window.location = "http://www.yoururl.com"; New traditions of Indian Historiography. // भारतीय इतिहास लेखन की नवीनपरम्पराएँ

New traditions of Indian Historiography. // भारतीय इतिहास लेखन की नवीनपरम्पराएँ


भूमिका-

सामान्यतया सभी इतिहासकार विशेषकर युरोपीय इतिहासकार यह मानते है कि प्राचीन भारत में भारतीयों को इतिहासबोध नही था किन्तु वास्तव में ऐसा नही है। प्राचीन भारतीय साहित्य अत्यन्त सम्प्रद है तथा उसमें अनेक ऐसे ग्रन्थ है जिसे पूर्णतया ऐतिहासिक ग्रन्थ होने की संज्ञा दी जाती है। उदाहरणार्थ – पुराण, मुद्रा राक्षस, हर्षचरितम्, देवी चरित्रम् और तरंगणी जैसे ग्रन्थों का उल्लेख किया जा सकता है। इन ग्रन्थों से हमें विस्तृत ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त होती है। अतः यह मानना कि प्राचीन भारतीय लोगों में इतिहासबोध नही था, तर्कसंगत नही है। किन्तु यहॉं यह उल्लेख करना आवश्यक है कि प्राचीन काल में जो ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखे गये वे सामान्यतया राजवंशों से ही सम्बन्धित थे। ये ग्रन्थ या तो किसी राजा के जीवन चरित्र के रूप में मिलते है या फिर किसी वंश विशेष के दरबार में रहने वाले दरबारी कवि अथवा लेखक के द्धारा रचित है जिसमे उस वंश की उपलब्धियों का वर्णन किया गया है।

आम जनता के इतिहास पर प्रकाश डालने वाले प्राचीनकालीन ग्रन्थों का निःसन्देह अभाव प्रतीत होता है अतः ऐसा लगता है कि युरोपीय इतिहासकार मुख्यतः इसी तथ्य को आधार बनाकरी भारतीय इतिहास पर यह आक्षेप करते है। किन्तु इस आक्षेप के आधार पर युरापीय इतिहासकारों के आक्षेप को स्वीकार नही किया जाना चाहिए क्योंकि इतने प्राचीन काल के इतिहास के सम्बन्ध में सम्भवतः किसी भी देश की ऐतिहासिक रचनाओं का यदि हम अवलोकन करेगे तो उनमें भी यही कमी पाई जाएगी। इस कमी से युरोपीय देश भी अछूते नही है अतः इसी आधार पर प्राचीन भारतीय लोगों के लिए यह माना जाय कि उनमें ऐतिहासिक बोध नही था तो फिर यही बात युरोपीय देशों के लिए भी कही जानी चाहिए, अतः इस तथ्य को स्वीकार नही किया जा सकता।

मध्यकालीन भारत में इस्लाम के आगमन के साथ ही भारत में इतिहास लेखन की नवीन परम्राओं का भी अभिर्भाव हुआ जिससे इतिहास से सम्बन्धित ग्रन्थों की संख्या में तीव्र वृद्धि हुई। ऐसा प्रतीत होता है कि मुसलमान इतिहास के विषय में प्रारम्भ से ही अधिक सचेत थे, यही कारण है कि हजरत साहब के समय से इस्लाम पर लेखन प्रारम्भ हो गया। प्रारंभिक इस्लामिक इतिहास अरबी भाषा में मिलता है किन्तु इस्लाम का अरब की सीमाओं से बाहर प्रचार होने पर तुर्की तथा फारसी भाषा में भी इस्लाम की रचना की जाने लगी। इस्लाम के भारत में आगमन के साथ ही भारत में भी भारतीय इतिहास से सम्बन्धित फारसी तथा तुर्की भाषाओं में ऐतिहासिक रचनाएॅ की जाने लगी। इस काल के इतिहासकारों में प्रमुख जियाउद्दीन बरनी, इब्नबतूता, हमीद लाहौरी, अबुल फजल आदि है। यहॉं यह भी उल्लेखनीय है कि मध्यकाल में अनेक शासकों ने भी कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक कृतियों का सृजन किया। उदाहरणार्थ – बाबर, जहॉगीर इत्यादि का नाम लिया जा सकता है। मध्यकाल की रचनाओं का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि इस काल में भी राजवंशों अथवा सम्राटों के इतिहास अथवा उपलब्धियों को ध्यान में रखकर रचनाएॅ की गई किन्तु इस काल के प्रमुख इतिहासकार भी अधिकांशतः प्रत्यक्षतः-अप्रत्यक्षतः सम्राटों से जुडे थे। अतः प्राचीन काल के समान इस युग में भी जनसाधारण के इतिहास अथवा लोक इतिहास का अनदेखा किया गया।
इसके पश्चात भारत में अंग्रेजो का आगमन हुआ। भारत में अंग्रेजो के आगमन के साथ ही भारतीय इतिहास लेखन में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ। अंग्रेजो के आगमन के साथ ही जहॉं एक ओर इतिहास लेखन में अत्यधिक तीव्रता आई वही दूसरी ओर इतिहास लेखन की साम्राज्यवादी विचारधारा का उदय हुआ।

