विषय-प्रवेश (Introduction)
1857 में घटित वह घटना जिसे प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम, गदर क्रन्ति, ईसाईयों के विरूद्ध धर्मयुद्ध आदि की संज्ञा प्रदान की जाती है लगभग 100 वर्षो से चले आ रहे ब्रिटिश सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा प्रशासनिक शोषण के खिलाफ भारतीय जनमानस में असन्तोष का परिणाम था। सहिष्णुता और शान्ति की बह रही जीवनधारा का छेडने का कार्य ब्रिटिश सरकार की उस प्रक्रिया ने किया था जिसपर चलकर ब्रिटिश साम्राज्यवादी नींव मजबूत हो रही थी। ब्रिटिश सरकार की उन्ही अन्यायपूर्ण एवं दमनात्मक नीतियों के कारण भारतीय जनमानस में असन्तोष बढ रहा था जिसके परिणामस्वरूप भारतीय जनता ने 1857 ई0 के पूर्व अनेंको बार विद्रोहो का प्रदर्शन किया था जिसका उल्लेख भारतीय गवर्नर जनरलों ने भारत सचिव को लिखे गये अपने अनेक पत्रों में किया है। इन विद्रोहो में प्रमुख थे- 1806 का बैलोर विद्रोह, 1824 का बैरकपुर का सैनिक विद्रोह आदि। यद्यपि इन विद्रोहो को दबा दिया गया किन्तु ये विद्रोह अंग्रेजो के विरूद्ध होने वाले विद्रोहो की श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कडी था। दुर्भाग्य यह भी था कि अंग्रेजो ने इन विद्रोहो से कोई सबक नही लिया और 1857 में एक बार फिर वही गलती की जो 1806 के बैलोर विद्रोह के समय कर चुके थे। इसका अर्थ यह कदापि नही है कि 1857 में चर्बीयुक्त कारतूसों का प्रयोग न किया जाता तो यह विद्रोह ही न होता। तात्कालीन परिस्थितीयॉ इस प्रकार बन गई थी कि विद्रोह अवश्यंभावी था किन्तु चर्बीयुक्त कारतूस का प्रयोग न किया गया होता तो संभव यह था कि विद्रोह कुछ समय के स्थगित अवश्य हो जाता। वस्तुतः स्पष्ट है कि 1857 ई0 में ऐसी परिस्थितीयों ने जन्म लिया जिससे कि पहले से सुलग रही असन्तोष की अग्नि अचानक ज्वालामुखी की भॉति विस्फुटित होकर सम्पूर्ण भारत में फैल गयी।
कारण (Causes)
अधिकांश युरोपीय इतिहासकार 1857 के विद्रोह का कारण चर्बीयुक्त कारतूसों को बताते है किन्तु आधुनिक भारतीय इतिहासकार इस मत से सहमत नही है। आधुनिक भारतीय इतिहासकारों के अनुसार - 1857 के विद्रोह के लिए अंग्रेजों की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, प्रशासनिक तथा सैन्य नीतियॉ जिम्मेदार थी। अंग्रेज जिस तरह से भारतीय जनता का शोषण कर रहे थे उसको ध्यान में रखते हुए 1857 के विद्रोह का अध्ययन करें तो कारण स्वतः स्पष्ट हो जाते है। अंग्रेजों की इन नीतियों के परिणामस्वरूप भारतीय जनता में असन्तोष निरन्तर बढ रहा था जो कि 1857 तक आते-आते अपनी चरम सीमा पर पहुॅच गयी। इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध इतिहासकार विपिन चन्द्र लिखते है कि - “The reason of this Mess upsort has to sought in the nature of the British rule which adversely effected the interests of all section or society.”
