विषय-प्रवेश :
प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और शान्ति व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में राष्ट्रसंध का निर्माण वास्तव में कतिपय शान्ति के पक्षधरों के मस्तिष्क की उपज का समागम था। प्रथम विश्वयुद्ध के परिणाम सम्पूर्ण मानवजाति के लिए विध्वंसकारी तथा दुर्भाग्यपूर्ण सिद्ध हुए थे क्योंकि इस युद्ध में व्यापक स्तर पर जन-धन का विनाश हुआ था। प्रायः सम्पूर्ण मानव जाति युद्ध के समापन तथा विश्व में शान्ति स्थापना के लिए आतुर हो उठी। युद्ध के दौरान अन्तर्राष्ट्रीय समझौता, युद्ध का विकल्प, अन्तर्राष्ट्रीय संगठन आदि बातों पर अक्सर चर्चा होने लगी थी। अमेरिका के उद्योगपति कारनेगी, ब्रिटिश लेखक एच0 जी0 वेल्स, फ्रान्स के बुद्धिजीवी तथा दक्षिणी अफ्रीकी राजनेता जनरल स्मट्स इस दिशा में सक्रिय रूप से कार्यरत थे। लेकिन इनकी आवाज सुनने वाला कौन था क्योंकि इनके हाथों में सत्ता नही थी। अतः इनकी आवाज नक्कारखानों में तूती के समान दब कर रह गई। जैसे ही शान्ति के लिए एक विकल्प लेकर एक राजनेता प्रस्तुत हुआ, उसकी स्वीकृति की संभावना बढ गई। वुडरो विल्सन अमेरिका के राष्ट्रपति थे और इतिहास के अधिकांश अध्यापकों की तरह आदर्शवादी थे। जनवरी 1918 ई0 में वुडरो विल्सन द्धारा प्रस्तुत ‘‘14 सूत्रीय प्रस्ताव‘‘ में भी एक अन्तर्राष्ट्रीय संघ की स्थापना की बात कही गयी।
युद्ध के समाप्त हो जाने के बाद विभिन्न देशों की समस्याओं को हल करने, विजित देशों के साथ सन्धियॉ करने तथा स्थायी रूप से विश्व में शान्ति स्थापना का मार्ग खोजने के लिए 1919 में फ्रांस की राजधानी पेरिस में एक शान्ति सम्मेलन का आयोजन किया गया। पेरिस शान्ति सम्मेलन में जब वुडरो विल्सन स्वयं पहुॅचे तो शान्ति स्थापना और अन्तर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना की संभावनाएॅ बढ गई। राष्ट्रपति वुडरो विल्सन की विशेष इच्छा थी कि समस्याओं का समाधान गुप्त सन्धियों द्धारा नही अपितु खुले रूप में पारस्परिक वार्ताओं के माध्यम से होना चाहिए। उन्होने शान्ति सम्मेलन में उपस्थित सदस्यों के सम्मुख अपना 14 सूत्रीय कार्यक्रम पेश किया जिसका अन्तिम सूत्र राष्ट्रसंघ की स्थापना से सम्बन्धित था। यहॉ वुडरो विल्सन ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह राष्ट्रसंध के निर्माण को सर्वाधिक महत्व देते है। यहॉ मित्र राष्ट्रों ने यह सुझाव दिया कि राष्ट्रसंघ की स्थापना, संगठन तथा संविधान पृथक रूप से तैयार किया जाना चाहिए परन्तु विल्सन ने राष्ट्रसंघ को पेरिस सन्धि का अभिन्न अंग बनाए जाने पर ही विशेष बल दिया। अन्ततः मित्र राष्ट्रों को विल्सन का प्रस्ताव स्वीकार करना पडा और राष्ट्रसंघ को पेरिस की सन्धि में सम्मिलित कर लिया गया। वस्तुतः वुडरो विल्सन इस विषय में भावुकता की इस हद तक जुडे हुए थे कि लायड जार्ज तथा क्लमान्सों ने राष्ट्रसंघ के विरोध की धमकी देकर उनसे बहुत सी ऐसी बाते भी मनवा ली जिन्हे सामान्यतया वह कभी स्वीकार नही करते।
राष्ट्र संघ का संविधान (Constitution of the League of Nations)
राष्ट्रसंघ के संविधान का निर्माण वुडरो विल्सन की अध्यक्षता में गठित 19 प्रतिनिधियों की एक समिति द्धारा किया गया था। हॉलाकि विल्सन ने लगभग अकेले ही राष्ट्रसंघ के संविधान का प्रारूप तैयार कर डाला था और पराजित देशों के साथ राष्ट्रसंघ के निर्माण में समझौते पर भी विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर कर दिये। वस्तुतः यह विल्सन की व्यक्तिगत जीत थी।
राष्ट्रसंघ के संविधान में कुल 26 धाराएॅ थी जिनमें से 10वीं, 12वीं और 16वीं धाराएॅं अत्यन्त महत्वपूर्ण थी। 10वीं धारा के अन्तर्गत राष्ट्रसंघ के सदस्या राज्यों ने एक दूसरे राज्य की राजनीतिक स्वतन्त्रता व क्षेत्रीय अखण्डता का सम्मान करने का वचन दिया था। इसमें स्पष्टतः कहा गया है कि – राष्ट्रसंघ के सदस्य राष्ट्रसंघ के सभी सदस्यों की प्रादेशिक अखण्डता और वर्तमान राजनीतिक स्वतंत्रता का सम्मान करने तथा बाह्य आक्रमण से उनकी रक्षा करने का वचन देते है। ऐसे किसी आक्रमण के समय या ऐसे किसी आक्रमण की धमकी या खतरे के समय परिषद् यह परामर्श देगी कि किन उपायों द्धारा यह कर्तव्य पूरा किया जा सकता है।
अनुच्छेद 12 के अनुसार सभी सदस्य राष्ट्रों ने सर्वसम्मति से यह निर्णय किया कि वे अपनी समस्याओं को परस्पर बातचीत व बैठक के द्धारा हल करने का प्रयास करेंगे तथा किसी भी स्थिती में युद्ध के तरीके को नही अपनाएॅगे। 12वी धारा में स्पष्टतः कहा गया है कि – राष्ट्रसंघ के सदस्य देश इस बात पर सहमत है कि यदि उनके बीच कोई ऐसा विवाद उठ खडा होता हो जिसका परिणाम विग्रह हो सकता हो तो वे उस मामले के सम्बन्ध में पंचनिर्णय करायेगें या न्यायालय में उसका निपटारा करायेगें या जॉच के लिए उसे परिषद् के पास भेजेंगे और वे इस बात पर भी सहमत है कि वे पंचों के फेसले या न्यायालय के निर्णय या परिषद के प्रतिवेदन के तीन माह बाद तक युद्ध का आश्रय नही लेंगे।
संविधान की 16वीं धारा के अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई थी कि यदि कोई सदस्य राष्ट्र, राष्ट्रसंघ की मर्यादा का उल्लंघन करके युद्ध की घोषणा करेगा तो राष्ट्रसंघ के सभी सदस्य देश उस राष्ट्र का सम्मिलित रूप से बहिष्कार व विरोध करेंगे।
दूसरे शब्दों में, यदि राष्ट्रसंघ का सदस्य अनुच्छेद 12, 13 या 15 के अधीन अपने इकरारों की अवहेलना कर युद्ध कर आश्रय ले तो वह स्वतः ही राष्ट्रसंघ के सभी सदस्य देशों के विरूद्ध युद्ध करने वाला समझा जायेगा और राष्ट्रसंघ के सदस्य इसके द्धारा यह वचन देते है कि वे तुरन्त उससे सभी प्रकार के वाणिज्यिक अथवा आर्थिक सम्बन्ध तोड लेगे, समझौतों या संविधान के प्राविधानों का उल्लंधन करने वाले राज्य के नागरिकों और अपने नागरिकों के बीच सभी प्रकार का व्यवहार निषिद्ध कर देगे तथा प्रसंविदा की अवहेलना करने वाले राज्यों के नागरिकों तथा अन्य किसी भी राज्य के बीच सभी प्रकार के आर्थिक, वाणिज्यिक और व्यक्तिगत व्यवहार को रोकेगें चाहे वह देश राष्ट्रसंघ का सदस्य हो अथवा न हो।
ऐसी स्थिती में परिषद् का यह कर्तव्य होगा कि वह सम्बन्धित विभिन्न सरकारों को यह सिफारिश करे कि राष्ट्रसंघ की प्रसंविदाओं की रक्षा के लिए उपयोग में लाई जाने वाली सशस्त्र सेना के लिए राष्ट्रसंघ के सदस्य कितनी कारगर थल-सेना, नौसेना तथा वायुसेना पृथक रूप से दे।
इतिहासकार मैरियट के शब्दों में- ‘‘ राष्ट्रसंघ के नियमों की प्रतिलिपियॉ मित्र राष्ट्रों तथा साथियों और कुछ दिन पहले के शत्रुओं के बीच होने वाली सभी मुख्य सन्धियों के आदि में लगाई गई थी।
संक्षेप में, राष्ट्रसंघ के संविधान की प्रथम सात धाराएॅं इसके सांवैधानिक प्रारूप से सम्बन्धित थी। प्रथम धारा में सदस्यता तथा इससे अलग होने के नियम बताए गये। 2 से 5 तक की धाराओं में असेम्बली तथा परिषद के संगठन तथा उसके अधिकारों का वर्णन था। धारा 6 व 7 में महासचिव व उसके स्टाफ की नियुक्ति के साथ राष्ट्रसंघ के कार्यालय को जेनेवा में स्थापित करने की व्यवस्था थी। धारा 8 व 9 में निःशस्त्रीकरण सम्बन्धी बाते थी। धारा 10 से 17 अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से निपटाने से सम्बन्धित था। धारा 18 में भविष्य में की जाने वाली संधियों की रजिस्ट्री एवं उनके प्रकाशन की व्यवस्था की गई। धारा 19 के अनुसार पेरिस शान्ति सम्मेलन की उन सन्धि व्यवस्थाओं को संशोधित करने की व्यवस्था की गई जिनको व्यवहारिक मान लिया जाय। धार 20 के अनुसार राष्ट्रसंघ के समझौतो से मेल न खाने वाली पहले की गई सन्धियों को रद्द करने का निश्चय किया गया। धारा 21 में यह स्वीकार किया गया कि राष्ट्रसंघ के समझौतो से मुनरो सिद्धान्त की वैधता अप्रभावित रहती है। धारा 22 संरक्षण प्रणाली से सम्बन्धित था। धारा 23 के अनुसार राष्ट्रसंघ के सदस्यों ने राष्ट्रसंघ के माध्यम से अपनी अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने का निश्चय किया। इसके अतिरिक्त इसी धारा के अन्तर्गत राष्ट्रसंघ ने मानव कल्याण से सम्बन्धित अब अनेक कार्यो को करने का दायित्व संभाला। धारा 24 के अनुसार राष्ट्रसंघ ने उन संगठनों को सॅभालने का दायित्व लिया जो विश्वयुद्ध से पूर्व स्थापित हो चुके थे। धारा 25 के अनुसार राष्ट्रसंघ के सदस्यों ने रेडक्रास संगठनों के कार्यो को प्रोत्साहित करने का वायदा किया और राष्ट्रसंघ की धारा 26 में राष्ट्रसंघ के संविधान में संशोधन की प्रक्रिया का उल्लेख था।
