परिचय -
भारत में मुसलमानों के आगमन के पश्चात भारतीय इतिहास लेखन में महत्वपूर्ण बदलाव आया। 13वीं शताब्दी से 15वीं शताब्दी के बीच में भारतीय सन्दर्भ में मुस्लिम इतिहास लेखन से सम्बन्धित जो समकालीन इतिहासकार है उनके द्धारा लिखे गये ऐतिहासिक ग्रन्थ मध्ययुगीन इग्ंलैण्ड के ऐतिहासिक ग्रन्थ से उच्च कोटि के थे। मुस्लिम इतिहास लेखन के प्रारम्भ होते ही भारतीय इतिहासकला अपने पौराणिकता से निकलकर अधिक यथार्थवादी स्वरूप को ग्रहण करने लगती है। कुछ इतिहासकारों का कथन विवादास्पद है कि प्राचीन भारतीय इतिहास का स्वरूप धर्मप्रधान है जबकि भारतीय मुस्लिम इतिहास लेखन का स्वरूप तुलनात्मक रूप से अधिक धर्मनिरपेक्ष है। हिन्दू शासन काल की इतिहास लेखन कला में मुख्यतः काव्यमय इतिहास लिखा गया लेकिन मुस्लिम लेखन कला में काव्यमय इतिहास को कोई स्थान प्राप्त नही था।
दिल्ली सल्तनत काल के मुख्य इतिहासकार मुख्यतः उलेमा वर्ग से सम्बन्धित है परिणामतः इन इतिहासकारों ने अपने ऐतिहासिक ग्रन्थों में इस्लाम के नियमों के आधार पर शासकों, सामन्तों या घटनाओं का मूल्यांकन किया है। ये उलेमा वर्ग शासकों द्धारा दिए गए दान पर निर्भर करते थे अतः उनके इतिहासलेखन पर इस बात का भी प्रभाव पडा। कहने का तात्पर्य यह है कि ये लेखक अपनी लेखनी को स्वतन्त्र रूप से नहीं लिख सके। मुस्लिमों के भारत में आगमन से पूर्व ही इस्लामी इतिहास लेखन में दो परम्परा जन्म ले चुकी थी –
- अरबी परम्परा अर्थात अरबी इतिहास लेखन परम्परा
- इरानी परम्परा
सल्तनत काल का इतिहास लेखन मूलतया इरानी परम्परा पर आधारित है। इरानी परम्परा में ‘हिस्ट्री ऑफ द किंग‘ को ‘हिस्ट्री ऑफ द एज‘ माना जाता है जबकि अरबी परम्परा में ‘हिस्ट्री ऑफ द एज‘‘ को हिस्ट्री ऑफ द किंग‘ माना जाता है। सल्तनत काल के इतिहासकारों ने इरानी परम्परा का अनुसरण करते हुए सुल्तानों की कथाओं को उस युग के इतिहास में चित्रित किया। अरबी परम्परा के मुख्य विशेषता यह थी कि इसमें किसी ऐतिहासिक तथ्य या कथन की सत्यता की जॉंच किये बगैर उसे स्वीकार नही किया जाता है। सत्यता की जॉच करने के लिए किसी घटना को अपनी ऑखों से देखने वाले व्यक्ति के विवरण या कथन को मुख्य आधार बनाया जाता है और इसके उपरान्त उक्त कथन को स्वीकार किया जाता है। लेकिन सल्तनतकाल में इस प्रक्रिया का अनुसरण नही किया गया। 12वी शताब्दी से 13वी शताब्दी के इतिहास लेखन मे इतिहासकार केवल लिखता था, शोध नही करता था। यह दोष मुगलकाल के इतिहास लेखन में जाकर ठीक होता है जहॉं इतिहास लेखन की वस्तु और शैली दोनों ही बदल गई। सल्तनतकाल के इतिहासकारों के इतिहास लेखन का मूल उद्देश्य था- घटना के कारण परिणाम, परिस्थितीयों आदि का उल्लेख किये बिना ही घटना को साधारण रूप में प्रस्तुत करना। उनका इतिहासलेखन साधारण व्यक्तियों की उपेक्षा करता है। उनके इतिहासलेखन की विषयवस्तु है शासक तथा सामन्त लेकिन मुगलकाल में इसमें थोडा परिवर्तन आता है। सल्तनतकाल के इतिहासकार इतिहास की घटनाओं को ईश्वर की इच्छा से प्रेरित मानते थे जो एक संकीर्ण धारणा है और सामाजिक मनोवृति के विरूद्ध है। यह व्याख्या एक धार्मिक तथा आध्यात्मिक व्याख्या थी पर मानवतावाद के विरूद्ध थी। सल्तनतकाल में इतिहासकारों पर हदीद का बहुत प्रभाव पडा।
