परिचय (Introduction)
15 अगस्त 1947 को भारत की ब्रिटिश शासन से मुक्ति एक कठिन संग्राम का परिणाम था जो विभिन्न अवस्थाओं से गुजरने के बाद पूरा हुआ था। ब्रिटिश शासनकाल के अन्तर्गत विभिन्न कारणों से भारतीय जनता में राष्ट्रीय जागृति की भावना का उदय हुआ। ब्रिटिश शासन के विरूद्ध प्रतिक्रिया और उसे उखाड़ फेकनें के विचार में ही स्वतंत्रता आन्दोलन का बीज नीहित है।
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की गणना आधुनिक समाज के सबसे बड़े आंदोलनों में की जाती है। विभिन्न विचारधाराओं और वर्गों के करोड़ों लोगों को इस आंदोलन ने राजनीतिक रूप से सक्रिय होने के लिए प्रेरित किया और शक्तिशाली औपनिवेशिक साम्राज्य को घुटने टेकने के लिए विवश किया। इसलिए जो लोग मौजूदा सामाजिक और राजनीतिक ढाँचे को बदलना चाहते हैं, उनके लिए दुनिया के अन्य राष्ट्रीय आन्दोलन की तरह इसकी भी प्रासंगिकता है।
प्रमुख विशेषताएँ :
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विभिन्न पहलू - ख़ास तौर से गाँधीवादी राजनीति की रणनीति - उन समाजों में चलाए जाने वाले आंदोलनों के लिए विशेष रूप से सार्थक हैं, जो समाज कानूनी ढांचे के अंतर्गत कार्य करते हैं तथा लोकतांत्रिक और मूलतः नागरिक स्वतंत्रता वाली राज्यव्यवस्था जिन समाजों की विशेषता मानी जाती है लेकिन दूसरे समाजों के लिए भी इसकी सार्थकता है। हम सब इस बात को भली-भॉंति जानते हैं कि दुनिया के अनेक राष्ट्रीय आन्दोलनों में गाँधीवादी रणनीति के कुछ तत्त्वों को शामिल किया है।
वास्तव में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन लोकतांत्रिक पद्धति के राजनीतिक ढाँचे की अकेली वास्तविक ऐतिहासिक मिसाल पेश करता है, जिस ढाँचे को सफलतापूर्वक बदला या रूपांतरित किया जा सकता है। अपने तरह का यह एकमात्र आंदोलन है जहाँ राजसत्ता पर क्रांति के ज़रिए एक ख़ास ऐतिहासिक क्षेत्र में कब्ज़ा नहीं किया गया बल्कि इसके विपरीत, नैतिक, राजनीतिक और विचारधारात्मक, तीनों ही स्तरों पर लंबे जनसंघर्ष चलाकर इसको हासिल किया गया; जहाँ अनेक वर्षों में धीरे-धीरे जबाबी राजनीतिक नेतृत्व की शक्ति संचित की गई तथा जहाँ संघर्ष और शांति के दौर बारी-बारी से आते-जाते रहे।
सार्वजनिक उद्देश्य का व्यापक आंदोलन किस प्रकार खड़ा किया और चलाया जाता है, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन संभवतः इसका बहुत अच्छा उदाहरण है। इस आंदोलन में अनेक रंगतों वाली राजनीति और कई तरह की विचारधाराएं साथ-साथ काम कर रहीं थीं। साथ ही ये विचारधाराएं राजनीतिक नेतृत्व पर वर्चस्व कायम करने के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा भी कर रही थीं। इस आंदोलन में जहाँ सभी आधारहीन मुद्दों पर ज़ोरदार बहस की इज़ाज़त थी, वहीं इसकी विविधता और इसके भीतर आपसी तनावों के कारण इसकी एकता और इसकी प्रहार शक्ति कमज़ोर नहीं थीं। इसके विपरीत, इसकी विविधता और इसमें बहस तथा स्वतंत्रता का वातावरण, इसकी शक्ति के मुख्य स्रोत थे।
आज़ादी मिलने के 75 वर्षों बाद भी आज हम स्वतंत्रता संग्राम के इतने क़रीब हैं कि इसके उत्साह को आज भी महसूस कर सकते हैं, हमें इस बात का गर्व भी है कि इसकी पृष्ठभूमि हमारी आँखों के सामने है। लेकिन निश्चित रूप से हमें आज इसका विश्लेषण करना चाहिए क्योंकि हमारे अतीत, वर्तमान और भविष्य अविभाज्य रूप से इसके साथ जुड़े हुए हैं। हर युग और समाज में स्त्री-पुरुष अपना इतिहास खुद बनाते हैं लेकिन इसकी रचना किसी ऐतिहासिक शून्य में नहीं होती है। उनके प्रयास कितने प्रवर्तक क्यों न हों, वर्तमान में अपनी समस्याओं के समाधान तलाशने में और अपने भविष्य की रूपरेखा बनाते समय, वे अपने- अपने इतिहास से उत्तराधिकार में प्राप्त आर्थिक, राजनीतिक और विचारधारात्मक संरचनाओं से निर्देशित, नियंत्रित और अनुकूलित होते हैं। यदि मैं अपनी बात स्पष्ट करना चाहूँ तो कहूँगा कि आजादी के बाद इन 75 वर्षों में हमने जो कुछ भी उपलब्धियॉं अर्जित की है, उसकी जड़ें आज़ादी की लड़ाई में गहराई तक समाई हुई हैं। जिन राजनीतिक और विचारधारात्मक विशेषताओं का स्वतंत्रता के बाद विकास पर निर्णायक प्रभाव पड़ा, उनमें से अधिकांश स्वतंत्रता संग्राम की विरासत हैं।