साम्राज्यवादी विचारधारा का उदय –

यह जानना रोचक है कि किस प्रकार 16वी -17वी शताब्दी में युरीपीय लोग एशियाई इतिहास में रूचि प्रदर्शित कर रहे थे तथा इस प्रकार यह रूचि भारतीय लोगों का वैज्ञानिक अध्ययन बनी जिसे बाद में प्राच्य (oriental) की संज्ञा दी गई। यद्यपि प्रारम्भ से ही एक सभ्यता के द्धारा दूसरी सभ्यता का अध्ययन किये जा चुके थे। उदाहरणार्थ – रश्यूदीन द्धारा चीन की सभ्यता का अध्ययन, अलबरूनी द्धारा भारत की सभ्यता का अध्ययन, टेरोण्डो टान द्धारा विश्व की सभ्यता का अध्ययन आदि। फिर भी मानक एवं गहराई की दृष्टि से एशियाई इतिहास पर युरोपीय लेखन अन्य सभ्यता की तुलना में बहुत आगे निकल गया। जैसे 18वी सदी तक औपनिवेशिक साम्राज्यों की स्थापना से पहले युरोपीय प्राच्यविदों ने बहुत से स्रोत खोज लिए थे तथा अध्ययन कर उसे सही रूप में प्रस्तुत किया था किन्तु जैसे जैसे भारत में औपनिवेशिक साम्राज्य बढता गया वैसे वैसे ऐतिहासिक रचनाओं की संख्या प्रतिवर्ष बढती चली गई।

जहॉं तक भारतीय इतिहास लेखन का प्रश्न है यह प्रयास वारेन हेस्टिंग्स द्धारा 1772 ई0 तक की संरक्षित मूल रचनाओं के अनुवादों की श्रृंखला पर प्रारम्भ हुआ। हेस्टिंग्स की भारत में विशेष रूचि थी अतः उसने एशिया के सम्बन्ध में इतिहास से भूगोल तक सभी विषयों का पूरा पूरा अध्ययन के लिए एक संस्था की स्थापना कराई जिसे ‘‘एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल‘‘ का नाम दिया गया। इस संस्था के द्धारा महत्वपूर्ण एशियाई रचना अनुवादित की गई। उदाहरण के तौर पर विलियम जोन्स ने ‘उपनिषदों‘ का अनुवाद किया। इस संस्था द्धारा अनुवादित एवं प्रकाशित पुस्तके अत्यन्त उच्च कोटि की थी तथा उससे न केवल भारत बल्कि विश्व के प्रसिद्ध इतिहासकार एवं विद्धान जुडे हुए थे। यही कारण है कि 19वी शताब्दी में एशियाटिक सोसायटी के तत्वाधान में बहुत से अरबी फारसी तथा संस्कृत के मूल ग्रन्थ का सम्पादन किया गया जिससे भारतीय इतिहासकारों को एक नई दिशा मिली। यह कहना ज्यादा उचित होगा कि युरोपीय योगदान से स्रोत विषयों का अनुवाद तीव्र गति से हुआ। प्राच्यवादियों के बिना भारतीय इतिहास का ज्ञान निश्चित रूप से बहुत कम होता, इस बात को स्वीकार करने में हमें झिझक नही होनी चाहिए। प्रिन्सेप ने ब्राह्मी लिपि को पढकर मौर्य राजवंश के इतिहास को प्रकाश में लाया। ब्राह्मी लिपि को पढ लिए जाने से भारतीय इतिहास में विश्वसनीय काल युग की स्थापना तथा प्राचीन भारत का वैज्ञानिक अध्ययन संभव हो सका। इसमें कनिंघम की पुरातात्विक खोजें भी शीध्र ही जुड गई। कनिंघम ने नवीन स्तरों की खोज की तथा प्राचीनकालीन ईंटो तथा कलाकृतियों को पहचानते हुए इन्ही के आधार पर सर्वे रिपोर्ट में 20 खण्ड लिखे जो आज भी भारतीय पुरातत्व में मूल स्रोत माने जाते है। इसके अतिरिक्त इन युरोपीय प्राच्यविदों ने भारतीयों के लिए अबतक अज्ञात महत्वपूर्ण चीनी लेखकों के वर्णनों को भी खोजा जिससे भारतीय इतिहास पर एक नयी दृष्टि पडी। उदाहरण के तौर पर फाह्यान तथा व्हेनसांग आदि का उल्लेख किया जा सकता है।

