सन्यासी विद्रोह :
ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने छल-बल से भारत पर अधिकार जमाया और उसे तरह-तरह से लूटकर तबाह कर दिया। क्या भारत की जनता उनकी लूट-खसोट चुपचाप देखती रही? प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री से साफ जाहिर है कि उसने ऐसा नहीं किया। उसने बार-बार विद्रोह कर अंगरेज लुटेरों और उनके गुर्गों-जमींदारों तथा साहूकारों को मार भगाने की कोशिश की। भारत की जनता के इस संग्राम ने विभिन्न समय में विभिन्न रूप धारण किये। लक्ष्य, हिस्सा लेने वाले वर्गों और कौशल के लिहाज से इन संघर्षों के कई रूप रहे हैं।
प्लासी और बक्सर के युद्धों में ब्रिटिश पूँजीवादियों की विजय के बाद ही हम किसानों और कारीगरों को इन नये लुटेरों और उनके समर्थक जमींदारों तथा साहूकारों से संघर्ष करते पाते हैं। उनका पहला विद्रोह इतिहास में संन्यासी-विद्रोह के नाम से मशहूर है। यह विद्रोह 1763 में बंगाल और बिहार में शुरू हुआ और 1800 तक चलता रहा।
इस विद्रोह में हिस्सा लेने वाले कौन थे? इसका नाम संन्यासी विद्रोह क्यों पड़ा? ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने इस विद्रोह का नाम संन्यासी विद्रोह दिया था। सरकारी दस्तावेजों की छानबीन करने से पता चल जाता है कि यह ब्रिटिश पूँजीवादियों और हिन्दुस्तानी जमींदारों के खिलाफ किसानों का विद्रोह था। विद्रोही सेना और विद्रोह के नेता जहाँ गये, साधारण किसानों ने उनका स्वागत किया, उनकी सहायता की और विद्रोही सेना में शामिल होकर उसकी शक्ति बढ़ायी।
भारत के सरकारी इतिहास और गजेटियरों के रचयिता सर विलियम हन्टर ने, जो स्वयं ब्रिटिश शासकों के वर्ग के थे, साफ शब्दों में लिखा कि संन्यासी विद्रोह किसान विद्रोह था। ये विद्रोही और कोई नहीं, मुगल साम्राज्य की सेना के बेकारी और भूख से पीड़ित सैनिक तथा भूमिहीन और गरीब किसान थे। हन्टर ने लिखा है कि ये “जीवनयापन के शेष उपाय का सहारा लेने को बाध्य हुए थे। ये तथाकथित गृहत्यागी और सर्वत्यागी संन्यासियों के रूप में पचास-पचास हजार के दल बाँधकर सारे देश में घूमा करते।“
सरकारी इतिहास और गजेटियर के रचयिताओं में प्रमुख तथा ब्रिटिश प्रशासक ओमैली ने हन्टर के मत को दोहराया है। उनके मतानुसार विद्रोही “ध्वस्त सेना के सैनिक और सर्वहारा किसान” थे। मुगल साम्राज्य के पतन के फलस्वरूप बहुत से सैनिकों की जीविका चली गयी थी; उनकी कुल संख्या लगभग 20 लाख थी। जमीन से बेदखल, सर्वहारा किसानों और कारीगरों ने उनकी संख्या बढ़ायी।
प्राप्त तथ्यों से पता लगता है कि इस विद्रोह में मुख्यतः तीन शक्तियाँ शामिल थीं -
(1) प्रधानतः बंगाल और बिहार के कारीगर और किसान जिन्हें ब्रिटिश पूँजीवादियों ने तबाह कर दिया था;
(2) मरते हुए मुगल साम्राज्य की भंग सेना के बेकारी और भूख से पीड़ित सैनिक जो खुद किसानों के ही परिवार के थे; और
(3) संन्यासी और फकीर जो बंगाल और बिहार में बस गये थे और किसानी में लग गये थे।
किसान इस विद्रोह की मूल शक्ति थे। बेकार और भूखे सैनिकों ने इन्हें सेना के रूप में संगठित कर संघर्ष को सामरिक रूप दिया। संन्यासियों और फकीरों ने आत्म बलिदान का आदर्श और विदेशी पूँजीवादियों से देश की स्वतंत्रता का लक्ष्य निर्धारित किया।