राष्ट्र संघ की स्थापना के उद्देश्य (Aim of the Genesis of the League of Nations):
राष्ट्रसंघ की स्थापना के प्रमुख उद्देश्य उसके प्रारूप की भूमिका में ही नीहित है। संविधान की प्रस्तावना में राष्ट्रसंघ की स्थापना के निम्नलिखित उद्देश्य बताए गए है –
- भविष्य में युद्ध की संभावनाओं को समाप्त करना।
- अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना में अभिवृद्धि करना।
- अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शान्ति, व्यवस्था व सुरक्षा की भावना विकसित करना जिससे कि विकास और प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो सके।
- पेरिस शान्ति सम्मेलन में सम्पन्न की गई सन्धियों के निर्णयों को लागू करना।
यद्यपि राष्ट्रसंघ के सभी चारों उद्देश्यों का महत्व समान था, तथापि युद्ध की संभावना को समाप्त करने पर विशेष बल दिया गया था। प्रोफेसर हेजन ने इसका विशद् वर्णन करते हुआ लिखा है कि -‘‘आदर्शवादियों ने बार-बार कहा था कि यह अन्तिम युद्ध था जिसका उ६ेश्य युद्ध को समाप्त करना था, यदि इस पवित्र भावना की पूर्ति होनी थी तो केवल राष्ट्रसंघ द्धारा ही हो सकती थी। समझौता तैयार होने से पूर्व या बाद में प्रस्तावकों ने राष्ट्रसंघ की सिर्फ इसलिए सिफारिश की थी क्योंकि इसी में उन्हे आशा की किरण दिखाई पड रही थी।‘‘
इस प्रकार 26 धाराओं वाले विधान को जनवरी 1920 में वाकायदा क्रियान्वित कर दिया गया। इसके प्रारंभिक सदस्यों की संख्या 32 थी और अलग-अलग समयों में इसके सदस्यों की संख्या घटती-बढती रही। राष्ट्रसंघ के केन्द्रीय कार्यालय के लिए स्विटजरलैण्ड के खुबसूरत शहर जेनेवा को चुना गया। लगातार 20 वर्षो तक यह अनूठा प्रयोग चलता रहा लेकिन पहले दशक की सफलताओं के बाद ही यह संस्था लडखडाने लगी क्योंकि शान्ति और सुरक्षा के लिए जिस तालमेल और सामंजस्य की आवश्यकता थी उसके लिए अभी उचित और अनुकूल माहौल नही था। द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रारम्भ होते ही राष्ट्रसंघ का अस्तित्व समाप्त हो गया।
राष्ट्र संघ का संगठन (Organization of the League of Nations)
संविधान की प्रथम सात धाराओं में राष्ट्रसंघ की सदस्यता एवं संगठन सम्बन्धी नियमों का उल्लेख किया गया है। उन सभी शक्तियों को राष्ट्रसंघ की सदस्यता प्रदान की गई थी जिन्होने जर्मनी के विरूद्ध युद्ध में भाग लिया था। इसके अतिरिक्त तटस्थ देशों को भी राष्ट्रसंघ का सदस्या बनाया गया। प्रारंभ में जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी, टर्की, रूस आदि देशों को राष्ट्रसंघ के सदस्य राष्ट्रों की सूची में शामिल नही किया गया था किन्तु भविष्य में कुछ शर्तो के साथ इन्हे सदस्य बनाये जाने की व्यवस्था संविधान में की गई थी।
राष्ट्रसंघ की प्रस्तावना में उल्लिखित उ६ेश्यों की पूर्ति के लिए निम्नलिखित मुख्य अंगों का गठन किया गया था –
असेम्बली एक प्रकार से सभी सदस्य देशों की व्यवस्थापिक सभा जैसी संस्था थी जिसमें सदस्य देशों को समान अधिकार प्राप्त थे। यह राष्ट्रसंघ का मुख्य अंग था और इसमें प्रत्येक देश के अधिकतम प्रतिनिधियों की संख्या 03 होती थी, किन्तु प्रत्येक देश को केवल एक ही मत देने का अधिकार था। यह व्यवस्था की गई थी कि किसी नये राष्ट्र को राष्ट्रसंघ की सदस्यता प्रदान करने से पूर्व असेम्बली के दो-तिहाई मतों का समर्थन आवश्यक था। असेम्बली का साधारण अधिवेशन प्रतिवर्ष सितम्बर माह में आयोजित होता था। प्रति अधिवेशन के लिए एक अध्यक्ष तथा 06 उपाध्यक्ष चुने जाते थे। यही नही अपितु विभिन्न कार्यो के निपटारे के लिए भी 06 अलग-अलग अध्यक्ष तथा 06 उपाध्यक्ष चुने जाते थे। यही नही अपितु विभिन्न कार्यो के निपटारे के लिए 06 अलग-अलग विषयों की समितियॉ बनाई गई थी जिनके नाम है – 1. वैधानिक तथा कानूनी समिति। 2. तकनीकी समिति। 3. निःशस्त्रीकरण समिति। 4. बजट और अर्थ समिति। 5. सामाजिक संस्था समिति। 6. राजनीतिक समिति।
असेम्बली का महत्वपूर्ण कार्य सदस्यता प्रदान करना, विश्व शान्ति से सम्बन्धित विषयों पर विचार-विमर्श करना, बजट को स्वीकार करना, काउन्सिल के अस्थायी सदस्यों का निर्वाचन करना तथा अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीशों को नियुक्त करना आदि थे। मावर के शब्दों में – ‘‘ वास्तव में असेम्बली एक वाद-विवाद का मंच न होकर राष्ट्रसंघ का एक प्रभावशाली अंग है।‘‘
यदि कोई ऐसा विवाद जो कि अर्न्तराष्ट्रीय हित सें सम्बन्धित हो, महासभा विचार कर सकती थी तथा अपने प्रस्ताव को परिषद के सम्मुख रख सकती थी। वस्तुत महासभा अथवा असेम्बली प्रजातांत्रिक ढंग की संस्था थी जहॉ ं छोटे या बडे में कोई अन्तर नही था लेकिन इसके अधिकार इतने सीमित थेकि यह मात्र संभाषण का केन्द्र बन कर रह गई। यह विवादों और प्रश्नों पर सिर्फ विचार ही कर सकती थी या परिषद को प्रस्ताव भेज सकती थी, कोई कार्यवाही नही कर सकती थी। वस्तुतः यह भी था कि यहॉ किए गए निर्णय बहुमत को स्वीकार्य हो सकते थे लेकिन बडी शक्तियॉ असेम्बली में अपने प्रभाव से ऐसा नही होने देती थी।
राष्ट्रसंघ की कार्यकारिणी को परिषद की संज्ञा प्रदान की गई थी जिसकी राष्ट्रसंघ में सर्वाधिक निर्णायक भूमिका थी। परिषद में दो तरह के सदस्य होते थे- स्थायी सदस्य तथा अस्थायी सदस्य। पॉच बडी शक्तियॉ – अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली और जापान की स्थायी सदस्यता का प्राविधान था लेकिन यह बडे आश्चर्य का विषय है कि जिस राष्ट्रसंघ के निर्माण में अमेरिका का महत्वपूर्ण हाथ था, वही इसका सदस्य नही बना। इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण यह था कि अमेरिका की सीनेट ने वार्साय की सन्धि को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था क्योंकि इसके द्धारा सभी देशों के साथ समान व्यवहार का खण्डन होता था। वार्साय सन्धि के आधार पर ही राष्ट्रसंघ की स्थापना की गई थी। अतः अमेरिका राष्ट्रसंघ का सदस्य न बन सका। इस प्रकार स्थायी सदस्यों की संख्या मात्र 04 रह गई।
दूसरी तरफ प्रारम्भ में असेम्बली द्धारा 04 अस्थायी सदस्यों का 03 वर्षो के लिए निर्वाचन करने का विधान था लेकिन यह सदस्यता समय-समय पर घटती-बढती रही और अन्तिम दिनों में तीन स्थायी और ग्यारह अस्थायी सदस्य हो गए थे। उल्लेखनीय है कि कुल अस्थायी सदस्यों में से एक-तिहाई सदस्यों को प्रतिवर्ष अवकाश ग्रहण करना पडता था।
परिषद के अधिकार असीमित और महत्वपूर्ण थे। वह राष्ट्रसंघ के संविधान का उल्लंघन तथा पेरिस सन्धि की शर्तो की अवहेलना के आरोप में किसी भी सदस्य देश को राष्ट्रसंघ की सदस्यता से वंचित कर सकता था। आज के संयुक्त राष्ट्रसंघ के सुरक्षा परिषद की तरह किसी को स्पष्ट रूप से विशेषाधिकार अर्थात बीटो प्राप्त नही था लेकिन व्यवहार में किसी भी बडी शक्ति की असहमति किसी भी निर्णय को निरर्थक बना देती थी। युद्ध तथा शान्ति जैसे महत्वपूर्ण मसलों पर निर्णय लेने का अधिकार परिषद को ही प्राप्त था और उसपर ही उसे क्रियान्वित करने का उत्तरदायित्व था। राष्ट्रसंघ के संविधान की रक्षा हेतु आक्रामक देश के विरूद्ध सैनिक कार्यवाही करने का अधिकार सिर्फ परिषद को प्राप्त था। अर्न्तराष्ट्रीय विवादों को हल करना, सार तथा डेन्जिग क्षेत्र का प्रशासन संभालना, निःशस्त्रीकरण के लिए प्रयास करना, संरक्षण व्यवस्था लागू करना, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करना तथा विभिन्न देशों के परस्पर विवादों का निपटारा करना आदि राष्ट्रसंघ के प्रमुख कार्य थे। परिषदों की बैठकों में विदेशमन्त्री या कभी-कभी प्रधानमन्त्री तक शामिल होते थे जिससे यहॉ लिए गए निर्णयों का महत्व बढ जाता था। इसका अधिवेशन साल में एक से दो बार ही आयोजित होता था लेकिन आवश्यकता पडने पर इसका अधिवेशन कभी भी बुलाया जा सकता था। महत्वपूर्ण मुद्दों पर परिषद के स्थायी सदस्यों के मध्य सहमति आवश्यक थी जो राष्ट्रसंघ रूपी अर्न्तराष्ट्रीय संस्था को चलाने की सबसे बडी बिडम्बना थी। इससे सामान्य सदस्यों में असन्तोष बढता था। इसके निर्णय इतने सीमित हितों के लिए होते थे कि अन्य देशों का अविश्वास स्वाभाविक था।
