window.location = "http://www.yoururl.com"; Revolt in Midnapore, 1766-67 | मेदिनीपुर का विद्रोह, 1766-67

Revolt in Midnapore, 1766-67 | मेदिनीपुर का विद्रोह, 1766-67

 

मेदिनीपुर का विद्रोह, 1766-67 

1760 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने मीरकासिम से बर्दवान और चटगाँव के साथ ही मेदिनीपुर जिले को भी अपने अधिकार में ले लिया। अंग्रेज सौदागरों ने अपने शोषण और उत्पीड़न के चुंगल में इस जिले को भी जकड़ लिया। लेकिन यहाँ के किसानों तथा अन्य लोगों ने इसका भरसक मुकाबला करने की कोशिश की। आदिवासी किसानों ने तो लम्बा संघर्ष चलाकर अंग्रेजों के लिए अपना राज्य स्थापित करना असंभव बना दिया था। जमींदारों ने भी किसानों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाये।

1696-97 में इस जिले के चितुवा-बरदा परगने के जमींदार शोभा सिंह और ओड़िसा के पठान सरदार रहीम खाँ के नेतृत्व में मुगल शासन और बर्दवान के राजा के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ विद्रोह हुआ था। यह विद्रोह दरअसल इस अंचल के बागदी नामक आदिवासी किसानों का विद्रोह था। अवश्य ही शोभा सिंह और रहीम खाँ ने इसका व्यवहार अपने स्वार्थ की सिद्धि में किया था। इस विद्रोह के दौरान बंगाल के किसानों और अंग्रेज सौदागरों के बीच सशस्त्र संघर्ष हुआ।

ये विद्रोही युद्ध करते-करते मुर्शिदाबाद, कासिमबाजार, राजमहल, मालदह और हुगली पर अधिकार कर वर्तमान कलकत्ता तक पहुँच गये थे। उसके विपरीत स्थित ‘तात्रा’ के मुगल दुर्ग को उन्होंने घेर लिया था। उस वक्त अंग्रेज और पुर्तगाली सौदागरों ने अपने जंगी जहाज और सैनिक मुगल सेना की सहायता को भेजे थे। इन लोगों ने मिलकर विद्रोहियों को पराजित किया था। इसके बाद मुगल सेना ने आक्रमण कर विद्रोह को ध्वंस कर दिया। इस सहायता के लिए अंग्रेज सौदागरों को मुगल शासकों से पुरस्कार भी मिला। उन्होंने अंग्रेज सौदागरों के हाथ कलकत्ता, सूतानती और गोबिन्दपुर बेच दिया। यहीं वर्तमान कलकत्ता आबाद है।

मेदिनीपुर जिले की बलरामपुर जमींदारी के केदारकुण्ड परगने में घोड़ई नामक आदिवासी रहते थे। आदिम ढंग की खेती कर ये अपनी जीविका चलाते थे। जमींदार के अत्याचार के लिलाफ इन आदिवासी किसानों ने कई बार विद्रोह किया।

उस वक्त जमींदार थे शत्रुघ्न चौधुरी। उन्होंने मोड़ई लोगों के विद्रोह का दमन करने का भार अपने पुत्र नरहरि चौधुरी को सौंपा। धोहुई प्रत्येक वर्ष कार्तिक की अमावस्या को अपने सरदार के घर में इकट्ठा होते और उसे कर देते। ऐसे ही एक दिन नरहरि चौधुरी ने सशस्त्र सिपाहियों के साथ निःशस्त्र घोड़ई लोगों पर हमला किया। इस आक्रमण में 700 घोड़ई मारे गये। जहाँ सात सौ सर काट कर रखे गये थे, उस स्थान का नाम ’मुण्डमारी’ और जहाँ शव रखे गये थे, उसका नाम ’गर्दनमारी’ पड़ा।’

घोड़ई लोगों ने दूसरा विद्रोह उस वक्त किया जब खुद नरहरि चौधुरी जमींदार था। विद्रोहियों का दमन करने के लिए उसने वही पुरानी चाल अपनायी। 1773 की कार्तिक की अमावस्या की रात को उसने अपने सरदार के यहाँ इकट्ठा निःशस्त्र घोड़ई लोगों पर आक्रमण किया। इस बार भी उसने कई सौ आदमियों की हत्या की।

