window.location = "http://www.yoururl.com"; Aurangzeb : People rebellion and struggle for regional independence | औरंगज़ेब: जनविद्रोह और क्षेत्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष

Aurangzeb : People rebellion and struggle for regional independence | औरंगज़ेब: जनविद्रोह और क्षेत्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष

Introduction (विषय-प्रवेश):

साम्राज्य के अंदर औरंगज़ेब को अनेक दुरूह राजनीतिक समस्याओं का सामना करना पडा, जैसे दक्कन में मराठों की, उत्तर भारत में जाटों और राजपूतों की तथा पश्चिम में अफ़गानों और सिखों की समस्याओं का। इनमें से कुछ समस्याएँ नई नहीं थीं और औरंगजेब के पूर्वजों ने भी उनको झेला था पर औरंगजेब के काल में उनका एक भिन्न चरित्र उभर कर सामने आया। इन आंदोलनों की प्रकृति भी अलग-अलग थी। राजपूतों के सिलसिले में यह बुनियादी तौर पर उत्तराधिकार की समस्या थी। मराठों के सिलसिले में मुद्दा स्थानीय स्वतंत्रता का था। जाटों से टकराव की कृषि-संबंधी पृष्ठभूमि थी। सिक्ख आंदोलन वह अकेला आंदोलन था, जिसमें धर्म की शक्तिशाली भूमिका रही। कालांतर में सिख और जाट आंदोलन, दोनों का समापन स्वतंत्र राज्यों की स्थापना के साथ हुआ। अफ़गानों के संघर्ष का कबीलाई चरित्र था, पर उनमें एक अलग अफ़गान राज्य स्थापित करने की भावना भी काम कर रही थी। इस तरह आर्थिक और सामाजिक कारकों ने तथा क्षेत्रीय स्वतंत्रता की भावना ने, जो अभी भी मज़बूत थी, इन आंदोलनों की रूपरेखा तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। निस्संदेह इन विद्रोहों और आन्दोलनों में धर्म की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही।
कभी-कभी तर्क दिया जाता है कि एक अफ़गान आंदोलन को छोड़ ये सभी आंदोलन औरंगजेब की संकीर्ण धार्मिक नीतियों के खिलाफ़ हिंदू प्रतिक्रिया के सूचक थे। जिस देश में जनता का विशाल भाग हिंदुओं का हो वहाँ मुख्यतः मुस्लिम केंद्र सरकार से टकराने वाले किसी भी आंदोलन को इस्लाम विरोधी करार दिया जा सकता था। इसी तरह अपनी बात का प्रभाव बढ़ाने के लिए इन ’विद्रोही’ आंदोलनों के नेता धार्मिक नारों या प्रतीकों का प्रयोग कर सकते थे। इसलिए धर्म को एक व्यापकतर आंदोलन का अंग माना जाना चाहिए। भारत को एक मुसलमानी देश बनाने की औरंगजेब की नीति का राजस्थान, मालवा, बुन्देलखण्ड आदि अनेक स्थानों पर विरोध हुआ।
औरंगजेब के शासनकाल के प्रथम चरण में ही साम्राज्य में कुछ विद्रोह भी हुए परन्तु उन्हे सहज ही दबा दिया गया। बुन्देलखण्ड के चम्पतराय तथा उनके पूर्वजों के साथ ओरछा में अन्याय किये जाने के कारण उसने विद्रोह का झण्डा खडा कर दिया। परन्तु 1661 ई0 में उसे आत्मसमर्पण करना पडा। काठियावाड में नावानगर के रायसिंह ने 1663 ई0 में विद्रोह कर दिया परन्तु उन्हे भी आत्मसमर्पण करना पडा। बीकानेर नरेश करणसिंह ने खुल्लमखुल्ला औरंगजेब का विरोध किया, परन्तु बाद में क्षमायाचना करने पर उन्हे क्षमा कर दिया गया। मथुरा तथा आगरे के जिलों में जाटों और पंजाब में सिक्खों ने भीषण विद्रोह खडा कर दिया जो काफी समय तक चला। संक्षेप में औरंगजेब के शासनकाल के कुछ प्रमुख विद्रोहों का विवरण निम्न है –

