Introduction (विषय-प्रवेश)
गयासुद्दीन बलवन की गणना न केवल दास वंश के सर्वश्रेष्ठ सुल्तान के रुप में होती है बल्कि उसे हिन्दुस्तान के सर्वश्रेष्ठ मुस्लिम शासको मे से गिना जाता है। एक शासक के रूप में उसने राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्त से लेकर उत्तम शासन व्यवस्था और निष्पक्ष न्याय व्यवस्था कायम करने में सफलता अर्जित की। सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद के नायब के रूप में उसने शासन की सारी सत्ता अपने हाथ में केन्द्रित कर ली थी। यह अनुमव उसके काम आये जब वह 1265 ई0 मे सुल्तान बना। समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी ने बलवन के राज्यकाल का विस्तृत विवरण देते हुए एक शासक के रुप में उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। यद्यपि बलबल अपने लम्बे अनुभव और शासन के वावजद अपने उत्तराधिकारी के लिए ठोस आधार तैयार करने में असफल रहा जिसके लिए उसका पुत्र भी कम उत्तरदाई नही थे। वास्तव मे जब उसके युवराज पुत्र की युद्ध क्षेत्र में मृत्यु हो गई तो इससे बलबन पूरी तरह तरह टूट गया फिर भी उसने लम्बे समय तक सफलता पूर्वक शासन करके भारतवर्ष में “दिल्ली सल्तनत“ को स्थायित्व प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
बलबन के राजत्व सम्वन्धी सिद्धान्त (Kingship theory of Balban)-
सम्भवतः बलबन दिल्ली का एकमात्र सुल्तान है जिसने राजत्व सम्बन्धी अपने विचारों का विस्तारपूर्वक विवचन किया है। राजमुकुट को उच्च और सम्मानित स्तर पर स्थापित करने के लिए और सामंतशाही के विरोध व संघर्ष को समाप्त करने के लिए भी यह आवश्यक था कि राजा के पद को अधिक प्रतिष्ठित बनाया जाय। बलबन के राजत्व सिद्धान्त का स्वरुप और सार फारस के राजत्व से प्रेरित था। उसने फारस के लोक प्रचलित वीरों से प्रेरणा लेकर अपना राजनीतिक आदर्श निर्मित किया था और उसका अनुकरण करते हुए उसने राजत्व की प्रतिष्ठा को उच्च सम्मान दिलाने का प्रयत्न किया। उसने राजा को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि अर्थात ‘नियाबते खुदाई‘ माना। बलबन ने कठोरतापूर्वक अपने व्यक्तित्व को अपने राजत्व के लिए बलिदान किया। बलबन का विश्वास था कि राजा का पद ईश्वर द्वारा इसलिए प्रदान किया गया है कि वह जनता के कल्याण के लिए कार्य करे। सुल्तान द्वारा प्राप्त होने वाले संरक्षण और देखभाल के लिए जनता को उसका आभारी होना चाहिए। यह तभी संभव था जबकि सुल्तान अपने कर्तव्यों के प्रति सतर्क हो। यदि वह जनहित की ओर ध्यान न देकर राजा के पद और प्रतिष्ठा को आघात पहुॅचायेगा तो उसे अपने राज्यकाल में किये गये अपराधों और दुष्कर्मो के लिए अन्तिम फैसले के दिन दण्ड भोगना पडेगा।