इस प्रकार भारतीय इतिहास के क्षेत्र में उपलब्धियॉं निर्विवाद रूप से प्राच्यवादियों की है। यद्यपि प्राच्यवादी रचनाएॅ अनेक प्रकार से वैज्ञानिक है किन्तु इसमें अनेक पक्षपातपूर्ण धारणाएॅ भी मिलती है। अंग्रेजों के लिए यह धारणा अधिक महत्वपूर्ण थी कि उनके विचार उन लोगों से पूर्णतया भिन्न है जिसका वे अध्ययन कर रहें थे। इन इतिहासकारों की यह भी धारणा थी कि एशियाई हीन लोग है। इसके अतिरिक्त युरोपीयनों की एशियाईहीनता की यह धारणा जाति पर नही अपितु धर्म पर आधारित थी। उल्लेखनीय है कि अंग्रेजों ने यद्यपि भारतीय स्मारकों तथा कलाकृतियों की प्रशंसा की है किन्तु उसे युरोप की कलाकृतियों की तुलना में निम्नस्तरीय बताया है। यह अवधारणा की युरोपीय, एशियाईयों से श्रेष्ठ है, एशियाई दृष्टिकोण से नितान्त आपत्तिजनक है। इस प्रकृति के मूल में जो विचार व्यक्त किए जा रहे थे तथा जो रचनाएॅ लिखि जा रही थी उसी को बाद में साम्राज्यवादी इतिहासलेखन की संज्ञा दी गई। इस प्रकार के इतिहास लेखन के दृष्टिकोण के दो उल्लेखनीय उदाहरण है –

  1. हेनरी इलियट
  2. वी0 ए0 स्मिथ

इसमें कोई सन्देह नही है कि मध्यकालीन भारतीय इतिहास लेखन में इलियट का योगदान महत्वपूर्ण है और आज भी उनके द्धारा सम्पादित किये गये ग्रन्थ भारतीय ग्रन्थों पर भारी पडते है। इलियट की वास्तविक आलोचना उनके द्धारा लिखित इतिहास की नही वरन स्रोतो के चयन करने के ढंग से सम्बन्धित है। स्रोतों के इस चयन में इलियट का उद्देश्य प्राच्यवादियों के समान युरोपियनों की अपेक्षा एशियनों की हीनता पर बल देना था। इसमें सन्देह नहीं है कि यदि आप अपने ग्रन्थों को पढे तो आपको भारतीय इतिहास का विस्तृत विवरण प्राप्त होगा।

यदि इलियट ने भारतीय इतिहास में युरोपीय श्रेष्ठतावादी रचनाओं के लिए आधारभूत सामग्री उपलब्ध की तो कई अन्य इतिहासकारों ने इसी आधार पर द्धितीय श्रेणी के इतिहास का लेखन किया जिसमें वी0 ए0 स्मिथ की ‘‘आक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इण्डिया‘‘ विशेष महत्वपूर्ण है। इस पुस्तक को पढने से पता चलता है कि लेखक इस बात का विश्वास देता है कि भारतीयों को जीवित रहना है क्योंकि वे हीन है। लेखक यह भी विश्वास दिलाता है कि तथाकथित मुस्लिम विजय अनावश्यक है क्योंकि मुसलमानों की तुलना में अंग्रेजों ने भारत के लिए बहुत कुछ किया है।
इस प्रकार कुल मिलाकर साम्राज्यवादी तथा प्राच्यवादी इतिहास लेखन की प्रमुख विशेषताएॅ निम्नलिखित कही जा सकती है –