जाटों का विद्रोह, 1668 – 1689 ई0

मुगल शासन के साथ सबसे पहले टकराने वाला समूह आगरा-दिल्ली क्षेत्र के जाटों का था जो यमुना नदी के दोनों तरफ आबाद थे। जाट मुख्यतः कृषक थे, उनमें थोड़े से ही जमींदार थे। भाईचारे और इंसाफ की भावना से ओत-प्रोत इन जाटों ने अक्सर सरकार से टक्कर ली थी, और अपने दुर्गम क्षेत्र का लाभ उठाकर विद्रोह किए थे। औरंगजेब की उत्पीडन नीति के विरुद्ध संगठित प्रथम हिन्दू विद्रोह मथुरा जिले में हुआ जहॉ पर वीर जाटों ने अपने नेता गोकुल की अध्यक्षता में 1669 ई0 में स्थानीय प्रान्तीय अधिकारी अब्दुल नबी को मार डाला क्योंकि उनकी दृष्टि में वह सम्राट की आज्ञानुसार मन्दिरों और मूर्तियों को नष्ट-भ्रष्ट कर रहा था। इस मुगल अधिकारी ने मथुरा शहर के बीच में हिन्दू मन्दिरों को तोडकर उसके स्थान पर एक मस्जिद खडी कर दी थी। जाटों का यह भी आरोप था कि यह अधिकारी हिन्दू कन्याओं का बलपूर्वक अपहरण किया करता था। जाटों ने उसे मारकर सादाबाद के परगने को खूब लूटा। क्षेत्र के किसानों में यह विद्रोह बहुत तेजी से फेल गया और उसे कुचलने के लिए औरंगजेब ने स्वयं कूच करने का निर्णय किया। अनेक मुगल फौजी टुकडियों से मोर्चा लेने के बाद तिलपत नामक स्थान पर भयंकर युद्ध हुआ। हालॉकि जाट विद्रोहियों की संख्या लगभग बीस हजार के आसपास थी पर वे संगठित मुगल सेना का मुकाबला नही कर सके और एक तीखी लडाई में जाटों की पराजय हुई। जाटों का सरदार गोकुल अपने परिवार सहित कैद करके लाया गया और औरंगजेब के आदेश पर उसके अंगों के टुकड-टुकडे कर डाले गये और उसके परिवार को जबर्दस्ती मुसलमान बना लिया गया।
गोकुल की मृत्यु के बाद भी विद्रोह चलता रहा और असन्तोष सुलगता रहा। 1686 ई0 में राजाराम के नेतृत्व में जाटों ने एक और विद्रोह किया। इस बार जाटों का संगठन बेहतर था और उन्होने छापामार युद्ध की नीति अपनाई और साथ में लूटपाट भी की। मुगल सेनानायक को मार डालने और मुगल सामन्त मीर इब्राहीम को लूट लेने के कारण राजाराम की प्रसिद्धि काफी बढ गई। राजाराम ने सिकन्दरे में अकबर के मकबरे तक को लूटा और न केवल इमारत को काफी हानि पहुॅचाई अपितु जैसा कि मनूची कहता है कि उसने महान सम्राट अकबर की हड्डियां को खोदकर उन्हे जला भी दिया। ऐसी स्थिति में औरंगजेब ने कछवाहा शासक विशनसिंह से सम्पर्क किया और उसे जाटों का दमन करने के लिए भेजा। अन्ततः जुलाई 1688 ई0 में एक भयंकर युद्ध में राजाराम परास्त हुआ और मारा गया। राजाराम के बाद उसके भतीजे और उत्तराधिकारी चूडामन ने जाटों का नेतृत्व सॅभाला और औरंगजेब की मृत्यु तक विद्रोह जारी रखा। आगे चलकर चूडामन ने एक शक्तिशाली सेना तैयार कर ली और वर्तमान भरतपुर के राजपरिवार की स्थापना की और जमींदारों को बाहर निकाल फेंका। इस प्रकार जिस आन्दोलन का आरंभ एक किसान विद्रोह के रुप में हुआ था, उसके चरित्र में परिवर्तन हो गया और उसका समापन एक ऐसे राज्य की स्थापना के साथ हुआ जो मुगल साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण हो गया।