- राजा के दैवीय सिद्धान्त का प्रतिपादन- बलबन ने राज्य के देवीय सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उसका कहना था कि राजा या सम्राट पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनीधि होता है, उसपर पर ईश्वर की विशेष अनुकम्पा होती है। ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध कोई भी व्यक्ति सम्राट नही हो सकता है। इस दृष्टि से कोई भी व्यक्ति उसकी बराबरी नही कर सकता है। अतः समी को सम्राट की आज्ञाओं का पालन करना चाहिए। बलबन ने कहा कि सुल्तान का पद ईश्वर के समान होता है और सुल्तान का निरंकुश होना जरुरी है क्योंकि सुल्तान का शक्ति ईश्वर से प्राप्त होती है। इसलिए उसके कार्यो की सार्वजनिक जॉच नही हो सकती है। इस प्रकार बलबन सम्राट या सुल्तान का भूत लोगो के हृदय में इस प्रकार बैठा देना चाहता था जिससे भी कोई व्यक्ति शासक बनने का स्वप्न न देखें या विद्रोह न करे।बलवन का राजत्व सम्वन्धी सिद्धान्त उसके द्वारा दिए गए उसके पुत्र बुगरा खॉं के उपदेशो से स्पष्ट प्रकट होते है जो इस प्रकार से है –उसका विचार था कि सम्राट को निम्न व्यक्तियों का सम्मान नहीं करना चाहिए और कमी भी उन्हें राज्य में उच्चपद प्रदान नहीं करने चाहिए, सम्राट को साम्राज्य के अंदर अनादर और अशिष्टता को रोकने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए और उसके लिए जुर्माने तथा दण्ड की ब्यवस्था होनी चाहिए, सम्राट को चाहिए कि वह चरित्रवान और कर्तव्यपरायण व्यक्तियों को ही सरकारी पदों पर नियुक्त करे, सम्राट को सदैव अल्लाह के भय तथा प्रजा का सुख का ध्यान रखते हुए राज्य की मर्यादा तथा गौरव को बढाना चाहिए तथा उचित अवसरों पर शक्ति का प्रदर्शन भी करना चाहिए।
दरवार के वैभव में वृद्धि – बलबन ने दरबार की शान-शौकत पर विशेष ध्यान दिया और इस दिशा में आवश्यक कदम उठाए। उसका दरवार बड़ा ही सज-धज कर लगता था। सुल्तान बड़ी ही कीमती पोशाकें धारण करता था जिसमे सोने और चॉंदी का काम रहता था। दरबारियों के लिए भी विशेष बस्त्र पहनकर दरबार में आने की आज्ञा दी गई।उसने लम्बे-तगडे और देखने में खूॅखार किस्म के व्यक्तियों को अपना अंगरक्षक नियुक्त किया था जो दरबार में उसके अगल-बगल नंगी तलवारे लिए खड़े रहते थे। शानो शौकत और सत्ता के इस प्रदर्शन का प्रभाव सरदारों और जनसाधारण पर पडा और इससे सुल्तान की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा में निश्चित रुप से वृद्धि हुई। इसके अतिरिक्त बलबन ने विदेशों से आये हुए विद्वान व्यक्तियों और सम्मानित राजपुरूषों को अपने दरबार में स्थान दिया। इससे विदेशों में उसका सम्मान बढा और उसे मुस्लिम सभ्यता का संरक्षक माना जाने लगा। इस प्रकार उसने दरबार की शान-शौकत और तड़क-भड़क पर विशेष जोर दिया।
समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी में उसकी दरबारी तड़क-भड़क का वर्णन करते हुए लिखा है कि उसकी दरबारी तडक-भड़क और साज-समान को देखने के लिए सौ-सौ तथा दो-दो सौ कोस के आदमी आते थे और देखकर दातों तलें उॅंगली चबाकर रह जाते थे। दिल्ली में इससे पूर्व किसी भी सुल्तान ने इस प्रकार के ठाठ-बाट और वैभव का प्रदर्शन नही किया था।अनुशासन की कठोरता पर बल – बलवन ने अपने शासन काल में कठोर अनुशासन बनाए रखने का सतत प्रयास किया। बलबन का मानना था कि राजशाही स्वभावतः निरंकुश होती है। वह स्वयं बहुत ही गंभीर रहता था। उसकी गंभीरता का वर्णन इतिहासकार बरनी ने इन शब्दो में किया है – उसने गम्भीरता का इतना जबरदस्त चोंगा पहन लिया था कि अपने प्रिय पुत्र शहजादा मुहम्मद की मृत्यु का समाचार सुनकर भी वह विचलिल नहीं हुआ और दरवार का कार्य करता रहा और उसने अपने इस दुख पर एकान्त में ध्यान दिया।
सुल्तान बलवन ने स्वयं शराब पीना छोड़ दिया। वह न तो स्वयं हंसी-मजाक करता था और न किसी दरबारी को ही इस प्रकार की छूट थी, एक तरह से उसने गंभीरता धारण कर ली थी। इस सम्बन्ध में आधुनिक इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद ने अपनी पुस्तक ‘‘दिल्ली सल्तनत‘‘ में लिखा है कि- वह कभी भी अपने दरबार मे न तो जोर से हंसा और न ही मजाक करता था और अपनी उपस्थिती में उसने किसी को भी हॅसी अथवा मसकरी का आनन्द लेने की इजाजत ही न दी थी।- उच्चवर्ग के व्यक्तियों को प्रसय देना – अपने राजदरबार में बलबन ने उच्चवंश के लोगो कों ही केवल प्रसय दिया था। उसने वंशानुगत अधिकार के महत्व को समझकर अपने को विद्वान फिरदौसी की रचना ‘‘शाहनामा‘‘ के शूरवीर पात्र अफरासियाब का वंशज बताया जो उस काल में तुर्को की सबसे उच्च जाति मानी जाती थी। वह निम्नवंश के लोगों से बात करना भी अपना अपमान समझता था। बलबन ने ‘जिल्लिलाह‘ अथवा जिल्ले-इलाही अर्थात ईश्वर का प्रतिबिम्ब की उपाधी धारण की जिसे केवल खलीफा ही घारण कर सकता था। निश्चित रुप से इन कार्यो से उसे अपनी शक्ति प्रदर्शित करने और सुल्तान पद की प्रतिष्ठा को बहाल करने में काफी मदद मिली।
ईरानी परम्पराओं का प्रचलन – बलबन ने अपने राजत्व को प्रभावशाली बनाने के लिए ईरानी आदर्शों पर अपने दरबार को सजवाया। बलबन ने ईरानी परम्पराओं के अनुसार दिल्ली दरबार में कई परम्पराएॅ आयोजित करवाई। ‘जश्ने नवरोज‘ का त्योहार प्रतिवर्ष बड़ी धूमधाम से मनाने की व्यवस्था की गई तथा ‘सिजदा‘ और ‘पैबोज‘ जैसी ईरानी परम्पराओं का प्रचलन राजदरबार में प्रारंभ हुआ। भूमि पर लेट कर अभिवादन करना ‘सिजदा‘ कहा गया है जबकि सुल्तान के चरणों में गिर कर चूमना पैबोज था। बलबन ने कुछ फारसी रहन-सहन की परम्पराओं को भी अपनाया। उसने अपने पौत्रों का नाम भी फारसी सम्राटों की तरह कैकुबाद, कैम्यूर्मस, कैखुसरों आदि रखे। इन सब कार्यो से लोगों के दिलों में श्रद्धा और भय का भाव उत्पन्न होता था।
बलवन द्वारा अपनाया गया उपरोक्त राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्तो का मूल उद्देश्य यह था कि वह सुल्तान के पद की प्रतिष्ठा पुनः कायम करना चाहता था क्योकि उसने सुल्तान नासिरुद्दीन के समय में यह देखा था कि इस पद की प्रतिष्ठा नष्ट हो गई है। दूसरे वह चहलगानी के अन्य सदस्यो को कमजोर और नष्ट करना चाहता था जो उसके प्रतिद्धन्दी हो सकते थे। न्याय देने के मामले में वह पूर्णतः निष्पक्ष रहता था