window.location = "http://www.yoururl.com"; Aurangzeb : Rajpoot Policy | औरंगज़ेब की राजपूत नीति

Aurangzeb : Rajpoot Policy | औरंगज़ेब की राजपूत नीति

Introduction (विषय-प्रवेश)

औरंगजेब ने अकबर द्वारा प्रारंभ की गई तथा जहॉगीर व शाहजहॉ द्वारा अनुसरण की गई राजपूत नीति में परिवर्तन कर दिया। औरंगजेब की धार्मिक नीति असहिष्णुता और कट्टरता पर आधारित थी और वह राजपूतों को अपनी धार्मिक नीति के व्यवहारिक प्रयोग में सबसे बडी बाधा मानता था। राजपूतों की शक्ति को नष्ट किये बिना औरंगजेब की धार्मिक नीति भारत में सफल हो ही नही सकती थी और यदि वह सफल हो भी जाती तो स्थायी नही हो सकती थी। इस कारण औरंगजेब का लक्ष्य राजपूतों की स्वतंत्र सत्ता को विनष्ट करना बन गया था।
उत्तराधिकार के युद्ध में राजपूतों ने दाराशिकोह का साथ दिया था और औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध किया था। जब तक औरंगजेब की स्थिति सुदृढ़ नहीं हो सकी, तब तक तो उसने राजा जयसिंह और राजा जसवन्त सिंह के साथ अच्छा व्यवहार किया तथा उनको उच्च पदों पर आसीन रखा। किन्तु वह हृदय से उनको घृणा एवं सन्देह की दृष्टि से देखता था और किसी भी प्रकार उनकी उन्नति नहीं चाहता था। इसलिए उसने इनको सदैव राजधानी से दूर रखने का प्रयत्न किया। अपनी स्थिति सुदृढ़ होने पर औरंगजेब ने राजा जयसिंह को, जो उसकी नीति का कट्टर विरोधी था, दक्षिण में विष दिलवाकर मरवा दिया। उसकी मृत्यु से उसका एक बहुत बड़ा विरोधी इस संसार से चला गया। औरंगजेब और राजपूतों के सम्बन्धों में कटुता जसवन्त सिंह की मृत्यु के बाद मारवाड को मुगल साम्राज्य में मिलाने की उसकी अदूरदर्शी नीति के परिणामस्वरुप प्रारंभ हुई।

मारवाड़ से संघर्ष-

20 दिसम्बर 1678 ई0 को मुगल साम्राज्य के प्रमुख हिन्दू सामन्त मारवाड नरेश महाराजा जसवन्त सिंह की मृत्यु हो गई लेकिन उनके कोई सन्तान न होने के कारण मारवाड़ की राजगद्दी के लिए उत्तराधिकार का संघर्ष आरम्भ हो गया। मुगलों के लिए मारवाड़ का बड़ा महत्त्व था। अतः औरंगजेब ने मारवाड़ को मुगल साम्राज्य के अधीन करके वहाँ शाही अधिकारियों की नियुक्ति कर दीं। लेकिन मारवाड़ के राजपूतों ने मुगल सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, जिसके दमन के लिए बादशाह ने स्वयं अजमेर के लिए प्रस्थान किया और विरोधियों का सफलतापूर्वक दमन करने के पश्चात् 12 अप्रैल 1679 ई0 को दिल्ली लौट आया और उसी दिन हिन्दूओं पर पुनः जजिया लगाने का आदेश जारी कर दिया गया। लेकिन दिल्ली लौटने पर बादशाह को समाचार मिला कि जसवन्त सिंह की दो विधवा रानियों ने दो पुत्रों को जन्म दिया है, जिसमें एक की मृत्यु जन्म के कुछ समय बाद ही हो गई और दूसरा बडा होकर महाराजा अजित सिंह के नाम से प्रसिद्ध हुआ। औरंगजेब ने तुरन्त रानियों को पुत्र सहित राजधानी आने का आदेश दिया। राजपूतों ने औरंगजेब से जसवन्त सिंह के द्वितीय पुत्र अजीत सिंह को मारवाड़ का राजा स्वीकार करने की प्रार्थना की। लेकिन उसने राजपूतों की प्रार्थना पर ध्यान नहीं दिया और रानियों तथा अजीत सिंह को बन्दी बनाने का षड्यन्त्र रचा। औरंगजेब ने इस शर्त पर जोधपुर की रियासत अजित सिंह को देने के लिए राजी हुआ कि वह इस्लाम धर्म स्वीकार कर ले। दुर्गादास के नेतृत्व में राठौर राजपूतों के लिए यह बडा अपमान था और राजपूतों ने इसका कडा विरोध किया। इस समय दुर्गादास राठौर ने अपने अदम्य साहस के बल पर रानियों को राजकुमार सहित जोधपुर भिजवा दिया और मुगलों से युद्ध करना प्रारम्भ कर दिया। उसकी राजभक्ति ने उसका नाम अमर कर दिया। इधर मारवाड़ में अराजकता का दौर प्रारम्भ हो गया। 25 दिसम्बर, 1679 को औरंगजेब ने पुनः मारवाड़ पहुँचकर अपना शिविर स्थापित किया। शहजादा अकबर तथा तहब्बर खाँ के नेतृत्व में शाही सेना ने राजपूतों का दमन किया, लेकिन राजपूत राठौरों ने भी वीरतापूर्वक शाही सेना का सामना किया। अन्त में राजपूत पराजित हुए और मारवाड़ मुगल सत्ता के अधीन आ गया। लेकिन मारवाड़ के राजपूत पराजित होकर भी निराश नहीं हुए और उन्होंने मेवाड़ के सिसौदिया राजवंश से सहायता माँगी। 1679 से 1709 ई0 तक मारवाड़ के राजपूतों एवं मुगलों के मध्य संघर्ष चलता रहा और भारतीय इतिहास में इसे तीस वर्षीय युद्ध के नाम से जानते है। इस तीस वर्षीय युद्ध का नायक राठौर सेनापति दुर्गादास था जिसे कर्नल टाड ने ‘‘राठौरों का यूलिसीज‘‘ कहा है और राजपूत उसकी वीरता के कारण आज भी कहते है – ‘‘हे मॉ, पूत ऐसा जन जैसा दुर्गादास।‘‘ अन्त में 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु का समाचार पाते ही अजीत सिंह ने मारवाड़ में प्रवेश किया तथा जफर कुली नामक शाही फौजदार को निष्कासित कर पुनः मारवाड़ पर अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली। औरंगजेब के उत्तराधिकारी बहादुरशाह ने 1709 ई. में अजीत सिंह को मारवाड़ का राजा स्वीकार कर लिया, जिससे मुगलों और राठौरों के युद्ध का अन्त हुआ।