सतनामियों का विद्रोह –

औरंगजेब के शासनकाल का दूसरा महत्वपूर्ण विद्रोह मेवात और नारनौल जिलों में सतनामियों का विद्रोह था। सतनामी कृषकों का एक ऐसा धार्मिक वर्ग था जो एकेश्वरवाद में विश्वास रखता था। वे अपना सिर, चेहरा तथा भौहें तक मुडवाते थे इसलिए इन्हे मुण्डिया भी कहते थे। सतनामी अधिकतर किसान, दस्तकार और निम्न जातियों के लोग थे और वे एक सख्त आचरण का पालन करते थे। टकराव एक सतनामी किसान और लगान वसूल करने वाले एक स्थानीय मुगल अधिकारी के साथ प्रारंभ हुआ और वह जल्द ही धार्मिक विद्रोह में परिवर्तित हो गया। शीध्र ही यह अफवाह भी फैल गई कि एक वृद्ध जादूगरनी ने सतनामियों को गोली के लिए अभेद्य बना दिया है। इस अफवाह से इस विद्रोह को और अधिक बल मिला और मुगल सेना पर अनेक विजय प्राप्त कर लेने से उन लोगों का यह विश्वास और भी पक्का हो गया। विवश होकर औरंगजेब को रदन्दाज खॉ के नेतृत्व में तोपखाने से सुसज्जित एक सेना भेजनी पडी। सतनामियों के जादू-टोने से बचने के लिए मुगल सैनिकों ने कागजों पर जादू-टोने के मंत्रों को लिखकर सेना के झण्डों में बॉध दिया। इस संघर्ष में सतनामी बहुत साहस से लडे लेकिन परास्त हुए और लगभग 2000 सतनामी लडते हुए मारे गये। शेष ने मुगल सेना के सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया।

