुचल दिया होता और उन्हें बढ़कर अपनी पूर्णता तक पहुँचने दिया होता, तो सैनिकवादी तत्व बहुत न्यून हो जाता और अधिकारों तथा कर्तव्यों और आज्ञा देने तथा पालन करने की नई परंपरा स्थापित हो जाती जैसा कि संसार के अन्य देशों में हुआ था। दुर्भाग्यवश खलजी क्रांति ने सरकार के सैनिक पक्ष को शक्तिशाली बनाकर एक ऐसा घातक उदाहरण उपस्थित किया जो दिल्ली सल्तनत की जीवन-शक्ति को क्षीण करता रहा।“

जलालुद्दीन खिलजी(1290 – 96 )-

जलालुद्दीन के पूर्वज पर्याप्त समय पहले ही भारत में आकर बस गये थे और तुर्क सुल्तानों की सेवा में थे। अपनी योग्यता से उसने शाही अंगरक्षक के पद को प्राप्त किया था और बाद में समाना का वह सूबेदार बना था। सुल्तान कैकुबाद ने उसे सेना-मंत्री का पद दिया था। 13 जून 1290 ई0 को कैकुबाद द्वारा बनवाये गये किलोखरी के महल में उसने अपना राज्याभिषेक किया और सुल्तान बना। सुल्तान बनने के अवसर पर वह 70 वर्ष का वृद्ध व्यक्ति था और वृद्धावस्था की दुर्बलता उसके चरित्र में प्रकट होने लगा था। जलालुद्दीन ने सुल्तान के पद की प्रतिष्ठा के अनुकूल न तो व्यवहार किया और न ही उसके अनुकूल उसकी महत्वाकांक्षाएॅ रही। जलालुद्दीन ने एक धार्मिक मुसलमान की भॉति अपनी वृद्धावस्था के समय को शान्तिपूर्वक व्यतीत करने के अतिरिक्त कोई अन्य इच्छा व्यक्त नही की। तुर्की सरदार खिलजीयों को गैर-तुर्क मानते थे इसलिए वे खिलजीयों से घृणा करते थे और उन्हे शासक स्वीकार करने में स्वयं को असम्मानित महसूस करते थे। ऐसी परिस्थिती में सुल्तान की उदारता और सहिष्णुता को गलत समझा गया। अतः महत्वाकांक्षी सरदारों ने जलालुद्दीन को सिंहासन से हटाने के लिए विद्रोह और षडयन्त्रों का सहारा लिया।
इन विषम परिस्थितीयों में जलालुद्दीन ने बलबन के सम्बन्धियों और तुर्की सरदारों के सन्तुष्ट करने की नीति अपनायी। तुर्की अमीरों को उसने पहले की भॉति ही उनके पदों पर रहने दिया परन्तु उसने अपने सम्बन्धियों और विश्वासपात्र सरदारों को भी महत्वपूर्ण पद दिये। इस प्रकार सुल्तान जलालुद्दीन ने तुर्की अमीरों को सन्तुष्ट करने के साथ-साथ शासन पर अपना नियंत्रण रखने की भी व्यवस्था की।