लेस्टर हचिन्सन नामक इतिहासकार ने अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है कि संन्यासियों और फकीरों ने संग्रामी किसानों और कारीगरों के सामने विदेशियों के चंगुल से देश की मुक्ति और धर्मरक्षा का आदर्श उपस्थित किया। उन्होंने लिखा - “संन्यासियों ने, जो कि धार्मिक भिक्षु थे, किसानों के अर्थनीतिक विद्रोह को धार्मिक प्रेरणा दी।’ उन्होंने शिक्षा दी कि देश को मुक्त करना सबसे बड़ा धर्म है। पराधीन जाति की मुक्ति के लिए सर्वस्वत्याग, मातृभूमि में अचल ’भक्ति’, अन्याय के विनाश और न्याय की प्रतिष्ठा के लिए ’संन्यास मुँह’ और प्रबल विदेशी शक्ति के विरुद्ध देशवासियों के ’ऐक्य का गठन’- ये सब उन सबसे बड़े धर्म के पालन के श्रेष्ठतम पथ हैं।
डा. भूपेन्द्र नाथ दत्त ने लिखा है- “ढाका के रमना के काली मंदिर के महाराष्ट्रीय स्वामी जी कहा करते थे कि संन्यासी योद्धा ’ओऽम बन्दे मातरम’ का रणनाद करते थे।’ बंगाल और बिहार में फैले इस विद्रोह के नेता मजनू शाह, मूसा शाह, चिराग अली, भवानी पाठक, देवी चौधुरानी, कृपानाथ, नूरुल मुहम्मद, पीताम्बर, अनूप नारायण, श्रीनिवास आदि थे। इनमें मजनू शाह की भूमिका सबसे ज्यादा उल्लेखनीय है।
ये विद्रोही सैकड़ों और हजारों की तादाद में अपने नेता के नेतृत्व में चलते, ईस्ट इंडिया कम्पनी की कोठियों और जमींदारों की कचहरियों को लूटते और उनसे कर वसूल करते। ब्रिटिश शासकों ने उन्हें डकैत की संज्ञा दी, लेकिन बात उल्टी थी। डकैत तो ब्रिटिश शासक थे, जो हिन्दुस्तान की जनता को लूट रहे थे, तबाह कर रहे थे। ये विद्रोही इन विदेशी डकैतों और उनके देशी छुटभइयों के खिलाफ लड़ रहे थे, उन्हें भगाने की चेष्टा कर रहे थे। कहीं भी उदाहरण नहीं मिलता जहाँ उन्होंने गरीबों को सताया हो। उल्टे दर्जनों उदाहरण मिलते हैं जहाँ किसानों ने विद्रोहियों की सक्रिय सहायता की, उन्हें रसद दी, आश्रय दिया और उनके साथ मिलकर ब्रिटिश सेना का मुकाबिला किया।
इन विद्रोहियों का सबसे पहला हमला ढाका की ईस्ट कंपनी की कोठी पर हुआ। यह कोठी ढाका के जुलाहों, बुनकरों और कारीगरों पर हुए जुल्मों का केन्द्र थी, उनकी तबाही और बरबादी का कारण थी। इसीलिए विद्रोहियों ने ब्रिटिश सौदागरों की लूट के इस केन्द्र को खत्म करने की कोशिश सबसे पहले की। रात के अंधरे में विद्रोहियों ने चारों तरफ से कोठी को घेर लिया। ’ओऽम बन्देमातरम’ का नारा बुलन्द कर, रमना के काली मन्दिर के महाराष्ट्रीय स्वामी के मतानुसार उन्होने कोठी पर आक्रमण किया। कोठी के अंग्रेज सौदागर सब धन-सम्पत्ति छोड़ दुम दबा कर पीछे के दरवाजे से नाव पर बैठ कर भागे। कोठी के पहरेदार उनसे भी पहले भाग खड़े हुए। ईस्ट इंडिया कम्पनी के कर्ताधर्त्ता राबर्ट क्लाइव ने अंग्रेज सौदागरों की इस बुजदिली से नाराज होकर कोठी के व्यवस्थापक लीसेस्टर को पदच्युत कर दिया। विद्रोही काफी दिनों तक उस पर कब्जा जमाये रहे। दिसम्बर 1763 के अन्त में कैप्टन ग्रान्ट नामक अंगरेज सेनापति ने बड़ी सेना ले जाकर भयंकर युद्ध के बाद फिर से कोठी पर कब्जा किया।
विद्रोहियों ने दूसरा हमला राजशाही जिले की रामपुर बोआलिया की अंगरेज कोठी पर मार्च 1763 में किया। वे कोठी की सारी धन-दौलत उठा ले गये। साथ ही उसके व्यवस्थापक बेनेट को कैद कर पटना भेज दिया। वहाँ बेनेट विद्रोहियों के हाथ मारा गया। 1764 में उन्होंने दुबारा हमला कर इस कोठी और स्थानीय जमींदारों को लूटा।