परन्तु अपराधियों को अत्यन्त कठोर दण्ड देने में वह विश्वास रखता था। एक प्रकार से बलबन ने ईश्वर, शासक और जनता के बीच त्रिपक्षीय सम्बन्ध को राज्य का आधार बनाने का प्रयत्न किया। इसी कारण उसने जनहित को शासन का व्यवहारिक आदर्श बनाया। राजत्व को वह एक विरासत मानता था और विरासत में प्राप्त होने वाला राजत्व ही वास्तविक और औचित्यपूर्ण था। वह मानता था कि यदि इस प्रकार के राजत्व अत्याचारी हो तब भी जनता उसे स्वीकार करेगी और उसके नियमों का पालन करेगी। परन्तु जो राजत्व विरासत में प्राप्त नही होगा उसमें राजत्व के गुण और विशेषताएॅ नही होंगी। वह वैभवशाली और गंभीर होने पर भी अल्पकालीन होगा और जनता का समर्थन प्राप्त नही कर सकेगा।
इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद अपनी पुस्तक ‘‘दिल्ली सल्तनत “ में लिखते है कि बलबन की न्याय व्यवस्था पूर्णतः निष्पक्ष और इस्लामी कानूनों पर आधारित थी। बलबन ने अपने राजस्व सम्बन्धी सिद्धान्त के आधार पर लम्बे समय तक शासन करने में सफलता प्राप्त की। इस प्रकार बलबन में साम्राज्यवादी नीति का परित्यार करके आतंक और रक्तपात की नीति अपनाकर राज्य तथा राजपद को प्रतिष्ठित किया। उसने शासन को ऐसी सुदृढ शासन-व्यवस्था प्रदान की जिसका अनुकरण अलाउद्दीन ने भी किया। यदि बलवन साम्राज्यवादी नीति का परित्याग न करके राज्य को दृढता न प्रदान करता तो आने वाले समय में अलाउद्दीन खिलजी अपनी साम्राज्यवादी नीति में सफल न हो पाता। इस प्रकार बलबन एक सफल सैनिक विजेता, कुशल शासन प्रबन्धक तथा दूरदर्शी राजनीतिज्ञ था जिसने नवस्थापित तुर्की राज्य को उन परिस्थितीयों में नष्ट होने से बचा लिया। इस प्रकार बलबन मध्यकालीन भारतीय इतिहास में सदैव महानतम और स्मरणीय शासकों में से एक रहेगा।
बलबन की महत्वपूर्ण उपलब्धियां (Main Achievements of Balban):
सुल्तान बनने के पश्चात बलबन ने अपने राज्य की शासन व्यवस्था को सुदृढ बनाने के लिए निम्नलिखित कार्य किये –
- चालीसा दल का अन्त – सुल्तान बनने के बाद बलबन ने इस बात की आवश्यकता को महसूस किया कि इल्तुतमिश ने जिस 40 गुलामों के दल को सृजित किया है और जो इल्तुतमिश को साम्राज्य स्थापित करने में सहयोग करते थे, उस चालीसा दल के अमीर इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद अन्य सुल्तानों के प्रति उतने स्वामिभक्त नहीं रह गये है और वह स्वयं को कभी- कभी सुल्तान के समकक्ष समझने लगे है। सुल्तान की इज्जत करना उन्होने कम कर दिया है तथा अक्सर शासन सम्बन्धी नीति में बाधा उत्पन्न करते थे। अतः बलबन ने 40 अमीरों के इस दल को नष्ट करने का निश्चय किया। इसके लिए बलबन ने मुख्यतः दो कार्य किये – एक तरफ उसने कम महत्वपूर्ण तुर्की अमीरों को दरबार में महत्व देना शुरु किया तथा दूसरी तरफ उसने 40 अमीरों के दल के सदस्यों को मामूली अपराध करने पर कठोर दण्ड देकर उन्हे पदच्युत भी किया। बदायूॅ के इक्तादार मलिक बकबक को जनसाधारण के सम्मुख कोडों से पीटा गया क्योंकि उसने एक दास को कोडों से पीटकर मार दिया था। इसी प्रकार अवध के इक्तादार हैबात खॉ को अपने एक दास की हत्या कर देने के अपराध में 500 कोडे लगाये जाने की सजा दी गइ्र्र। वस्तुतः बलबन अपने और अपने वंश के अधिकार की सुरक्षा और सम्मान की वृद्धि के लिए किसी भी तरीके को अपनाने में नही हिचका।समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी ने अपनी पुस्तक ‘‘तारीख-ए-फिरोजशाही‘ में लिखा है कि -‘‘चालीस दलों के अमीरों के प्रति बलबन के कठोर नीति के कारण उसका चचेरा भाई शेर खॉ इस सन्देह से डर गया और दरबार में आना जाना बन्द कर दिया परन्तु 1270 ई0 में बलबन ने उसे बिष देकर मार डाला।‘‘ इस प्रकार बलबन ने अपनी कठोर दमनकारी नीति के कारण 40 अमीरों के दल को समाप्त करने में सफल हुआ।
कुशल गुप्तचर विभाग की स्थापना- बलबन ने अपने शासनकाल में एक कुशल गुप्तचर विभाग की स्थापना की। बलबन ने राज्य के सभी प्रान्तों और दूर-दराज के इलाकों तक अपने गुप्तचर नियुक्त किये। इसके लिए उन्होने एक कुशल गुप्तचर विभाग की स्थापना की। वह स्वयं भी इस विभाग में दिलचस्पी लेता था। गुप्तचरों को उसने प्रान्तों तथा उसके गवर्नरों से मुक्त रखा जिससे वे बिना किसी भय के राज्य में होने वाले प्रत्येक गतिविधियों की खबर नियमित रुप से उसके पास भेजते थे। इसके अतिरिक्त यदि कहीं पर अमीरों द्वारा षडयन्त्र की बात होती थी तो उसकी सूचना बलबन को पहले ही मिल जाती थी जिससे बलबन को समय रहते ही आवश्यक कार्यवाही करने का मौका मिल जाता था। बलबन ने अपने पुत्रों, इक्तादारों, सैनिक अधिकारियों, प्रशासकीय अधिकारियों आदि सभी के साथ अपने गुप्तचर नियुक्त किये। इन गुप्तचरों को बरीद कहा जाता था। बलबन स्वयं उनकी नियुक्ति करता था और उनपर पर्याप्त धन व्यय करता था। उनसे आशा की जाती थी कि वे प्रत्येक महत्वपूर्ण सूचना को प्रतिदिन सुल्तान के पास भेजेंगे। यदि उनमें से कोई अपने कर्तव्य की पूर्ति में असफल हो जाता था तो उसे कठोर दण्ड दिया जाता था। बदायूॅ के संवाददाता को जिसने मलिक बकबक के सम्बन्ध में सुल्तान को उचित समाचार नही भेजा था, नगर के फाटक पर लटकवा दिया था। गुप्तचर सुल्तान से सीधा सम्पर्क करते थे और उनके आदेशों का पालन करते थे।
आधुनिक इतिहासकार आर्शीवादी लाल श्रीवास्तव ने बलबन के गुप्तचर विभाग के बारे में लिखा है कि – बलबन अपनी निरंकुश शासन नीति को कुशलतापूर्वक यदि लागू कर सका तो उसके पीछे उसके गुप्तचर विभाग की सफलता का प्रमुख हाथ था।सुदृढ शासन व्यवस्था- ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है कि बलबन की शासन व्यवस्था अंशतः सैनिक भी थी और राजनीतिक भी। दिल्ली सल्तनत की स्थापना मूलतः सैनिक शक्तियों के द्वारा हुई थी। इसके अतिरिक्त दिल्ली सल्तनत को अभी पूर्ण स्थाईत्व प्राप्त नही हुआ था और राज्य में बराबर विद्रोह हुआ करते थे। इसलिए किसी भी सुल्तान के लिए सैन्य शक्ति रखना आवश्यक था। इसी कारण बलबन ने अपनी सेना को विशाल और कुशल बनाने