सिक्खों का विद्रोह –

हालॉकि जहॉगीर और शाहजहॉ के शासनकाल से ही सिक्खों और मुगलों के बीच टकराव की परिपाटी प्रारंभ हो चुकी थी लेकिन सिक्खों और औरंगजेब के बीच 1675 ई0 तक कोई टकराव नही हुआ था। औरंगजेब की धार्मिक उत्पीडन नीति के फलास्वरुप सिक्खों ने उत्तेजित होकर विद्रोह का झण्डा खडा कर दिया। वास्तव में सिक्ख संप्रदाय 16वी ंशताब्दी के आरंभ काल में गुरू नानक द्वारा प्रतिष्ठापित किया गया था। उनके प्रथम तीन उत्तराधिकारी उन्ही के पदचिन्हों पर चले परन्तु चौथे गुरू रामदास ने सर्वप्रथम आत्मिक तथा सांसारिक प्रभुत्व प्राप्त करने का अपना लक्ष्य बनाया। 1581 ई0 में गद्दी पर बैठे गुरू अर्जुनदेव ने गुरूग्रन्थ साहब का सम्पादन किया, अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर बनाया और सिक्खों को एक ठोस सम्प्रदाय में संगठित किया। गुरू अर्जुनदेव ने ही विद्रोही खुसरों को आशीर्वाद दिया था जिसके फलस्वरुप जहॉगीर ने उसे कैद कर लिया और 1606 ई0 में यातना देकर मार डाला। अर्जुनदेव के पुत्र हरगोविन्द ने सैनिक शिक्षा प्राप्त की और शिकार के शाही स्थल को हथिया लेने व सम्राट द्वारा भेजी गयी सेना को परास्त कर देने के कारण उसे शाहजहॉ से टक्कर लेनी पडी। इसके बाद हरराय और हरकृष्ण गुरू बने। इसके बाद गुरू तेगबहादुर गुरू बने जिन्होने अपना निवास स्थान आनन्दपुर बनाया। तेगबहादुर बाकसाद-ए-बाबा के नाम से भी जाने जाते थे। इस समय के मुगल सम्राट औरंगजेब ने सिक्खों के गुरूद्वारों को नष्ट करने की आज्ञा दी जिसका विरोध गुरू तेगबहादुर ने खुलकर किया। इसी कारण उन्हे कैद कर दिल्ली लाया गया और उन्हे इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए कहा गया। गुरू तेगबहादुर के इन्कार करने पर पॉच दिनों तक घोर यातना देने के बाद दिसम्बर 1675 ई0 में उनका सर कलम कर दिया गया।
औरंगजेब की यह कार्यवाही हर तरह से अनुचित थी और एक संकीर्ण दृष्टिकोण का परिचायक थी। गुरू तेगबहादुर की मृत्यु ने सिक्खों को पंजाब की पहाडियों में वापस जाने के लिए मजबूर कर दिया और इस नीति के कारण सिक्खों और मुसलमानों में एक असंधेय विश्वास को भंग कर दिया। इससे तंग आकर तेगबहादुर के पुत्र गुरू गोविन्दसिंह को अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए बाध्य होना पडा। उन्होने सिक्खों को सैनिक सम्प्रदाय में परिवर्तित करते हुए उसका नाम ‘‘खालसा‘‘ रख दिया। खालसा लोगों को साधारण जनता से भिन्न बस्त्र धारण करने पडते थे और अपने साथ ‘क‘ से शुरू होने वाले पॉच चीजें – केश, कृपाण, कच्छ, कडा और कंघी- रखनी पडती थी। गुरू गोविन्दसिंह के नेतृत्व में खालसा लोगों ने धर्मान्धता का जबाब धर्मान्धता से देने की नीति का अनुसरण किया।
उत्तरी पंजाब में गुरू गोविन्दसिंह को उन मुसलमान अफसरों तथा हिन्दू नरेशों से भी लडना पडा जिन्हे औरंगजेब ने सिक्खों का दमन करने के लिए भेजी गई मुगल सेना का सहयोग करने का आदेश दिया था। अनेक अवसरों पर खालसा सैनिकों ने उन्हे परास्त किया लेकिन आनन्दपुर में उनके घर का लम्बे समय तक घेरा डालने पर उन्हे विवश होकर भागना पडा। मुगल सैनिकों ने उनका पीछा किया और अन्त में दक्षिण में हुए एक युद्ध में उनके दो पुत्र पकड लिये गये और इस्लाम स्वीकार करने से इन्कार करने पर सरहिन्द में उनका वध कर दिया गया। लगभग 1705 ई0 में एक और यु़द्ध में उनके दो और पुत्र भी मार डाले गये। इसी बीच औरंगजेब की मृत्यु का समाचार पाकर गुरू गोविन्दसिंह पुनः उत्तरी भारत आ पहुॅचे और पुनः एक बार उन्होने मुगलों के खिलाफ मोर्चा लिया। गोदावरी नदी के किनारे बांदेर में जब ये लोग डेरा डाले हुए थे तो एक अफगान अनुयायी ने 1708 ई0 में छुरा भोंककर उनकी हत्या कर दी। गुरू गोविन्दसिंह सिक्खों के दसवें और अन्तिम गुरू माने जाते है क्योंकि अपनी मृत्यु से थोडे समय पहले ही उन्होने गुरू की प्रथा को समाप्त कर दिया था।
गुरू गोविन्दसिंह ने लम्बे समय तक मुगलों की शक्ति का सामना किया। उन्होने एक अलग सिक्ख राज्य की नींव रख दी और खालसा ने आगे चलकर उनकी सिद्धि का एक साधन भी तैयार कर लिया। इससे यह पता चलता है कि एक समतावादी धार्मिक आन्दोलन कुछ विशेष परिस्थितियों में किस प्रकार एक राजनीतिक और सैन्य आन्दोलन में बदल सकता था और सूक्ष्म ढंग से क्षेत्रीय स्वाधीनता की ओर बढ सकता था।