कूचबिहारी की गद्दी के लिए इस राज्य के सेनापति रुद्रनारायण और राजवंश के उत्तराधिकारी के बीच गहरा मतभेद हो गया था। रुद्रनारायण ने अंग्रेजों की और राजवंश ने बाध्य होकर उत्तर बंगाल के विद्रोहियों की सहायता माँगी। अंग्रेज सेनापति लेफ्टिनेन्ट मारिसन के पहुँचने के पहले ही विद्रोहियों ने कूचबिहार पर कब्जा कर लिया। 1766 में दीनहाटा में मारिसन की सेना के साथ युद्ध हुआ। विद्रोहियों के नेता संन्यासी रामानन्द गोसाईं थे। ज्यादा सेना और अच्छे अस्त्र-शस्त्रों के कारण अंग्रेजों को विजय मिली, लेकिन दो दिन बाद ही फिर आठ सौ विद्रोही चढ़ आये। अंग्रेजों की तोपों की मार के सामने फिर विद्रोहियों को पीछे हटना पड़ा।
इस युद्ध में शत्रु को पराजित करना असंभव देख विद्रोही छोटे-छोटे दलों में बँट गये और छापामार युद्ध की नीति अपनायी। पहले उन्होंने अंग्रेज सेना को दुर्बल किया और फिर अगस्त 1766 के अन्त में चार सौ विद्रोही मारिसन की मुख्य सेना पर टूट पड़े। घमासान युद्ध के बाद मारिसन की सेना पराजित होकर भाग खड़ी हुई। 1767 में संन्यासी विद्रोह के प्रधान केन्द्र पटना के आसपास के अंचल में भी विद्रोहियों की एक बड़ी सेना गठित हुई। इस सेना ने पटना की ईस्ट इंडिया कंपनी की कोठी और अंग्रेजों के वफादार जमींदारों को लूट लिया। कंपनी की सरकार का कर वसूल करना मुश्किल हो गया। सारण जिले में पाँच हजार विद्रोहियों की संगठित सेना ने आक्रमण किया। कंपनी की दो सेनाओं के साथ इसका भयंकर युद्ध हुआ। पहले युद्ध में अंगरेज पराजित हुए। विद्रोहियों ने इस जिले के हूसेपुर के किले पर अधिकार कर लिया, किन्तु कुछ दिनों के बाद तोपों के साथ कंपनी की एक बड़ी सेना आ पहुँची। पराजित होकर विद्रोहियों को किले से हट जाना पड़ा। इसी बीच उत्तर बंगाल में तराई के जंगल में विद्रोही आ जमा हुए। तब से उत्तर बंगाल संन्यासी विद्रोह का प्रधान केन्द्र बन गया। विद्रोहियों ने जलपाईगुड़ी जिले में एक किला बनाया। किले के चारों और चहारदीवारी और उसके चारों ओर खाई बनायी गई।
1766 में उत्तर बंगाल और नेपाल की सीमा के पास अंगरेज सौदागरों का प्रतिनिधि मार्टेल बहुत से लोगों को लेकर लकड़ी कटवाने गया। विद्रोहियों ने उसे गिरफ्तार कर लिया। उनकी अदालत में मार्टल पर मामला चला और मृत्यु दंड दिया गया। यह समाचार पाकर कैप्टेन मैकेंजी सेना लेकर उनका दमन करने आया। विद्रोही जंगल में और अंदर चले गये। 1769 में फिर मैकेंजी सेना लेकर आया। विद्रोही फिर उत्तर की ओर हट गये। किन्तु जाड़ा आरंभ होते ही वे अंग्रेज सेना पर टूट पड़े और रंगपुर तक आगे बढ़ आये। सेनापति लेफ्टिनेन्ट किथ बड़ी सेना के साथ मैकेंजी की मदद के लिए पहुँचा। विद्रोहियों ने फिर पीछे हटने और अंग्रेज सेना को जंगल में खींच ले जाने की नीति अपनायी। दिसम्बर 1769 में विद्रोही सारी ताकत के साथ नेपाल की सीमा के मोरंग अंचल में अंग्रेज सेना पर टूट पडे। किथ मारा गया, अंग्रेजी सेना नष्ट हो गयी।