का प्रयास किया। बलबन ने अपनी सेना की संख्या में वृद्धि की तथा हजारों अनुभवी और वफादार सैनिक अधिकारियों की नियुक्ति की। वह स्वयं सेना के प्रशिक्षण पर बल देता था। उसने सेना के लिए अलग से विभाग बनाया जिसे ‘‘दीवान-ए-आरिज‘‘ का नाम दिया गया और इस पद पर हमाद-उल-मुल्क को नियुक्त किया जो अत्यन्त इमानदार और परिश्रमी व्यक्ति था। बलबन ने उसे वजीर के आर्थिक नियंत्रण से मुक्त कर दिया था जिससे कि उसे धन की कमी न हो। आर्शीवादी लाल श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक दिल्ली सल्तनत में लिखा है कि – बलबन ने राज्य संगठन की दिशा में कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन नही किया बल्कि पहले से चली आ रही व्यवस्था में कुछ सुधार करके और व्यक्तिगत रुप से इसका संगठन करने में रुचि प्रदर्शित करके सेना के संगठन को सुदृढ करने में सफलता पाई।
कुतुबुद्दीन ऐवक के समय में सैन्य विभाग के जो नियम विद्यमान थे उनमें उसने कुछ परिवर्तन करवाए। उसमें बहुत से ऐसे सैनिक थे जो सेना में रहते हुए भी उस जागीर का लाभ उठाते थे। बलबन ने ऐसे जागीरों की जॉच करवाई जो विभिन्न व्यक्तियों के सैनिक सेवा के बदले शासकों द्वारा दी गई थी। उनमें अनेक व्यक्ति ऐसे भी थे जो जागीरे प्राप्त करके उनके बदले में राज्य की कोई सेवा नही करते थे। ऐसे सभी व्यक्तियों की जागीरे छीन लेने के आदेश दिये गये। जो व्यक्ति राजा या राज्य की सेवा कर रहे थे उनकी जागीरों से आय एकत्र करने का अधिकार सरकारी कर्मचारियों को दिया गया और जागीरदारों को नकद धन देने के आदेश दिये गये। परन्तु सुल्तान बलबन को अपने मित्र फखरुद्दीन के कहने पर अनेक वृद्ध पुरुष और विधवा स्त्रियों को उनकी जागीरें वापस देने की आज्ञा देनी पडी। इसके अतिरिक्त सेना का केन्द्रीकरण किया गया हो ऐसा कोई प्रमाण प्राप्त नही होता। ऐसा भी कोई प्रमाण नही मिलता जिससे यह साबित हो सके कि सैनिकों को नकद वेतन दिया जाता हो। सैनिको को पहले की तरह ही भूमि दी जाती रही। इक्तादारों और सरदारों को अपनी सेना की व्यवस्था करने का स्वयं अधिकार रहा। इस कारण सैनिक संगठन में कुछ दोष बने रहे परन्तु फिर भी बलबन के समय में सेना की शक्ति में वृद्धि अवश्य हुई। राजनीतिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बलबन ने फूट उत्पन्न करने वाली प्रवृतियों को दृढता से दबाया।विद्रोह का दमन और तुगरिल खॉ का विद्रोह- बलबन जब दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा तो उसके कुल सलाहकारों ने उसे सलाह दिया कि सुल्तान को नए-नए प्रदेश जीतकर साम्राज्य का विस्तार करना चाहिए। इससे सुल्तान की प्रतिष्ठा बढेगी परन्तु बलबन यथार्थवादी था इसलिए उसने आवश्यक समझा कि पहले उन प्रदेशों की पुनर्विजय आवश्यक है जो कुछ समय पूर्व दिल्ली के अधीन रह चुके है। बलबन ने सर्वप्रथम इन विरोधियों की ओर ध्यान दिया और लम्बे संघर्ष के बाद इनका दमन करने में सफलता प्राप्त की। जिस समय बलबन दिल्ली का