इस प्रकार स्पष्ट है कि 1857 के विद्रोह के लिए किसी एक कारण को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता वरन् इसके लिए अनेक कारण सामूहिक रूप से उत्तरदायी थे।
आर्थिक कारण –
धार्मिक और सामाजिक कारण –
अंग्रेज भारतीयों को सदैव हेय दृष्टि से देखते थे। उनका मानना था कि भारत में प्रचलित विभिन्न धर्मो से उनका धर्म श्रेष्ठ है। चार्टर ऐक्ट, 1813 के द्वारा ईसाई मिशनरीयों को भारत में धर्मप्रचार करने की अनुमति प्राप्त हो गयी। इन मिशनरियों ने सम्पूर्ण भारत में ईसाई धर्म का प्रचार किया जिसके लिए उन्होने लोगों को भारतीय धर्मो के दोष तथा ईसाई धर्म के गुण की ओर ध्यान आकर्षित किया। अपने धर्म के प्रचार के लिए इन मिशनरियों ने भारत के विभिन्न भू-भाग में विद्यालयों की स्थापना भी की जिनका उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा भारतीयों को ईसाई धर्म का अनुयायी बनाना था। अतः मिशनरी स्कूलों में बाइबिल की शिक्षा अनिवार्य कर दी गयी तथा इनमें ईसाई धर्म की सर्वोच्चता का पाठ पढाया जाता था। अतः भारतीयों को अपना धर्म संकट में दिखाई पडने लगा। इसी समय यह अफवाह फेली कि ब्रिटिश सरकार ईसाई मिशनरियों के साथ मिलकर भारतीयों का धर्म परिवर्तन करा रही है। इन सभी कारणों से भारतीय अत्यन्त भयभीत हो गये और अपने धर्म की सुरक्षा के लिए अंग्रेजों के विरूद्ध हथियार उठाने का विवश हुए। इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध इतिहासकार विपिन चन्द्र ने लिखा है कि – “The rumor about the government secrets to promote conversion to Christianity further exasperated the Sepoy. The officer missionary nexus gave credence to the Rumors.”
राजनीतिक और प्रशासनिक कारण –
सैनिक कारण –
मंगल पाण्डेय का गिरफ्तार कर लिया गया तथा 09 अप्रैल 1857 को फॉसी दे दी गई। अंग्रेजो ने यथासंभव यह प्रयत्न किया कि मंगल पाण्डेय का फॉसी दिये जाने की खबर का प्रचार न होने पाये किन्तु शीध्र ही यह खबर सम्पूर्ण भारत में फैल गई तथा 10 मई 1857 को मेरठ में भी सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। इसके बाद लगातार विद्रोह होते गये और इस प्रकार 1857 के विद्रोह का प्रारम्भ हो गया।
1857 के विद्रोह की असफलता कारण –
1857 का विद्रोह आधुनिक भारतीय इतिहास की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। यह विद्रोह जो कि भारत के विभिन्न भूभागों में किया गया था तथा जिसमें समाज के सभी वर्ग के लोगों ने भाग लिया था, अन्ततः असफल ही समाप्त हुआ। यहॉ यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय स्तर का इतना सशक्त विद्रोह क्यों असफल हो गया। यदि हम इसके असफलता के कारणों का अध्ययन करें तो स्पष्ट होता है कि वास्तव में यह विद्रोह किसी एक कारण से नही वरन् अनेक कारणों से असफल हुआ था। संक्षेप में, इसकी चर्चा निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है –
1 – इस विद्रोह की असफलता का सर्वप्रमुख कारण यह था कि इसमें केन्द्रीय संचालन का अभाव था। भारत के विभिन्न भू-भागों में विद्रोह हो रहे थे लेकिन उसमें पारम्परिक सम्बन्ध का नितान्त अभाव था। साथ ही साथ कोई शक्ति भी नही थी जो इस आन्दोलन को संचालित करती। जब एक स्थान पर विद्रोह होता था तो दूसरे स्थान अथवा भारत के दूसरे हिस्से में विद्रोह शान्त रहता था तथा जब पहले समानान्तर विद्रोह का दबा दिया जाता था तब दूसरा राज्य विद्रोह करता था। इस प्रकार अंग्रेजी सेनाएॅ विभिन्न स्थानों पर होने वाले विद्रोहों को दबाने में सफल हो जाती थी। यदि समस्त भारतीय जनता और देशी रियासतों ने एक साथ विद्रोह किया होता तो अंग्रेजों के लिए अपनी सीमित सेना के द्धारा दबाना कठिन हो जाता। ऐसी स्थिती में भारतीयों द्धारा किया गया यह विद्रोह निश्चित रूप से सफल हुआ होता परन्तु दुर्भाग्यवश केन्द्रीय संचालन के अभाव में यह संभव हो न सका और अंग्रेजी सेना आसानी से विभिन्न राज्यो द्धारा किये गये विद्रोहो को दबाते चले गये। इस प्रकार यह विद्रोह असफल हुआ।