राष्ट्रसंघ के दैनिक कार्यो को सम्पादित करने के लिए एक केन्द्रीय कार्यालय के रूप में सचिवालय का प्रबन्ध किया गया था जिसका मुख्यालय जेनेवा में स्थापित किया गया। इसके सर्वोच्च अधिकारी को महासचिव कहा जाता था जिसकी नियुक्ति परिषद द्धारा की जाती थी। विश्व के लगभग 50 देशों के 750 कर्मचारी सचिवालय में कार्य करते थे लेकिन फ्रेंच भाषा की प्रमुखता के कारण अन्य भाषाओं के लोगों को यहॉ तक पहुॅचने तथा कार्य करने में कठिनाई होती थी। राष्ट्रसंघ के प्रथम महासचिव ब्रिटेन के सर जेम्स एरिक ड्यूमण्ड थे जिन्होने 1920 से 1933 तक लगातार 14 वर्षो तक कार्य किया। इसके बाद महासचिव की नियुक्ति का अधिकार परिषद को दे दिया गया। बाद में फ्रांस के जोसेफ आवेनेल और आयरलैण्ड के सीन लेस्टर ने भी महासचिव के रूप में कार्य किया लेकिन इनके समय तक राष्ट्रसंघ पंगु हो चला था। दो सह-सचिवों तथा दो उप-सचिवों की सहायता से महासचिव 11 विभागों जैसे – प्रशासन, संरक्षण, निःशस्त्रीकरण, स्वास्थ्य, आर्थिक मामले आदि का प्रशासन देखता था।
सचिवालय का मुख्य कार्य असेम्बली और परिषद की बैठकों में विचाराधीन मामलों की सूची तैयार करना, बैठकों की कार्यवाही से सम्बन्धित आवश्यक दस्तावेज तैयार करना तथा समझौते व सन्धियों के प्रकाशन की व्यवस्था करना था। सचिवालय में विभिन्न देशों के बीच सन्धियॉं पंजीकृत की जाती थी। सचिवालय को निर्णय की नही अपितु केवल क्रियान्वयन की जिम्मेदारी सौपी गई थी लेकिन व्यवहारिक दृष्टिकोण से निरन्तर कार्यरत रहने और अलग-अलग देशों के लोगों को एक साथ काम करने का मौका देने के कारण इसका व्यापक महत्व था।
- अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (International Court):
राष्ट्रसंघ की धारा 14 में एक अर्न्तराष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना का उल्लेख किया गया है। इसका प्रमुख उ६ेश्य दो या दो से अधिक राष्ट्रों के मध्य विवाद को उनकी सहमति से हल करना था। इस प्रकार अर्न्तराष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना 20 दिसम्बर 1920 ई0 को हुई तथा इसका मुख्यालय हेग में स्थापित किया गया। प्रारम्भ में अर्न्तराष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीशों की कुल संख्या 11 थी लेकिन कालान्तर में इसे बढाकर 15 कर दिया गया। न्यायाधीशों का कार्यकाल 09 वर्ष निर्धारित किया गया था। इन न्यायाधीशों को असेम्बली तथा परिषद की संयुक्त सहमति से ही नियुक्त किया जाता था।
अर्न्तराष्ट्रीय सन्धियों और समझौतों के अर्थ व उ६ेश्य की व्याख्या करना, विभिन्न राज्यों के पारस्परिक विवादों पर कानूनी सलाह देना, राष्ट्रसंघ के संविधान की व्याख्या करना तथा अर्न्तराष्ट्रीय विवादों के विषय में असेम्बली और परिषद को सलाह देना इसका प्रमुख कार्य था। उल्लेखनीय है कि सम्बन्धित दोनों पक्षों की सहमति से ही कोई मामला अर्न्तराष्ट्रीय न्यायालय में प्रस्तुत किया जा सकता था इसलिए अनेक अवसरों पर अर्न्तराष्ट्रीय न्यायालय तथा राष्ट्रसंघ सिर्फ मूकदर्शक बना रहा।
- अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organisation):
सामाजिक क्षेत्र में अर्न्तराष्ट्रीय श्रम संगठन की स्थापना राष्ट्रसंघ का सर्वप्रमुख और महान कार्य था। यह ऐतिहासिक सत्य है कि सबसे पहले अर्न्तराष्ट्रीय सहयोग श्रमिकों के बीच शुरू हुआ था। आद्यौगिक क्रान्ति के दुष्परिणामस्वरूप विश्व के मजदूर संगठित होते गये और उनकी संख्या, चेतना तथा शक्ति बढती गई। रूसी क्रान्ति की सफलता से उत्साहित विश्व के मजदूरों ने अपने अधिकारों की मॉग करनी प्रारम्भ कर दी। इसी पृष्ठभूमि में अर्न्तराष्ट्रीय श्रम संगठन की स्थापना की गई। इसका मुख्य कार्यालय भी जेनेवा में स्थापित किया गया। राष्ट्रसंघ के सदस्य देश अपनी इच्छा से इस संगठन के सदस्य बन सकते थे। इनकी सदस्यता उनके लिए भी खुली थी जो राष्ट्रसंघ के सदस्य देश नही थे। विभिन्न देशों के प्रतिनिधिमण्डलों में दो सरकार के तथा एक-एक मजदूरों तथा मालिकों के प्रतिनिधि होते थे। प्रत्येक वर्ष में इसका वार्षिक सम्मेलन आयोजित किया जाता था तथा पारित प्रस्ताव सदस्य देशों को भेज दिये जाते थे। इनकी सिफारिशों को मानने के लिए कोई भी राष्ट्र बाध्य नही था।
अर्न्तराष्ट्रीय श्रम संगठन का प्रमुख उ६ेश्य श्रमिकों की स्थितीयों में सुधार करना तथा पुरूषों, महिलाओं एवं बच्चों के लिए कार्य करने की उपयुक्त एवं मानवीय दशाओं को उपलब्ध कराना था। कार्य करने की दृष्टि से इसे तीन विभागों में विभक्त किया गया था –
- सामान्य सभा
- कार्यकारिणी
- अर्न्तराष्ट्रीय श्रम संगठन
इन सबके वावजूद जैसा कि उपर उल्लिखित है कि वहॉ राज्यों और मालिकों का प्रभाव अधिक था। श्रमिकों के हितों की पूर्ति की बात वही तक होती थी जहॉ तक उनके हित प्रभावित नहीं होते थे। यहॉ श्रम सम्बन्धी सूचनाएॅ और ऑकडे संग्रहित किये जाते थे और उनका प्रसारण होता था लेकिन वास्तविकता यही है कि ये ऑकडे श्रमिकों की स्थिती का सही चित्रण नही करते थे।
राजनीतिक उपलब्धियां (Political achievement) :
राष्ट्रसंघ को राजनीतिक क्षेत्र में कुछ अर्न्तराष्ट्रीय विवादो को सुलझाने का श्रेय प्राप्त है-
आलैण्ड का विवाद, 1920 –
आलैण्ड स्वीडन और फिनलैण्ड के बीच के मार्ग में करीब 6500 के आसपास द्वीपों का एक समूइ है। द्वीप में विशेष रूप से स्वीडीश बोलने वाले लोगों की आबादी है परन्तु 1809 ई0 में स्वीडन ने अपने दोनो द्वीप फिललैण्ड और आलैण्ड साम्राज्यवादी रूस के हाथों खो दिया। 1917 की रूसी क्रान्ति की उथल-पुथल के दौरान फिनलैण्ड ने स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी और अधिकांश आलैण्ड द्वीपवासियों का विचार पुनः स्वीडन में शामिल होने का था। 1920 में इसी आलैण्ड के प्रश्न को लेकर स्वीडन और फिललैण्ड के मध्य विवाद प्रारम्भ हो गया। वास्तव में ये दोनो ही देश इस क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे। उक्त विवाद को हल करने के लिए राष्ट्रसंघ ने एक तीन सदस्यीय आयोग का गठन किया। आयोग की संस्तुतियों पर राष्ट्रसंघ परिषद ने आलैण्ड पर फिनलैण्ड के आधिपत्य की घोषणा कर दी लेकिन साथ ही साथ परिषद ने वहॉ निवास करने वाली स्वीडिस जनता के अधिकारों एवं सुरक्षा की गारण्टी दी। वस्तुतः राष्ट्रसंघ परिषद् ने इस द्वीप को तटस्थ एवं निःशस्त्र घोषित किया और दोनो देशो ने इस व्यवस्था को स्वीकार किया।
अल्बानिया विवाद, 1921 –
अल्बानिया एक छोटा सा देश था जो यूनान तथा युगोस्लाविया के पश्चिम में स्थित था। पेरिस शान्ति सम्मेलन के दौरान अल्बानिया की सीमा का निर्धारण नही किया गया था। यूनानी सैनिकों द्धारा सैन्य अभियान के नाम पर अल्बानियाई इलाके में बार-बार घुसपैठ के कारण अस्थिर स्थिती पैदा हुई जबकि दूसरी तरफ देश के सुदूर उत्तरी भाग में युगोस्लाविया फौजे अल्बानियाई आदिवासियों के साथ संघर्ष के बाद व्यस्त थी। राष्ट्रसंघ ने क्षेत्र की विभिन्न शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हुए एक आयोग भेजा और 1921 के नवम्बर में राष्ट्रसंघ ने निर्णय लिया कि अल्बानिया की सीमाये तीन छोटे बदलावों के साथ जो कि युगोस्लाविया के पक्ष में थी, के बाद वैसी ही रहेगी जैसी कि वे 1913 में थी। राष्ट्रसंघ ने अल्बानिया को स्वतन्त्र राष्ट्र घोषित कर दिया यद्यपि विरोध के तहत् युगोस्लावियन फौजे कुछ सप्ताह बाद ही पीछे हट गई।
उत्तरी साइलेशिया का विवाद, 1921-
मित्र देशों द्धारा उत्तरी साइलेशिया के क्षेत्रीय विवाद को हल करने में असमर्थ रहने पर उन्होने इस समस्या को राष्ट्रसंघ के सम्मुख रखा। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पोलैण्ड ने उत्तरी साइलेशिया जो कि प्रशा का हिस्सा रहा था, पर अपना दावा किया। वार्साय की सन्धि ने उत्तरी साइलेशिया में एक जनमत संग्रह कराने की सिफारिश की, ताकि यह तय किया जा सके कि उस क्षेत्र का कौन सा भाग जर्मनी या पोलैण्ड का हिस्सा होना चाहिए। जर्मन अधिकारियों के रूख के बारे में शिकायतों ने दंगों का जन्म दिया जो अन्ततः साइलेशियन विद्रोह का कारण बना। एक जनमत संग्रह 20 मार्च 1921 को सम्पन्न हुआ जिसमें लगभग 60 प्रतिशत मत जर्मनी में शामिल होने के पक्ष में डाले गये परन्तु पोलैण्ड ने दावा किया कि उसके आसपास की स्थितीयॉ उचित नही थी। अन्ततः राष्ट्रसंघ ने मामले को सुलझाने के लिए एक आयोग का गठन किया जिसने सिफारिश की कि उत्तरी साइलेशिया को जनमत संग्रह में दिखाई गई प्राथमिकताओं के अनुसार पोलैण्ड और जर्मनी के बीच विभाजित किया जाना चाहिए। 1921 के नवम्बर में जेनेवा में जर्मनी और पोलैण्ड के बीच बातचीत करने के लिए एक सम्मेलन का आयोजन किया गया। पॉच बैठकों के पश्चात एक अन्तिम समझौता हुआ जिसमें अधिकांश क्षेत्र जर्मनी को दे दिए गए जबकि पोलैण्ड के क्षेत्र में खनिज संसाधनों की बहुलता और बहुत सारे उद्योगों से युक्त भाग शामिल थे। इस समझौते से क्षेत्र में शान्ति स्थापित हुई। इतिहासकार ई0 एच0 कार के शब्दों में -‘‘ राष्ट्रसंघ के सभी सफलताओं के बारे में अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये सफलताएॅ समझौतों का मार्ग अपनाते हुए प्राप्त की गई थी। सभी मामलों से यह स्पष्ट है कि परिषद केवल मानने-समझाने की नीति पर ही काम कर रही थी।‘‘5