1770-71 में बिहार के पूर्णिया जिले में विद्रोहियों ने नया आक्रमण आरंभ किया। अंग्रेजों ने मुकाबले के लिए बड़ी सेना इकट्ठा कर रखी थी। फलतः वे विद्रोहियों को हराने और 500 विद्रोहियों का कैद करने में सफल हुए। इन कैदियों से अंग्रेज अधिकारी विद्रोहियों के बारे में जो तथ्य संग्रह कर सके, ये मुर्शिदाबाद के रेवेन्यू बोर्ड के पास भेजे गये। इन तथ्यों से ज्ञात हुआ कि सभी कैदी स्थानीय किसान थे। वे सभी शान्तिप्रिय और सीधे-सादे नागरिक थे, उनका नेता भी स्थानीय किसान था। सभी विद्रोही उसे जानते थे और प्यार करते थे। इसी समय दिनाजपुर में पाँच हजार विद्रोहियों की सेना के गठन और रंगपुर, दिनाजपुर, तथा मैमनसिंह के विद्रोहियों के बीच घनिष्ठ संपर्क के प्रमाण पाये जाते हैं। फरवरी 1771 में ढॉंका जिले के विभिन्न स्थानों में अंग्रेजों की कोठियाँ और जमींदारों की कचहरियाँ लूटी गयीं।
उत्तर बंगाल में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए विद्रोहियों के नेता ने दिनाजपुर बगुड़ा और जलपाईगुड़ी जिलों में कई दुर्ग बनाये। इनमें प्राचीन नगर महास्थान गढ़ और पौण्ड्रवर्द्धन के दुर्ग विशेष उल्लेखनीय हैं। फरवरी 1771 के अन्त में मजनू शाह के नेतृत्व में अढ़ाई हजार विद्रोहियों की सेना ने लेफ्टिनेन्ट टेलर और लेफ्टिनेन्ट फेन्टहाम की बड़ी अंग्रेजी सेना का सामना किया। विद्रोहियों ही हार के बाद मजनू शाह ने महास्थान गढ़ में शरण ली और बाद में उन्हें संगठित करने के लिए बिहार चले गये। 1771 की शरद ऋतु में उत्तर बंगाल में फिर विद्रोही इकट्ठा हुए। पटना अंचल से एक बड़ी सेना उत्तर बंगाल आयी। इन विद्रोहियों ने उत्तर बंगाल की कंपनी की कोठियों और अत्याचारी धनियों तथा जमींदारों को लूटा।
1778 में विद्रोहियों का प्रधान कार्यक्षेत्र रंगपुर था। इन विद्रोहियों का दमन करने के लिए अंगरेज सेनापति टामस बड़ी भारी सेना लेकर आया। 30 दिसम्बर 1772 को प्रातः काल रंगपुर शहर के नजदीक श्यामगंज के मैदान में उसने विद्रोहियों पर आक्रमण आरंभ किया। विद्रोहियों के चतुर नेताओं ने हार कर भागने का बहाना किया और टामस की सेना को पास के जंगल में खींच ले गये। इसके बाद ही विद्रोही घूमकर अंग्रेजी सेना पर टूट पड़े और चारों तरफ से उसे घेर लिया। इस अंचल के सब गाँवों के किसान तीर-धनुष, भाला-बल्लम, लाठी-डन्डा लेकर आ पहुँचे और विद्रोहियों के साथ मिलकर अंगरेज सेना पर हमला करने लगे। सेनापति टामस ने अपनी सेना के देशी सिपाहियों को जवाबी हमला करने का हुक्म दिया, लेकिन इन सिपाहियों ने अपने देश के किसानों पर आक्रमण करने से इनकार कर दिया। थोड़ी देर में ही अंगरेज सेना हारकर भाग खड़ी हुई। इस संघर्ष में टामस मारा गया। इस घटना पर अफसोस करते हुए रंगपुर के सुपरवाइजर पार्लिंग ने रेवेन्यू कौंसिल के पास 31 दिसम्बर 1772 को लिखा-
किसानों ने हमारी सहायता तो को ही नहीं, बल्कि उन्होंने लाठी आदि लेकर संन्यासियों की तरफ से युद्ध किया। जो अंगरेज सैनिक जंगल की लम्बी घास के अन्दर छिपे थे, किसानों ने उन्हें खोजकर बाहर निकाला और मौत के घाट उतारा। जो भी अंगरेज सैनिक गाँव में घुसे, किसानों ने उनकी हत्या की और बन्दूकों पर कब्जा किया। किसान किस तरह विद्रोहियों का साथ देते थे, यह पत्र इसका जीता जागता प्रमाण है।
1 मार्च 1773 को तीन हजार विद्रोहियों ने मैमनसिंह जिले में अंग्रेज सेनापति कैप्टेन एडवर्ड्स की सेना नष्ट कर दी। खुद एडवर्ड्स मारा गया। सिर्फ बारह सैनिक बचकर भाग सके। इस युद्ध में एक देशी सूबेदार और एक देशी एडजुटेन्ट ने कई सिपाहियों को साथ लेकर विद्रोहियों की मदद की थी। बाद में ये दोनों अंग्रेजों के हाथ पड़ गये और तोप से उड़ा दिये गये।