2 – 1857 के विद्रोह की असफलता का एक प्रमुख कारण यह भी था कि भारतीय रियासतों की सेनाओं के मुकाबले में अंग्रेजी सेना कही अधिक शक्तिशाली थी। ब्रिटिश शासन में अत्यधिक अनुशासन था तथा उनके पास आधुनिकतम हथियार थे। साथ ही साथ ब्रिटिश सेना विजय प्राप्त करने के लिए प्रत्येक रणनीति का सहारा लेती थी दूसरी ओर भारतीय राजाओं की सेनाएॅ अत्यन्त युद्धकुशल होने के बाद भी आधुनिकतम हथियार न होने के कारण अनेक बार संकट में पड जाती थी। यह भी सर्वविदित है कि इसमें भाग लेने वाली रियासते आकार में छोटी-छोटी थी तथा उनको निकटवर्ती रियासतों का समर्थन और सहयोग नही मिला था। अतः ये रियासते अंग्रेजी सेना का सामना करने में असफल रही। उदाहरणस्वरूप – झॉसी की रियासत का उल्लेख किया जा सकता है। झॉसी की रानी ने असाधारण शौर्य का परिचय दिया था किन्तु निकटवर्ती ग्वालियर रियासत की मदद न मिलने तथा अपने सीमित साधनों के अभाव में अन्ततः वह भी अंग्रेजों से पराजित हो गयी। यही स्थिती लगभग सभी रियासतों की थी।
3 – 1857 के विद्रोह की असफलता का एक अन्य कारण अन्य रियासतों द्धारा अंग्रेजों की मदद करना था। इन रियासतों में ग्वालियर, पटियाला तथा जीन्द का नाम स्मरणीय है। ग्वालियर तथा पटियाला रियासतें शक्तिशाली थी लेकिन उन्होने सदैव अंग्रेजों का साथ दिया। यदि इन रियासतों ने विद्रोहियों का साथ दिया होता तो उत्तर भारत में निश्चित रूप से अंग्रेजों का सफाया हो गया होता लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा न हो सका। जिस समय झॉसी की रानी और अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध चल रहा था उस समय यदि ग्वालियर रियासत ने अंग्रेजों का साथ दिया होता तो अंग्रेजों की पराजय निश्चित थी। इस तथ्य को अंग्रेजी प्रशासक और इतिहासकारों ने भी स्वीकार किया है।
4 – इस विद्रोह की असफलता का एक अन्य कारण विद्रोहियों के पास योजना का अभाव था। अनेक विद्रोही संगठनों को यह ज्ञात ही नही था कि उन्हे करना क्या है। इसके अतिरिक्त उनके पास कोई ठोस रचनात्मक विचार भी नही थे कि यदि उन्हे अंग्रेजी शासन से मुक्ति मिल गई तो वे भविष्य में क्या करेंगे। यदि इन विद्रोहियों के पास कोई निश्चित योजना होती तथा वे जनता के समक्ष अपनी रचनात्मक विचार रखते तो विद्रोहियों को निश्चित रूप से अपेक्षाकृत अधिक जनसमर्थन मिला होता। विद्रोहियों के पास समान आदर्श नही था जिससे विद्रोह पूर्णतः स्थानीय प्रकृति का बनकर रह गया।
5 – नर्मदा नदी के दक्षिण में विद्रोह की अग्नि की लपटें न पहुॅच सकी। अफगानिस्तान का शासक दोस्त मुहम्मद तथा नेपाल ने मित्रता निभाई और राजस्थान तथा सिन्ध प्रान्त प्रायः शान्त रहे। महाजन, सौदागर, जमींदार आदि भी इस आन्दोलन के लक्ष बन गये थे। अतः इस वर्ग के लोगों ने नीहित स्वार्थवश अंग्रेजों का ही साथ दिया।
6 – आधुनिक पाश्चात्य शिक्षित व्यक्तियों ने भी इस विद्रोह का समर्थन नही किया क्योंकि उनकी धारणा थी कि पाश्चात्य शिक्षा पद्धति तथा आंग्लभाषा के माध्यम से देश का पिछडापन दूर हो सकता है परन्तु शीध्र ही उनका यह भ्रम दूर हो गया। यातायात तथा संचार के आधुनिक साधनों ने भी अंग्रेजो की सफलता में अहम भूमिका निभाई।
7 – अन्त में, राष्ट्रवाद का केन्द्रीय स्वरूप न होने के कारण भिन्न-भिन्न धर्म, जाति, भाषाभाषी तथा क्षेत्रों के लोग संकीर्णताओं से उपर न उठ सके जिसके कारण विद्रोह राष्ट्रीय न बन सका।
1857 के विद्रोह के परिणाम अथवा प्रभाव –