जियाउद्दीन बरनी अपनी पुस्तक ‘‘तारीख-ए-फिरोजशाही‘‘ में लिखता है कि – ‘‘अगर एक इतिहासकार के लिए सम्भव न हो कि वह स्पष्ट न लिख सके तो संकेतों के माध्यम से उसे स्पष्टतः कह देना चाहिए।‘‘
सल्तनतकाल का इतिहास लेखन मात्र इस्लाम धर्म पर आधारित माना जाता है। इसके कई कारण बताए जाते है-
- इतिहासकारों ने केवल इस तथ्य पर जोर दिया है कि उन्हे हिन्दुस्तान में केवल मुसलमानों का इतिहास लिखना है।
- सल्तनतकाल के इतिहासकारों ने इस्लाम को विश्व शक्ति के रूप में स्वीकार करते हुए इस्लामी दृष्टिकोण से घटनाओं की व्याख्या की है।
- सल्तनतकाल में इतिहासकारों ने ऐतिहासिक तथ्य की तुलना में धार्मिक तथ्य को कुछ ज्यादा ही महत्च दिया है।
स्पष्ट है कि सल्तनतकाल के इतिहासलेखन में अनेक दोष है लेकिन फिर भी यह बहुत हर्ष की बात है कि हमें इस काल का बहुत इतिहास प्राप्त होता है अर्थात ऐतिहासिक ग्रन्थों की संख्या बहुत अधिक है। इस काल में इतिहासकारों ने विभिन्न स्रोतों से जानकारियॉं प्राप्त की जैसे – व्यक्तिगत दस्तावेज, फरमान, डायरी, सनद्, विभिन्न प्रकार के सरकारी दस्तावेज आदि। इस काल में इतिहासलेखन एक व्यवसाय के रूप में स्थापित हुआ अतः इस क्षेत्र में विशेषीकरण, विविधता और प्रतिस्पर्धा है। इन सबके परिणामस्वरूप हमें उच्च स्तर के इतिहास प्राप्त होते है।
बरनी लिखता है कि उसका अपना जीवन पुस्तकों में व्यतीत हुआ। उसका मानना है कि इतिहास का अध्ययन अन्य विषयों से कार्य कारण का सम्बन्ध रखता है। न केवल बरनी वरन् सल्तनतकाल के सभी इतिहासकार इतिहास के अध्ययन को विवेक की बुद्धि माना है। भारत के इतिहास में सल्तनतकालीन इतिहासकारों का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होने तिथि क्रम के सम्बन्ध में एकरूप में ऐतिहासिक ग्रन्थों के अतिरिक्त सूफी साहित्य का अमूल्य योगदान है। सूफी साहित्य से तीन प्रकार की सामग्रीयॉं प्राप्त होती है-
- ऐतिहासिक घटनाएॅ (Pure History)
- केवल कल्पना (Pure Friction)
- सदाचार से सम्बद्ध बातें (Pure Ethical)
सूफी साहित्य दो प्रकार के है –
- वैसा साहित्य जिसका सम्बन्ध सूफी रहस्यवाद से है।
- वैसा साहित्य जिसका सम्बन्ध सूफी सन्तों के जीवन से है।
सल्तनतकाल की सामग्री में समकालीन शोधग्रन्थ है – वसीयतनामा। शासक अपने पुत्रों अथवा उत्तराधिकारियों को सलाह देते थे, उसे वसीयतनामा कहा जाता है। सल्तनतकाल के इतिहास को 4 क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है-
- सामान्य इतिहास
- कलात्मक इतिहास
- ग्रन्थ प्रशस्ती
- उपदेशात्मक इतिहास
सामान्य इतिहास के अन्तर्गत जो इतिहास ग्रन्थ आते है उनमें तिथि क्रम के हिसाब से मूलतया राजनीतिक इतिहास लिखी जाती थी। इसमें बहुत सा गैर-इस्लामी इतिहास भी नीहित है। जैसे- अरब का इतिहास, यूनान, रोम, चीन, इरान आदि का इतिहास। जिस इतिहास में साहित्यिक अभिरूचि स्पष्ट होती थी वह कलात्मक इतिहास कहलाता था। जैसे अमीर खुसरों की ‘खजाइन-उल-फुतुह‘, इसामी की ‘खुतुह-अस-सलाती‘, और हसन निजामी की ‘तागुल-नासिर‘। प्रशस्ती में लिखे गये ग्रन्थ मुख्यतः शम्स-ए-सिराज अफीफ की ‘तारीख-ए-फिरोजशाही‘ और मुहम्मद गजनबी का दरबारी इतिहासकार उत्बी की पुस्तक ‘तारीख-ए-यामिनी‘। उपदेशात्मक इतिहास का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण जियाउद्दीन बरनी की ‘तारीख-ए-फिरोजशाही‘ है। सल्तनतकालीन समकालीन इतिहासकार अपने संरक्षक सुल्तानों को कट्टर मुस्लिम शासक के रूप में चित्रित करते है। इसके मुख्यतः तीन कारण है-
- राजनीतिक आवश्यकता
- सैनिक आवश्यकता
- सांवैधानिक आवश्यकता
भारत में रहने वाले मुसलमानों का राजनीतिक समर्थन प्राप्त करने के लिए इन शासकों को कट्टर मुस्लिम सुल्तान चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त मुस्लिम सेना शासन को तभी समर्थन करती जब उन्हे यह विश्वास रहता कि उनके सुल्तान उनके हितार्थ कार्य करेगा। सांवैधानिक आवश्यकता का तात्पर्य यह है कि सांवैधानिक रूप से एक मूस्लिम सुल्तान को एक इस्लामी नियम के तहत् कार्य करना चाहिए।
सल्तनतकालीन इतिहासकारों को मुख्यतः दो श्रेणियों में बॉटा जा सकता है –
- प्रथम श्रेणी के इतिहासकार वैसे इतिहासकार है जिन्होने तथ्यों की जॉच किये बगैर ही तथ्यों को स्वीकार कर लिया। ऐसे इतिहासकारों ने पहले से स्थापित जॉचे हुए तथ्यों को मूल रूप में अपने ऐतिहासिक ग्रन्थों में स्वीकार किया है। उदाहरणार्थ – मिनहाज-उस-सिराज की पुस्तक ‘तबकात-ए-नासिरी और अहमद सरहिन्दी ने अपनी पुस्तक ‘तारीख-ए-मुबारकशाही‘ में लिखा है कि उसने अपने इतिहास में पिछले इतिहास का अध्ययन किया है।
द्धितीय श्रेणी के इतिहासकार वैसे इतिहासकार है जिन्होने अपना इतिहास घटनाओं को स्वयं देखकर और दूसरों से सुनकर लिखा है। उनके इतिहास में तथ्यों की जॉच नही है। ये इतिहासकार एक विशेष प्रकार की शिक्षा देना चाहते है तथा एक विशेष मान्यता को स्थापित करना चाहते है। उदाहरणार्थ – जियाउद्दीन बरनी यह उपदेश देना चाहता है कि शासन करने का अधिकार केवल उच्चकुलीन वर्ग के लोगो को है। शम्स शिराज अफीफ यह बताना चाहता है कि शक्तिशाली शासक ही वास्तविक शासक होते है। इसामी यह विचार व्यक्त करता है कि मुहम्मद बिन तुगलक का शासनकाल आततायीपूर्ण था।
इसके अतिरिक्त अरब इतिहास लेखन में एक विशेष प्रकार की प्रणाली प्रचलित थी जिसका मूल तथ्य यह था कि किसी भी घटना का जॉच किये बिना स्वीकार मत करो अर्थात प्रामाणिकता के अभाव में किसी तथ्य का इतिहास लेखन में कोई स्थान नही है।