विद्रोहियों के कार्यकलापों और उनके साथ किसानों के सहयोग को बढ़ता देख गवर्नर जनरल हेस्टिंग्स ने घोषणा की कि जिस गाँव के किसान विद्रोहियों के बारे में ब्रिटिश शासकों को खबर देने से इनकार करेंगे और विद्रोहियों की मदद करेंगे, उन्हें गुलामों की तरह बेच दिया जायगा। इस घोषणा के अनुसार कई हजार किसानों को गुलाम बना दिया गया। कितने ही किसानों को बीच गाँव में फाँसी दी गयी और लाश को लटका कर रखा गया ताकि किसान डर जायें। विद्रोही होने या विद्रोही के साथ सम्पर्क रखने का सन्देह होते ही बिना मामला के फांसी पर लटका देने की घटनाएँ पायी जाती हैं। जिन्हें फाँसी दी जाती, उनके परिवार के लोगों को हमेशा के लिए गुलाम बना दिया जाता। ब्रिटिश शासकों के इन अत्याचारों से किस भारतीय का खून न खोलेगा। 1774-75 में मजनू शाह ने बिहार और बंगाल के विद्रोहियों को फिर से संगठित करने की। 15 नवम्बर 1776 को मजनू की सेना और कंपनी की सेना के बीच टक्कर उत्तर बंगाल में हुई। अंग्रेज सेना चुपचाप विद्रोहियों के शिविर के पास पहुँच गयी थी। विद्रोही पहले पीछे हटे और अंग्रेज सेना को जंगल की तरफ खींच ले गये। फिर एकाएक घूमकर अंग्रेज सेना पर टूट पड,़े कई अंग्रेज सैनिक मारे गये और अंग्रेज सेनापति लेफ्टिनेन्ट राबर्टसन गोली की चोट से पंगु हो गया। इस तरह अंग्रेज सेना के हाथ से निकल जाने में मजनू शाह और उनके साथी कामयाब हुए। मजनू शाह ने कई साल बिहार और बंगाल में घूम-घूमकर विद्रोहियों को संगठित करने की कोशिश की। सेना के लिए कितने ही जमींदारों से कर भी वसूल किया। अंग्रेज शासकों ने उन्हें पकड़ने की बार-बार कोशिश की, पर असफल रहे।
29 दिसम्बर 1786 को अंगरेजों से युद्ध करते हुए उनका घेरा तोड़कर निकलने में मजनू शाह सख्त घायल हुए और एक आध दिन बाद ही संन्यासी विद्रोह के इस सर्वश्रेष्ठ नेता की मृत्यु हो गयी। इसके बाद संन्यासी लोग विद्रोह से प्रायः अलग गये किन्तु फकीर मूसा शाह के, जो मजनू शाह के शिष्य और भाई थे, नेतृत्व में विद्रोह चलाते रहे। मजनू शाह के दो और शिष्य फेरागुल शाह और चिराग अली के नाम भी उल्लेखनीय हैं। नेतृत्व की प्रतिद्वंद्विता के कारण फेरागुल शाह ने मूसा शाह को मार दिया।
जून 1787 से विद्रोहियों के विख्यात नेता भवानी पाठक और देवी चौधुरानी का उल्लेख मिलता है। आखिर में एक दिन भवानी पाठक अपनी छोटी टुकड़ी के साथ, अंगरेजों की विशाल सेना के घेरे में पड़ गये। जल युद्ध में भवानी पाठक और उनके साथी मारे गये। देवी चौधुरानी इसके बाद भी लड़ती रहीं, पर आखिर में उनका क्या हुआ, अज्ञात है।
सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक इस विद्रोह का उल्लेख मिलता है। बंगाल के प्रसिद्ध उपन्यासकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने 'आनन्द मठ' में संन्यासी विद्रोह का चित्रण किया है, लेकिन वास्तविक रूप उससे भिन्न था। फिर भी ’आनन्द मठ’ बंगाल के मध्यवर्ग के उग्रवादियों का बायबल और संन्यासी विद्रोह उनका आदर्श बना।
आपके चरणों में रहकर हमने शिक्षा पायी है,
ReplyDeleteगलत राह पर भटके जब हम कभी तो आपने ही सही राह दिखाई है।
आपके उपकारो का मोल मैं कभी नहीं चुका पाऊँगी गुरुजी 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