  1. भारतीय इतिहास से सम्बन्धित अनेक नवीन स्रोतों की खोज। उदाहरणार्थ शिलालेख, मुद्राएॅं, चीनी लेखकों के वर्णन इत्यादि तथा इन नये खोजे हुए स्रोतो का अपनी रचनाओं में समावेश किया जाना।
  2. व्यापार, वाणिज्य, तथा कृषि सम्बन्धी अनेक नई प्रवृतिओं के समावेश द्धारा इतिहास दृष्टि को बदलना।
  3. भारतीय इतिहास का अध्ययन करना तथा उसी आधार पर विभिन्न ग्रन्थों की रचना करना।

राष्ट्रवादी विचारधारा का उदय

साम्राज्यवादी लेखन शैली में अनेक दोष थे। साम्राज्यवादी शब्द का प्रयोग करने में हमें यह नही भूलना चाहिए कि यदि इनकी शोध रचनाएॅ नही होती तो हमारा भारतीय इतिहास का ज्ञान अल्प होता। सौभाग्यवश साम्राज्यवादी इतिहास लेखन की शैली के विरोध में शीध्र ही एक नई शैली का जन्म हुआ जिसे राष्ट्रवादी शैली कहा जाता है। इन राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने साम्राज्यवादी शैली को चुनौती दी तथा सत्य को प्रकाश में लाने की चेष्टा की। इन राष्ट्रवादियों का साम्राज्यवादियों से विवाद मात्र ऐतिहासिकता का नही था और न ही यह केवल विद्वानों के बीच तर्क-वितर्क था बल्कि इसकी जडें तात्कालिन राजनीतिक स्थिती में गहराई तक विद्यमान थी। ब्रिटिश दमन और साम्राज्यवादी नीतियों के कारण आर्थिक शोषण के साथ ही भारत में राष्ट्रवाद के विकास के कारण साम्राज्यवादियों के लिए यह दिखाकर ब्रिटिश लोगो का बचाव करना आवश्यक हो गया कि उनसे पूर्व के शासक और भी अधिक दमनकारी तथा तानाशाह थे। इसमें राष्ट्रवादियों ने अपने खोये वैभव वालें अतीत को दर्शा कर यह चेष्टा भी की कि उनके वर्तमान शासन वास्तव में भारतीयों के कष्ट में तथा गरीब जिन्दगी के लिए उत्तरदायी थे। इन परिस्थितीयों में साम्राज्यवादियों के तर्को का खण्डन करना आवश्यक हो गया था तथा यह कार्य कुशलतापूर्वक राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने किया। सौभाग्य से साम्राज्यवादियों के तरह राष्ट्रवादी विचारधारा में विद्वानों का अभाव न था। इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि साम्राज्यवादी बनाम राष्ट्रवादी ही भारतीय इतिहास को नये विषय के रूप में सृजित किया। इसी सन्दर्भ में राष्ट्रवादी इतिहासकारों में जिनमें आर0 सी0 दत्ता, दादा भाई नौरोजी आदि प्रमुख थे, राष्ट्रवादी इतिहास का जन्म हुआ।

ब्रिटिश इतिहासलेखन की एक अन्य प्रमुख श्रृंखला थी – हिन्दु मुस्लिम विभाजन क्योंकि इसी के आधार पर अंग्रेज  भारत में अपना शासन कायम रख सकते थे। अंग्रेजो ने यह प्रतिपादित किया था कि मुसलमान विदेशी आक्रांता थे जिन्होने भारत की सभ्यता को नष्ट किया था। अंग्रेजो ने यह भी प्रतिपादित किया कि यद्यपि अंग्रेज भी विदेशी थे किन्तु उन्होने मुसलमानों के समान हिन्दू सभ्यता को नष्ट न करके और अधिक सभ्य बनाया। इन दोनो ही मतो ने कुछ समय के लिए भारतीय इतिहासकारों को प्रभावित किया। यहॉं तक कि राष्ट्रवादी इतिहासलेखन भी इससे प्रभावित हुआ। इन मतो ने राष्ट्रवादियों में हिन्दू राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित किया जिसका स्पष्ट प्रमाण बाल गंगाधर तिलक की लेखनी में मिलता है। ये हिन्दू राष्ट्रवादी लेखक निःसंकोच रूप से इतिहास का तथाकथित हिन्दू दृष्टिकोण प्रस्तुत करते है। उन्होने भारत के अतीत को अत्यन्त गौरवशाली बताया तथा भारतीय संस्कृति के पतन के लिए मुसलमानों तथा अंग्रेजो को दोषी ठहराया।