पोलैण्ड और चेकोस्लोवाकिया के मध्य विवाद, 1922-
सन् 1922 में पोलैण्ड और चेकोस्लोवाकिया के बीच सीमाबन्दी के प्रश्न पर विवाद उत्पन्न हो गया। मामला राष्ट्रसंघ के पास पहुॅचा और राष्ट्रसंघ ने इसके लिए एक आयोग का गठन कर दिया। आयोग की रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रसंघ ने शान्तिपूर्ण ढंग से इस समस्या को सुलझा दिया।
मेमेल की प्रभुता का प्रश्न, 1923 –
1923 ई0 में लिथुआनिया ने मेमेल नामक क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया और मेमेल में रहने वाले फ्रांसीसीयोेेेेें को बाहर खदेड दिया। वस्तुतः मेमेल का बन्दरगाह शहर और आसपास के क्षेत्र, जो मुख्य रूप से जर्मन जनसंख्या से भरी हुई थी, वार्साय की सन्धि के अनुच्छेद 99 के अनुसार मित्र राष्ट्रो से सम्बद्ध नियंत्रण के अधीन थी। मेमेल क्षेत्र पर लिथुआनिया द्धारा कब्जा कर लेने के कारण जनवरी 1923 में यह मामला राष्ट्रसंघ को सौप दिया गया। दिसम्बर 1923 ई0 में राष्ट्रसंघ परिषद ने जॉच के लिए एक जॉच आयोग की नियुक्ति की। आयोग ने मेमेल को लिथुआनिया को सौंपने और क्षेत्र को स्वायत्त अधिकार देने का फैसला किया। इस क्लैपेडिया सम्मेलन को राष्ट्रसंघ की परिषद् द्धारा 14 मार्च 1924 को फिर मित्र राष्ट्रों और लिथुआनिया द्धारा अनुमोदित किया गया।
मोसुल विवाद, 1923-25 :
1923-25 के मध्य मोसुल के तेलकूपों के प्रश्न को लेकर तुर्की और इराक के बीच विवाद उत्पन्न हो गया। पेरिस शान्ति सम्मेलन के दौरान तुर्की के साथ हुई सैब्र की सन्धि में यह व्यवस्था थी कि तुर्की और इराक के बीच समझौता न हो पाए तो इसका निर्णय राष्ट्रसंघ की परिषद् द्धारा किया जायेगा। इसी सन्दर्भ में राष्ट्रसंघ ने एक आयोग गठित कर दिया। इसी बीच तुर्की की कुर्द जाति ने तुर्की के सुल्तान के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। विद्रोह यद्यपि क्रूरतापूर्वक दबा दिया गया जिसके फलस्वरूप कुर्द भागकर मोसुल आये और सीमा पर मुठभेड हुई। राष्ट्रसंघ ने इस सम्बन्ध में पुनः आयोग गठित किया जिसने अपनी रिपोर्ट में तुर्क कठोरता का उल्लेख करते हुए 16 दिसम्बर 1925 को मोसुल इराक को देने का फैसला किया। तुर्की ने राष्ट्रसंघ द्धारा प्रश्नचिन्ह लगाने के फैसले को नामंजूर कर दिया। तत्पश्चात मामला अर्न्तराष्ट्रीय न्यायालय में पहुॅचा जिसने राष्ट्रसंघ के फैसले को अन्तिम निर्णय माना। इस प्रकार तुर्की को विवश होकर इसे मानना पडा और मोसुल इराक को दे दिया गया। इस प्रकार इस विवाद का निपटारा हो सका।
यूनान और बल्गारिया का विवाद, 1925-
यूनान और बल्गारिया का विवाद वस्तुतः बाल्कन समस्या से सम्बन्धित था। अक्टूबर 1925 में यूनान की सीमा में तैनात एक यूनानी कमाण्डर की हत्या हो गई। यूनानी सरकार ने इसे बल्गारिया की कार्यवाही बताया और इस प्रकार यूनानी सेना बल्गारिया में घुस गई। इस सम्पूर्ण मामले को राष्ट्रसंघ के समक्ष प्रस्तुत किया गया। राष्ट्रसंघ की परिषद ने यूनान के इस कृत्य की कटु आलोचना की और यूनान को तुरन्त सेना हटाने का आदेश दिया। यहॉ तक कि राष्ट्रसंघ ने यूनान को आर्थिक और व्यापारिक बहिष्कार की चेतावनी दी। राष्ट्रसंघ के इस दृढ तथा कछोर निर्णय के कारण यूनान भयभीत हो गया और उसने बल्गारिया से सेनाओं को हटा लिया।
लाटेशिया का विवाद, 1933-34 :
20वी शताब्दी के प्रारम्भ से ही कोलम्बिया और पेरू के बीच विवाद थे तथा 1922 ई0 में उनकी सरकारों ने उन विवादों को सुलझाने के लिए सॉलोमन-लोजानो सन्धि पर हस्ताक्षर किये थे। इस सन्धि द्धारा कोलम्बिया को अमेजन नदी का उपयोग करने देने के साथ, सीमा शहर लाटेशिया और उसके आस-पास के क्षेत्र को पेरू से कोलम्बिया तक सत्तान्तरित कर दिया गया। वर्ष 1933 में पेरू ने कोलम्बिया पर आक्रमण करके लाटेशिया पर अधिकार कर लिया जिसके परिणामस्वरूप दोनो देशों के बीच सशस्त्र युद्ध हो गया। महीनों की कूटनीतिक खीचतान के बाद राष्ट्रसंघ द्धारा की गई मध्यस्थता को सरकार ने स्वीकार किया। राष्ट्रसंघ द्धारा गठित आयोग के प्रयत्नां से पेरू तथा कोलम्बिया का युद्ध बन्द हो सका और मई 1934 में एक अंतिम शान्ति समझौतों पर हस्ताक्षर किया गया जिसके परिणामस्वरूप लाटेशिया नगर पर कोलम्बिया का अधिकार स्वीकार कर लिया गया।
सार क्षेत्र का मामला, 1935 –
पेरिस शान्ति सम्मेलन के दौरान हुई वार्साय की सन्धि के शर्तो के अनुसार सार घाटी का क्षेत्र 15 वर्षो के लिए राष्ट्रसंघ को सौप दिया गया था। इस क्षेत्र की कोयले की खानों का प्रयोग करने का अधिकार फ्रांस को प्राप्त हो गया। सन्धि की शर्तो में यह स्पष्ट कर दिया गया था कि 15 वर्ष की निर्धारित अवधि समाप्त हो जाने के बाद सार क्षेत्र की भावी राजनीतिक व्यवस्था का निर्णय जनमत संग्रह द्धारा किया जाएगा। इस प्रकार 1935 में सार क्षेत्र में जनमत संग्रह कराया गया और वहॉ की जनता ने जर्मनी के साथ विलय की इच्छा व्यक्त की। फलस्वरूप 1935 में सार घाटी का यह क्षेत्र जर्मनी को पुनः सौप दिया गया।
डेन्जिग का स्वतन्त्र नगर –
पेरिस शान्ति सम्मेलन में की गई सन्धियों के अनुसार यह व्यवस्था की गई थी कि डेन्जिग के स्वतन्त्र नगर का कार्यभार राष्ट्रसंघ चलाएगा। पोलैण्ड का डेन्जिग पर नियंत्रण होने से नगर एवं बन्दरगाह के बीच छींटाकशी होती रहती थी अतः प्रशासनीक व्यवस्था को राष्ट्रसंघ ने अपने हाथ में लेकर कमिश्नर की मदद से ठीक तरह चलाने में सफलता प्राप्त की।
संरक्षण प्रणाली (Mandate System)
प्रथम विश्वयुद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व अफ्रीका और प्रशान्त महासागर में तुकी साम्राज्य और जर्मनी के अनेक उपनिवेश कायम थे जहॉ के निवासी बहुत दिनों से स्वशासन के लिए उछल-कूद मचा रहे थे। युद्ध के समय ही यह बात थी कि इन उपनिवेशों का मित्र राष्ट्रों के बीच बॅटवारा हो जाएगा। विल्सन के 14 सूत्रीय कार्यक्रम में भी इस बात की चर्चा की गई थी कि इन उपनिवेशों के भाग्य का निर्माण वहॉ के निवासियों की सहमति के अनुसार होना चाहिए लेकिन यह संभव ही नही था क्योंकि मित्र राष्ट्रों की ऑखे इन पर गडी हुई थी। पर यह काम उतना आसान भी नही था और विल्सन के रहते इतनी जल्दी उनकी उपेक्षा करना कोई मामूली बात नही थी। अतः मित्र राष्ट्र एक ऐसे उपाय की खोज में थे जिससे सॉप भी मर जाय और लाठी भी ना टूटे। स्वशासन का नाम भी रह जाय और इन उपनिवेशों पर मित्र राष्ट्रों का साम्राज्य भी स्थापित हो जाय। इसके लिए अफ्रीका के नेता जनरल स्मट्स ने एक रास्ता ढॅूढ निकाला जिसे संरक्षण प्रणाली अथवा मेण्डेट सिस्टम कहा जाता है।
इस व्यवस्था के अन्तर्गत शत्रुपक्ष के उपनिवेशों पर किसी भी देश का विधिवत अधिकार नही हुआ। ये प्रदेश राष्ट्रसंघ के जिम्मे सौंप दिये गये और राष्ट्रसंघ ने अपनी तरफ से इनको विविध मित्र राष्ट्रों के सदस्य देश के संरक्षण में सुपुर्द कर दिया। शासन की इसी व्यवस्था को संरक्षण व्यवस्था कहते है। वस्तुतः वुडरो विल्सन के सिद्धान्तों का उपहास उडाने तथा दुनिया को घोखा देने के लिए इससे बढकर अच्छा उपाय नही हो सकता था।
राष्ट्रसंघ के विधान की 22वीं धारा में संरक्षण व्यवस्था तथा उसको क्रियान्वित करने की विधि की चर्चा की गई है। इसके अनुसार औपनिवेशिक क्षेत्र तीन वर्गो में बॉट दिये गये थे और उन्हे विभिन्न देशों की देखरेख में रखा गया। इस वर्गीकरण का आधार जनसंख्या, क्षेत्रफल तथा राजनीतिक व आर्थिक स्थिती को माना गया।
- प्रथम श्रेणी के अधीन इराक, सीरिया, फिलिस्तीन, ट्रान्सजार्डन तथा लेबनान रख गये। इन प्रदेशों में प्रशासकीय योग्यता का अभाव था इसलिए उन्हे एक सभ्य देश के अधीन तबतक रखना आवश्यक था जबतक वे स्वयं शासन करने योग्य न हो जाय। अतः इराक, फिलिस्तीन और ट्रान्सजार्डन को ब्रिटेन और सीरिया तथा लेबनान को फ्रांस की संरक्षता में रखा गया।
- द्वितीय श्रेणी के अधीन जर्मनी के वे अमेरिकी उपनिवेश रखे गये जो क्षेत्रफल में बडे तो अवश्य थे लेकिन तत्काल स्वतन्त्र होने की स्थिती में नही थे। ये देश थे – टोंगानिका, टोगोलैण्ड और कैमरून।