औरंगजेब और पूर्वी क्षेत्र के साथ संघर्ष –

भारत के पूर्वात्तर क्षेत्र में असम और कामरुप दो महत्वपूर्ण राज्य थें। कालान्तर में कामरुप राज्य का स्थान कूचबिहार ने ले लिया। असम पर अहोम शक्ति का अभ्युदय हो चुका था। बंगाल के अफगान शासकों और अहोमों के बीच लम्बे समय से टकराव होता रहता था। बाद में शाहजहॉ के शासनकाल में गुवाहाटी पर मुगलों का नियंत्रण हो गया। औरंगजेब के शासनकाल में मुगलों और अहोमों के बीच एक लंबा युद्ध चला। इसका आरंभ गुवाहाटी और आसपास के क्षेत्रों से मुगलों को निकालने के लिए अहोमों के प्रयास से हुआ ताकि असम पर उनका पूरा-पूरा नियंत्रण स्थापित हो। मीर जुमला जिसे औरंगजे़ब ने बंगाल का सूबेदार नियक्त किया था, कूचबिहार और पूरे असम को मुगल शासन के अंतर्गत लाकर अपनी पहचान बनाना चाहता था। उसने पहले कूचबिहार पर हमला किया जिसने मुगलों की अधिराजी से अपने को मुक्त कर लिया था और उसने इस पूरे राज्य को मुगल साम्राज्य में मिला लिया। फिर उसने अहोम राज्य पर हमला किया। मीर जुमला ने अहोमों की राजधानी गढ़गाँव पर अधिकार कर लिया और 6 माह तक अधिकार बनाए रखा। फिर वह आगे बढ़ता हुआ अहोम राज्य की अंतिम सीमा तक चला गया और अंततः उसने 1669 में अहोम राज्य को एक अपमानजनक संधि के लिए बाध्य कर दिया। राजा को अपनी बेटी मुगल हरम में भेजनी पड़ी, भारी हर्जाना देना पड़ा और 20 हाथियों का सालाना खिराज देना पडा। मुगलों की सीमा अब बाड नदी से आगे बढकर भराली नदी तक जा पहुॅची।
अपनी शानदार विजय के कुछ ही समय बाद मीर जुमला चल बसा। परिणामस्वरुप अहोमों ने दोबारा संघर्ष शुरू कर दिया। उन्होंने मुगलों को दिए गए क्षेत्रों को ही वापस नहीं लिया बल्कि गुवाहाटी पर भी कब्जा कर लिया। इस तरह मीर जुमला की उपलब्धियाँ जल्द ही हाथ से जाती रहीं। उसके बाद अहोमों के साथ डेढ दशक तक एक लंबा, बेसिर-पैर का युद्ध चला। एक लंबे समय तक मुगल सेना की कमान आमेर के राजा रामसिंह ने संभाली लेकिन इस काम के लिए उनके पास आवश्यक संसाधन नहीं थे, क्योंकि मीर जुमला की तरह वह बंगाल का सूबेदार नहीं था। अंततः मुगलों को गुवाहाटी तक से हाथ धोना पड़ा। असम की घटनाओं ने दूर-दराज के क्षेत्रों में मुगल सत्ता की सीमाओं को तथा अहोमों के कौशल और संकल्प को भी स्पष्ट कर दिया जो जमकर लड़ने से बचने थे और छापामार युद्ध की पद्धति अपनाते थे। दूसरे क्षेत्रों में भी मुगलों के विरोधियों ने ऐसी ही कार्यनीतियाँ अपनाई और ऐसी ही सफलता पाई।
मुगलों को दूसरे स्थानों पर अधिक सफलता मिली। शिवाजी के हाथों मात खानेवाले शाइस्ता खान को मीर जुमला की जगह बंगाल का सूबेदार बनाया गया। वह एक अच्छा प्रशासक और योग्य सेनापति साबित हुआ। पहले उसने कूचबिहार के शासक के साथ एक समझौता किया फिर उसने दक्षिण बंगाल की समस्या पर ध्यान दिया, जहाँ चटगाँव को मुख्यालय बनाए बैठे अराकानी लुटेरे ढाका तक के क्षेत्र में आंतक फैलाए हुए थे। ढाका तक का क्षेत्र वीरान हो चुका था तथा व्यापार आरै उद्योग को धक्का लगा था। शाइस्ता खान ने अरकानी लुटेरों का सामना करने के लिए एक नौसेना बनाई तथा चटगाँव के खिलाफ कार्रवाई का एक आधार बनाने के लिए सोनदीप नामक द्वीप पर अधिकार कर लिया। फिर उसने धन और अनुग्रहों का लालच देकर पुर्तगाली फिरंगियों को अपनी ओर किया। चटगाँव के पास अराकानी नौसेना तबाह कर दी गई और उनके अनेक जहाज़ पकड़े गए। फिर 1666 के आरंभ में चटगाँव पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया गया। इस प्रकार पूर्वी और पूर्वोत्तर क्षेत्र में कुद हद तक अपनी प्रतिष्ठा बचाने में औरंगजेब के नेतृत्व में मुगल सफल रहे।