मुस्लिम लेखकों को साम्प्रदायिक इतिहास लेखन को विकसित करने में कुछ समय लग गया। उसकी विशेषता जेम्स मिल जैसे अंग्रेज इतिहासकार की शैली की तरह प्रथमतः यह विश्वास था कि मुसलमानों द्धारा भारतीयों को सभ्य बनाए जाने से पहले भारतीय असभ्य अथवा अधिक से अधिक अर्द्धसभ्य थे। इस इतिहास लेखन की यह भी विशेषता थी कि यह इस्लाम के प्रारंभिक काल को अत्यधिक वैभवशाली प्रदर्शित करता था। इसी कारण अमीर अली जैसे इतिहासकारों ने मुस्लिम शासित भारत के स्थान पर इस्लाम भारत पर अपने ग्रन्थ लिखे। इन इतिहासकारों ने यह भी माना कि जबतक मुसलमान ठंडी जलवायु में रहे तबतक वे शारीरिक रूप से, आध्यात्मिक रूप से और मानसिक रूप से श्रेष्ठ रहे किन्तु जब वे भारत आए तो धीरे-धीरे वे अपने गुण खो बैठे। उल्लेखनीय है कि इस लेखनी में महमूद गजनबी और औरंगजेब को इस्लाम के रक्षक के रूप में बहुत बढा चढा कर दिखाया गया है।

मुस्लिम साम्प्रदायिक शैली द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त पर आधारित नही थी और यह भी सत्य है कि खिलाफत आन्दोलन के कुछ विशेष चरण में उसके अनेक नायक राष्ट्रवादी शिविर में थे किन्तु फिर भी दीर्धकाल में उनके प्रभाव इस अर्थ में विभाजक थे कि वे मुसलमानों का अपना अतीत हिन्दूओ से अलग देखने के लिए प्रोत्साहित करते थे। साम्राज्यवादी तथा साम्प्रदायिक शैली के मध्य एक अन्य शैली का भी अभ्युदय हुआ जिसे इलाहाबाद स्कूल कहा जाता है। इस शैली ने न केवल ऐतिहासिक वास्तविकताओं को देखने पर जोर दिया अपितु इस बात पर विशेष बल दिया कि तात्कालीन आवश्यकताओं को देखना अधिक जरूरी था। इस शैली के सबसे प्रसिद्ध इतिहासकार डा0 ताराचन्द हुये। उन्होने 1933 में “Influence of Islam on Indian culture” नामक अत्यन्त महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी जिसके निष्कर्षो तक पहुॅचने में वे रविन्द्र नाथ टैगोर से काफी प्रभावित हुए थे। रविन्द्र नाथ टैगोर ने सन् 1922 में यह तर्क दिया था कि भारतीय सभ्यता को एक मिली जुली सभ्यता के रूप में समझा जा सकता है। इस लेख में रविन्द्र नाथ टैगोर ने भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए शिवाजी की आलोचना की थी तथा उन्होने लिखा था कि शिवाजी बालू की रस्सी बटने का कार्य कर रहे थे। जो कुछ भी रविन्द्र नाथ टैगोर ने इस लेख में लिखा था उसी को अपनी इस पुस्तक में ताराचन्द ने प्रस्तुत किया। ताराचन्द ने यह तर्क दिया कि भारतीय साहित्य, कला और यहॉ तक कि हिन्दू धर्म भी इस्लाम से प्रभावित है तथा इसी के प्रभाव से हिन्दू धर्म को उन्नति करने में सहायता मिली है।

मार्क्सवादी विचारधारा -

सन् 1941 तक भारत में मार्क्सवादी साहित्य प्रतिबंधित था जिसके परिणामस्वरूप मार्क्सवादी इतिहासलेखन का भारत पर प्रभाव काफी विलम्ब से हुआ फिर भी सन् 1930 के बाद भारत में मार्क्सवादी साहित्य की तस्करी के कारण इसका प्रभाव भारतीय इतिहास लेखन पर दृष्टिगोचर होने लगा। इस विचारधारा के फल्स्वरूप भारत में भी अनेक मार्क्सवादी इतिहासकारों का अभिर्भाव हुआ। इनमें स्वतंत्रता से पूर्व पूरन चन्द जोशी तथा स्वतंत्रता के बाद बिपिन चन्द्रा, रोमिला थापर तथा इरफान हबीब का नाम लिया जा सकता है। स्वतंत्रता के बाद लगभग चार दशकों तक ये भारतीय मार्क्सवादी इतिहासकार भारतीय इतिहास पर छाये रहे लेकिन 20वी शताब्दी के अंतिम दशक में विभिन्न कारणोवश सम्पूर्ण विश्व से ही मार्क्सवादी विचारधारा कमजोर पडने लगी। इसका प्रभाव भारत पर भी हुआ तथा वर्तमान समय में मार्क्सवादी इतिहास विचारधारा उतनी सशक्त नही रही है जितनी कि यह एक दशक पूर्व हुआ करती थी। इसका एक प्रमुख कारण सोवियत संघ का विघटन है। वर्तमान समय में पुनः दक्षिणपंथी विचारधारा सशक्त होने लगी है।