- तृतीय श्रेणी में दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका छोडकर शेष छोटे द्वीप और द्वीपसमूह थे जिनकी आबादी भी नगण्य थी, क्षेत्रफल में भी छोटे थे और जो तत्काल स्वतन्त्र होने की स्थिती में नही थे। इसके अन्तर्गत प्रशान्त महासागर के द्वीप आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड और जापान को दे दिये गये।
क्रियान्वयन की शर्ते –
इस व्यवस्था के क्रियान्वयन की तीन शर्ते थी –
- संरक्षित देशों के प्रशासन के सम्बन्ध में राष्ट्रसंघ की परिषद का निर्णय अन्तिम तथा मान्य होंगे।
- संरक्षक देशों को हर वर्ष संरक्षित देशों के प्रशासन और प्रगति के विषय में राष्ट्रसंघ के विषय मं एक विस्तृत रिपोर्ट सौंपनी होगी। और
- राष्ट्रसंघ इस रिपोर्ट की जॉच-पडताल के लिए एक स्थायी आयोग का गठन करेगा। राष्ट्रसंघ द्धारा नियुक्त स्थायी आयोग , रिपोर्ट की छानबीन करेगा और आवश्यकता पडने पर सम्बन्धित क्षेत्र का दौरा करेगा।
वास्तव में इन देशों का इतिहास साम्राज्यवादी देशों के कौशल का इतिहास है। राष्ट्रसंघ के नाम पर संरक्षक देशों ने मनमानी की। तमाम शिकायतों के वावजूद राष्ट्रसंघ आयोग के प्रतिनिधि वास्तव में वास्तविक स्थिती का पता लगाने के लिए इन क्षेत्रों में कभी गये ही नही। यहॉ की जनता की इच्छा और हितों की अवहेलना कर प्रथम श्रेणी के क्षेत्रों में व्रिटेन और फ्रान्स उपनिवेशों जैसा व्यवहार करने लगे। उन्होने वहॉ की जनता में दरारें पैदा की और विशेष रूप से फिलिस्तीन में अरबों तथा यहूदियों के बीच वैमनस्य के बीज बोकर उन्हे हमेशा के लिए विभक्त कर दिया। दशकों से चले आ रहे इजरायल तथा फिलिस्तीन के बीच संघर्ष का मूल कारण यही से प्रारम्भ होता है। छोडने से पहले इंग्लैण्ड ने जिस प्रकार यहूदी राज्य इजरायल के निर्माण को प्रोत्साहन दिया वह अरबों के साथ विश्वासघात ही था।दूसरी तरफ सीरिया तथा लेबनान में फ्रान्स ने अपना सैनिक शासन स्थापित कर लिया और जनता की इच्छाओं का क्रूर दमन किया गया जिसके विरोध में शीध्र ही राष्ट्रवादियों ने स्वतन्त्रता और एकता हेतु विद्रोह प्रारम्भ कर दिया। 1936 तक आते-आते राष्ट्रवादियों ने फ्रान्स को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। स्थिती की गंभीरता को देखते हुए फ्रान्स ने सीरिया में निर्वाचन कराकर संसद का निर्माण कराया और एक संविधान की रूपरेखा तैयार की जिसमें फिलिस्तीन, ट्रान्सजार्डन तथा लेबनान को सीरिया में मिलाकर संयुक्त सीरिया के निर्माण की बात कही गयी। लेकिन व्यवस्था क्रियान्वित नही हो सकी। 1937 में सीरिया में ध्याती गणराज्य की स्थापना की गई लेकिन 21 जून 1939 को इसे तुर्की में मिला लिया गया जिससे राष्ट्रवादी विद्रोह पुनः प्रारम्भ हो गये। द्वितीय विश्वयुद्ध में जून 1940 में जर्मनी ने फ्रान्स को परास्त कर सीरिया में मार्शल नेता के नेतृत्व में एक नयी सरकार का गठन कर दिया। इससे व्रिटेन चिन्तित हो गया और 1941 में उसने सीरिया पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। उधर सीरिया का सहयोग प्राप्त करने के उ६ेश्य से फ्रान्स ने 28 सितम्बर 1941 में घोषित किया कि -‘‘सीरिया अब स्वतन्त्र है तथा वह अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग कर सकता है।‘‘ ब्रिटेन तथा अमेरिका ने भी सीरिया के स्वतन्त्रता सम्बन्धी घोषणा को मान्यता प्रदान कर दी लेकिन फ्रान्स इस निर्णय को टालता रहा। दूसरी तरफ फ्रान्स अपने सैनिक बेरूत में उतारना शुरू कर दिया। अतः राष्ट्रवादियों में सनसनी फैल गई और राष्ट्रीय आन्दोलन और तेज हो गया। ब्रिटेन ने जब इस मामले में हस्तक्षेप किया और 31 जून 1945 के एक घोषणा द्धारा सभी फ्रान्सीसी नागरिकों की सीरिया तथा लेबनान में नये गणराज्यों का उदय हुआ। इतिहासकार कीर्क के शब्दों में- ‘‘व्रिद्रोह ने आखिरकार फ्रान्स को सीखा ही दिया कि सीरिया में मातृकानून से शासन करना असंभव है।‘‘
प्रथम श्रेणी के क्षेत्रों की तुलना में द्वितीय श्रेणी तथा तृतीय श्रेणी के क्षेत्रों में स्थिती बेहतर थी क्योंकि न तो वहॉ स्वशासन की मॉग थी और न ही वहॉ यह तत्काल संभव था। यद्यपि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विगत पॉच दशकों में इनमें से बहुत से क्षेत्र स्वतन्त्र हुए है लेकिन आज भी अनेक अफ्रीकी राष्ट्र नस्लवादी सरकार के कब्जे में है और वहॉ मुक्ति संघर्ष जारी है।
वस्तुतः संरक्षण व्यवस्था इतने स्पष्ट रूप से साम्राज्यवादी लक्षणों से जुडी हुई थी कि उसने राष्ट्रसंघ को पूर्णतः बदनाम कर दिया। इस व्यवस्था में यदि विजेताओं के उपनिवेशों जैसे- हिन्द-चीन, भारत आदि शामिल होते तो गनीमत थी क्योंकि अपने उपनिवेशों में बर्बरता के लिए बदनाम देश सभ्य कैसे हो जाते। इस व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुये क्विन्सी राईट ने कहा है कि – ‘‘यह व्यवस्था एक पाखण्ड थी जिसका लक्ष्य था- पुराने साम्राज्यवादी भेडियों को भेड के नये खाल में छिपाना।‘‘ सच तो यह है कि संरक्षण व्यवस्था संरक्षित प्रदेशों की भलाई के लिए स्थापित की गई थी लेकिन इस व्यवस्था से लाभ हुआ या हानि, यह एक विवादास्पद प्रश्न है लेकिन इसमें कोई शक नही है कि इसने न केवल राष्ट्रसंघ को बदनाम किया अपितु नवीन साम्राज्यवाद को एक नई जिन्दगी दे दी और साम्राज्यवाद कुछ दिनों के लिए नष्ट होने से बच गया।
राष्ट्र संघ के गैर-राजनीतिक कार्य (Non-political achievements of the league of nations)
कुछ राजनीतिक समस्याओं के समाधान के अतिरिक्त राष्ट्रसंघ ने सामाजिक और मानवीय जीवन के क्षेत्र में भी अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियॉ प्राप्त की, जो निम्नलिखित है –
विस्थापितों की समस्या का समाधान :
प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् लाखों की संख्या में लोग बेघर हुये थे और ये सभी शरणार्थीयों के रूप में विभिन्न देशों में रह रहे थे। इन विस्थापितों और शरणार्थीयों को पुनः बसाना एक गंभीर समस्या थी। राष्ट्रसंघ ने डा0 नानसेन के नेतृत्व में इस समस्या को हल करने का प्रयास किया और उन्हे विस्थापित लेगों का हाई-कमिश्नर नियुक्त किया गया। 1930 में डा0 नानसेन की मृत्यु के बाद राष्ट्रसंघ ने इस कार्य की जिम्मेदारी स्वयं अपने उपर ले लिया। राष्ट्रसंघ के प्रयत्नों से विस्थापितों की समस्या को काफी हद तक सुलझा लिया गया।
आर्थिक समस्याओं का समाधान :
प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् यूरोप की आर्थिक दशा अत्यन्त दयनीय थी और राष्ट्रसंघ ने इस स्थिती को जिस कुशलतापूर्वक सॅभाला वह अत्यन्त सराहनीय है। राष्ट्रसंघ के माध्यम से जरूरतमन्द राज्यों- आस्ट्रिया, हंगरी, यूनान, डेन्जिंग, बल्गारिया और सार घाटी को ऋण दिये गये। राष्ट्रसंघ ने अनेक आर्थिक सम्मेलनों द्धारा यूरोप की अर्थव्यवस्था को ठीक करने का प्रयत्न किया। विशेषकर राष्ट्रसंघ के प्रयास से आस्ट्रिया को अमेरिका, ब्रिटेन व इटली से ऋण प्राप्त हुआ। दिसम्बर 1923 में राष्ट्रसंघ की परिषद् ने हंगरी के आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए एक योजना स्वीकार करके उसपर अपना आर्थिक नियंत्रण कायम किया। अबीसीनिया को अपनी मुद्रा सोने के आधार पर निर्धारित करने तथा डेन्जिंग नगर को अपना बन्दरगाह बसाने के लिए विदेशी कर्ज प्रदान किये गये। इस प्रकार यूरोप की दयनीय आर्थिक दशा को राष्ट्रसंघ ने अपने प्रयासों से सुधारने में सफलता प्राप्त की।
आर्थिक क्षेत्र में अर्न्तराष्ट्रीय सहयोग के लिए एक और नया विशाल संगठन प्रस्तुत किया गया। विभिन्न देशों के विशेषज्ञों के वित्त और अर्थ समितियों की बैठके प्रति वर्ष जेनेवा में होती थी और राष्ट्रसंघ सचिवालय के वित्तीय और आर्थिक विभागों के कार्य का निर्देशन करती थी। वित्तीय समिति विभिन्न राष्ट्रसंघ ऋणों को जारी करने और उसकी देखभाल के लिए उत्तरदायी थी। 1920 में ब्रुसेल्स में एक सामान्य वित्त सम्मेलन हुआ जिसका उ६ेश्य युद्धोत्तर वित्तीय पुनर्निर्माण पर विचार करना था। इसी प्रकार शुल्क दरों में कमी करने तथा अन्य व्यापारिक बाधाओं को दूर करने के प्रश्न पर विचार करने के लिए जेनेवा में 1927 में एक आर्थिक सम्मेलन भी हुआ था।
अल्पसंख्यकों की समस्या का समाधान :
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान आत्मनिर्णय का सिद्धान्त इतना प्रचारित हुआ कि अल्पसंख्यकों को ढेर सारी आशाए बॅध चली थी लेकिन यूरोप में इस समस्या के हल में अनेक व्यवहारिक कठिनाईयॉ भी थी। वस्तुतः यूरोप में ये इस प्रकार विखरे थे कि चेक, यूनानी, सर्ब, स्लाव, मगयार आदि जातियॉ कही बहुमत में थी और कही अल्पमत में। ऐसी स्थिती में राष्ट्रीयता के आधार पर राज्य बनाना हर कहीं संभव नही था। ऐसी स्थिती में अल्पसंख्यकों को आश्वस्त करने के लिए राष्ट्रसंघ के सदस्य देशों में कुछ उ६ेश्यों को सामने रखकर एक समझौता हुआ –