इस जमाने में मेदिनीपुर जिले के ’जंगलमहाल’ में खैरा और मॉझी नामक आदिवासी रहते थे। वे भी पुराने ढंग की खेती कर जीवनयापन करते थे। जमींदार के अत्याचार से वे जमीन के अन्दर घर बनाकर गुप्त रूप से रहते थे। उनके सरदारों के अलग-अलग अड्डे होते थे। जमींदार के अत्याचारों का मुकाबिला वे तीर-धनुष से करते। बंगाल में जब अंग्रेजों का राज आरम्भ हुआ तो खैरा और मॉझी किसानों ने स्थानीय जमींदारों और अंग्रेज शासकों से बहुत दिन तक लोहा लिया।

खैरा और माझी के विद्रोह के अभी शान्त भी नही हुये थे कि इस जिले में जमींदारों के नेतृत्व में चोआड़ों ने मोर्चा लगाया। चोआड़ ज्यादातर पाइक (सिपाही) का काम स्थानीय जमींदारों के यहाँ करते थे। वेतन के बदले उन्हें जमीन मिलती थी, जिसे ’पाइकान जमीन’ कहते थे। ये पाइक तीर, धनुष, फरसा, बरछा, बल्लम आदि हथियार लेकर युद्ध करते। किसी-किसी के पास बन्दूकें भी होती थीं।

जमींदारों और चोआड़ों के इस विद्रोह के कारण क्या थे ? इस सम्बन्ध में श्री योगेशचन्द्र बसु ने ’मेदिनीपुर के इतिहास’ में लिखा है कि -

“1766 ई0 में कम्पनी ने फैसला किया कि मेदिनीपुर जिले के उत्तर और पश्चिम भाग के जंगलमहाल में सेना भेजकर यहाँ के सब स्थानों के बंधन-हीन जमींदारों को राजस्व देने को बाध्य करेंगे और उनके दुर्गों को तोड़ कर दुष्टों के इस घोंसले को नष्ट कर देंगे। इस समाचार के फैलने के साथ ही साथ 1767 के आरंभ में ही कम से कम एक सौ मील में फैले सारे जंगलमहाल में भयंकर विद्रोह की आग जल उठी।“

मुगल शासन में जमींदार जमीन के मालिक न थे। वे भूमि राजस्व संग्रह कर सरकार को दिया करते थे। अंग्रेजों ने भी आरंभ में यही रास्ता अपनाया, किन्तु मुगल शासन के अन्तिम भाग में जंगलमहाल के जमींदार अपने को स्वाधीन अनुभव करने लगे थे। इसलिए वे अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने को तैयार न हुए। अपनी छोटी-मोटी सेना लेकर वे अंग्रेजों से भिड़ गये।

उस वक्त मेदिनीपुर में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का रेजीडेन्ट ग्राहम था। उसने लेफ्टिनेन्ट फर्गुसन को सेना देकर इन जमींदारों को वश में करने और जंगलमहाल पर कब्जा करने भेजा। जमींदारों ने अपनी शक्ति के अनुसार कम्पनी सेना का मुकाबला किया, किन्तु पराजित होकर एक-एक कर अधीनता स्वीकार कर ली। रामगढ़, लालगढ़, जामबनी, शालदा आदि के जमींदार अंग्रेजों के अधीन हो गये। इस संग्राम में चोआड़ पाइको ने अपने जहरीले तीरों से कम्पनी सेना को काफी नुकसान पहुँचाया।

मेदिनीपुर जिले की सीमा पर स्थित घाटशिला में 1770 ई0 में चोआड़ों ने वहाँ के राजा के नेतृत्व में अंग्रेजों का जबर्दस्त मुकाबला किया था। इसका विस्तार के साथ वर्णन आगामी अध्याय चुआर विद्रोह में अलग से किया जायेगा।

अंग्रेज सौदागरों के खिलाफ इस संग्राम में इस अंचल के किसानों ने जमींदारों का साथ दिया था और निस्सन्देह नेतृत्व जमींदारों के ही हाथ में था।


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