मेवाड़ से संघर्ष –

जब मुगलों ने मारवाड़ पर अधिकार कर लिया, तो मेवाड़ का राणा राजसिंह आतंकित हो उठा। वस्तुतः मेवाड का राजा राजसिंह जो औरंगजेब की धार्मिक नीति से असंतुष्ट था और जिससे जजिया कर मॉगा गया था। इसी वंश की राजमुमारी अजित सिंह की मॉ थी अतः स्वयं युद्ध के खतरे को भॉपकर उसने मारवाड़ के राठौरों से मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाकर मेवाड़ में सैनिक तैयारियाँ आरम्भ कर दीं। ऐसी परिस्थितियों में 30 दिसम्बर, 1679 ई0 को औरंगजेब ने अजमेर से मेवाड़ के लिए प्रस्थान किया और देबारी, उदयपुर व चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। औरंगजेब शाही सेना का नेतृत्व शहजादा अकबर को सौंपकर मार्च, 1680 में अजमेर लौट आया। इस समय राजपूतों ने छापामार नीति की शरण ली और मुगलों की सेना को तंग करना प्रारम्भ कर दिया। राणा के पुत्र कुंवर सिंह ने गुजरात पर आक्रमण करके कई स्थानों पर खूब लूटपाट की। औरंगजेब के आदेशानुसार शाही सेना ने मेवाड़ को घेर लिया किन्तु इसी समय शहजादा अकबर ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और वह राजपूतों की सेना का नेतृत्व करते हुए अजमेर को प्रस्थान करने की तैयारियाँ करने लगा। लेकिन 22, अक्टूबर, 1680 को राणा राजसिंह की मृत्यु हो गई और उसके स्थान पर राणा जयसिंह मेवाड़ के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। शहजादा अकबर की विद्रोही भावना के कारण औरंगजेब ने राजपूतों से सन्धि करना ही अपने लिए श्रेयस्कर समझा।
इस प्रकार औरंगजेब न तो मेवाड को जीत सका और न ही मारवाड पर अपनी सत्ता को स्थापित रख सका। मुगलों की राजपूत नीति जो अकबर के समय से अपनाई गई थी उसे औरंगजेब ने अपने धार्मिक जिद और अहंकार के कारण बदल दिया जो मुगल साम्राज्य के लिए नुकसानदायक साबित हुई। वे राजपूत जो अकबर के समय से ही मुगल साम्राज्य के प्रति वफादार हो गये थे, जिन्होने मुगल साम्राज्य के विस्तार के लिए और उसकी शक्ति को भारत में सुदृढता प्रदान करने के लिए योगदान दिया था, मुगल सम्राट से असन्तुष्ट हो गये और औरंगजेब को एक कडा विरोध सहना पडा। इससे औरंगजेब के शत्रुओं की संख्या में वृद्धि हुई, अन्य विद्रोहों को प्रोत्साहन मिला और इस प्रकार राजपूतों की योग्यता का प्रयोग मुगल साम्राज्य के हित में नही किया जा सका। स्पष्ट है औरंगजेब की राजपूत नीति और उसका क्रियान्वयन मुगल साम्राज्य की दुर्बलता और पतन का एक प्रमुख कारण बना।

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