मलिक छज्जू का विद्रोह –

अगस्त 1290 ई0 में कडा-मानिकपुर के सूबेदार मलिक छज्जू ने विद्रोह करते हुए अपने नाम के सिक्के ढलवाये तथा अपने नाम का खुतबा पढवाया। अवध के सूबेदार तथा कुछ अन्य सरदार भी उससे जाकर मिल गये। दोआब में बहुत से हिन्दू सरदार भी उसके साथ हो गये। बदायूॅ में मलिक बहादुर भी अपनी सेनाओं को लेकर उसके साथ मिलने के लिए तत्पर था। जलालुद्दीन इस विद्रोह को दबाने के लिए स्वयं किया और बदायूॅ के निकट मलिक छज्जू को परास्त किया। मलिक छज्जू भागने में सफल रहा लेकिन बाद में वह पकडा गया। मलिक छज्जू जब सुल्तान के पास पेश किया गया तो सुल्तान स्वयं रो पडा और उदारता का परिचय देते हुए सजा देने के स्थान पर उसे मुल्तान भेज दिया गया और उसके सहयोगियों को रिहा कर दिया गया। हालॉकि उसके भतीजे अलाउद्दीन खिलजी ने इसका विरोध किया परन्तु सुल्तान ने यह कहकर उसे शान्त कर दिया कि राज्य की खातिर वह मुसलमानों का रक्त बहाने को तैयार नही है। जलालुद्दीन की यह अविवेकपूर्ण उदारता शासन के हित में सिद्ध नही हुई। एक अन्य अवसर पर मलिक सरदारों ने सुल्तान जलालुद्दीन की हत्या कर ताजुद्दीन कुची को सिंहासनारुढ किये जाने की योजना बनाई। इस गुप्त योजना की सूचना सुल्तान को मिली तो सुल्तान ने उन्हे एक वर्ष के लिए दरबार से निष्कासित करने की सजा सुनाई।

आन्तरिक नीति के अतिरिक्त बाह्य नीति में भी सुल्तान ने अपनी स्वाभाविक दुर्बलता का परिचय दिया। उसने विजय की इच्छा से केवल दो आक्रमण किये। रणथम्भौर चौहानों की सत्ता का केन्द्र बिन्दु था और राणा हम्मीरदेव ने गौड और उज्जैन के राजाओं को परास्त करने में सफलता पाई थी। इस कारण जलालुद्दीन हम्मीरदेव की बढती हुई शक्ति को रोकना चाहता था। 1290 ई0 में सुल्तान ने रणथम्भौर की ओर प्रस्थान किया जिसकी सुरक्षा का प्रबन्ध राजपूतों ने भलीभॉति संभाला था। किले की सुदृढ स्थिती को देखकर सुल्तान उसी दिन झैन वापस आ गया और उसने अपने सरदारों से स्पष्ट कह दिया कि वह मुसलमान सैनिकों के जीवन के मूल्य पर किले को जीतने को तैयार नही है। इस प्रकार रणथम्भौर को बिना जीते हुए सुल्तान जून 1291 ई0 में दिल्ली वापस आ गया। 1292 ई0 में उसने मण्डौर पर आक्रमण किया और उसे जीतकर दिल्ली के अधीन कर लिया गया।

मण्डौर की विजय से पहले ही 1292 ई0 में अब्दुल्ला के नेतृत्व में डेढ लाख मंगोलों की एक बडी सेना ने पंजाब पर आक्रमण किया। इस अवसर पर समय नष्ट किये बिना जलालुद्दीन अपनी सेना को लेकर सिन्धु घाटी तक पहुॅच गया। बरनी का यहॉ यह मानना है कि सुल्तान ने मंगोलों को परास्त करने में सफलता पाई परन्तु अन्य इतिहासकार इससे सहमत नही है। अन्य इतिहासकारों का मानना है कि छिटपुट आक्रमणों में सुल्तान को सफलता मिली लेकिन जब मंगोलों की एक बडी टुकडी ने सिन्धु नदी को पार करके सुल्तान पर आक्रमण किया तो उसे परास्त कर दिया गया और बहुत से मंगोल पदाधिकारी कैद कर लिये गये। बाद में सन्धि की बातचीत प्रारम्भ हो गयी और मंगोलों ने वापस जाने का निर्णय कर लिया। इस दौरान चंगेज खॉ का एक वंशज उलगू ने अपने चालीस हजार समर्थकों के साथ इस्लाम को स्वीकार करके भारत में ही रहने का निश्चय किया। जलालुद्दीन ने अपनी एक पुत्री का विवाह उलगू के साथ कर दिया और उसके साथियों को दिल्ली के निकट रहने की आज्ञा प्रदान कर दी गई।