सुल्तान बना उस समय बंगाल का शासक तुगरिल खॉ था। उसने प्रारंभ में बलबन की अधीनता स्वीकार कर ली और आर्थिक कर भी भेजता रहा। परन्तु जब बलबन अस्वस्थ हुआ तो ऐसे में उसने 1279 ई0 में अपने को स्वतन्त्र घोषित कर दिया। बलबन ऐसे प्रान्त की स्वतन्त्रता स्वीकार नही कर सकता था जो कभी दिल्ली सल्तनत की अधीन रह चुका हो, अतः उसने अवध के शासक अमीन खॉ के नेतृत्व में एक बडी सेना बंगाल भेजी। अमीन खॉ की सेना बंगाल की सेना से बुरी तरह पराजित हुई और अमीन खॉ युद्ध छोडकर भाग गया और किसी प्रकार दिल्ली पहुॅचा। बलबन ने उसे फॉसी की सजा दे दी। इसके पश्चात उसने दो बार और सेना भेजी परन्तु हर बार उसकी सेना को पराजित होकर लौटना पडा। अन्त में बलबन से स्वयं सेना के साथ अपने पुत्र को लेकर प्रस्थान करने का निश्चय किया। बलबन का सेना के साथ आने का समाचार सुनकर तुगरिल खॉं राजधानी छोडकर ढॉका के समीप सुनारगॉव की तरफ भागा परन्तु बलबन ने उसका पीछा किया और हाजीनगर में उसका वध कर दिया और उसके अनुयायियों को कठोर दण्ड दिये। इतिहासकार बरनी ने लिखा है कि – लखनौती के मुख्य बाजार के दोनो ओर दो मील लम्बी तख्तों की एक कतार खडी की गई और तुगरिल खॉ के समर्थकों को उन पर ठोक दिया गया। ऐसे वीभत्स दृश्य को देखकर अनेक व्यक्ति मूर्छित हो गये। बलबन ने अपने पुत्र बुगरा खॉ को बंगाल का इक्तादार नियुक्त किया और उसे उस बाजार के दृश्य को दिखाते हुए सलाह दी कि वह कभी भी दिल्ली के विरुद्ध विद्रोह करने का साहस न करें। इसके पश्चात बलबन दिल्ली लौट आया।
बलबन की एक मुख्य समस्या विद्रोहियों को दमन था। दोआब, बदायूॅ, अमरोहा, कटेहर आदि स्थानों पर ही विद्रोह नही होते थे अपितु दिल्ली के नागरिक भी असुरक्षित थे। विद्रोही और लुटेरे राजमार्गो पर हमला करते थे, व्यापारियों को लूटते थे और लगान अधिकारियों को पीटकर भगा दिया करते थे। सिंहासन पर बैठते ही बलबन ने सर्वप्रथम दिल्ली की सुरक्षा का प्रबन्ध किया जहॉ मेवातियों ने आतंक फेला रखा था। दिल्ली की चारों दिशाओं में चार किलों का निर्माण करके वहॉ अफगान सैनिकों की नियुक्तियॉ कर दी गई। एक ही वर्ष में दिल्ली को इन लुटेरों के आतंक से मुक्त कर दिया गया। अगले वर्ष बलबन ने दोआब और अवध के विद्रोहो को भी दबाने में सफलता पाई।- उत्तर-पश्चिमी सीमा की सुरक्षा- उत्तर पश्चिमी सीमा से निरन्तर मंगोलों के आक्रमण का भय बना रहता था इसलिए बलबन ने नए प्रदेशों को विजित करने से पहले यथार्थवादी नीति को अपनाते हुए पहले उत्तर पश्चिमी सीमा की सुरक्षा करने का प्रबन्ध किया। प्रारंभ में बलबन ने अपने चचेरे भाई शेर खॉ को उत्तर पश्चिमी क्षेत्र का सूबेदार बनाया और उसी के जिम्मे उत्तर पश्चिमी सीमा की रक्षा का भार सौंपा। बलबन ने उसे दिल्ली के निकट की जागीर प्रदान की परन्तु जब वह कुछ वर्षो तक वहॉ नही आया तो बलबन ने उसे जहर दिलवाकर मरवा दिया। 