स्वतंत्रता के बाद भारतीय इतिहासकारों ने इस आवश्यकता को समझा कि ब्रिटिशकालीन इतिहासकारों द्धारा लिखित इतिहास का पुनर्लेखन किया जाना आवश्यक था क्योंकि वह इतिहास न केवन ब्रिटिश हितों को ध्यान में रखकर लिखा गया था अपितु इसमें अनेक दोष भी थे। भारत के इतिहास को लिखने वाले अधिकांश अंग्रेज मूल रूप से प्रशासनीक अधिकारी थे जिन्हे इतिहास तथा उसके सिद्धान्तों की वास्तविक समझ ही नही थी तथा उन्होने अपनी रचनाएॅ मूलतः सरकारी रिपोर्टो पर आधारित होकर लिखी थी जो कि सत्य से परे थी। कुछ उदाहरण ऐसे भी देखने को मिलते है जिसमें कि अंग्रेज इतिहासकारों ने अपने अधीनस्थो, पटवारियों आदि से सामग्री एकत्र करवाई तथा उसी को आधार मानकर रचनाएॅ लिखी। यहॉ यह भी उल्लेखनीय है कि अंग्रेज लेखक भारतीय संस्कृति, परम्पराओं तथा संस्कारों से परिचित ही नही थे अतः उनकी रचनाएॅ वास्तविक इतिहास का वर्णन न कर सकी।

स्वतंत्रता के बाद भारतीय सरकार ने भी भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन को विशेष महत्व दिया तथा अनेक इतिहासकारों द्धारा पुनर्लेखन का कार्य कराया। भारतीय इतिहासकारों ने युद्ध तथा राजाओं के इतिहास से उपर उठते हुए जनसाधारण के इतिहास के अध्ययन के महत्व को समझा। सर जदुनाथ सरकार ने भारतीयों को दिखाया कि कैसे स्रोतो को एकत्र कर सही रूप में इतिहास लिखा जाता है। इसी शैली पर कार्य करते हुए आधुनिक इतिहासकारों ने इतिहास के नवीन किन्तु महत्वपूर्ण आयामों पर कार्य किया जिसमें प्रमुख निम्नवत् है –

१- सामजिक-आर्थिक इतिहास (Socio-Economic History)

किसी भी देश को समझने के लिए वहॉ के जनजीवन व अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया जाना आवश्यक माना गया है। इस विचारधारा को आगे ले जाने वाले विद्धानों में प्रो0 इरफान हबीब, प्रो0 रामशरण शर्मा, प्रो0 रोमिला थापर आदि प्रमुख है। इस विचारधारा के अन्तर्गत जाति व्यवस्था, सामाजिक स्तरीकरण, शिल्पकार, रेलवे, सडक, यातायात, जनसंचार, नगरपालिकाओं तथा उद्योगों आदि का अध्ययन आवश्यक समझा गया तथा भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में इससे सम्बन्धित शोध कार्य प्रारम्भ हो गये। इसी सन्दर्भ में निम्न स्तर के लोग (sub eltern studies)नामक पुस्तक का उल्लेख किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। यह कार्य डा0 रंजीत गुहा द्धारा प्रारम्भ किया गया। इसमें समाज के निचले वर्गो से सम्बन्धित विषयों का वर्णन किया जाता है। इस पुस्तक के आठ खण्ड अबतक प्रकाशित हो चुके है।

2- शहरी इतिहास (Urban History)

वर्तमान समय में शहरी इतिहास को भी इतिहास लेखन की प्रमुख शैली माना जाता है। इसके अन्तर्गत शहरी सभ्यताओं का विकास, नगरीकरण, जनसाधारण पर उसका प्रभाव, शहरी उद्योग-धन्धे इत्यादि का अध्ययन किया जाता है। इसको विकसित करने वाले विद्धानों में प्रो0 जे0एस0 ग्रेवाल तथा प्रो0 इन्दु बंगा का नाम प्रमुख है।