जलालुद्दीन के समय में उसके भतीजे और कडा का सूबेदार अलाउद्दीन ने 1292 ई0 में सुल्तान की स्वीकृति लेकर मालवा में स्थिती भिलसा पर आक्रमण किया और वहॉ से बहुत सारा धन लूटकर लाया जिसका एक भाग उसने सुल्तान को भेज दिया। भिलसा के आक्रमण के अवसर पर उसने दक्षिण के देवगिरि राज्य की समृद्धि के बारे में सुना था। अलाउद्दीन ने देवगिरि की सम्पत्ति को लूटने की योजना बनाई परन्तु उसने अपनी योजना को पूर्णतः गुप्त रखा। फरवरी 1296 ई0 में अपनी आठ हजार घुडसवार सेनाओं की सहायता से उसने देवगिरि पर आक्रमण किया और वहॉ के शासक रामचन्द्रदेव को पराजित कर अतुल सम्पत्ति प्राप्त की। बरनी के अनुसार वह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि अलाउद्दीन और उसके उत्तराधिकारियों द्वारा अपव्यय किये जाने के वावजूद वह फिरोज तुगलक के समय तक चलती रही। वस्तुतः यहॉ से प्राप्त धन के सहारे ही अलाउद्दीन सुल्तान बनने का स्वप्न देखने लगा था। अलाउद्दीन द्वारा देवगिरि पर आक्रमण जलालुद्दीन के समय की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। इससे न केवल अलाउद्दीन की महत्वाकांक्षाएॅ ही बलवती हुई अपितु उसे वे साधन भी उपलब्ध हो गये जिनकी सहायता से वह दिल्ली का सुल्तान बन सका।

जलालुद्दीन का मूल्यांकन –

जलालुद्दीन खलजी एक निष्ठावान, निष्कपट, दयालु और उदार व्यक्ति था पर वह शाही सत्ता का दृढ़ता के साथ प्रयोग करने में असमर्थ रहा। बल्बन की कठोर विचारधारा में पल यथार्थवादी राजनीतिज्ञ उसके भावुकता से प्रेरित कार्यों से निराश हुए। बलवन के सिंहासन पर बैठने से इनकार करते हुए उसने अमीरों से कहा, “तुम जानते हो कि मेरे पूर्वजों में कोई भी शासक नहीं था जिससे राजत्व का अभिमान और गौरव मुझे विरासत में मिलते। सुल्तान बल्वन यहाँ बैठते थे और मैंने उनकी सेवा की है। उस शासक के भय और गौरव ने मेरे हृदय को अभी का त्यागा है। यह महल बल्बन ने बनवाया था जब वह खान था और यह उसकी, उसके पुत्रों व संबंधियों की संपत्ति है।“
इस प्रकार की भावनाएँ व्यक्त करने वाला सत्तर वर्षीय जलालुद्दीन उस युग के शासकों नीति का पालन करने में पूर्णतः असमर्थ था। उसका दुर्भाग्य यह रहा कि उसके सत्ता में आते ही विद्रोह और षड़यंत्रों का क्रम प्रारंभ हो गया। विद्रोहियों के प्रति उसने दुर्बल नीति अपनाई और कहा, “मैं एक वृद्ध मुसलमान हूँ और मुसलमानों का रक्त बहाने की मेरी आदत नहीं है।“ इसी तरह अपनी विदेश नीति में भी उसने अत्यंत दुर्बलता का परिचय दिया।
जलालुद्दीन की इस दुर्बलता का लाभ उठाकर उसके दामाद व भतीजे अलाउद्दीन को बलपूर्वक सिंहासन हथियाने का उचित अवसर मिल गया। भिलसा, चंदेरी व देवगिरि के सफल अभियानों से वह अपार धन लेकर आया था। इस कोष और प्रशिक्षित सेना की सहायता से उसे अपनी योजना कार्यान्वित करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। सावधान रहने की अवहेलना कर जलालुद्दीन अपने प्रिय भतीजे से मिलने गया और अलाउद्दीन के शह पर उसकी हत्या कर दी गई। यह घृणित कृत्य 20 जुलाई, सन् 1296 को किया गया। इस सन्दर्भ में बरनी का कहना है कि “शहीद सुल्तान के कटे हुए मस्तक से अभी रक्त टपक रहा था जब शाही चंदोबा अलाउद्दीन के सिर के ऊपर उठाया गया और वह सुल्तान घोषित किया गया।“

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