1270 ई0 में जब शेर खॉ की मृत्यु हो गयी तो इस सीमा को दो भागों में बॉट दिया। लाहौर, मुल्तान और दिपालपुर क्षेत्र का गवर्नर उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र शहजादा मुहम्मद को और सुमन, समाना और उच्छ के क्षेत्र का गवर्नर अपने दूसरे पुत्र बुगरा खॉ को बनाया। प्रत्येक शहजादे के साथ लगभग 18 हजार घुडसवारों की एक शक्तिशाली सेना रखी गयी। शहजादा मुहम्मद एक वीर और साहसी सेनापति था। उसने मंगोलों का सामना किया और अपने जिवित रहते हुए उसने कभी भी मंगोलों को भारतीय सीमा में बढने नही दिया। मंगोलों के साथ 1286 ई0 में संघर्ष करते हुए शहजादा मुहम्मद की मृत्यु हो गयी। बलबन को शहजादा मुहम्मद की मृत्यु का बहुत बडा सदमा लगा और उसके मात्र एक वर्ष के पश्चात ही 1287 ई0 में उसकी भी मृत्यु हो गयी।
- निष्पक्ष न्याय व्यवस्था- बलबन ने अपने शासनकाल में निष्पक्ष न्याय व्यवस्था की स्थापना की। जनसाधारण के प्रति तो वह किसी प्रकार के अन्याय को सहने के लिए तैयार ही नही था और यदि उसके किसी भी दरबारी द्वारा जनसामान्य के प्रति अन्याय किया गया तो उसने उसे कठोर दण्ड दिया। उसने अपने पुत्रों और अधिकारियों को चेतावनी दी थी कि यदि वे निष्पक्ष न्याय नही करेंगे तो उन्हे दण्ड दिया जायेगा। बलबन का विश्वास था कि केवल न्याय का पालन करके ही वह न केवल अपनी मुक्ति पा सकता है अपितु धर्म की रक्षा और राजकीय कर्तव्य की पूर्ति कर सकता है। उसका विश्वास था कि यदि उसके प्रशासकीय व अन्य कार्य न्याय पर आधारित नहीं होगे, यदि उनकी राजकीय प्रतिष्ठा तथा वैभव राज्य से अत्याचार और दमन का विनाश करने में सफल नही हुए तो शासक के रुप में वह पूर्णतः असफल रहेगा। प्रो0 हबीबुल्लाह ने बलबन के न्याय व्यवस्था की काफी प्रशंसा की है और निःसन्देह बलबन जनसाधारण के प्रति न्यायपूर्ण था। अपनी निष्पक्ष न्याय व्यवस्था के कारण ही वह आम जनसाधारण के बीच कठोर शासन व्यवस्था के वावजूद प्रतिष्ठित हो सका।
मूल्याङ्कन (Conclusion):
लेकिन इन आलोचनाओं के वावजूद भी बलबन को एक योग्य शासक माना गया है। बलबन अपनी योग्यता से सुल्तान बना था और उसने कठोर तथा दमनकारी नीतियों को अपने शासन का आधार बनाया परन्तु उन परिस्थितीयों में ऐसा करना आवश्यक भी था। उसने सुल्तान पद की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया, राज्य में फैली अराजकता को समाप्त किया, विद्रोहों का दमन किया, विद्रोही इक्तादारों के दण्ड दिया, दिल्ली सल्तनत की सीमाओं को सुरक्षित रखा और उसके अन्तर्गत शान्ति और व्यवस्था स्थापित की। साधारण नागरिकों के प्रति बलबन बडा दयालु था और उनके प्रति उसने ‘पितातुल्य चिन्ता‘ का प्रदर्शन किया। बलबन ऐसी नीति का पालन करना चाहता था जो जनता का हृदय जीत सके। वह मानता भी था कि सुल्तान की नीति को न तो अधिक कठोर होना चाहिए और न ही अत्यधिक उदार। बलबन जानता था कि शासन की समस्यायें कठिन है और उनके समाधान के लिए गंभीर चिन्तन व सावधानी आवश्यक है। अतः राज्यारोहण के बाद बलबन के व्यक्तित्व में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ।