window.location = "http://www.yoururl.com"; Rebellion of Dhalbhoom,1766-77. | धलभूम का विद्रोह

Rebellion of Dhalbhoom,1766-77. | धलभूम का विद्रोह

 


धलभूमि का विद्रोह (1766-77)

बंगाल का मेदिनीपुर का जिला ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ 1760 ई0 में आया। इस जिले के पच्छिम के जमींदारों ने मराठा आक्रमणों के समय अपने को स्वतंत्र कर लिया था। वे अपने को स्वतन्त्र समझते थे और इसलिए फिरंगियों को अपना स्वामी मानने को तैयार न हुए। इनको काबू में करने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1766 ई0 में लेफ्टिनेन्ट जान फर्गुसन के नेतृत्व में कुछ सेना भेजी। वह मेदिनीपुर के पच्छिम के जमींदारों, बाँकुड़ा के छातना, सुपुर और अंबिकानगर के जमींदारों तथा मानभिम के बड़ाभूमि के जमींदार को अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कराने में समर्थ हुआ। लेकिन धलभूमि (घाटशिला) के जमींदार ने ऐसा करने से इनकार किया। उसने अंग्रेजों का मुकाबला करने की तैयारी की। घाटशिला की तरफ जाने वाले जितने भी रास्ते थे, उन सबकी नाकेबन्दी की। मार्च 1767 के मध्य फर्गुसन ने जगबनी से घाटशिला पर चढ़ाई की। उसका रास्ता राजा के दो हजार सैनिकों ने आ रोका। बेन्द के पास खंभेनुमा मोर्चेबन्दी कर उन्होंने दुश्मन की सेना को काफी हैरान किया, लेकिन दुश्मन की बन्दूकों की मार के सामने वे टिक न सके। फर्गुसन इस स्थान पर कब्जा कर आगे बढ़ा। राजा के सैनिकों ने फिर दूसरे दिन हमला करने की कोशिश की, लेकिन गोलियों की बौछार से फिर वे नजदीक न आ सके।

इसके बाद राजा के आदमियों ने नया कौशल अपनाया। वे जंगल में फर्गुसन की सेना के दोनों तरफ रहते और हैरान करते। अवश्य ही बन्दूकों की वजह से सामने न आते। लड़ते-लड़ते फर्गुसन अपनी छावनी चाकुलिया पहुँचा। उसके बाद फिर जब वह आगे बढ़ा, राजा के आदमियों ने वही कौशल अपनाया। 32 मील जंगल को कदम-कदम पर लड़ते हुए फर्गुसन पार कर 22 मार्च 1767 को घाटशिला पहुँचा और किले पर कब्जा कर लिया। राजा अपने सैनिकों के साथ किले से हट गया था और जाते वक्त आग लगा गया था, ताकि वहाँ का कोई सामान दुश्मन के काम न आ सके। उसने आसपास के गाँव भी खाली करा दिये थे या जला दिये थे और ऐसी हालत पैदा करने की चेष्टा की थी कि दुश्मन को रसद न मिल सके। किन्तु दुश्मन के भाग्य से किले का कुछ अन्न जलने को बाकी रह गया था। फर्गुसन के सैनिकों ने उसे जल्दी बचाया, वरना रसद के अभाव से ही उसे वापस लौटना पड़ता।

इसके बाद फर्गुसन राजा को पकड़ने में सफल हुआ। राजा कैद कर मेदिनीपुर भेज दिया गया और उसका भतीजा जगन्नाथ धल 5,500 रुपया वार्षिक राजस्व देने के वादे पर राजा बनाया गया। लेकिन इस नये राजा से भी अंग्रेजों की जल्दी ही ठन गयी। एक छोटे जमींदार को गिरफ्तार करने का हुक्म अंग्रेजों ने इस राजा को दिया। उसने अंग्रेजों की आज्ञा का पालन न किया और न उनके बुलाने पर बलरामपुर गया जहाँ फर्गुसन पड़ाव डाले पड़ा था। फलतः अगस्त 1767 ई0 में फर्गुसन ने दो कंपनी सेना लेकर उस पर चढ़ाई की और उसके किले पर कब्जा कर लिया। जगन्नाथ धल जंगल भाग गया, लेकिन जल्दी ही आत्मसमर्पण कर दिया और उसे माफ कर दिया गया।

किन्तु 1768 ई0 में नया झमेला खड़ा हो गया। राजा पर कंपनी का राजस्व चढ़ता गया। मेदिनीपुर के अंग्रेज रेजीडेन्ट के बार-बार माँग करने पर भी उसने राजस्व न चुकाया। दरअसल वह चुकाना भी नहीं चाहता था। उल्टे वह स्वाधीन बनने की गुपचुप चेष्टा कर रहा था। इसलिए लेफ्टिनेन्ट रूक को उसका दमन करने के लिए दो कंपनी देशी सेना के साथ जून 1768 ई0 में भेजा गया। राजा उसके हाथ न आया, लेकिन उसका भाई नीमू धल पकड़ा गया। जुलाई 1768 ई0 में रूक का स्थान कैप्टेन मोर्गन ने सँभाला। उसने देखा कि सिर्फ राजा ही नहीं सारा देश अंग्रेजों के खिलाफ है। उस अंचल के सारे जमींदार धलभूमि के राजा का समर्थन कर रहे थे और नरसिंह गढ़ के किले पर अधिकार करना असंभव था। ऊपर से आदेश पाकर मोर्गन ने नीमू धल को जगन्नाथ धल की जगह राजा बनाया, पर इस नये राजा के पास न तन ढकने को कपड़ा था और न पेट भरने को अन्न। 

मोर्गन ने लिखा है कि - चूँकि अब हमने एक नया राजा पा लिया है, अतः कंपनी को उसे धन और भोजन अवश्य देना चाहिए, क्योंकि ये दोनों उसके पास सबसे कम हैं।... वह बहुत ही गरीब है। मैं समझता हूँ कि तुम्हें चाहिए कि तुम उसे कपड़ों के कुछ टुकड़े और कुछ रेशम उपहार दो, क्योंकि राजा के लायक उसकी शकल-सूरत जरा भी नहीं।’ विद्रोहियों ने मोर्गन को इस तरह हैरान किया कि वह तंग आ गया। विद्रोही कभी भी उसके सामने न आते थे। छोटे-छोटे जत्थे बनाकर अर्थात छापामार दस्तों के रूप में वे जंगल में उसके चारों तरफ मंडराया करते ओर ज्योंही मौका मिलता, उसकी सेना पर हमला कर फिर जंगल में गायब हो जाते। उसने लिखा - युद्ध के बारे में वे कतई कुछ नहीं जानते। वे बरैयों के झुण्ड की तरह हैं। वे अपने तीरों से आपको डंक मारने की कोशिश करते हैं और फिर हवा हो जाते हैं। उनमें से एक को भी मारना असंभव है, क्योंकि वे हमेशा अपने को बहुत बड़ी दूरी पर रखते हैं और आप पर अपने तीर बरसाते हैं, जो आप कल्पना कर सकते हैं, कभी भी या जरा भी कारगर नहीं होते। इस देश की वर्तमान हालत के बारे में, अगर मैं अपनी वास्तविक भावना आप से कहूँ तो, मैं सोचता हूँ कि पहले इसको जीतना जितना मुश्किल था, उससे ज्यादा मुश्किल काम उसे बसाना होगा। इन विद्रोहियों का नेता अब एक जवान है जो किसी खास जगह में ज्यादा दिन नहीं रहता। फलतः पुराने राजा को, जो बेवकूफ की तरह किले में फर्गुसन के आने तक बना रहा, पकड़ना जितना मुश्किल था, उससे कहीं ज्यादा मुश्किल काम इस नये राजा को पकड़ना है। मैं ईश्वर से कामना करता हूँ कि यह काम जल्दी खत्म हो जाय, क्योंकि मैं हाथ पर हाथ धरे थक गया हूँ और मेरे गरीब सिपाही बराबर बीमार पड़ रहे हैं, इस वक्त मेरे साठ से ज्यादा आदमी बुखार से पीड़ित हैं।“

आगे उसने लिखा - मैं जगन्नाथ धल का पीछा करने में जरा भी वक्त बरबाद न करूँगा। इसका फल यह होगा कि देश के सारे लोग भाग खड़े होंगे और फिर संभवतः देश को कई महीनों तक आबाद न किया जा सकेगा, लेकिन मैं इन बदमाशों के साथ कर क्या सकता हूँ जबकि वे न तो पास आते हैं और न मेरे परवानों का उत्तर देते हैं।’ मोर्गन की मुसीबत इस बात से और भी बढ़ गयी कि वहाँ के निवासियों ने उसे रसद देने से इनकार कर दिया। उसे और उसके सिपाहियों को खाना मिलना मुश्किल हो गया। एक बार उसने लिखा कि उसे खाद्य सामग्री की खोज में किला छोड़कर जाना होगा। 

लेकिन इस बीच बरसात आ गयी थी। नदियाँ उमड़-घुमड़ रही थीं। उसके पास नाव न थी। इसलिए उसको नरसिंह गढ़ में ही बन्द रहना पड़ा। उसके आदमियों को रोजाना सिफ एक सेर चावल खाने को मिलता। आखिरकार अगस्त 1768 ई0 में वह सुवर्णरेखा नदी को ऐसी नाव में बैठकर पार करने में सफल हुआ, जिसमें पानी अन्दर आता था। वह जगन्नाथ धल का पीछा करने हल्दीपोखर चला। वहाँ भी मुसीबत उसके साथ गयी। उसे एक दलदली जमीन में पड़ाव डालना पड़ा। उसके आदमी पर आदमी बीमार हो रहे थे। ऐसा खराब मौसम उसने अपनी जिन्दगी में न देखा था। वह बार-बार उच्च अधिकारियों के पास मौसम की शिकायत भेजता और कुछ मदिरा, कुछ बराण्डी और मक्खन भेजने की अपील करता।

1768 ई0 के अंत तक हालत में कुछ सुधार दीख पड़ा। सितम्बर में मेदिनीपुर के अंग्रेज रेजीडेन्ट ने लिख भेजा कि घाटशिला अब एकदम शान्त है और कारोबार अब ठीक-ठीक चल रहा है। लेकिन जल्दी ही एक नयी मुसीबत सर पर आ पड़ी।

1769 ई0 में 5000 चुआर या भूमिजों ने धलभूमि पर हमला किया और राजा नीमूधल को भाग कर नरसिंह गढ़ के किले में शरण लेने को बाध्य किया। इस किले की रक्षा ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ सिपाही कर रहे थे। इस हमले की खबर पाकर कैप्टेन फारबेस सेना लेकर मेदिनीपुर से आया। वह चुआरों को वहाँ से भगाने में समर्थ हुआ। वह कुचांग में सिपाहियों का एक छोटा-सा दस्ता छोड़कर चला गया, लेकिन उसके जाते ही ये सिपाही काटकर रख दिये गये। इस पर लेफ्टिनेन्ट गुडइयर को दो कंपनी सिपाहियों के साथ कुचांग भेजा गया। उसे निर्देश दिया गया कि वह आसपास के अंचल पर कब्जा कर ले, कंपनी के नाम पर राजस्व वसूल करे और अगर संभव हो तो वहाँ के जमींदार, उसके भाई और उन सब लोगों को, जिनका हाथ सिपाहियों के कत्ल में था, गिरफ्तार कर मेदिनीपुर भेज दे। कुचांग को ब्रिटिश राज्य का अंग बना लेने का भी विचार पैदा हुआ, पर तब यह मयूरभंज के स्वाधीन राजा के अधिकार में हस्तक्षेप होता, क्योंकि कुचांग और बामनघाटी के जमींदारों की नियुक्ति यही राजा करता था।

कुचांग को हड़पने का विचार फिलहाल छोड़ना पड़ा, लेकिन फिर भी मयूरभंज के राजा पर दबाव डालकर कुचांग के जमींदार को हटा दिया गया। यह जमींदारी भी बामनघाटी के जमींदार को सौंप दी गयी। इस जमींदार से वादा करा लिया गया कि वह मेदिनीपुर के अंग्रेज रेजीडेन्ट के हुक्म को मानकर चलेगा और कंपनी की भूमि पर आक्रमण न होने देगा। अगर वह यह समझौता भंग करेगा, तो उसके हाथ से सिर्फ कुचांग ही नहीं, बामनघाटी की जमींदारी भी छीन ली जायेगी।

इस बीच जगन्नाथ धल अपनी ताकत बढ़ाने में व्यस्त थे। विद्रोहियों को अपनी पल्टन में भरती कर उन्होंने फरवरी 1773 में अंग्रेजों द्वारा नियुक्त राजा ’नीमू’ पर धावा बोल दिया। जगन्नाथ धल की सेना बहुत बड़ी थी। चारों तरफ विद्रोहियों ने इस तरह हमला किया कि मेदिनीपुर के अंग्रेज रेजीडेन्ट को उस वक्त के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के पास पत्र लिखकर सफाई देनी पड़ी। उसने अपनी रिपोर्ट में जमींदारों को विद्रोही और यहाँ के निवासियों को उद्दण्ड और नियंत्रणहीन बताया। उसने कहा कि लूटना-पाटना, मार-काट करना उनका स्वभाव है। इसलिए विशेष कोई चिन्ता की बात नहीं। उसने रिपोर्ट में लिखा - ज्योंही फसल काट-माँड कर इकट्ठा कर ली जाती है, वे अनाज पहाड़ियों की चोटियों पर ले जाते हैं या उसे अन्य मजबूत स्थानों में रखते हैं जो अभेद्य हैं। जब भी उनसे ज्यादा ताकतवर सेना उनका पीछा करती है वे इन स्थानों में चले जाते हैं जहाँ वे बिलकुल सुरक्षित रहते हैं और अपने ऊपर होने वाले किसी भी आक्रमण को चुनौती दे सकते हैं। जमींदार लुटेरे मात्र हैं, जो अपने पड़ोसियों को और एक दूसरे को लूट लेते हैं, और उनकी रियाया डकैत है, जिसे वे खास कर अपने अत्याचारों-अनाचारों में लगाते हैं। इन आक्रमणों की वजह से जमींदार और उसकी रियाया को हमेशा हथियारबन्द रहना पड़ता है, क्योंकि ज्योंही फसल कट-मड़ जाती है, कोई भी जमींदार ऐसा नहीं जो अपनी रय्यत का आह्वान अपने झण्डे के नीचे इकट्ठा होने का न करता हो चाहे अपनी जायदाद की रक्षा के लिए या अपने पड़ोसियों पर हमला करने के लिए। मैं कह सकता हूँ कि इस सामन्ती अराजकता का परिणाम यह है कि राजस्व की हालत बहुत खराब है, जमींदार विद्रोही हैं, और यहाँ के निवासी 1773 ई0 में मेदिनीपुर का अंग्रेज रेजीडेन्ट स्वीकार करता है कि धलभूमि की रियाया और जमींदार कोई भी अंग्रेजों के काबू में नहीं। वे अंग्रेजों के लिए सरदर्द बने हुए हैं।

रेजीडेन्ट ने बताने की कोशिश की थी कि जैसे हर साल फसल कट-मड़ जाने के बाद इस अंचल में मार-काट चलती है, वैसा ही 1773 ई0 में हो रहा है। लेकिन इस साल कहीं ज्यादा अशान्ति दिख पड़ी। इसलिए एक बड़ी सेना लेकर कैप्टेन फारबेस शान्ति स्थापित करने और अपने कठपुतले राजा की मदद करने गया। यह काम पूरा होने के बाद नरसिंहगढ़ और हल्दीपोखर में दो कंपनी सेना शान्ति बनाये रखने के लिए रखी गयी।

1774 में फिर चुआरों ने जगन्नाथ धल के नेतृत्व में आक्रमण शुरू किये। बहरा-पथोड़ा से लेकर नरसिंहगढ़ के सारे गाँव या तो जला दिये गये या खाली कर दिये गये। 10 अप्रैल 1774 को हल्दीपोखर के सेनाध्यक्ष सिडनी स्मिथ ने मेदिनीपुर के रेजीडेन्ट को लिखा कि जगन्नाथ धल के नेतृत्व में विद्रोही इस तरह सब तहस-नहस कर रहे हैं कि उसके खिलाफ फौजी कार्रवाई फौरन जरूरी है। फौजी मदद की माँग करने के साथ-साथ उसने एक तोप भी माँगी। उसने लिखा - चूँकि ये लोग तोप के परिणाम से बहुत ही ज्यादा डरते हैं, इसलिए अगर एक भी भेज दी जाय तो उससे बड़ा काम निकलेगा।

तोप भेजी गयी या नहीं, यह हम नहीं जानते, लेकिन कंपनी की सेना की हालत के बदतर होने और विद्रोहियों के काफी शक्तिशाली होने के प्रमाण हम अवश्य पाते हैं। अंग्रेज सेनाध्यक्ष स्वीकार करता है कि विद्रोही उसके सिपाहियों से कम बहादुर नहीं। वह उनके मुकाबले में अपनी फौजी टुकड़ी की कमजोरी भी स्वीकार करता है। हार मान कर आखिर में 1777 ई0 में अंग्रेज शासकों को जगन्नाथ धल को धलभूमि का राजा मानना पड़ा।

इस तरह सामंती नेतृत्व में हुए किसानों के इस विद्रोह ने आंशिक सफलता प्राप्त की। अंग्रेज साम्राज्यवादियों को थक हारकर विद्रोहियों के साथ समझौता करना पड़ा और उनके नेता को राजा स्वीकार करना पड़ा।


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