3- स्थानीय या क्षेत्रीय इतिहास (Local History)

स्वतंत्रता से पूर्व सामान्यतः वृहद (macro) विषयों पर कार्य करने को प्राथमिकता दी जाती थी किन्तु स्वतंत्रता के बाद यह आवश्यक समझा गया कि किसी भी देश के इतिहास का वास्तविक निर्माण करने के लिए बारीकी (Micro) से अध्ययन किया जाना आवश्यक है। उदाहरण स्वरूप – स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गॉंधी, जवाहरलाल नेहरू आदि प्रमुख नेताओं के योगदान को तो सभी जानते है लेकिन भारत के प्रत्येक क्षेत्र में अनेक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हुये है जिन्होने देश की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। दुर्भाग्य है कि वे भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के नींव के पत्थर बनकर अज्ञात है तथा उन्हे कोई नही जानता है। आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि ऐसे लोगों तथा उनके कार्यो को प्रकाश में लाना आवश्यक है, तभी हम इतिहास का निर्माण कर सकेगे। इस बात को ध्यान में रखते हुए स्थानीय तथा क्षेत्रीय विषयों पर शोध एवं लेखन की प्रवृति बढी। इस शैली के विकास में यू0पी., पंजाब, राजस्थान, बंगाल आदि प्रान्तों ने विशेष योगदान दिया तथा विभिन्न विश्वविद्यालयों में अत्यन्त सूक्ष्म अध्ययन किये गये।

4- मौखिक इतिहास (Oral History)-

वर्तमान समय में मौखिक इतिहास को भी अत्यन्त महत्ता दी जाती है। इसके अन्तर्गत लोकगीत, परम्पराएॅ, तथा कहावतों आदि का उल्लेख किया जाता है। उल्लेखनीय है कि सम्राट अकबर का ध्यान अजमेर के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की ओर तब आकर्षित हुआ था जब उसने कुछ शासकों को उनके विषय में गीत गाते हुआ सुना था तथा इस घटना से मौखिक इतिहास का महत्व स्पष्ट हो जाता है। इसके अन्तर्गत ही विभिन्न लोगों से साक्षात्कार के द्धारा जानकारी प्राप्त होती है। दुर्भाग्य का विषय है कि भारतीय इतिहास लेखन में इस शैली का समुचित प्रयोग नही किया जाता है जबकि वर्तमान समय में ही युरोप में इतिहास की इस शैली का अत्यधिक प्रयोग होता है। युरोप में इस शैली को विकसित करने वालो में ग्राहम हैरिस का नाम प्रमुख है।

5- राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास (History of National movement)-

वर्तमान समय में भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास पर कार्य करने को भी अत्यन्त आवश्यक माना गया है। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि स्वयं भारतीय सरकार ने राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास लिखाने का कार्य कराया था। किसी भी देश का राष्ट्रीय आन्दोलन उसकी अमूल्य निधि होता है तथा इसी से देश के निवासी प्रेरणा पाते है। इसके साथ ही साथ राष्ट्रीय आन्दोलन का अध्ययन करने से राष्ट्रीयता की भावना भी प्रबल होती है। इसी कारणवश वर्तमान समय में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास का अध्ययन कराया जाना प्रत्येक विश्वविद्यालय के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के द्धारा अनिवार्य किया गया है।