अफगानों के साथ टकराव –

औरंगजेब का अफ़गानों से भी टकराव हुआ। पंजाब और काबुल के बीच पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले अफ़गान कबाइलियों से भिड़त कोई नई बात नहीं थी। अफगानों से अकबर को भी लड़ना पड़ा और इन्हीं लड़ाइयों के दौरान उसने अपने गहरे मित्र और विश्वासपात्र राजा बीरबल को खो दिया। अफ़गान कबाइलियों से टकराव शाहजहाँ के काल में भी हुआ था। ये टकराव अंशतः आर्थिक और अंशतः राजनीतिक व धार्मिक थे। ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों में जीविका का कोई विशेष साधन न होने के कारण अफ़गानों के पास कारवाँओं को लूटने या मुगल सेना में भरती होने के अलावा कोई विकल्प न था। उनके तीव्र स्वतंत्रता-प्रेम के कारण मुगल सेना में नौकरी करना उनके लिए कठिन था।
औरंगज़ेब के काल में हम पठानों में एक नई हलचल देखते हैं। 1667 ई0 में यूसुफजई कबीले के नेता भागू ने मुहम्मदशाह नामक एक व्यक्ति को राजा घोषित किया जो एक प्राचीन राजवंश का वंशज होने का दावा करता था। भागू ने स्वयं को उसका वज़ीर घोषित किया। रौशनाई नामक एक धार्मिक पुनरुत्थानवादी आंदोलन ने, जो कठोर नैतिक जीवन और एक चुनिंदा पीर की मुरीदी पर जोर देता था, इस आंदोलन के लिए एक बौद्धिक और नैतिक पृष्ठभूमि का काम किया।
भागू का आंदोलन धीरे-धीरे बढता रहा, यहाँ तक कि उसके अनुयायी हज़ारा, अटक और पेशावर जिलों को तहस-नहस करने और लूटने लगे। उन्होंने खैबर के रास्ते होने वाले यातायात को भी ठप कर दिया। खैबर का रास्ता साफ़ करने और विद्रोह को कुचलने के लिए औरंगजेब ने मुख्य बख्शी अमीर खान के नेतृत्व में एक राजपूत दस्ता भेजा। एक के बाद एक तीखी लड़ाइयों के बाद अफगानों का प्रतिरोध बिखर गया लेकिन उन पर निगरानी रखने के लिए मारवाड़ के शासक महाराज जसवंत सिंह को 1671 ई0 में उस क्षेत्र का थानेदार बना दिया गया।
1672 ई0 में दूसरा अफगान विद्रोह हुआ और इस बार प्रतिरोध का नेतृत्व अकमल खॉन ने किया जिसने स्वयं का शाह घोषित करते हुए अपने नाम का खुतबा पढवाया और अपने नाम के सिक्के चलाए। उसने मुगलों के खिलाफ जंग का एलान करते हुए समस्त अफगानों को साथ देने का आह्वान किया। अन्ततः अमीर खान के नेतृत्व में मुगलों ने हमला किया और उसे जानलेवा हार का सामना करना पडा। इस बार लगभग दस हजार अफगानी मारे गये लेकिन अकमल खान बच निकलने में सफल रहा। 1674 ई0 में खैबर दर्रे में एक बार और मुगलों और अफगानों की भिडन्त हुई। इस बार औरंगजेब स्वयं पेशावर आया और बल व कूटनीति के सहारे अफगानों का संयुक्त मोर्चा तोडा गया।
अफगानों के साथ हुए मुगलों के संघर्ष में मुगलां का बहुत धन व्यय हुआ। धन और जन की हानि के साथ-साथ मुगल सम्राट औरंगजेब इस विद्रोह के कारण मराठों की ओर पूरा ध्यान न दे सका परिणामस्वरुप मराठा क्षत्रप शिवाजी ने इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाया और कर्नाटक पर विजय प्राप्त कर ली।

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