- नागरिक अधिकारों की सुरक्षा।
- धार्मिक सहिष्णुता का पालन।
- अल्पसंख्यकों के जीवन और स्वायत्तता की सुरक्षा।
- कानून के समक्ष समानता तथा कानून का समान संरक्षण।
- रोजगार के समान अवसर।
- अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा में शिक्षा प्राप्त करने का प्रबन्ध तथा अपनी भाषा जीवित रखने की सुविधा।
- धार्मिक और अदालती मामलों में अपनी भाषा के प्रयोग की छूट।
राष्ट्रसंघ ने अल्पसंख्यकों के हितो ंकी रक्षा के लिए एक अल्पसंख्यक समिति का गठन किया और इन लक्ष्यों की पूर्ति की जिम्मेदारी इस समिति पर सौंप दिया। इस सन्दर्भ में कोई भी मामला सीधे परिषद या अर्न्तराष्ट्रीय न्यायालय में उठाया जा सकता था लेकिन गौरतलब है कि एक गैर सदस्य राष्ट्र के बारे में राष्ट्रसंघ कुछ भी करने में असमर्थ था अतः उल्लंघनकर्ताओं के विरूद्ध कुछ विशेष नही किया जा सका। पूरे यूरोप में अल्पसंख्यकों को यंत्रणा का शिकार होना पडा, लेकिन जब भी कोई सख्त कदम उठाने की बात होती तो सरकारे ं राष्ट्रसंघ से असहयोग करने लगती। इस प्रकार राष्ट्रसंघ आश्वासनों के अलावा अल्पसंख्यकों को कुछ भी नही दे सका।
मानवीय एवं जनकल्याणकारी कार्य :
राष्ट्रसंघ का सामाजिक तथा मानवतावादी कार्य कुछ अंश तक युद्ध से पूर्व उन यदा-कदा और यत्र-तत्र होने वाले असम्बद्ध अर्न्तराष्ट्रीय क्रियाकलापों में समन्वय स्थापित करना था और कुछ अंश तक नई दिशाओं में कार्य करना था। इन सभी कार्यो में सबसे पुराना कार्य दासता के विरूद्ध अभियान था। सन् 1925 में जेनेवा में एक दासता उपसन्धि हुई। 1932 में राष्ट्रसंघ में एक स्थायी दासता आयोग स्थापित करने का निश्चय किया गया। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अनेक सैनिक बन्दी बना लिए गए थे। अर्न्तराष्ट्रीय कानून के अनुसार ऐसे कैदियों को युद्ध के बाद प्रायः मुक्त कर दिया जाता था। इन छोडे गये कैदियों को उन्हे अपने घर पहुॅचाने का कार्य राष्ट्रसंघ ने बडी कुशलता के साथ किया। राष्ट्रसंघ ने नशीली वस्तुओं के सेवन तथा उसके व्यापार, स्त्री-व्यापार की रोकथाम, शिशु संरक्षण तथा शरणार्थीयों को सहायता देने तथा उन्हे बसाने की दिशा में अनेक ठोस कदम उठाये। मनुष्य के बौद्धिक विकास और विश्व के लोगों में बौद्धिक सम्पर्क स्थापित करने के लिए इसने सराहनीय प्रयास किये। लोगों के स्वास्थ्य में सुधार करने तथा उनके शारीरिक विकास के लिए उपर्युक्त वातावरण तैयार करने के उ६ेश्य से राष्ट्रसंघ ने महत्वपूर्ण प्रयास किये। राष्ट्रसंघ के नेतृत्व में स्वास्थ्य सेवाओं के सम्बन्ध में अनेक सम्मेलन आयोजित किये गये। इसके अतिरिक्त मलेरिया, टी0बी0, हैजा, चेचक तथा अन्य खतरनाक तथा संक्रामक रोगों के उन्मूलन की दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास करके राष्ट्रसंघ की बहुमूल्य सेवा की थी। राष्ट्रसंघ के ये सामाजिक और मानवीय कार्य अत्यन्त प्रशंसनीय है और राष्ट्रसंघ को इन गैर-राजनीतिक कार्यो में अत्यधिक सफलता मिली।
राष्ट्र संघ की असफलता (Failure of the League of Nations)
उपर्युक्त वर्णनों से यह स्पष्ट है कि राष्ट्रसंघ ने राजनीतिक, सामाजिक और जनकल्याण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धियॉ प्राप्त की थी किन्तु युद्ध के खतरे को समाप्त करने तथा विश्व में स्थायी शान्ति की स्थापना करने में राष्ट्रसंघ को सफलता प्राप्त न हो सकी। विशेषकर राजनीतिक क्षेत्र में इस संस्था की सफलता अस्थायी साबित हुई। बडी शक्तियों की महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगाने में भी राष्ट्रसंघ सफल नही हो सका। 1924 से 1930 तक की अवधि में राष्ट्रसंघ अपनी उन्नति की पराकाष्ठा पर रहा और इस अवधि में उसकी प्रतिष्ठा सारे संसार में छाई रही लेकिन राष्ट्रसंघ के पतन की प्रक्रिया 1931 से प्रारम्भ हुई। पतन की यह प्रक्रिया 1930 के विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी से प्रारम्भ हुई। इस आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप प्रत्येक देशों ने अपनी स्थिती को एक दूसरे से पृथक रखकरदृढ बनाने की कोशिश की। फलस्वरूप अर्न्तराष्ट्रीयता की भावना कमजोर पडने लगी और आर्थिक सहयोग के स्थान पर आर्थिक प्रतिद्वदिता का जन्म हुआ। ऐसी स्थिती में संकुचित राष्ट्रीयता की भावना बढने लगी। सैन्यवादी और अधिनायकवादी शक्तियों ने साम्राज्यवादी भावनाओं को फिर से भडकाने की कोशिश की और परस्पर घृणा और द्वेष के वातावरण में युद्ध के बादल मॅडराने लगे और राष्ट्रसंघ की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा।
राष्ट्रसंघ की मुख्य असफलताएॅ निम्नलिखित है –मंचूरिया काण्ड :
जिन परिस्थितीयों में राष्ट्रसंघ का गठन हुआ था उसमें उसकी सफलता संदिग्ध थी। यद्यपि विलना का विवाद, कोफ्यू द्वीप की समस्या और मेमेल के विवाद में भी राष्ट्रसंघ को सफलता नही मिली थी। इन सभी मामलों में राष्ट्रसंघ कुछ भी नहीं कर सका था क्योंकि इनमें बडी शक्तियॉ कही ना कही हस्तक्षेप कर रही थी लेकिन फिर भी मंचूरिया काण्ड, 1931 से पहले वह असहाय नही लगता था। मंचूरिया संकट ने राष्ट्रसंघ के विनाश को अवश्यंभावी बना दिया।
सन् 1931 में जापान ने अपनी बढती आबादी तथा उद्योगों के विस्तार के लिए उपनिवेशों की अनिवार्य खोज में चीन के उत्तर में स्थित मंचूरिया पर आक्रमण कर दिया। चीन अपनी आन्तरिक समस्याओं में उलझा हुआ था और मंचूरिया में लगी जापानी पूॅजी पर कोई भी अंकुश लगाने में असमर्थ था। उपर्युक्त अवसर देखकर जापान ने इंस्पेक्टर नाकामुरा हत्याकाण्ड को आधार बनाते हुए यहॉ आक्रमण कर दिया। जापान ने वहॉ शीध्र ही एक कठपुतली मंचूकाओं सरकार स्थापित कर दी और ‘‘सह-समृद्धि‘‘ के छदम् नारे के साथ जापान अपना प्रभाव बढाने लगा। चीन ने इसका विरोध करते हुए मामला राष्ट्रसंघ में उठाया। जापान ने विश्व में बढ रहे साम्यवाद के प्रसार को रोकने का ऐसा तर्क रखा कि पश्चिमी देश विशेषकर ब्रिटेन जापान का समर्थन करने लगा। राष्ट्रसंघ परिषद में केवल अनावश्यक बहस होती रही और जापान अपनी स्थिती मजबूत करता रहा। अन्ततः लार्ड लिटन के नेतृत्व में ब्रिटेन, फ्रान्स, अमेरिका और इटली के प्रतिनिधियों का आयोग मंचूरिया भेजने पर सहमति बनी। आयोग ने सम्बन्धित क्षेत्र का दौरा किया और जॉच-पडताल के बाद आयोग ने राष्ट्रसंघ को अपनी रिपोर्ट सौपी। लिटन आयोग ने खुलकर जापान की आलोचना तो नही की पर मंचूरिया को चीन का अभिन्न अंग मानते हुए समझौता कराने की पहल की। जापान ने फिर भी इस रिपोर्ट का विरोध किया और अन्ततः उसने राष्ट्रसंघ की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। अब एक गैर-सदस्य देश के बारे में राष्ट्रसंघ कुछ भी करने में असमर्थ था।
राष्ट्रसंघ पर मंचूरिया काण्ड का प्रभाव काफी घातक साबित हुआ और सामूहिक सुरक्षा का सिद्धान्त खोखला सिद्ध हुआ। राष्ट्रसंघ के सदस्यों विशषकर बडे राष्ट्रों र राष्ट्रसंघ विधान को पालन करवाने का मुख्य उत्तरदायित्व था परन्तु वे शक्तिशाली राष्ट्र भी तुष्टीकरण की नीति के चलते आक्रमणात्मक कार्यवाही को रोकने के लिए तैयार नही थे। वस्तुतः मंचूरिया काण्ड ने राष्ट्रसंघ का सर्वनाश कर दिया और विश्व मं पुनः अर्न्तराष्ट्रीय अराजकता छा गई।
अबीसीनिया काण्ड :
मंचरिया काण्ड से राष्ट्रसंघ की प्रतिष्ठा को गहरा धक्का लगा था। राष्ट्रसंघ किकर्तव्यविमूढ था। इसी बीच अक्टूबर 1935 में इटली के तानाशाह मुसोलिनी ने राष्ट्रसंघ के एक अन्य सदस्य राष्ट्र अबीसीनिया पर आक्रमण करके राष्ट्रसंघ को बेइज्जत कर डाला। पश्चिमी देश इटली की बढती फासिस्ट ताकत से आक्रान्त थे और मुसोलिनी को खुश रखना चाहते थे। दूसरी तरफ मंचूरिया काण्ड में जापान की सफलता से उत्साहित होकर मुसोलिनी ने भी बहाना बनाकर अबीसीनिया पर आक्रमण कर दिया। मामला राष्ट्रसंघ में पहॅचा। इस दौरान ब्रिटेन ने तो चुपके-चुपके इस आक्रमण को स्वीकार कर लिए जाने के विषय में वार्ता भी शुरू कर दी और उधर राष्ट्रसंघ में उसकी आलोचना भी करता रहा। फ्रान्स ने जर्मनी के विरूद्ध इटली का समर्थन प्राप्त करने के उ६ेश्य से इस मामले में इटली का पक्ष लिया। फिर भी राष्ट्रसंघ ने इटली को जिम्मेदार ठहराया और आक्रमण के विरूद्ध 16वीं धारा के अन्तर्गत आर्थिक प्रतिबन्ध और बहिष्कार का प्रस्ताव किया। इस कार्य के लिए एक समिति भी बनाई गई लेकिन कोई परिणाम सामने नही आया। ब्रिटिश प्रधानमन्त्री सैमुएल होर तथा फ्रान्सीसी लावाल ने एक गुप्त योजना तैयार की लेकिन इसका भी कोई सकारात्मक परिणाम सामने नही आया। यद्यपि अबीसीनिया के लोग इतनी आसानी से हार नही मान रहे थे और युद्ध के प्रथम तीन माह इटली के लिए उतने अच्छे नही थे। वस्तुतः इटली को यदि पेट्रोल मिलता बन्द हो जाता तो वह घुटने टेक देता लेकिन ऐसा नही हो सका और मुसोलिनी ने चेतावनी दे डाली की उसकी सेना अबीसीनिया पर विजय प्राप्त किये बिना वापस नही लौटेगी। अन्ततः अबीसीनिया के सम्राट हैलेरालासी को भागना पडा और सम्पूर्ण अबीसीनिया पर इटली ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। ब्रिटेन और फ्रान्स ने शीध्र ही अबीसीनिया पर इटली के प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया। कहा जाता है कि मुसोलिनि ने पहले राष्ट्रसंघ की खिल्ली उडाई और अन्त में उसने राष्ट्रसंघ की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। इस प्रकार अबीसीनिया काण्ड के पश्चात राष्ट्रसंघ सॅंभल नही सका।