दरअसल भारत के स्वतंत्रता संग्राम की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं? वे मूल्य और आधुनिक आदर्श, जिनको आधार बनाकर यह आंदोलन खड़ा किया था, और इसके नेताओं की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिकल्पना इस आंदोलन के महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। यह परिकल्पना लोकतांत्रिक, नागरिक स्वतंत्रता वाले धर्म-निरपेक्ष भारत की थी, जिसका आधार आत्मनिर्भरता, समतावादी समाज व्यवस्था और स्वतंत्र विदेश नीति थी। इस आंदोलन ने भारत में जनतांत्रिक विचारों और संस्थाओं को लोकप्रिय बनाया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन कभी भी अंतर्मुखी नही था। राजा राममोहन राय के समय से ही भारतीय नेताओं ने एक व्यापक अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास किया था।
हमारे विचार से भारत का मुक्ति संग्राम मूलतः भारतीय जनता और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के हितों के बीच आधारभूत अंतर्विरोधों का नतीजा था। एकदम शुरू से ही भारत के राष्ट्रीय नेताओं ने इन अंतर्विरोधों को समझा था। इस बात को समझने की उनमें क्षमता थी कि भारत अल्प विकास की प्रक्रिया से गुज़र रहा है। समय रहते उन्होंने उपनिवेशवाद के वैज्ञानिक विश्लेषण की पद्धति का विकास किया। औपनिवेशिक प्रजा के रूप में भारतीय जनता का अनुभव लेकर और उपनिवेशवाद के विरुद्ध भारतीय जनता के सामान्य हितों को पहचान कर राष्ट्रीय नेताओं ने क्रमशः एक सुस्पष्ट उपनिवेशवाद विरोधी विचारधारा विकसित की जिसको उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन का आधार बनाया। आंदोलन को व्यापक जनाधार प्रदान करने वाले चरण में उपनिवेशवाद विरोधी इस विचारधारा और उपनिवेशवाद की आलोचना को प्रचारित किया गया।
ऐतिहासिक प्रक्रिया में भी राष्ट्रीय आंदोलन की केंद्रीय भूमिका थी जिसके माध्यम से भारतीय जनता ने अपने को राष्ट्र के रूप में संगठित किया। दादाभाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और तिलक से लेकर गाँधीजी और जवाहरलाल नेहरू तक, राष्ट्रीय नेताओं ने स्वीकार किया कि भारत पूरी तरह से सुसंगठित राष्ट्र नहीं है, यह ऐसा राष्ट्र है, जो बनने की प्रक्रिया में है और उन लोगों ने यह भी माना कि आंदोलन का एक प्रमुख उद्देश्य और कार्य उपनिवेशवाद विरोधी आम संघर्ष के ज़रिए भारतीय जनता की बढ़ती हुई एकता को आगे ले जाना था। दूसरे शब्दों में कहें तों राष्ट्रीय आंदोलन उभरते हुए राष्ट्र की प्रक्रिया का परिणाम और उस प्रक्रिया का सक्रिय कारण दोनों ही था। भारत की क्षेत्रीय, भाषाई, प्रजातीय पहचान कभी भी इसके राष्ट्र बनने की प्रक्रिया के विरोध में नहीं खड़ी हुई। इसके ठीक विपरीत राष्ट्रीय अस्मिता के उत्थान के साथ ही ये अन्य छोटी अस्मिताएँ भी उभरीं और इन दोनों से एक-दूसरे को शक्ति प्राप्त हुई।
वास्तव में, भारतीय जनता की त्याग और बलिदान की क्षमता में अगाध आस्था पर यह आंदोलन टिका था लेकिन साथ ही वह इसकी क्षमता की सीमाओं से भी परिचित था, इसीलिए इसने अवास्तविक और स्वच्छंद कल्पना पर आधारित कोई माँग नहीं रखी। इन सारी बातों के बाद भी जहाँ कैडर पर आधारित आंदोलन, प्रतिभाशाली व्यक्तियों पर निर्भर कर सकता है, जिनमें अपूर्व त्याग की क्षमता हो, किंतु असाधारण प्रतिभा वाले व्यक्तियों और नेताओं के होने बावजूद एक जन-आंदोलन को अपनी जनता पर, उसकी सारी शक्ति और सीमाओं के साथ, भरोसा करना होता है, इसलिए कि इस सामान्य जनता को असाधारण कार्य करना होता है। गाँधीजी ने के0 एफ0 नरीमन से 1934 में कहा था- “राष्ट्र के पास जो ऊर्जा है, उसका अंदाज़ा आपको नहीं है, लेकिन मुझे है।“ लेकिन आगे उन्होंने यह भी कहा कि “नेतृत्व को इस ऊर्जा पर अनावश्यक बोझ नहीं डालना चाहिए। ’ भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन ने जनआन्दोलन के रूप में अनेक प्रकार के लोगों की क्षमता, प्रतिभा और ऊर्जा का प्रयोग किया और इस आन्दोलन में सबके लिए जगह थी। इस आन्दोलन में लोगों ने अनेक रूपों में भाग लिया और इसके जरिए उन लोगों ने अपनी नवाचारी शक्ति और पहल की क्षमता को पूरी तरह अभिव्यक्त किया।
चंद पँक्तियाँ अपने गुरुजी की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता पर अर्पित करते हुए 👇👇
ReplyDelete*आज के फैशन के दौर मे साधारण तरीके से रहता हूं*
*शिष्य सादगी को समझे इसलिए सादा जीवन जीता हूं!*
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*गुरुजी.........*
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आप मेरे जीवन के निर्माता हैं ।