6- पर्यावरणिक इतिहास (Enviornmental History)-

विकसित देशों में वर्तमान समय में पर्यावरण इतिहास को विशेष महत्व दिया जा रहा है। आज जबकि सम्पूर्ण विश्व पर्यावरण की समस्या से ग्रसित है, पर्यावरण इतिहास का अध्ययन आवश्यक हो गया है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आज विश्व के अनेक देशों में पर्यावरणीय इतिहास विषय को पढाना प्रारम्भ किया गया है। भारत में भी इस इतिहास लेखन शैली का धीरे धीरे विकास हो रहा है तथा भारतीय इतिहासकार भारतीय पर्यावरण के इतिहास पर कार्य करना प्रारम्भ कर रहे है। दुर्भाग्य यह है कि अभी तक इस विषय को भारत में पर्याप्त मान्यता नही मिली है क्योंकि संभवतः हम अभी इसके महत्व को समझ नही सके है। पर्यावरण मानव जीवन से प्रत्यक्ष रूप से जुडा हुआ है जो कदम कदम पर मनुष्य के जीवन को प्रभावित करता है अतः इसका अध्ययन किया जाना आवश्यक है। वर्तमान समय में प्रसिद्ध पर्यावरणीक इतिहासकारों में आस्ट्रेलिय के जॉन ड्रैकवाल, अमेरिका के प्रो0 स्अीन, कैम्ब्रिज के डा0 रिजर्ड ग्रीव तथा आस्ट्रिया की डा0 एलिजाबेथ आदि का नाम लिया जा सकता है। ये सभी विद्धान अपने उच्चस्तरीय शोध कार्यो द्धारा पर्यावरण इतिहास को न केवल एक नया रूप प्रदान कर रहे है अपितु विश्व में इसकी लोकप्रियता को भी बढाते हुए इसके महत्व को भी समझाने का प्रयास कर रहे है। यहॉं यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान समय में लगभग प्रत्येक माह विश्व के किसी न किसी माग में पर्यावरण इतिहास से सम्बन्धित सेमिनार अथवा सम्मेलन आयोजित हो रही है। इस बात से इस इतिहास के महत्व को समझा जा सकता है।

7- ऐतिहासिक भूगोल ( Historical Geography)-

ऐतिहासिक भूगोल का अर्थ यह है कि भौगोलिक परिस्थितीयॉं इतिहास को किस प्रकार से प्रभावित करती है अतः इसका अध्ययन किया जाना आवश्यक है। उदाहरणस्वरूप – भारतीय इतिहास में गंगा के दोआब को क्यो महत्व दिया जाता है अथवा किसी विशेष क्षेत्र में ही नगरों का विकास क्यों हुआ। इन सब बातों का अध्ययन किया जाना आवश्यक है तभी हम इतिहास के वास्तविक स्वरूप को लिख सकेगे। इसके लिए भारत पर होनेवाले भौगोलिक प्रभावों का अध्ययन करना आवश्यक है। यदि हम यह नही जानते कि हिमालय का भौगोलिक दृष्टि से क्या महत्व है तो हम ऐतिहासिक दृष्टि से भी उसका अध्ययन करना अत्यन्त कठिन पायेगें। इसी कारणवश आजकल ऐतिहासिक भूगोल विषय को विशेष महत्व दिया जाता है।

8- इतिहास लेखन का इतिहास (History of Historiography)

वर्तमान समय में इतिहास लेखन के इतिहास को भी विशेष महत्व दिया जा रहा है। आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि जबतक इतिहास लेखन की विभिन्न कालों में प्रचलित विधाओं का हम अध्ययन नही करेंगे तबतक सही इतिहास लेखन संभव नही है। उदाहरण के रूप में यदि हम ब्रिटिशकालीन भारत के विषय में लिख रहे है तथा साम्राज्यवादी इतिहास लेखन शैली से परिचित नही है तो हम अपने कार्य के साथ न्याय नही कर सकेगें। अतः इतिहासलेखन के इतिहास का अध्ययन किया जाना अत्यन्त आवश्यक है और यही कारण है कि वर्तमान समय में इस दिशा में अनेक कार्य हो रहे है।

मूल्याङ्कन -

इस प्रकार वर्तमान समय में उपरोक्त समग्र तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इतिहास का पुनर्लेखन किया जाना आवश्यक है क्योंकि तभी हम वास्तविक तथा उपयोगी इतिहास की रचना कर सकेंगे तथा आगामी पीढी को सही इतिहास से अवगत करा सकेगें। आज के युग में पहली आवश्यकता यह है कि इतिहास के अध्ययन के लिए आधुनिक सुविधाओं का उपयोग किया जाय। जैसे अब इतिहास के अध्ययन के लिए कम्प्यूटर ;ब्वउचनजमतद्ध का प्रयोग किया जाने लगा है क्योंकि कम्प्यूटर किसी कार्य को अतिशीध्रता से ही नही करता वरन् किसी भी विषय की व्याख्या करने अथवा निष्कर्ष निकालने में इतिहासकार की मदद भी करता है। इसके अलावा कम्प्यूटर की सहायता से ही इंटरनेट  प्रणाली द्धारा हम सारे विश्व से जुड जाते है। कम्प्यूटर की मदद से ही हम अपने कार्यालय में बैठे हुए ही विश्व के किसी भी स्थान पर रखी सामग्री को प्राप्त कर सकते है। अतः वर्तमान समय में इतिहास के अध्ययन के लिए कम्प्यूटर तथा अन्य आधुनिक उपकरणों की सहायता लेना आवश्यक है।

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