इतिहासकर रेम्जेम्योर के अनुसार – ‘‘इटली द्धारा अबीसीनिया पर आक्रमण राष्ट्रसंघ की क्षमता की अग्निपरीक्षा थी जिसमें वह बुरी तरह असफल रहा, तबसे द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरूआत तक राष्ट्रसंघ निर्जीव सा पडा रहा। छोटे-छोटे राष्ट्र जो राष्ट्रसंघ और सामूहिक सुरक्षा के सिद्धान्त पर आश्रित थे, उनका विश्वास सदा के लिए राष्ट्रसंघ पर से उठ गया। राष्ट्रसंघ जैसी अर्न्तराष्ट्रीय संस्था के लिए यह एक बहुत बडी विपत्ति थी। वस्तुतः यह अबीसीनिया की स्वतन्त्रता की नही, स्वयं राष्ट्रसंघ की हत्या थी।‘‘
स्पेन का गृहयुद्ध :
मुसोलिनी के संघातिक प्रहार से राष्ट्रसंघ बच नही सका। 1937 तक आते-आते स्पेन में गृहयुद्ध प्रारभ्भ हो गया। जनरल फ्रेंको के नेतृत्व में स्पेन के प्रतिक्रियावादी तत्वों ने उदारवादी गणतन्त्रवादी सरकार के विरूद्ध विद्रोह करके एक भयंकर गृहयुद्ध का सूत्रपात किया। अबीसीनिया की विजय के बाद मुसोलिनी के हौसले बहुत बढ गये थे और राष्ट्रसंघ की कमजोरी स्पष्ट हो चुकी थी। स्पेन के गृहयु;द्ध में जनरल फ्रेंको को हिटलर और मुसोलिनी का पूर्ण समर्थन मिला। स्पेन की गणतन्त्रवादी सरकार ने राष्ट्रसंघ से सहायता की याचना की लेकिन फ्रान्स तथा ब्रिटेन में बढ रहे रूसी साम्यवाद को रोकने के लिए स्पेन में प्रतिक्रियावादी शक्तियों को सहायता प्रदान की। परिणामस्वरूप इस गृहयुद्ध में जनरल फ्रेंको के दल को सफलता मिली। इस मामले में भी राष्ट्रसंघ कुछ नही कर सका और यह भी राष्ट्रसंघ की एक महान विफलता थी।
हिटलर तथा राष्ट्रसंघ :
पेरिस शान्ति सम्मेलन में जर्मनी के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया गया था। जर्मन प्रतिनिधियों को वार्साय सन्धि की कठोर और अपमानजनक शर्तो को स्वीकार करने के लिए विवश किया गया था। यह सन्धि जर्मन जनता के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गया था और हिटलर के हाथों में सत्ता आते ही उसने वार्साय सन्धि को मानने से इन्कार कर दिया। वस्तुतः प्रथम विश्वयुद्ध में हुई जर्मनी की पराजय का बदला लेना चाहता था। इस उ६ेश्य की पूर्ति के लिए उसने वार्साय सन्धि की धाराओं का उल्लंधन करके जर्मनी में अनिवार्य सैनिक सेवा को लागू किया। सन् 1933 में जर्मनी ने राष्ट्रसंघ की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। सन् 1936 में हिटलर ने राइन क्षेत्र में जर्मन सेना को भेज दिया। उसका यह कार्य वार्साय सन्धि तथा लोकार्नो सन्धि 1925 की धाराओं के विरूद्ध था। हिटलर ने न केवल आस्ट्रिया को जर्मनी में विलीन कर लिया अपितु एक कदम आगे बढते हुए उसने चेकोस्लोवाकिया पर अधिकार कर लिया। राष्ट्रसंघ उसके इस कार्यो के विरूद्ध कुछ नही कर सका। 1937 में स्पेन के गृहयुद्ध में हिटलर ने जनरल फ्रेंको को पूरा समर्थन दिया और तत्पश्चात्1939 में हिटलर ने पोलैण्ड पर आक्रमण करके द्वितीय विश्वयुद्ध की भूमिका को तैयार कर दिया। इस प्रकार राष्ट्रसंघ हिटलर की महत्वाकांक्षाओं को रोकने में सफल नही हो सका और विश्व को मात्र 20 वर्ष की अल्पावधि में पुनः द्वितीय विश्वयुद्ध की विभिषिका को झेलना और देखना पडा।
राष्ट्र संघ की असफलता के कारण –
राष्ट्रसंघ का निर्माण अर्न्तराष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से निपटारे के लिए तथा भविष्य में युद्धों की विभिषिका को समाप्त करने के उ६ेश्य से हुआ था। लेकिन दुर्भाग्यवश राष्ट्रसंघ अपने उ६ेश्यों को पूरा करने में असफल रहा। एक तरफ राष्ट्रसंघ की संरचना में दोष थे ही, दूसरी तरफ राष्ट्रसंघ की अपनी कुछ मूलभूत कमजोरियॉ थी। संक्षेप में, राष्ट्रसंघ की असफलता के कुछ मुख्य कारण निम्नलिखित बताये जा सकते है -
पेरिस की सन्धि से सम्बन्ध :
राष्ट्रसंघ का निर्माण पेरिस शान्ति सम्मेलन के दौरान किया गया था और इस संगठन को पेरिस की सन्धि का अभिन्न अंग बना दिया गया। चॅूकि इस सन्धि की धाराएॅ पराजित देशों के लिए अत्यन्त कठोर और अपमानजनक थी अतः ऐसी विवादास्पद सन्धियों की आलोचना का राष्ट्रसंघ पर असर पडना स्वाभाविक था। प्रारम्भ में पराजित राष्ट्रों को इस संगठन का सदस्य नही बनाया गया अतः वे इसे विजेता राष्ट्रों का संगठन मानते थे। वे इसे ऐसा यन्त्र मानते थे जिसके द्धारा मित्र राष्ट्र वार्साय सन्धि तथा अन्य सन्धियों की अनुचित व्यवस्थाओं को पराजित देशों पर बलपूर्वक लागू करा सकते थे। इस प्रकार राष्ट्रसंघ के प्रति पराजित देशों में सहानुभूति नही थी और यह संस्था ऐसे राष्ट्रों का समर्थन तथा विश्वास प्राप्त करने में सफल नही हो सकी।
अमेरिका का असहयोग :
राष्ट्रसंघ के पीछे मूल प्रेरक शक्ति अमेरिका तथा वहॉ के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन की थी परन्तु यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण बात थी कि अमेरिका की सीनेट ने पेरिस में किये गये राष्ट्रपति विल्सन के कार्यो को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। फलस्वरूप अमेरिका राष्ट्रसंघ का सदस्य नही बन सका। अमेरिका की अनुपस्थिती के कारण राष्ट्रसंघ आर्थिक प्रतिबन्ध के सिद्धान्त को प्रभावी ढंग से लागू कराने में सफल नही हुआ। राष्ट्रसंघ की स्थापना के समय अमेरिका तथा ब्रिटेन ने फ्रान्स की सुरक्षा की गारण्टी ली थी लेकिन अमेरिका के हट जाने के कारण उस गारण्टी का कोई मूल्य नही रह गया। इससे राष्ट्रसंघ के स्थायीत्व और विश्वसनीयता पर प्रश्न उठ खडा हुआ। इतना तो स्पष्ट है कि यदि अमेरिका राष्ट्रसंघ का सदस्य देश होता तो जर्मनी, इटली तथा जापान की आक्रामक कार्यवाहियों को प्रभावी तरीके से रोका जा सकता था। इस प्रकार अमेरिका की अनुपस्थिती राष्ट्रसंघ की असफलता का मुख्य कारण बनी। इतिहासकार ई0 एच0 कार के शब्दों में -‘‘यूरोप के दरवाजे पर एक असहाय शिशु छोड दिया गया था जिसे देखने पर हर तरह से अटलांटिक पार उसके जनक की याद आती थी।‘‘
सदस्य राष्ट्रों के परस्पर विरोधी हित :
राष्ट्रसंघ की सफलता सदस्य राष्ट्रों के पारस्परिक सहयोग, विश्वास और निःस्वार्थ भावना पर नीहित थी किन्तु इसके विपरित सभी राष्ट्रों ने राष्ट्रसंघ के हितों की अपेक्षा व्यक्तिगत हितों को महत्व दिया। सदस्यों के स्वार्थी तथा तुष्टीकरण की नीति के कारण अनेक बार राष्ट्रसंघ परिषद द्धारा लिए गए निर्णयों को क्रियान्वित नही किया जा सका। अमेरिका के हट जाने के बाद राष्ट्रसंघ के दायित्वों को निभाने की जिम्मेदारी प्रमुख रूप से फ्रान्स और ब्रिटेन के कन्धों पर आ गई लेकिन 1924 के बाद के वर्षो में इन दोनों राष्ट्रों में ही गहरा मतभेद पैदा हो गया। प्रारम्भ से ही राष्ट्रसंघ विजेता राष्ट्रों के हाथों की कठपुतली लगने लगा था। जर्मनी इसमें इसलिए शामिल नही किया गया क्योंकि वह पराजित था और रूस इसलिए कि वह क्रान्तिकारी था। ऐसे में लेनिन ने यदि उसे ‘‘पूॅजीवादी हथियार‘‘ कहा तो अतिशयोक्ति नही थी। अमेरिका, रूस और जर्मनी की अनुपस्थिती में ब्रिटेन और विशेष रूप से फ्रान्स का बोलबाला था। ऐसी स्थिती में अन्य सदस्य राष्ट्रों के आश्वस्त होने का प्रश्न ही नही था और फिर ऐसी स्थिती में राष्ट्रसंघ कैसे सफल हो सकता था।
सैन्यवादी तथा अधिनायकवादी शक्तियों का प्रभाव :