जहॉ तक इस विद्रोह के परिणाम और प्रभाव का प्रश्न है- इस विद्रोह से भारत में ब्रिटिश शासन के एक युग का अन्त और दूसरे शासन का प्रारम्भ होता है। इस विद्रोह के कुछ तात्कालिक और कुछ दूरगामी परिणाम सामने आये जो निम्नलिखित है –
1 – विद्रोह के परिणामस्वरूप ब्रिटिश भारत की शासन व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन किया गया। ब्रिटिश महारानी की 01 नवम्बर 1858 की उद्घोषणा से भारत में इस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन समाप्त हो गया और भारत का प्रशासन ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन हस्तान्तरित हो गया। निदेशक मण्डल का स्थान भारतीय परिषद ने ले लिया जिसका प्रधान प्रधानमन्त्री हुआ करता था। महारानी विक्टोरिया की राजकीय घोषणा के द्धारा भारत में उदार, मित्रता, न्याय एवं शासन पर आधारित राज्य की स्थापना की मनोकामना की गई। कम्पनी के प्रतिवादों के वावजूद सरकार का नियन्त्रण अन्तिम रूप से साम्राज्ञी के अधीन चला गया।
2 – विद्रोह के कारणों का सम्यक् अध्ययन करने के पश्चात अंग्रेजी सरकार ने अपनी नीतियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये। ‘फूट डालो और शासन करो‘‘ की नीति का अनुसरण जोरो से होने लगा। उन्होने सेना और शासन के पुनर्गठन का आधार धर्म और जाति को बनाया। सेना का नये सिरे से पुनर्गठन कर भारतीय एवं ब्रिटिश सैनिको के अनुपात को कम कर दिया गया।विद्रोह ने हिन्दू-मुसलमानों को एक कर दिया था लेकिन अब अंग्रेज हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोडने और उनमें दरार पैदा करने का प्रयास करने लगे। इसमें वे काफी सफल भी हुए।
3 – 1857 के विद्रोह के पश्चात् सीमा विस्तार तथा भारतीय राज्यों के आन्तरिक मामलों में ‘‘अहस्तक्षेप की नीति‘‘ सिद्धान्ततः स्वीकार कर ली गयी। लार्ड डलहौजी द्धारा अपनाई गयी हडप नीति भी समाप्त कर दी गई। अंग्रेजो ने भारतीय उच्चवर्गो तथा पारम्परिक संस्थाओं को यथास्थिती प्रदान करने की नीति बनाई और अब वे किसी भारतीय के उद्धार करने के सम्बन्ध में नहीं सोच सकते थे।
4 – 1857 के विद्रोह के परिणामस्वरूप अंग्रेजों की मनोवृति में भी काफी बदलाव आया। विद्रोह का दमन अत्यधिक कठोरता और निर्दयता से किया गया था जिसे भूलना भारतीयों के लिए असम्भव था। गैरेट के शब्दों में -‘‘अंग्रेजों ने भारतीय बन्दियों को अदालत के सामने पेश किये बगैर ही मार डाला जो नृशंसता और बर्बरता की पराकाष्ठा थी। हजारो शान्तिप्रिय नागरिकों को तलवार के घाट उतार दिया गया।‘‘ परिणामतः शासकों और शासितो के बीच की खाई और विस्तृत हो गई तथा भारतीयों में ब्रिटिश साम्राज्य को नष्ट-भ्रष्ट करने की भावना जागृत होने लगी।
5 – इसके अतिरिक्त इसके दूरगामी परिणाम भी सामने आये जिसे किसी न किसी रूप में स्वतन्त्रता प्राप्ति तक देखा जा सकता है। सन् 1857 की याद ने राष्ट्रीय आन्दोलन को बढावा दिया, स्वतन्त्रता के लिए लडने वालों के हृदय में उत्साह जागृत किया और सबसे बढकर संघर्ष के लिए ऐतिहासिक आधार प्रदान किया। विदेशी जुए को उतार फेकने का भारतीय संघर्ष के लिए यह एक ज्वलन्त उदाहरण था जिसके कारण इसे भारतीय स्वातन्त्रता के पहले संग्राम के नाम से जाना जाता है। श्री सुन्दरलाल ने अपनी पुस्तक ‘‘भारत में अंग्रेजी राज्य‘‘ में लिखा है कि – ‘‘इसमें सन्देह नही है कि यदि सन् 1857 ई0 की क्रान्ति न हुई होती तो उसका यही अर्थ था कि भारतवासियों मे से साहस, आत्मगौरव, कर्तव्यपरायणता और जीवनशक्ति का अन्त हो चुका होता। अंग्रेजी शासकों के हौसले फिर सौ गुना बढ गये होते और भारतवासियों के जीवन करीब-करीब वैसी ही होती जैसा कि अफ्रीका और अमेरिका के उन आदिम निवासियों की जिनकी सैकडों वर्षो का अस्तित्व यूरोपियन जातियों के उपनिवेश बने हुए है।‘‘
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