प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात यूरोप के विभिन्न देशों में सैन्यवादी तथा अधिनायकवादी शक्तियों का उदय और विकास हुआ जिसने राष्ट्रसंघ जैसी संस्था के पतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इटली, जर्मनी तथा स्पेन में क्रमशः मुसोलिनी, हिटलर तथा जनरल फ्रेंको जैसे तानाशाहों का उदय हुआ। जापान में भी सैनिकवादी व्यवस्था स्थापित हो चुकी थी। इन तानाशाहों ने समस्याओं के परस्पर बातचीत के द्धारा हल करने की अपेक्षा सैनिक शक्ति के प्रदर्शन पर विशेष बल दिया। सन् 1937 में इटली, जर्मनी और जापान ने आपस में एक सैनिक गठबन्धन किया जो रोम-बर्लिन-टोक्यों धुरी के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रकार युद्ध की अनिवार्यता में विश्वास रखने वाले इन अधिनायको ंके प्रभाव में वृद्धि के साथ-साथ शान्ति की संभावना दूर होती गई और राष्ट्रसंघ में असीम आस्था रखने वाले भी सामूहिक सुरक्षा की नही अपितु अपनी अपनी सुरक्षा की चिन्ता करने लगे। स्पष्ट है कि तानाशाहो ंका उदय एवं विकास ने राष्ट्रसंघ के पतन के मार्ग को और तेज कर दिया।
आर्थिक राष्ट्रीयता :
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद विश्व में आर्थिक राष्ट्रीयता की भावना प्रबल हुई थी। इसके मूल में कुछ तो प्रथम विश्वयुद्ध से उत्पन्न परिस्थितीयॉ थी और कुछ 1929-30 की आर्थिक मन्दी के कारण ‘‘अपना माल खरीदों‘‘ की भावना ने जोर पकडा और चुंगी की ऊॅची दीवार खडी कर दी गई। राष्ट्रसंघ की सफलता इस बात पर निर्भर थी कि यूरोप के राष्ट्र आपस में सहयोग करे अत्यधिक मन्दी ने इस सहयोग के मार्ग में बाधा उपस्थित कर दी। 1931 में जापान के खिलाफ आर्थिक प्रतिबन्ध की बात संभवतः इसलिए विचार का विषय भी नही बन पाई क्योंकि इस दिशा में कोई सोचने को ही तैयार नही था। इस प्रकार क्रमशः प्रबल होती आर्थिक राष्ट्रीयता की भावना ने राष्ट्रसंघ के सम्मुख गंभीर चुनौतियॉ पेश कर दी और राष्ट्रसंघ को अपने उ६ेश्यों में सफलता नही मिल सकी।
राष्ट्रसंघ के आन्तरिक और संगठनात्मक दोष :
राष्ट्रसंघ के कुछ संगठनात्मक दोष भी थे जो उसकी असफलता का कारण बना। एसेम्बली का कमजोर होना तथा परिषद् का अत्यधिक शक्तिशाली होना तथा इसके आपसी सम्बन्धों को ठीक से परिभाषित न होना राष्ट्रसंघ की आन्तरिक कमजोरी थी। परिषद में यद्यपि किसी राष्ट्र को वीटो ;टमजवद्ध का अधिकार प्राप्त नही था लेकिन अपने प्रभाव के कारण बडी शक्तियॉ कोई भी निर्णय अपने विरूद्ध नही जाने देती थी। यह विशेषाधिकार भी अस्वीकार्य था। इसके अतिरिक्त राष्ट्रसंघ की सदस्यता सतत् और अनिवार्य नही थी, इसलिए राष्ट्रसंघ का जब भी कोई निर्णय किसी राष्ट्र के विरूद्ध जाता तो वह राष्ट्र, राष्ट्रसंघ की उपेक्षा कर अलग हो सकता था और यह सर्वविदित था कि एक गैरसदस्य राष्ट्र के उपर राष्ट्रसंघ का कोई अनुशासन लागू नही होता था।
सबसे बडी समस्या तो राष्ट्रसंघ की क्षमता ही थी। राष्ट्रसंघ के पास न तो अपनी कोई पुलिस थी और न ही सेना जिसका प्रयोग वह आक्रान्ता तथा राष्ट्रसंघ संविधान का उल्लंघन करने वाले देशों के विरूद्ध कर सकता। राष्ट्रसंघ अपने सदस्य राष्ट्रों से सेना उपलब्ध कराने की प्रार्थना कर सकता था लेकिन यह भी सदस्य राष्ट्रों की इच्छा पर ही निर्भर था कि वह दे या न दे। इस प्रार्थना को अस्वीकार करने की स्थिती में राष्ट्रसंघ ऐसे राष्ट्रों के विरूद्ध कोई दण्डात्मक कार्यवाही नही कर सकता था। स्पष्ट है कि राष्ट्रसंघ अधिक से अधिक एक नैतिक संस्था हो सकता था लेकिन वह नैतिक बल भी उसकी निष्पक्षता की कमी तथा असमान व्यवहार के कारण उसे कभी प्राप्त नही हुआ। यदि कोई देश राष्ट्रसंघ के निर्णय को मानने से इन्कार कर दे तो वह अधिक से अधिक 14वी धारा के अन्तर्गत सदस्य राष्ट्रों से दोषी देश के बहिष्कार की अपील कर सकता था जिसे माने जाने की कोई गारण्टी भी नही थी। ऐसी स्थिती में राष्ट्रसंघ को पोपला बूढा कहना उसकी शक्तिहीनता को ही रेखांकित करना है। इस शक्तिहीनता और संगठनात्मक दोषों के कारण राष्ट्रसंघ अपने उ६ेश्यों को प्राप्त करने में असफल साबित हुआ।
मूल्याङ्कन (Conclusion)
राष्ट्रसंघ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हुआ अथवा नही, यह एक जटिल प्रश्न है। यदि हम राष्ट्रसंघ के कार्यो का मूल्यांकन उन आशाओं और आकांक्षाओं के आधार पर करें जो इसकी स्थापना के मूल में नीहित थी तो यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि राष्ट्रसंघ असफल रहा। इस संगठन का मूल उ६ेश्य युद्ध को रोकना तथा विश्व में स्थायी शान्ति की स्थापना करना था किन्तु राष्ट्रसंघ न तो युद्ध को रोक सका और न ही भविष्य में विश्वशान्ति बनाए रखने में सफल हो सका। लेकिन यदि हम वृहद्तर सन्दर्भों में देखे और राष्ट्रसंघ का मूल्यांकन करें तो इसका निष्कर्ष कुछ और ही होगा। यह निर्विवाद सत्य है कि राष्ट्रसंघ जैसी संस्था के लिए उपयुक्त वातावरण नही बन पाया था। कहा भी जाता है : – युद्ध तो उतना ही पुराना है जितना इन्सान जबकि शान्ति एक नई अवधारणा है। इस पुरानी युद्ध परम्परा पर नियंत्रण करना आसान नही था। चूॅकि कोई भी संस्था अथवा संगठन अमूर्त होता है अतः ऐसी संस्था को उतनी ही शक्ति प्राप्त होगी जितनी सदस्य देश समवेत रूप से प्रदान करेंगे। राष्ट्रसंघ के साथ भी यही बात लागू होती है। चूॅकि कोई भी राष्ट्र अपने अधिकारों को सीमित नही करना चाहता था। इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि असफल तो राष्ट्र हुए, राष्ट्रसंघ नही।
यद्यपि राष्ट्रसंघ की स्थापना से पहले अनेक अर्न्तराष्ट्रीय संगठनों की स्थापना चिरस्थायी शान्ति के लिए हुई थी परन्तु उसका आकार उतना विशाल नही था अथवा उसका कार्यक्षेत्र उतना व्यापक नही था। राष्ट्रसंघ की स्थापना उच्च आदर्शो पर आधारित थी परन्तु प्रारम्भ से ही यह स्पष्ट हो गया था कि यूरोप की कूटनीतिक शान्ति के क्रियात्मक स्वरूप को अधिक महत्व नही देती थी। अतएवं जिस प्रणाली का विकास कूटनीतिक वातावरण पर निर्भर हो और जबतक युद्ध के कारण विद्यमान है तबतक युद्ध को कोई भी संस्था कैसे रोक सकती है। एक तरफ 20 वर्षो में ही राष्ट्रसंघ का पतन इसकी असफलता का प्रमाण है तो दूसरी तरफ यु0द्ध के दौरान ही संयुक्त राष्ट्रसंघ के घोषणापत्र की तैयारी और युद्ध के बाद ही उसका बन जाना राष्ट्रसंघ की सफलता और उपयोगिता का प्रमाण है। वस्तुतः राष्ट्रसंघ के राजनीतिक कार्यो की अपेक्षा गैर-राजनीतिक कार्यो का अधिक महत्व है। महायुद्ध ने भारी संख्या में शरणार्थियों तथा युद्धबन्दियों की समस्या पैदा की थी। राष्ट्रसंघ ने इस चुनौती को सफलतापूर्वक निभाया। राष्ट्रसंघ ने हैजा, मलेरिया, चेचक, तपेदिक जैसे खतरनाक तथा संक्रामक रोगों के विरूद्ध व्यापक विश्वव्यापी अभियान चलाया जिससे मानवता का कल्याण हुआ। नशीली वस्तुओं और स्त्रियों के व्यापार, बच्चों पर होने वाले अत्याचार तथा दास प्रथा के विरूद्ध राष्ट्रसंघ के नेतृत्व में अर्न्तराष्ट्रीय प्रयास शुरू हुआ। गैर-कानूनी विवाहों तथा अवैध सन्तानों पर भी राष्ट्रसंघ ने गंभीरता से विचार किया और अश्लील साहित्य के प्रकाशन की रोकथाम का भी प्रयास हुआ। राष्ट्रसंघ ने अर्न्तराष्ट्रीय कानूनों को संकलित करने का प्रयास किया जो अबतक पूरा नही हो सका है।
अर्न्तराष्ट्रीय का उद्घाटन करते हुए फ्रान्सीसी राष्ट्रपति पुऐंकारे ने कहा था – ‘‘ आपके हाथों विश्व का भविष्य है‘‘ लेकिन राष्ट्रसंघ का स्वरूप तो वही हो सकता था जो उसके सदस्य देश बनाते। वास्तव में राष्ट्रसंघ की स्थापना के पश्चात यूरोप की स्थिती उस व्यक्ति के समान थी जो सत्य को आदर्श रूप में तो स्वीकार करता है परन्तु सच बोलने का साहस नही करता है। यूरोप के देश शान्ति तो चाहते थे परन्तु शान्ति के लिए युद्ध के कारणों को समाप्त करने का साहस नही करते थे। अतः अर्न्तराष्ट्रीय शान्ति स्थापना में किसी संगठन को तभी सफलता मिल सकती है जब विश्व के समस्त देश प्रतिस्पर्घा, प्रतिद्वन्दिता, द्वेष, कूटनीति, गूटबन्दी आदि को भूल जाय। लेकिन यह संभव प्रतीत नही होता है। इसलिए राष्ट्रसंघ ने जिस अर्न्तराष्ट्रीय भावना को जन्म दिया इसके लिए वह स्मरणीय रहेगा। राष्ट्रसंघ का सबसे बडा स्मारक संयुक्त राष्ट्रसंघ है जो अपने पूर्ववर्ती संस्था के बहुत से दोषों से मुक्त होने और पहले से अधिक व्यापक होने के वावजूद सफल नही हो पा रहा है, फिर भी ‘‘डूबते का तिनके का सहारा‘‘ की तरह एक विकल्प तो मौजूद है।
सन्दर्भ ग्रन्थ :
- “International relation between two world war” E.H. Carr. Page no. 198
- “ History of Modern England: Mairiet Page no. 412
- “History of Modern Europe” Hazen Page no. 601
- “International Government” Mawer Page no. 379
- “International relation between two world war” E.H. Carr. Page no. 96